हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ एक देश जिसे कहते हैं – बचपन – दीप्ति नवल ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ एक देश जिसे कहते हैं – बचपन – दीप्ति नवल ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(एक संवेदनशील अभिनेत्री, कवियित्री एवं लेखिका की संवेदनशील पुस्तक पर चर्चा निश्चित रूप से श्री कमलेश भारतीय जी जैसे संवेदनशील-साहित्यकार की संवेदनशील दृष्टी एवं लेखनी ही न्याय दे सकती है, यह लिखने में मुझे कोई संदेह नहीं है। श्री कमलेश भारतीय जी की इस चर्चा को पढ़कर इस पुस्तक की ई-बुक किंडल पर डाउनलोड कर कुछ अंश पढ़ने से स्वयं को न रोक सका। इसका एक कारण और भी है, और वह यह कि दीप्ति नवल जी हमारे समय की उन अभिनेत्रियों में हैं, जिनके प्रति हमारी पीढ़ी के हृदय में अभिनेत्री एवं साहित्यकार के रूप में सदैव आदर की भावना रही है। – हेमन्त बावनकर, संपादक – ई- अभिव्यक्ति  )

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

‘मैंने अपने घर चंद्रावली की छत से एक पत्थर का टुकड़ा साथ की मसीत के गुम्बद की ओर फेंका – आखिरी बार। गुम्बद पर बैठे कबूतर उड़ गये। मैंने एक आह भरकर खुद से पूछा -जैसे ये कबूतर उड़कर वापिस आ जाते हैं, क्या मैं भी कभी अपने इसी घर में अमेरिका से वापिस आ पाऊंगी ?

सच कहा, सोचा दीप्ति नवल ने हम कभी वहीं, वैसे के वैसे जीवन में वापिस नहीं लौट सकते लेकिन जो लौट सकती हैं – वे होती हैं मधुर यादें। यही इस किताब के लेखन का केंद्र बिंदु है, बचपन लौट नहीं सकता लेकिन उसकी यादें जीवन भर, समय-समय पर लौटती रहती हैं।

दीप्ति नवल ने अपने बचपन और टीनएज के कुछ सालों की यादों को इस पुस्तक में पूरे 380 पन्नों में बहुत ही रोचक ढंग से लिखा है। वैसे इसे दीप्ति नवल की आत्मकथा का पहला पड़ाव भी माना जा सकता है। और खुद दीप्ति ने भूमिका में लिखा है कि इसे मेरी बचपन की कहानियां भी कहा जा सकता है। छोटी से छोटी यादें और उनसे मिले छोटे-छोटे सबक, सब इसमें समाये हुए हैं। जैसे बहुत बच्ची थी तो दीप्ति अपनी नानी से कहती ‘चीनी दे दो, चीनी दे दो’ कहती रहती और, जब चीनी न मिलती तो कहती – लूण ही दे दो। यानी समझौता और सबक यह कि फिर समझौते न करने की कसम खाई ली। ज़िंदगी में किसी भी कीमत पर कोई भी समझौता नहीं। जब माँ दूध बांटने जाती हैं और नन्ही दीप्ति साथ जाती है। एक दिन जब सारा दूध बंट चुका होता हो तो एक बच्चा दूध मांगता है और खत्म होने की बात सुनकर जो चेहरे पर उदासी आती है, निराशा होती है, वह दीप्ति को आज तक नहीं भूली और वे कोई पेंटिग बनाने की सोचती रहती हैं।

दीप्ति नवल एक एक्ट्रेस ही क्यों बनीं ? इसका जवाब कि इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि। दादा बहुत बड़े वकील थे लेकिन अमृतसर के दो तीन सिनेमाघरों में एक बाॅक्स बुक रखते और शाम को कोर्ट से लौटते हुए पहले किसी न किसी फिल्म का कुछ हिस्सा देखकर ही घर आते। मां हिमाद्रि भी कलाकार, डांसर और स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान के लिए नाटक करती रहीं। सचमुच एक्ट्रेस ही बनना चाहती थीं। पर दीप्ति की दादी ने एक दिन इनकी माँ को कहा कि मेरी वीमेन कान्फ्रेंस की औरतें  कहती हैं कि तेरी बहू तो ड्रामे करती है। बस। दादी की बात दिल को ऐसी लगी कि वह दिन गया, फिर कभी मंच पर कदम नहीं रखा। इनके एक कजिन इंदु भैया बिल्कुल देवानंद दिखते थे और ‘दोस्ती’ फिल्म में छोटा सा रोल भी मिला लेकिन मुम्बई से असफल रहने पर लौट आये। इंदु भैया का देवानंद की लुक में फोटो भी है।

पर दीप्ति नवल जब बच्ची थी तब प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी अमृतसर एक नाटक मंचन करने आए और दीप्ति अपने पिता के साथ गईं। भरी भीड़ में अपने करीब से निकलते बलराज साहनी को बहुत धीमी आवाज में कहा कि ऑटोग्राफ प्लीज, वे थोड़ा आगे निकल गये। फिर अचानक लौटे और हाथ बढ़ाया ऑटोग्राफ बुक लेने के लिए। ऑटोग्राफ किये और कहा -माई डियर। यदि मैं इसी तरह ऑटोग्राफ देता रहा तो मेरी ट्रेन छूट जायेगी। यह वही उम्र थी जब दीप्ति ने फैसला कर लिया कि मैं एक्ट्रेस ही बनूंगी। किस किस एक्ट्रेस से प्रभावित रही यह पूरा खुलासा किया है -फिल्ममेनिया अध्याय में। कभी मीना कुमारी, तो कभी वहीदा रहमान, तो कभी शर्मिला टैगोर, तो कभी अमृतसर का काका यानी राजेश खन्ना, तो कभी साधना। साधना कट भी बनवाया। कत्थक सीखा, यूथ फेस्टिवल में पुरस्कार जीते लेकिन जब टिकटों के साथ दीप्ति के प्रोग्राम में लाइट चली गयी और माँ ने कुछ हुड़दंग देखा तब इस तरह के प्रोग्राम से तौबा करने का आदेश दे दिया और माँ की तरह खुद दीप्ति भी मन मसोस कर रह गयी। पर सफर जारी रहा। कोई सोचे कि दीप्ति ने अचानक से पेंटिंग शुरू कर दी। यह शौक भी बचपन से ही है। एक आर्ट स्टुडियो में बाकायदा कला की क्लासें लगती रहीं। और अब तो मनाली के पास बाकायदा पेंटिंग स्टूडियो है। हालांकि फिल्मी दुनिया का सफर कैसा रहा ? यह अनुभव नहीं लिखे गये, लेकिन एक बहुत प्यारी बात लिखी कि-  जिस दीप्ति नवल को कत्थक नृत्य आता था, उससे किसी फिल्म में किसी निर्देशक ने एक भी डांस नहीं करवाया।

यह हिंदी फिल्मों की भेड़चाल को उजागर करने के लिए काफी है कि कैसे किसी कलाकार को एक ही ढांचे में फिट कर दिया जाता है। फिर दीप्ति ने फिल्में भी बनाईं और सीरियल्ज भी, निर्देशन भी किया। वह एक्टिंग से आगे बढ़ गयी। वैसे दीप्ति नवल को वहीदा रहमान का ‘गाइड’ फिल्म का गाने ‘कांटों से खींच के ये पायल’ बहुत पसंद था और वहीदा रहमान की लुक की तरह मंच पर किसी और गाने पर प्रोग्राम भी दिया था। वहीदा रहमान की लुक में भी फोटो है। कविता लेखन भी स्कूल के दिनों में ही शुरू कर दिया था और इनकी सीनियर किरण बेदी ने इनकी कविता पढ़ी तो कहा किअच्छा लिखती हो और लिखती रहो। अमृता प्रीतम से मिली तो उन्होंने भी कहा कि आप कविता लिखा करो। इनका काव्य संग्रह ‘लम्हा लम्हा’ इससे पहले आकर चर्चित हो चुका है।

 पिता उदय चंद्र एक चिंतक, लेखक और अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। दीप्ति उन्हें ‘पित्ती’ कहती थी यानी पिता जी का शाॅर्ट नेम पित्ती। सुबह अपनी बेटियों को हारमोनियम बजा कर जगाया करते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरु, सर्वपल्ली राधाकृष्णन् और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे विद्वानों तक सम्पर्क रहा। पुस्तकें लिखीं। काॅलेज में प्रोफैसरी  की और दोस्त से कहा -यार तीन सौ रुपये में क्या होगा ? फिर इसी प्रोफैसरी से प्यार हो गया। इसी ने अमेरिका तक पहुंचाया। हालांकि वहां भी कम मेहनत नहीं करनी पड़ी। दिन में किसी लाइब्रेरी में तो रात में कहीं सिक्युरिटी गार्ड पर बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए सब खुशी खुशी करते गये और आखिर एक साल के भीतर बच्चों को अमेरिका बुला लिया।

मैंने इसलिए शुरू में इस पुस्तक को दीप्ति नवल की आत्मकथा का पहला भाग कहा। इसमें बचपन को ही समेटा है। स्कूल के दिनों की शरारतें, सहेली का पीछा करने वाले लड़के की पिटाई, भाग कर बैलगाड़ियों की सवारी के मजे, नकल मोमबत्तियों के साये में और पेपर रद्द लेकिन दीप्ति का कहना कि उसने कोई नकल नहीं की थी। नीटा देवीचंद का वो रूप जो बाद में मनोवैज्ञानिक शब्दावली में ‘लेस्बियन’ समझ में आया। पागलखाने में दाखिल नीटा देवीचंद को देखने जाना और फिर बरसों बाद पता लगना कि विदेश में नीटा देवीचंद ने आत्महत्या कर ली। शिमला में नीटा की मां को बुलाकर मिलना। इसी तरह मुन्नी सहित कितनी सखियों की यादें। यह सब संवेदनशील दीप्ति के रूप हैं। इतना सच कि फिल्मों में देखे कश्मीर को देखने के लिए अकेली घर से भाग निकली और रेलवे-स्टेशन पुलिस ने वापिस अमृतसर पहुंचाया। और पापा का कहना कि बेटा  एक रात घर से भागकर तूने मेरी बरसों की कमाई इज्जत मिट्टी में मिला दी पर बाद में एक सफल एक्ट्रेस बन कर ‘पित्ती’ यानी पिता का नाम खूब रोशन भी किया। एक पिता का दर्द बयान करने के लिए काफी है। यह भी उस समय की फिल्मों के प्रभाव को बताने के लिए काफी है कि बालमन पर ये फिल्में कितना प्रभाव छोड़ती थीं। कभी देशभक्ति उमड़ती थी तो दीप्ति नवल गीत गाती थी -साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल या हकीकत फिल्म के गीत।

