आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डा. रश्मि कौशल जी के उपन्यास “~ मैं प्रेम हूँ ~” पर चर्चा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆
☆ कृति चर्चा ~ मैं प्रेम हूँ : उपन्यास ~ डा. रश्मि कौशल ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
‘मैं प्रेम हूँ’ – उपन्यास
डा. रश्मि कौशल
पृ.सं. – 184
मूल्य – 275 रुपये
प्रकाशक – शिल्पायन बुक्स, शाहदरा, दिल्ली,
प्रथम संस्करण 2020
कृतिकार संपर्क – 9711282391
चर्चाकार: आचार्य संजीव.
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‘मैं प्रेम हूँ’ राधाभाव रश्मि का अनूठा कौशल – आचार्य संजीव
मानव सभ्यता के जन्म से तुरत पश्चात् से आज तक विकास के हर सोपान पर कथा कहानियाँ चोली-दामन की तरह उसके साथ रही हैं। इऩका जन्म मानव की कौतूहली प्रवृत्ति, औत्सुक्य तथा मनोरंजन की तृप्ति हेतु हुआ। कई कथाओं का उद्देश्यपूर्ण क्रमवार सुगठित प्रस्तुतीकरण उपन्यास है। उपन्यास मानवीय जिजीविषा, स्पर्धा, संघर्ष, समरसता, सहिष्णुता, राग-द्वेष, आदि की समग्र झाँकी प्रस्तुत करते हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, भाषाशैली, देश, काल तथा उद्देश्य उपन्यास के प्रमुख अंग हैं। उपन्यास दो शब्दों उप+न्यास के योग से बना है, जिसका अर्थ आसपास की कहानी या घटनाक्रम है। उपन्यास को मानव जीवन का गाथा भी कहा जा सकता है। उपन्यास का रूपविधान लचीला होता है। प्रेमचंद ने उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र कहा है। उपन्यास के अनेक प्रकार हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सांस्कृतिक, समाजवादी, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, राजनैतिक, प्रयोगात्मक, तिलस्मी-जादुई, लोक कथात्मक, आंचलिक, रोमानी, जासूसी, आदर्शवादी, नीतिप्रधान, आत्मचरितात्मक, समस्या-प्रधान, भावप्रधान, महाकाव्यात्मक, वातावरण प्रधान, पर्यावरणात्मक, चरित्रप्रधान, कथानक प्रधान, स्त्रीविमर्शवादी, आप्रवासी, पुरुष-विमर्शवादी आदि।
विवेच्य उपन्यास ‘मैं प्रेम हूँ’ धार्मिक भावप्रधान, मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। उपन्यासकार डा. रश्मि कौशल उच्च शिक्षित अभियंता हैं। अनास्था, पश्चिम के अंधानुकरण तथा धर्म व भक्ति को पिछड़ापन मानने के इस संक्रान्तिकाल में इलैक्ट्रॉनिक्स एवं इंजीनियरिंग में डॉक्टरी उपाधि प्राप्त रश्मिजी द्वारा एक भक्ति भाव प्रधान उपन्यास लिखा जाना चकित करता है। उपन्यास के शीर्षक से यह कृति रोमानी होने की प्रतीति होती है, किन्तु ऐसा है नहीं। यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास कृष्णकाल की बहुचर्चित, अतिलोकप्रिय, विवादास्पद (थी या नहीं थी), अगणित भक्तों की आराध्या सोलह कला से सम्पन्न विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की प्रेयसी, प्रेरणा और शक्ति का स्रोत रही राधा रानी पर केन्द्रित है। ‘राधा हरती भव बाधा’ लोक मानस में राधा की छवि तमाम लोक परंपराओं, रीति रिवाजों, मूल्यों आदि के विपरीत आचरण करने पर भी कल्याणकारी जगदम्बिका की है, जो ईश्वर की