(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार वसंत आबाजी डहाके जी के 1996 में प्रकाशित मराठी काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का सद्य प्रकाशित एवं लोकार्पित काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का हिन्दी भावानुवाद डॉ प्रेरणा उबाळे जी द्वारा किया गया है। इस भावानुवाद को साहित्य जगत में भरपूर स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त हो रहा है। आज प्रस्तुत है ‘शुन:शेप’ डॉ प्रेरणा उबाळे जी का आत्मकथ्य।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘शुन:शेप’ – श्री वसंत आबाजी डहाके ☆ भावानुवाद – डॉ प्रेरणा उबाळे ☆
कविता : एक व्यास – ‘शुन:शेप’ के अनुवाद संदर्भ में – डॉ प्रेरणा उबाळे
विगत पचास वर्षों से मराठी साहित्य जगत संपूर्णत: ‘डहाकेमय’ दिखाई देता है l मराठी कविता, आलोचना, संपादन, आदि साहित्य क्षेत्रों में सहज विचरण करते हुए वसंत आबाजी डहाके जी ने अपना बेजोड़ स्थान बनाया है l जनप्रिय साहित्यकार, भाषाविद, कोशकार, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं का अनुवाद करने का सुअवसर मुझे ‘शुन:शेप’ कविता-संग्रह के माध्यम से मिला।
वस्तुत: उनके जन्मदिन पर अर्थात 30 मार्च 2020 को मैंने उनकी कुछ मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद कर उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान किया था l उस समय उन्होंने अपनी कुछ अन्य कविताएँ भी भेजी और मैंने जब उनका अनुवाद किया तब पहली कविताओं के अनुवाद के समान ये भी अनुवाद उन्हें पसंद आया l संयोग से ही मनोज पाठक, वर्णमुद्रा पब्लिशर्स, महाराष्ट्र की ओर से वसंत आबाजी डहाके जी के ‘शुन:शेप’ कवितासंग्रह के अनुवाद का प्रस्ताव आया और मैंने तुरंत उसे स्वीकार किया।
वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं को पढ़ने के बाद उनका भाव मन-मस्तिष्क में गूंजता रहता है। वस्तुत: ‘शुन:शेप’ मराठी कविता-संग्रह का प्रकाशन सन 1996 में हुआ है लेकिन कविताएँ पढ़ने पर मैंने यह अत्यंत तीव्रता से अनुभव किया कि सभी कविताएँ वर्तमान समय की परिस्थितियां, जीवन की समस्याएँ, विचार, भावनाएँ, मन की कोमलताएं, अनुभवों आदि को अभिव्यक्त करती हैं। आसपास की सामाजिक परिस्थितियाँ, उनका मनुष्य के मन- मस्तिष्क पर होनेवाला परिणाम, विचारों का जबरदस्त संघर्ष और द्वंद्वात्मकता को उद्घाटित करनेवाला यह कवितासंग्रह है। उदाहरण के लिए, ‘काला राजकुमार’ कविता की ये पंक्तियाँ-
“काले राजकुमार, तुम्हें सुकून नहीं है …शांति नहीं है
जख्मी कौवे के समान चोंच में ही तुम कराहना
मात्र
अश्र
उग्र
काला स्याह रंग”
‘शुन:शेप’ की कविताओं का अनुवाद करते समय डहाके जी की दार्शनिकता, चिंतनपरकता, काव्य-संवेदना, शैली को मैंने समझने का पूरा प्रयत्न किया है। मनुष्य में एक सहज प्रवृत्ति निहित होती है – मानवीय लोभ, बेईमानी, असत्य तथा नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करते हुए नर से नारायण बनने की। दूसरे शब्दों में, मनुष्य स्वाभाविक रूप में बुराइयों पर जीत, बर्बरता से ऊपर उठना चाहता है। डहाके जी की ये कविताएँ इसी सकारात्मकता के रास्ते की खोज करने के लिए हमें नई दृष्टि प्रदान करती है। अनुवाद में भी इस सोच को लाना मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा। जैसे –
“मैं प्रार्थना करता हूँ आकाश से गिर पड़नेवाली मुसलियों के लिए
घर-घर में छिपा भय
रास्तों के अकस्मात धोखे,
निगल लेनेवाले संदेह की गुफाएँ
मैं प्रार्थना करता हूँ सहनशीलता के निर्माण के लिए
शांति से रह पाए इसलिए ….”
कवि, आलोचक वसंत आबाजी डहाके जी के व्यक्तित्व में समाज के प्रति सहानुभूति और उसके साथ तादात्म्य, प्रबुद्धता, न्यायपरकता का अद्भुत संगम हुआ है जो उनकी काव्यात्मकता को अधिक प्रखर और धारदार बना देता है और कविताओं में प्रस्तुत सामाजिक विश्लेषण अधिक गहन, विशिष्ट अनुभवजन्य, व्यापक और सत्य तक ले जानेवाला सिद्ध होता है। परिवर्तन की अटूट आकांक्षा भी इस संग्रह की अनेक कविताओं में रेखांकित होती है। ‘चरैवेति चरैवेति’ के संदेश को प्रवाहित करनेवाली ये कविताएँ विभिन्न वर्तमान संदर्भों के साथ प्रस्तुत हुई हैं।
सत्ता, मौकापरस्ती, तानाशाही, सत्ताधारी पक्षों के द्वारा लिए गए निर्णय आदि के प्रति व्यंग्य रूप में क्षोभ अभिव्यक्त हुआ है, वह सटीक रूप में अनूदित करने की मेरी कोशिश रही है। राजनीतिक आशय की कविताओं में सच को टटोलने का प्रयास कवि ने किया है अत: अनुवादक के रूप में उतनी ही समतुल्यता लाना मेरी प्रतिबद्धता बन गई। जैसे – ‘कौए’ कविता। यह कविता विभिन्न कोणों से राजनीतिक निर्णय और उनसे निर्मित स्थितियों को प्रतीकात्मक रूप में अंकित करती है। इसके अनुवाद की कुछ पंक्तियाँ –
“लोग बोलते रहते हैं अविरत और एक भी शब्द अपना नहीं होता
गुलाम भूमि के लोग बोलते समय भी हमेशा दुविधा में रहते हैं। ….
……..
हम सबको इस कालकोठरी जैसी इमारत के अहाते में
क्यों बिठा लिया है उसे मालूम नहीं।
इस संग्रह में कुछ कविताएँ प्रेम तथा मनुष्य की कोमलताओं से संबंधित भी हैं। इन कविताओं के अनुवाद में उन कोमलताओं को उद्घाटित करने का प्रयास मैंने किया है। शब्दों के चयन में कुछ सतर्कता बरतते हुए अर्थ के निकट पहुँचने की भी मेरी कोशिश रही है।
अनुवाद पुन:सृजन की प्रक्रिया है और ‘शुन:शेप’ का अनुवाद करना मेरे लिए नवनिर्माण का आनंद प्रदान करनेवाला रहा, मानो लेखन का एक उत्सव।
मानवीय संवेदना, एहसासों को अभिव्यक्त करनेवाला विशाल परिधियुक्त यह संग्रह हिंदी और मराठी के पाठकों को निश्चय ही आकर्षित करेगा। ‘शुन:शेप’ के अनुवाद से पाठकों को निश्चय ही यह अनुभव होगा कि मूल कविता हो अथवा कविता का अनुवाद; उसका समय और व्यास कभी समाप्त नहीं होता; सच्चाई की प्रखरता और सगुणता उसे कालातीत बना देती है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है डा पूजा खरे जी के कथा संग्रह “उस सफर की धूप छांव” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 137 ☆
☆ “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति : उस सफर की धूप छांव
लेखिका : डा पूजा खरे
प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल
मूल्य: १५० रुपये
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
☆ सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
लाकडाउन अप्रत्याशित अभूतपूर्व घटना थी, सब हतप्रभ थे, किंकर्त्व्यविमूढ़ थे, कहते हैं यदि हिम्मत न हारें तो जब एक खिड़की बंद होती है तो कई दरवाजे खुल जाते हैं, लाकडाउन से जहां एक ओर रचनाकारो को समय मिला, वैचारिक स्फूर्ति मिली वहीं उसे अभिव्यक्त करने के लिये नये संसाधनो प्रकाशन सुविधाओ, इंटरनेट के सहारे सारी दुनियां का विशाल कैनवास मिला, मल्टी मीडिया के इस युग में भी किताबों का महत्व यथावत बना हुआ है, नैसर्गिक या दुर्घटना जनित त्रासदियां संवेदना में उबाल लाती हैं, भोपाल तो गैस त्रासदी का गवाह रहा है, कोरोना में राजधानी होने के नाते न केवल भोपाल वरन प्रदेश की घटनाओ की अनुगूंज यहां मुखरता से सुनाई देती रही है, तब की किंकर्त्व्य विमूढ़ता के समय में कला साहित्य ने मनुष्य में पुनः प्राण फूंकने का महत्वपूर्ण कार्य किया, किताब की लम्बी भूमिका में आनंद कृष्ण जी ने त्रासदियों के इतिहास और मानव जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला है, पुस्तक की लेखिका डा पूजा खरे मूलतः भले ही डेंटिस्ट हैं किन्तु उनके संवेदनशील मन में एक नैसर्गिक कहानीकार सदा से जीवंत रहा है, जब कोई ऐसा जन्मजात अनियत कालीन रचनाकार शौक से कुछ अभिव्यक्त करता है तो वह स्थापित पुरोधाओ के क्लिष्ट शब्दजाल से उन्मुक्त अपनी सरलता से पाठक को जीत लेता है, डा पूजा की कहानियां भी ऐसी ही हैं, छोटी, मार्मिक और प्रभावी,
मेरे पिता वरिष्ठ कवि प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी की पंक्तियां हैं
“सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी
हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी
भाव कई अनुभूतियां कई, सोच कई व्यवहार कई
पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी “
इस संग्रह “उस सफर की धूप छांव ” में कुल दस हमारे आस पास बिखरी घटनाओ पर गढ़ी गई कहानियां संजोई गई हैं, सुख दुख, हार जीत, जीवन की अनुभूतियों और व्यवहार, इन्हीं भावों की कहानियां बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं, ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से पाठक के सम्मुख दृश्य उपस्थित करती हैं, संग्रह की अंतिम कहानी ” मन के जीते जीत ” को ही लें,..
