हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ प्रेम जनमेजय और उनकी कृति “सींगवाले गधे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय जी के व्यक्तित्व, दर्शन एवं उनकी कृति सींगवाले गधे की समीक्षा)

☆ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय और उनकी कृति “सींगवाले गधे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

डॉ प्रेम जनमेजय – व्यक्तित्व दर्शन एवं कृति समीक्षा

“सींगवाले गधे” पुस्तक पर चर्चा से पहले बात करते हैं इस कृति का सृजन करने वाले श्री प्रेम जनमेजय जी की। एक धारदार व्यंग्यकार के रूप में और “व्यंग्य यात्रा” पत्रिका के माध्यम से व्यंग्य को प्रतिष्ठित व लोकप्रिय बनाने के लिए निरन्तर प्रयासरत प्रेम जनमेजय जी का नाम भी साहित्य जगत का घेरा तोड़कर सम्पूर्ण देश में कुछ उसी तरह चर्चित हो गया है जैसे मुंशी प्रेमचन्द और हरिशंकर परसाई का। जिन्होंने कभी इन्हें नहीं पढ़ा, जिन्हें साहित्य और व्यंग्य से कोई लेना देना नहीं वे आमजन भी इन्हें जानते हैं। साहित्य जगत में उनके उत्कृष्ट योगदान से, उनकी सफलता से परिचित हैं। एक नजर में लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेने वाले, सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी जनमेजय जी अपनी “सींग वाले गधे” पुस्तक के अपने कथ्य में पूरे होशोहवास में शपथ पूर्वक घोषित करते हैं कि “न तो मैं जन्मजात साहित्यकार हूं न मेरा जन्म किसी साहित्यिक परिवार में हुआ है और न ही मेरे आस – पड़ोस में कोई छोटा बड़ा साहित्यकार रहता है….मेरे खानदान में लेखक नाम का कोई जीव भी नहीं था।” उनका यह कथन साबित करता है कि उनका लेखन अनुभव, साधना, आत्मावलोकन और सिंहावलोकन से गुजरता हुआ कागज पर उतरता है। यही उनकी व्यापक सफलता और यश कीर्ति का कारण है। वे कहते हैं कि उनके जीवन में परसाई साकार और निराकार दोनों रूपों में उपस्थित हैं। प्रेम जनमेजय लिखते हैं कि जो परसाई हिंदी व्यंग्य के रक्षक दिखाई देते थे एक समय वही परसाई व्यंग्य के स्वतंत्र स्वरूप को सिरे से नकारने लगे। हरिशंकर परसाई ने घोषणा कर दी कि व्यंग्य कोई विधा नहीं है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। परसाई ने यहां तक लिखा कि उन्होंने कहानी, संस्मरण, निबंध आदि ही लिखे हैं। सारा प्रगतिशील खेमा व्यंग्य विरोधी हो गया। परसाई ऐसी ऊंचाई पर थे कि उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था।ऐसे समय प्रेम जनमेजय ने द्रुतविलंबित स्वर में अपना “विधा राग, मध्यम स्वर में ही सही चालू रखा। अगस्त 2012 में साहित्य अकादमी उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान एवं “व्यंग्य यात्रा” के संयुक्त तत्वावधान में व्यंग्य केंद्रित  दो दिवसीय आयोजन में “व्यंग्य विधा आंदोलन” को संजीवनी मिली। प्रेम जी ने लिखा है कि हिंदी साहित्य के जिन भारी भरकम हित चिंतकों ने व्यंग्य को अन्य विधाओं की पंगत में बैठाने का महापाप किया है जिसका प्रायश्चित नहीं हो सकता… व्यंग्य लेखन एक गंभीर कर्म है।

निःसंदेह प्रेम जनमेजय के संपादकत्व में “व्यंग्य यात्रा” में व्यंग्य पर गंभीर लेख आते रहते हैं  – व्यंग्य क्या है, कहां से पैदा होता है, व्यंग्य का कौन सा तत्व है जिसके बिना रचना सब कुछ हो सकती है लेकिन व्यंग्य रचना नहीं बन सकती। व्यंग्य की दशा और दिशा क्या है – वह किस ओर जा रहा है आदि आदि। मेरे (लेखक के) अनुसार तो व्यंग्य भेदभाव, विसंगतियों, असफलता, अपमान, ईर्ष्या, निराशा आदि की पृष्ठभूमि में जन्मता और पनपता है। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि सामान्य शब्द अथवा वाक्य जिसमें कहीं कोई व्यंग्य नहीं है केवल उच्चारण के प्रस्तुतिकरण के तरीके से अलग अलग अर्थ प्रकट करता है। नारद मुनि मात्र नारायण – नारायण भी भिन्न – भिन्न अवसरों पर भिन्न – भिन्न तरह से बोलते दिखाए जाते हैं। कभी उनके नारायण – नारायण कहने में अपने इष्ट के प्रति भक्ति भाव प्रकट होता है, कभी श्रद्धा, कभी प्रश्न, कभी शंका तो कभी व्यंग्य। अतः व्यंग्य लिखा जाता है, पढ़ा जाता है, किंतु व्यंग्य केवल शब्दों की नाव पर ही सवारी नहीं करता, शब्दों के प्रकटीकरण का तरीका भी व्यंग्य को जन्म देता है। जिस तरह परिस्थितियों वश मनुष्य में प्रेम, दया, करुणा, भय, क्रोध, ईर्ष्या पैदा होते हैं उसी तरह व्यंग्य भी जन्म लेता और प्रकट होता है। कभी शब्दों के माध्यम से, कभी वाणी के माध्यम से, कभी हाव – भाव से तो कभी सिर्फ नजरों से अतः व्यंग्य एक भाव भी है और इस दृष्टि से मुझे हर व्यक्ति में जब – तब व्यंग्यकार नजर आ जाता है।

अस्तु, आज के व्यंग्यकारों को प्रेम जी आधा कबीर मानते हैं, क्योंकि कबीर निर्भीक होकर सीधा प्रहार करते थे, आज के व्यंग्यकार बचकर प्रहार करते हैं। हरिशंकर परसाई जन्मशती 2023 में प्रकाशित प्रेम जनमेजय जी की कृति “सींग वाले गधे” में प्रकाशित उनका कथ्य साबित करता है कि परसाई की रचनाओं, विषयों, लेखन और शैली के प्रशंसक जनमेजय बचकर आधा प्रहार करने वाले व्यंग्यकार नहीं हैं, वे कबीर की तरह निर्भीकता से पूरा प्रहार करने वाले सशक्त व्यंग्यकार हैं।

