हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 1 ☆ व्यंग्य संग्रह – अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 1 ☆ 

 

 ☆ व्यंग्य संग्रह – अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह… अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो

लेखक..सुदर्शन सोनी, चार इमली, भोपाल

प्रकाशक…बोधि प्रकाशन जयपुर

पृष्ठ..१३६, मूल्य १५० रु

 

☆ व्यंग्य संग्रहअगले जनम मोहे कुत्ता कीजोचर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

कुत्ते की वफादारी और कटखनापन जब अमिधा से हटकर, व्यंजना और लक्षणा शक्ति के साथ इंसानो पर अधिरोपित किया जाता है तो व्यंग्य उत्पन्न होता है. मुझे स्मरण है कि इसी तरह का एक प्रयोग जबलपुर के विजय जी ने “सांड कैसे कैसे” व्यंग्य संग्रह में किया था, उन्होने सांडो के व्यवहार को समाज में ढ़ूंढ़ निकालने का अनूठा प्रयोग किया था. पाकिस्तान के आतंकियो पर मैंने भी “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान…” एवं “मेरे पड़ोसी के कुत्ते” लिखे,  जिसकी  बहुत चर्चा व्यंग्य जगत में रही  है.  कुत्तों का  साहित्य में वर्णन बहुत पुराना है, युधिष्टर के साथ उनका कुत्ता भी स्वर्ग तक पहुंच चुका है. काका हाथरसी ने लिखा था..

पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ

भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज

बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता

देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता

कहँ ‘काका’ कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला

पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला

हाल ही पडोसी के एक मौलाना ने बाकायदा नेशनल टेलीविजन पर देश के आवारा कुत्तो को सजा धजा कर दूसरे देशों को मांस निर्यात करने का बेहतरीन प्लान किसी तथाकथित किताब के रिफरेंस से भी एप्रूव कर उनके वजीरे आजम को सुझाया है, जिसे वे उनके देश  की गरीबी दूर करने का नायाब फार्मूला बता रहे हैं. मुझे लगता है  शोले में बसंती को कुत्ते के सामने नाचने से मना क्या किया गया, कुत्तों ने  इसे पर्सनली ले लिया और उनकी वफादारी, खुंखारी में तब्दील हो गई. मैं अनेक लोगो को जानता हूं जिनके कुत्ते उनके परिवार के सदस्य से हैं.सोनी जी स्वयं एक डाग लवर हैं, उन्हीं के शब्दों में वे कुत्तेदार हैं, एक दो नही उन्होने सिरीज में राकी ही पाले हैं. एक अधिकारी के रूप में उन्होनें समाज, सरकार को कुछ ऊपर से, कुछ बेहतर तरीके से देखा समझा भी है. एक व्यंग्यकार के रूप में उनकी अनुभूतियों का लोकव्यापीकरण करने में वे बहुत सफल हुये हैं.  कुत्ते के इर्द गिर्द बुने विषयों पर  अलग अलग पृष्ठभूमि पर लिखे गये सभी चौंतीस व्यंग्य भले ही अलग अलग कालखण्ड में लिखे गये हैं किन्तु वे सब किताब को प्रासंगिक रूप से समृद्ध बना रहे हैं. यदि निरंतरता में एक ताने बाने एक ही फेब्रिक में ये व्यंग्य लिखे गये होते तो इस किताब में एक बढ़िया उपन्यास बनने की सारी संभावनायें थीं. आशा है सुदर्शन जी सेवानिवृति के बाद कुत्ते पर केंद्रित एक उपन्यास व्यंग्य जगत को देंगे, जिसका संभावित नाम उनके कुत्तों पर “राकी” ही होगा.

धैर्य की पाठशाला शीर्षक भी उन्हें कुत्तापालन और धैर्य कर देना था तो सारे व्यंग्य लेखो के शीर्षको में भी कुत्ता उपस्थित हो जाता. जेनेरेशन गैप इन कुत्तापालन, कम्फर्ट जोन व डागी,कुत्ताजन चार्टर, डोडो का पाटी संस्कार,  आदि शीर्षक ही स्पष्ट कर रहे हैं कि सोनी जी को आम आदमी की अंग्रेजी मिक्स्ड भाषा से परहेज नही है. उनकी व्यंग्यों में संस्मरण सा प्रवाह है. यूं तो सभी व्यंग्य प्रभावी हैं, गांधी मार्ग का कुत्ता, कुत्ता चिंतन, एक कुत्ते की आत्मकथा, उदारीकरण के दौर में कुत्ता आदि बढ़िया बन पड़े व्यंग्य हैं. किताब पठनीय है, श्वान प्रेमियो को भेंट करने योग्य है. न्यूयार्क में मुझे एक्सक्लूजिव डाग एसेसरीज एन्ड युटीलिटीज का सोरूम दिखा था “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ”  अंग्रेजी अनुवाद के साथ वहां रखे जाने योग्य मजेदार व्यंग्य संग्रह लगता है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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पुस्तक समीक्षा/आत्मकथ्य – संवेदना के वातायन (काव्य संग्रह) – डॉ मुक्ता

संवेदना के वातायन  (काव्य संग्रह) – डॉ मुक्ता 

पुस्तक : संवेदना के वातायन 

लेखिका : डॉ मुक्ता

प्रकाशन प्रारूप :  ईबुक, अमेज़न किंडल 

प्रकाशक : वर्जिन साहित्यपीठ

Amazon Link – संवेदना के वातायन

Google Books Link – संवेदना के वातायन

 

लेखिका परिचय : 

  • माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित
  • निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी (2009 से 2011 तक)
  • निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकुला (तत्पश्चात् 2014 तक)
  • सदस्य, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2013 से 2017 तक)
  • उच्चतर शिक्षा विभाग, हरियाणा में प्रवक्ता (1971 से 2003 तक) तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त।

 

आत्मकथ्य  – संवेदना के वातायन 

 

संवेदना के वातायन मेरा 11वां काव्य- संग्रह है,जिसमें आप रू-ब-रू होंगे…मानवीय संवेदनाओं से,मन में उठती भाव-लहरियों से जो आपके हृदय को उल्लास,प्रसन्नता व आह्लाद से सराबोर कर देंगी तो अगले ही पल आप को सोचने पर विवश कर देंगी कि समाज में इतना वैषम्य, मूल्यों का अवमूल्यन व संवेदन-शून्यता क्यों?

मानव मन चंचल है। पलभर में पूरे ब्रह्मांड की यात्रा कर लौट आता है और प्रकृति की भांति हर क्षण रंग बदलता है। ऐसी स्थिति में वह चाह कर भी स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकता।

आधुनिक युग में दिन-प्रतिदिन बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता व अधिकाधिक धन-संग्रह की प्रवृत्ति पारस्परिक वैमनस्य व दूरियां बढ़ा रही है। वहआत्म-केंद्रित होता जा रहा है और संवेदनहीनता रूपी विष उसे निरंतर लील रहा है। परिवार-जन व बच्चे अपने-अपने द्वीपों में कैद होकर रह गए हैं। सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं। ऐसे भयावह वातावरण में स्वयं को सामान्य रख पाना असंभव है, जिस का परिणाम टूटते एकल परिवारों के रूप में स्पष्ट भासता है। हर बाशिंदा अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह गया है।

समाज में सुरसा की भांति पांव पसारता भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी व दुष्कर्म के हादसे समाज में अराजकता, विषमता व विश्रंखलता को बढ़ा रहे हैं। स्नेह और सौहार्द के भाव नदारद होने के कारण सहानुभूति, सहनशीलता व धैर्य का स्थान शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता ने ग्रहण कर लिया है। आप ही सोचिए क्या,इन विषम परिस्थितियों में… जहां हर इंसान मुखौटा ओढ़े एक-दूसरे को छल रहा हो, संवेदनाएं मर रही हों,औरत की अस्मत कहीं भी सुरक्षित न हो…सहज व सामान्य रहना संभव है? शायद नहीं …..जहां अहम् की दीवारों में कैद पति-पत्नी एक-दूसरे को नीचा दिखाने में सुक़ून का अनुभव करते हों, स्वयं को सिकंदर-सम ख़ुदा मानते हों, उन्हें आजीवन एकांत की त्रासदी को झेलना स्वाभाविक है। बच्चों के मान-मनुहार और आत्मीयता के पल, जो उन्हें केवल अपने परिवारजनों के सानिध्य में प्राप्त हो सकते हैं,वे उस आनंद से वंचित रह जाते हैं।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

यहीं से प्रारम्भ होती है…मानव के तनाव की अंतहीन यात्रा,जिससे वह चाह कर भी निज़ात नहीं पा सकता।तलाश में भटकता रहता है ,परन्तु शांति तो होती है उसके अंतर्मन में..जैसी सोच वैसी क़ायनात।

साहित्य और समाज का संबंध शाश्वत है, अटूट है और वह मानव के अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है। परन्तु आज का मानव संवेदन-शून्य होता जा रहा है। वह केवल अधिकारों की परिभाषा जानता-समझता है, कर्त्तव्य-निष्ठता से अनजान, वह केवल अपने तथा अपने परिवार तक सिमट कर रह गया है,निपट स्वार्थी हो गया है।

सरहदों पर तैनात सैनिक न केवल देश की रक्षा करते हैं बल्कि हमें भी सुक़ून भरी ज़िन्दगी प्रदान करते हैं। परन्तु हमारे नुमाइंदे,बड़े-बड़े पदों पर आसीन रहते हुए उन सैनिकों के परिवारजनों के प्रति अपने दायित्व का वहन नहीं करते तथा सीमा पर तैनात प्रत्येक सैनिक को पेंशन का अधिकारी नहीं समझते हैं। क्या यह उनके परिवारों के प्रति अन्याय नहीं है? क्या उनके शवों के नाम पर अंग-प्रत्यंग इकट्ठे कर, उनके घर वालों को सौंप देने मात्र से उनके कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाती है?