यह कहानी संभवतः वर्ष २०४५ में मूर्त हो सकेगी, क्योंकि कोरोना काल में पैदा हुआ रोहित मां की मेहनत और अपने श्रम से तपकर उससे पहले तो आई ए एस की परीक्षा में प्रथम नही आ सकता, अस्तु यह भविष्य की कल्पना के जीवंत दृश्य बुन सकने की क्षमता लेखिका को विशिष्ट बनाती है, सरल संवाद की भाषा कोई बनावटीपन नहीं अच्छी लगी,
कोरोना काल का इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति सब कुछ मिलता है इन कहानियों में, सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है, निशान, जागा हुआ सपना, कब तक, घंटी, कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें, चातक की प्यास, प्राण वायु, एक्स फैक्टर, लत और मन के जीते जीत ये कुल दस कहानियां हैं,
जागा हुआ सपना कहानी से ही उधृत करता हूं,..” १४ दिन मुझे अस्पताल के कोरोना वार्ड में ही गुजारने थे,,.. न कोई घर का व्यक्ति न दोस्त, हर तरफ सिर्फ मेरी तरह मरीज, चिकित्सक, नर्स और सफाई कर्मचारी ही दिखते थे,..उस हमउम्र नर्स को मैंने किसी पर खीजते नहीं देखा,. पी पी ई किट के भीतर से आती उसकी दबी दबी सी आवाज से ही उसे पहचानता था… जिस तरह मैंने सिंद्रेला, रँपन्जेल, स्नो व्हाईट, स्लीपिंग ब्यूटी को कभी नहीं देखा उसी तरह उसे भी कभी नही देखा,.. किंचित कवित्व और नाटकीयता भी इस कहानी की अभिव्यक्ति में मिली, यह भी पता चलता है कि लेखिका विश्व साहित्य की पाठिका है, अस्तु मैं ये छोटी छोटी कहानियां एक एक सिटिंग में मजे से पढ़ गया, आपको भी खरीद कर पढ़ने की सलाह दे रहा हूं, इधर ज्ञान मुद्रा प्रकाशन ने भोपाल में सद साहित्य को सामने लाने का जो महत्वपूर्ण बीड़ा उठाया है, उसके लिये उन्हें भी बधाई बनती है, डा पूजा खरे से हिन्दी कहानी जगत को और उम्मीदें हैं, उन्हें उनके ही शब्दों में सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें,
एक कमी का उल्लेख जरूरी लगता है किताब में लेखकीय फीड बैक के लिये क से कम एक मेल आईडी दी जानी चाहिये थी, डा पूजा जैसी लेखिका एक किताब लिखकर गुम होने के लिये नहीं हैं,
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयासकरते हैं।
आज प्रस्तुत है डा अलका अग्रवाल जी के उपन्यास “मेरी तेरी सबकी” पर पुस्तक चर्चा।
☆ सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
डा अलका अग्रवाल का पहला व्यंग्य संग्रह “मेरी तेरी सबकी” पढ़ा. ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल से बढ़िया गेटअप में आये इस संग्रह पर मेरी प्रथम आपत्ति तो लेखिका के नाम के साथ डा की उपाधि न लगाये जान को लेकर है. उल्लेखनीय है कि श्रीमती अलका अग्रवाल को हाल ही मुम्बई विश्वविद्यालय ने व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई जी पर उनके शोध कार्य के लिये पी एच डी की उपाधि प्रदान की है. अतः इस व्यंग्य के ही संग्रह के आवरण पृष्ठ पर डा अलका अग्रवाल लिखा जाना तर्क संगत है. निश्चित ही किताबें लेखक के नाम और अपने चित्ताकर्षक आवरण से प्रथम दृष्ट्या पाठको को आकर्षित करती ही हैं.
जब हम मेरी तेरी सबकी हाथ में उठाते हैं, अलटते पलटते हैं तो हमें समकालीन सुस्थापित व्यंग्य के हस्ताक्षर श्री हरीश नवल, अलका अग्रवाल के लेखन को युग धर्म के अनूकूल निरूपित करते हैं. तरसेम गुजराल ने लिखा है कि ये व्यंग्य सरोकार से जुड़े हुये हैं. प्रसिद्ध व्यंग्य समालोचक सुभाष चंदर लिखते हैं कि यह संग्रह परसाई परंपरा का लेखन है. सूर्यबाला जी ने लिखा है कि विषय के अनूकूल भाषाई बुनाव अलका जी की लेखनी में है. सुधा अरोड़ा ने संग्रह को असरकारक बताया है तो स्नेहलता पाठक ने अलका के लेखन को आम जनता के जीवन का संघर्ष बताया है. विवेक अग्रवाल ने किताब के शीर्षक लेख से पांच बंदरो के सबक की चर्चा की है. इन सात संतुतियों के बाद स्वयं अलका अग्रवाल ने अपनी बात में लिखा है कि ” व्यंग्य का मतलब केवल विरोध हरगिज़ नहीं होता, बल्कि रचनात्मक विध्वंस होता है। मैं कब व्यंग्य लिखती हूं? जब भी कोई विसंगति सालने लगती है। बेशक राजनीति हम सबके जीवन में अहम स्थान रखती है। राजनीति का अर्थ केवल वोट, कुर्सी, शासन ही नहीं होता। रिश्तों में, दोस्ती में, न जाने कहां-कहां राजनीति ने अपने पैर पसारे हुए हैं। माप- तौल कर ही रिश्ते बनाए जाते हैं। यह सबसे बड़ी विसंगति है। इतना हमेशा चाहती हूं कि नेताओं की राजनीति को देखने की क्षीर-नीर दृष्टि मिलती रहे।”. उनकी यह दृष्टि ही संग्रह को महत्वपूर्ण बना रही है.
मैंने अलका अग्रवाल को बहुत पहले से पढ़ा है उनके लेखन परिवेश, तथा भाव विस्तार से सुपरिचित हूं और उनके व्यंग्य संग्रह पर बहुत कुछ लिख सकता हूं. इन मूर्धन्य रचनाकारों की विस्तृत समीक्षाओ के बाद मेरा काम बड़ा सरल हो गया है. १४० पृष्ठीय इस संग्रह में कुल २५ व्यंग्य लेख समाहित हैं. अलका जी का लेखन परसाई जी से प्रभावित है. संग्रह के व्यंग्य साधो ये जग क्यों बौराना, साध़ो, सोच फटी क्यों रे ? जैसे शीर्षक ही इसकी बानगी देते हैं. व्यंग्य की तीक्ष्णता के साथ विषय में किंचित हास्य का समावेश करना और लेखन के प्रवाह में विषय से न भटकना एक बड़ी कला होती है. लेखन के निर्वाह की यह कला इस किताब में पढ़ने मिलती है.
वे बेचारे, इच्छा मृत्यु ले लो, ये कौन सा पसीना?, भगवान इनकी झोली…, नज़र बदलो नज़रिया बदलो, कैसे उठाऊँ गांडीव ?, बोध ज्ञान आदि वे व्यंग्य हैं जिनमें पौराणिक प्रचलित प्रतीकों का अवलंबन लेकर उत्तम तरीके से अपनी बात कही गई है. कोरोना काल की रचना तलब-लगी जमात में लेखिका ने लाकडाउन जनित स्थितियों का मनोरंजक कटाक्ष पूर्ण वर्णन किया है, अपने कहन में बीच बीच में काव्य उद्वरण का सहारा भी लिया है. नोट, नोटा और लोटा, ड्रैगनफ्लाय, ये तो फेसबुकिया गई हैं, चमकेश वॉरियर्स, बिन डेटा सब सून, व्हॉट्सऐप बाबा की जय, समकालीन नये विषयों की रचनायें हैं, जिनका निर्वाह, विसंगतियों को पकड़ कर पाठक के मन तक पहुंचने में लेखिका कामयाब हुई हैं. पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य तेरी मेरी सबकी एक अच्छा व्यंग्य है. इसमें अलका लिखती हैं..