अब पुस्तक पर आते हैं। जिस रचना “सींगवाले गधे” पर पुस्तक का नाम कारण हुआ उसे पुस्तक में प्रथम क्रम में रखा गया है। इसमें करोनाकाल की विषम परिस्थितियों, परेशानियों में फंसे हुए लोगों और लाभार्थियों पर करारा व्यंग्य है। किन शक्ति संपन्न लोगों को भारी – भरकम कहा जाता है सब जानते हैं। प्रेम जी लिखते हैं – “भारी – भरकम जी भी किसी करोना से कम नहीं हैं। भारी भरकम जी किसी के पीछे पड़ जाएं तो उसका लॉकडाउन करवा देते हैं।” वे आगे लिखते हैं – “वह तालियों के बाजार के थोक व्यापारी हैं। कब किसके लिए तालियां बजवानी हैं और किससे बजवानी हैं – ताली शास्त्र के वे ज्ञाता हैं। ….”वह बेचारे इसलिए हैं कि मास्टर हैं। वह डबल बेचारा इसलिए है कि हिंदी का मास्टर है।” ….”भक्त तो पद पर बैठे सींगधारी के भक्त होते हैं। इसलिए समझदार गधे निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं कि उनके सिर से सींग गायब न हों और वे दुधारु पद पर बने रहें।” दूसरे क्रम के आलेख का शीर्षक है – “हा! हा! श्री की दुर्दशा देखी न जाई “। इसमें प्रश्न किया गया है कि “क्या अवतार लेने का अधिकार प्रभु को है, देवियों को नहीं ?” ….देश का कानून कहता है कि हर किसी को भागने का अधिकार है। “दो वैष्णवन की वार्ता” शीर्षक लेख में उनके सीधे तीखे व्यंग्य हैं – “जुगाड़ जम जाए तो आदमी जनसेवक से राजा बन जाता है” ….”पुरस्कार अच्छे – अच्छों को ज्ञानी बना देवे है।” ….”जब से भगवान के कारण सत्ता मिलनी प्रारंभ हुई है हर पार्टी के अपने अपने भगवान हो गए हैं।” जुगाड़ू की  शक्ति बताते हुए प्रेम जी लिखते हैं कि – “जुगाड़ू के लिए का लंदन का अमेरिका।” “जैसे जिनके दिन फिरे”, करारी व्यंग्य रचना है जिसमें राधेलाल के माध्यम से चुनाव और लोकतंत्र पर प्रहार है। …. “फिरते होंगे घूरे के दिन बारह बरस में, आजकल तो पांच बरस में फिरते हैं “। “अथ पुरुष स्त्री संवाद” में पुरुष पर स्त्री के सटीक तीखे प्रहार हैं। पुरुष निरुत्तर है। “बसंत चुनाव लड़ रहा है” में प्रेम जी कहते हैं – “उसे अब पास वास होकर क्या करना है। अब तो वह जल्द शिक्षा मंत्री बनेगा और औरों को पास करेगा। उसे टिकट मिल गया है। जल्द वह देश का कर्णधार बनने वाला है।” ” बुरा न मानो साहित्यिक छापे हैं” – रचना की शुरूआत ही तीखी टिप्पणी से होती है – “वह छोटा व्यापारी था अतः बड़े आयकर अधिकारी के सामने त्राहिमाम की मुद्रा में बैठा था। बड़ा व्यापारी होता तो आयकर अधिकारी उसके सामने भिक्षामदेहि की मुद्रा में बैठा होता।” पुस्तक के 15 वें क्रम पर रचना है – “ओबे मास्टर जी !” व्यंग्य का पैनापन देखिए – आकाशवाणी हुई – ओबे मास्टर जी ! कैसा है ? मैं चौंका, बेशर्ममेव जयते के युग में, मुझ रिटायर्ड स्कूल मास्टर को “जी” लगाकर पुकारने वाला कौन है ? कौन है जो देश का हाल न पूछकर मुझ अनुत्पादी मास्टर का हाल पूछ रहा है।

“चुनाव लीला समाप्त आहे” चुनाव के साथ प्रभु चर्चा व्यंग्य के साथ हास्य भी पैदा करती है। भक्तों को दर्शन के लिए ऑनलाईन पंजीकरण और व्ही.आई.पी. तथा आम भक्त की चर्चा देश के धर्म क्षेत्र का सच प्रकट कर रही है। “चौराहे पर इतिहास” नामक रचना में प्रेम जनमेजय लिखते हैं – प्रजातंत्र की मांग पर देश कभी तिराहे, कभी दोराहे, कभी इक राहे पर खड़ा होता है, जैसे बाजार की मांग पर उपभोक्ता खड़ा होता है। “इश्क नहीं आसां” में लिखते हैं कि अब मजनूं सावधान हो गए हैं। सब्जी मंडी में छेड़ते, छिड़ते नहीं हैं। किसी मॉल में सुरक्षित छिड़न – छिड़ाई करते हैं। देश के सेवक भी तो देश के साथ सांसद में सुरक्षित छिड़न – छिड़ाई करते हैं। “वाह री बाढ़” में राहत वितरण का वास्तविक चित्र दिखाया गया है – “हम बाढ़ नियंत्रण कक्ष के अफसर हैं सरकार से बाढ़ नियंत्रण के लिए जो राहत मिलेगी उसे हम ही तो बांटेंगे। पिछली बाढ़ आई थी तो हमने ये टॉप फ्लोर लिया था। आगे एक प्रसंग पर वे लिखते हैं – “मुर्दे की भी हैसियत होती है, देश सेवक मरता है तो उसके लिए कम से कम चार एकड़ में समाधि बनती है।

167 पृष्ठीय, चार सौ रुपए मूल्य की इस सजिल्द पुस्तक “सींगवाले गधे” को विद्या विहार, नईदिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें 40 रचनाएं हैं। अनेक रचनाएं कोरोना और लॉक डाउन की परिस्थितियों पर भी व्यंग्य करती हैं। सहज, सरल, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली में रचित गंभीर व्यंग्य, विसंगतियों पर ध्यान आकर्षित करते हुए न सिर्फ पाठकों को सोचने पर विवश करते हैं बल्कि उनमें आक्रोश भी पैदा करते हैं। इनमें हास्य नहीं किंतु विभिन्न प्रसंगों में कहीं – कहीं पाठकों के होंठों पर मुस्कान अवश्य उभरती है।

जनमेजय के रचना संसार में अब तक शामिल व्यंग्य संकलन हैं – राजधानी में गंवार, बेशर्ममेव जयते, कौन कुटिल खलकामी, कोई में झूठ बोल्या, हंसो – हंसो यार हंसो आदि। तीन व्यंग्य नाटक हैं – क्यूं चुप तेरी महफिल में, इर्दम – गिर्दम अहं स्मरामि (संस्मरण) एवं स्मृतियन के घाट पर जनमेजय चंदन घिसें (संपादन) के अतिरिक्त व्यक्ति और व्यक्तित्व चर्चा पर भी उनकी अनेक कृतियां हैं। प्रेम जी को श्रेष्ठ सृजन पर अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं। प्रेम जनमेजय की शैली भले ही व्यंग्य बाणों से भरी हो किंतु उनका सृजन उन्हें चिंतक – विचारक साबित करता है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 157 ☆ “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” – अनुवादक – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. मीना श्रीवास्तव जी द्वारा श्री विश्वास विष्णु देशपांडे जी की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद – रामायण महत्व और व्यक्ति विशेषपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 157 ☆

“रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” – अनुवादक – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा 

रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष

विश्वास देशपान्डे की किताब का हिन्दी अनुवाद

अनुवादक डा मीना श्रीवास्तव

सोहम क्रियेशन अन्ड पब्लिकेशन

पहला संस्करण २०२३, पृष्ठ १३६, मूल्य २००रु

ISBN 978-81-958488-5-0

डॉ मीना श्रीवास्तव

दैनिक संघर्षो का ही दूसरा नाम जीवन है। अपनी योग्यता और शक्ति के अनुरूप प्रत्येक मनुष्य जीवन रथ हांकते हुये संकटों का सामना करता है पर अनेकानेक विपत्तियां ऐसी होती हैं जो अचानक आती हैं, जो हमारी क्षमताओ से बड़ी हमारे बस में नही होतीं। उन कठिन परिस्थितियों में हमें एक मार्गदर्शक और सहारे की जरूरत पड़ती है। ईश्वर उसी संबल के लिये रचा गया है। भक्ति मार्ग पूजा, पाठ, जप, प्रार्थना और विश्वास का सरल रास्ता प्रशस्त करता है। ज्ञान मार्ग ईश्वर को, जीवन को, कठिनाई को समझने और हल खोजने का चुनौती भरा मार्ग बताता है। कर्म मार्ग स्वयं की योग्यता विकसित करने और मुश्किलों से जूझने का रास्ता दिखाता है। ईश्वर की परिकल्पना हर स्थिति में मनो वैज्ञानिक सहारा बनती है। राम, कृष्ण या अन्य अवतारों के माध्यम से ईश्वर के मानवीकरण द्वारा आदर्श आचरण के उदाहरणो की व्याख्या की गई है।

आजकल कापीकैट चेन मार्केटिंग में मैनेजमेंट गुरू बताते हैं कि बिना किसी घालमेल के उनके व्यापारिक माडेल का अनुकरण करें तो लक्ष्य पूर्ति अवश्यसंभावी होती है। जीवन की विषम स्थितियों में हम भी राम चरित्र का आचरण अपना कर अपना जीवन सफल बना सकें इसलिये वाल्मिकी ने रामायण में ईश्वरीय शक्तियों से विलग कर श्रीराम को मनुष्य की तरह विपत्तियों से जूझकर जीतने के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। रामायण नितांत पारिवारिक प्रसंगो से भरपूर है। राम चरित्र में आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, जिम्मेदार शिष्य, कर्तव्य परायण राजा, विषम परिस्थितियों में धैर्य के संग चुनौतियों का सामना करने वाला राजकुमार, नेतृत्व क्षमताओ से भरपूर योद्धा, इत्यादि इत्यादि गुण परिलक्षित होते हैं। राम चरित्र भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। धार्मिक मनोवृत्ति वाले सभी भारतीय, जन्मना आस्था और आत्मा से श्रीराम से जुडे हुये हैं। श्री राम का जीवन चरित्र प्रत्येक दृष्टिकोण से हमारे लिये मधुर, मनोरम और अनुकरणीय है। मानस के विभिन्न प्रसंगों में हमारे दैनंदिक जीवन के संभावित संकटों के श्रीराम द्वारा मानवीय स्वरूप में भोगे हुये आत्मीय भाव से आचरण के मनोरम प्रसंग हैं। किन्तु कुछ विशेष प्रसंग भाषा, वर्णन, भाव, प्रभावोत्पादकता, की दृष्टि से बिरले हैं। इन्हें पढ, सुन, हृदयंगम कर मन भावुक हो जाता है। श्रद्वा, भक्ति, प्रेम, से हृदय आप्लावित हो जाता है। हम भाव विभोर हो जाते हैं। भक्तों को अलौलिक आत्मिक सुख का अहसास होता है। इतिहास साक्षी है कि आक्रांताओ की दुर्दांत यातनाओ के संकट भी भारतीय जन मानस राम भक्ति में भूलकर अपनी संस्कृति बचा सकने में सफल रहा है। ज्ञान मार्गी रामायण की जाने कितनी व्यापक व्याख्यायें करते रहे हैं, अनेको ग्रंथ रचे गये हैं। कितनी ही डाक्टरेट की उपाधियां रामायण के किसी एक चरित्र की व्याख्या पर ली जा चुकी हैं। किन्तु सच है कि हरि अनंत हरि कथा अनंता।

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

मूल मराठी लेखक विश्वास देशपांडे जी ने भी “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” के अंतर्गत रामायण के पात्रों और प्रसंगो पर छोटे छोटे लेखों में उनके सारगर्भित विचार रखे हैं। ईश्वरीय प्रेरणा से डा मीना श्रीवास्तव उन्हें पढ़कर इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने इन लेखों का हिन्दी, अंग्रेजी अनुवाद कर डाला। यही अनुवाद इस छोटी सी किताब का कलेवर है। व्यक्तित्व खण्ड में श्री राम, सीता, लक्षमण, भरत, शत्रुघन, उर्मिला, हनुमान, विभीषण, कैकेयी, रावण पर संक्षिप्त, पठनीय लेख हैं। इन समस्त चरित्रों पर हिन्दी साहित्य में अलग अलग रचनाकारों ने कितने ही खण्ड काव्य रचे हैं और विशद व्याख्यायें, टीकायें की गई हैं। उसी अनवरत राम कथा के यज्ञ में ये लेख भी सारगर्भित आहुतियां बन पड़े हैं।

राम कथा का महत्व, रामायण पारिवारिक संस्था, रामायण कालीन समाज, रामायण कालीन शासन व्यवस्था, रामायण की ज्ञात अज्ञात बातें जैसे आलेख भी जानकारियो से भरपूर हैं। अस्तु पुस्तक पठनीय, और संग्रहणीय है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 157 ☆ “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” – डॉ. जवाहर कर्नावट ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. जवाहर कर्नावट जी द्वारा लिखित पुस्तक – “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 156 ☆

☆ “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” – डॉ. जवाहर कर्नावट ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा 