हर दिन घटित होने वाली दुष्कर्म की घटनाओं को देख हम आंखें मूंदे रहते हैं? क्या हम अनुभव कर पाते हैं… उस मासूम की मानसिक यन्त्रणा,जो उसे आजीवन झेलनी पड़ती है? क्या बाल मज़दूरी करते बच्चों को देख हमारा मन पसीजता है? क्या सड़क पर पत्थर तोड़ती मज़दूरिन, धूप, आंधी, तूफान व बरसात में निरंतर कार्य-रत मज़दूरों-किसानों व गरीबों को झुग्गियों में जीवन बसर करते देख,हमारे नेत्रों से आंसुओं का  सैलाब बह निकलता है? क्या अमीर-गरीब में बढ़ गई खाई, हमें सोचने पर विवश नहीं करती कि हम दायित्व-विमुख ही नहीं,दायित्व विमुक्त हो गए है। हमारे लिए हमारा परिवार सर्वस्व हो गया है।

परन्तु आजकल एकल परिवार भी बिखर रहे हैं। लिव इन व सिंगल पेरेंट का चलन बढ़ रहा है और वे इस अवधारणा को स्वीकार, यह बतलाने में फ़ख़्र महसूस करते हैं कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को नकार दिया है।

शायद इसका कारण है मीडिया से जुड़ाव, जिसने भौगोलिक दूरियों को तो समाप्त कर दिया है,परंतु दिलों की दूरियों को पाटना असंभव बना दिया है। सामान्यजन,विशेषत: बच्चों का अपराध जगत् में प्रवेश करना, इसका प्रत्यक्ष परिणाम है। जब तक हम इसके भयावह स्वरूप से अवगत होते हैं, लौटना असंभव हो जाता है। हम स्वयं को उस दलदल में फंसा असहाय, बेबस, विवश व मज़बूर पाते हैं। हमें प्रतिदिन नई समस्या से जूझना पड़ता है। सिमटना व बिखरना हमारी नियति बन जाती है और हम लाख चाहने पर भी इस चक्रव्यूह से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते।

संवेदनाएं वे भाव-लहरिया हैं,जो हमारे मनोमस्तिष्क को हरपल उद्वेलित, आलोड़ित व आनंदित करती रहती हैं। कभी वे सब्ज़बाग  दिखलाती हैं, तो कभी सुनामी की गगनचुंबी लहरों में बीच भंवर छोड़ जाती हैं। हम इस सुख-दु:ख के जंजाल में सदैव उलझे रहते हैं। सुक़ून की तलाश में डूबते-उतराते अपने जीवन के चिरंतन लक्ष्य, उस सृष्टि-नियंता से मिलने को भुलाकर मायाजाल में उलझे, इस संसार से रुख़्सत हो जाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।

‘संवेदना के वातायन’ आंख-मिचौली है, उमंगों- तरंगों व मन में निहित आह्लाद -उल्लास की,विरह-मिलन की, जय-पराजय की और सामाजिक विसंगतियों-विषमताओं से रू-ब–रू होने की,जो हमारे समाज की जड़ों को विषाक्त कर खोखला कर रही हैं। आशा है, इस संग्रह की कविताएं आपके जीवन में उजास भर कर आलोड़ित-आनंदित करेंगे तथा नव-चेतना से आप्लावित कर देंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ….

शुभाशी

डॉ मुक्ता

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक -आत्मकथ्य /विवेचना – ☆ द्वीप अपने अपने ☆ डॉ मुक्ता (विवेचना – डा•सुभाष रस्तोगी)

काव्य संग्रह  – द्वीप अपने अपने – डॉ. मुक्ता 

  • आत्मकथ्य – डॉ.मुक्ता
  • विवेचना – डॉ. सुभाष रस्तोगी 

 

☆ आत्मकथ्य  – संवेदनाओं का झरोखा ☆

– डॉ. मुक्ता

‘द्वीप अपने अपने’ विभिन्न मनःस्थितियों को उकेरता रंग-बिरंगे पुष्पों का गुलदस्ता है, जो उपवन की शोभा में चार चांद लगाते हैं। उपवन में कहीं महकते पुष्पों पर गुंजार करते भंवरे मन को आह्लादित, प्रफुल्लित व आनंदित करते हैं, तो कहीं कैक्टस के सुंदर रूप भी मन को आकर्षित करते हैं। मलय वायु पूरे वातावरण को महका देती है और मानव मदमस्त होकर प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत हो जाता है।

परन्तु प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। ऋतु परिवर्तन अंतर्मन को ऊर्जा से परिपूर्ण कर देता है क्योंकि मानव थोड़े समय तक किसी विशेष स्थिति में रहने से ऊब जाता है। मानव नवीनता का क़ायल है और लम्बे समय तक उसी स्थिति में रहना उसे मंज़ूर नहीं क्योंकि एकरसता जीवन में नीरसता लाती है। सो! वह उस स्थिति से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाना चाहता है। मानव बनी बनाई लीक पर चलना पसंद नहीं करता बल्कि उसे सदैव नवीन रास्तों की तलाश रहती है।

इस संग्रह की लघु कविताएं /क्षणिकाएं आपके हृदय को आंदोलित कर नवचेतना औ सुवास से भर देंगी क्योंकि इसमें कहीं मन प्रकृति में रमता है, तो कहीं प्रकृति उसे आंसू बहाती भासती है,जिसे देख मानव हैरान परेशान-सा हो जाता है। वैसे तो ‘द्वीप अपने अपने’नाम से स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के दौर में अधिकाधिक धन संग्रह की बलवती भावना से प्रेरित होकर मानव आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। पति-पत्नी में व्याप्त प्रतिस्पर्द्धा की भावना उन्हें एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बना देती है, जिसका परिणाम एक-दूसरे को नीचा दिखाने के रूप में परिलक्षित होता है। इसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। पति-पत्नी के मध्य सुरसा के मुख की भांति बढ़ता अजनबीपन का अहसास,परिवार की खुशियों को लील जाता है। सो! एकांत की त्रासदी झेलते बच्चे माता-पिता के स्नेह व सुरक्षा दायरे से  महरूम हो जाते हैं और वे दिन-रात टी•वी, मीडिया व मोबाइल में आंखें गड़ाए रहते हैं…नशे के शिकार हो जाते हैं। लाख कोशिश करने पर भी वे स्वयं को अंधी गलियों से मुक्त नहीं कर पाते।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, हत्या, लूटपाट व दुष्कर्म की समस्याएं विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। युवा-वर्ग रोज़गार के अभाव में गलत राहों पर चल निकलता है और फ़िरौती, हत्या व मासूमों की इज़्ज़त लूटना उनके शौक बन जाते हैं जिन्हें वे धड़ल्ले से अंजाम देते है, जिससे समाज में विसंगतियों- विषमताओं का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। रिश्तों की अहमियत-गरिमा को नकार वह समाज में अप्रत्याशित घटनाओं को अंजाम देता है। अहंनिष्ठता का भाव उसे निपट स्वार्थी व एकांगी बना देता है।

सामाजिक विषमताओं व विसंगतियों के कारण  रिश्ते रेत हो रहे हैं और आदमी स्वयं को बंटा हुआ अथवा असामान्य स्थिति में पाता है। हर इंसान स्वयं को  अधूरा अनुभव करता है और पति-पत्नी में अलगाव के कारण चारों और अव्यवस्था का दौर व्याप्त है, जिसका मुख्य कारण है… अधिकारों के प्रति सजगता व कर्तव्यनिष्ठता का अभाव। सो! जहां समाज में  अमीर-गरीब की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है,वहीं वर्षों से प्रताड़ित स्त्री अब आधी ज़मीन ही नहीं,आधा आसमान भी चाहती है,जिस पर पुरुष वर्ग आज तक काबिज़ था। आज वह हर क्षेत्र में मील के पत्थर साबित कर रही है…उसे अब किसी संबल-आश्रय की दरक़ार नहीं ।

बच्चे भी बड़े होने पर पक्षियों की भांति पंख  फैलाकर निःसीम गगन में उड़ जाते हैं अर्थात् अपनी नई दुनिया बसा लेते हैं और उनके माता-पिता को अक्सर वृद्धाश्रम में शरण लेनी पड़ती है। वे शून्य नेत्रों से बंद दरवाज़ों को ताकते रहते हैं तथा हर आहट पर चौंक उठते हैं। उन्हें इंतज़ार रहता है आत्मजों का, जो लौट कर कभी नहीं आते।

इस संग्रह की अधिकांश लघु कविताएं/क्षणिकाएं एकांत की त्रासदी व असुरक्षा की भावना को उजागर करती हैं, जिससे हर इंसान जूझ रहा है क्योंकि वह अपने अपने द्वीप में कैद है और स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता है…जो एक विरोधाभास है। मन चंचल है तथा हर पल उसे नवीनता की चाहत रहती है। वह  जीवन में आनंद पाने की  कामना करता है, जो उसे पारस्परिक स्नेह,सौहार्द व त्याग से ही प्राप्त हो सकता है। उसके लिए आवश्यकता है समन्वय की,समर्पण की,समझौते की…जो सामजंस्यता का मूल है। काश! मानव इस राह को अपना लेता तो स्व-पर,राग-द्वेष की भावनाओं का स्वतःअंत हो जाता। ग्लोबल विलेज जहां दूरियों को समाप्त कर एक-दूसरे के निकट ले आया है,वहां संवेदनाओं की बहुलता, निःस्वार्थ सेवा व त्याग के जज़्बे से घर-आंगन में खुशियों का बरसना अवश्यंभावी है।

