हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध – लेखिका – सुश्री वीनु जमुआर ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 6 ?

? सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध – लेखिका – सुश्री वीनु जमुआर  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

सुश्री वीनु जमुआर

(बोधगम्य एवं प्रबुद्ध शब्दसृष्टि सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध का लोकार्पण 2 अप्रैल 2022 को हुआ था। ई-अभिव्यक्ति द्वारा प्रकाशित लोकार्पण के समाचार को आप इस  लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं  👉 सूचनाएँ/INFORMATION ☆ श्रीमती वीनु जमुआर द्वारा लिखित पुस्तक ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ लोकार्पित  ☆)

पुस्तक का नाम- सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध

लेखिका- वीनु जमुआर

प्रकाशन- इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली

 

? बोधगम्य, प्रबुद्ध – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध  श्री संजय भारद्वाज ?

जिस तरह बीज में वृक्ष होने की संभावना होती है, उसी प्रकार मनुष्य की दृष्टि में सृष्टि का बीज होता है। अनेक बार बीज को अंकुरण के लिए अनुकूल स्थितियों की दीर्घ अवधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेखिका वीनु जमुआर की इस पुस्तक के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है। युवावस्था में पर्यटन की दृष्टि से बोधगया में बोधिवृक्ष के तले खड़े होकर नववधू लेखिका की दृष्टि में जो समाया, लगभग साढ़े पाँच दशक बाद, वह शब्दसृष्टि के रूप में काग़ज़ पर आया। बोधगम्य, प्रबुद्ध शब्दसृष्टि का नामकरण हुआ, ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध।’

‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ का बड़ा भाग बुद्ध की जीवनयात्रा का कथा शैली में वर्णन करता है। उत्तरार्द्ध में जातक कथाओं, ऐतिहासिक तथ्यों, बौद्ध मठों की जानकारी, बुद्ध के विचारों का संकलन भी दिया गया है। इस आधार पर इसे मिश्र विधा का सृजन कहा जा सकता है। तथ्यात्मक जानकारी के साथ अनुभूत बुद्ध को पाठकों तक पहुँचाने की अकुलाहट इसमें प्रमुखता से व्यक्त हुई है। पुस्तक की भूमिका में लेखिका ने इस बात को कुछ यूँ अभिव्यक्त भी किया है- ‘सत्य और शांति के अटूट रिश्ते का महात्म्य हम तभी समझ पाते हैं जब आंतरिक शांति की जिजीविषा हृदय को कचोटने लगती है।’ विचारों की साधना से यह कचोट, जटिलता से सरलता की ओर चल पड़ती है। लेखिका के ही शब्दों में-‘विचारों को साध लो तो जीवन सरल हो जाता है।’ पग-पग पर पगता अनुभव एक समृद्ध पिटारी भरता जाता है। बकौल लेखिका, ‘सत्य की सर्वदा जीत होती है, इस बात की पुष्टि अनुभवों की पिटारी करती है।’

जैसाकि उल्लेख किया गया है, कथासूत्र के साथ सम्बंधित स्थान, काल, घटना विशेष के इतिहास की यथासंभव जानकारी और पुरातत्व अभिलेखों का उल्लेख भी पुस्तक में हुआ है। उदाहरण के लिए लोकमान्यता में ‘पिप्राहवा’ को कपिलवस्तु मानना पर पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा ‘तौलिहवा’ को कपिलवस्तु के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है। बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी का वर्णन करते हुए चीनी यात्रियों फाहियान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व वर्ष 249 में स्थापित बलवा पत्थर के स्तंभ पर प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म लिखा होने की जानकारी भी है। इस तरह की जानकारी किंवदंती, लोक-कथा, सत्य को तर्क, तथ्य, इतिहास और पुरालेख के प्रमाण देकर पुष्ट करती है। यही इस पुस्तक को विशिष्टता भी प्रदान करती है।

बुढ़ापा, रोग और मृत्यु के पार जाने का विचार बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का आधार बना। एक संन्यासी के संदर्भ में सारथी चन्ना द्वारा कहा गया वाक्य- ‘इसने जग से नाता तोड़ ईश्वर से नाता जोड़ लिया है’, उनके लिए नए मार्ग का आलोक सिद्ध हुआ। तथापि नया नाता जोड़ने की प्रक्रिया में यशोधरा से नाता तोड़ने और स्त्री के मान को पहुँची ठेस तथा पीड़ा को भी लेखिका ने विस्मृत नहीं किया है। पिता राजा शुद्धोदन के आग्रह पर अपने गृह नगर कपिलवस्तु पहुँचे संन्यासी बुद्ध से गृहस्थ जीवन में पत्नी रही यशोधरा ने मिलने आने से स्पष्ट मना कर दिया। यशोधरा का दो टूक उत्तर है, “मैंने उन्हें नहीं त्यागा था, वे त्याग गए थे हमें।”

इतिहास को तटस्थ दृष्टिकोण से देखना वांछनीय होता है। इससे तात्कालिक सामाजिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर मिलता है। जटाधारी साधुओं के प्रमुख पंडित काश्यप द्वारा गौतम बुद्ध को रात्रि निवास के लिए आश्रम में स्थान देना, ‘मतभेद हों पर मनभेद न हों’ की तत्कालीन सुसंगत सामाजिक सहिष्णुता का प्रतीक है। पुस्तक इस सहिष्णुता को अधोरेखित करती है।

भारतीय दर्शन में सम्यकता की जड़ें गहरी हैं। इसकी पुष्टि बुद्ध द्वारा अपने पिता राजा शुद्धोदन को किए उपदेश से होती है। बुद्ध ने पिता से कहा, ”महाराज जितना स्नेह और प्रेम अपने पुत्र से करते हैं, वही स्नेह और प्रेम राज्य के प्रत्येक व्यक्ति से रखेंगे तो सभी उनके पुत्रवत हो, वैसा ही प्रेम महाराज से करने लगेंगे।” राजवंश के दिनों में किये गए इस उपदेश में काफी हद तक प्रजातंत्र की ध्वनि भी अंतर्निहित है। यह उपदेश काल के वक्ष पर पत्थर की लकीर है।

‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ अनित्य से नित्य होने का मार्ग है। यह पुस्तक महात्मा के जीवन दर्शन को सामने रखकर पाठक को विचार करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से पाठक अपने भीतर, अपने बुद्ध को तलाशने की यात्रा पर निकल सके तो लेखिका की कलम धन्य हो उठेगी।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 164 ☆“विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी) – लेखक … श्री सुरेंद्र सिंह पवार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुरेंद्र सिंह पवार  द्वारा लिखित  विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 164 ☆

☆ “विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी) – लेखक … श्री सुरेंद्र सिंह पवार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया (जीवनी)

आई एस बी एन ८१.७७६१.०१९.८

सुरेंद्र सिंह पवार

समन्वय प्रकाशन अभियान,  जबलपुर

मूल्य १२५ रु

चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए २३३,  ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी,  जे के रोड,  भोपाल ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

 मुझे भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया जी के जीवन पर लिखी गई कई किताबें पढ़ने मिली हैं। मानव जीवन में विज्ञान के विकास को मूर्त रूप देने में इंजीनियर्स का योगदान रहा है और हमेशा बना रहेगा। किन्तु बदलते परिवेश में भ्रष्टाचार के चलते इंजीनियर्स को रुपया बनाने की मशीन समझने की भूल हो रही है। भौतिकवाद की इस आपाधापी में राजनैतिक दबाव में तकनीक से समझौते कर लेना इंजीनियर्स की स्वयं की गलती है। देखना होगा कि निहित स्वार्थों के लिये तकनीक पर राजनीति हावी न होने पावे। भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया तकनीक के प्रति समर्पित इंजीनियर थे,  उनका जीवन न केवल इंजीनियर्स के लिये वरन प्रत्येक युवा के लिये प्रेरणा है।

सुरेंद्र सिंह पवार एक कुशल शब्द शिल्पी हैं। वे नियमित रूप से हिन्दी साहित्य जगत की महत्वपूर्ण त्रैमासिक पत्रिका साहित्य संस्कार का संपादन कर रहे हैं,  उन्होने इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स की वार्षिक बहुभाषी पत्रिका अभियंता बंधु का संपादन भी किया है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में उन्होंने विषय वस्तु को शाश्वत,  पाठकोपयोगी,  और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। यह जीवनी केंद्रित कृति हाल ही समन्वय प्रकाशन जबलपुर से छपी है। योजनाबद्ध तरीके से विश्वेश्वरैया जी पर प्रामाणिक सामग्री संजोई गई है। महान अभियंता की जीवन यात्रा को १२ अध्यायों में बांटकर रोचक फार्मेट में पाठको के लिये प्रस्तुत किया है। प्रासंगिक फोटोग्राफ के संग प्रकाशन से जीवनी अधिक ग्राह्य बन सकी है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया उन पर केंद्रित सहज,  प्रवाहमान शैली में,  हिन्दी में पहली विशद जीवनी है। किसी के जीवन पर लिखने हेतु रचनाकार को उसके समय परिवेश और परिस्थितियों में मानसिक रूप से उतरकर तादात्म्य स्थापित करना वांछित होता है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में सुरेंद्र सिंह पवार ने विश्वेश्वरैया जी के प्रति समुचित तथ्य रखने में सफलता पाई है।