अमृतसर की बहुत कहानियां हैं।  इन कहानियों में भारत पाक विभाजन, सन् 1965 और सन् 1967 के युद्धों की विभीषिका, ब्लैक आउट के साथ साथ बर्मा के संस्मरण कि कैसे मां का परिवार वापिस पहुंच पाया। विश्व युद्ध की झलक और बहुत कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का मार्मिक वर्णन। यह सिर्फ बचपन की स्मृतियां नहीं रह गयीं बल्कि अपने समय, समाज और देश का एक जीवंत दस्तावेज भी बन गयी हैं। अमृतसर के जलियांवाला बाग का मार्मिक चित्रण। वे वहां काफी देर तक बहुत भावुक होकर बैठी रहीं और यह प्रभाव आज तक बना हुआ है। सिख म्यूजियम और बाबा दीप चंद का फोटो। बहुत से फोटोज है ब्लैक एड व्हाइट।

बहुत कुछ है इन यादों में छिपा हुआ। अपने माता पिता के आपसी झगड़ों को भी लिखकर दीप्ति ने यह साबित कर दिया कि लेखन में वे कितनी सच्ची और ईमानदार हैं।

बहुत सी क्लासफैलोज के जिक्र भी हैं जिनमें इनको बड़ी बहन की  सहपाठी किरण पशौरिया जो बाद में किरण बेदी बनी – पहली महिला आईपीएस और नीलम मान सिंह जो बड़ी चर्चित थियेटर आर्टिस्ट हैं और पंजाब विश्वविद्यालय के इंडियन थियेटर विभाग की अध्यक्ष भी रहीं।

तो लिखने को तो बहुत कुछ है, अगर लिखने पे आते।

सबसे अंत में दीप्ति नवल के पिता हमारे नवांशहर के थे और यहीं इनका जन्म हुआ। यह किताब मुझे पंजाब के अमृतसर, नवांशहर, जलालाबाद और मुकेरियां तक ले गयी। जलालाबाद को छोड़कर सब देखे हुए हैं और इससे भी ज्यादा सुखद आश्चर्य कि वही वर्ष मैंने भी पंजाब के नवांशहर में बिताये और ऐसी बहुत सी स्मृतियां मिलती सी हैं पर जिस ढंग से, पूरी खोज, जांच पड़ताल से दीप्ति ने यह किताब लिखी, वह बहुत ही सराहनीय है और इसके लिए ढेरों बधाइयां।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 114 – “थाने थाने व्यंग्य” – संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु द्वारा सम्पादित पुस्तक  “थाने थाने व्यंग्य” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 114 ☆

☆ “थाने थाने व्यंग्य ” – संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

थाने थाने व्यंग्य  (३४ व्यंग्यकारों के पोलिस पर व्यंग्य लेखों का संग्रह)

संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु

वनिका पब्लिकेशनन्स, बिजनौर

पृष्ठ १२४, मूल्य २०० रु

“सैंया भये कोतवाल फिर डर काहे का” या “चाहे तन्खा आधी कर दो पर नाम दरोगा धर दो ” जैसी लोकप्रिय प्राचीन  कहावतें ही पोलिस के विषय में बहुत कुछ अभिव्यक्त कर देती हैं. बड़े बूढ़े कहते हैं पोलिस से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी.  दरअसल संतरी, दरोगा और  थाना ही शासन का वह स्वरूप है जिससे आम आदमी का सरकार से सामना होता रहा है. स्वतंत्रता के बाद भी पोलिस की इस छबि को बदलने की लगभग असफल कोशिशें ही की गईं हैं. यही कारण है कि  लगभग प्रत्येक व्यंग्यकार ने इस मुद्दे को कभी न कभी अपने लेखन का विषय बनाया है. परसाई जी ने  इंस्पैक्टर मातादीन को चांद तक पहुंचा दिया था, रवीन्द्रनाथ त्यागी के” थाना लालकुर्ती का दरोगा राष्ट्रपति से ज्यादा प्रभावशाली है, वर्ष २००९ में डा गिरिराज शरण के संपादन में प्रभात प्रकाशन से पोलिस व्यवस्था पर व्यंग्य शीर्षक से एक संकलन प्रकाशित हुआ था जिसमें तत्कालीन व्यंग्यकारो के पोलिस पर लिखे गये २४ व्यंग्य शामिल हैं. संग्रह में शामिल व्यंग्यकारों में शरद जोशी, ईश्वर शर्मा, लतीफघोंघी, शंकर पुणतांबेकर, रवीन्द्र नाथ त्यागी,बालेंदुशेखर तिवारी और  हरिशंकर परसाई जी भी हैं.

संभवतः इसी से प्रेरित होकर स्व सुशील सिद्धार्थ जी ने इसके समानांतर आज के व्यंग्यकारों को लेकर इस संग्रह की परिकल्पना की रही हो. संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशुने बड़ी संजीदगी से इस परिकल्पना को थाने थाने व्यंग्य  के रूप में साकार कर दिखाया है. थाने थाने व्यंग्य 

में ३३ समकालीन व्यंग्यकारों की रचनायें हैं. सभी एक से बढ़कर एक व्यंग्य हैं. यह उल्लेख करना उचित होगा कि  जहां गिरिराज शरण जी के संपादन में आये व्यंग्य संग्रह में केवल मीना अग्रवाल ही एक मात्र लेखिका थीं, जिनका लेख अपराध विरोधी पखवाड़ा और दरोगा गैंडासिंह उस किताब में शामिल था, वहीं थाने थाने व्यंग्य में अर्चना चतुर्वेदी, अनीता यादव, मीना अरोड़ा, डा नीरज सुधा्ंशु, वीना सिंग, स्वाति श्वेता, सुनीता सानू और शशि पांडे सहित ८ महिला व्यंग्य लेखिकाओ ने पोलिस पर कलम चलाई है. यह स्टेटिक्स विगत दस बारह वर्षो में महिला व्यंग्यकारो की उपस्थिति दर्ज करता है.  मजे की बात यह है कि गिरिराज शरण जी के संपादन में आई पुस्तक में परसाईजी का जो व्यंग्य था वह भी किताब का अंतिम व्यंग्य इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर था और इस किताब का अंतिम व्यंग्य भी मेरा  व्यंग्य ” मातादीन के इंस्पैक्टर बनने की कहानी ” है, जो परसाई जी के इंस्पैक्टर मातादीन पर ही अवलंबित एक्सटेंशन व्यंग्य है. आज के वरिष्टतम व्यंग्यकारो मेंसे डा ज्ञान चतुर्वेदी जी का व्यंग्य कर्फ्यू में रामगोपाल, अरविंद तिवारी का व्यंग्य हवलदार खोजा सिंह का थाना, डा हरीश कुमार सिंह का पुलिस की पावर, शशांक दुबे का खंबे पर टंगा सी सी टी वी कैमरा,  आषीश दशोत्तर का थाने में सांप, राजेश सेन का नकली पुलिस के असली कारनामें, डा नीरज सुधा्ंशु का चोर पुलिस और कैमिस्ट्री,कमलेश पाण्डेय का अथश्री थाना महात्म्य,  पंकज प्रसून के दो छोटे व्यंग्य ट्रैफिक हवलदार का दर्द और अपराध हमारी रोजी रोटी के लिये बहुत जरुरी है, जैसे मजेदार कटाक्षों से भरी समाज और पुलिस की वास्तविकताओ के कई कई दृश्य  किताब  से उजागर होते हैं.

पढ़कर न केवल मजे लीजीये बल्कि इन लेखको के व्यंग्य कथ्य मन ही मन गुनिये और कुछ व्यवस्था में सुधार सकते हों तो अवश्य कीजिये जो लेखकों का अंतिम प्रयोजन है किताब की ग्रेडिंग धांसू कही जा सकती है, खरीद कर पढ़ने योग्य संकलन के लिये प्रकाशक, संपादकों, सहभागी व्यंग्यकारो और इसकी परिकल्पना करने वाले स्व सिद्धार्थ जी को साधुवाद. सरकार को सुझाव है कि पोलिस सुधार पर जो सेमीनार किये जाते हैं उनमें और प्रत्येक थाने में  थाने थाने व्यंग्य की प्रतियां अवश्य बंटवायें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “माई लाइफ़” – लेखिका – इज़ाडोरा डंकन – अनुवाद : युगांक धीर ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।

आज से प्रस्तुत है इज़ाडोरा डंकन की आत्मकथा  “माय लाइफ” के श्री युगांक धीर द्वारा हिंदी भावानुवाद पर श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक चर्चा)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “माई लाइफ़” – लेखिका – इज़ाडोरा डंकन – अनुवाद : युगांक धीर ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

पुस्तक : माई लाइफ़

लेखिका : इज़ाडोरा डंकन

प्रकाशक : संवाद प्रकाशन

अनुवाद : युगांक धीर

क़ीमत : 350.00

प्रकाशन वर्ष : 2002

यह समीक्षा इज़ाडोरा की आत्मकथा ‘माय लाइफ’ के हिन्दी अनुवाद ‘इज़ाडोरा की प्रेमकथा’ पढ़कर लिखी गयी है। उसके जन्मदिन 29 अप्रैल के दिन अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस (इंटरनेशनल डांस डे) मनाया जाता है।

नृत्य, नाच, झूमना, गाना या डांस इन्सानों की नैसर्गिक प्रवृत्तियों में से एक प्रवृत्ति है। यह माना जा सकता है। इसमें बहस मुबाहसे की जरूरत नहीं है। भारत में तो क्लासिक संगीत की तरह क्लासिक नृत्य भी हैं। इस लेख का उद्देश्य अमरीका की आधुनिक नृत्य की जननी महान इज़ाडोरा की आत्मकथा के बहाने स्त्रीत्व को समझना होगा। गौरतलब हो कि इस महान नृत्यांगना को इतिहास में कई तरीक़ों से याद किया जाता रहा है। इसके साथ ही उनकी मुक्त विचारधारा और जीवनशैली को भी निशाने पर लिया जाता रहा है। हैरत की बात है कि जिस नृत्य को लेकर अमरीका बीसवीं शताब्दी में माइकल जैकसन को लेकर दीवाना रहा वहीं इस मशहूर नृत्यांगना का ज़िक्र भी नहीं सुनाई देता या बहुत बड़े पैमाने पर सुनाई नहीं देता। ज़िक्र होता भी है तो बहुत ही धीमी आवाज़ में। आज का समाज भी आज़ाद स्त्री से डरा हुआ है।