विदेश में हिंदी पत्रकारिता

जवाहर कर्नावट

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

पहला संस्करण २०२४,

पृष्ठ ३००, मूल्य ४००रु

ISBN 978-93-5743-322-8

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

डॉ. जवाहर कर्नावट

मान्यता है कि हिंदी भाषा की उत्पत्ति लगभग 1200 ईसा पूर्व संस्कृत के विकास के साथ हुई थी। समय के साथ इसकी विभिन्न बोलियां विकसित हुईं, जिनमें आधुनिक हिंदी भी एक है। देवनागरी लिपि के उद्भव के साथ 1000 ई.पू. के आसपास हिंदी का लिखित रूप सामने आया। लगभग 260 मिलियन लोगों द्वारा हिंदी वैश्विक स्तर पर बोली जाती है। ऐसी भाषा की पत्रकारिता का इतिहास स्वाभाविक रूप से प्रचुर है। आंकड़ो के अनुसार हिन्दी दुनिया में चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारत में एक लोकप्रिय भाषा होने के साथ-साथ भारतीयों के वैश्विक विस्थापन के चलते यह अंतर्राष्ट्रीय रूप में भी महत्वपूर्ण भाषा बन गई है। समय के साथ हिंदी ने अंग्रेजी, फ़ारसी और अरबी सहित कई अन्य भाषाओं से कई शब्द समाहित कर लिए हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि राष्ट्रभाषा के बिना कोई भी राष्ट्र गूँगा हो जाता है। उन्होंने हिन्दी के विषय में कहा है कि “मैं हिंदी भाषा उसे कहता हूं जिसे उत्तर में हिंदू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या उर्दू में लिखते हैं। गांधीजी चाहते थे कि देश में बुनियादी शिक्षा से उच्च शिक्षा तक सब कुछ हिन्दी के माध्यम से हो। नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन जनवरी, 1975 में यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए तथा एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की जाय जिसका मुख्यालय वर्धा में हो। अगस्त, 1976 में मॉरीशस में आयोजित द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन में यह तय किया गया कि मॉरीशस में एक विश्व हिंदी केंद्र की स्थापना की जाए जो सारे विश्व में हिंदी की गतिविधियों का समन्वय कर सके। इसी प्रस्ताव के अनुरूप चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना मॉरीशस में हुई।

जवाहर कर्नावट की सद्यः प्रकाशित पुस्तक विदेश में हिंदी पत्रकारिता में कुल चार अध्यायों में क्षेत्र के अनुसार विभिन्न देशों में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास समेटा गया है।

किताब के पहले ही अध्याय मारीशस में हिन्दी पत्रकारिता में कर्नावट जी लिखते हैं कि मारीशस में हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास ११२ वर्ष पुराना है। दरअसल गिरमिटिया देशों में हिन्दी पत्रकारिता का वैश्विक हिन्दी स्वरूप भक्ति मार्ग से प्रशस्त होता है, क्यों कि जब एक एग्रीमेंट के तहत हजारों की संख्या में भारतीय मजदूरों को विभिन्न औपनिवेशिक देशों में ले जाया गया तो उनके साथ गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरित मानस भी वहां पहुंची और इस तरह हिन्दी के वैश्वीकरण की यात्रा चल निकली। कर्नावट जी ने बड़े श्रम से व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास कर मारीशस, आफ्रीका, फिजी, सूरीनाम, गयाना, त्रिनिदाद टुबैगो आदि गिरमिटिया देशों में हिंदी पत्रकारिता की ऐतिहासिक यात्रा को संजोया है। उनका यह विशद कार्य भले ही क्रियेटिव राइटिंग की परिभाषा से परे है पर निश्चित ही यह मेरी जानकारी में पुस्तक रूप में संग्रहित विलक्षण प्रयास है।

वर्ष २०११ में पवन कुमार जैन की पुस्तक “विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता” शीर्षक से राधा पब्लिकेशन्स दिल्ली से प्रकाशित हुई थी, उसके उपरान्त इस विषय पर यह पहला इतना बड़ा समग्र प्रयास देखने में आया है, जिसके लिये जवाहर कर्नावट जी को हिन्दी जगत की अशेष बधाई जरूरी है।

मुझे अपने विदेश प्रवासों तथा सेवानिवृति के बाद बच्चों के साथ अमेरिका, यूके, दुबई में कई बार लंबे समय तक रहने के अवसर मिले, तब मैने अनुभव किया कि हिन्दी वैश्विक स्वरूप धारण कर चुकी है। कई बार प्रयोग के रूप में जान बूझकर मैने केवल हिन्दी के सहारे ही इन देशों में पब्लिक प्लेसेज पर अपने काम करने की सफल कोशिशें की हैं। यूं तो मुस्कान और इशारों की भाषा ही छोटे मोटे भाव संप्रेषण के लिये पर्याप्त होती है किन्तु मेरा अनुभव है कि हिन्दी की बालीवुड रोड सचमुच बहुत भव्य है। नयनाभिराम लोकेशन्स पर संगीत बद्ध हिन्दी फिल्मी गाने, मनोरंजक बाडी मूवमेंट्स के साथ डांस शायद सबसे लोकप्रिय मुफ्त ग्लोबल हिन्दी टीचर हैं। टेक्नालाजी के बढ़ते योगदान के संग जमीन से दस बारह किलोमीटर ऊपर हवाई जहाज में सीट के सामने लगे मानीटर पर सब टाईटिल के साथ ढ़ेर सारी लोकप्रिय हिन्दी फिल्में, और हिन्दी में खबरें भी मैंने देखी हैं। प्रस्तुत पुस्तक में जवाहर जी ने उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया महाद्वीप के देशों में हिन्दी पत्रकारिता खण्ड में अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, और न्यूजीलैंड देशों के हिन्दी के प्रकाशनो को जुटाया है। उन पर कर्नावट जी की विशद टिप्पणियां और परिचयात्मक अन्वेषी व्याख्यायें महत्वपूर्ण दस्तावेजी करण हैं।

मेरे अभिमत में पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय इंजीनियर्स, डाक्टर्स विदेश गये उनके परिवार जन भी कालांतर में विस्थापित हुये, उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रस्फुटित हुईं उन्होंने किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया। उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को किताब की शक्ल में एकजाई रूप से प्रस्तुत करने का बड़ा काम जवाहर जी ने इस कृति में कर दिखाया है। यद्यपि यह भी कटु सत्य है कि विदेशों के प्रति एक अतिरिक्त लगाव वाले दृष्टिकोण की भारतीय मानसिकता के चलते विदेश से हुये किंचित छोटे तथा पत्रकारिता और साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो पर बहुत खरे न होते हुये भी केवल विदेश से होने के कारण भारत में ऐसे लोगों की स्वीकार्यता अधिक रही है। विदेशों में अलग अलग स्थान से बाल साहित्य, विज्ञान साहित्य, कथा साहित्य, कविता, हिन्दी शिक्षण आदि आदि विधाओ पर अनेकों लोगों ने अनियतकालीन कई पत्र पत्रिकायें शुरू कीं जो, छपती और जल्दी ही बंद भी होती रहीं है। इस सबका लेखा जोखा करना इतना सरल नही था कि एक व्यक्ति केवल अपने स्तर पर यह सब कर सके। लेखक ने अपने संबंधो के माध्यम से यह काम कर दिखाया है। लेखक ने किताब के अंत में विविध देशों की पत्र पत्रिकायें उपलब्ध करवाने वाले महानुभावों तथा संस्थाओ की सूची भी दे कर अनुगृह व्यक्त किया है।