” दिमाग की बत्ती थी कि जल ही नहीं रही थी, इतने में छोटी सी एक बत्ती कहीं जली और उन्हें कुछ खुसुर-पुसुरसुनाई देने लगी। दरवाज़े की झिरी से देखा तो आंखें फटी की फटी रह गईं। देखते क्या हैं कि गांधीजी के बंदर अब मिट्टी के माधो नहीं बल्कि चल-फिर रहे हैं, बात भी कर रहे हैं। पर यह क्या, बंदर तीन की जगह पांच कैसे हो गए!!? क्या तीन-पांच चल रही है?
बंदरों को पता नहीं था कि अवसरवादी नेताजी वहां घात लगाए बैठे हैं। उनमें से एक बोला, “यारों ये अवसरवादी कितना धूर्त है! एक तरफ गांधीजी के हत्यारे की जयंती मनाता है, और गांधी जयंती पर कल राजघाट पर फूल चढ़ाने आया था।”
अलका जी की विशेषता है कि वे अपने व्यंग्य लेखन में कभी स्वप्न में परसाई जी से मिलकर बतियाती हैं, तो कभी गांधी जी के बंदरो को जीवित करके उनसे संवाद करती हैं, कभी भगवान और भक्त की मुलाकातें करवा देती हैं.
घोटाला महोत्सव मनाओ सब मिल!, ब से बड़े आदमी, अथ श्री पति-पत्नी कथा, पुल उतारेंगे भव सागर के पार, खोजीं हो तो तुरत ही मिलिहों…, हम होंगे कामयाब! पर…, कविवर महोदय की टंगाटोली, ईससुरी जीएसटी जैसे
मजेदार लेखों का संग्रह है मेरी तेरी सबकी, जिसमें सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार किया गया है. मेरी लेखिका को उनके इस पहले संग्रह पर हार्दिक बधाई. व्यंग्य जगत को अलका अग्रवाल से और बहुत कुछ की अपेक्षायें हैं.
💐 “नासै रोग हरे सब पीरा” का बागेश्वर धाम संत पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी महाराज द्वारा लोकार्पित” 💐 ज्योतिषी पं. अनिल कुमार पाण्डेय ☆
ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान आसरा ज्योतिष के संस्थापक पं. अनिल कुमार पाण्डेय जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘नासै रोग हरे सब पीरा’ का बागेश्वर धाम संत पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी महाराज द्वारा दिनांक 28 अप्रैल 2023 को रात्रि 8 बजे सागर मध्य प्रदेश में एक भव्य कार्यक्रम में लोकार्पण हुआ।
ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
पं.श्री अनिल पाण्डेय जी ने सर्वाधिक नवीन दृष्टि से विभिन्न ग्रंथो के संदर्भ तथा उद्धरण देते हुये गोस्वामी तुलसी रचित श्री हनुमान चालीसा के शब्द शब्द की समीचीन व्याख्या की है। संयोग से ई-अभिव्यक्ति द्वारा इस पुस्तक को श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित किया गया था जिसे प्रबुद्ध पाठकों का भरपूर स्नेह व प्रतिसाद प्राप्त हुआ।
ई-अभिव्यक्ति परिवार द्वारा ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय जी को ‘नासै रोग हरे सब पीरा’ की सफलता के लिए मंगलकामनाएं 💐
“नासै रोग हरे सब पीरा” पर श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के विचार —
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
☆ पुस्तक चर्चा ☆ कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो.. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
रामचरित मानस के सुन्दर काण्ड के महा नायक भगवान हनुमान से गोस्वामी तुलसीदास कहलवाते हैं-
‘प्रात लेहि जो नाम हमारा-तेहि दिन ताहि न मिले अहारा’,
यह श्री हनुमत चरित्र में विनम्रता की पराकाष्ठा है. विश्व भर में जहां भी हिन्दू धर्म के मतावलंबी हैं, वे दिलों में भगवान श्री हनुमान जी को संकट मोचक के रूप में स्मरण करते विद्यमान बनाये रखते हैं. हमारी अवधारणा के अनुसार श्री हनुमान जी सदा जीवंत हैं. जहां कहीं श्री रामकथा होती है, भगवान हनुमान वहां पहुंच जाते हैं, एक भक्त की तरह. वे स्वयं अपनी भक्ति की जगह अपने आराध्य प्रभु श्रीराम और माता सीता की भक्ति करने वालों पर प्रसन्न हो जाते हैं. भगवान हनुमान अपने अनुयायियों का कोई अलग वर्ग नहीं बनाते, वरन वे अपने भक्तों सहित अपने स्वामी श्रीराम की भक्ति में निमग्न रहते हैं। स्वामी- सेवक की ऐसी अनूठी मिसाल विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है. गोस्वामी तुलसी दास, श्री हनुमत चरित्र के माध्यम से ‘स्वामी- ‘सेवक’ संबंधों की यह गहन मीमांसा कर, हमें निरभिमान, विनम्र सेवा भाव की शिक्षा देते हैं. हनुमत कृपा को निराभिमानी सच्चे भक्त हमेशा से अनुभव करते रहे हैं, यही कारण है कि जगह जगह विशाल, भव्य, महाकाय हनुमत मूर्तियों की स्थापना होती जा रही हैं और हनुमान भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है.
भगवान विष्णु के ही कृष्णावतार में श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी अंगुली पर उठा लिया था, और ‘गिरिधारी’ नाम से हम भगवान का जप करते हैं किन्तु विनम्र सेवा भावी श्री हनुमंत चरित्र में हम पाते हैं कि भगवान राम के परम सेवक श्री हनुमान, शेषावतार श्री लक्ष्मण को शक्ति लगने पर उनके उपचार हेतु रात्रि के अल्प समय में संजीवनी पर्वत को न केवल धारण करते हैं वरन उसे उठाकर, उड़ाकर ले आते हैं किन्तु कोई उन्हें ‘गिरिधारी’ नहीं कहता. वे संकटमोचक के रूप में जाने जाते हैं. क्योंकि भगवान सबके संकट निवारण करते हैं किन्तु स्वयं भगवान पर आये संकट का निवारण करने का श्रेय श्री हनुमान जी को है.
भगवान हनुमान वीरता के पर्याय हैं। वे अकेले ही लंका में घुसकर रावण की सभा में अपनी प्रभुता स्थापित करने में सक्षम हैं. वे लंका दहन कर सकते हैं, वे अक्षय कुमार का भी क्षय अर्थात वध करते हैं. वे सबके बड़े से बड़े संकट क्षण में दूर कर देते हैं किन्तु वे ही हनुमान जी स्वयं भगवान राम और मां भगवती जानकी के सम्मुख एक ऐसे भोले भाले वानर के रूप में प्रतिष्ठित होने में ही प्रसन्नता अनुभव करते हैं जो अपने सारे शरीर पर केवल इसलिये सिंदूर मल लेते हैं, क्योंकि मां जानकी भगवान राम के लिये अपनी मांग में सिंदूर भरती हैं. श्री हनुमान मोती की माला के हर मोती को तोड़कर देखना चाहते हैं कि उसमें भगवान राम, उनके स्वामी की छवि है या नहीं क्योंकि वे स्वयं तो ‘हृदय राखि कौशल पुर राजा के विनम्र भाव से ही ‘प्रबिसि नगर कीजै सब काजा’, करने में भरोसा रखते हैं.
गीता में भगवान यही तो उपदेश देते हैं तुम सब कुछ मुझे समर्पित कर तटस्थ भाव से कार्य करो फिर मैं तुम्हारे समस्त कार्य कर दूंगा. इस तरह ‘हनुमान चरित्र’, गीता ज्ञान को आत्मसात करने का सबसे बड़ा उदाहरण है.
वीरता में ही नहीं, कूटनीति, मंत्रणा, सही सलाह और मार्गदर्शन देने में भी प्रभु श्री हनुमान का चरित्र अति विलक्षण है। सुग्रीव जब वर्षा ऋतु बीत जाने पर भी श्री राम की सीता जी की खोज में सहायता करने की बात भूल रहे थे, तब उसे हनुमान जी ही सही समय पर सही मित्रवत सलाह देते हैं और सुग्रीव भगवान श्री राम के साथ हो लेता है. विभीषण को भगवान श्रीराम की शरणागति में लाने की कूटनीति और विभीषण को प्रेरणा हनुमंत चरित्र की विशेषता है.