पहले अध्याय में विश्वेश्वरैया जी की १०१ वर्षो के सुदीर्घ जीवन,  उनके घर परिवार की जानकारियां संजोई गई हैं। किताब के अंत में संदर्भो का उल्लेख भी है,  जो शोधार्थियों के लिये उपयोगी होगा। दूसरा अध्याय विश्वेश्वरैया जी के ब्रिटिश सरकार के रूप में कार्यकाल पर केंद्रित किया गया है। इसमें उनके द्वारा डिजाइन की गई सिंचाई की ब्लाक पद्धति,  खडकवासला झील के लिये बनवाया गया स्वचलित गेट,  सिंध प्रांत में सख्खर पर निर्मित बांध और नहरें, आदि कार्यों की जानकारियां समाहित की गई हैं। उल्लेखनीय है कि विश्वेश्वरैया जी ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर हैदराबाद में मूसा नदी पर बाढ़ नियंत्रण,  उस्मान सागर तथा हिमायत सागर के निर्माण कार्यों में भागीदारी की थी,  यह सब तीसरे अध्याया का हिस्सा है। चौथे और पांचवे अध्याय में उनके मैसूर के कार्यकाल में निर्मित सुप्रसिद्ध कृष्ण राज सागर डैम,  बृंदावन गार्डन विषयक जानकारियां तथा मैसूर रियासत के दीवान के रूप में किये गये शिक्षा,  रेल,  बंदरगाह स्टील वर्क्स आदि कार्य वर्णित हैं। छठा अध्याय उनकी विदेश यात्राओ की रोचक बातें बताता है। सातवें अध्याय में देश के विभिन्न हिस्सों में कंसल्टैंट के रूप में किये गये विश्वैश्वरैया जी के अनेक कार्यो पर प्रकाश डाला गया है। आठवां अध्याय उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व के बारे में लिखा गया है। महात्मा गांधी तब एक राष्ट्र पुरुष के रूप में मुखरित हो चुके थे,  उनके साथ विश्वेश्वरैया की भेंट के वर्णन यहां मिलते हैं। नौं वें अध्याय में विश्वेश्वरैया जी के भाषण,  भात के आर्थिक विकास की उनकी सोच,  तथा उनके जीवन की सुस्मृतियां संजोई गई हैं। विश्वेश्वरैया जी को देश विदेश से अनेकानेक सम्मान मानद उपाधियां,  मिलीं उन्हें भारत रत्न प्रदान किया गया,  उन पर डाक टिकिट जारी की गई। ये जानकारियां दसवें अध्याय का पाठ्य हैं। ग्यारवें अध्याय में गूगल द्वारा उन्हें प्रदत्त सम्मान,  उनके जन्म दिवस पर इंजीनियर्स डे का प्रति वर्ष आयोजन,  तथा उनकी अंतिम यात्रा का वर्णन है। बारहवां और अंतिम अध्याय परिशिष्ट है जिसमें अनेक महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत किये गये हैं।

१९०२ में एक मैसूर वासी नाम से युवा विश्वेश्वरैया ने तकनीकी शिक्षा के संदर्भ में उनके विचार एक पत्रक के रूप में लिखे थे। इससे उनके वृहद सिद्धांत,  स्व नहीं समाज की झलक मिलती है। उन्होंने कहीं लिखा कि मैं काम रते करते मरना चाहता हूं,  वे जीवन पर्यंत सक्रिय रहे। उनकी दीर्घ आयु का राज भी यही है कि उन्होंने स्वयं पर जंग नहीं लगने दी,  वे इस्पात की तरह सदा चमचमाते रहे। कुल मिलाकर स्पष्ट दिखता है कि सुरेंद्र सिंह पवार ने एक श्रम साध्य कार्य कर हिन्दी में विश्वेश्वरैया जी की जीवनी लिखने का बड़ा कार्य किया है,  जो सदैव संदर्भ बना रहेगा। त्रुटि रहित साफ सुथरी प्रिंट में स्वच्छसफेद कागज पर पूर्ण डिमाई आकार की १३६ पृष्ठीय किताब मात्र १०० रु में सुलभ है। मेरा सुझाव है कि इसे सभी इंजीनियरिंग कालेजों में अवश्य खरीदा जाना चाहिये। यदि भीतर के चेप्टर्स में भी अनुक्रम के अध्याय नम्बर डाल दिये जाते तो रिफरेंस लेने में और सरलता होती,  अगले एडीशन में यह सुधार वांछित है। अस्तु खरीदिये,  पढ़िये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – कुएँ का पानी (काव्य संग्रह) – कवयित्री – अपर्णा कडसकर ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 5 ?

?कुएँ का पानी (काव्य संग्रह) – कवयित्री – अपर्णा कडसकर ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – कुएँ का पानी

विधा – कविता

कवयित्री – अपर्णा कडसकर

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

 

? अंतस से उपजी ‘इनबिल्ट’ कविताओं का संग्रह  श्री संजय भारद्वाज ?

सेतु का जन्म

पहले हृदय में होता है,

बाद में ही हो सकता है

प्रत्यक्ष निर्माण!

कविता मानवता का सेतु है। इस सेतु के जन्म की पृष्ठभूमि को अभिव्यक्त करने के लिए उपरोक्त पंक्तियाँ सार्थक हैं। कोरी लफ़्फ़ाज़ी नहीं होती कविता। सच्ची कविता को पहले जीना पड़ता है, तब जाकर काग़ज़ पर उतरी शब्द-लहरी, सेतु बना पाती है। समाज की सोच को वही कविता प्रभावित कर सकती है जो भीतर से जन्मती है। कवयित्री अपर्णा कडसकर की सोच और कलम में कविता ‘इनबिल्ट’ है। यह इनबिल्ट प्रस्तुत कविता संग्रह ‘कुएँ का पानी’ में यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता है।

यद्यपि कवयित्री कहती है,‘मुझे नहीं, मेरी कविता को जानो’ पर कविता को जानना, कवि को जानना होता है। व्यक्तित्व का परिचय हैं शब्द। भीतर और बाहर अंतर हो तो अंतस से नहीं उपजती कविता। जो कविता कवि के अंतस से नहीं उपजती, वह पाठक के अंतस को बेधती भी नहीं। कृत्रिम रूप से शब्दों की जुगत द्वारा हिज्जों की मदद से खड़ी कर भी ली जाए कविता तो ऐसी कृति संकर प्रजाति के फल-सी होती है, सुडौल, चटक पर बेस्वाद।

कविता, विशेषकर अतुकांत कविता में चमत्कृत करने की क्षमता होती है। घने बादलों की मूसलाधार बारिश के बाद सहसा इंद्रधनुष-सा प्रकट होता है कवित्व। यही चमत्कारी कवित्व अपर्णा की कुछ रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। यथा-

दुनिया कभी सर पे बिठा लेती है,

कभी ज़मीन पर पटक देती है,

लेकिन दुनिया छोड़ कर

कोई नहीं जाना चाहता,

…तुम मेरी दुनिया हो!

रचना की अंतिम पंक्ति काव्य का रस है। यह पंक्ति न केवल चमत्कृत करती है वरन रचनाधर्मी की बहुआयामी प्रतिभा को भी प्रकट करती है। प्रत्येक पाठक, अपने अनुभव जगत के आधार पर इस पंक्ति में अपने जीवन-दर्शन का दर्शन कर सकता है।

कविता का आलेख आरोही होना चाहिए। वैचारिक उधेड़बुन को मथकर नवनीत निकालने की इच्छा रखने वाले कवि की कविता अपनी यात्रा की दिशा, मार्ग और गंतव्य को लेकर स्पष्ट होती है। यह स्पष्ट-भाव रचना को उत्कर्ष पर ले जाता है। बानगी स्वरूप एक रचना का आरंभ बिंदु देखिए-

मुझे पता नहीं था

कोई आसमान होता है!…

इसी कविता का उत्कर्ष देखिए-

मुझे पता नहीं था

ऐसे भी कोई आसमान होता है!

कवयित्री अपने समय की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों में दख़ल रखती हैं। बिकाऊ विषयों विशेषकर स्त्री की दैहिकता को विषय बनाकर चर्चित होने की वृत्ति हो या इसके ठीक उलट स्त्री की सहज स्वतंत्रता को स्वच्छंदता निरूपित करने की मानसिकता हो, समाज की विभिन्न प्रकार की सोच के कटाक्ष झेलती कविता, कटाक्ष से ही प्रखर उत्तर देती है-

नहीं होगी मेरी कविता में

पुरुषों से अधिक बुद्धिमत्ता,

……….

स्त्री के लिए तथाकथित

अशोभनीय, अकल्पित,

असराहनीय, असाहित्यिक,

और हाँ अपौरुषेय कुछ भी,

नहीं मिलेगा कोई चिह्न

मेरे मनुष्य होने का,

नहीं होगी कविता बदनाम

 ….निश्चिंत रहो!

बदले काल में भी  लड़की  की ‘पौरुषेय’ परिभाषा को धता बताती लड़कियों में कवयित्री अपना प्रतिबिम्ब देखती हैं-

मुझे पसंद हैं लडकियाँ ,

थोड़ा डर-डरके ही सही

जो जीती हैं

मस्त, मज़ेदार ज़िंदगी

खुद के साथ,

अलग स्वतंत्र दुनिया में

बिलकुल मेरे जैसी…!