आल्हादिनी शक्ति है। जिसके साथ विवाह न हुआ, उसके साथ लुक-छिपकर, लड़-झगड़कर रास रचाने, श्रृंगार कराने तथा जिसके साथ विवाह हुआ उससे प्रायः दूरी पालने के बाद भी राधा लोकमानस में मंगलमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। राधा थी या नहीं थी, राधा का आचरण अनुकरणीय था या नहीं, राधा-कृष्ण का प्रेम आत्मिक था या दैविक, राधाकृष्ण का विवाह हुआ या नहीं, कृष्ण एक से एक रूपवती, गुणवती पत्नियों के रहते राधा को विस्मृत नहीं कर सके, राधा, कृष्ण द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद भी कृष्ण के प्रति समर्पित क्यों रही? दोनों का साहचर्य केवल निर्दोष बालक्रीड़ा थी या कैशोर्य, तारुण्य और यौवन की बेला में परिपुष्ट हुआ नाता, वार्धक्य में दोनों मिले या नहीं? कृष्ण की पटरानियों और राधा का अंतर्संबंध आदि अनेक प्रश्न लोक मानस में उठते और चर्चा का विषय बनते रहते हैं। इस कृति की रचना इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए नहीं की गई, पर विचित्र किंतु सत्य है कि इस कृति का आद्योपांत वाचन करने पर इनमें से हर प्रश्न का सटीक, परिस्थितजन्य, तर्क आधारित उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है।। यह उपन्यासकार रश्मिजी का अद्भुत कौशल है कि वे बिना लिखे भी वह सब लिख सकी हैं, जो पाठक पढ़ना चाहता है।
‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास एक दैवीय अनुभव, सृष्टि से पहले सृष्टि के बाद, रूप और नियम, पृथ्वी पर अवतरण, मिलन, बचपन, गोवर्धन, संबंध, स्पर्श, महारास, विवाह, घर-आँगन, मान, मथुरागमन, विरह, प्रयोजन, उद्धव प्रकरण, मेरा जीवन, मार्गदर्शन, भ्रमण, विलयन, संदेह प्रश्न, तथा सार संग्रह शीर्षक 24 अध्यायों में विभक्त है। हर शीर्षक कथाक्रम की प्रतीति कराता है। सामान्यतः, रचनाकार अपनी रचना का श्रेय खुद लेता है, किंतु रश्मि आभार के क्षण के आरंभ में ही “इस पुस्तक के लिए दैविकता के प्रति जितना भी आभार व्यक्त करूँ वो कम ही होगा। इस पुस्तक में जितनी भी कल्पनाएँ हैं, सत्य हैं, जो कुछ भी है उसका सारा श्रेय दैविकता को देती हूँ।” लिखकर “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा?” की भंगिमा के साथ कृति को कृष्णार्पित कर देतीं हैं। विवेच्य कृति में पूर्व रश्मिजी काव्य संग्रह ‘बारिश की दीवारें’ तथा ‘दरख्त का दर्पण’, कहानी संग्रह, ‘यह शहर की धूप है’ तथा विज्ञानाधारित उपन्यास ‘मुरली एक रहस्यकथा’ का प्रणयन कर चुकी हैं। व्यावसायिक तकनीकी क्षेत्र में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय परिसंवादों में 24 शोधालेख प्रस्तुत कर रश्मि बहुश्रुत और बहुचर्चित हुई हैं।
‘मैं प्रेम हूँ’, न तो शत-प्रतिशत प्रामाणिक दस्तावेज है, न ही कपोल-कल्पना। यह लोक मान्यताओं, पौराणिक साहित्य, लोक परम्पराओं, वैयक्तिक चिंतन तथा प्रचलित धारणाओं का तर्कसंगत सुव्यवस्थित सिलसिलेवार विश्लेषण करता कथाक्रम है। मैं प्रेम हूँ की कथावस्तु सृष्टि रचना पूर्व दैवीय तत्वों के विमर्श, राधारानी के अष्ट रूपों का प्राकट्य, महारास, राधा का प्राकट्य, दाम्पत्य आदि लेखिका की मनःसृष्टि की उपज है। मौलिक चिंतन तथा तर्क सम्मतता के ताने-बाने से बुना गया कथानक यथावश्यक पौराणिक साहित्य से समरसता स्थापित कर अपनी तथ्यपरकता की प्रतीति कराता है। इस तकनीक ने मौलिक चिंतन को दिशाभ्रम से बचाकर लोक-मान्यताओं से संश्लिष्ट रखा है। यह कथानक लोकश्रुत, लोकमान्य, रुचिकर तथा पाठक को चिन्तन परक कल्पनाकाश में उड़ान भरने का अवसर देने में समर्थ है।