इसी आशा और विश्वास के साथ—

डा• मुक्ता

डॉ. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

☆ पुस्तक विवेचना –  द्वीप अपने अपने ☆

– डा•सुभाष रस्तोगी

बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉक्टर मुक्ता एक सिद्धहस्त कवयित्री, कथाकार,लघु कथाकार,आलोचक,शोधक और चिंतक के रूप में मानी जाती हैं। लेकिन यह भी सच है कि कविता ही उनका मुख्य रचना कर्म है। उनकी अब तक की कविता यात्रा इस बात की तसदीक करती है कि उन्होंने अब अपना एक स्वतंत्र कविता मुहावरा विकसित किया है और यह कविता मुहावरा है -अपनी कविता की मार्फ़त स्त्री की यात्रा,संघर्ष और स्त्री चिंतना पर प्रकाशवृत्त केंद्रित करना।यह स्त्री विमर्श की कविताएं हैं लेकिन बीती सदी के आठवें दशक में केंद्र में आए तथाकथित स्त्री विमर्श की देहमुक्ति की अवधारणा अथवा लिव इन रिलेशनशिप से इनका कोई वास्ता नहीं है।यह कविताएं स्त्री मुक्ति के लिए जद्दोजहद करती कविताएं हैं, जो पुरुष के अधिनायकवादी वर्चस्व को चुनौती देती हैं। कवयित्री का मानना हैकि स्त्री और पुरुष दोनों समाज की दो धुरी हैं और स्त्री को उसके हिस्से की धूप और छांव,आधी ज़मीन व आधा आसमान मिलना ही चाहिए। इस प्रकार डा•मुक्ता की कविताएं अपनी मुकम्मल कविता मुहावरे में स्त्री चेतना का एक नया मुहावरा रचती प्रतीत होती हैं।

डा•मुक्ता कविता की सभी विधाओं में साधिकार सृजन रत हैं। मुक्त छंद कविता, छंदबद्ध कविता यथा ग़ज़ल, गीत, मुक्तक और लघु कविता उन की अब तक की कविता यात्रा के अलग-अलग पड़ाव हैं।अध्यात्म की चेतना भी उनके कविता स्वभाव का एक मुख्य अंग है,तो व्यवस्था के पाखण्ड और राजनीति के राजनीति के विद्रूप की सत्शक्तता से निशानदेही करती है।उनके नव्यतम कविता संग्रह ‘अपने अपने द्वीप’ की कविताएं अपने समवेत पाठ में जीवन का व्यापक परिदृश्य उपस्थित करती हैं। इस संग्रह की कविताएं भावनाओं के रूप में सामने आई हैं।आकार  में छोटी दिखती इन कविताओं के अर्थ बहुत गहरे हैं औरज़्यादातर जीवन के उच्चाशयों को समर्पित यह क्षणिकाएं जीवन सूक्तियों का सा आभास देती हैं यथा’जीवन की सरहदों को पार करना संभव है/ परंतु दिलों की दूरी को पाटना असंभव…असंभव…असंभव। ’संबंधों के व्यर्थता बोध  को उजागर करती यह पंक्तियां भी तो अपने स्थान में एक जीवन सूक्ति ही प्रतीत होती हैं –’जुस्तज़ु के इस खेल में तुम्हें पाने की /ज़माने की गुफ्तग़ु के कारण/यह हो न सका/हम अपने अपने द्वीप में सिमटते गए/और खुद से अजनबी हो गए।’

स्त्री अब मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु नहीं है।पुरुष की इसी एकाधिकारवादी सत्ता को सीधे चुनौती देते हुए कवयित्री कहती है–-’मुझे नहीं दरक़ार तुम्हारे साथ की /संबल की,आश्रय की/ मैं बढ़ सकती हूं अकेली/ ज़िन्दगी/ की राहों पर/ मुझ में साहस है ,सुनामी की लहरों से टकराने का।’

भूमंडलीकरण की नई अवधारणा के चलते भले ही दुनिया अब तक एक ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गई है ।लेकिन यह भी सच है कि भूमंडलीकरण की इस अंधी दौड़ ने सबसे अधिक असुरक्षित माता-पिता को ही किया है। जो माता-पिता अपने दिन-रात के सुखचैन को तज कर इस उम्मीद से अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं कि जब वे वृद्ध हो जाएंगे तो वे उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।लेकिन वृद्ध होने पर उन्हें हासिल क्या होता है, इसी सच्चाई को रेखांकित करती यह पंक्तियां काबिले-ग़ौर हैं–’बच्चे पंख लगा कर उड़ जाते/निःसीम गगन में अपना आशियां बनाते/ रह जातेवे दोनों अकेले। ’उनके हिस्से में आता है केवल अकेलापन,असुरक्षा और निपट अकेलापन।    सहजानुभूति की इन कविताओं की कहन सादा है।वास्तव में यह कविताएं संवेदना के लघु द्वीप रचती प्रतीत होती हैं। ’सुनामी’ और ’कुकुरमुत्ता’ डा•मुक्ता के प्रिय उपमान हैं। लेकिन उनका प्रयोग मुस्लिफ़ है और पाठक को जीवन की एक नई सच्चाई के रू-ब-रू लाकर खड़ा कर देता है।

 

– डा•सुभाष रस्तोगी, मो•न•-8968987259

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ बँटा हुआ आदमी ☆ डॉ मुक्ता (समीक्षक – श्रीमती माधुरी पालावत)

भाव कथा संग्रह  – बँटा हुआ आदमी – डॉ. मुक्ता 

समीक्षक – श्रीमती माधुरी पालावत

बँटा हुआ आदमी (भाव कथा संग्रह) : लेखिका डॉ. मुक्ता,

प्रकाशक – पेसिफिक बुक्स इन्टरनेशनल, 108 फ़र्स्ट फ्लोर, 4832 /24 प्रहलाद स्ट्रीट, अंसारी  रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली 110002

मूल्य – 220/…रू.

फ्लिपकार्ट लिंक –  बँटा हुआ आदमी (भाव कथा संग्रह)

 

श्रीमती डॉ. मुक्ता जी की भाव रचनाओं की नवीन कृति है ‘बँटा हुआ आदमी’ स्वत: सिद्ध है । उनका भावुनुभूति का क्षेत्र अधिक सक्रिय है । उनके मानस में जो सहज स्पन्दन हुए है वे लिखती गई । उनकी भावना और संवेदना से प्रेरित यह कृति प्रकाशित हुई है । इसीलिए इस कृति में मणि को निर्मिति की प्रक्रिया पूरी हुई । डॉ. मुक्ता जी ने अपनी अनुभूति विशेषकर अन्तर्निहित भावानुभूति को अक्षरबद्ध किया है और इस प्रकार उनका मन रचनाओं को मणि बना सका है और बिना किसी कलात्मक करतूत या कौशल के स्वयं रचना के एक विशेष रूप या प्रकार में ढ़ल गई जैसे कार्बन हीरा बन गया हो ।

“बँटा हुआ आदमी” जैसी साहित्यिक कृति बौद्धिक तनाव, जटिल संरचना और भाव रहित, संवेग विहीन यांत्रिक सभ्यता के इस दौर में अपनी प्रासंगिकता उपलब्ध कर लेती है ।

डॉ. मुक्ता जी हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका है । साहित्य जगत के लिए अपरिचित नाम नहीं है वरन एक सशक्त हस्ताक्षर है । कथा साहित्य, लेख, व्यंग्य, कविता आदि लेखन में उनका विशेष योगदान है और उनकी वरिष्ठता का साहित्य में पूर्णत: आभास मिलता है । इस नवीन कृति में मानवीय जीवन के जीवंत प्रश्नों को उदघाटित किया है और विवेक जागृत कराने का पुरुषार्थ किया है । इस सन्दर्थ में मुझे किसी महापुरुष की ये पंक्तियां स्मृति में आ रही है-

“जीवन सच्चा सूत्र, उलझ कर अकल बिगाड़े, पक्ष विपक्षी लक्ष, इसे उलझा देता है

यूं दक्ष करे वो आंत गांठ से रक्ष, मूल यारी कारण ताड़े, जीवन सच्चा सूत्र …..”

जब मानव लोक पक्ष…विपक्ष में उलझ जाता है तो एक सरल स्री जिन्दगी को रेशम के धागे में पडी गांठों की तरह उलझा देता है जिससे जीवन का सच्चा सूत्र अर्थात धागा उलझ जाता है और मानव अपनी अकल के बिगड़ जाने के करण सदा परेशान बना रहता है । जीवन को विभीषिकाओं से त्रस्त हर पल स्वयं से जूझते, आत्म संघर्ष करते मुखौटे क्रो धारण करने को विवश हो जात्ता है और ऐसी परिस्थिति में अनबूझ पहेली बनकर जीवन रह जाता है । इससे उसके जीवन में सुख…दुख, खुशी-गम, हंसी-रूदन एक छलावा मात्र हो जाता है । वह हालात का आरा, संवेदन शून्य, अस्तित्वहीन और बँटा हुआ सा प्रतीत होता है । आज जिसे देखो वह उलझनों, परेशानियों में जकड्रा हुआ नजर आता है । उसे जीवन में शिकवा-शिकायतें, तनाव आदि घेर लेते है और जब तक तनाव रहता है सब कुछ असंतुलित, बिखरा-बिखरा, बोझिल सा जीवन लगता है तथा यह खुबसूरत सी जिन्दगी समस्याओं का पिटारा बन कर रह जाती है । दिलों-दिमाग में हर समय चिन्ताओं का धुँआ छाया रहता है ।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

वर्तमान में जीवन मूल्य बिखर रहे हैं, अनास्था का बोलबाला बढ़ रहा है, रिश्तों की अहमियत नहीं के बराबर हो गयी है, पारस्परिक स्नेह…सौन्दर्य से वह दूर होता जा रहा है । मानव मशीन बन कर रह गया है । उसके जीवन का ध्येय बस अधिकाधिक धन कमाना व येन…केन अपना रूतबा प्रदर्शित करने में लगा रहता है जिसके लिए वह उचित-अनुचित कार्यों की भी परवाह नहीं करता है परिणाम स्वरूप वह चारों ओर सन्देह, भय, आशंका, अविश्वास व संत्रास में घुला

