आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।38।।

 

असफलता से कहीं हो छिन्न आत्म विश्वास

ब्रम्ह प्राप्ति के मार्ग पर पाता नहीं विनाश।।38।।

 

भावार्थ :  हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?।।38।।

 

Fallen from both, does he not perish like a rent cloud, supportless, O mighty-armed (Krishna), deluded on the path of Brahman? ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – घटना नयी : कहानी वही ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – घटना नयी : कहानी वही

 

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता हूँ।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जानबूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेश  में थे। मुझे वेश और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4:57 बजे, 16.10.2019)

( एक पौराणिक कथासूत्र पर आधारित। अज्ञात लेखक के प्रति नमन के साथ।)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।।37।।

 

अर्जुन ने कहा-

श्रद्धा रखते,यत्न कम चंचल मन का व्यक्ति

योग सिद्धि न हुई तो पाता है क्या गति ।।37।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।।37।।

 

He who is unable to control himself though he has the faith, and whose mind wanders away from Yoga, what end does he meet, having failed to attain perfection in Yoga, O Krishna? ।।37।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – भाग्यं फलति सर्वत्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – भाग्यं फलति सर्वत्र

 

“कर्म मैं करता हूँ, श्रेय तुम्हें मिलता है। आख़िर भाग्य के स्वामी हो न”, श्रम ने शिकायती लहज़े में कहा। प्रारब्ध मुस्कराया, बोला, ” भाग्य के स्वामी का भी अपना भाग्य होता है जो वांछित-अवांछित सब अपने माथे ढोता है।”

हाथ पकड़कर प्रारब्ध, श्रम को वहाँ ले आया जहाँ आलीशान बंगला और फटेहाल झोपड़ी विपरीत ध्रुवों की तरह आमने-सामने खड़े थे। दोनों में एक-एक जोड़ा रहता था। झोपड़ीवाला जोड़ा रोटी को मोहताज़ था, बंगलेवाले के यहाँ ऐश्वर्य का राज था।

ध्रुवीय विपरीतता का एक लक्षणीय पहलू और था। झोपड़ी को संतोष, सहयोग और शांति का वरदान था। बंगला राग, द्वेष और कलह से अभिशप्त और हैरान था।

झोपड़ीवाले जोड़े ने कमर कसी। कठोर परिश्रम को अस्त्र बनाया। लक्ष्य स्पष्ट था, आलीशान होना। कदम और लक्ष्य के बीच अंतर घटता गया। उधर बंगलेवाला जोड़ा लक्ष्यहीन था। कदम ठिठके रहे। अभिशाप बढ़ता गया।

काल चलता गया, समय भी बदलता गया। अब बंगला फटेहाल है, झोपड़ी आलीशान है।

झोपड़ी और बंगले का इतिहास जाननेवाले एक बुजुर्ग ने कहा, “अपना-अपना प्रारब्ध है।” फीकी हँसी के साथ प्रारब्ध ने श्रम को देखा। श्रम ने सहानुभूति से गरदन हिलाई।

आजका दिन संकल्पवान हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 1: 38 बजे, 13.10.2019)

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

 ( मन के निग्रह का विषय )

 

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।।36।।

 

जो है संयम हीन नर योग उन्हे दुष्प्राप्त

जो नर होते संयमी उन्हें न कुछ अप्राप्य।।36।।

 

भावार्थ :  जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है।।36।।

 

I think  that  Yoga  is  hard  to  be  attained  by  one  of  uncontrolled  self,  but  the self-controlled and striving one attains to it by the (proper) means. ।।36।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि –मानस प्रश्नोत्तरी – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मानस प्रश्नोत्तरी

*प्रश्न*- श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।
*प्रश्न*- मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।
*प्रश्न*- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- परकाया प्रवेश आना चाहिए।
*प्रश्न*- परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- अद्वैत भाव जगाना चाहिए।
*प्रश्न*- अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।
*प्रश्न*- ‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।
*प्रश्न*- सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

 ( मन के निग्रह का विषय )

 

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।35।।

 

भगवान ने कहा-

निश्चय ही मन है बड़ा चंचल औ” अग्राहय

पर अर्जुन अभ्यास से होता वह भी ग्राहय।।35।।

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) और वैराग्य से वश में होता है ।।35।।

 

Undoubtedly, O mighty-armed Arjuna, the mind is difficult to control and restless; but,  by practice and by dispassion it may be restrained! ।।35।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्रोध – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – क्रोध

 

दोनों में बहस होने लगी थी। विवाद की तीक्ष्णता बढ़ती गई। आक्रोश में दोनों थे पर पहला मनुष्य था, दूसरा क्रोधी था। क्रोध, तर्क का पथ तज देता है, मर्म को चोट पहुँचाने की राह चलता है। इस राह के विनाशकारी मोड़ पर तिलमिलाहट टकराती है।

तिलमिलाहट में क्रोधी ने एक बड़ा पत्थर मनुष्य के सिर पर दे मारा। मनुष्य की मौत हो गई। क्रोधी को फाँसी चढ़ना पड़ा।

यश, संपदा, नेह, सम्बंध, अंतत: समूचे अस्तित्व की बलि ले लेता है क्रोध।

 

मनुष्यता बनी रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (34) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

 ( मन के निग्रह का विषय )

 

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ।।34।।

 

मन मथने वाला,बड़ा चंचल औ” बलवान

उसे पकड़ रखना कठिन लगता वायु समान।।34।।

 

भावार्थ :  क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ ।।34।।

 

The mind verily is restless, turbulent, strong and unyielding, O Krishna! I deem it as  difficult to control as to control the wind. ।।34।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अक्स – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – अक्स

कैसे चलती है कलम

कैसे रच लेते हो रोज?

खुद से अनजान हूँ

पता पूछता हूँ रोज,

भीतर खुदको हेरता हूँ

दर्पण देखता हूँ रोज,

बस अपने ही अक्स

यों ही लिखता हूँ रोज।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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