उपन्यास की नायिका राधा का चरित्र-चित्रण महिमामय होना स्वाभाविक है। ‘मैं प्रेम हूँ’ का कृष्ण भी राधा के समतुल्य महिमामय है। उपन्यासांत में राधा कृष्णावलंबित होकर अपेक्षाकृत कम उज्ज्वल प्रतीत होती हैं। सम्भवतः इसका कारण राधा का मूर्तिमंत प्रेम होना है। प्रेम में आत्मोत्सर्ग प्रेमी के प्रति समर्पण और प्रेमी में विलय के त्रिचरणीय सोपानों पर राधा के चरित्र का विकास किया गया है। कृष्ण पर गद्य और पद्य में असंख्य लघु-दीर्घ रचनाएँ सहज उपलब्ध हैं, किंतु राधा पर लेखन मुख्यतः राधाभक्तिधारा तक सीमित रह गया है। रश्मि ने राधा पर स्वतंत्र औपन्यासिक कृति की रचना कर साहस का परिचय दिया है, जोखिम उठाया है। राधा थी या नहीं? यह युधिष्ठिर के यक्ष प्रश्न की तरह चिरकाल तक पूछा-बूझा जाता रहेगा। ‘एक दैवीय अनुभव’ के अंतर्गत स्वयं रश्मि भी इस तथ्य का उल्लेख करती हैं। राधा पर लिखित अपनी कविता में वे ‘राधा कौन थी?’ इस प्रश्न के विविध पहलुओं और विकल्पों से दो-चार होती हैं किन्तु कोई मान्यता पाठक पर थोपती नहीं, उसे चिंतन करने का अवकाश देती हैं। अंतत:, वे राधा की ही शरण गहतीं हैं और तब राधा अनुकंपा कर उनके मानस के प्रश्नों के उत्तर ही नहीं देतीं, अपनी समूची कथा में प्रवेश कराकर उन्हें कृतकृत्य करती हैं।
‘सृष्टि से पहले’ के घटनाक्रम की बृहद् आरण्यक उपनिषद् में वर्णित कथा से साम्यता है। पुरुष (ब्रह्म) से उत्पन्न राधा (प्रेम) से सृष्टि उत्पन्न होने का वर्णन अद्भुत है। प्रेम का उद्भव पुरुष के हृदय में होना, प्रेम का पृथक् प्रकट होना, प्रेम के मन में प्रश्न और पुरुष द्वारा उत्तर पठनीय है पुरुष और प्रेम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन रोचक बन पड़ा है। तुम प्रेम हो, तुम्हारी उत्पत्ति मेरे हृदय से हुई है। मैं इस अनंतनिद्रा अवस्था में था। मैंने तुमको अपने भीतर अनुभव किया, मुझमें स्पंदन हुआ मैं भी तुमसे ही जागृत हुआ।
“…जैसे तुम मेरे अंदर थी, मैं तुम्हारे अंदर हूँ। तुम्हारे बिना मैं भी कुछ नहीं है।… तुम्हारी प्रेम-ऊर्जा से संसार की रचना होगी। जैसे तुम मेरे हदय के केंद्र में स्थित थीं, अब यह सारा अनगिनत ब्रह्माण्ड अनंत तक होगा और तुम उसका केंद्र होओगी। तुम्हारे बिना सृष्टि असंभव है, इसलिए तुम्हारा जन्म हुआ है।” इस प्रसंग में पुरुष से प्रेम की उत्पत्ति वर्णित है तथा प्रेम से सृष्टि के जन्म का संकेत है। प्रेम कहता है- ”पुरुष मुझे अपनी तरफ खींच रहा था, जैसे मैं फिर से उसमें समा जाऊँगी। पुरुष ने प्रकृति को इशारा किया। प्रकृति ने तुरंत मेरे पैरों में नूपुर बाँध दिए और पुरुष के हाथ में बाँसुरी दे दी। मेरे कदम बढ़े और नूपुरों की ध्वनि निकली, साथ ही