श्री हनुमान सर्वमुखी प्रतिभा संपन्न हैं, क्योंकि उनके साथ स्वयं प्रभु श्रीराम हैं. वे संजीवनी लाते हुये भरत से तार्किक संवाद करने की प्रतिभा रखते हैं. वे लंका की राजसभा में अकेले ही प्रभु श्री राम का नाम गुंजायमान करने का साहस, तर्क और प्रतिभा रखते हैं. लेकिन वे ही हनुमान जी अपने स्वामी श्री राम के सम्मुख जमीन पर आसन ग्रहण करते हैं. वे प्रभु के सोते-जागते पल-पल उनके साथ समर्पित सेवा भावना से सजग रहते हैं.
रामचरित मानस में वर्णित चरित्र के आधार पर हनुमान जी की भगवान श्रीराम जी से भेंट तब हुई, जब प्रभु सीता माता की खोज में वन वन भटक रहे थे, अपनी विनम्र सेवा एवं सर्वोन्मुखी प्रतिभा तथा वीरता से जल्दी ही हनुमान जी न केवल श्री राम के वरन मां सीता के भी अतिप्रिय बन गये और श्रीराम पंचायतन में प्रभु श्री राम के परिवार का हिस्सा ही बन गये. भगवान हनुमान के बिना श्रीराम चरित और चित्र अधूरा सा लगता है.
ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान आसरा ज्योतिष के संस्थापक पं. अनिल पाण्डेय जी विद्युत मण्डल के सेवाकाल में मेरे वरिष्ठ रहे हैं. वे परम हनुमत भक्त हैं. मुझे स्मरण है कि जो भी उनसे किसी कार्यवश मिलता था तो वे पर्स में रखा जा सकने योग्य श्री हनुमान चालीसा उसे भेंट करते थे. उन्होने न जाने कितनी प्रतियां हनुमान चालीसा इस तरह बांटी हैं. आज कोई हनुमान चालीसा की व्याख्या मैनेजमेंट के नये सिद्धांतो के अनुरूप कर रहा है तो कोई इसमें जीवन मंत्र ढ़ूंढ़ रहा है. किन्तु विश्व भ्रमण कर चुके, अपनी शासकीय सेवा में भांति भाति के व्यापक अनुभव कर चुके पं.श्री अनिल पाण्डेय ने एक सर्वाधिक नवीन दृष्टि से विभिन्न ग्रंथो के संदर्भ तथा उद्धरण देते हुये गोस्वामी तुलसी रचित श्री हनुमान चालीसा के शब्द शब्द की समीचीन व्याख्या की है, जो पुस्तकाकार प्रकाशित हो गई है, यह उन पर श्री हनुमत कृपा ही है. मेरी अनंत स्वस्ति कामनायें सदैव इस किताब के पाठको, प्रकाशक और लेखक पं अनिल पाण्डेय जी के साथ हैं.
ओम श्री हनुमते नमः.
पुस्तक चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी, भोपाल ४६२०२३
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है डॉ. नीनासिंह सोलंकीजी के बाल कथा संग्रह “टीनू का पुस्तकालय” की पुस्तक समीक्षा।)
☆ बाल कथा संग्रह – ‘टीनू का पुस्तकालय‘ – डॉ. नीनासिंह सोलंकी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆
कथा-संग्रह – टीनू का पुस्तकालय
उपन्यासकार- डॉ. नीनासिंह सोलंकी
प्रकाशक- संदर्भ प्रकाशन, भोपाल (मप्र) मोबाइल नंबर 94244 69015
पृष्ठ संख्या-72
मूल्य-₹ 200
समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
☆ समीक्षा- प्रवाह से भरपूर कहानियां ☆
कहानी कहने का सलीका होना चाहिए। तब यह बात कोई मायने नहीं रखती है कि आप नए कथाकार हो अथवा पुराने। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह बात नवोदित कथाकार नीनासिंह सोलंकी पर फिट बैठती है।
टीनू का पुस्तकालय- आपका दूसरा कहानी संग्रह है। इस संग्रह में 12 कहानियां संग्रहित की गई हैं। प्रथम कहानी संग्रह की अपेक्षा दूसरे कहानी संग्रह में गुणात्मक रुप से सुधार हुआ है। भाषा, शैली, कथा, प्रवाह की दृष्टि से कहानी संग्रह बढ़िया बना है।
इसकी पहली कहानी-आदि के दादाजी, नाम से संकलित है। कहानी में दादाजी के महत्व को प्रतिपादित किया गया है। इस दृष्टि से कहानी बहुत ही अच्छी बनी है। इसका प्रवाह और अंत बहुत ही प्रभावी है।
पुस्तक आमुख के नाम की कहानी- टीनू का पुस्तकालय- पुस्तक की महत्व प्रदर्शित करती दूसरी कहानी है। यह पुस्तकालय के महत्त्व को रेखांकित करती है।
अनमोल उपहार- कहानी में उपहार के महत्व को प्रदर्शित करती हैं। यह कहानी बताती कैं कि विद्या से बढ़कर कोई उपहार नहीं होता है। अनमोल उपहार इसी महत्व को प्रदर्शित करती एक बेहतरीन कहानी है।
छोटी सी बात- पीती और नीति की दोस्ती के अनमोल पलों को प्रदर्शित करती है। छोटी सी बात पर दोस्ती टूट जाती है। फिर एक सहेली की सुझबुझ से वापस दोस्ती हो जाती है। यह संदेशपरक कहानी बढ़िया है।
बुलबुल समझ गई-में एक नए कथानक द्वारा पानी के महत्व को समझाया गया है। मध्यांतर के बाद वाला भाग ज्यादा उद्देशात्मक हो गया है। वही निया और मिनी की यात्रा- के बहाने ग्लोबल वार्मिंग और घटते ग्लेशियर के बारे में आपने बहुत ही बेहतर ढंग से कहानी में समझाया है।
मैरी क्रिसमस- एक स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती हुई बेहतरीन कहानी है। इसमें कथा परवाह बहुत ही बेहतरीन हैं। वही बच्चों की किट्टी पार्टी- बड़ों की तर्ज पर बच्चों की किट्टी पार्टी एक नए कथानक पर रची गई है। इस नए कथानक पर रची गई कहानी बच्चों को बहुत पसंद आएगी।
चांद के पार- संवाद से भरपूर इस कहानी में बच्चों की जिज्ञासाओं का बहुत ही सहजता से उत्तर दिया गया है।
वही चीनी के दोस्त- बाल सुलभ जिज्ञासा के साथ पक्षियों से प्रेम जताती बेहतरीन कहानी है।
सूरज दौड़ गया- खेल प्रतियोगिता दौड़ पर आधारित एक अच्छी कहानी है। मगर प्लास्टर के बाद दौड़ना और प्रतियोगिता में भाग लेना कुछ हजम नहीं होता है। हेयर क्रेक के बाद बहुत दिनों तक दौड़ना मुश्किल है। यह एक तकनीकी पॉइंट है। इसके बावजूद कहानी बहुत बढ़िया बनी है।
अमरुद मीठे हैं- बच्चों की स्वाभाविक आदत के अनुसार एक बेहतरीन कहानी लिखी गई है। इसका घटनाक्रम भी स्वाभाविक लगता है।
कुल मिलाकर टीनू का पुस्तकालय की समस्त कहानियां अपने कथानक, भाषा, शैली, परवाह के साथ जिज्ञासायुक्त और बेहतरीन बनी है। पुस्तक की साजसज्जा, त्रुटिरहित छपाई बेहतरीन है। बच्चों के हिसाब से 72 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹200 कुछ ज्यादा है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री नीरज बधवार जी के उपन्यास “बातें कम स्कैम ज्यादा” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 135 ☆
☆ “बातें कम स्कैम ज्यादा” – श्री नीरज बधवार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
बातें कम स्कैम ज्यादा
व्यंग्यकार… नीरज बधवार
प्रकाशक… प्रभात प्रकाशन,नई दिल्ली
पृष्ठ… १४८ मूल्य २५० रु
चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
☆ गोलगप्पे खाने जैसा मजा : बातें कम स्कैम ज्यादा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
बड़े कैनवास के युवा व्यंग्यकार नीरज उलटबासी के फन में माहिर मिले. किताब पर बैक कवर पर अपने परिचय को ही बड़े रोचक अंदाज में अपराधिक रिकार्ड के रूप में लिखने वाले नीरज की यह दूसरी किताब है. वे अपने वन लाइनर्स के जरिये सोशल मीडीया पर धाक जमाये हुये हैं. वे टाइम्स आफ इण्डिया समूह में क्रियेटिव एडीटर के रूप में कार्य कर रहे हैं. वे सचमुच क्रियेटिव हैं. सीमित शब्दों में विलोम कटाक्ष से प्रारंभ उनके व्यंग्य अमिधा में एक गहरे संदेश के साथ पूरे होते हैं. रचनायें पाठक को अंत तक बांधे रखती हैं. “मजेदार सफर” शीर्षक से प्राक्कथन में अपनी बात वे अतिरंजित इंटरेस्टिंग व्यंजना में प्रारंभ करते हैं ” २०१४ में मेरा पहला व्यंग्य संग्रह “हम सब फेक हैं” आया तो मुझे डर था कि कहीं किताब इतनी न बिकने लगे कि छापने के कागज के लिये अमेजन के जंगल काटने पड़ें, किंतु अपने लेखन की गंभीरता वे स्पष्ट कर ही देते हैं ” यदि विषय हल्का फुल्का है तो कोई बड़ा संदेश देने की परवाह नहीं करते किन्तु यदि विषय गंभीर है तो हास्य की अपेक्षा व्यंग्य प्रधान हो जाता है, पर यह ख्याल रखते हैं कि रचना विट से अछूती न रहे. उन्हीं के शब्दों मे ” व्यंग्य पहाड़ों की धार्मिक यात्रा की तरह है जो घूमने का आनंद तो देती ही है साथ ही यह गर्व भी दे जाती है कि यात्रा का एक पवित्र मकसद है. “
संग्रह में ४० आस पास से रोजमर्रा के उठाये गये विषयों का गंभीरता से पर फुल आफ फन निर्वाह करने में नीरज सफल रहे हैं. पहला ही व्यंग्य है “जब मैं चीप गेस्ट बना” यहां चीफ को चीप लिखकर, गुदगुदाने की कोशिश की गई है, बच्चों को संबोधित करते हुये संदेश भी दे दिया कि ” प्यारे बच्चों जिंदगी में कभी पैसों के पीछे मत भागना ” पर शायद शब्द सीमा ने लेख पर अचानक ब्रेक लगा दिया और वे मोमेंटो लेकर लौट आये तथा दरवाजे के पास रखे फ्रिज के उपर उसे रख दिया. यह सहज आब्जर्वेशन नीरज के लेखन की एक खासियत है.