भारत में भी तमाम तरह की नृत्य प्रतियोगिताओं के कार्यक्रमों के दौरान माइकल जैकसन का नाम आता रहता है पर इज़ाडोरा का नाम सुनाई भी नहीं देता। यह भी सच है कि सत्ताओं ने जिस इतिहास को दिखाना चाहा, लोगों तक वही पहुंचा भी। जिसे स्कूली किताबों में जगह मिली उनका मनमाना चेहरा दिखाया गया। जो लोग/ व्यक्तित्व /समाज बनाई गई लीक पर चले उन्हें फ्रेम में लिया गया। पर जो लीक पर चलने को राज़ी न हुए उन्हें एक अंधेरा और लंबी खामोशी दी गई। यह हर जगह के इतिहासों के साथ है। महिलाओं और दबाये गए लोगों के साथ यह काम और भी क्रूरता से किया गया। लेकिन कुछ लोग इतिहास में किसी भी तरह मारे नहीं जा सके और उभर आए।

एंजेला इज़ाडोरा डंकन का जन्म 27 मई 1878 को अमरीका के सेन फ्रांसिस्को में हुआ था। बेहद छोटी अवस्था में उनके माता पिता के बीच तलाक हो गया था। उनके परिवार में उनकी माँ को मिलाकर पाँच लोग थे। माँ ने ही अकेले अपने चारों बच्चों की परवरिश की। इज़ाडोरा ने अपनी आत्मकथा ‘माय लाइफ’ में अपने बचपन का बेहद प्रभावपूर्ण वर्णन किया है। वह आत्मकथा में नृत्य के बारे में लाजवाब बात कहती हैं- “अगर लोग मुझसे पूछते हैं कि मैंने नाचना कब शुरू किया तब मैं जवाब देती हूँ- ‘अपनी माँ के गर्भ में। शायद शहतूतों और शैम्पेन के असर की वजह से, जिन्हें प्रेम की देवी एफ़्रोदिती की खुराक कहा जाता है।”

वह यह भी कहती हैं- “मुझे इस बात का शुक्रगुजार होना चाहिए कि जब हम छोटे थे तब मेरी माँ गरीब थी। वह बच्चों के लिए नौकर या गवर्नेस नहीं रख सकती थी।। इसी वजह से मेरे अंदर एक सहजता है, ज़िंदगी को जीने की एक कुदरती उमंग है, जिसे मैंने कभी नहीं खोया।” बीसवीं शताब्दी के आरंभ में इज़ाडोरा का इस तरह से ज़िंदगी के प्रति मुखर होना सचमुच आकर्षित करता है।

वे स्कूल में भी इस कदर पेश आती थी कि परंपरा में ढली टीचर की निगाह में वे चुभ जाया करती थीं। आत्मकथा में वे लिखती हैं कि एक बार टीचर ने अपनी जिंदगी का इतिहास लिखकर लाने को कहा। अपने दिये जवाब में वे कहती हैं- “जब मैं पाँच वर्ष की थी तब तो तेइसवीं गली में हमारा एक कॉटेज था। पर किराया न दे पाने के कारण हम वहाँ नहीं रह सके और सत्रहवीं गली में चले गए। पर पैसों की तंगी के कारण जल्दी ही मकान मालिक यहाँ भी तंग करने लगा और हम बाइसवीं गली में शिफ्ट हो गए। वहाँ भी शांति से नहीं रह सके और वहाँ से भी खाली करके दसवीं गली में जाना पड़ा। इतिहास इसी तरह चलता रहा और हम लोगों ने जाने कितनी बार घर बदले।” टीचर ने जब यह सुना तो वह गुस्से से लाल हो गई और नन्ही इज़ादोरा को प्रिन्सिपल के पास भेज दिया गया। प्रिन्सिपल ने माँ को बुलाया। जब माँ ने यह देखा तो वह खूब रोने लगीं और कसम खाकर कहा कि यह सच है।

सभी बच्चों के लिए टीचर की एनक में एक ही फ्रेम है। एक ही साँचे में ढालने की कोशिश। आज भी यही शिक्षा है। टीचर को किसी भी विद्यार्थी की स्वतंत्र स्वतन्त्रता को सम्मान देते बहुत हद तक नहीं देखा गया। उसकी मूल दिलचस्पी या चाहत की समझ बहुत से कम शिक्षकों को हो पाती है। यह स्कूली शिक्षा की एक कड़वी सच्चाई भी है। इसलिए जब इज़ाडोरा का स्कूल चल पड़ा तब उन्होंने इस पढ़ाई को नकार दिया। पर व्यक्तिगत रूप से परिवार के अन्य लोगों के साथ उन्होंने जगह-जगह की लाइब्रेरी में बहुत सा समय बिताया। बेहद कम उम्र से आसपड़ोस के बच्चों को इज़ाडोरा ने नृत्य सिखाने की शुरुआत की और लगभग दस वर्ष की होते होते उन्हों ने एक बढ़िया नृत्य प्रशिक्षण स्कूल खोल लिया। इसकी मूल प्रेरणा उनकी माँ रहीं जो नृत्य और संगीत की गहराई से समझ रखती थीं। उन्होंने अपने बच्चों में भी उसका पर्याप्त प्रवाह किया।

इज़ाडोरा दो शताब्दियों के बीच के बिन्दु पर विख्यात रहीं। इस प्रसिद्धि की मूल वजह उनका आधुनिक नृत्य था। कहना न होगा कि उन्होंने नितांत अपनी शैली विकसित की बल्कि उसे नए आयामों तक भी पहुंचाया। इसी शैली ने उन्हें यूरोप और अमरीका में विख्यात कर दिया। उनके लिए लोग दीवाने हो जाया करते थे। उनके नृत्य के बाद लोग घंटों सम्मोहन में रहते थे। इंग्लंड के मशहूर नृत्य समीक्षक रिचर्ड ऑस्टिन के मुताबिक- “एक तरह से वह एक ऐसी नृत्यांगना थी जो किसी शास्त्रीय अध्ययन और प्रशिक्षण की देन होने की बजाय विशुद्ध प्रकृति की पैदाइश थी।” खुद इज़ादोरा आत्मकथा में यह कहती भी हैं कि उनका बचपन संगीत और काव्य से भरा था। इसका स्रोत उनकी माँ थी जो पियानो पर संगीत बजाने में इतनी खो जाती थी कि कई बार रात से सुबह हो जाया करती थी।

इज़ाडोरा ‘माय लाइफ’ में कई जगह अपनी कला यानि नृत्य से जुड़े अपने विचार रखती हैं। वे कई घंटों तक आत्म केन्द्रित होकर उस आयाम को खोजती रही थीं जो मनुष्य की सर्वोच्च आकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर सके। उन्होंने गति के उस सिद्धान्त की खोज की जो मन, मस्तिष्क और संवेगों से जुड़ा हुआ था। वे कहती हैं- “… मन की, आत्मा की वह जागृति चाहिए जिसके द्वारा हम अपने शरीर के सभी संवेगों को और अपने अंगों की सभी क्रियाओं को महसूस कर सकें। एक तरह से मन, शरीर औए मस्तिष्क का पूरा तालमेल।” एक जगह इज़ाडोरा ‘प्रिमाविरा’ पेंटिंग से प्रभावित होकर अपने ‘डांस ऑफ फ्यूचर’ की ईजाद भी करती हैं। इसमें इस नृत्य के माध्यम से ज़िंदगी की भव्यता और उसके चरम आनंद का संदेश देना उनका लक्ष्य था।

ऐसे ढेरों उदाहरण उनकी आत्मकथा में भरे पड़े हैं जहां वे अपनी कला के प्रति पूरी तरह से समर्पित और आत्मा से जुड़ी हुई दिखाई देती हैं। खुला हाथ और स्कूल को बनाए रखने के कारण उन्हें हर जगह अपने नृत्य कार्यक्रम पेश करने होते थे। पूरी आत्मकथा में कहीं भी वे यह नहीं कहती कि इस ज़िंदगी से वे ऊब गई हैं। बल्कि ज़िंदगी से मिले दुखों में वे हमेशा नृत्य की ओर मुड़ती हैं।

जरा सोचिए कि आज के समय में हमारे समाज में उन लड़कियों या औरतों को लेकर हम क्या सोच बनाते हैं जिनके बिना विवाह के बच्चे हो जाते हैं। आज के दौर में तो फिर भी एक समझ धीरे धीरे विकसित हो रही है। पर नीना गुप्ता (अभिनेत्री) ने जब बिना विवाह अपनी बेटी को जन्म दिया तब उन्हें क्या क्या सुनना पड़ा था। अपने कई इंटरव्यूज़ में वे बार बार इसका ज़िक्र भी करती हैं। आज भी यदि कोई महिला पिता के नाम के बिना अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला करवाने जाती है तब कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कितने ही गलत विचारों और मानसिकता से टकराना पड़ता है।

इज़ाडोरा ने बचपन से अपनी माँ की दुखद और दयनीय स्थिति देखी थी। इसलिए वे शादी जैसी संस्था को कड़े आलोचनात्मक नज़रिये से देखती थीं। वे स्वतंत्र मस्तिष्क वाली स्त्री की बात करती हैं। ‘माय लाइफ’ में वे लिखती भी हैं- “आज से बीस वर्ष पहले (1905 में) जब मैंने विवाह करने से इंकार किया और बिना विवाह के बच्चे पैदा करने के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिखाया तब अच्छा-खासा हँगामा हुआ था।” उनके मुताबिक,“विवाह संस्था की नियम संहिता को निभा पाना किसी भी स्वतंत्र दिमाग की स्त्री के लिए संभव नहीं है।”

इतना ही नहीं वे समाज और परिवार के संकुचित विचारों को भी निशाना बनाती हैं। उनकी मौसी आगस्ता के जीवन की बरबादी वे परिवार के संकुचित विचारों के कारण ही मानती हैं। मौसी को नृत्य-नाटिकाएँ करने का शौक था। वह थिएटर में काम को लेकर उत्साहित रहती थीं। पर उनके नाना नानी को यह पसंद नहीं था। मौसी की कलात्मक प्रतिभा के खत्म होने को इज़ाडोरा इसी संकुचित सोच को मानती हैं। अपनी मृत्यु के कुछ वर्षों पहले जब वे रूसी नौजवान कवि से विवाह भी करती हैं तब उसके पीछे की वजहों को जानकार पता चलता है कि उनके मन में विवाह के प्रति विचारों में कोई खास अंतर नहीं आया था।