बन रही सृष्टि में गूँजा एक मधुर संगीत बाँसुरी का संगीत। पुरुष एक के बाद एक धुनें बजा रहा था, मेरे कदम जो उसमें समाने के लिए निकले थे, वे धीरे धीरे नृत्य करने लगे। पुरुष भी झूम रहा था औऱ हम दोनों के कदमों की आवाज से, नृत्य और संगीत से हुए कंपन से सृष्टि में निर्माण हुआ अनंत ब्रह्माण्ड, अनेक सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, देव, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस, असुर और अनेकानेक प्राणियों की उत्पत्ति हुई।” यहाँ प्रकृति कौन है, कहाँ से आई, प्रकृति पुरुष से उत्पन्न हुई या पुरुष प्रकृति से, जैसे प्रश्न उठते हैं किंतु अनुत्तरित हैं।
पुरुष के चरणों से ‘काल’ का जन्म जहाँ ‘काल’ वहाँ ‘मोह’ से परे, सृष्टि निवासियों द्वारा सीमोल्लंघन, महाविष्णु, महादेव, पुरुष, प्रेम का सृष्टि के सुचारु संचालन हेतु गोलोक में अवतरण… यहाँ पुनः प्रश्न उठता है कि महाविष्णु व महादेव पुरुष से उत्पन्न हुए या उऩकी स्वतंत्र सत्ता है? जिस तरह ‘पुरुष’ से ‘प्रेम’ उत्पन्न हुआ क्या वैसे ही महाविष्णु व महादेव से भी किसी तत्त्व की उत्पत्ति हुई? गोलोक के नीचे वैकुण्ठ और शिवलोक का संकेत है किंतु भूलोक या अन्य लोकों का नहीं। कालांतर में सिद्धों, मुनियों, देवों के आग्रह पर पुरुष और प्रेम, नर-नारी का रूप लेकर गोलोक में दृष्टिगोचर हुए, जिन्हें पृथ्वीलोक के प्रबुद्ध जनों ने ‘कृष्ण’ और ‘राधा’ नाम दिया। गोलोक में राधा-कृष्ण एक-दूसरे के आराध्य हैं।
‘सृष्टि के बाद’ अध्याय में असुरों का अनाचार, कृष्णभक्त श्रीदामा द्वारा प्रेम (राधा) की अवमानना से फलस्वरूप शंखचूड़ के रूप में जन्म, राधा की कला के अंश से तुलसी का जन्म, राधा के अंश से विरजा का जन्म, राधा-कृष्ण से गंगा की उत्पत्ति, कृष्ण-राधा का अवतरण आदि प्रसंगों का संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण से संकलित है। ‘रूप’ और ‘निगम’ शीर्षक अध्याय में शिव तथा विष्णु के आग्रह पर कृष्ण का विष्णु व राधा का लक्ष्मीरूप धारण करना, कश्यप, अदिति तथा द्रोण व धरा द्वारा तप, हरि का संग चाहनेवालों के जन्मादि का प्रसंग है। ‘पृथ्वी पर अवतरण’ नामक अध्याय में राधा-कृष्ण-योगमाया का धरावतरण, नश्वर सृष्टि देह बंधनों आदि का संकेत है। ‘मिलन’ अध्याय में राधा के 11 माह बाद कृष्ण का जन्म वर्णित है। शैशव से परस्पर आकर्षण, कृष्ण द्वारा असुरवध, बाल लीलाएँ, बचपन शीर्षक अध्याय में वकासुर, तथा कालिय मर्दन, राधा की मानरक्षा, गोवर्धन अध्याय में राधा के सहयोग से कृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण वर्णित है। संबंध अध्याय राधा-कृष्ण-मैत्री से उठते लोकापवादों, दुर्वासा के आगमन, राधा की बालसुलभ जिज्ञासाओं पर केंद्रित है। स्पर्श अध्याय में ग्यारह वर्षीया राधा तथा दस वर्षीय कृष्ण की विविध लीलाएँ हैं, देवी द्वारा नृत्य शिक्षा तथा रास का आध्यात्मिक अर्थ ‘महारास’अध्याय का वर्ण्य विषय है। राधा के अनुसार– “रास एक क्रिया का नाम है, जिसके द्वारा ऊर्जा एकत्रित की गई थी, पृथ्वी के संतुलन के लिए, युग-युगांतर के लिए…. रास समाधि की वह अवस्था है, जहाँ हममें से कोई भी न शरीर होता था, न मन, न ही कर्मों में लिपटा आत्मन। हम सब सिर्फ ऊर्जा के रूप में थे।”