किताब के प्रत्येक चैप्टर्स के शीर्षक देश के नाम के साथ ” …. में हिंदी पत्रकारिता” हैं। इससे शीर्षको में एक रसता लगती है। यह भी ध्वनित होता है कि समय समय पर स्वतंत्र रूप से पत्रिकाओ के लिये लिखे गये लेखों को संग्रहित कर पुस्तक बनाई गई है। संपादित कर हर चैप्टर के कंटेंट के अनुरूप बेहतर शीर्षक दिये जाने चाहिये। आशा है कि किताब के अगले संस्करण में यह सरल वांछित सुधार किया जा सकेगा। उदाहरण के लिये अमेरिका में हिन्दी पत्रकारिता शीर्षक की जगह वहां के एक साप्ताहिक समाचार पत्र के आधार पर शीर्षक ” नमस्ते यू एस ए ” हो सकता है, जिसे अंदर लेख में स्पष्ट किया जा सकता है। इसी तरह न्यूजीलैंड में हिंदी पत्रकारिता शीर्षक की जगह ” हस्तलिखित रिपोर्टिंग से शुरुवात ” शीर्षक बेहतर हो सकता था। क्योंकि वहां द इंडियन टाईम्स में हस्तलिखित रिपोर्टो से हिन्दी पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ था। मोटी शीट पर अलग से विभिन्न विदेशी पत्र पत्रिकाओ के चित्र छापे गये हैं, जिन्हें सहज ही संबंधित चैप्टर्स के साथ लगाया जाना चाहिये। पुस्तक में लेखक का परिचय भी दिया जाना चाहिये जिसका अभाव है। उल्लेखनीय है की कर्णावट जी को उनकी सतत हिंदी सेवाओ के लिए अनेकानेक सम्मान तथा विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। यूरोप के महाद्वीप देशों में हिंदी पत्रकारिता के अंतर्गत ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, नार्वे, हंगरी और बुल्गारिया तथा रूस में हिंदी पत्रकारिता का वर्णन है। एशिया महाद्वीप के देशों में जापान, यू ए ई, कुवैत, कतर, चीन, तिब्बत, सिंगापुर, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, और नेपाल को लिया गया है। इस तरह हिन्दी पत्र पत्रिकाओ के परिचय पाते हुये पाठक विश्व भ्रमण पूरा कर डालता है।

मेरी दृष्टि में जवाहर जी का यह प्रयास प्रशंसनीय है, जिसके लिए हिन्दी जगत उनका आभारी है, विभिन्न छोटे बड़े देशों मे सौ से ज्यादा वर्षो में किए गए प्रिंट मीडिया के तथा अब ई पत्रिका सामग्री के तथ्य जुटाकर उन्हें किताब के रूप में ढालना कठिन काम था। निश्चित ही पत्रकारिता के युवा शोधार्थियों को यह किताब विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता की लम्बी यात्रा पर एकजाई प्रचुर सामग्री देती है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆‘नारी नयी–व्यथा वही’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ ☆

सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘नारी नयी–व्यथा वही’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ

पुस्तक   : नारी नयी–व्यथा वही

कवयित्री : डॉ• मुक्ता

प्रकाशन : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना

पृष्ठ संख्या : 150

मूल्य     : 299 रुपए

समीक्षक – सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ 

☆ समीक्षा – मानवीय संवेदनाओं व जीवन मूल्यों की कसौटी पर नारी – “नारी नयी–व्यथा वही” ☆

विभिन्न विरोधाभासों, विषमताओं व विसंगतियों से भरे संसार में सामाजिक, नैतिक और मानवीय मूल्यों का पतन निरंतर होता रहा है और जहाँ कभी भी, कहीं भी अन्याय हुआ है,  उसका प्रभाव नारी मन पर गहराई से पड़ता है–चाहे लोगों की ग़लत सोच व मानसिकता हो या युद्ध का मैदान हो; नारी हमेशा कठोर दंश झेलती रही है, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहे हैं। नारी नयी हो या प्राचीन– पुरुष मानसिकता उसे निरंतर झकझोर कर रखती रही है–चाहे वह द्वापर की पंच भागों में विभाजित द्रौपदी हो या आधुनिक युग की निर्भया, नारी सदैव तिरस्कृत व प्रताड़ित रही है।

डॉ. मुक्ता – माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

डॉ• मुक्ता ने अपने सोलहवें काव्य-संग्रह ‘नारी नयी–व्यथा वही‘ में उपरोक्त विषय पर चिंतन-मनन किया है। वैसे तो नारी के प्रति संवेदनाशीलता से उनका रचना संसार अत्यंत समृद्ध है, क्योंकि यह उनका प्रिय विषय है। उन्होंने समाज में व्याप्त असत्य, अन्याय व प्रचलित कुरीतियों के साथ-साथ, विशेष रूप से नारी पर बेख़ौफ़ लेखनी चलाई है। स्पष्ट है, कमज़ोर समझे जाने के कारण नारी पर अत्याचार करना सुगम प्रतीत होता है। नारी व्यथा पर उन्होंने अत्यंत सरल और सहज शब्दों में स्त्री की बेबसी, विवशता व निरीहता को ढाला है। ‘अंतहीन मौन’,’ज़िन्दगी का सच’ जैसी कविताएं इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। वे औरत के अन्तर्मन की तुलना जलती व धुंधुआती लकड़ी से करती हैं और कठपुतली के समान आदेशों का पालन करते हुए वेबस, विवश, पराश्रिता व लाचार मानतीं हैं। परन्तु क्या आज की नारी वास्तव में अबला है ? ये विचार भी उसके मनोमस्तिष्क को उद्वेलित व आहत ही नहीं करते; सोचने पर विवश भी करते हैं।

जद्दोज़ेहद से भरी दुनिया में अपवाद हर जगह होते हैं। नारी भले ही अबला है, परंतु सबला बनने की अंधी दौड़ में कुछ नारियों के लड़खड़ाते कदम हृदय को झकझोरते हैं। आज के वातावरण में कवयित्री नारी के बदलते रूप को देख कर चिंतित है कि उसके कदम किस दिशा की ओर अग्रसर  हैं। वह उसके ग़लत दिशा में अग्रसर कदमों को रोकना चाहती है। उसके अबला रूप से जहाँ उन्हें हमदर्दी है, वहीं दूसरी ओर उसके मर्यादाहीन और संस्कारविहीन रूप पर चिंतित होने के साथ नारी के आदर्श रूप की परिकल्पना भी कवयित्री ने बखूबी की है। ’मूल्यहीनता’ जैसी कविताओं में आज के वस्तुवाद, भौतिकवाद, दम तोड़ती संस्कृति, नैतिक व सामाजिक मूल्यों के पतन से दूषित होते विकृत समाज के प्रति चिंता व्यक्त की है। समस्याएं अत्यंत गम्भीर हैं और उनका निदान होना असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। क्या प्रेम में कभी विश्वासघात समाप्त हो पायेगा? क्या नारी के प्रति अत्याचार, दुष्कर्म व हत्या के हादसों पर अंकुश लग  पायेगा? स्वयं को सबला प्रदर्शित करने की धुन और आधुनिकता की दौड़ में उछृंखल, अमर्यादित व संस्कारहीन होती नारी को रोक पाना क्या सम्भव हो पाएगा? समाज में विभिन्न शाश्वत् समस्याएं सदा से रही हैं और भविष्य में भी रहेंगी। ये सामाजिक विसंगतियाँ व विद्रूपताएं संवेदनशील मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं और उद्वेलित व व्यथित करतीं हैं।