इज़ाडोरा और उनके अन्य भाई-बहन ने अपनी भावनाएँ और कला को दबाने के बजाय उसे निखारा और ताउम्र उसके प्रति समर्पित भी रहे। अपनी कला और उसको और ऊंचाई तक ले जाने के लिए वे लगभग योरोप भ्रमण से लेकर रूस तक घूमे। अपने संघर्ष के दिनों में वे शिकागो, न्यूयॉर्क और लंदन तक ठोकरे खाते रहे।इस दरमियान वे कई बार भूखे रहे तो कई बार बिना छत के इधर उधर भटकते रहे।

इज़ाडोरा की आलोचना का एक कारण उनके और कई पुरुषों के बीच के संबंध भी रहे। उनकी ज़िंदगी में कई पुरुष आए और गए। उनका पहला प्रेम का भाव पोलिश चित्रकार इवान मिरोस्की के लिए था। वह उम्र में काफी बड़ा था और इज़ाडोरा बेहद कम उम्र की थीं। लेकिन यह प्रेम प्रसंग आगे न बढ़ पाया क्योंकि इज़ाडोरा को कुछ बनने के जुनून ने कला की कदर के लिए दूसरे शहर में जाने को मजबूर कर दिया। बाद में उनके भाई ने जब इस चित्रकार के बारे में छानबीन की तो पाया कि यह पहले से शादीशुदा है। इसके बाद हंगेरियन अभिनेता ऑस्कर बरजी से उनके प्रेम संबंध रहे। इतिहासविद् हेनरीख थोड से भी गहराई में प्रभावित हुई और आध्यात्मिक प्रेम के पक्ष को भी जाना। मंच सज्जाकार गार्डन क्रेग से प्रेम संबंध काफी सुखद रहे और इन्हीं से सन् 1905 में अपनी पहली संतान द्रेद्रे को जन्म दिया।

गार्डन क्रेग का साथ लंबा चला. पर उसके साथ रहने के लिए इज़ाडोरा को तालमेल बिठाना पड़ा। ‘माय लाइफ’ में वह एक जगह जिक्र करती हैं- “यह मेरी नियति थी कि मैं इस जीनियस के महान प्रेम को प्रेरित करूँ और यह भी मेरी नियति थी कि उसके प्रेम के साथ अपने करियर का तालमेल बिठाने का अथक प्रयत्न करूँ।” क्रेग कई बार इज़ाडोरा को अपने काम और कला को छोड़ने की बात कहता था। उसकी सलाह थी कि घर पर रह कर वह उसकी पेंसिलों की नोकें तैयार करे। यही वजह भी रहे कि उनके सम्बन्धों में खटास भी मिलती चली गई।

एक बड़े नृत्य स्कूल खोलने के सपने ने उन्हें सिंगर मशीन कंपनी के वारिस पेरिस सिंगर से मिलाया। सिंगर के साथ इज़ाडोरा ने अपने चरम पर जाकर एश्वर्य का जीवन जिया और इन्हीं से सन् 1911 में एक बच्चे पेट्रिक को भी जन्म दिया। सिंगर से हुए मन मुटाव के बाद भी कई लोग आए और गए। पर इज़ाडोरा इनसब के साथ अपने नृत्य और स्कूल को कभी नहीं भूलीं। नृत्य उनके लिए जीवन था।

इस सब प्रेम सम्बन्धों के चलते उन्हें बहुत कुछ सहना भी पड़ा। लेकिन उन्हों ने इसकी ज़्यादा परवाह नहीं की और अपने काम में लगी रहीं। एक आकस्मिक दुर्घटना में उनके दोनों बच्चों के डूब के मर जाने का सदमा उनके साथ ताउम्र रहा और वह इस सदमे से कभी भी उबर नहीं पाईं। यह समय 1913 का था। इस बीच वह तमाम जगह राहत पाने के लिए भटकती रहीं। वे एक बार फिर गर्भवती हुईं पर यह तीसरा बच्चा भी जल्दी ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके बाद मानसिक रूप से वह बहुत टूट चुकी थीं। मरने के खयाल तक ने उनके दिमाग में दस्तक दे थी। पर फिर भी वे वापसी करती हैं। यही वजह है कि इज़ाडोरा मामूली चरित्र बनकर नहीं रह जातीं।

हालातों से टकराते हुए वे रूस से आए न्योते को स्वीकार करती हैं और वहीं के एक युवा कवि से सन् 1922 में विवाह भी करती हैं। यह चौंका देने वाली घटना थी। लेकिन इसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझना होगा। उनकी एक प्रिय शिष्या इस बारे में अहम जानकारी देती है। 1922 को इज़ाडोरा की माँ का निधन अमरीका में होता है। इसके साथ ही उन्हें रूस में स्कूल चलाने की दिक्कतें और रुपयों की कमी ने आ घेरा था। इसके अलावा सेर्जी एसेनिन जो उनका युवा पति था, काफी बीमार रहने लगा था। इसलिए उसे एक बेहतर इलाज़ और अमरीका और यूरोप की यात्रा के जरिये रचनात्मकता का बेहतर माहौल देना चाहती थीं। बिना विवाह के पासपोर्ट या यात्रा मुश्किल थी। अत: उन्हों ने मई में इस युवा कम उम्र कवि से विवाह कर लिया। एक वजह यह भी थी वे इस व्यक्ति में अपने बेटे का चेहरा भी पाती थीं और मोहित भी थीं।

इस विवरण से स्त्री पुरुष सम्बन्धों की झलक भी मिलती है। उनके आलोचक उनके वफादार न होने का उन पर इल्ज़ाम लगते हैं। पर वहीं पुरुषों को इस तरह की आलोचनात्मकता का सामना नहीं करना पड़ता। उनकी आत्मकथा के हिन्दी अनुवादक युगांक धीर लिखते भी हैं कि इज़ाडोरा अपने समय से काफी आगे थीं। अनुवादक की ओर से लिखे नोट में वे लिखते हैं“…एक सहज स्वाभाविक स्वतंत्र स्त्रीत्व की तलाश। एक ऐसी स्वतन्त्रता जिसका अर्थ सिर्फ ‘पुरुषों से मुक़ाबला’नहीं—‘स्त्रीत्व को त्यागकर ‘पुरुषत्व’ अपना लेना नहीं—बल्कि एक स्त्री के रूप में जीते हुए, अपने स्त्रीत्व का पूरा आनंद उठाते हुए,‘प्रेमत्व’ और ‘मातृत्व’ दोनों का सुख भोगते हुए, अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं की, अपनी आकांक्षाओं और अपने सपनों की असीम संभावनाएँ तलाशना।” इज़ाडोरा कुल मिलाकर यही चरित्र थीं।

समीक्षक  – श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 113 –“पंचमढ़ी एक खोज” – लेखक – श्री सुरेश पटवा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक  “पंचमढ़ी एक खोज” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆

☆ “पंचमढ़ी एक खोज” – लेखक – श्री सुरेश पटवा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पंचमढ़ी एक खोज

लेखक.. सुरेश पटवा

वालनट पब्लिकेशन, भुवनेश्वर

पृष्ठ ८४, मूल्य १४९ रु

अमेज़न लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें)  👉 पंचमढ़ी एक खोज

पर्यटन और साहित्य में गहरा नाता होता है. जब लेखक को पर्यटन के माध्यम से सुन्दर दृश्य, मनोरम वातावरण मिलता है तो नये विचार जन्मते हैं, जो उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति में किसी न किसी विधा में कभी न कभी महज यात्रा वृतांत या पर्यटक स्थलो पर केंद्रित साहित्य से इतर भी शब्द बनकर फूटते ही हैं, और कविता, कहानी, साहित्य का नवसृजन करते हैं.

पचमढ़ी मध्य प्रदेश में सतपुड़ा पर्वत श्रंखला का एक मनोहारी रमणीय पर्यटन स्थल है. जब पचमढ़ी पर केंद्रित श्री सुरेश पटवा की पुस्तक “पंचमढ़ी की खोज” नाम से मुझे प्राप्त हुई तो सर्वप्रथम मेरा ध्यान  पचमढ़ी कहे जाने वाले इस स्थल को “पंचमढ़ी” लिखे जाने पर गया और मैं पूरी किताब पढ़ गया. सुरेश पटवा जी पचमढ़ी के निकट सोहागपुर में ही पले बढ़े हैं. स्वाभाविक रूप से जब उन्होनें अध्ययन और लेखन के क्षेत्र में कदम बढ़ाये तो  पचमढ़ी के विषय में उनकी उत्सुकता ने ही उन्हें जेम्स फार्सायथ की अंग्रेजी पुस्तक पढ़कर, पंचमढ़ी की खोज को हिन्दी पाठको हेतु सुलभ करने को प्रेरित किया.

उन्होंने अपने गहन आध्यात्मिक, एतिहासिक  अध्ययन  वैज्ञानिक तर्क वितर्क और, अपने मित्र श्रीकृष्ण श्रीवास्तव के संग कहे, सुने, घूमे पचमढ़ी की जंगल यात्रा के संस्मरणो को अपनी विशिष्ट  सरल भाषा, सहज शैली, और रोचक, रोमांचक, किस्सागोई, तथ्य पूर्ण जानकारियों से भरपूर सामग्री के रूप में यह पुस्तक लिखी है. किताब में जेम्स फार्सायथ, देनवा घाटी की गोद में, पंचमढ़ी का पठार, बायसन लाज की दिक्कतें, नागलोक का सच, पर्यटन  जैसे दस चैप्टर्स में लेखक ने अपनी बात रखी है. लेखक बताते हैं कि आज की सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थली पचमढ़ी की खोज १८६१..६२ में अंग्रेजो ने की थी. तत्कालीन इतिहास और भूगोल को समझाते हुये वे लिखते हैं ” तब भारत १८५७ के भयानक तूफान से गुजरा था, पिपरिया बसा नहीं था, ट्रेन लाईन उसके दस बरस बाद बिछाई गई. ” 

(‘पंचमढ़ी की खोज’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। )

 

श्री सुरेश पटवा के लेखन की विशेषता है कि वे अपने सारे अध्ययन के आधार पर सिलसिले से पाठक से बातें करते सा लेखन करते हैं, वे पौराणिक संदर्भो, इतिहास, भूगोल,वैज्ञानिक विश्लेषण,  साहित्य आदि सारी जानकारियां जुटा कर लिखने बैठते हैं. उप शीर्षकों में छोटे छोटे पैराग्राफ्स में लेखन करते हैं. यह अच्छा भी है किन्तु उन उपशीर्षक सामग्री को किंचित बेहतर तारतम्य में पिरोया जा सकता है.   जैसे उदाहरण स्वरूप “बायसन लाज की दिक्कतें ” चैप्टर में “उन्नीसवीं सदी का आदिवासी जीवन” या “शिवरात्रि मेला ” जैसे उपशीर्षकों का समावेश समीक्षा की दृष्टि से अप्रासंगिक तथा विषय विचलन कहा जा सकता है. किन्तु विषय के ज्ञान पिपासु पाठक हेतु प्रत्येक छोटी बड़ी जानकारी किसी भी क्रम में मिले महत्वपूर्ण ही होती है. मांधाता उपशीर्ष में लेखक आर्य अनार्य, स्कंद पुराण, राजा रघु की चर्चा करते हैं तो वे हजारों वर्षो के इतिहास को समेटते हुये भीलों की भौगोलिक उपस्थिति की बातें भी बताते हैं. 