इसमें भाग लेनेवाली हर गोपी आध्यात्मिक शिखर पर थी… कृष्ण माया का उपयोग अवश्य करते थे तकि गोपियाँ अगले दिन सब भूल जाएँ… हमारी ऊर्जा का स्पंदन गाँव से निकल कर, पृथ्वी के वातावरण को चीरते हुए त्रिलोक में फैलने लगा… आगे महाभारत होने वाला था, उसमें जितना विध्वंस होता उसी को कमतर करने के लिए महारास की जरूरत थी अगर कोई मानव चाहे तो अपने अंदर इस महारास को देख सकता है।। उन 144 ऊर्जा-केंद्नों को समझ सकता है, सर्वशक्तिमान परब्रह्म का अनुभव कर सकता है परमानंद पा सकता है, परब्रह्म में विलीन हो सकता है।…”
बढ़ते लोकापवादों को समाप्त करने के लिए राधा-अमन विवाह, राधा की कृष्णमयता, ससुर नंद का रोष, घर-आँगन तथा महल अध्यायों में है। मथुरा गमन तथा विरह शीर्षक ही अध्यायों के कथ्य का संकेत देते हैं। प्रयोजन अध्याय में लेखिका कृष्ण के माध्यम से महारास पर और प्रकाश डालती है। रास में गोपेश्वर शिव के सम्मिलित होने पर राधा के प्रश्नों के उत्तर में कृष्ण कहते हैं- “वो सृजन और संहार की युगलबंदी हैं जिसे पाना आसान नहीं है… ऊर्जा संतुलन के लिए महारास का प्रयोजन (आयोजन) अनिवार्य था। महाभारत के लिए आसुरी शक्तियाँ थीं और महारास के लिए सात्त्विक प्रेम शक्तियाँ। ” इन प्रसंगों में राधा-कृष्ण की अभिन्नता, और एक दूसरे के बिना अपूर्णता जगह-जगह द्रष्टव्य है।
ब्रह्मज्ञान के गर्व से भरे उद्धव और प्रेमभक्ति में निमग्न गोपियों का संवाद उद्धव प्रकरण अध्याय में है। कृष्ण के जीवन की उथल-पुथल तथा आठ विवाहों का संकेत कर राधा कहती हैं- “उन आठों का उनके भौतिक जीवन पर अधिकार था और मेरे जीवन की हर साँस पर कृष्ण का नाम था, कृष्ण का अधिकार था।” लोक की दृष्टि में अमन की पत्नी की सांस पर कृष्ण का अधिकार कैसे मान्य होता?
स्वप्न साक्षात्कार में पधारे कृष्ण ने राधा को व्यावहारिक-आध्यात्मिक दीक्षा देकर मार्गदर्शन भी किया। राधा और अमन को हर (श्यामवर्णी) और हरि (गौरवर्णी) पुत्रों की प्राप्ति हुई। नंद बाबा द्वारा राधा से प्रेम और भक्ति का ज्ञान पाना, राधा के सास-ससुर तथा पति तथा दोनों पुत्रों का महाप्रस्थान, राधा द्वारा उद्धव व सखियों को ज्ञान देना, दोनों पटरानियों का रास से साक्षात्का,र राधा का चिर कैशोर्य तथा कांति देख विस्मित होना, ईर्ष्यावश गर्म दूध पिलाना, कृष्ण के पाँवों में छाले होना, कृष्ण द्वारा रोग के निवारणार्थ रानियों से उनकी चरणरज शीश पर लगाने का अनुरोध, रानियों का भय-संकोच और समाचार मिलते ही राधा द्वारा अपना पग कृष्ण के शीश पर रखकर उन्हें निरोग करने का प्रसंग राधा-कृष्ण की अभिन्नता और ऐक्य इंगित करते हैं। ‘विलयन’ के अध्याय में रुक्मिणी द्वारा आमंत्रण, राधा और गोपियों का द्वारका-गमन, वापिसी के समय कृष्ण विरह से व्याकुल गोपियों के अश्रुपात से भरे सरोवर में 26 गोपियों का देहपात, कृष्ण द्वारा राधा को रोकना, राधा द्वारा वृद्धा का रूप धारणकर रसोई बनाना, दुर्वासा को आभास, राधा द्वारा बनाई खीर का सेवनकर जूठी खीर में तपोबल मिलाकर कृष्ण के तन पर मलने हेतु कहना, कृष्ण द्वारा ऋषि-प्रसाद पाँवों पर न लगाना, दुर्वासा का चिंतित होकर पैरों का विशेष ध्यान रखने का संकेत करना, सांब द्वारा दुर्वासा का उपहास, दुर्वासा द्वारा शाप, कृष्ण का राधा के रंग में रंगकर पांडुरंग होना, व्याध जरा द्वारा कृष्ण वध तथा द्वारका का समुद्र में विलय होने के साथ उपन्यास का पटाक्षेप होता है।