हिंदी आंदोलन परिवार में हमने एक सूत्र दिया है- ‘ जो बाँचेगा-वही रचेगा, जो रचेगा-वही बचेगा।’ रचने के लिए अनिवार्य है बाँचना। पुस्तकों से लेकर मनुष्य और मनुष्येतर जो कुछ है, उसे भी बाँचना। यह वाचन कवयित्री के सृजन में परिलक्षित होती है। यही कारण है कि चंद्रकांत देवल की पुस्तक से माधवी को जानकर उस पर आधारित कविताएँ हों, परवीन शाकिर से प्रेरित रचनाएँ हों, अमृता प्रीतम के प्रेम को समझने का प्रयास हो, अरुणा शानबाग की अमानवीय त्रासदी हो, स्त्री की वेदना और चेतना के विविध स्वर हों, साहित्यिक जगत के आडम्बर हों, किन्नरों के प्रश्न हों, पर्यावरण विमर्श हो, प्रेम के रंग हों, कल्पना हो या यथार्थ, निराशा हो या जिजीविषा, सभी कुछ अपर्णा कडसकर के कवित्व की परिधि में आता है। माधवी के संदर्भ में स्थापित मूल्यों की दारुण शोकांतिका द्रष्टव्य है-

निष्काम स्त्रियों को

यही फल मिलता है कि

वे निर्फल रह जाती हैं..!

अपर्णा कडसकर की यह पहली पुस्तक है। पुस्तकों की संख्या मायने नहीं रखती। शिल्प में सुघड़ता, भाव में अबोधता और कहन में परिपक्वता हो तो प्रश्नों के बीच प्रसूत होती कविता, प्रश्नों का उत्तर बन जाती है, औरत की तरह। बस इन उत्तरों को पढ़ने, समझने की व्यापक दृष्टि पाठक में होनी चाहिए। बकौल कवयित्री-

प्रश्नोें के बीच ही

पैदा होती हैं औरतें,

औरतों को पता  होते हैं

उनके जवाब,

बस वे जवाब नहीं देती!

साहित्यिक जगत में अपर्णा कडसकर की उम्मीद जगाती कविताओं का स्वागत है। अनेकानेक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “जलनाद (लम्बा नाटक)” – लेखक- श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चा – श्री विभूति खरे ☆

☆ “जलनाद (लम्बा नाटक)” – लेखक- श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चा – श्री विभूति खरे ☆

(17 तारीख को जलनाद (लम्बा नाटक) का विमोचन इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स में आयोजित है। ई-अभिव्यक्ति परिवार की हार्दिक शुभकमनाएं)

पुस्तक – जलनाद (लम्बा नाटक)

लेखक – विवेक रंजन श्रीवास्तव

प्रकाशक – इण्डिया नेट बुक्स, नोएडा

मूल्य – १२५ रु

चर्चा …. श्री विभूति खरे, बानेर, पुणे

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न केवल जीवन और पर्यावरण में जल का महत्व निर्विवाद है बल्कि जल श्रोत सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयाम में भी गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। पानी की कमी या नदियों की बाढ़ दोनो ही स्थितियां त्राहि त्राहि की स्थितियां पैदा कर देती है। इसीलिये लोगों के मन में पानी का महत्व स्थापित करने हेतु प्रत्येक धर्म में पानी की शुद्धता और बचत को लेकर अनेक कथानक गढ़े गये हैं। विवेक रंजन श्रीवास्तव अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानो से पुरस्कृत बहुविध लेखक हैं। वे शिक्षा तथा पेशे से मूलतः इंजीनियर रहे हैं। उनकी लगभग २० किताबें विभिन्न विषयों पर प्रकाशित और चर्चित हैं। ये पुस्तकें ई प्लेटफार्म किंडल आदि पर भी सुलभ हैं। विवेक रंजन श्रीवास्तव को नाटक के लिये मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का प्रसिद्ध हरिकृष्ण प्रेमी सम्मान प्राप्त हो चुका है। उन्होंने १२ अंको का लम्बा नाटक “जलनाद” लिखकर स्टेज के जरिये पानी के प्रासंगिक महत्व को रेखांकित किया है। जल के देवता भगवान इंद्र को ही वरुण देव और भगवान झूलेलाल के नामों से भी प्रतिपादित किया गया है। मुस्लिम धर्म में भी पानी के पीर, जिन्दह पीर की कल्पना है। भारत रत्न सर मोक्षगुण्डम विश्वैश्वरैया जी के महान कार्यों में से एक मैसूर का सुप्रसिद्ध नागार्जुन सागर बांध है। पानी भविष्य की एक बड़ी वैश्विक चुनौती है । भारत दुनियां का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन चुका है, विश्व की जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है, इससे स्वच्छ जल की आवश्यकता बढ़ रही है। जलवायु परिवर्तन और जन सांख्यकीय वृद्धि के कारण जल स्त्रोतो पर जल दोहन का असाधारण दबाव बन रहा है । बारम्बार बादलो के फटने और अतिवर्षा से जल निकासी के मार्ग तटबंध तोड़कर बहते हैं, बाढ़ से विनाश लीला के दृश्य बनते हैं । समुद्र के जलस्तर में वृद्धि से आवासीय भूमि कम होती जा रही है, अनेक द्वीप डूबने के खतरे हैं। पेय जल की कमी से वैश्विक रुप से लोगो के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । विशेषज्ञों के अनुसार जल आपदा से बचने हेतु हमें अपने आचरण बदलने चाहिये, जल उपयोग में मितव्ययता बरतनी चाहिये .पर वास्तविकता इससे कोसों दूर है। पानी के प्रति जन मानस में सही समझ विकसित करने तथा पानी को लेकर सुव्यवस्थित इंफ्रास्ट्रकचर बांध, नहरें, पीने के पानी व सिंचाई के पानी की आपूर्ति की व्यवस्थायें, वर्षा जल के संग्रहण तथा   शहरों से निकासी पर बहुत काम करने की जरूरत है।

थियेटर वह समुचित मीडिया है जो दर्शको को भावनात्मक और मानसिक रूप से एक समग्र अनुभव देते हुये, मानव जाति और उसके पूर्वजो की अनुष्ठानिक पृष्ठ भूमि और सांकेतिकता के साथ उनकी विविधता किन्तु पानी के साथ एक सार्वभौमिक सम्बंध का सही परिचय करवा सकता है । इस तरह हमारी विविध सांस्कृतिक समानताओ को ध्यान में रखते हुये दुनिया को देखने और बेहतर समझने का बड़ा दायरा इस कला प्रदर्शन का सांस्कृतिक तत्व है । अगले विश्वयुद्ध के लिये आतुर दुनियां को पानी का सार्वभौमिक महत्व तथा हम सबके पूर्वजो द्वारा पानी के महत्व की समझ की शिक्षा दोहराने से पानी वैश्विक एका स्थापित करने का माध्यम बन सकता है। औद्योगिक प्रगति ने नदियों के प्रदूषण का विष दिया है, यह नाटक इन सभी बिन्दुओ को रेखांकित करता है।

पहले अंक में धरती पर जीवन के प्रादुर्भाव के लिये पानी की आवश्यकता बताई गई है, हम सब जानते हैं कि वैज्ञानिक अनुसंधानो के अनुसार पानी में ही सर्वप्रथम जीवन प्रारंभ हुआ था। यही कारण है कि ब्रह्माण्ड में अन्य ग्रहों पर जहां भी वैज्ञानिक जीवन की संभावना तलाश रहे हैं सर्वप्रथम वे वहां पानी की उपस्थिति की जांच करते हैं। जल में जीवन सृजित करने की क्षमता होती है वहीं यह विनाश भी कर सकता है .पानी समस्त मानवता को जोडता है, यह हम सबके लिये बराबरी से महत्व का तत्व है । विवेक जी के नाट्य लेखन की विशेषता है कि नाटक के न केवल संवाद लिखे गये हैं वरन् उन्होने दृश्य, मंच की साज सज्जा, म्युजिक, सूत्रधार के नेपथ्य व्यक्तव्य सब कुछ रेडी रूप से किताब में प्रस्तुत किये हैं। नाटक ज्ञानवर्धक और मनोरंजक है। काले वस्त्रों में मेघ, रेन ड्राप, नदी, समुद्र, धरती, सूर्य किरण, आदि को चरित्रो के रूप में रचकर उनसे अभिनय और नृत्य के मनोरम दृश्यों का निर्माण किया गया है जो दर्शकों को बांध रखने में सक्षम हैं। पौराणिक आख्यानों पर आधारित नाटक के अंक स्वतंत्र रूप से पूर्ण एकांकी हैं जो अलग से खुद एक छोटे नाटक की तरह प्रस्तुत किये जा सकते हैं। समुद्र मंथन के कथानक पर दूसरा अंक निर्मित है। तीसरा अंक बाल कृष्ण के द्वारा कालिका नाग के मद मर्दन पर आधारित है, जो नदियों के प्रदूषण के विरुद्ध संदेश देता है। नदियों के सामाजिक महत्व को रेखांकित करता “नर्मदा परिक्रमा” चौथा अंक है।

भागवत में वरुण देवता के विश्राम में विघ्न के वृतांत की कहानी को नात्य परिवर्तन कर पांचवा अंक लिखा गया है, जो जल स्त्रोतो से छेड़छाड़ के विरुद्ध शिक्षा देता है। यह अंक कथक नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया जायेगा जिसमें संवाद न होकर नृत्य मुद्राओ से ही कथ्य कहा जायेगा। छठवें अंक में जल के दुरुपयोग के प्रति चेतना जागृत करने के लिये द्रौपदी द्वारा दुर्योधन के उपहास का प्रसंग उठाया गया है। सातवें अंक में कुंभ के मेलों के जरिये पानि के सामाजिक महत्व को रेखांकित किया गया है। आठवां अंक पुनः मेघदूत पर आधारित कथक नृत्य नाटिका है। जिसमें जल का मानवीकरण किया गया है। नौवें अंक का कथानक माण्डू के जल महल का है, जिसके माध्यम से वाटर हार्वेस्टिंग, के वैज्ञानिक संदेश को समझाया गया है। दसवें अंक का शीर्षक है नदी की मनोव्यथा। नदियों के प्रदूषण की वर्तमान स्थिति पर जन आव्हान के रूप में गीत और नृत्य नाटिका के मंचन द्वारा संदेश देने का यत्न इस अंक की कथा वस्तु है। ग्यारहवें अंक में बच्चों के खेल गोल गोल रानी इत्ता इत्ता पानी के जरिये हिन्दू और मुस्लिम धर्मों में पानी के महत्व पर संवाद हैं। बारहवें अंक में जलतरंग वाद्य यंत्र की प्रस्तुति के साथ काव्य वाचन है

हे जल देवता !