कुल मिलाकर पचमढ़ी पर जो हिन्दी साहित्य अब तक मिलता है उससे हटकर, एक शोधपूर्ण पठनीय किताब हिन्दी में पढ़ने मिली, जिसमें पर्यटन की जानकारियां भी हैं और पचमढ़ी के आदिकालीन नागलोक, धूपगढ़ के किस्से भी हैं.   हिन्दी जगत को इस कृति के लिये पटवा जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी ही चाहिये. उन्होने कविता, गजल, इतिहास, यात्रा वृतांत, बहुविधा लेखन किया है और उनमें हर नई विधा को सीखने समझने की अभिरुचि है, यही कारण है कि वे सतत नये विषयों पर नई नई किताबों के साथ अपनी वजनदार उपस्थिति साहित्य जगत में दर्ज कर रहे हैं. शुभकामना.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “वह” – लेखक – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी ☆ सुश्री अंजली खेर ☆

सुश्री अंजली खेर 

(ई अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध लेखिका सुश्री अंजली खेर जी का स्वागत है। आप भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत हैं। जीवन बीमा निगम की विविध पत्र पत्रिकाओं में विगत 10 वर्षो से आलेख प्रकाशित एवं पुरस्‍कृत । आकाशवाणी भोपाल से चिंतन एवं महिला सभा में आलेख प्रसारित, विगत दस वर्षो से वनिता, गृहशोभा, गृहलक्ष्‍मी, अहा जिंदगी, जागरण सखी, फेमिना आदि में लगभग 1000 से ज्‍यादा लेख/ कहानियां प्रकाशित एवं कुछ पुरस्‍कृत। बिग एफ एम से प्रसारित “हीरो ख्‍वाबों का सफ़र” कहानी प्रतियोगिता में लिखी कहानी भारत भर में द्वितीय स्‍थान पर रही। वर्तमान में ‘’यू ट्यूब’’ पर समाज उत्‍थान उद्देश्‍यपरक 12 कहानियां प्रसारित हो चुकी हैं जिन्‍हें आप “कहानियों का सफर” फेसबुक पेज पर सुन सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री गोपाल सिंह सिसोदिया “निसार” जी की शोधपरक पुस्तक “वह” की सारगर्भित समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “वह” – लेखक – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी ☆ सुश्री अंजली खेर ☆  

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं।)

पुस्तक चर्चा

पुस्तक वह 

लेखक … श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’

प्रकाशक .. श्वेतांशु प्रकाशन, नई दिल्ली

चर्चाकार .. सुश्री अंजली खेर, भोपाल

आदरणीय श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी द्वारा लिखी ‘’वह’’ शीर्षित  पुस्‍तक  का कवरपेज देख अनायास ही समाज के उस वर्ग के चेहरे मानस पटल पर जीवंत हो उठे,    जिन्‍हे समाज मे  केवल तिरस्‍कृत दृष्टि से ही देखा गया हो,  जिन्‍हें पग-पग पर अपमानित होकर शापित जीवन जीने को मजबूर होना पड़ा हो वह भी उस विषय पर, जिसके जिम्‍मेदार वे कतई हैं ही नहीं ।

जी हां, इन्‍हें हम किन्‍नर, हिजड़ा, मंगलमूर्ति, थर्ड जेंडर या कि अर्जुन और नागकन्‍या उलुपी के पुत्र ‘’अरावन’’ के नाम से जानते हैं ।

पाठकों का ध्यानाकर्षण करते हुए लेखक लिखते है कि बेशक यह जानते समझते हुए भी कि यह कोई संक्रामक बीमारी नहीं, ना ही बच्‍चे के इस जन्‍म के लिए माता-पिता ही जिम्‍मेदार है, बावजूद इसके इन्‍हें हमारा सभ्‍य सुसंस्‍कृत और तथाकथित रूप से शिक्षित समाज, यहां तक कि उसके परिजन भी उन्‍हें मन:पूर्वक स्‍वीकार करने को तैयार नहीं।

पुस्‍तक में लेखक “निसार जी” ने पुरूष-स्‍त्री और उभयलिंगी किन्‍नर के जन्‍म के वैज्ञानिक कारणों का सविस्‍तार उल्‍लेख किया हैं ।

परिस्थितियों के दुश्‍चक्र की उहापोह को एकलय में बांधती पुस्‍तक ’’वह’’ की कहानी लेखक तप शर्मा के बचपन में माँ, फिर पिता और अंतत: दिलोंजान से प्‍यार करने वाले दादा जी  के परलोक गमन की पीड़ा अंतस में थामने वाले नन्‍हे बेटे के जीवन के झंझावातों से शुरू होती हैं, जिसने  ताई-ताउजी के घर शारीरिक-मानसिक असह्य उत्‍पीडन सहने के बाद अंतत: बगावत कर परिचित के घर आश्रय लेकर आत्‍मनिर्भर बनने तक का सफ़र तय किया ।

कहानी आगे गति लेती हैं । घुमक्‍कड़ी प्रवृत्ति वाले लेखक तप शर्मा फतेहपुर सींकरी से वापसी के दौरान हादसे का शिकार हो जाते हैं, होश आने पर खुद को एक सहृदय किन्‍नर के आश्रय में पाते हैं, जिसकी सेवा-सुश्रुंषा से लेखक को नवजीवन मिलता है ।

हादसे के बाद से वर्तमान तक की बातें जानने के पश्‍चात लेखक तप शर्मा की सवालिया नज़रों को पुस्‍तक की मुख्‍य पात्र अंजु पढ़ लेती हैं और तप की आँखों मे तैरते सवालों के जवाब में अपने विधिलिखित दुर्भाग्‍य की पुस्‍तक के एक-एक पन्‍ने को खोलती चली जाती हैं ।

अंजु बताती हैं कि अव्‍वल तो बेटे की चाहत रखने वाले पिता पहले-पहल तीसरी बेटी होने पर बड़े आघात के चलते अनिश्चित कालीन बिजनेस टूर पर निकल पड़ते है, फिर थोड़ी बड़ी होने पर उसके किन्‍नर होने की खबर बिजली की कौंध सी ही द्रुतगति से फैलते ही समाज के साथ परिजनों से उलाहने और  उपहास ही मिलता रहा ।

अंजु  आगे कहती हैं कि किन्‍नर समाज के शामिल होने के बाद शुरू हुआ दुर्भाग्‍य की अग्निपरीक्षा जिसमें किन्‍नर समाज की प्रताड़नाओं से लबरेज़ ट्रेनिंग, चुनरी रस्‍म के बाद घर-घर वसूली के साथ समाज के जाने-माने प्रबुद्ध –ओहदेदार सम्‍मानीय लोगों की हैवानियत और वहशीपन का शिकार बनने मजबूर किये जाने की विडंबनाओं का लंबा दौर किस तरह उसके अंतस को तार-तार कर गया ।

पुस्‍तक में उल्‍लेख हैं कि भले ही सदियों पूर्व पुराणों में किन्नरों के उल्लेख मिलते हो, यद्यपि दशकों पूर्व सेना में इन्हें उच्चपद प्रदान किये जाते रहे हो, फिर भी चाहे अंजू हो या  उसपर निगरानी रखने वाली कोमल,,या फिर उसके सम्पर्क में आने वाली रविन्दर, रजिया या सुमन,,,और भी कितने ही असमंजस में जीते किन्नर,,,सभी अपने जीवन की इस भयावह आंधी के थपेड़ों से जूझते, कभी अपने तो कभी परिजनों के पेट की क्षुधा को शांत करने कितनी ही यंत्रणाएँ बिन प्रतिरोध के सहने को बाध्य है । कारण सिर्फ यहीं कि उन्‍हे सामान्‍य मानव की तरह जीने, पढ़ने और आत्‍मनिर्भर बनने का अधिकार नहीं ।

अंजु को सुनने के बाद अनायास ही लेखक तप शर्मा के दिमाग मे इस तिरस्कृत वर्ग को उनके हिस्से का अधिकार और सम्मान से जीने का  हक दिलाने एक NGO स्थापित करने का विचार कौंधा ।

स्वस्थ होने के बाद अंजू और उसकी साथी किन्नरों के साथ “हम भी मानव है” NGO की नींव रखी गयी,,जिसमे रास्तों पर भीख मांगने वाले किन्‍नरों सहित  उन किन्नरों की काउंसलिंग करना भी सुनिश्चित हुआ जो मेहनत कर पेट भरने और मान सम्‍मान से जीने की इच्‍छा रखते थे ।

हालांकि मुहिम के शुरू होते ही किन्‍नर अंजु की व्‍यक्तिगत पहल से कई किन्‍नर जुड़ते चले गये पर एक बड़े तबके के उत्थान की मंशा लेकर लेखक तप शर्मा द्वारा उठाया गया यह कदम इतना आसान भी न था क्‍योंकि इन सारी कवायदों के लिये पैसों की अत्‍यंत आवश्‍यकता थी।

सरकार से अनुदान पाने सरकारी दफ्तरो में फाइलों को आगे बढाने चपरासियों-बाबुओं की चिरौरी करना, किन्नर समुदायों की नाराज़गी जैसी कई अन्य समस्याओं से जूझते हुए अंततः किन्नरों को अपने हक  के लिए आमरण अनशन पर बैठना  पड़ा ।

किन्नरों के बढ़ते हौसलों को लगाम लगाने पुलिस बल द्वारा किये गये हमले के चलते कई किन्नरों के गम्भीर रूप से घायल हुए ।

पर अंतिम साँस तक हार न मानते हुए अपनी जान की बाजी लगा “वह”  की मुख्य पात्र “किन्नर अंजू” ने अपना  बलिदान देकर सरकार को “किन्नर समुदाय” के लिए मदद का हाथ बढाने के लिए बाध्‍य कर ही दिया ।

अंततः लेखक ‘’निसार’’ जी पुस्‍तक में लिखते है कि हक की इस लड़ाई में सबसे अग्रणी भूमिका निभाने वाली ‘’वह’’ यानि अंजु जंग में हुई जीत के आनंद और जश्न की साक्षी बनने के लिए शेष न थी ।