“घूमने फिरने का टारगेट” भी एक सरल भोगे हुये यथार्थ का शब्द चित्रण है, कम समय में ज्यादा से ज्यादा घूम लेने में अक्सर हम टूरिस्ट प्लेसेज में वास्तविक आनंद नहीं ले पाते, जिसका हश्र यह होता है कि पहाड़ की यात्रा से लौटने पर कोई कह देता है कि बड़े थके हुये लग रहे हैं कुछ दिन पहाड़ो पर घूम क्यों नहीं आते. बुफे में ज्यादा कैसे खायें ? भी एक और भिन्न तरह से लिखा गया फनी व्यंग्य है. इसमें उप शीर्षक देकर पाइंट वाइज वर्णन किया गया है. सामान्य तौर पर व्यंग्य के उसूल यह होते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष, या उत्पाद का नाम सीधे न लिया जाये, इशारों इशारों में पाठक को कथ्य समझा दिया जाये किन्तु जब नीरज की तरह साफगोई से लिखा जाये तो शायद यह बैरियर खुद बखुद हट जाता है, नीरज बुफे पचाने के लिये झंडू पंचारिष्ट का उल्लेख करने में नहीं हिचकते. “फेसबुक की दुनियां ” भी इसी तरह बिंदु रूप लिखा गया मजेदार व्यंग्य है, जिसमें नीरज ने फेसबुक के वर्चुएल व्यवहार को समझा और उस पर फब्तियां कसी हैं.
दोस्तों के बीच सहज बातचीत से अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वे हास्य व्यंग्य तलाश लेते हैं,और उसे आकर्षक तरीके से लिपिबद्ध करके प्रस्तुत करते हैं, इसलिये पढ़ने वाले को उनके लेख उसकी अपनी जिंदगी का हिस्सा लगता है, जिसे उसने स्वयं कभी नोटिस नहीं किया होता. यह नीरज की लोकप्रियता का एक और कारण है. फेसबुक पर जिस तरह से रवांडा, मोजांबिक, कांगो, नाइजीरिया से फेक आई डी से लड़कियों की फोटो वाली फ्रेंड रिक्वेस्ट आती हैं उस पर वे लिखते हैं ” रिक्शेवाले को दस बीस रुपये ज्यादा देने का लालच देने के बाद भी कोई वहां जाने को तैयार नही हुआ…. जिस तरह गजल में अतिरेक का विरोधाभास शेर को वाह वाही दिलाता है, कुछ उसी तरह नीरज अपनी व्यंग्य शैली में अचानक चमत्कारिक शब्दजाल बुनते हैं और पराकाष्ठा की कल्पना कर पाठक को हंसाते हैं. बीच बीच में वे तीखी सचाई भी लिख देते हैं मसलन ” प्रकाशक बड़े कवियों तक से पुस्तक छापने के पैसे लेते हैं ” ।
शीर्षक व्यंग्य “बातें कम स्कैम ज्यादा” में एक बार फिर वे नामजद टांट करते हैं, ” बड़े हुये तो सिर्फ एक ही आदमी देखा जो कम बोलता था.. वो थे डा मनमोहन सिंह. इसी लेख में वे मोदी जी से पूछते हैं सर मेक इन इंडिया में आपका क्या योगदान है, आप क्या बना रहे हैं ? नीरज, मोदी जी से जबाब में कहलवाते हैं “बातें”.
वे निरा सच लिखते हैं ” कुल मिला कर बोलने को लेकर घाल मेल ऐसा है कि सोनिया जी क्या बोलती हैं कोई नहीं जानता. राहुल गांधी क्या बोल जायें वे खुद नहीं जानते. और मोदी साहब कब तक बोलते रहेंगे ये खुदा भी नही जानता. नीरज अपने व्यंग्य शिल्प में शब्दों से भी जगलरी करते हैं, कुछ उसी तरह जैसे सरकस में कोई निपुण कलाकार दो हाथों से कई कई गेंदें एक साथ हवा में उछालकर दर्शको को सम्मोहित कर लेता है. सपनों का घर और सपनों में घर, स्क्रिप्ट का सलमान को खुला खत, आहत भावनाओ का कम्फर्ट जोन, इक तुम्हारा रिजल्ट इक मेरा, सदके जावां नैतिकता, चरित्रहीनता का जश्न, अगर आज रावण जिंदा होता, हमदर्दी का सर्टिफिकेट आदि कुछ शीर्षकों का उल्लेख कर रहा हूं, व्यंग्य लेखों के अंदर का मसाला पढ़ने के लिये हाईली रिकमेंड करता हूं, आपको सचमुच आनंद आ जायेगा.
सड़क पर लोकतंत्र छोटी पर गंभीर रचना है…. सड़क यह शिकायत भी दूर करती है कि इस मुल्क में सभी को भ्रष्टाचार करने के समान अवसर नहीं मिलते “…
“लोकतंत्र चलाने वाले नेताओ ने आम आदमी को सड़क पर ला दिया है, वह भी इसलिये कि लोग लोकतंत्र का सही मजा ले सकें”.