जो कुछ भी मुझमें अपवित्र हो

अशुभ हो

उसे बहा दे। ….

हे जल देवता

मेरा आचरण

अब तेरे जेसा हो

तेरा रसायन मुझमें समा जाये

तू आ

मुझे ओजस्वी बना। ….

जिस तरह जल सबका कल्याण करता है, जिस बर्तन में डालो वैसा ही रूप ले लेता है, …ॠग्वेद की सूक्ति के हिन्दी काव्य रूपांतर की ये अंतिम पंक्तियां नाटक का संदेश हैं।

सबसे बड़ा, सबसे ऊंचा बांध की जो होड़ हमें दुबा रही है, भूकंप ला रही है जंगलों का विनाश और गांवो का विस्थापन हुआ है। इन विभिन्न  समस्याओ पर यह नाटक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रकाश डालता है तथा  बौद्धिकता को मथकर सवाल खड़े करने में सफल है। अब समय आ गया है कि जलाशयो, वाटरबाडीज, शहरो के पास नदियो को ऊंचा नही गहरा किया जावे इन बिंदुओ पर काम हो । पानी के संरक्षण के हर सम्भव प्रयास करे जायें। पानी की इसी सार्व भौमिक भूमिका को ध्यान में रखते हुये इस आशा के साथ कि इसका नाट्य प्रदर्शन जल्दी ही आपके सम्मुख होगा। गाइड फिल्म का अल्ला मेघ दे पानी दे गुड़धानी दे ..। जैसे अकाल और सूखे के कारुणिक दृश्य पुनः सच न हों यह चेतना जन मानस में जगाने के लिये जलनाद के लेखक विवेक रंजन श्रीवास्तव को बहुत बधाई। किताब किंडल पर भी सुलभ है।  

चर्चाकार… श्री विभूति खरे

बानेर, पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मीरा (संगीत नाटिका) – लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 5 ?

? मीरा (संगीत नाटिका) – लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मीरा

विधा- संगीत नाटिका

लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? त्रिवेणी कलासंगम की प्रतीक – मीरा ☆ श्री संजय भारद्वाज ?

मीरा भक्तिजगत का अनन्य नाम है। अनेकानेक संस्कृतियों में भक्तों ने ईश्वर को भिन्न-भिन्न रूपों में देखा। किसीने परम पिता माना, किसीने परमात्मा, किसीने जगत की जननी कहा। पूरी धरती पर एक मीराबाई हुईं जिन्होंने उद्घोष किया-‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोय, जाँके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोय।’ सैकड़ों वर्ष पूर्व पारंपरिक भारतीय समाज में एक ब्याहता का किसी अन्य पुरुष को (चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो) अपना पति घोषित कर देना अकल्पनीय है। इस अकल्पनीय को यथार्थ में बदलकर मीरा न केवल भक्तिमार्ग की पराकाष्ठा सिद्ध हुईं वरन अध्यात्म, भक्ति, एवं प्रेम के नभ में ध्रुवतारे-सी अटल भी हो गईं।

लेखन अनुभूति को अभिव्यक्त करने का ध्रुव-सा माध्यम है। शब्द संपदा से साम्राज्य खड़ा करना लेखक की शक्ति है। इसी तरह नाटक और नृत्य  अभिव्यक्ति की दो परम ललितकलाएँ हैं। सुखद संयोग है कि चौंसठ कलाओं में पारंगत श्रीकृष्ण की अद्वितीय प्रिया मीरा को लेखनी, नाटक और नृत्य के त्रिवेणी कलासंगम के माध्यम से साकार करने का अद्भुत काम डॉ. विद्याहरि देशपांडे ने किया है।

नाटककार ने इस नृत्य नाटिका में प्रसंगानुरूप मीरा के पारंपरिक भजनों का उपयोग किया है। नाटिका पढ़ते हुए यह बात उभरकर आती है कि लेखन के पूर्व डॉ. विद्याहरि ने विषय का गहन अध्ययन किया है। इससे कथ्य में तर्क और तथ्य का संतुलन बना रहता है। मीरा के माध्यम से सती प्रथा और जौहर से मुक्त होने का आह्वान करवाकर उन्होंने अपनी सामाजिक चेतना और सामुदायिक प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त किया है। नारी प्रबोधन के सार्वकालिक तत्व पारंपरिक कथा में पिरोना नृत्य नाटिका को अपने वर्तमान से जोड़ता है।

राणा भोजराज इस मीरा का एक और उजला पक्ष है। मीरा ने जिस पारंपरिकता को तोड़ा, शासनकर्ता होने के नाते राणा पर उस पारंपरिकता को बचाये रखने के भीषण दबाव रहे होंगे। पत्नी और प्रथा दोनों का एक ही समय बचाव करते हुए भोजराज अभूतपूर्व स्थितियों से गुजरे होंगे। इतिहास के इस उपेक्षित चरित्र को न्याय देने का सफल प्रयास नाटककार ने किया है। विद्याहरि, मीरा के माध्यम से माँसलता को प्रेम की शर्त के रूप में स्वीकार करने को नकारती हैं। वे प्रबल विश्वास और सम्पूर्ण समर्पण के आधार पर खड़े प्रेम को दैहिक संबंधों की बैसाखी थमाने की पक्षधर भी नहीं। मीरा और गिरिधर के अविनाशी नेह के साथ, मीरा और भोजराज का  विदेह समर्पण प्रेम के नए मानदंड प्रस्तुत करता है।

विद्याहरि उत्कृष्ट नृत्यांगना हैं,अपनी विधा में पारंगत और अनुभवी हैं। मंच पर प्रस्तुति की व्यावहारिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर ही उन्होंने यह नाटिका लिखी है। फलतः रचना धाराप्रवाह बनी रहती है।

मीरा मात्र एक संत या कृष्णार्पित स्त्री भर नहीं थीं। वह अनेक उदात्त मानवीय गुणों की प्रतीक भी थीं। विद्याहरि इस नृत्यनाटिका को एकपात्री अभिनीत करती हैं। मीरा को प्रस्तुत करते हुए, उन्हें अपने भीतर जाग्रत कर उन्हीं गुणों को जीना पड़ता है। कामना है कि विद्याहरि के अंतस का सौंदर्य इस नृत्यनाटिका के माध्यम से निखरकर दर्शकों के सामने बारंबार आता रहे, माँ सरस्वती एवं भगवान नटराज की कृपा उन पर सदैव बनी रहे।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 163 ☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) – लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री संतोष श्रीवास्तव  जी द्वारा लिखित  “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 163 ☆

☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास)लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – कर्म से तपोवन तक (उपन्यास)

माधवी गालव पर केंद्रित कथानक

लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव

दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं। इन महान ग्रंथों में  धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से  न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओ का विशद अध्ययन, अनुसंधान, दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं। वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणो, भागवत, रामकथा, महाभारत की कथाओ के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं। विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं। प्रदर्शन के विभिन्न  माध्यमो में ढ़ेरों फिल्में, टी वी धारावाहिक, चित्रकला, साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं।

न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओ के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानको का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत कालजयी महाकाव्य है। इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है। हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ॰ नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर, महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग, आधे-अधूरे, संशय की रात, सीढ़ियों पर धूप, माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा), कीचकवधम, युगान्त, आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं।

महाभारत से छोटे छोटे कथानक लेकर अनेकानेक रचनायें हुईं हैं जिनमें रचनाकार ने अपनी सोच से कल्पना की उड़ान भी भरी है। इससे निश्चित ही साहित्य विस्तारित हुआ है, किन्तु इस स्वच्छंद कल्पना के कुछ खतरे भी होते हैं। उदाहरण स्वरूप रघुवंश के एक श्लोक की विवेचना के अनुसार माहिष्मती में इंदुमती प्रसंग में कवि कुल शिरोमणी कालिदास ने वर्णन किया है कि नर्मदा, करधनी की तरह माहिष्मती से लिपटी हुई हैं। अब नर्मदा के प्रवाह के भूगोल की यह स्थिति मण्डला में भी है और महेश्वर में भी है। दोनो ही शहर के विद्वान स्वयं को प्राचीन माहिष्मती सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। साहित्य के विवेचन विवाद में वास्तविकता पर भ्रम पल रहा है।