‘नया दृष्टिकोण ‘में वे अपने मन से वादा करना चाहती हैं कि वे अब औरत के बारे में नहीं लिखेंगी, उसकी व्यथा-कथा का बयान नहीं करेंगी, लेकिन वे उसकी दशा पर लेखनी चलाए बग़ैर रह नहीं पातीं। सतयुग की अहिल्या हो या त्रेतायुग की सीता या द्वापर की द्रौपदी व गांधारी–कवयित्री ने ऐसी प्राचीन नारियों की बेबसी का जहाँ स्मरण किया है, वहीं अपने लिए नवीन राह खोजती ‘खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ’ को आधुनिकता और स्वतंत्रता का रूप स्वीकारने वाली निरंकुश नारी का चित्रण भी किया है। परन्तु नारी का अमुक रूप डॉ• मुक्ता को हेय, त्याज्य व निंदनीय भासता है। कवयित्री उन्हें संस्कारित व मर्यादित रूप में देखना चाहती है। अबला नारी के प्रति जहाँ उन्होंने अस्तित्व की रक्षा हित उठ खड़े होने और अबला का लबादा उतार फेंकने का आह्वान किया है, वहीं मर्यादा की सीमाएँ लाँघती स्त्रियों के प्रति रोष भी प्रकट किया है। ‘टूटते संबंध‘ व ’दोषी कौन’ कविता में वे इस प्रश्न का उत्तर तलाशती हैं। ‘निर्भया‘ के प्रसंग पर इस पुस्तक में दो रचनाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें अपराधियों को उचित व शीघ्र सज़ा दिलाने के कानून को प्रभावी बनाने और उसकी उचित अनुपालना पर ज़ोर दिया है।

नारी ईश्वर की सुंदर व प्रेम करने वाली सर्वश्रेष्ठ व अप्रतिम रचना है। उसका शरीर खिलौना या उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि ईश्वर के रचना संसार में सहयोग देने वाला ममतामयी सर्वोत्तम रूप है । नारी में माँ व बहिन का अक्स क्यों नहीं देखा जाता– विचारणीय है। ‘एसिड अटैक‘ जैसी कविताएँ घृणित ज़ुल्मों की शिकार नारी जाति के प्रति संवेदनाएं उकेरती हैं तथा अपने देश में इस तरह की घटनाओं की सज़ा ‘जैसे को तैसा’ पर अमल करने की पैरवी करती हैं। दूसरी ओर ‘तुम शक्ति हो’,’ऐ नारी!’ जैसी कविताएं उसे साहसी बन विषम परिस्थितियों का सामना करने को प्रेरित करती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे नारी को अंतर्मन में झाँकने व आत्मावलोकन करने का सुझाव भी प्रदान करती हैं।

‘पहचाना मैम’ और ‘मर्मान्तक व्यथा’ में उन सभी उपेक्षित, तिरस्कृत व प्रताड़ित पात्रों के विषय में अवगत कराया गया है, जिन्हें देख व पढ़-सुनकर लोग क्षण भर में भूल जाते हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे समाज के हर वर्ग की पीड़ा को उजागर करना चाहती हैं। यही नहीं ‘दर्द का दस्तावेज़’ में कश्मीर के बारे में लिखा है, जो कश्मीरी पंडितों व वहाँ की महिलाओं के दु:ख-दर्द का दस्तावेज़ है क्योंकि उन पर होने वाले ज़ुल्म व अत्याचारों की दास्तान के बारे में जानकर रूह़ काँप जाती है। अपने ही देश में बेघर होना और वर्षों तक शरणार्थियों का जीवन बसर करना मानव की सबसे बड़ी त्रासदी है और उन विकराल समस्याओं का एक लम्बे अंतराल तक समाधान न निकल पाना अत्यंत गम्भीर व विचारणीय है? परंतु धारा 370 के हटने पर कवयित्री का आशावादी दृष्टिकोण विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उनका चिंतन संसार इतना विशद है कि उनकी पैनी दृष्टि चहुँओर पहुँचती है।

अंत में मैं यही कहूंगी कि डॉ• मुक्ता ने जिस तरह से अधिकांश रचनाओं में नारी व्यथा को संवेदना की पराकाष्ठा तक उकेरा है, शायद ही किसी अन्य कवि ने केवल नारी से जुड़े मार्मिक प्रसंगों पर लेखनी चलाई हो। अपने इस भगीरथ प्रयास के लिए वे वंदनीय हैं और विशेष सम्मान की अधिकारिणी हैं।

समीक्षक : आभा कुलश्रेष्ठ, गुरुग्राम।

आधुनिक युग की निर्भया, प्रियंका व गुड़िया

©  सुश्री शकुंतला मित्तल

शिक्षाविद् एवं साहित्यकार, गुरुग्राम

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी व्यंग्य पत्रिका की समीक्षा  “# समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023”#”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆

☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ 

आज के युग में हर व्यक्ति भागम-भाग की जिंदगी जी रहा है, किसी के भी पास समय नहीं है   की , थककर, बैठकर शांति से कुछ पल बिता सकें. इन्हीं अमूल्य पलों में मन के दरवाजे पर दस्तक देकर, अंतर्मन को आल्हादित कर हृदय को झंकृत करने का प्रयास हास्य-व्यंग्य की पत्रिका द्वारा किया जाता है. इसी कड़ी में “अट्टहास” पत्रिका का योगदान महत्वपूर्ण है.

” अट्टहास” पत्रिका का परसाई विशेषांक अगस्त, 2023 एक अनूठा प्रयास है .

स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी का नाम व्यंग की दुनिया में प्रथम पायदान पर है, उनके जैसा दूसरा व्यंग्यकार होना असम्भव है, जिन्होंने अपने जीवन काल में अनेक व्यंग अनेक विषयों पर लिखें, उन्हें खूब प्रशंसा भी मीली.

उन्होंने सामान्य व्यक्ति के जिव्हा को अपने शब्द दीये, पिड़ा को अपनी समझकर व्यक्त किया, सरल सहज व्यक्ति के मन की बात जन-जन तक पहुंचाई. अपने   तिक्ष्ण बाणों से घांव किये,और उस चुभन को सदा के लिए जागृत छोड़ दिया, जो आज भी हम अपने आसपास महसूस करते है.

इस विशेषांक का विश्लेषण दो भागों में करना मुझे उचित लगा.

1) परसाई जी के लिखे हुए व्यंग्य 

2) परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ 

1) परसाई जी ने अपने ” व्यंग्य क्यों? कैसे ? किसलिए ? मे लिखा है कि –  आदमी कब हंसता है ?

एक विचार यह है कि जब आदमी हंसता है, तब उसके मन में मैल नहीं होता. हंसने के क्षणभर पहले  उसके मन में मैल हो सकता है और हंसी के क्षणभर बाद भी. पर जिस क्षण वह हंसता है, उसके मन में किसी के प्रति मैल नहीं होता.

आदमी हंसता क्यों है ?

वह  कहते है, लोग किसी भी बात पर हंसते हैं, हलकी, मामूली विसंगति पर भी हंस देते है. दीवाली पर कुत्ते की दूम में पटाखे की लड़ी बांधकर उसमें कुछ लोग आग लगा देते हैं, बेचारा कुत्ता तो मृत्यु के भय से भागता और चीखता है, पर लोग हंसते हैं.