रहता है । मुक्ता जी द्वारा रचित यह पुस्तक इतनी गहरी व निराली है कि सागर के तत्वों से मुक्ता ला कर देती है । मानव की आशुप्रज्ञा दर्पणवत बनाती है । जीते तो सब ही है लेकिन जीने का अर्थ समझाती है यह पुस्तक न केवल रास्ता बताती है बल्कि मंजिल का साक्षात्कार भी कराती है ।

सभी महापुरुषों ने कहा है “मनुष्य भव दुर्लभ है”, जब इतनी दुर्लभ जिंदगी हमें मिली है तो क्यों न इसका लाभ उठाकर अपना जीवन सार्थक करें । सच तो यह है मानव जीवन जब तक है तब तक चुनौतियों आयेंगी, प्रतिकूलताएं, बाधाएं व परीक्षाएं भी आएंगी ऐसे में इन सबके लिए तैयार रह कर अपने जीवन को सार्थक बनाएँ जैसे सूर्य की किरणे अंधियारे क्रो हरने के लिए हैं वैसे ही हर चुनौती हमारी किस्मत की किताब का नया अध्याय रचने के लिए है । प्राप्त मानव जीवन को सुन्दर तरीके से जीएं । यह पुस्तक जीवन जीने का सही अन्दाज देती है मन की समझ को अनेकायामी विस्तार देती है, सही निर्णय लेने की कुशलता का उपहार देती है । इस कृति में लेखिका ने 118 विषयान्तर्गत क्रमशः ‘विषम परिस्थिति’ से ‘मदर्स डे’ तक रचित की है जो इंगित करते है कि मानव का व्यवहार कैसे संतुलित रह सकता है ।

आज इक्कीसवीं सदी में आधी आबादी के समानाधिकारों व आधी जमीन की मांग छोरों पर है, कानून भी इसका साक्षी बना है, पर हकीकत इसके विपरीत है । आज भी पुरुष वर् औरत/महिला/स्त्री को दोयम दर्जें के रूप में समझता है, जबकि यह ममत्व, वात्सल्य, प्रेम अर्थात् सत्यं शिवम सुन्दरम् को व्याख्यायित करती है । इस कृति की रचियता स्वयं महिला है अतएव इस विषय को उन्होंने गहराई से लेकर अनेकों लेख/अपने भाव पुस्तक में महिमा मंडित किए हैं जो संवेदनशील भावनाओं में उन गहराईयों तक पहुँचने का प्रयास है जो दिखायी तो नहीं देती परन्तु अभाव, पीडा, उपेक्षा और अपेक्षाओं का जाल बुनकर जीवन पथ पर अवरोधक अवश्य खड़े कर देती है । लेखिका ने भाव अभिव्यक्ति और संवाद के माध्यम से वर्तमान के धरातल पर बिखरे हुए प्रश्न, टूटत्ते रिश्ते और अनुभूतियों को ऊंची-नीची भूमि पर छाये छलनामय कोहरे में झांक कर सच्चाई तक पहुंचने का प्रयास किया है ।

‘बँटा हुआ आदमी’ की  ये भाव कथाएँ यथार्थ के तप्त धरातल की निर्ममता और कड़वाहट, दुर्भावनाए, दुश्चिन्ताए, भयावह, विषाक्त वातावरण व पनप रही अनास्था, अजनबीपन, संवेदन शून्यता, स्वार्थपरता व अलगाव की त्रासदी का दस्तावेज है धूल भरे गुब्बारे में गुब्बार में तैरते  बिन्दु हैं, जो समन्वय व सामंजस्य लाने का यथासंभव प्रयास करती हैं जिससे सुन्दर व स्वस्थ समाज का सपना साकार हो सके।

कहते हैं जब समाज टूटता है या बँटता है तो सभ्यता, संस्कृति, मर्यादा और परम्पराएं आँसू बहाती हैं, परिवार टूटता है तो जड़े हिल जाती हैं उसे बाँधे रखने वाली आत्मीयता, अपनापन, रिश्ते-नाते क्रन्दन करके भी अपने आँसुओं का गम अन्दर ही अन्दर पीते रहते है, पर जब व्यक्ति टूटता है तो मानों जीवन का दर्पण ही टूट गया हो, जो फ्रेम में लगा रहकर भी अनेक टुकडों में बँट जाता है तो जीवन के सारे अभाव, अधूरापन, सपने, अपेक्षाएं, आकांक्षाएँ सब कुछ बिखर जाते है । दूर…दूर तक, यदि कोई टुकड़। पाव के बीच में आ गया तो रहे सहे व्यक्तित्व को भी लहुलुहान कर देता है । यदि उठाकर देख लिया तो एक ही दर्पण में अपना चेहरा सैकड़ों टुकडों में बँटा नजर आता है । समझ में नहीं आता कि असली कौन सा है? किसे अपना कहा जाए और आपसी सम्बन्धों को टूटन, बेरूखी,बिगड़ती स्थितियाँ, उलझे हुए मोड़ से सब ओर हताशा का अंधेरा और अकेलापन नजर आता है । इसी आधार पर डॉ. मुक्ता जी ने नवीन कृति की रचना की है।

मैं आशा करती हूँ कि मुक्ता जी की यह कृति ‘बँटा हुआ आदमी’ निश्चय ही बृहद पाठक समुदाय को आकर्षित करने में सफल हो सकेगी । जैसे फटे हुए बादलों के उगने से सूर्य चमकने लगता है वेसे ही कृति को पढ़कर पाठक झूम उठेगा तथा मानवता का कण…कण सुशोभित होगा। इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए लेखिका बधाई की पात्र है ।

बँटा हुआ आदमी (भाव कथा संग्रह) : लेखिका डॉ. मुक्ता,

प्रकाशक – पेसिफिक बुक्स इन्टरनेशनल, 108 फ़र्स्ट फ्लोर, 4832 /24 प्रहलाद स्ट्रीट, अंसारी  रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली 110002

मूल्य – 220/…रू.

समीक्षक श्रीमति माधुरी पालावत

साभार – जगमग दीपज्योति (मा.), महावीर मार्ग, अलवर (राज ) 30300

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ जीभ अनशन पर है ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग – (समीक्षक – श्री दीपक गिरकर)

व्यंग्य संग्रह  – जीभ अनशन पर है – श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

  विविध रंगों की व्यंग्य रचनाओं का रोचक संग्रह है ” जीभ अनशन पर है “ 

 

हिंदी व्यंग्य लेखन में महिला लेखिकाओं की संख्या बहुत कम रही हैं। लेकिन अब इस विधा में कुछ महिलाएं अपनी सशक्त व्यंग्य रचनाओं के साथ आ रही हैं, इनमें समीक्षा तैलंग व्यंग्य के आकाश में एक चमकता सितारा बनकर उभर रही है। नयी पीढ़ी की होनहार लेखिका समीक्षा तैलंग का प्रथम व्यंग्य संग्रह  “ जीभ अनशन पर है ” इन दिनों काफी चर्चा में है। समीक्षा पेशे से पूर्व पत्रकार है और जब से वे आबू धाबी में रहने लगी है तब से वे लगातार व्यंग्य, कविता, फीचर, साक्षात्कार, निबंध, लेख, कहानी, संस्मरण इत्यादि विधाओं में साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है। देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा की रचनाएं निरंतर प्रकाशित हो रही हैं. लेखिका पत्रकार थी, इसलिए वे अपनी पारखी नजर से अपने आसपास के परिवेश की विसंगतियों, विद्रूपताओं को उजागर करके अनैतिक मानदंडों पर तीखे प्रहार करती है। इस व्यंग्य संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ व्यंयकार श्री प्रेम जनमेजय, श्री सुभाष चंदर और श्री आलोक पुराणिक ने लिखी है। साथ ही व्यंयकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव और श्री समीर लाल “ समीर ” ने इस पुस्तक पर अपनी सारगर्भित टिप्पणी लिखी हैं। श्री प्रेम जनमेजय लिखते है ” समीक्षा तैलंग यदि इसी तेवर के साथ लिखती रहीं तो हिंदी व्यंग्य समृद्ध होगा। ” श्री सुभाष चंदर ने अपनी भूमिका में लिखा है ” समीक्षा व्यंग्य के आकाश में चमकता सितारा बनकर उभरेगी। ” श्री आलोक पुराणिक ने समीक्षा तैलंग को “ व्यंग्य की जमीन से उम्मीदों का आसमान कहा है। ”