परिशिष्टवत् संदेह-प्रश्न के अंतर्गत कुछ प्रश्नोत्तर हैं, जिनके अंत में राधाजी लेखिका को बतलातीं हैं कि वे लेखिका (हर भक्त) के अभ्यंतर में प्रेम रूप में हैं, अपने भीतर डूबकर उन्हें पाया जा सकता है। ‘सार-संग्रह’ में लेखिका की आत्मानुभूति है, उसका वैज्ञानिक मन, आध्यात्मिक अनुभूतियों से समायोजन स्थापित कर जो पाता है, वही राधा-कृष्ण का प्रसाद मानकर पाठकों में बाँट देता है। तदनुसार जीवन प्रेम है, प्रेम से उत्पन्न, प्रेम में लीन, प्रेम में विलीन… और बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ… अतः, गुरु के प्रति आभार।
‘मैं प्रेम हूँ’ में मुख्य तथा गौण पात्रों का चरित्र-चित्रण स्थूल रूप से कम, उऩकी मनोवृत्ति के संकेत के रूप में अधिक है। इस तकनीक से लेखिका ने अनावश्यक विस्तार से बचकर कथा को गति तथा दिशा देने में सफलता पाई है। इसी तरह कथोपकथन में पारस्परिक प्रश्नोत्तरी संवाद न्यून तथा वर्णनात्मक अभिकथन अधिक है। यह शिल्प हर संवाद के माध्यम से वह उद्घाटित करता है जिससे कथा तथा घटनाक्रम आगे बढ़ते रहे। घटनाओं को क्रमानुसार न रखकर, कथाक्रम की उपादेयता के अनुसार रखा गया है। इस तरह लेखिका अपनी विचार सरणि में पात्रों को भटकाव के भँवर से बचाकर सुरक्षित पार लगा सकी है।
उपन्यास की भाषा शैली विषय की गूढ़ता, आध्यात्मिक प्रसंगों में अभिव्यक्ति की जटिलता शब्दों की सीमित सामर्थ्य तथा पाठक की ग्रहण क्षमता के परिप्रेक्ष्य में सरल, सुबोध, सटीक तथा सहज है। उपन्यास का देश-काल अति विस्तृत है। राधा-कृष्ण के अवतरण से पूर्व प्रसंग पाठक के मन में पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। उन्हें राधा की आत्मानुभूति के रूप में कथाक्रम में पिरोया जा सकता था। पूरे उपन्यास में राधा की भूमिका द्वितीयक तथा कृष्ण की प्राथमिक है, बावजूद इसके कि स्वयं कृष्ण स्वीकारते हैं कि राधा-रहित कृष्ण नहीं हो सकते। ‘मैं प्रेम हूँ’ नायिका प्रधान उपन्यास है किन्तु नायिका हर प्रसंग में नायक पर आश्रित है, नायक उसमें संबल खोजता है पर बल पाता नहीं, देता हुआ मिलता है। उपन्यास का उद्देश्य राधा-कृष्ण का एकत्व प्रतिपादित करना है, और वह भली प्रकार से प्रतिपादित हुआ भी है। लेखिका अपनी विज्ञान के प्रति वैचारिक पृष्ठभूमि में अध्यात्मजनित कथांकुरों को पल्लवित-पुष्पित करने में पूरी तरह सफल है।
डा. अवधेश प्रसाद सिंह ठीक ही लिखते हैं कि “वर्णित सारी घटनाएँ ऐसी हैं जैसे किसी ने सब कुछ अपनी आँखों देखा है।” श्रीपाद कश्यप के मत में – “पुराणों का ज्ञान, तथ्यों का ताना-बाना, रचनात्मकता, भावनाओं और दृश्यों की क्रमबद्ध बेहतरीन प्रस्तुति पुस्तक को पठनीय बनाता है।”