इस विशेष तबके के हक की ओर देश-समाज और सम्‍मानीय पाठक वर्ग का ध्‍यानाकर्षण करने हेतु  आदरणीय श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी द्वारा पुस्‍तक ‘’वह’’ के माध्‍यम से की गई पहल काबिलेतारीफ हैं, आशा ही नहीं, विश्‍वास हैं कि जीवन जीने के समानाधिकार के भागीदार किन्‍नर समाज को भी उसके हिस्‍से का अधिकार प्रदान करने की मुहिम इस पुस्‍तक के माध्‍यम से गति प्राप्‍त करेगी । ’’निसार’’ जी का अनेक अभिनंदन ।

चर्चाकार…  सुश्री अंजली खेर

भारतीय जीवन बीमा निगम शाखा क्र-2, जी टी बी कॉम्‍पलेक्‍स पंजाब बूट हाउस के उपर, रंगमहल चौराहा न्‍यू मार्केट, भोपाल 462 003 म;प्र;

9425810540 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 112 –“लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन (व्यंग्य संकलन)” – लेखक – श्री रण विजय राव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… श्री रण विजय राव जी के व्यंग्य संकलन  “लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन ” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 112 ☆

☆ “लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन (व्यंग्य संकलन)” – लेखक – श्री रण विजय राव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन (व्यंग्य संकलन)

व्यंग्यकार  … श्री रण विजय राव

प्रकाशक .. भावना प्रकाशन , दिल्ली

मूल्य ३२५ रु , पृष्ठ १२८

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल

हमारे परिवेश तथा हमारे क्रिया कलापों का, हमारे सोच विचार और लेखन पर प्रभाव पड़ता ही है. रण विजय राव लोकसभा सचिवालय में सम्पादक हैं.  स्पष्ट समझा जा सकता है कि वे रोजमर्रा के अपने कामकाज में लोकतंत्र के असंपादित नग्न स्वरूप से रूबरू हो रहे हैं. वे जन संचार में पोस्ट ग्रेजुएट विद्वान हैं. उनकी वैचारिक उर्वरा चेतना में रचनात्मक अभिव्यक्ति  की  अपार क्षमता नैसर्गिक है. २९ धारदार सम सामयिक चुटीले व्यंग्य लेखों पर स्वनाम धन्य सुस्थापित प्रतिष्ठित व्यंग्यकार सर्वश्री हरीश नवल, प्रेमजनमेजय, फारूख अफरीदी जी की भूमिका, प्रस्तावना, आवरण टीप के साथ ही समकालीन चर्चित १९ व्यंग्यकारो की प्रतिक्रियायें भी पुस्तक में समाहित हैं. ये सारी समीक्षात्मक टिप्पणियां स्वयमेव ही रण विजय राव के व्यंग्य कर्म की विशद व्याख्यायें हैं. जो एक सर्वथा नये पाठक को भी पुस्तक और लेखक से सरलता से मिलवा देती हैं. यद्यपि रण विजय जी हिन्दी पाठको के लिये कतई नये नहीं हैं, क्योंकि वे सोशल मीडीया में सक्रिय हैं, यू ट्यूबर भी हैं, और यत्र तत्र प्रकाशित होते ही रहते हैं.

कोई २० बरस पहले मेरा व्यंग्य संग्रह रामभरोसे प्रकाशित हुआ था, जिसमें मैंने आम भारतीय को राम भरोसे प्रतिपादित किया था. प्रत्येक व्यंग्यकार किंबहुना उन्हीं मनोभावों से दोचार होता है, रण विजय जी रामखिलावन नाम का लोकव्यापीकरण भारत के एक आम नागरिक के रूप में करने में  सफल हुये हैं. दुखद है कि तमाम सरकारो की ढ़ेरों योजनाओ के बाद भी परसाई के भोलाराम का जीव के समय से आज तक इस आम आदमी के आधारभूत हालात बदल नही रहे हैं. इस आम आदमी की बदलती समस्याओ को ढ़ूंढ़ कर अपने समय को रेखांकित करते व्यंग्यकार बस लिखे  जा रहे हैं.

बड़े पते की बातें पढ़ने में आईं है इस पुस्तक में मसलन ” जिंदगी के सारे मंहगे सबक सस्ते लोगों से ही सीखे हैं विशेषकर तब जब रामखिलावन नशे में होकर भी नशे में नहीं था. “

“हम सब यथा स्थितिवादी हो गये हैं, हम मानने लगे हैं कि कुछ भी बदल नहीं सकता “

“अंगूर की बेटी का महत्व तो तब पता चला जब कोरोना काल में मयखाने बंद होने से देश की अर्थव्यवस्था डांवाडोल होने लगी ” रण विजय राव का रामखिलावन आनलाइन फ्राड से भी रूबरू होता है, वह सिर पर सपने लादे खाली हाथ गांव लौट पड़ता है. कोरोना काल के घटना क्रम पर बारीक नजर से संवेदनशील, बोधगम्य, सरल भाषाई विन्यास के साथ लेखन किया है, रण विजय जी ने. चैनलो की बिग ब्रेकिंग, एक्सक्लूजिव, सबसे पहले मेरे चैनल पर तीखा तंज किया गया है, रामखेलावन को  लोकतंत्र की मर्यादाओ का जो खयाल आता है, काश वह उलजलूल बहस में देश को उलझाते टी आर पी बढ़ाते चैनलो को होता तो बेहतर होता. प्रत्येक व्यंग्य महज कटाक्ष ही नही करता अंतिम पैरे में वह एक सकारात्मक स्वरूप में पूरा होता है. वे विकास के कथित एनकाउंटर पर लिखते हैं, विकास मरते नहीं. . . भाषा से खिलंदड़ी करते हुये वे कोरोना जनित शब्दों प्लाज्मा डोनेशन, कम्युनिटी स्प्रेड जैसी उपमाओ का अच्छा प्रयोग करते हैं. प्रश्नोत्तर शैली में सीधी बात रामखेलावन से किंचित नया कम प्रयुक्त अभिव्यक्ति शैली है. व्हाट्सअप के मायाजाल में आज समाज बुरी तरह उलझ गया है, असंपादित सूचनाओ, फेक न्यूज, अविश्वसनीयता चरम पर है, व्हाट्सअप से दुरुपयोग से समाज को बचाने का उपाय ढ़ूढ़ने की जरूरत हैं. वर्तमान हालात पर यह पैरा पढ़िये ” जनता को लोकतंत्र के खतरे का डर दिखाया जाता है, इससे जनता न डरे तो दंगा करा दिया जाता है, एक कौम को दूसरी कौम से डराया जाता है, सरकार विपक्ष के घोटालो से डराती है, डरे नहीं कि गए. ” समझते बहुत हैं पर रण विजय राव ने लिखा, अच्छी तरह संप्रेषित भी किया. आप पढ़िये मनन कीजीये.

हिन्दी के पाठको के लिये यह जानना ही किताब की प्रकाशकीय गुणवत्ता के प्रति आश्वस्ति देता है कि लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन, भावना प्रकाशन से छपी है.  पुस्तक पठनीय सामग्री के साथ-साथ  मुद्रण के स्तर पर भी स्तरीय, त्रुटि रहित है. मैं इसे खरीद कर पढ़ने के लिये अनुशंसित करता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 111 –“ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)” … लेखक… श्री प्रभात गोस्वामी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… प्रभात गोस्वामी के व्यंग्य संकलन  “ऐसा भी क्या सेल्फियाना ” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆

☆ “ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)” … लेखक… श्री प्रभात गोस्वामी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)

लेखक… प्रभात गोस्वामी

प्रकाशक.. किताब गंज प्रकाशन, गंगापुर सिटि

मूल्य २०० रु, पृष्ठ १३६

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

प्रभात गोस्वामी का तीसरा व्यंग्य संग्रह ऐसा भी क्या सेल्फियाना पढ़ने का अवसर मिला. चुटीले चालीस व्यंग्य आलेखों के साथ समकालीन चर्चित सोलह व्यंग्यकारो की प्रतिक्रियायें भी किताब में समाहित हैं. ये टिप्पणियां स्वयमेव ही पुस्तक की और प्रभात जी के व्यंग्य कर्म की समीक्षायें हैं. प्रभात गोस्वामी कि जो सबसे बडी खासियत पाठक के पक्ष में मिलती है वह है उनका विषयों का चयन. वे पाठकों की रोजमर्रा की जिंदगी के आजू बाजू से मनोरंजक विषय निकाल कर दो तीन पृष्ठ के छोटे से लेख में गुदगुदाते हुये कटाक्ष करने में माहिर हैं. ऐसा भी क्या सेल्फियाना लेख के शीर्षक को ही किताब का शीर्षक बनाकर प्रकाशक ने साफ सुथरी त्रुटि रहित प्रिंटिग के साथ अच्छे गेटअप में किताब प्रकाशित की है. सेल्फी के अतिरेक को लेकर कई विचारशील लेखकों ने कहीं न कही कुछ न कुछ लिखा है. मैंने अपने एक व्यंग्य लेख में सेल्फी को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बतलाया है. प्रभात जी ने सेल्फी की आभासी दुनियां और बाजार की मंहगाई, सेल्फी लेने की आकस्मिक आपदाओ,किसी हस्ती के साथ सेल्फी लेने  का रोचक वर्णन,  अपने क्रिकेट कमेंटरी के फन से जोड़ते हुये किया हैं. किन्तु जीवन यथार्थ के धरातल पर चलता है, सोशल मीडीया पर पोस्ट की जा रही आभासी सेल्फी से नहीं, व्यंग्य में  इसका आभास तब होता है जब भोजन की जगह पत्नी व्हाट्सअप पर आभासी थाली फारवर्ड कर देती हैं. इस व्यंग्य में ही नहीं बल्कि प्रभात जी के लेखन में प्रायः बिटविन द लाइन्स अलिखित को पढ़ने, समझने के लिये पाठक को बहुत कुछ होता है.

इसी तरह एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या भी छोटा सा कथा व्यंग्य है. लेखक जेंडर इक्विलीटी के प्रति सतर्क है, वह तंज करता है कि एलेक्सा और सीरी से चुहल दिलजलों को बर्दाश्त नहीं, वे इसके मेल वर्जन की मांग करते हैं. व्यंग्य के क्लाइमेक्स में नई दुल्हन एलेक्सा को पति पत्नी और वो के त्रिकोण में वो समझ लेती है और पीहर रुखसत कर जाती है. प्रभात जी इन परिस्थितियों में लिखते हैं एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या, और पाठक को घर घर बसते एलेक्सा के संसार में थोड़ा हंसने थोड़ा सोचने के लिये विवश कर देते हैं

रचना चोरों के लिये साहित्यिक थाना, पहले प्यार सी पहली पुस्तक, आओ हुजूर तुमको, दो कालम भी मिल न सके किसी अखबार में जैसे लेख प्रभात जी की समृद्ध भाषा, फिल्मी गानों में उनकी अभिरुचि और सरलता से अभिव्यक्ति के उनके कौशल के परिचायक हैं.