शीर्षक रचना “ जीभ अनशन पर है ” के माध्यम से लेखिका ने लोकतंत्र में अनशन करने वालों की कारगुजारियों पर प्रश्न-चिन्ह लगाया गया है। इस व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार लिखती है “ एक बार ख़याल आया, एकाध नेता का दरवाजा खटखटा कर पूंछ ही लूँ, कि भैया जब आप लोग अनशन करते हो, वो केवल दिन-दिन का… या रात भी उसमें शामिल होती है? या फिर वही सुबह चार बजे खाने के बाद दिन भर का उपवास…. क्योंकि एक वही समय होता है जब मीडिया की निगाहें ज़रा दूर रहती हैं। ” “ कहत कबीर सुनो भई साधो ” “ उपवास का हलफनामा ” और  कुटिया के अंदर बंगला ” रचनाओं में लेखिका की चिंतन की प्रौढ़ता का दर्शन होता है। “उपवास का हलफनामा” रचना में समीक्षा लिखती है ” कलम ने पूरा उपवास पूरी तन्मयता से किया। न खुद श्रेय लिया, न किसी को हकदार बनाया उस श्रेय का। मेरी कलम उपवास पर ज़रूर थी पर किसी आत्मग्लानि में नहीं बल्कि मंथन कर रही थी। ” “ लो हमने भी डॉक्टरी कर ली ” व्यंग्य रचना चिकित्सकों के पेशे पर “ पोल खोल होली ” मीडिया की करतूतों पर और “ मुझे भी एक घर चाहिए ” बाजार व विज्ञापन पर गहरा कटाक्ष हैं. व्यंग्य “ 60 साल का नौजवान ” में लेखिका का मानना है कि किसान कभी भी ऐशोआराम की जिंदगी जीने का विचार नहीं करता है। किसान हमेशा ही नौजवान बना रहता है। मेहनत-मजदूरी करने वालों को कभी भी उम्र का अहसास नहीं होता है। “ योगक्षेमं वहाम्यहं ” रचना में व्यंग्यकार ने बीमा व्यवसाय की पोल खोल कर रख दी हैं. व्यंग्य “ हम तो लूट गए ” में लेखिका लिखती है ” रसूखदार और राजदार एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। रसूख के चलते राजदार काम तो करेंगे, पर ” और आगे लिखती है “ एक हम हैं… गले लगाने के बाद भी नहीं समझ पाते कि अब ये चपत लगाकर विदेश भागने वाला है ” तो व्यंग्यकार रसूखदारों राजदारों और चौकीदारों के कार्यकलापों पर तीखा प्रहार करती है। लेखिका साहित्यकारों की पीड़ा को भी जानती है। इस पीड़ा को उन्होंने “ ख़याली पुलाव ” रचना में भली भाँति दर्शाया है।

“ ठिठुरता रूपया, अकड़ता तेल ”, “ अफवाहें! तुम्हारे सिर पर पैर हैं ”,  “ फिटनेस फिक्र हो गया…रब्बा रब्बा ”, “ लट्ठ…मार…हो…ली ”, “ हम जमूरा हूँ ”, “ मुझे भी एक घर चाहिए ”, “ तूफानी  बयानबाजी”, “ सत्य से असत्य की ओर ”,         ” सूरजमुखी सेल्फी ”,  “ ध्यान रहे! हम भारतीय हैं ” जैसे व्यंग्य अपनी विविधता का अहसास कराते हैं। “ वे आत्महंता हैं ”, “ मकड़जाल की चिंता किसे है ”,     “ राम अवतार और कास्टिंग काउच ”, “ ख़याली पुलाव ”, “ कहाँ मियाँ तानसेन, कहाँ क्लाउडसीडिंग ” जैसे रोचक व्यंग्य पढ़ने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं. इन व्यंग्य रचनाओं से लेखिका की गहरी दार्शनिकता दृष्टिगोचर होती है। कतिपय बानगी प्रस्तुत है। “वे सच बोलते थे। उन्हें आत्महंता की उपाधि से नवाजा गया। सच बोलने वाला बाजार में नहीं चल सकता। वह बैठ भी नहीं सकता। लेकिन वह बाजार चला भी नहीं सकता। उनके सच बोलने से ही बाजार गिरता है। ” (वे आत्महंता हैं), “ मकड़ियों का आना जाना अब भी लगा है। वह वहाँ-वहाँ जाती जहाँ-जहाँ उसे परेशान करने वाला कोई ना होता। नए घरों, बंगलों के अंदर उसका दम घुटता। वो वहाँ न रह पाती। उसे पनपने के लिए एकांतवास चाहिए। सारे आपराधिक जाल भी अक्सर उसी एकांत में ही बुने जाते हैं। ” (मकड़जाल की चिंता किसे है),  “ मतलब, काम होने के बाद भी फंसाया जा सकता है…। यही हुआ न इसका अर्थ…। हाँ, हाँ…यही हुआ। यही हो भी रहा है। मतलब ब्लैकमेलिंग। भावनाओं का कोई काम नहीं। बाजारवादी सोच से लबरेज होते हैं ये लोग। ” (राम अवतार और कास्टिंग काउच), “पाठक अब दिये की रोशनी में भी ढूँढने से नहीं मिलने वाले। फिर…, फिर कौन पढ़ेगा इतनी मेहनत से लिखी गई किताब को।  अब इसकी भी कोई मार्केटिंग होगी तो उसके भी गुर सीखने होंगे। यही बचा है अब लेखक के लिए। इतने बुरे दिन देखने को मिलेंगे किसी ने सोचा नहीं होगा। सुझाव भी ऐसे-ऐसे आते हैं की…!” (ख़याली पुलाव), “ आगे जाकर बारिश एलियन जैसी हो जाएगी पृथ्वीवासियों के लिए। भूले-भटके आ गई किसी दिन तब उसे पहचानने वाला तक कोई न रहेगा। ” (कहाँ मियाँ तानसेन, कहाँ क्लाउडसीडिंग)    वैसे व्यंग्य की राह बहुत कठिन और साहस का काम है लेकिन समीक्षा की कलम का पैनापन व्यवस्था में फैली विसंगतियों पर तीव्र प्रहार करता हैं. व्यंग्य लेखन में तो समीक्षा की सक्रियता और प्रभाव व्यापक है और साथ में वे व्यंग्य रचनाओं, व्यंग्य की पत्रिकाओं पर भी अपनी प्रतिक्रया से अवगत कराती रहती है।

व्यंग्यकार ने इस संग्रह में व्यवस्था में मौजूद हर वृत्ति पर कटाक्ष किए हैं। बाजारवाद, पर्यावरण, अनशन की वास्तविकता, चर्चाओं का बाजार, राष्ट्रभाषा हिंदी, रूपये का गिरना, भ्रष्टाचार, घोटाले, अफवाहों का बाजार, आभासी दुनिया, राजनीति, विज्ञापन और पुस्तक मेले की सच्चाई, नोटबंदी, मिलावट का कड़वा सच, बजट, बयानबाजी और जुमलेबाजी, सांस्कृतिक व सामाजिक मूल्यों इन सब विषयों पर व्यंग्यकार ने अपनी कलम चलाई हैं। व्यंग्यकार द्वारा कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर व्यंग्य को आम आदमी के लिए अधिक ग्राह्य बनाया है।

लेखिका विदेश में रहते हुए भी मन से अपने भारत देश से जुडी हुई है। इस संग्रह की व्यंग्य रचनाओं में व्यंग्यकार समीक्षा तैलंग ने लेखन की अपनी कुछ अलग शैली, नए शिल्प के साथ गहरी बात सामर्थ्य के साथ व्यक्त की है। वे अपनी कलम से व्यंग्य के बंधे-बँधाये फ्रेम को तोड़ती है। लेखिका सरल शब्द, छोटे -छोटे वाक्य के साथ पुराने सन्दर्भों का बहुत उम्दा प्रयोग करके विसंगतियों पर तीव्र प्रहार करती है। आलोच्य कृति “ जीभ अनशन पर है” में कुल 45 व्यंग्य रचनाएं हैं। इस संग्रह की रचनाओं के विषय परंपरागत विषयों से हटकर अलग नए विषय है। संग्रह की रचनाएं तिलमिला देती हैं और पाठकों को सोचने पर विवश करती हैं। कुछ रचनाओं में लेखिका ने विसंगतियों के चित्रण में अपनी टिप्पणियों से अनावश्यक विस्तार दिया है, लेखिका को भविष्य में इस प्रकार के विस्तार से बचना होगा। भविष्य में समीक्षा तैलंग से ऐसी और भी पुस्तकों की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।

 

पुस्तक  : जीभ अनशन पर है

लेखिका : समीक्षा तैलंग

प्रकाशक : भावना प्रकाशन, 109-ए, पटपड़गंज, दिल्ली-110091

मूल्य   : 350 रूपए

पेज    : 135

 

दीपक गिरकर, समीक्षक

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ बिन गुलाल के लाल ☆ श्री मनोज श्रीवास्तव – (समीक्षक – श्री राजेंद्र पण्डित)

काव्य संग्रह  – बिन गुलाल के लाल – श्री मनोज श्रीवास्तव 

 

☆ अद्भुत, अनुपम और अद्वितीय कृति ☆

 

कविता केवल शब्दों का कुशल संयोजन नहीं अपितु भावों का यथावत सम्प्रेषण भी है. रचनाकार को चाहिए कि वह यह भी ध्यान रखे कि उसकी रचना मस्तिष्क का कचरा न होकर ह्रदय की मथानी से मथकर निकला हुआ नवनीत है. इस प्रकार के विचार श्रेष्ठ कवि मनोज श्रीवास्तव की इस पुस्तक “बिन गुलाल के लाल” को पढ़ कर स्वतः कौंधने लगते है.

मनोज जी का मूल स्वर ओज का है किन्तु लगभग सभी रसों में इनकी रचनाएँ मैंने मंचों पर इनसे सुनी है. हास्य-व्यंग्य में भी उतनी ही महारत हासिल है जितनी इन्हें वीर रस में महारत है. अपनी ओज की कविताओं में रचनाकार जहां एक और प्रांजल शब्दों का प्रयोग करके भाव सौन्दर्य के साथ-साथ नाद सौन्दर्य भी प्रतिपादित करता है वही अपनी हास्य-व्यंग्य कविताओं में इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि कठिन शब्दों के बोझ के नीचे दबकर संप्रेषणीयता कही मर न जाए. संभवतः इसीलिये श्री मनोज जी हास्य-व्यंग्य की रचनाओं में भारी भरकम शब्दों के प्रयोग से बचते दिखाई देते हैं, किन्तु एक ज़िम्मेदार रचनाकार का भान हमेशा उन्हें रहता है शीर्षक कविता में उन्होंने हास्य में भी हिन्दी की समृद्धता को प्रकाशित किया है-

हिरनी सी उन्मुक्त चंचला चाल लगे भूचाल हो गयी

कंचन देह कामिनी काया देखो तो फ़ुटबाल हो गयी

पर यह चमत्कार देखो तो ब्यूटी पार्लर में जाते ही

अपना रूप देख दर्पण में बिन गुलाल के लाल हो गयी

सयाने लाल शीर्षक की कविता में जहां रचनाकार एक ओर सज हास्य प्रस्तुत करता है वही दूसरी ओर निरर्थक और उबाऊ रचनाकारों पर परोक्ष कटाक्ष भी करता है.