मैं भोपाल में मीनाल रेजीडेंसी में रहता हूं, सुबह घूमने सड़क के उस पार जाता हूं। वहाँ हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनी विकसित की है, उसका नाम करण अयोध्या किया गया है, एक सरोवर है जिसे सरयू नाम दिया गया है। हनुमान मंदिर भी बना हुआ है, कालोनी के स्वागत द्वार में भव्य धनुष बना है। मैं परिहास में कहा करता हूं कि सैकड़ों वर्षों के कालांतर में कभी इतिहासज्ञ वास्तविक अयोध्या को लेकर संशय न उत्पन्न कर देँ। दुनियां में अनेक स्थानो पर जहां भारतीय बहुत पहले बस गये हैं जैसे कंबोडिया, फिजी आदि वहां राम को लेकर कुछ न कुछ साहित्य विस्तारित हुआ है और समय समय पर तदनुरूप चर्चायें विद्वान अपने शोध में करते रहते हैं। इसी भांति पढ़ने, सुनने से जो भ्रम होते हैं उसका एक रोचक उदाहरण बच्चों की एक बहस में मिलता है। एक साधु कहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बच्चों की बहस सुनाई दी। कोई बच्चा कह रहा था मैं हाथी खाउंगा, तो कोई ऊंट खाने की जिद कर रहा था, साधु का कौतुहल जागा कि आखिर यह माजरा क्या है, यह तो शुद्ध सनातनी मोहल्ला है। उन्होंने दरवाजे पर थाप दी, भीतर जाने पर वे अपनी सोच पर हंसने लगे दरअसल बच्चे होली के बाद शक्कर के जानवरों को लेकर लड़ रहे थे। यह सब मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि मैंने संतोष श्रीवास्तव जी का उपन्यास कर्म से तपोवन तक पढ़ा। और महाभारत के वे श्लोक भी पढ़े जहां से माधवी और गालव पर केंद्रित कथानक लिया गया है। अपनी भूमिका में ही संतोष जी स्पष्ट लिखती हैं, उधृत है ..”माधवी पर लिखना मेरे लिये चुनौती था। इस प्रसंग पर उपन्यास, नाटक, खंडकाव्य बहुत कुछ लिखा जा चुका है, थोडे बहुत उलट फेर से वही सब लिखना मुझे रास नहीं आया। मुझे माधवी के जीवन को नए दृष्टिकोरण से परखना था। गालव, माधवी धीरे-धीरे अंतरंग होते गए और दोनों के बीच दैहिक संबंध बन गए। मैंने इसी छोर को पकडा। ये अंतरंग संबंध मेरी माधवी कथा का सार बन गया, और मैंने माधवी का चरित्र इस तरह रचा जिसमें वह गालव से प्रेम के चलते ही राजा हर्यश, दिवोदास और उशीनर की अंकशायनी बनकर अपने अक्षत यौवना स्वरूप के साथ तीनों के बच्चों की माँ बनी। ” मेरा मानना है कि यह लेखिका की कल्पनाशीलता और उनकी साहित्यिक स्वतंत्रता है।

हो सकता है, यदि मैं इस प्रसंग पर लिखता तो शायद मैं माधवी के भीतर छुपी उस माँ को लक्ष्य कर लिखता जो बारम्बार अपनी कोख में संतान को नौ माह पालने के बाद भी लालन पालन के मातृत्व सुख से वंचित कर दी जाती है। गालव बार बार उसका दूध आंचल में ही सूखने को विवश कर उसे क्रमशः नये नये राजा की अंकशायनी बनने पर मजबूर करता रहा। मुझे संतोष जी की तरह गालव में माधवी के प्रति प्रेम नहीं दिखता। अस्तु।

उपन्यास में सीधा कथानक संवाद ही है, मुंशी प्रेमचंद या कोहली जी की तरह परिवेश के विस्तृत वर्णन का साहित्यिक सौंदर्य रचा जा सकता था जिसका अभाव लगा। उपन्यास का सारांश भूमिका में कथा सार के रूप में सुलभ है। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार राजा ययाति जब अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटाकर वानप्रस्थ ग्रहण कर चुके होते हैं तभी गालव उनसे काले कान वाले ८०० सफेद घोड़ों का दान मांगने आता है। ययाति जिनका सारा चरित्र ही विवादस्पद रहा है, गालव को ऐसे अश्व तो नहीं दे सकते थे, क्योंकि वे राजपाट पुरु  दे चुके थे। अपनी दानी छबि बचाने के लिये वे गालव को अपनी अक्षत यौवन का वरदान प्राप्त पुत्री माधवी को ही देते हैं, और गालव को अश्व प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं कि माधवी को अलग अलग राजाओ के संतानो की माँ बनने के एवज में गालव राजाओ से अश्व प्राप्त कर ले। सारा प्रसंग ही आज के सामाजिक मापदण्डों पर हास्यास्पद, विवादास्पद और आपत्तिजनक तथा अविश्वसनीय लगता है। मुझे तो लगता है जैसे हमारे कालेज के दिनों में यदि ड्राइंग में मैने कोई सर्कल बनाया और किसी ने उसकी नकल की, फिर किसी और ने नकल की नकल की तो होते होते सर्कल इलिप्स बन जाता था, शायद कुछ इसी तरह ये असंभव कथानक किसी मूल कथ्य के अपभ्रंश न हों। कभी कभी मेरे भीतर छिपा विज्ञान कथा लेखक सोचता है कि महाभारत के ये विचित्र कथानक कहीं किसी गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य के सूत्र वाक्य तो नहीं। ये सब अन्वेषण और शोध के विषय हो सकते हैं।

आलोच्य उपन्यास से कुछ अंश उधृत कर रहा हूं, जो संतोष जी की कहन की शैली के साथ साथ कथ्य भी बताते हैं।

“महाराज आपका यह पुत्र वसुओं के समान कांतिमान है। भविष्य में यह खुले हाथों धन दान करने वाला दानवीर राजा कहलाएगा। इसकी ख्याति चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगी। प्रजा भी ऐसे दानवीर और पराक्रमी राजा को पाकर सुख समृद्धि का जीवन व्यतीत करेगी। राजा हर्यश्व और सभी रानियां राजपुरोहित के कहे वचनों से अत्यंत प्रसन्न थी। “

“वसुमना के जन्म के बाद से ही राजा हर्यश्च ने माधवी के कक्ष में आना बंद कर दिया था। इतने दिन तो माधवी को वसुमना के कारण इस बात का होश न था पर राजमहल से प्रस्थान की अंतिम बेला में उसने सोचा पुरुष कितना निर्माही होता है। “

“गालव निर्णय ले चुका था ठीक है राजन, आप माधवी से अपने मन की मुराद पूरी करें। आज से ठीक। वर्ष पक्षात में माधवी को तथा 200 अश्वों को आकर ले जाऊंगा। “

इतने अश्वों का विश्वामित्र जैसे तपस्वी करेंगे क्या? उनके आश्रम का तपोवन तो अश्वों से ही भर जाएगा। ” “मेरे मन में तो यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि गुरु दक्षिणा में उन्होंने ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की ?

“क्या कह रहे हो मित्र, माधवी का तो स्वयंवर होने वाला था। ” “हां गालव स्वयंवर तो हुआ था देवी माधवी का, किंतु उन्होंने उस स्वयंवर में पधारे अतिथियों में से किसी का भी चयन न कर तपोवन को स्वीकार किया। यहां तक कि उन्होंने हाथ में पकड़ी वरमाला तपोवन की ओर उछालते हुए कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार करती हूं। हे तपोवन, आज से तुम ही मेरे जीवन साथी हो। “

इस तरह की सरल सहज संवाद शैली में  “कर्म से तपोवन तक” के रूप में सुप्रसिद्ध लोकप्रिय बहुविध वरिष्ठ कथा लेखिका, कई किताबों की रचियता और देश विदेश के साहित्यिक पर्यटन की संयोजिका, ढ़ेर सारे सम्मान और पुरस्कार प्राप्त संतोष श्रीवास्तव जी का यह साहित्यिक सुप्रयास स्तुत्य है। मन झिझोड़ने वाला असहज कथानक है। स्वयं पढ़ें और स्त्री विमर्श पर तत्कालीन स्थितियों और आज के परिदृश्य का अंतर स्वयं आकलित करें।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 3 ?

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे

विधा – अनुवाद

मूल लेखक – नीलेश ओक

अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – श्री संजय भारद्वाज ?