कुल जमा ऐसा भी क्या सेल्फियाना मजेदार पैसा वसूल किताब है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ स्मृतियों की गलियों से (संस्मरण) – सुश्री ऋता सिंह  श्री संजय भारद्वाज☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

आज प्रस्तुत है सुश्री ऋता सिंह जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक “स्मृतियों की गलियों से” (संस्मरण) पर आपकी चर्चा।

? पुस्तक चर्चा – स्मृतियों की गलियों से (संस्मरण) – सुश्री ऋता सिंह  ? श्री संजय भारद्वाज ?

? अनुभव विश्व से उपजा सम्यक स्मरण – श्री संजय भारद्वाज ?

सम्यक स्मरण अर्थात संस्मरण। स्मृति के आधार पर घटना, व्यक्ति, वस्तु का वर्णन संस्मरण कहलाता है। स्मृति, अतीत के कालखंड विशेष का आँखों देखा हाल होती है। घटना, व्यक्ति, वस्तु के साक्षात्कार के बिना आँखों देखा हाल संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि संस्मरण रोचक शैली में स्मृति को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘स्मृतियों की गलियों से’, लेखिका के अनुभव-विश्व से उपजे ऐसे ही संस्मरणों का संग्रह है।

चित्रोपमता संस्मरण लेखन की शक्ति होती है। लेखक द्वारा जो लिखा गया है, उसका चित्र पाठक की आँख में बनना चाहिए। श्वान के एक पिल्लेे के संदर्भ में ‘भूले बिसरे दिन’ की प्रस्तुत पंक्तियाँ देखिए-‘अपनी पूँछ को पकड़ने की कोशिश में दिन में न जाने कितनी बार वह गोल-गोल घूमा करता था पर पूँछ कभी भी उसकी पकड़ में न आती। उसकी यह कोशिश किसी तपस्वी की तरह एक नियम से बनी हुई चलती रहती थी।’…‘ जाने कहाँ गए वे दिन’ में उकेरा गया यह चित्र देखिए-‘मैंने फूलझाड़ू के दो छोटे टुकड़ों को क्रॉस के रूप में रखा, काठी के एक छोर पर कपास का एक गोला बनाकर लगाया, फिर उस कपास के गोले को पिताजी की पुरानी स़फेद धोती के टुकड़े से ढका और पतली सुतली से उस झाड़ू के साथ बाँध दिया। इस तरह उसे सिर का आकार दिया गया। काजल से आँख, नाक, मुँह बनाया। इस तरह की कई गुड़ियाँ मैंने ईजाद कर डालीं।’

सत्यात्मकता या प्रामाणिकता संस्मरण का प्राण है। संस्मरण में कल्पना विन्यास वांछनीय नहीं होता। कल्पना की ओर बढ़ना अर्थात संस्मरण से दूर जाना। प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने संस्मरण के प्राण-तत्व को चैतन्य रखा है। ‘जब पराये ही हो जाएँ अपने’ में वर्णित घटनाक्रम का एक अंश इसकी पुष्टि करता है-‘जाते समय उस बुज़ुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडेड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।’

संस्मरण के पात्र सत्यात्मकता का लिटमस टेस्ट होते हैं। प्रस्तुत संग्रह के पात्र रोज़मर्रा के जीवन से आए हैं। इसके चलते पात्र परिचित लगते हैं और पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। ‘गटरू’ जैसे चरित्र इसकी बानगी हैं।

अतीत के प्रति मनुष्य के मन में विशेष आकर्षण सदा रहता है। बकौल निदा फाज़ली, ‘मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ इस खोए हुए सोना अर्थात अतीत की स्मृति के आधार पर होने वाले लेखन में आत्मीय संबंध और वैयक्तिकता की भूमिकाएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। ‘गुलमोहर का पेड़’ नामक संस्मरण से यह उदाहरण देखिए-‘अपने घर की खिड़की पर लोहे की सलाखों को पकड़कर फेंस के उस पार के गुलमोहर के वृक्ष को मैं अक्सर निहारा करता था। प्रतिदिन उसे देखते-देखते मेरा उससे एक अटूट संबंध-सा स्थापित हो गया था। विभिन्न छटाओं का उसका रूप मुझे बहुत भाता रहा।’ इसका उत्कर्ष भी द्रष्टव्य है-‘गुलमोहर के तने से लिपटकर खूब रोया। फिर न जाने मुझे क्या सूझा, मैंने उसके तने से कई टहनियाँ कुल्हाड़ी मारकर छाँट दी, मानो अपने भीतर का क्रोध उस पर ही व्यक्त कर रहा था।… अचानक उस पर खिला एक फूल मेरी हथेली पर आ गिरा। फूल सूखा-सा था। ठीक बाबा और माँ के बीच के टूटे, सूखे रिश्तों की तरह।’

लेखिका, शिक्षिका हैं। स्थान का वर्णन करते हुए तत्संबंधी ऐतिहासिक व अन्य जानकारियाँ पाठक तक पहुँचाना उनका मूल स्वभाव है। इस मूल का एक उदाहरण देखिए- ‘लोथल, दो हजार सात सौ साल पुराना एक बंदरगाह था। यहाँ छोटे जहाजों के द्वारा आकर व्यापार किया जाता था। यह ऐतिहासिक स्थल है जो पुरातत्व विभाग के उत्खनन द्वारा खोजा गया है।’

कथात्मकथा बनी रहे तो ही संस्मरण रोचक हो पाता है। पढ़ते समय पाठक के मन में ‘वॉट नेक्स्ट’ याने ‘आगे क्या हुआ’ का भाव प्रबलता से बना रहना चाहिए। प्रस्तुत संग्रह के अनेक संस्मरणों में कथात्मकता प्रभावी रूप से व्यक्त हुई है।

भारतीय संस्कृति कहती है, ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।’ किसी घटना के अनेक साक्षी हो सकते हैं। घटना के अवलोकन, अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रत्येक का तरीका अलग होता है। इन संस्मरणों की एक विशेषता यह है कि लेखिका इनके माध्यम से घटना को ज्यों का त्यों सामने रख देती हैं। स्वयं अभिव्यक्त तो होती हैं पर सामान्यत: किसी प्रकार का वैचारिक अधिष्ठान पाठकों पर थोपती नहीं। ये सारे संस्मरण मुक्तोत्तरी प्रश्नों की भाँति हैं। पाठक अपनी दृष्टि से घटना को ग्रहण करने और अपने निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र है।

इन संस्मरणों के माध्यम से विविध विषय एवं आयाम प्रकट हुए हैं। आशा की जानी चाहिए कि पाठक इन संस्मरणों को अपने जीवन के निकट अनुभव करेगा। यह अनुभव ही लेखिका की सफलता की कसौटी भी होगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘सफर अहसासों का’ – सुश्री लीना खेरिया ☆ समीक्षा – श्री शंभु शिखर ☆

श्री शंभु शिखर

(आज  प्रस्तुत है सुश्री लीना खेरिया जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सफर अहसासों का ‘पर सर्वाधिक लोकप्रिय हास्य कवि श्री शंभु शिखर जी  की पुस्तक चर्चा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘सफर अहसासों का ‘’ – सुश्री लीना खेरिया ☆ समीक्षा – श्री शंभु शिखर ☆

पुस्तक का नाम – सफर अहसासों का

रचयिता – लीना खेरिया

प्रकाशक – स्टोरीमिरर इंफोटेक प्रा. लि

पृष्ठ संख्या ‏ – ‎ 154 पेज

मूल्य- ₹ 225 ( पेपरबैक)

मूल्य- ₹ 99 (किंडल एडिशन)

अमेज़न लिंक 👉 सफर अहसासों का

☆ अनुभूतियों का नया संसार रचती कविताएँ.. – श्री शंभु शिखर 

चार वर्षों के अंतराल के बाद लीना खेरिया का दूसरा काव्य संग्रह सफर अहसासों का मार्च 2022 में सतहे आम पर आया है। इस अंतराल में उनकी अनूभूतियों की व्यापकता, चिंतन की गहराई और विषयों की विविधता का विस्तार स्पष्ट दिखाई देता है। प्रकृति के साथ अंतरंगता, अध्यात्म के प्रति रूझान, रिश्तों और संबंधों का खट्टा-मीठा स्वाद, सामाजिक विडंबनाओं के प्रति चिंता की झलक कुछ ज्यादा स्पष्ट आकार बनाता दिखता है। इनमें अहसासों का चार वर्षों का सफरनामा साफ परिलक्षित होता है। संग्रह में 100 काव्य रचनाएँ हैं जिनमें कविताओं के अलावा कुछ ग़ज़लें भी शामिल हैं।

संग्रह की एक कविता अंधाधुंध धुआं ड्रग्स के नशे में अपने और राष्ट्र के भविष्य को बर्बादी की ओर ले जाती युवा पीढ़ी पर केंद्रित है। निःसंदेह यह वर्तमान समय में गहन वैश्विक चिंता का विषय है। हमारे देश में भी नशे के सौदागरों का जाल महानगरों से लेकर कस्बों तक बिछा हुआ है। हजारों-हजार करोड़ के ड्रग्स समुद्री और सड़क मार्ग से ले जाये जा रहे हैं। कुछ पकड़े जाते हैं, कुछ पकड़ में नहीं आते हैं। युवा वर्ग को नशे का गुलाम बनाने की साजिश रची जा रही है। इस विषय पर फिल्में तक बन चुकी हैं लेकिन साहित्यिक विधाओं में इसका उतना समावेश नहीं हो पाया है जितना संवेदनाओं को झकझोरने के लिए होना चाहिए था। कवयित्री चकाचौंध भरी गलियों में सिर्फ धुँआ-धुआँ और अंधाधुंध धुआँ देखती है और खुद से पूछती है कि हमसे कहाँ पर चूक हुई, क्या गलत हुआ कि नये पौधों की नींव और जड़ें अंदर से पूरी खोखली होती गईं। कवयित्री कहती है-

सफेद जहर की हमारी युवा पीढ़ी 

न जाने क्यों इतनी आदी हो गई

सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे

और नाक के नीचे ये बर्बादी हो गई…

चक्रवात शीर्षक कविता में कवयित्री जीवन की जटिलताओं को महसूस करती हुई मन के अथाह सागर में उठते चक्रवात देखती है, खुद को भंवर में डूबता हुआ पाती है लेकिन नाउम्मीद नहीं होती। कहती है-

ये उम्मीद का लालटेन

है तो कुछ धुंधला सा ही

पर तसल्ली है कि 

कम से कम

अब तक रौशन तो है.