आजकल के काव्य मंचों की गुणा-गणित से कवि व्यथित भी है. जिसे वह हँसी-हँसी में बहुत ही समर्थ तरीके से अपनी कविता बड़े कवि और ये सरकारी कविसम्मेलन में प्रस्तुत करता है. गंभीर बातों को हल्की फुल्की शब्दावली में रखने की कला इन कविताओं में मनोज जी ने बखूबी दिखाई है.सभी कविताएं खूब गुदगुदाती है और विचारों में नयी उत्तेजना भी संचारित करती है.

प्रस्तुत पुस्तक बिन गुलाल के लाल कवि मनोज श्रीवास्तव जी की एक श्रेष्ठ रचना है. हास्य-व्यंग्य के नए रचनाकारों के लिए शब्दों के समुचित उपयोग और भावों की कुशल संप्रेषणीयता सीखने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी. सामान्य पाठक जिस समय भारी भरकम साहित्य को बर्दाश्त करने की स्थिति में न हो उस समय यह किताब समय का सद्पुयोग सिद्ध हो सकती है.

मुझे लगता है अग्रज मनोज श्रीवास्तव जी ने इस पुस्तक को लिखकर हिन्दी हास्य-व्यंग्य साहित्य के महायज्ञ में जबरदस्त आहुति दी है. कुल मिलाकर सबको यह पुस्तक पढ़नी चाहिए.

 

पुस्तक  :  बिन गुलाल के लाल 

लेखक   : मनोज श्रीवास्तव

प्रकाशक : मनसा प्रकाशन, लखनऊ 

 

श्री राजेन्द्र पण्डित, समीक्षक

हास्य-व्यंग्य कवि एवं कथाकार

अलीगंज, लखनऊ

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ कोहरे में सुबह ☆ श्री ब्रजेश कानूनगो – (समीक्षक – श्री दीपक गिरकर)

काव्य संग्रह  – कोहरे में सुबह – श्री ब्रजेश कानूनगो  

 

☆ उम्मीदों की रोशनी से जगमग करने वाला समकालीन रचनाओं का एक अनूठा काव्य संग्रह है “कोहरे में सुबह” ☆

 

“कोहरे में सुबह” चर्चित वरिष्ठ कवि-साहित्यकार श्री ब्रजेश कानूनगो की कविता यात्रा का चौथा पड़ाव हैं। इसके पूर्व इनके “धूल और धुएं के परदे में” (1999), “इस गणराज्य में” (2014), “चिड़िया का सितार” (2017) काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। “कोहरे में सुबह” एक ऐसा कविता संग्रह है जो कई मुद्दों और विषयों पर प्रकाश डालता है। श्री ब्रजेश कानूनगो ने अपने कविता संग्रह “कोहरे में सुबह” में अपने जीवन के कई अनुभवों को समेटने की कोशिश की है। “कोहरे में सुबह” उलझन भरे कोहरे में उम्मीदों की रोशनी से जगमग करने वाला एक अनूठा काव्य संग्रह है। ब्रजेशजी ज़मीन से जुड़े हुए एक वरिष्ठ कवि है। इस संग्रह में प्रकृति, प्रेम, गाँव और ग्रामीण जीवन की स्थितियों को अभिव्यक्त करती कविताएं हैं। यह समकालीन कविताओं का एक सशक्त दस्तावेज़ है। इस संग्रह की हर रचना पाठकों और साहित्यकारों को प्रभावित करती है। इस संकलन में 70 छोटी-बड़ी कविताएं संकलित हैं।

इस संग्रह की शीर्षक कविता कोहरे में सुबह में कवि कहते है “सुबह का रैपर हटेगा / तो दिखाई देगी तश्तरी में छपी तस्वीर”। वे एक ऐसा दृश्य रचते है जिसमें पाठक कल्पनाओं के लोक में खो जाता है। आजकल रिश्ते जीवंतता खोते जा रहे हैं। इंतजार करती माँ, घर की छत पर बिस्तर, क्षमा करें इत्यादि भावपूर्ण कविताएं रिश्तों की अहमियत पर प्रकाश डालती हैं। उसका आना  कविता  की  पंक्तियाँ “रात को आई है सुबह की तरह / लगता है गई ही नहीं थी कभी यहां से” बेटी के घर आने पर उनके द्वारा लिखी गई कविता बेटी के प्रति एक पिता के लगाव को महसूस कराती है।

एक टुकड़ा गाँव एवं छुट्टी मनाते गाँव के बच्चे को उनके इस काव्य संग्रह की सबसे सशक्त कविताएं कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक टुकड़ा गाँव  कविता की पंक्तियाँ “पढ़ता हूं अख़बार में जब विकास की कोई नई घोषणा एक गाँव मेरे भीतर मिटने लगता है छुट्टी मनाते गाँव के बच्चे नामक कविता पाठकों को अंदर तक झकझोर देती हैं। ग्रामीण परिवेश इन कविताओं में बोलता-बतियाता सुना जा सकता हैं। महानगरों में आजकल चारो ओर सीमेंट के जंगल ही जंगल दिखाई देते है और बिल्डरों द्वारा जो विशाल अट्टालिकाएं बनाई जा रही है उनमें जो मजदूर काम कर रहे है वे गाँवों से ही इन महानगरों में आए हैं। इन मजदूरों ने खाली पड़े हुए ज़मीन के टुकड़ों पर छोटी-छोटी टापरी बना ली हैं और अपने परिवार के साथ मस्ती में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह देखकर कवि को अपने गाँव की और अपने बचपन की बातें याद आ जाती हैं। इस कविता संग्रह की कुछ कविताएं कवि के गाँव के साथ लगाव को उजागर करती हैं। कवि ने इन कविताओं के माध्यम से सही प्रश्न उठाया है कि जिसे हम आज विकास का नाम दे रहे है क्या इससे गाँवों में आर्थिक समृद्धि होगी? आज विकास के नाम पर आपसी रिश्तों के बीच खोखले विकास की दीवार खड़ी हो गई है। इन कविताओं में ब्रजेशजी की बैचेनी और व्यथा महसूस की जा सकती है।

आभासी दुनिया में, तुम लिखो कवि, चीख आदि कविताओं में ब्रजेशजी कला और साहित्य के प्रति व्यथित दिखते है। धर्म के नाम पर हिदुस्तान में इंसानों के बीच जो नफ़रत की दीवार खड़ी की जा रही है उस पर भी छोंक रचना में “ये कौन-सा छोंक लगाया है / कि धुँआ-धुँआ सा हो गया है चारों तरफ” कवि की चिंता अभिव्यक्त होती है। जहाँ पर्यटक की तरह कविता में कवि अपने घर को ही तीर्थ स्थान मानता है, छुट्टियों में अपने घर पर ही तरोताजा होने के लिए आता है और अपने माता-पिता के घर को ही चार धाम समझता हैं क्योंकि उसे घर में ही शांति मिलती है। पतंगबाज़ी कविता में उल्लास-उमंग के साथ-साथ हार-जीत का दर्शन है। संग्रह की कविता चीख एवं गारमेंट शो रूम में व्यंग्य है क्योंकि कवि एक व्यंग्यकार भी है। कवि के तीन व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। गारमेंट शो रूम में कविता में उपभोक्तावादी संस्कृति की चकाचौंध पर गहरा कटाक्ष है। इस कविता में कवि कहते है जगमगाते जंगल में कटे सरों के भूत / अपनी टांगों की तलाश में हेन्गरों पर अनगिनत लटके थे” भरा हुआ इस संग्रह की एक ऐसी विशिष्ठ रचना है जो पाठकों को मानवीय संवेदनाओं के विविध रंगों से रूबरू करवाती है पुस्तक मेले में दिख गए गौरीनाथ के पास बैठे विष्णु नागर / साथ आने को कहा तो स्टाल से उतर कर तुरंत चले आए मेरे साथ” प्रेम एवं रिश्तों में जीवंतता को अभिव्यक्त करती यह कविता पाठकों को प्रेम, रिश्ते और मानवीय संवेदनाओं से अभिभूत कर देती है। वैसे इस संग्रह की सभी कविताएं मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई हैं। डायरी, देहरी की ठोकर और चकमक कविताओं में कवि के मन के भीतर चल रही उठा पटक महसूस की जा सकती है।

ब्रजेशजी की लेखनी का कमाल है कि उनकी रचनाओं में वस्तु, दृश्य, संदेश, शालीनता और मर्यादा सभी मौजूद है एवं उनके कहने का अंदाज भी निराला है क्योंकि वे एक व्यंग्यकार भी है। ब्रजेश जी की कविताओं में गहरी सोच, वैचारिक सूझ एवं उनकी अपनी शालीनता प्रतिबिंबित होती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कविता ब्रजेश जी की आत्मा में रची-बसी है। कवि की रचनाओं में आदि से अंत तक आत्मिक संवेदनशीलता व्याप्त है। संग्रह की रचनाएं ह्रदय में गहरे चिन्ह छोड़ जाती है। कवि की रचनाओं में जीवन के तमाम रंग छलछलाते नज़र आते हैं। संग्रह की सभी कविताएं कथ्य और शिल्प के दृष्टिकोण से नए प्रतिमान गढ़ती है।