पत्थर पर खिंची रेखा

रमते कणे कणे इति राम:।

सृष्टि के कण-कण में जो रमते हैं वही (श्री) राम हैं। कठिनाई यह है कि जो कण-कण में है अर्थात जिसका यथार्थ, कल्पना की सीमा से भी परे है, उसे सामान्य आँखों से देखना संभव नहीं होता। यह कुछ ऐसा ही है कि मुट्ठी भर स्थूल देह तो दिखती है पर अपरिमेय सूक्ष्म देह को देखने के लिए दृष्टि की आवश्यकता होती है। नश्वर और ईश्वर के बीच यही सम्बंध है।

सम्बंधों का चमत्कारिक सह-अस्तित्व देखिए कि निराकार के मूल में आकार है। इस आकार को साकार होते देखने के लिए रेटिना का व्यास विशाल होना चाहिए। सह-अस्तित्व का सिद्धांत कहता है कि विशाल है तो लघु अथवा संकीर्ण भी है।

संकीर्णता की पराकाष्ठा है कि जिससे अस्तित्व है, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाया जाए। निहित स्वार्थ और संकुचित वृत्तियों ने कभी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्न उठाए तो कभी उनके काल की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त किया। कालातीत सत्य है कि समुद्र की लहरों से बालू पर खिंची रेखाएँ मिट जाती हैं पर पत्थर पर खिंची रेखा अमिट रहती है। यह पुस्तक भी विषयवस्तु के आधार पर पत्थर पर खिंची एक रेखा कही जा सकती है।

प्रस्तुत पुस्तक ‘रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे’ में प्रभु श्रीराम के जीवन-काल की प्रामाणिकता का वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन किया गया है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित ग्रह नक्षत्रों की स्थिति का कालगणना के लिए उपयोग कर उसे ग्रेगोरियन कैलेंडर में बदला गया है। इसके लिए आस्था, निष्ठा, श्रम के साथ-साथ अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के मानकीकरण की प्रबल इच्छा भी होनी चाहिए।

इस संदर्भ में पुस्तक में वर्णित कालगणना के कुछ उदाहरणों की चर्चा यहाँ समीचीन होगी। सामान्यत: चैत्र माह ग्रीष्म का बाल्यकाल होता है। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय शरद ॠतु का उल्लेेख किया है। बढ़ती ग्लोबल वॉर्मिग और ॠतुचक्र में परिवर्तन से हम भलीभाँति परिचित हैं। वैज्ञानिक रूप से तात्कालिक ॠतुचक्र का अध्ययन करें तो चैत्र में शरद ॠतु होने की सहजता से पुष्टि होगी। राजा दशरथ द्वारा कराए यज्ञ के प्रसादस्वरूप पायस (खीर) ग्रहण करने के एक वर्ष बाद रानियों का प्रसूत होना तर्कसंगत एवं विज्ञानसम्मत है। राजा दशरथ की मृत्यु के समय तेजहीन चंद्र एवं बाद में दशगात्र के समय के वर्णन के आधार पर तिथियों की गणना की गई है। किष्किंधा नरेश सुग्रीव द्वारा दक्षिण में भेजे वानर दल का एक माह में ना लौटना, वानरों के लिए भोजन उपलब्ध न होना, रामेश्वरम के समुद्र का वर्णन, लंका का दक्षिण दिशा में होना, सब कुछ तथ्य और सत्य की कसौटी पर खरा उतरता है। एक और अनुपम उदाहरण रावण की शैया का अशोक के फूलों से सज्जित होना है। इसका अर्थ है कि अशोक के वृक्ष में पुष्प पल्लवित होने के समय हनुमान जी लंका गए थे।

साँच को आँच नहीं होती। श्रीराम के साक्ष्य अयोध्या जी से लेकर वनगमन पथ तक हर कहीं मिल जाएँगे। अनेक साक्ष्य श्रीलंका ने भी सहेजे हैं। अशोक वाटिका को ज्यों का त्यों रखा गया है। नासा के सैटेलाइट चित्रों में रामसेतु के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते हैं।

श्री नीलेश ओक द्वारा मूल रूप से अँग्रेज़ी में लिखी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद डॉ. नंदिनी नारायण ने किया है। अनुवाद किसी भाषा के किसी शब्द के लिए दूसरी भाषा के समानार्थी शब्द की जानकारी या खोज भर नहीं होता। अनुवाद में शब्द के साथ उसकी भावभूमि भी होती है। अतः अनुवादक के पास भाषा कौशल के साथ-साथ विषय के प्रति आस्था होगी, तभी भावभूमि का ज्ञान भी हो सकेगा। डॉ. नंदिनी नारायण द्वारा किया हिंदी अनुवाद, विधागत मानदंडों पर खरा उतरता है। अनुवाद की भाषा प्रांजल है। अनुवाद में सरसता है, प्रवाह है। पढ़ते समय लगता नहीं कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं। यही अनुवादक की सबसे बड़ी सफलता है।

विश्वास है कि जिज्ञासु पाठक इस पुस्तक का स्वागत करेंगे। लेखक और अनुवादिका, दोनों को हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ लक्षावधी बीजं (अनुवादित लघुकथा संग्रह)… – हिन्दी लेखक : श्री. भगवान वैद्य ‘प्रखर‘ ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

सौ अंजली दिलीप गोखले

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ लक्षावधी बीजं (अनुवादित लघुकथा संग्रह)… – हिन्दी लेखक : श्री. भगवान वैद्य ‘प्रखर‘ ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

पुस्तक : लक्षावधी बीजं (अनुवादित लघुकथा संग्रह) 

मूळ कथाकार : भगवान वैद्य” प्रखर”

अनुवाद – सौ. उज्वला केळकर आणि  सौ. मंजुषा मुळे

प्रकाशक : अथर्व प्रकाशन, कोल्हापूर  

पृष्ठसंख्या : २४४ 

आज अचानक एक सुंदर सुबक पुस्तक हातात आले . त्याचे मुखपृष्ठ पाहूनच पुस्तक वाचण्याचा मोह झाला .मुखपृष्ठावर विशाल आभाळ अन् पाचूसारखे हिरवेकंच पीक आलेली विस्तीर्ण जमीन दिसते. डोळे तृप्त करणारे असे हे मुखपृष्ठ पाहून पुस्तकाचे “ लक्षावधी बीजं “ हे नाव यथार्थ आहे असे जाणवते. अशीच विचारांची लक्षावधी बीजे या कथांमध्ये नक्कीच आहेत.. हे पुस्तक म्हणजे हिंदीतील सुप्रसिद्ध लेखक भगवान वैद्य” प्रखर” यांच्या हिंदी लघुकथांचा अनुवाद . हा अनुवाद केला आहे, सौ .उज्वला केळकर आणि सौ मंजुषा मुळे या दोघींनी . दोघींचे नाव वाचून क्षणात माझ्या मनामध्ये शंकर – जयकिशन, कल्याणजी – आनंदजी, अजय – अतुल अशा संगीतकार जोडीची नावे तरळली अन् वाटले – हा अनुवादही अशा रसिक, साहित्यिक जेष्ठ भगिनीनी – मैत्रिणींनी केलेला आहे . 

इथे एक गोष्ट आवर्जून स्पष्ट करावीशी वाटते. मराठीत आपण ज्याला लघुकथा म्हणतो त्याला हिंदीत ‘ कहानी  ‘ असे म्हटले जाते. आणि हिन्दी साहित्यात कहानी आणि  लघुकथा हे दोन स्वतंत्र साहित्य-प्रकार आहेत. आणि अशा लघुकथा सर्वत्र प्रकाशित होतात. अगदी अलीकडे मराठीत अशासारख्या कथा लिहायला सुरुवात झाली आहे.. हिंदीत २५० ते साधारण ४००-५०० शब्दांपर्यन्त लिहिलेल्या कथेला ‘लघुकथा ‘ म्हणतात. आणि अशा कथा म्हणजे मोठ्या कथेचे संक्षिप्त रूप किंवा सारांश अजिबातच नसतो. यात कमीत कमी शब्दात जास्तीत जास्त मोठा आशय मार्मिकतेने मांडलेला असतो, ज्याला एक नक्की सामाजिक परिमाण असते. ती कथा आकाराने लहान असली तरी ती “अर्थपूर्ण” असते, तिला आशयघनता असते . भगवान वैद्य “प्रखर” हे उत्तम लघुकथा लिहिण्यामध्ये प्रसिद्ध आहेत. लक्षावधी बीजं या पुस्तकामध्ये, वाचकाला त्यांच्या अशाच कथा वाचायला मिळतात. अनुवादामुळे एका भाषेतील उत्तम साहित्य दुसऱ्या भाषेमध्ये वाचकाला तितक्याच उत्तम स्वरूपात वाचायला मिळते ही गोष्ट या अनुवादित पुस्तकामुळे पुन्हा एकदा नक्कीच अधोरेखित झालेली आहे.  या दोघींनी निवडक कथांचा अनुवाद करून आपल्याला ” लक्षावधी बीजं ” या पुस्तकाच्या  रुपानं वाचनभेट दिली आहे . यातील १२० कथांपैकी १ ते ६५ या कथांचे अनुवाद केले आहेत मंजुषा मुळे यांनी तर ६६ ते १२० या कथांना अनुवादित केलंय उज्वला केळकर यांनी .

 या लघुकथा वाचताना मूळ लेखकाची प्रगल्भता, निरीक्षण क्षमता आणि अचूक आणि अल्प शब्दात मनातलं लिहिण्याची  हातोटी पाहून आपण अचंबित होतो. वाचकाच्या कधी लक्षातही येणार नाहीत अशा विषयांवर चपखल शब्दात लघुकथा लिहिण्यात लेखक भगवान वैद्य” प्रखर” कमालीचे यशस्वी झालेत . म्हणूनच हिंदी साहित्य क्षेत्रात लघुकथा लिहिणाऱ्यांमध्ये त्यांचे नाव अग्रक्रमाने घेतले जाते. उज्वलाताई आणि मंजुषाताईंनी या सर्व लघुकथांना मराठीमध्येही त्याच हातोटीने उत्तमपणे गुंफून वाचकाला वाचनाचा आनंद दिला आहे आणि पुढील गोष्टींची उत्सुकता वाढवली आहे .सूक्ष्म निरीक्षण, विषयातील गांभीर्य, अल्प शब्दात परिणामकारकपणे  त्या विषयावरचे लेखन, या सगळ्याची उत्तम गुंफण् करण्याच्या कामात हिंदी लेखक आणि दोन्ही मराठी अनुवादिका पूर्णपणे यशस्वी झाले आहेत . छोट्या छोट्या कथा असल्यामुळे पटापट वाचून होतात आणि एक आगळा वेगळा आनंद वाचकाला मिळतो .