व्यंग्य किसलिए ?

वह  कहते है, मेरा खयाल है, कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता है. व्यंग मानव सहानुभूति से पैदा होता है. वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है. वह उससे कहता है – तू अधिक सच्चा, न्यायी मानवीय बन .

अच्छे व्यंग्य में करूणा की अंतर्धारा होती है, चेखव में शायद यह बात साफ है, चेखव की एक कहानी है – बाबू की मौत. इस कहानी को पढ़ते -पढ़ते हंसी आती है पर अन्त में मन करूणा से भर उठता है।

व्यंग के सम्बंध में यह बातें, व्यंग का मर्म समझने में इनसे कुछ सहायता मिलेगी.

2) उखड़े खंभे

इस व्यंग्य में बहुत ही सुन्दर कथा के द्वारा यह बताया गया है की, मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए कैसे प्रपंच रचे जाते हैं।

एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटका दिया जाएगा , लोग शाम तक इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगें जाएंगे – और अब, पर कोई टांगा नहीं गया।

सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं, राजा ने सभी जिम्मेदार दरबारी यों से जब पूछा, यह जानते हुए भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने लिए करने वाला हूं, तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया?

सेक्रेटरी ने कहा,’ साहब,  पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था, अगर रात को खम्भे ना हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता. यह सलाह मुझे विशेषज्ञ ने दी थी.यह सुनकर सारे लोग सकते में खड़े रहे,  वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये. वे सब उस संकट से अविभूत थे,जिसकी कल्पना उन्हें दी गई थी, जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे, चुपचाप लौट गये.

उसी सप्ताह बैंक में सेक्रेटरी एवं संबंधित अधिकारियों के खाते में मोटी रकम जमा की गई, उनको उपकृत किया गया।

उसी सप्ताह ” मुनाफाखोर संघ ” के हिसाब में सारी रकमें ‘ धर्मादा ‘ खाते में डाली गयी.

यह व्यंग आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं।

3) विकलांग श्रध्दा का दौर

इस व्यंग्य में दिखावे की श्रद्धा पर चुभता हुआ कटाक्ष है.

” अभी अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है, मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है.

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है, लंगोटी धोने के बहाने लंगोटी चुराई है.

अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं -‘ यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है. मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ.

4) एक अशुद्ध बेवकूफ

बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है। मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है वह सब झूठ है – बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मज़ा है।

“एक प्रोफेसर साहब थे क्लास वन के। वे इधर आए। विभाग क डीन मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, यह वे नहीं जानते थे। यों वे मुझे पच्चीसों बार मिल चुके थे। पर जब वे डीन के साथ मिले तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। डीन ने मेरा परिचय उनसे करवाया। मैंने भी ऐसा बर्ताव किया, जैसे यह मेरा उनसे पहला परिचय है।

डीन मेरे यार है। कहने लगे- यार चलो केंटीन में, अच्छी चाय पी जाएं। अच्छा नमकीन भी मिल जाए तो मजा आ जाए।

अब क्लास वन के प्रोफेसर साहब थोड़ा चौंके।

हम लोगों ने चाय और नाश्ता किया। अब वे समझ गए कि मैं ” अशुद्ध” बेवकूफ हूं।

5) खेती

सरकारी घोषणाओं में और वास्तविक जमीन पर क्या होता है इस समस्या पर यह व्यंग बहुत ही मार्मिक है।

“एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा – हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया –‘ अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज़ पर अन्न पैदा कर रहे हैं।

6) अरस्तू की चिट्ठी

इस व्यंग्य में जनता जनार्दन पर कटाक्ष है कि वे कैसे ईव्हेंट मॅनेजमेंट में शिकार होते हैं

“तुम्हारे मुखिया में यह अदा है। इसी अदा पर तुम्हारे यहां की सरकार टिकी है, जिस दिन यह अदा नहीं है, या अदाकार नहीं है उस दिन वर्तमान सरकार एकदम गिर जायेगी।जब तक यह अदा है तब तक तुम शोषण सहोगे, अत्याचार सहोगे, भ्रष्टाचार सहोगे क्योंकि तुम जब क्रोध से उबलोगे, तुम्हारा मुखिया एक अदा से तुम्हें ठंडा कर देगा।। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे मुल्क की सारी व्यवस्था एक ‘ अदा ‘ पर टिकी हुई है।

आज भी यह कितना प्रासंगिक है?

7) गर्दिश के दिन

परसाई जी ने अपने जीवन में विपत्तियों को अलग अंदाज में लिया, कभी टूटें नहीं, बेफिक्र होकर सब कुछ सहा और अपनी पिड़ा को अपने लेखन में लायें, उन्होंने गर्दिश के दिन में लिखा है कि ” मैं डरा नहीं। बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा  तो नौकरियां गयी।लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैरजिम्मेदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूं।रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी – साग  खाकर मजे में बैठा हूं कि चिंता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। “

वो आगे लिखते है, ” गर्दिश कभी थी, अब नहीं है,आगे नहीं होगी – यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता इस लिए गर्दिश नियति है।  “

वो आगे लिखते हैं, ” मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा खयाल है, तब ऐसी ही बात होगी।”

वो अंत में लिखते हैं कि,” मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन है। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है। “

उन्होंने सही कहा है,” पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है।”

8) प्रेमचंद के फटे जूते

इस लेख में उन्होंने लेखक की आर्थिक स्थिति के ऊपर व्यंग किया है कि प्रसिद्ध लेखक भी ऐसे जीते हैं।

वो लिखते हैं, ” प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, 

गालों की हड्डियां उभर आई है, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा भरा बतलाती है।

पांवों में केनवास के जूते है, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।

मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग – मुस्कान भी समझता हूं।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उनपर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहें हैं। तुम कह रहे हो – मैंने तो ठोकर मार मारकर जूता फाड़ लिया है, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बचा रहा और मैं चलता रहा,  मगर तुम अंगुली ढांकने की चिन्ता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे ? “

यहां पर उन्होंने सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग किया है , जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है.

9) सरकारी भ्रष्टाचार का विरोध

इस व्यंग्य में भ्रष्टाचार करने वाले महानुभावों की सच्चाई व्यक्त की है।

वो लिखते है,” सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। भ्रष्टाचार विरोधी कोई नहीं डरता। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी कभी खेल लेती है, जैसे कब्बड्डी का मैच। इससे ना सरकार घबड़ाती, न मुनाफाखोर, ना कालाबाजारी, सब इसे शंकर की बारात समझकर मजा लेते हैं। “

यह हमारी व्यवस्था पर किया हुआ व्यंग्य , एक कटु सत्य है।

परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ  

आइये हम इस कड़ी में सर्व प्रथम ” अट्टहास ” पत्रिका के अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी की बात करते हैं,उनका परिश्रम प्रशंसनीय है, उन्होंने सभी व्यंग कारों को आमंत्रित कर, उनकी रचनाओं को सलिके से माला में पीरो कर, एक हास्य -व्यंग का सुगंधित हार बनाया है, जिसकी सुगंध सदैव पाठकों को लुभाती रहेगी, यह प्रयास अविस्मरणीय संस्मरण बनकर पाठकों के हृदय को हमेशा गुदगुदाता रहेगा.