बहरहाल आप तुरंत इस किताब का आर्डर दे सकते हैं, पैसा वसूल हो जायेगा यह मेरी गारंटी है.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है डॉ. शशि गोयल जी के बाल कहानी संग्रह “गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य” की पुस्तक समीक्षा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य‘ – डॉ. शशि गोयल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆
उपन्यास – गोलू –भोलूऔरजंगलकारहस्य
उपन्यासकार – डॉ. शशिगोयल
प्रकाशक – जीएसपब्लिशर्सडिस्ट्रीब्यूटर, एफ–7, गलीनंबर1, पंचशीलगार्डनएक्सटेंशन, नवीनशाहदरा, दिल्ली– 110032मोबाइलनंबर99717 33123
पृष्ठसंख्या–52
मूल्य–₹195
समीक्षक– ओमप्रकाशक्षत्रिय‘प्रकाश‘
☆ समीक्षा- रहस्य से भरपूर उपन्यास है यह ☆
बच्चों के उपन्यास में रहस्य-रोमांच हो तो पढ़ने का मजा दुगुना हो जाता है। उसके साथ रोचक संवाद हो तो उपन्यास की पठनीयता में वृद्धि हो जाती है।
बाल उपन्यास में चंचल बालपात्र हो तो वह बच्चों को बहुत ज्यादा अच्छा लगता है। उसकी चंचलता और चपलता उपन्यास के आनंद का मजा बढ़ा देती है।
इस कला में उपन्यासकार डॉ. शशि गोयल को महारत हासिल है। इनका नवीनतम उपन्यास गोलू-भोलू और जंगल का रहस्य, इस कसौटी पर खरा उतरता है। उपन्यास के शीर्षक के अनुसार उपन्यास में जंगल का रहस्य और रोमांच भरा पड़ा है।
गोलू एक चंचल और चपल बाल पात्र है। वह शहर से गांव अपनी नानी के यहां आता है। यहां वह अपने साथी भोलू के साथ जंगल, नदी, गुफा, पहाड़ आदि की सैर करता है।
सैर-सपाटा के दौरान वह संदिग्ध गतिविधियों को पकड़ लेता है। उसी से दो-चार होता है। परिस्थितियां ऐसी निर्मित होती है कि वह उन सभी का रहस्योद्घाटन करता चला जाता है।
मगर अंत में जाकर वह एक घटना में उलझ जाता है। तब वह और उसके पिताजी एक नई तरकीब अपनाते हैं। इससे गोलू-भोलू के साथ अन्य पात्रों पर आई मुसीबत टल जाती है। इस तरह पूरा उपन्यास रहस्य रोमांच के साथ आगे बढ़ता है।
उपन्यास की भाषा सरल व सीधी है। इसी के साथ ठेठ ग्रामीण भाषा के उपयोग से उपन्यास में रोचकता का समावेश होता है। इसकी यह भाषा उपन्यास की रोचकता में वृद्धि करती है। पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ उपन्यास को पढ़ता चला जाता है।
बाल सुलभ जिज्ञासा का असर पूरे उपन्यास में है। इसी जिज्ञासा की वजह से उपन्यास के पात्र निरंतर जोखिम उठाते हुए आगे बढ़ते हैं। फलस्वरुप उसके रहस्य को उजागर करते हुए एक नई मुसीबत का सामना करते हैं।
इस तरह उपन्यास के साथ-साथ मुख्य कथा के साथ उपन्यास उत्तरोत्तर आगे बढ़ता है। अंततः उसकी रोचकता का अंत उपन्यास के अंत के साथ हो जाता है।
उपन्यास का परिवेश ग्रामीण नदी के किनारे फैले हुए जंगल का है। इसी परिवेश में कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्मित होती है उपन्यास के पात्रों के सामने नई-नई चुनौतियां आती जाती है।
चुनौतियों का सामना करने में मुक पशु-पक्षी का प्रयोग बखूबी किया गया है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से दाम कुछ ज्यादा है। इस पर विचार किया जाना चाहिए। वैसे उपन्यास की साज-सज्जा व पृष्ठ सज्जा के साथ त्रुटि रहित छपाई ने उपन्यास की गुणवत्ता में श्री वृद्धि की है।
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गहरे पानी पैठ’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री शकुंतला मित्तल ☆
पुस्तक- गहरे पानी पैठ
लेखिका – डॉ मुक्ता
प्रकाशक – SGSH Publications
समीक्षक – सुश्री शकुंतला मित्तल
☆ समीक्षा – स्वस्थ समाज के निर्माण की आधारशिला “गहरे पानी पैठ” ☆
जीवन मेले की इस आपाधापी ,भागदौड़ और उपभोक्तावादी आत्मकेंद्रित जीवन शैली में साहित्य जगत् की सशक्त हस्ताक्षर ,शिक्षाविद्, माननीय राष्ट्रपति से पुरस्कृत , हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्वनिदेशक डॉ• मुक्ता द्वारा आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में “गहरे पानी पैठ” के रूप में 75 चिंतन व सुचिंतनपरक आलेखों का एक अनमोल वैचारिक संग्रह साहित्य जगत् और समाज को देना ऐसी महती उपलब्धि है, जो समाज की विचारधारा, मिज़ाज़, सोच, चिंतन शैली और घटते जीवन मूल्यों पर मात्र विचार ही नहीं व्यक्त करता, बल्कि हमें झिंझोड़कर “स्व” से बाहर निकल समाज के गर्त में झाँक कर जागने को बाध्य भी करता है। यह जीवन के अनुभवों का गहरा मंथन कर निकाले समाज हित के बहुमूल्य मोती हैं।
अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा डॉ मुक्ता के गहरे पानी पैठ आलेख-संग्रह का हुआ लोकार्पण
गहरे पानी पैठ लेखिका के जीवनानुभवों की गहराई, विश्लेषक क्षमता, जीवन-दर्शन, वैचारिकता और समाज के सभी घटकों की चिंता को दर्शाता वह संजीवन अमृत-तत्व है, जिसे समझकर, ग्रहण कर, आत्मसात् कर समाज की जीवन पद्धति सुधर सकती है। उक्त आलेख-संग्रह दो भागों में विभक्त है। आरंभ के 37 आलेख चिंतनपरक आलेख हैं और 38 से 75 तक सुचिंतनपरक आलेख हैं। लेखिका का जीवन फलक बहुआयामी रहा है। उनके विभिन्न क्षेत्रों के अनुभव, समाज में घटित घटनाएँ, समाचार पत्र की सुर्खियों में छपे पीड़ित, शोषित, प्रताड़ित क़िरदार, पात्र, उनके दु:ख, पीड़ा, व्यथा ने लेखिका को समाज से प्रश्न करने के लिए बाध्य किया और डॉ• मुक्ता ने धारदार कलम से समाज के घटते जीवन-मूल्यों, अनास्था, अविश्वास, स्वार्थ से रिसते- पिसते रिश्तों, युवा पीढ़ी की संस्कारहीनता पर क्षोभ व्यक्त करते हुए अनेक सार्थक प्रश्न उठाए हैं और समाधान के रूप में भारतीय संस्कृति को अपनाने का आग्रह किया है।
सुचिन्तनपरक आलेख समाज के हर वर्ग की विक्षिप्त मानसिकता, संकीर्ण सोच व स्वार्थपरता का निदान ही नहीं करते ; संत्रस्त अंधेरे में प्रकाश की किरण बन प्रेरणा देते हैं, सहारा देते हैं और समाज की गतिशीलता को विकास की ओर अग्रसर करने में पूर्णतया सक्षम हैं।
“दिशाहीन समाज और घटते जीवन मूल्य” आलेख में लेखिका की कलम धन-संग्रह को एकमात्र लक्ष्य बना किसी के प्राण तक हर लेने में संकोच ना करने वाले समाज से अतीत में लौट चलने का आग्रह करते हुए कहती है, “आओ! लौट चलें अतीत की ओर, जब समाज में बहन-बेटी ही नहीं, हर महिला सुरक्षित थी। आधुनिक युग में युवा पीढ़ी के लिए सर्वाधिक कारग़र उपाय है–अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाना, अपनी संस्कृति से जुड़ाव और स्वीकार्यता भाव से मानव मात्र में यथोचित बहन, बेटी, माँ के प्रतिरूप का दर्शन करने की भावना।”
अक्सर तो नारी को संधि पत्र लिखने तक का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िंदगी भर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है और वह झोंक दी जाती है देह-व्यापार के धंधे में……नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िमी हैं.”…..ये पंक्तियाँ हैं डॉ• मुक्ता के चिंतनपरक आलेख “जिंदगी की शर्त-संधि पत्र से।”
नारी को मानसिक यंत्रणा देने वाले समाज पर कटाक्ष करने, सोचने पर विवश करने के साथ ही लेखिका “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों” आलेख के माध्यम से नारी को मर्यादित जीवन जीने का परामर्श देते हुए पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण, लिव-इन को मान्यता देने, विवाहेतर संबंधों की स्वीकार्यता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहती हैं, “विदेशी हमारे रीति रिवाज, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट आस्था-विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं, परंतु हम उन द्वारा परोसी गई “लिव-इन” और “ओल्ड होम” की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं । “
सभी आलेखों के शीर्षक भी जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं। “ट्यूशन और तलाक़” आलेख में मायके के लोगों द्वारा मोहग्रस्त होकर ग़लत सीख देने को ट्यूशन नाम दिया है, जो उन्हें उच्छृंखलता की ओर अग्रसर कर तलाक़ की ओर ले जाती है। ‘बाल यौन-उत्पीड़न समस्या व समाधान’ और ‘मज़दूरी इनकी मज़बूरी’ में देश के भविष्य बच्चों की दयनीय स्थिति से हमें परिचित कराते हैं । लेखिका की विहंगम दृष्टि समाज में सिर उठाती हर नवीन जीवन-पद्धति पर है और यदि उसका कोई भी बिंदु लेखिका को जीवन में उज्ज्वल रंग भरता दिखाई देता है, तो वह अपनी संस्कृति से उसका तालमेल बिठाता पक्ष रख उसकी वकालत भी करती दिखाई देती हैं।
‘सेलोगैमी’ अथवा ‘सैल्फ मैरिज’ आलेख की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- “देखिए, ऊंट किस करवट बैठता है? यदि हम अतीत की ओर दृष्टिपात करें तो यह एक स्वस्थ परंपरा है । हमारे ऋषि-मुनि भी वर्षों तक अपनी संगति में अर्थात् एकांत में सहर्ष तप किया करते थे। उन्हें आत्मावलोकन का अवसर प्राप्त होता था, जो उन्हें मुक्ति की राह की ओर अग्रसर करता था।” सलोगैमी का ऋषि-मुनियों की एकांत अवस्था से साम्य स्थापित कर उसका विवेचन लेखिका की अद्भुत वैचारिक क्षमता को व्यक्त करता है। “चलते फिरते पुतले” रिश्तों में पनपते अजनबीपन के एहसास, संवादहीनता, संवेदनशून्यता और संयुक्त परिवार के टूटने की कसक को अभिव्यक्ति देता है। “कानून शिक्षा और संस्कार” आलेख में लेखिका अंधे कानून और संस्कारविहीन पुस्तकीय शिक्षा पर क्षोभ व्यक्त करते हुए संस्कारों को सर्वाधिक महत्व देते हुए संस्कारहीन व्यवस्था को पंगु, मूल्यहीन व निष्फल बता युवा पीढ़ी को सुसंस्कारित करने पर बल देती है।
डॉ. मुक्ता – माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक,हरियाणा साहित्य अकादमी
लेखिका समाज की हर घटना, विसंगतियों व हादसों पर दृष्टि टिकाए है। “मातृहंता युवा” आलेख में अभिभावकों द्वारा की जाने वाली रोक-टोक पर युवा द्वारा माता-पिता की हत्या पर लेखिका का हृदय चीत्कार कर उठता है और वह समाज को झिंझोड़ कर, बच्चों को सुसंस्कृत कर दायित्व निर्वहन करने का आग्रह करती है। “यह कैसा राम राज्य” में सड़क पर लहूलुहान व्यक्ति को अनदेखा कर समाज में स्त्री को उपभोग की वस्तु बनती देख, कूड़े के ढेर पर बच्चों का झूठन खाने के लिए मारपीट व सड़क किनारे श्रम करती औरत की दयनीय दशा देख लेखिका का हृदय उद्वेलित हो उठता है।
“संवेदनहीन समाज” में लेखिका क्षणिक शारीरिक सुख भोग के लिए दुष्कर्म में प्रवृत्त युवा को अपना भविष्य अंधकार में झोंकने के मूल में उस पारिवारिक वातावरण को कारण मानती है, जहांँ बच्चों को एकांत की त्रासदी का दंश झेलना पड़ता है। वहांँ बच्चे टीवी और मोबाइल की वेबसाइटों को खंगाल जुर्म की दलदल में कदम रख अपना अनमोल जीवन नष्ट कर लेते हैं। “अपने-अपने खेमे” साहित्यिक क्षेत्र में बढ़ती राजनीति, दूषित वातावरण और सम्मानों की खरीद-फरोख्त को उजागर करते हुए राष्ट्रीय सम्मान को इनसे अछूता देख संतोष भी व्यक्त करती है।
आज समाज का हर व्यक्ति चिंतन के स्थान पर चिंता में लीन है, जो केवल मनुष्य के जीवन को निराशा के गर्त में ले जाती है। अनेक उदाहरणों, काव्य सूक्तियों, कबीर की पंक्तियों से लेखिका ‘मोहे चिंता न होय’ आलेख में संदेश देते हुए कहती हैं,” चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस सृष्टि- नियंता पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हक़ में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।”
शब्दों को तोलकर व सोच-विचार कर बोलने की आवश्यकता पर बल देते हुए लेखिका “शब्द-शब्द साधना” आलेख में शब्द को ब्रह्म की संज्ञा देती है। परशुराम द्वारा क्रोध में आकर माता का वध करना, ऋषि गौतम का अहिल्या को शाप देना उदाहरणों से लेखिका सोचकर बोलने का महत्व दर्शाती है। सीधी, सरल, स्पष्ट और उदाहरण शैली आलेख को प्रभावशाली बना उसके महत्व को द्विगुणित करती है।
‘खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें’ अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दें ।…..जो मिला है, उसे प्रभु कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें और ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है, कभी आएगा नहीं। सो! उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें ….. यही ज़िंदगी है और यही है लम्हों की सौग़ात” यह पंक्तियां “ज़िंदगी लम्हों की किताब” आलेख से उद्धृत है, जो हमें चिंता, त्याग व संतोष का भाव भरने की प्रेरणा देती है। इसी तरह के अनेक विचारात्मक और प्रेरणास्पद आलेख हैं, जो अपनी सरलता, स्पष्टता और उदाहरण शैली के कारण बहुत प्रभावशाली बन पड़े हैं।
संस्कृति और संस्कारों से जुड़े ये आलेख केवल मात्र उपदेश नहीं देते; मनोमस्तिष्क दोनों को अपनी कथन शैली से सोचने व चिंतन-मनन करने को बाध्य करते हैं। भाषायी गरिमा और गहराई इन आलेखों की विशेषता है। इनके शीर्षक यथा “अंतर्मन की शांति”, “अपेक्षा व उपेक्षा”, ‘ख़ामोशियों की ज़ुबाँ’ “अहम बनाम अहमियत”, “आईना झूठ नहीं बोलता” मानव में जिज्ञासा भाव ही उत्पन्न नहीं करते; पढ़ने की ललक से हृदय को आप्लावित कर देते हैं।
डॉ• मुक्ता के जीवन का सफ़र प्राध्यापिका व प्राचार्य के रूप में जिन अनुभवों को अर्जित करते हुए परिपक्व और उदात्त बना है और पाँच वर्ष तक अकादमी निदेशक के रूप में दायित्व-वहन करते हुए वे जिस दौर से गुज़री हैं; उसकी झलक हमें इन आलेखों में मिलती है। डॉ• मुक्ता युवा पीढ़ी के मन को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान कर, उन्हें निराशा के गह्वर में गिर कर अपनी जीवन-लीला समाप्त करने से बचाने के अपने दायित्व-बोध से भलीभांति परिचित हैं और उन्हें तनाव, संत्रास, छटपटाहट, झूठे अहं, पाश्चात्य चकाचौंध से बचाने को आतुर दिखाई देती हैं, वही आकुलता, विकलता और कर्तव्यनिष्ठा इन आलेखों की पृष्ठभूमि का आधार भी है और केंद्र भी। मेरे मतानुसार प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय और सामाजिक संस्थानों के पुस्तकालय में अत्युत्तम आलेखों की इस संग्रह को अवश्य स्थान प्राप्त होना चाहिए, ताकि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही दिशा और दशा प्रदान कर सकें।
यह संकलन व्यापक सामाजिक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों की विविधता को अनेक स्तरों पर समेटे जिस पूरे परिदृश्य का एहसास कराता है, वह युवाओं में जीवन-मूल्यों के विकास और सामाजिक दायित्व -बोध को उत्पन्न करने का सूचक है। लेखिका ने परम्परा से हटकर एक नये मार्ग का अनुसरण करके सभी लेखों को एक नया आयाम देने का प्रयास किया है। सर्वथा नवीन प्रासंगिकता के साथ यह आलेख-संग्रह एक ऐसा दस्तावेज़ है, जो विचारों की धरोहर होने के कारण संग्रहणीय भी है। कुल मिलाकर प्रतिपाद्य, भाषा, शैली, कथ्य और उद्देश्य –सभी दृष्टियों से ये निबन्ध श्लाघनीय व प्रशंसनीय हैं। इनकी प्रस्तुति सर्वथा अभिनंदनीय है।
ऐसी अनुपम स्तुत्य कृति के लिए मैं डॉ• मुक्ता को हृदय की गहराइयों से बधाई एवं अशेष शुभकामनाएंँ देती हूंँ। आप यथावत् स्वस्थ समाज को गढ़ने व निर्मित करने के लिए निरंतर साहित्य साधना-रत रहें। आपके “गहरे पानी पैठ” आलेख-संग्रह को जो भी पढ़ेगा, वह अपने बच्चों के जीवन में सही दिशा-निर्देशन व क्रांतिकारी परिवर्तन हेतू चिंतन- मनन अवश्य करेगा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ जी की पुस्तक “गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लेंकी समीक्षा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें’ – श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆
पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें
रचनाकार- लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’
प्रकाशक- सुमन पुस्तक भंडार, सुखीपुर-5, लड़कन्हाँ, सिरहा नेपाल
पृष्ठ संख्या-152
मूल्य-₹250
समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
☆ समीक्षा – गजल संरचना की बेहतरीन पुस्तक ☆
गजल का अपना मिजाज होता है। इसी मिजाज के चलते इसके नियम दृढ़ होते हैं। जिसके परिपालन से गजल में वजन बढ़ जाता है। तभी जाकर बेहतरीन गजल का प्रत्येक शेर अपने आप में संपूर्ण होता है। इसे सुनने के बाद श्रोता आह और वाह कर उठते हैं।