 “प्रत्येक वेळी” ही पहिलीच एक पानी कथा आपल्या हृदयाचा ठोका चुकवून जाते आणि समाजातील _ डोंबाऱ्यांमध्येसुद्धा असलेले मुलींच्या आयुष्याचे दुय्यम स्थान समजते . बिन्नी आपल्या आईला विचारते,” आई, दर वेळी मलाच का दोरावर चढायला लावता? भय्याला का नाही ?” या लहानशा प्रश्नावरून आपण विचार करायला प्रवृत्त होतो.

 “मूल्यांकन” ही इवलीशी कथा . शेवटचे वाक्य कापसाचे भाव सांगणाऱ्या परीक्षकाच्या शून्य बुद्धीची जाणीव करून देते . या परिक्षकाला’ कापूस शेतात पिकविण्यासाठी शेतकरी अविरत श्रम करतो, त्याला किती जागरूक राहून काम करावे लागते याची काहीच कल्पना नसते .. त्याला वाटते साखर किंवा थर्मोकोल प्रमाणे कापसाचेही कारखाने असतात . परीक्षकाच्या बुद्धीची किती कीव करावी हेच समजत नाही . अडाणीपेक्षा निर्बुद्ध हाच शब्द योग्य वाटतो. लेखकाचे थोडक्या शब्दात हा खूप मोठा अर्थ सांगण्याचे जे कसब आहे, ते आपल्याला थक्क करते .

आयडिया या गोष्टीमध्ये, रेल्वे  प्रवासामध्ये एक आंटी तरुण मुलाना त्यांच्याकडून झालेला कचरा व्यवस्थित गोळा करून प्लॅस्टिक पिशवीमध्ये, जशी आंटीने बरोबर आणली आहे, तशा पिशवीत टाकायची आयडिया सुचवतात. काही वेळानंतर थोड़ी झोप झाल्यावर, आंटी पहातात तर  मुलांनी सगळा कचरा साफ केलेला दिसतो . पण – – पण आंटीच्याच पिशवीमध्ये गोळा करून भरून ठेवून मुले आपल्या स्टेशनवर उतरून निघून गेलेली असतात.  .

ऑफीसमध्ये काम करणाऱ्यांना वेळेवर पगार न मिळणे हे नित्याचेच . मग तो पोस्टमन असो, एसटी डायव्हर असो की कुटुंब प्रमुख अन ऑफिसर . पोस्टमन एका घरी गृहिणीकडे आपला ३ महिने पगारच न झाल्याचे सांगत पैशाची मागणी करतो . ही गोष्ट जेव्हा ती गृहिणी आपल्या नवर्‍याला सांगते, तेव्हा तो म्हणतो, सांगायचं नाही का त्याला साहेबांचाही पगार ३ महिने झाला नाही . त्यावेळी ती थक्क होऊन विचारते, तुम्ही बोलला नाहीत ते? तेव्हा तो म्हणतो, कसा बोलणार ? कुटुंबाचा प्रमुख आहे ना?

छोटा संवाद पण खूप काही सांगून जातो ” कुटुंब प्रमुख” या कथेमध्ये ….. अशा साध्या साध्या प्रसंगातून घराघरातील परिस्थिती, मानसिकता, कुटुंब प्रमुखाची होणारी कुचंबणा, त्याचे धैर्य आणि अगतिकता अल्प शब्दात लिहिण्याचे लेखकाचे कौशल्य वाखाणण्याजोगे आहे .

अलीकडे लहान मुलांना मनसोक्त खेळायला, बागडायला जागाच नाही . त्यांची किलबिल, दंगा, आरडा ओरडा, हसण्या खिदळण्याचे आवाज येत नाहीत . मोठ्याना पण सुने सुने वाटते आहे . ही भावना ” दुर्लभ” या कथेतून वाचताना आपल्यालाही ही बोच मनोमन पटल्याशिवाय रहात नाही ..

हल्ली मुलांना शिक्षणातला ओ की ठो येत असो वा नसो पास करायचेच, नापास करायचेच नाही हा फंडा आहे . पालकांना माहिती आहे की आपला मुलगा वाचू शकत नाही, पाढे पाठ नाहीत तरी ४थीत गेला कसा? म्हणून शाळेत चवकशी करायला जातात तर त्याच वेळी शाळेचा निकाल – प्रत्येक वर्गाचा निकाल १००% लागल्या बद्दल शाळेचा, मुख्याध्यापक, सगळा स्टाफ यांचा सत्कार होणार असतो . टाळ्यांच्या गजरात कार्यक्रम पुढे सरकत असतो . ते पालकही, आपला पाल्य बोट सोडून पळून गेलाय याकडे दुर्लक्ष्य करून टाळ्या वाजवायला लागतात . शिक्षण क्षेत्रातला विरोधाभास, दुष्ट पण कटू सत्य आणि पालकांची अगतिकता लेखकानी थोड्या शब्दान टाळी या लघुकथेत वर्णन केली आहे .

लक्ष्यावधी बीजं हे पुस्तक वाचताना खूप वैशिष्ट्यपूर्ण कथा आपल्याला वाचायला मिळतात, त्यामध्ये ज्याचं त्याचं दुःख, मनोकामना, कर्ज, कठपुतळी , कर्जदार या सांगता येतील . आणखी एक वैशिष्ठ्य म्हणजे या कथा वाचताना आपण अनुवादित कथा वाचतो आहोत हे जाणवतसुद्धा नाही . मराठीत इतका सुंदर अनुवाद झाला आहे की जणू काही या कथा मूळ मराठीतच लिहिलेल्या आहेत असे वाटते,  आणि ते या दोन अनुवादिकांचे यश आहे . फक्त आपल्याला कधी जाणवतं … तर  त्यामधील पात्रांची जी नावे आहेत ती मराठीतली नाहीत … दादाजी, अनुलोम, दीनबंधू इ .आहेत एवढेच. यासाठी या दोन्ही मराठी लेखिकांना सलाम !

म्हणूनच समस्त वाचक वर्गाला विनंती की हे पुस्तक विकत घेऊन मुद्दाम वाचावे .सर्वाना आवडणारे, वेगळाच आनंद देणारे, समाजातील बोलकी चित्रे विरोधाभासासह रेखाटणारे हे पुस्तक पुरस्कारास यथायोग्य असेच आहे .

उज्वलाताई आणि मंजुषाताई दोघींनाही  पुढील वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा .

परिचय : सौ अंजली दिलीप गोखले

मोबाईल नंबर 8482939011

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 162 ☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अरुण अर्णव खरे जी द्वारा लिखित  “ एजी ओजी लोजी इमोजी ” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – एजी ओजी लोजी इमोजी (व्यंग्य संग्रह)

लेखक  – श्री अरुण अर्णव खरे

प्रकाशक – इंक पब्लीकेशन

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

सर्वप्रथम बात इंक पब्लीकेशन की, दिनेश जी वाकई वर्तमान साहित्य जगत में अच्छी रचनाओं के प्रकाशन पर उम्दा काम कर रहे हैं, उन्हे और उनके चयन के दायरे में अरुण अर्णव खरे जी के व्यंग्य संग्रह हेतु दोनो को बधाई।

अरुण अर्णव खरे जी इंजीनियर हैं, अतः उनके व्यंग्य विषयों के चयन, नामकरण, शीर्षक, विषय विस्तार में ये झलक सहज ही दिखती है। किताब पूरी तो नही पढ़ी पर कुछ लेख पूरे पढ़े, कई पहले ही अन्यत्र पढ़े हुए भी हैं। पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य सोशल मीडिया में इमोजी की चिन्ह वाली भाषा से अनुप्रास में प्रायः हमारी पीढ़ी की पत्नियो द्वारा अपने पतियों को एजी के संबोधन से जोड़कर बनाया गया है। बढ़िया बन पड़ा है। लेख भी किंचित हास्य, थोड़ा व्यंग्य, थोड़ा संदेश, कुछ मनोरंजन लिए हुए है। संग्रह इकतालीस व्यंग्य लेख संजोए हुए है। टैग बिना चैन कहां, सच के खतरे, झूठ के प्रयोग ( गांधी के सत्य के प्रयोग से प्रेरित विलोम ), नमक स्वादानुसार, ड्रीम इलेवन ( श्री खरे अच्छे खेल समीक्षक भी हैं ), पाला बदलने का मुहूर्त रचनाएं प्रभावोत्पादक है। आत्म कथन में अरुण जी ने प्रिंट  किताब के भविष्य पर अपनी बात रखी है, सही है। पीडीएफ होते हुए भी, अवसर मिला तो इस कृति को पुस्तक के रूप में पढ़ने का मजा लेना पसंद करूंगा। अस्तु

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक – लहू के गुलाब (हिन्दी गजल संग्रह)

लेखक  – अमृतपाल सिंह ‘शैदा’