यह कविता घोर निराशाओं के बीच भी जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की सीख देती है। लीना खेरिया के काव्य संसार की यह खूबी है कि जीवन के अंधेरे पक्ष को उजागर करने में संकोच नहीं करती लेकिन रौशनी की किरनों के आसपास होने का भरोसा भी दिलाती है। अगर रात है तो उसके आसपास सवेरा भी मौजूद है जिसका क्षितिज पर उभरना उतना ही तय है जितना रात का आना। यह भारतीय दर्शन का शाश्वत सूत्र है जो मनुष्य को कभी निराश नहीं होने देता। धैर्य को बनाए रखता है।

सुश्री लीना खेरिया 

(मॉं की ममता पिता का  त्याग  और ना जाने कितनी ही भावनाओं के खूबसूरत शाख बोयें हैं मैनें इस सफ़र के रास्तें पर जिनको छू कर गुजरती बयार आपके भी मन को अवश्य ही महका जायेगी…)

कवयित्री की चेतना साकार से निराकार की ओर निरंतर यात्रा करती है। चंपई बनारसी साड़ी शीर्षक कविता में कवयित्री दांपत्य जीवन की मधुरिमा में ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करती है। वह प्रियतम से उपहार में मिली उसकी पसंदीदा बनारसी साड़ी पहनकर दर्पण में स्वयं को निहारती है तो उसकी छुअन से उसे महसूस होता है जैसे अस्सी घाट की निचली सीढ़ी पर पैर लटका कर बैठी हुई गंगा मैय्या की उजली कोमल लहरों का पावन शीतल स्पर्श कर रही हो। अपने कानों में अपने प्रियतम की आवाज़ की गूंज को बाबा विश्वनाथ के मंदिर की असंख्य घंटियों की ध्वनि और उनकी प्रतिध्वनि की खनखनाती स्वर लहरी में रस घोलती सी महसूस करती है जो समूचे वातावरण को और उसके मन तथा अंतर्मन को भी झंकृत कर रही हो। कहते हैं कि प्रेम की भावना जब मन में तरंगित होती है तो इंसान को अध्यात्म की गहराइयों की ओर ले जाती है। इसीलिए कवयित्री को बनारसी साड़ी सिर्फ एक मोहक परिधान नहीं दिखता बल्कि उसके अंदर काशी-विश्वनाथ का पूरा धाम दिखाई देता है। 

प्रेम और अध्यात्म के अंतर्संबंधों की भाव यात्रा के पड़ाव लीना खेरिया की अधिकांश श्रृंगार रस की कविताओं में दृश्यमान हैं। ताबीज शीर्षक कविता में वह अपने प्रियतम को संबोधित करती हुई कहती हैं कि उन्होंने उसे अपनी सपनीली आंखों में बसे काजल की काली डोरी में पिरोकर किसी पाकीज़ा ताबीज़ की तरह गले में धारण कर रखा है जो हर मुसीबत, हर बला से उसकी रक्षा करता है और यह बेहद बेशकीमती ताबीज़ किसी पीर, फकीर या मौलवी से नहीं ख़ुद खुदा से हासिल हुआ है। 

नारी मन की पीड़ा की जबर्दस्त अभिव्यक्ति कब आएंगे मेरे राम शीर्षक कविता में हुई है। कवयित्री को नारी समाज के प्रतिनिधि के रूप में अपने अंदर एक अहिल्या दिखाई देती है जो किसी और की भूल और अनाचार के कारण श्रापित होकर सदियों से पाषाण बनी पड़ी हुई है। जिसकी सारी वेदनाएं, संवेदनाएं जड़वत हो गई हैं और जिसे अपनी मुक्ति के लिए किसी राम के आगमन का इंतजार है। वह अपने आप से पूछती है कि क्या एक दिन उसके राम आएंगे जिनके स्पर्श मात्र से वह फिर से अहिल्या की तरह जी उठेगी। दरअसल पुरुष प्रधान पारंपरिक समाज में नारी रीति रिवाजों और मर्यादाओं के बंधन से इस तरह जकड़ दी जाती है कि अहिल्या की तरह पाषाण की मूरत बनी रहती है। उसे अपनी आंतरिक शक्तियों को जागृत करने के लिए, अपने व्यक्तित्व को पूरी तरह उभारने के लिए किसी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के स्पर्श का इंतजार रहता है। यह कविता दुनिया भर में चल रहे नारी मुक्ति आंदोलनों की ओर इशारा करती है। इसी कड़ी में एक कविता है-उद्धार करो जिसमें वह राम से विनती करती है कि आओ और अपने दिव्य स्पर्श से मेरा उद्धार कर दो। लिंग भेद पर केंद्रित संग्रह की एक कविता है नारी जीवन। कवयित्री पूछती है-

अगर बेटा अपना खून है तो

होती बेटी आखिर पराई क्यूं

जब साथ में दोनों पले बढ़े तो

होती बेटी की आखिर विदाई क्यूं

दिल के रिश्तों में दूरी कोई मायने नहीं रखती। जो दिल के करीब होता है वह दूर रहकर भी हमेशा अपने आसपास ही प्रतीत होता है। तुम जाकर भी नहीं जाते शीर्षक कविता में वह हर जगह अपने प्रियतम की झलक महसूस करती है। वह कहती है-

और घर में घुसते ही

दाहिनी ओर लगे

शो केस की दराज में

मुंह छुपाए…न जाने कबसे

छुपी बैठी है तुम्हारी खुशबू

जो दराज़ खोलते ही

अक्सर ले लेती है मुझे

अपनी गिरफ्त में

और कर देती है मुझे

बिल्कुल…बदहवास…

घर के बाहर और घर के अंदर हर जगह प्रियतम की यादें उसका पीछा करती हुई प्रतीत होती हैं और अंत में वह प्यार से कहती है-

अरे बाबा…

मेरा पीछा करना छोड़ दो

अब जाओ ना

जाओ ना…

इसी तरह संग्रह की सभी कविताएं भावों और संवेदनाओं का अपना संसार रचती प्रतीत होती हैं। सीधे मन की गहराइयों में उतरकर ह्रदय को उद्वेलित करती हैं। इनके बीच से होकर गुजरना अनूभूतियों के महासमुद्र में गोते लगाने सा प्रतीत होता है। उनकी कविताओं का शिल्प, विषय और उसके अनुरूप प्रतीकों का चयन स्वाभाविक प्रवाह में मगर सावधानी का संकेत देता है। उनमें रस भी है और प्रवाह भी। हिंदी कविताओं की भीड़ में लीना खेरिया एक अलग रस, अलग रंग और अलग तेवर के साथ खड़ी दिखाई देती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। 

चित्र साभार – Shambhu Shikhar- Comedian, Hasya Kavi, Poet, Actor, Official Website

समीक्षक – श्री शंभु शिखर

संपर्क – A-428, छतरपुर एन्क्लेव, फेज-I, नई दिल्ली – 110074

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘अनहद नाद’ – सुश्री भावना शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री भावना शर्मा जी  की पुस्तक  अनहद नाद” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘अनहद नाद’ – सुश्री भावना शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक- अनहद नाद

कवियित्री- भावना शर्मा

प्रकाशक- साहित्यागार, धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302006 मोबाइल नंबर 94689 43311

पृष्ठ संख्या- 130 

मूल्य- ₹250

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ काव्य में गूंजता अनहद नाद – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

भावों का रेचन ही साहित्य की उत्पत्ति का मूल है। साहित्य अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मनोगत प्रवाह को ढूंढ लेता है। यदि मनोगत भाव कथा, कहानी, व्यंग्य, हास्य, कविता, मुक्तक, दोहे, सोरठे के अनुरूप होता है उसी में साहित्य सर्जन की लालसा उत्पन्न हो जाती है। तदुनुरूप रचनाकार की लेखनी चल पड़ती है।

इस मायने में भाव का रेचन यदि काव्यानुरूप हो तो काव्य पंक्तियां रचती चली जाती है। इस रूप में भावना शर्मा की प्रस्तुत पुस्तक अनहद नाद की चर्चा अपेक्षित है। पेशे से शिक्षिका भावना शर्मा एक बेहतरीन शिक्षिका होने के साथ-साथ भाव की अभिव्यक्ति को सशक्त ढंग से व्यक्त करने वाली कवियित्री भी है।

कवि हृदय बहुत कोमल कांत और धीरगंभीर होता है। उन्हें भावना, संवेदनहीन शब्द और करारा व्यंग्य अंदर तक सालता रहता है। यही विद्रूपताएं, विसंगतिया और सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, असंगति उन्हें अंदर तक प्रभावित करती है। तभी अनहद नाद जैसी काव्य पुस्तक सृजित हो पाती है।

प्रस्तुत पुस्तक में 105 कविताओं में कवियित्री ने अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। आपने प्रकृति, जीव-जंतु, मानव, गीत-संगीत, घर-परिवार, मित्र-साथी, दोस्त, लड़का-लड़की, सपने, धुन, भाव-विभाव, चाहत, आशा-निराशा, मौसम, सपने, पशु-पक्षी यानी हर पहलू पर अपनी कलम चलाई है।

ना भूल जाने की कैफियत हूं

ना याद आने का जलजला।

कभी बरसों से पड़ी धूल हूं 

कभी रोज का सिलसिला ।।

कवियित्री कहती है-

कभी बात को कभी सवालात को

कभी मुस्कुराहट में छुपे हालात को

समझ जाना मायने रखता है।

भावों की जितनी सरलता, सहजता इन की कविता में है उतनी ही सरलता और सहजता उनकी भाषा में भी है।

उन अधबूनी चाहतों को

मैं यूं आजमाना चाहती हूं।

तेरी अंगुलियों को सहेज कर हाथों में 

मैं मुस्कुराना चाहती हूं।।

जैसी सौंदर्य से परिपूर्ण और काव्य से भरपूर इस पुस्तक के काव्य सौंदर्य की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। 130 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹200 वाजिब है । साफ-सफाई, साज-सज्जा व त्रुटि रहित मुद्रण ने पुस्तक की उपयोगिता में वृद्धि की है।

काव्य साहित्य में कवियित्री अपनी पहचान बनाने में सक्षम होगी। यही आशा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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