इसी वजह से गजल लिखना, आरंभ में बहुत कठिन कार्य होता है। जब आप इसकी रग-रग से वाकिफ हो जाते हैं तब इससे सरल काव्य रचना कोई नहीं होती है। यही कारण है कि जो एक बार ग़ज़ल लिखना शुरु कर देता है तब वह दूसरी काव्य विधा की ओर नहीं जाता है।
यही वजह है कि प्रत्येक काव्य रचयिता अपने जीवन में एक ना एक बार गजल लिखने की कोशिश करता है। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो ग़ज़ल का होकर रह जाता है। यदि इस दौरान अन्य काव्य-रचना लिखता है तो उसमें भी वजन बढ़ जाता है।
इसी कारण से हरेक देश में गजल और उसकी संरचना पर अनेक पुस्तकें लिखी गई है। इसी तारतम्य में हमारे समक्ष नेपाल की एक पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें, समीक्षार्थ रूप से रखी हुई है। इस पुस्तक को नेपाल की ग़ज़लकार लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ने लिखा है।
पुस्तक में नेपाल की हर छोटे-बड़े रचनाकार, हिंदी के समर्थक, कवि, कहानीकार आदि ने अपने पत्रों से इस पुस्तक को आशीर्वाद प्रदान किया है। जो इसके आरंभिक पृष्ठों पर प्रकाशित हैं। यह पुस्तक सात अध्याय और उसके पांच से अधिक उपाध्याय में विभक्त है।
नेपाल में हिंदी की पृष्ठभूमि कैसी है? वहां पर गजल का विकास क्रम किस प्रकार का हुआ है? इस प्रथम अध्याय में गजल, अर्थ, परिभाषा, अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी गजलों के बारे में जानकारी दी गई है।
गजल की बात हो और उसके प्रकार का उल्लेख न किया जाए, यह नहीं हो सकता है। दूसरा अध्याय इसी पर केंद्रित है। जहां पर भाव, तुकान्त, राग-विराग आदि अनेक आधारों पर ग़ज़ल के अंतर को बारीकी से समझाया गया है।
गजल की संरचना का उल्लेख किए बिना ग़ज़ल की पुस्तक अधूरी होती है। जब संरचना की बात हो तो उसकी विशेषता, आंतरिक और बाहरी संरचना का उल्लेख होना बहुत जरूरी होता है। इसे के द्वारा गजल के अंग- मतला, रदीफ काफिया, मिशरा, तखुल्लुम, शेर, मकता और गजल की जमीन को समझा जा सकता है।
गजल की अपनी भाषा है। यह भाषा गजल की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसमें किन शब्दों का कब और कहां उपयोग किया जाता है, यह भी महत्वपूर्ण होता है। इसका भी बारीकी से उल्लेख किया गया है।
गजल का संविधान अलग होता है। इसमें हिंदी काव्य की तरह मात्रा की गणना करने का अपना विधान है। कब और कहां मात्रा को गिराया जाता है? वह किस बहर पर रची जाएगी और उसके बहर के प्रकार क्या है? यह एक ग़ज़लकार ही बता सकता है।
इन्हीं प्रवृत्तियों का प्रस्तुतीकरण इस पुस्तक में किया गया है। साथ ही नेपाल के प्रसिद्ध गजलकारों और उनकी गज़लों को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है। चूंकि इस पुस्तक का लेखक नेपाल का निवासी है इस कारण इस पुस्तक में नेपाल के कुछ विशिष्ट शब्दों का समावेश हो गया है। इसके कारण वे पढ़ते समय हमारे दिमाग में खटकने लगते हैं। क्योंकि वह हमारे लिए नए होते हैं। इसके बावजूद गजल की संरचना समझने व सीखने के लिए यह बेहतरीन पुस्तक है। इसमें दो राय नहीं है।
इस बेहतरीन ग़ज़ल संरचना की पुस्तक लिखने के लिए रचनाकार लक्ष्मण यादव बधाई के पात्र हैं। उन्हें हमारी ओर से हार्दिक साधुवाद।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंह जी के उपन्यास “अंततः” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 134 ☆
☆ “अंततः” – श्री राजा सिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
अंततः (उपन्यास)
लेखक – राजा सिंह
पृष्ठ – १४४, मूल्य – ४५० रु
प्रकाशक – राष्ट्रीय पुस्तक सदन, दिल्ली ३२
अंततः उपन्यास की बेबाक समीक्षा स्वयं लेखक राजा सिंह ने पुस्तक के प्रारंभ में अपने दो शब्द के अंतर्गत कर रखी है. राजा सिंह एक उम्दा समकालीन कहानीकार हैं. यह उपन्यास उनकी छठविं कृति है. इससे पहले वर्ष २०१५ में अवशेष प्रणय, २०१८ में पचास के पार, २०२० में बिना मतलब और २०२१ में पलायन नाम से उनकी कहानियां पुस्तकाकार प्रकाशित हुई और सराही गई हैं. २०२१ में पहला उपन्यास बनियों की विलायत आया था. अंततः दूसरा उपन्यास है, यह वर्ष २०२२ में प्रकाशित हुआ है. राजा सिंह निरंतर लेकन कर रहे हैं, सभी उत्कृष्ट पतरिकाओ में समय समय पर उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते रहते हैं. वे अपने परिवेश से चरित्रों को ढ़ूंढ़कर कहानी में उतार देने की कला में माहिर हैं. प्रस्तुत ७पन्यास के लेककीय व्यक्त्व्य में वे लिखते हैं कि उपन्यास की उनकी नायिका यथार्थ है. जिसकी जिजीविषा की कहानी ही अंततः है. एक महत्वाकांक्षी लडकी की यंत्रणा को अनुभव कर संवेदनशील शब्दों में अभिव्यक्ति दे पाना लेखकीय सफलता है. देहात और औसत शहरी वातावरण के कथानक के अनुरूप भाषा, और उपन्यास के पात्रों का नामकरण राजा सिंह के लेखन की विशेषता है. इस उपन्यास में उन्होंने रघु और सीता के इर्द गिर्द कहानी बुनी है.
“उन सबन की बराबरी जिन करा, हमरे पास कौनव खंती न गड़ी है, कहाँ से पढ़ाई करवाते ? घर मा खाना लत्ता तो मुश्किल से जुड़त है शाहबजादी को पढ़ाई कहाँ से करवाते ? माँ बिसुरने लगी ” बातचीत शैली में कही गई, सीता के संघर्ष की कहानी है अंततः. यद्यपि बेहतर होता कि भले ही वास्तविक जिंदगी में नायिका को सफलता न भी मिली हो पर उपन्यास में सफल सुखान्त किया जा सकता था. राजा सिंह की वर्णन शैली में चित्रात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता है.
उपन्यास का यह अंश पढ़िये…
… “मैं जानती थी तुम्हारी नजर कहाँ धरी है? मुझे क्या पड़ी है? बच्चों के लिए रख छोड़ा था बच्चों को भूख से बेहाल नहीं देखा जाता है. इस कारण रख छोड़ा था। वह बड़बड़ाती जा रही थी और कोठरी में खटर-पटर भी करती जा रही थी।
वह असहायता और निरूपता से ग्रस्त इंतजार कर रहा था। थोड़े विराम के बाद कमला कोठरी से बाहर आयी। वह अशांत, क्लेशरहित, दीन भाव से युक्त थी। उसने एकदम सहज तरीके से कड़े रामदीन को सौंप दिए। वह अच्छी तरह से जानती थी कि इस स्थिति के लिए उसका पति किसी तरह से भी दोषी नहीं है। यह सिर्फ दैवयोग ही है।
रामदीन ने जुताई की रकम अदा की और पिछला उधार चुकता करके फिर उधार किया। उसने खाद बीज के लिए भी यही व्यवस्था अपनाई। पिछला उधार चुकता किया और नया उधार किया। सबसे ज्वलंत समस्या मुंह बाये खड़ी थी, घर का खाना खर्चा का क्या होगा? समझ से परे था यह इन्तजाम.? बैंकों का कर्ज पहले से ही था उसे पिछले तीन सालों से चुका नहीं पाया था। नोटिस पे नोटिस आ रहे थे। ब्याज पर ब्याज लगकर खाता अलाभकारी हो चुका था। बैंक के कोई दया ममता तो होती नहीं है परन्तु अब क्या करें? सेठ साहूकार उनका ब्याज मूल से ज्यादा हो चुका है। एक बार खेत का एक टुकड़ा बेचकर उनके मोटे पेट को भोजन करा चुके हैं। मगर उनके अलावा कोई चारा तो नहीं है।
ससुरी खेती कब दगा दे जाये क्या पता….? चलते हैं, चिरौरी करते हैं, वे मानुष हैं, उनके दया ममता आ सकती है। अबकी बार खेत का एक टुकड़ा नहीं सारा का सारा खेत बेच कर ताँता ही समाप्त कर देंगे और सारा उधार निपटाकर शहर जाकर बस जायेंगे मेहनत-मजूरी करके दो वक्त की रोटी तो पा ही जायेंगे। कहते हैं कि शहर में कोई भूखा नहीं मरता । अच्छी लागत और भरपूर मेहनत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया था। फसलें अच्छी तरह पनप और विकसित हो रही थी। निराशाएँ और हताशाएँ बहुत पीछे छूट गयी थीं। उम्मीदों पर, पर लग गए थे। उत्पादन-विक्रय के बाद होने वाली आमदनी का हिसाब काफी अच्छा बैठ रहा था। भावी आमदनी से आवश्यकताओं और अभिलाषाओं के पूर्ण होने की उम्मीद बेहतर होती जा रही थी। बिके हुए गाय-बैल वापस आने कि उम्मीद बंध रही थी।…
लोकभाषा का प्रयोग, समकालिक परिस्थितियों और घटनाओ का वर्णन है, इसलिये उपन्यास पाठक को बांधे रखता है, पठनीय है. उपन्यास की कहानी कोई बड़ा संदेश तो नहीं देती पर वर्तमान सामाजिक परिवेश का यथार्थ चित्रण करती है. मेरी आशा है कि यह उपन्यास स्त्री विमर्श की मुखर कृति के रूप में स्थान बनाने में सफल होगा.