प्रकाशक – शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला,

पृष्ठ – 96

मूल्य – 200/-

☆ “लहू के गुलाब” ~  सामाजिक विसंगतियों की परिचायक: प्रो. नव संगीत सिंह ☆

अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ग़ज़ल को समर्पित त्रिभाषी कवि हैं। उन्होंने अब तक पंजाबी में 4 संपादित और 2 मौलिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘गरम हवावां’ (कहानियां, 1985), ‘जुगनू अतीत दे’ (कविताएं, चरणजीत सिंह चड्ढा, 2003), ‘सांझ अमुल्ली बोली दी’ (ग़ज़लें, 2021), ‘सथ्थ जुगनुआं दी’ (कहानियाँ, 2021) (सभी संपादित); ‘फसल धुप्पां दी’ (गज़ल, 2019), ‘टूणेहारी रुत्त दा जादू’ (ग़ज़लें, 2022) (दोनों मौलिक) शामिल हैं। वह सहजता और ठहराव के कवि हैं। पिछले 40 वर्षों से उन्होंने स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कवि दरबारों/मुशायरों सहित त्रिभाषी कवि दरबारों की शोभा बढ़ाई है। उन्होंने दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो कार्यक्रमों में भी भाग लिया है। वे 1979 से ‘त्रिवेणी साहित्य परिषद’ पटियाला से जुड़े हुए हैं और 1985 से वे भाषा विभाग, पंजाब की साहित्यिक गतिविधियों से संबंधित हैं। ग़ज़ल की बारीकियां उन्हें अपने दिवंगत पिता श्री गुरबख्श सिंह शैदा की संगति से मिली।

समीक्षाधीन पुस्तक (‘लहू के गुलाब’, शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला, पृष्ठ 96, मूल्य 200/-) अमृतपाल सिंह शैदा की हिंदी ग़ज़लों की पहली मौलिक पुस्तक है, जिसमें 72 ग़ज़लें शामिल हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना एवं तब्सिरा में क्रमशः डाॅ. सुरेश नाइक (राजपुरा, पंजाब) और प्रो. सग़ीर तबस्सुम (पाकिस्तान) ने पुस्तक की विस्तृत और बारीकी से समीक्षा की है। शिरोमणि हिन्दी साहित्यकार डाॅ. मनमोहन सहगल ने भी पुस्तक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखी है।

दरअसल, वर्तमान समय में ग़ज़ल भी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आडंबर/फंतासी/शाही दरबारों के चक्र से मुक्त होकर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती देती दिखाई देती है। पुस्तक का शीर्षक “लहू के गुलाब” संघर्ष और प्रगति को दर्शाता है, अर्थात् गुलाब अब केवल सुगंधि या खुशबू का केन्द्र बिन्दु नहीं रहा, बल्कि उसके लाल रंग से कवि को रक्त/क्रान्ति का झंडा लहराता नजर आता है। और जब कवि को कोमल/नाज़ुक चीजों से भी रक्त का संचार दिखाई दे, तो समझ लेना चाहिए कि ‘ताज़ो-तख्त’ गिरने वाले हैं।

शायर ने सभी ग़ज़लों में शेयरों की संख्या सात तक सीमित कर दी है और लगभग हर ग़ज़ल के अंत में अपना उपनाम ‘शैदा’ इस्तेमाल किया है। उन्होंने अधिकतर ग़ज़लों में दो-दो शब्दों के दोहराव से वक्रोक्ति पैदा करने की कोशिश की है। किताब की दूसरी ग़ज़ल में ही यह जादू प्रमुखता से उभरता नज़र आता है:

गुलशन-गुलशन सहरा-सहरा, जंगल-जंगल आग लगी है

आँगन-आँगन मरघट-मरघट, आंचल-आंचल आग लगी है

मौसम-मौसम मातम-मातम, पल-पल-पल-पल आग लगी है

धरती-धरती झुलसी-झुलसी, बादल-बादल आग लगी है

                                                     (पृष्ठ 20)

हर समाज में हर तरह के लोग होते हैं – अच्छे भी और बुरे भी। कुछ मददगार साबित होते हैं, कुछ लूटपाट/हत्या करने में लगे रहते हैं। कवि इस लम्बे चौड़े आख्यान को एक ही शेयर में कैसे समेटता है:

बस्ती पर जब संकट आया, कुछ लोगों ने लंगर खोले

कुछ लोगों ने लूट मचाई, कुछ ने जुगनू बांटे थे

                                                    (पृष्ठ 22)

शीर्षक ग़ज़ल में कई मुद्दों/विषयों को छुआ गया है और काफिया-रदीफ़ में ‘लहू के गुलाब’ का दोहराव है। पूरी दुनिया को जीतने की चाहत रखने वाला सिकंदर आखिरकार खाली हाथ चला गया। कवि ने इस तथ्य को जीवन की सच्चाई से कितनी गहराई से जोड़ा है:

जो चाहता था दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना, 

थे हाथ उसके ख़ाली जनाज़े से बाहर

खिलाता रहा उम्र भर ही अना के,

वो अहमक़ सिकंदर लहू के गुलाब।     

(पृष्ठ 24)

क़लम की ताकत को ‘शैदा’ जैसा बुद्धिमान ग़ज़लगो ही समझ सकता है, अन्यथा आम लोग तो लेखक को मूर्ख ही समझते हैं:

तुम नहीं ताक़त क़लम की जानते, सोचो ज़रा

इन्किलाबों का है ये इक कारगर हथियार क्यों

जिस के फ़न को सोने-चांदी से खरीदा जा सके

उसको हम, ‘शैदा’ कहेंगे साहिबे-किरदार क्यों

                                                     (पृष्ठ 26)

आज के मनुष्य के तनावपूर्ण और जटिल जीवन को देखकर ऐसा लगता है कि वह एक ही समय में कई हिस्सों में बंटा हुआ है। वह करता कुछ और है, सोचता कुछ और; देखता कुछ और है, लिखता कुछ और.. और ऐसी परेशानी में उससे कोई काम अच्छे से नहीं हो पाता। मेरा मानना है कि इसका प्रमुख कारण प्रौद्योगिकी है, जिसने मनुष्य के विखंडन में प्रमुख भूमिका निभाई है:

 दिल कहीं, रुह कहीं, जिस्म कहीं पर होगा

तुम हवाओं में उड़ोगे तो बिखर जाओगे

अक़्लमंदों की जो सोहबत में रहोगे ‘शैदा’

अपने क़द से भी कहीं ऊंचा उभर जाओगे

(पृष्ठ 32)

जिंदगी सिर्फ जाम-ओ-सुराही, लबो-रुख़सार के  पेचो-ख़म की उलझनों में ही नहीं उलझी है, बल्कि उसे भूख, अस्तित्व और निजता जैसी कठिनाइयों और चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। मनुष्य की जवांमर्दी इसी में है कि वह ज़ुल्मो-सितम से लड़ने के लिए किसी और के सहारे को न ढूंढे, किसी से मदद मांगने के लिए हाथ न फ़ैलाए, बल्कि अपनी पूरी ताकत से, जितनी तेजी से संभव हो, कूद पड़े। रात चाहे कितनी भी भयानक और अंधेरी क्यों न हो, आने वाला कल अवश्य खुशनुमा होगा। कवि आशावादी सोच और भविष्य के सुनहरे सपनों को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए लिखता है:

जुगनू की दिलेरी से, लीजेगा सबक़ कोई

लड़ता है अकेला ही, ज़ुलमात के लश्कर से

नस्लें ही चलो अपनी, पुरनूर सहर देखें

आओ कि लड़ें जमकर, हम रात के लश्कर से

                                                    (पृष्ठ 33)

 शैदा’ एक ऐसा संवेदनशील शायर हैं जो लोगों के दुखों, आंसुओं और परेशानियों से हमेशा विचलित रहता है। कवि ने इस पुस्तक को “संसार की सुख शांति, समृद्धि व सलामती को समर्पित” किया है। सांसारिक समस्याओं से डरना और भागना भी कायरता की निशानी है। सच्चा योद्धा वही होता है जो सिर पर कफ़न बांधकर युद्ध के मैदान में जूझता है:

 मेरे शे’रों में लोगों के दुःख हैं, आँसू हैं, खुशियाँ हैं

हर पल चिंतन और मनन ने हक़ सच का परचम लहराया

जीना बेशक रास न आया, सारा जीवन, ‘शैदा’ मुझ को

पर संघर्ष की राह अपनाई, मर जाना न मन को भाया

(पृष्ठ 34)

 

गहरी नींद से जागो, उट्ठो, और संघर्ष में जूझो

वक्त की नाद सुनो बंधु, तुम को ललकार पड़ी है

                          ‌‌                       (पृष्ठ 53)

पृष्ठ 48 पर कवि ने ‘ऐ दोस्त’ अलग-अलग वर्तनी में लिखे हैं, लेकिन हिंदी में ‘ऐ दोस्त’ ही सही है। शायर ने क़िताब की ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़लों का नाम दिया है लेकिन इनमें प्रस्तुत शब्द/वाक्यांश अधिकतर फ़ारसी/अरबी हैं। कवि ने इन्हें अरबी-फ़ारसी के अनुसार लिखा है। इस पुस्तक की ख़ूबी यह है कि अंत में कठिन शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। लेकिन सभी कठिन शब्द यहां नहीं आ सके। शब्दार्थ-विधि भी सही नहीं है। उन्हें क्रमांकित या पृष्ठांकित किया जाना चाहिए था या फ़ुटनोट में लिखा जाना चाहिए था। जोश, प्रेरणा और संघर्ष की बातें कहतीं ‘शैदा’ की यह ग़ज़लें तहक़ीक़-ओ-तवारीख़ में भूचाल लाने की क्षमता रखती हैं, ऐसा मेरा मानना है!

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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