‘मैं प्रेम हूँ’ में प्रेम भाव की सघनता इतनी अधिक है कि कृष्ण भारद्वाज के शब्दों में “ पहली बार ऐसा लगा कि मैं राधाजी बन जाऊँ। पूर्ण प्रेम बन जाऊँ।” शिवी शर्मा इस कृति को “आधुनिक ग्रंथ के समान तथा दैविक प्रेरणा के वशीभूत लिखी गई” पाते हैं। डा. अश्विनी इंदुलकर इस किताब को पढ़ते समय खुद को कृष्ण भगवान् के युग में अनुभव करत हैं। “जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी…”
मुझे एक पाठक के नाते ‘मैं प्रेम हूँ’ का प्रथमतः वाचन करते समय भावलोक में विचरण कर धन्यता की प्रतीति हुई। ‘मैं प्रेम हूँ’ का द्वितीय वाचन अपने अंतर्मन के सामान्यतः अज्ञात रहे पक्ष को उद्घाटित करता लगा और यह विवेचन लिखते समय उपन्यास को उलटते-पलटते हुए राधा-कृष्ण की विविध छवियों की साक्षात् प्रति हुई।
राधा-कृष्ण ही नहीं, अन्य पौराणिक पात्रों, घटनाओं आदि पर क औपन्यासिक कृतियाँ तथा प्रबंध काव्यों को पढ़ने का सौभाग्य मिला है। प्रायः रचनाकारों के पांडित्य प्रदर्शन से उन्हें सराबोर पाया है। कई कृतियों में पात्रों के संवादों, गतिविधियों आदि से रचनाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता झलकती है तब ऐसा प्रतीत होता कि किसी कठपुतली को दूसरी कठपुतली की वेश-भूषा पहना दी गयी है।
रश्मि का कौशल यह है कि वह उपन्यास की हर पंक्ति, हर शब्द में होकर भी कहीं नहीं है। भोजन की थाली में हर व्यंजन में पानी होता है पर ऊपरी दृष्टि से कहीं नहीं दिखता। रश्मि के अभियंता के रूप में कथ्यानुशासन, वैज्ञानिक तथ्यों का नवान्वेषण, भक्त की भावपरकता, लेखिका का अभिव्यक्ति सामर्थ्य तथा ‘स्व’ को ‘सर्व’ में ढाल सकने के मातृत्व भाव के पंच तत्त्व इस उपन्यास की रचना करते हुए, सृजन में लीन सृष्टि में विलीन होकर पाठक मन में पुन: पुनः अवतरित होते हैं। यह लेखिका की सृजन साधना की सफलता है।
अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान के इस त्रिवेणी संगम में हर चैतन्य पाठक को अवगाहन करना चाहिए। पौराणिक औपनिषदिक कथ्यों को विज्ञान सम्मत तथ्यपरकता के साथ संगुंफित कर सत्साहित्य सृजन का सारस्वत अनुष्ठान सतत चलता रहे तो हिंदी साहित्य समृद्ध होगा तथा युवा पाठकों का अपनी उदात्त विरासत की प्रामाणिकता से भी परिचय होगा।
डा. रश्मि कौशल एक लगभग अछूते विषय पर ‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य की छाप छोड़ सकी हैं। कथ्य का संक्षेपीकरण-सरलीकरण, नीर-क्षीर-विश्लेषण, घटनाओं की तारतम्यता, पौराणिक प्रसंगों का यथार्थपरक वर्णन तथा सुगठित कथाक्रम कृति की पठनीयता में वृद्धि करता है। जयदेव तथा चैतन्य महाप्रभु प्रणीत राधा भाव भक्ति धारा आंदोलन ने संक्रमण काल में जनगण के मन को शांत-सुदृढ़ करने में महती भूमिका निभाई है। राधाभाव भक्ति का विज्ञान-सम्मत विश्लेषण, राधाभाव धारा को नव आयाम देकर तर्कणा प्रधान नव पीढ़ी को जोड़ने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकता है। इस सोद्देश्य सृजन हेतु डा. रश्मि कौशल साधुवाद की पात्र हैं।
समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ईमेल: [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