कोहरे में सुबह बोधि प्रकाशन का उत्कृष्ट प्रकाशन है। 120 पृष्ठ का यह कविता संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। यह काव्य संग्रह सिर्फ़ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। यह काव्य संग्रह भारतीय कविता के परिदृश्य में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल हुआ है।

पुस्तक  : कोहरे में सुबह

लेखक   : ब्रजेश कानूनगो

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा, इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन, नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-302006

मूल्य   : 120 रूपए

पेज    : 120

 

दीपक गिरकर, समीक्षक

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा ☆ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व – सौ. अनघा जोगलेकर ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

सौ. अनघा जोगलेकर

☆ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व – सौ. अनघा जोगलेकर ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆
पुस्तक  : अश्वत्थामा यातना का अमरत्व

लेखिका : अनघा जोगलेकर

प्रकाशक : उद्वेली बुक्स, बी-4, रश्मि कॉम्प्लेक्स, मेन्टल हॉस्पिटल मार्ग, ठाणे (प.) – 400604

मूल्य   : 200 रूपए

पेज    : 132

अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि का दस्तावेज है उपन्यास “ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व ”

अनघा जोगलेकर का ऐतिहासिक उपन्यास अश्वत्थामा यातना का अमरत्व इन दिनों काफी चर्चा में है। इस उपन्यास के पूर्व अनघा जी की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस उपन्यास में अनघा जी ने महाभारत युद्ध के एक ऐसे योद्धा पर अपनी कलम चलाई है जिसका उल्लेख अधिक नहीं है। यह उपन्यास शापित योद्धा अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि की अभिव्यक्ति का दस्तावेज है। लेखिका ने इस उपन्यास में अश्वत्थामा के दृष्टिकोण से महाभारत की कुछ पहलुओं को बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया हैं। हस्तिनापुर के कुलगुरू द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा एक सर्वगुण संपन्न महारथी था लेकिन उसने अधर्म का साथ दिया। लेकिन अश्वत्थामा से ऐसा कौन सा अक्षम्य अपराध हुआ कि श्रीकृष्ण को मजबूर होकर उसे यातना के अमरत्व का श्राप देना पड़ा, जिसका फल वह अभी तक भोग रहा है। वह ऐसा कौन सा कुकृत्य कर बैठा, कि आज भी उसकी आँखों में महाभारत का सत्य तांडव कर रहा है। लेकिन समय बीत चुका है। अब चाहकर भी कुछ नहीं बदला जा सकता है। उस श्राप के कारण वह आज भी वन-वन भटक रहा है। उपन्यास में अनघा जी ने इस उपेक्षित महारथी का दर्द, पीड़ा और यातना का मार्मिक चित्रण किया है। अश्वत्थामा को होने वाला आपराधिक बोध पूरे उपन्यास में फैला हुआ है। उपन्यास का नायक पश्चाताप की अग्नि में अभी तक जल रहा है, न जाने कितने युगयुगों तक वह मुक्ति के लिए तड़पता रहेगा और यातना भोगता रहेगा।

इस उपन्यास का काल महाभारत युद्ध के कुछ दशक पश्चात का है। इस उपन्यास की कथा का सूत्रधार शारणदेव है जो कुरुक्षेत्र के पास के गाँव का एक ब्राह्मण है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व एक कथा नहीं सत्य है, एक सच है… अश्वत्थामा का सच…,  जिसकी विभीषिका अश्वत्थामा आज भी वहन कर रहा है और आगे भी अनंतकाल तक उसे वहन करना है क्योंकि प्रारब्ध से कोई नहीं बच सकता है। परंतु प्रारब्ध लिखता कौन है? हर व्यक्ति अपना प्रारब्ध स्वयं ही रचता है और अश्वत्थामा ने भी अपना प्रारब्ध स्वयं ही निश्चित किया था। यह उपन्यास अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष एवं यातना के अमरत्व का श्राप मिलने के बाद उसके आत्मविश्लेषण की गाथा और महाभारत युद्ध के युग का दर्पण है। इस पुस्तक में लेखिका ने अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष और यातना को बहुत ही सहज-सरल और पारदर्शी भाषा में प्रस्तुत किया है। उपन्यास में अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं जहां उपन्यास का नायक अश्वत्थामा का मन अपने पिताजी द्रोणाचार्य के लिए वितृष्णा से भर उठता है। अनघा जी ने गुरू द्रोणाचार्य की महत्वाकांक्षा एवं उनके अभिमान को और महाभारत के सभी पात्रों के मनोविज्ञान को अश्वत्थामा के माध्यम से भली-भाँति निरूपित किया है। इस उपन्यास में आख्यान के माध्यम से महाभारत के पात्रों के जीवन संघर्ष और मानसिक सोच-विचार को अभिव्यक्त किया गया है। पुस्तक में महाभारत के महारथियों की शौर्यगाथाएं, राजनीति, षड्यंत्र, दर्द, पीड़ा, यातना, पश्चाताप का चित्रण तो है ही और साथ में गुरु द्रोणाचार्य की शिक्षा प्रणाली का भी चित्रण है।  इस उपन्यास में सजीव, सार्थक, संक्षिप्त, स्वाभाविक और सरल संवादों का प्रयोग किया गया है।

महाभारत जैसी कालजयी कृति के साथ लेखिका ने पूर्ण न्याय किया है। पौराणिक कथाओं पर हिंदी में अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए है उनमें अश्वत्थामा यातना का अमरत्व निश्चित ही प्रशंसनीय है। यह उपन्यास अपने कथ्य, प्रस्तुति और चिंतन की दृष्टि से भिन्न है। कथाकार अनघा जोगलेकर की प्रतिभा अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण है। लेखिका ऐतिहासिक तथ्यों की तह तक गई है। लेखिका ने अधिकांश अध्याय के अंत में उस अध्याय से संबंधित दंतकथा का सार्थक प्रयोग किया है, सही तथ्य प्रस्तुत किये है, पाठकों से प्रश्न किये है और उन प्रश्नों के संभावित उत्तर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ पाठकों के सामने रखें हैं। उपन्यास में इस तरह की अभिव्यक्ति शिल्प में बेजोड़ है और लेखिका की रचनात्मक सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज है। उपन्यास के बुनावट में कहीं भी ढीलापन नहीं है। इस तरह के ऐतिहासिक उपन्यास लिखना अत्यंत कठिन कार्य है। लेखिका ने इस उपन्यास को बहुत गंभीर अध्ययन और शोध के पश्चात लिखा है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व उपन्यास शिल्प और औपन्यासिक कला की दृष्टि से सफल रचना है। यह उपन्यास सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। भविष्य में अनघा जोगलेकर से ऐसी और भी पुस्तकों की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।

समीक्षक –  श्री दीपक गिरकर

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036 ईमेल [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कुत्तों से सावधान ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा  भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी की शब्द चयन एवं सांकेतिक शैली  मौलिक है। )

 

☆ कुत्तों से सावधान ☆

 

चंदा बंगले का गेट खोलकर जैसे ही अंदर दाखिल हुई ,मेमसाहब ने तीखी आवाज में चिल्लाना शुरू कर दिया – ” कहाँ मर गई थीं , इतनी देर से आ रही है ? ”

” मेमसाब , अभी  9 ही तो बजा है , देर कहां हुई । ”

” जुबान लड़ाती है , चुपचाप काम कर ।” मेमसाब नें डांटते हुए कहा ।

वह चुपचाप बर्तन मांजने एवं कपड़े धोने लगी । जब तक उसका काम खत्म नहीं हुआ तब तक मेमसाब बड़बड़ाती ही रही ।

काम खत्म कर वह बाहर निकलने लगी  तो देखा गार्डन में खड़े साहब  माली पर चिल्ला रहे थे ।

गेट के अंदर एक कोने में टॉमी दुबका पड़ा था । चंदा ने उसे देखा  तो सोचने लगी  कि टॉमी के भोंकने की आवाज तो कभी सुनाई भी नहीं पड़ी, लेकिन रोज सुबह से साहब और मेमसाब जरूर माली, धोबी, सब्जी वाले जैसे हम छोटे लोगों पर भोंकते रहते हैं ।

बाहर निकलकर जब वह गेट बंद कर रही थी, तब उसकी निगाह गेट पर लगी तख्ती पर पड़ी , जिसमें लिखा था – कुत्तों से सावधान ।

चंदा व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ दूसरे घर की ओर बढ़ गई ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

 

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पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – ☆ स्त्री-पुरुष की कहानी ☆ शीघ्र प्रकाश्य _ – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

 

(श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं।

आपकी नई पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष की कहानी ’ जून में प्रकाशित होने जा रही हैं जिसमें स्त्री पुरुष के मधुर लेकिन सबसे दुरुह सम्बंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में तुलनात्मक रूप से की गई है। प्रस्तुत हैं उसके कुछ अंश।)

 

☆ स्त्री-पुरुष की कहानी ☆

मेरी एक पुस्तक “स्त्री-पुरुष की कहानी” जून में प्रकाशित होने जा रही हैं जिसमें स्त्री पुरुष के मधुर लेकिन सबसे दुरुह सम्बंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में तुलनात्मक रूप से की गई है। प्रस्तुत हैं उसके कुछ अंश।

भारतीय दर्शन शास्त्र में संसारी के लिए वर्णित चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, अर्थ में से काम और अर्थ प्रबल प्रेरणा हैं, परंतु गम्भीरता पूर्वक ध्यान से आकलन करो तो असल प्रेरणा काम है। काम को यहाँ केवल यौन (सेक्स) के रूप में न लेकर उसे मनुष्य के इन्द्रिय और मानसिक सुख के सभी सोपान में ग्रहण किया जाना चाहिए। ज्ञान-इंद्रियों यथा आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा  से मिलने वाले आभासी सुख, कर्मेंद्रियों यथा हाथ, पैर, मुँह, मस्तिष्क और जनन इन्द्रिय के कायिक सुख, मनोरंजन, आराम और विलासिता के सभी अंग काम के वृहद अर्थ में समाहित हैं। इन अवयवों के कारण ही मनुष्य का समाज से जुड़ाव होता है, रिश्ते बनते हैं। अन्तरवैयक्तिक सम्बंधों के आयाम खुलते हैं, वह एक सामाजिक प्राणी बनकर जीवन व्यतीत करता है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि दाम्पत्य के रिश्ते का आधार काम होता है परंतु सिर्फ़ काम ही नहीं होता और भी बहुत कुछ होता है, यहाँ तक कि जीवन में सब कुछ दाम्पत्य सम्बन्धों की गुणवत्ता जैसे रिश्ते की मधुरता या मलिनता के आसपास घूमता है।

अर्थ कामना को पूरा करने का एक साधन है लेकिन अब साधन के संचय में मनुष्य इतना व्यस्त हो रहा है कि उसे साधन ही साध्य लगने लगा है। काम प्रबल दैहिक धर्म होते हुए भी पीछे खिसक कर अर्थ की तुला में तौलने वाली वस्तु सा बनता जा रहा है या कहें तो अपनी स्वाभाविकता खो कर मशीनी होता जा रहा है। वह हमारी साँस से जुड़ा होकर भी निरंतर दमन के कारण कई बार अजीब सी विकृति के साथ उद्घाटित हो रहा है या उच्छंखलित हो विरूपता को प्राप्त हो रहा  है। काम शारीरिक विज्ञान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होता है लेकिन उसके वास्तविक स्वरूप पर एक धुँध सी छाई रहती है, उसे छुपा कर या दबा कर रखने के कारण प्रकट नहीं होने दिया जा रहा है।

विज्ञान ने कभी नहीं कहा कि वह भगवान के विरुद्ध है, यह एक बड़ी अजीबोग़रीब बात है कि कतिपय निहित स्वार्थ ने विज्ञान के सामने भगवान को खड़ा कर दिया है जबकि विज्ञान भगवान की बनाई दुनिया के रहस्य खोलने की तपस्या के समान है। विज्ञान ने मनुष्य जाति की श्रेष्ठता के कई भ्रमों को तोड़ा है। पहला भ्रम उस समय टूटा था जब कोपरनिकस ने कहा था कि पृथ्वी विश्व का केंद्र नहीं है, बल्कि कल्पनातीत अन्तरिक्ष में एक छोटा बिंदु मात्र है। गेलीलिओ ने कहा कि सूर्य आकाश गंगा का केंद्र है पृथ्वी नहीं। दूसरा भ्रम तब टूटा जब डारविन ने जैविकीय गवेषणा से मनुष्य की विशेषता छीन ली कि उसका निर्माण ईश्वर ने किसी विशेष तरह से किया है, उसे पशु-जगत से विकसित हुआ बताया और कहा कि उसमें मौजूद पशु प्रकृति को पूरी तरह उन्मूलित नहीं किया जा सकता है याने मनुष्य किसी न किसी स्तर पर एकांश में पशु होता है। मनुष्य का तीसरा भ्रम उस समय टूटना शुरू हुआ जब फ्रायड ने मनोविश्लेषण से यह सिद्ध करना शुरू किया कि तुम अपने स्वयं के स्वामी नहीं हो, बल्कि तुम्हें अपने चेतन की थोड़ी सी जानकारी से संतुष्ट होना पड़ता है जबकि जो कुछ तुम्हारे अंदर  में अचेतन रूप से चल रहा है उसके बारे में तुम्हें बहुत ही कम जानकारी है। तुम्हें तुम्हारी मानसिक शक्तियाँ चला रहीं हैं न कि तुम अपनी मानसिक शक्तियों के परिचालक हो।

पिछले पचास सालों में भारत की महिला आर्थिक आज़ादी की तरफ़ तेज़ी से बढ़ी है। बैंक, बीमा, रेल्वे, चिकित्सा, इंजीनियर, संचार, सरकारी, ग़ैर-सरकारी और निजी रोज़गार के सभी क्षेत्रों में उनकी भागीदारी के प्रतिशत का ग्राफ़ तेज़ी से ऊपर बढ़ा है जबकि पहले सिर्फ़ शिक्षाकर्मी का क्षेत्र उनके लिए सुरक्षित समझा जाता था। इसका एक बड़ा प्रभाव यह देखने में आ रहा है कि जब लड़कियाँ केरियर के प्रति सजग होंगी तो घरेलू काम-काज और साज-संभाल कुशलता में उनका पिछड़ना लाज़िमी है। दूसरी तरफ़ लड़कों में शुरू से ही घरेलू काम के प्रति उपेक्षित उदासी हमारे समाज की पहचान रही है। बहुत ही कम घर होंगे जहाँ लड़कों को कभी झाड़ू-पौंछा का अनुभव होगा या उन्होंने कभी तरकारी काटी होगी या आँटा गूँथा होगा। कुल मिलाकर पूरा समीकरण तेज़ी से बदल रहा है। परस्पर अधिकारों और कर्तव्यों के बदलते समीकरण व ढीली पड़ती मर्यादा के परिणाम स्वरूप लोगों के आचरण में आए बदलाव से एक धुँधली सी अराजकता ने पुरानी दाम्पत्य व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है। फलस्वरूप दाम्पत्य सम्बन्धों में स्वाभाविक तनाव में वृद्धि हुई है इसलिए नवीन दांपत्यों में टकराव और सम्बंध विछेद के मामले बढ़े हैं।

भारतीय समाज कमोबेश पूरी तरह पश्चिमी जीवन जीने के तरीक़े अपना चुका है। भारत का सामाजिक विकास पश्चिमी देशों की तुलना में कम से कम पचास से सौ साल पीछे चलता रहा था यह अंतर  संचार क्रांति के फलस्वरूप घट रहा है। पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के बाद सामाजिक बदलाव की आधुनिक विचारधारा विकसित हुई थी, उसके बाद कम्प्यूटर क्रांति और मोबाईल क्रांति ने आधुनिक जीवन शैली को एक नए साँचे मे ढाल दिया है।  जिसने खान-पान, रहन-सहन और वैवाहिक सम्बंधों को क्रांतिकारी रूप से बदलकर रख दिया। भारतीय समाज ने भी वे तरीक़े तेज़ी से अपनाए हैं। पश्चिम के फ़ूड-पिरामिड, रहन-सहन, स्वास्थ्य मानक, अर्थ-तंत्र, सम्पत्ति निर्माण हमने अपना लिया है तो समाजिक टूटन के मानक भी हमारे अंदर सहज ही आ गए हैं। युवाओं में मधुमेह के रोग और हृदयाघात  से मौत के मामलों और तलाक़ व परस्पर वैमनस्य के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। पश्चिम में जीवन शैली के बदलाव के साथ मनोवैज्ञानिक खोजों और अंतरवैयक्तिक सम्बन्धित खोजों ने रिश्तों को एक नई दिशा दी है जिसे हमारे महानगरीय समाज ने सीखा और अपनाया है परंतु अधिकांश भारतीय समाज उनसे अछूता है। इसलिए इस विषय को मौलिक रूप से हिंदी मे भारतीय जनमानस को उपलब्ध कराना इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है।

यह सार्वभौमिक सत्य है कि सुखी समाज का आधार पारिवारिक सामंजस्य और परिवार में सुख का आधार रिश्ते की मधुरता होती है। कोई भी रिश्ता जब टूटकर के बिखरता है तो मनुष्य के अंदर की पूरी कायनात टूट के रोती है। टूटन की सिसकियों में जीवन का संगीत एक भयानक रौरव में बदल जाता है। अवसाद-निराशा-कुंठा के अंधेरे कुएँ में छुपे ज़हरीले नाग फ़न फैलाये लपलपाती जीभों से मन-कामना और स्वाभाविक लालसा को डँसकर हृदय को बियाबांन कँटीला रेगिस्तान बना कर छोड़ते हैं, जहाँ नफ़रत और घृणा की कँटीली झाड़ियों में प्रेम, स्नेह, ममता का दामन उलझते-फटते रहता है, विद्वेष के अलावा कुछ नहीं पनपता। इनसे बचने या निजात पाने का रास्ता है कि ऐसी परिस्थिति के सतही पहलू की बजाय उनके गम्भीर मनोवैज्ञानिक पहलू पर ध्यान दिया जाए। मनुष्य प्रकटत: चेतन बुद्धि से विचार करता है लेकिन उसके द्वारा की जाने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया का निर्णय उसका अचेतन-मन करता है। गुत्थियों के रहस्य उसकी अचेतन गुफा में छुपे होते हैं। वहीं से मानवीय व्यवहार चेतन धरातल पर आकर तूफ़ान की शक्ल लेता है जैसे समुद्री तूफ़ान जल की गहराई में पनपता है और किनारों को तहस-नहस कर देता है। समुद्र की सतह पर मचलती लहरें उसका चेतन स्वरुप है उनमें रवानगी है, उसकी अतल गहराई में अचेतन मन है जहाँ समुद्री तूफ़ान पलते हैं। योगी पुरुष या महिला चेतन-अचेतन का भेद समाप्त करके शांतचित्त हो जाते हैं। महिला-पुरुष के दो विपरीत मन जब एक भूमिका निबाह के दायरे में आते हैं तो दैहिक सुख से अलहदा मानसिक द्वन्द की भूमि तैयार होती है। जो दोनों को कभी न ख़त्म होने वाले संघर्ष के गहरे कुएँ में धकेल देती है। यह किताब इन्हीं गुत्थियों को समझने की कोशिश है। इसमें मनोविज्ञान के गूढ़ सिद्धांतों के बजाय उनके व्यवहारिक पहलूओ की व्याख्या की गई है।

© सुरेश पटवा, भोपाल 

 

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