उनके शब्दों में,” समाज से, सरकार से,मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते है, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी। व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लंबी गाथा है।

उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि – “कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे”।

उनके द्वारा परसाई जी का साक्षात्कार मील का पत्थर है, उन्होंने परसाई जी के सानिध्य में

काफी समय व्यतीत किया है, यह उनके लिए सौभाग्य की बात है.

अब हम दूसरे व्यंग्यकारों की सम्मिलित रचनाएं, और परसाई पर उनकी टिप्पणी या देखते हैं

डाॅ. आभा सिंह के लेख ” परसाई व्यंग्य के चप्पू ” में लिखती हैं, ” टूटती तो चाल भी है, चलन भी टूटता है। चाल और चलन के टूटने पर चिंतन करो तो टांग भी टूटती है। यह दर असल व्यंग्य का चक्र है”.

डाॅ. नामवर सिंह अपने लेख मे ” एक अविस्मरणीय चरित नायक” में लिखते हैं,” परसाई जी की समस्त रचनाओं में वह तेज पैनी नजर वाला एक व्यक्तित्व है, जो इस दुनिया को तार तार करके देखता है, चिकोटी काटता है, झकझोरता है, चुनौती देता है, वह उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है “

प्रेम जनमेजय: व्यंग को भी दिल बहलाव के साधन के रूप में अधिक प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि परसाई जैसे साहित्यिक व्यक्तित्व को बार-बार इस समय में साथ रखा जाए। उनके चिंतन को आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए ।”

एम.  एम. चंद्रा: इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास सम्बंधी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है ।

राजीव कुमार शुक्ल : बुद्धिजीवी वर्ग पर बेहद निर्मम विश्लेषण के साथ परसाई जी ने लिखा है, मसलन ‘ इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर है, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते है”।

अलका अग्रवाल सिग्तिया : परसाई की कलम से आजादी के बाद के मोहभंग, शासक वर्ग के नैतिक पतन, दोगलेपन, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, झूठे आचरण, छल,  कपट, स्वास्थ्य परता, सिद्धांतविहीन विचारधारा और गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाना, सत्ता का उन्माद और इन सब में  आम आदमी का पग-पग पर ठगा जाना सबको अपना विषय बनाया। इसलिए उनका लेखन आज भी उतना ही मारक है क्योंकि सरेआम यही तो हो रहा है।

गिरीश पंकज : व्यंग्य विधा है या शैली ? इस प्रश्न पर परसाई जी बोले, ‘ मैं व्यंग्य को एक शैली मानता हूं, जो हर विधा में हो सकती है।”

सुसंस्कृति परिहार : वास्तव में परसाई ने सामाजिक व्यवस्था खासकर शिक्षा संस्थानों की चीर-फाड़ कर यह जताने की पुरजोर कोशिश की कि यदि इस बदरंग व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया गया तो स्थितियां भयावह होगी। शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, राजनीति सब पूंजीपतियों के पास पहुंच जायेगी। अफसोसजनक यह कि हम तेजी से इसी दिशा में बढ़ रहे हैं।”

डाॅ. महेश दत्त मिश्र : 

इलाही कुछ न दे लेकिन ये सौ देने का देना है,

अगर इंसान के पहलू में तू इंसान का दिल दे,

वो कुव्वत दे कि टक्कर लूं हरेक गरदावे से,

जो उलझाना है मौजों में, न कश्ती दे न साहिल दे ।

परसाई जी पर यह शेर बखूबी लागू होता है.

डॉ कुन्दन सिंह परिहार :  “परसाई जी का साहित्य सोद्देश्य, समाज के हित में, समाज में परिवर्तन की आकांक्षा से रचा गया। उनके मित्र स्व. मायाराम सुरजन ने उनके विषय में लिखा है,” परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी निजी जिंदगी केवल दूसरों की समस्यायों की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं।”

परसाई जी ने अपने जन्मदिन पर रचना लिखी, “इस तरह गुजरा जन्मदिन” में कुछ घटनाओं का वर्णन किया है कि जन्मदिन मनाना नहीं चाहते हुए भी उन्हें मनाना पड़ा।

इस संदर्भ में वे लिखते हैं, ” रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया।  नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है।”

डाॅ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’: “परसाई ने आज से पांच साल पहले जो लिखा वह आज भी केवल प्रासंगिक नहीं बल्कि एक तरह से भविष्यवाणी की तरह सिद्ध हो रहा है। उनका लिखा अक्षरशः सही साबित हो रहा है, नई दुनिया में जब  वे “सुनो भाई साधो” स्तंभ लिख रहे थे तो उन्होंने व्यवस्था पर प्रहार किए थे। यह लेख उसी दौर का है जो आज आपको सच जान पड़ेगा क्योंकि आज भी हालत ऐसे हैं। ‘ न खाऊंगा न खाने दूंगा ‘ की असलियत सामने आ गयी है।

श्री अनूप शुक्ल : इन्होंने “परसाई के व्यंग्य बाण” मे उनके व्यंग्य बाणों का संकलन दिया है, जो बहुत ही सुन्दर प्रयास है।

लीजिये एक व्यंग्य बाण – “कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। “

“हरिशंकर परसाई की कलम से” में वे लिखते हैं कि मुझे प्रशंसा के साथ साथ गालियां बहुत मिली है,

“बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘ तुमने मेरे मामा का, जो फारेस्ट अफसर है, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मै तुम्हारे खानदान का नाश कर दूंगा। मुझे शनि सिद्ध है।”

वे आगे लिखते हैं कि, “हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिंदी में हास्य – व्यंग्य का अभाव है।”

अनूप श्रीवास्तव : आखिरी पन्ना में लिखते हैं, ” परिस्थितियों के चलते चाहे अनचाहे क ई  मोड़ पर उन्हें मन के खिलाफ जाना पड़ा। लेकिन परसाई जी तमाम दबावों के बावजूद न खुद झुके ना ही उनकी विचारधारा बदली। इसलिए उनका व्यंग्य लेखन आज भी शास्वत है। आज भी वे व्यंग्य शिखर पर शक्ति पुंज की तरह स्थापित है। “

यही उनकी जीवन भर की पूंजी है।

पदमश्री (डॉ.) ज्ञान चतुर्वेदी जी ने परसाई जी के बारे में लिखा है कि, “उनका तथाकथित तात्कालिक व्यंग्य लेखन दर असल शोषक शक्तियों और शोषित जनों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अंतर्संबंधों से बावस्ता शास्वत प्रश्नों के हल तलाशता शाश्वत लेखन है। तभी वे आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि ये सारे प्रश्न भेष बदलकर आज भी हमारे सामने है।,”

इस “अटृहास” के परसाई विशेषांक में परसाई जी के व्यंग्यों का एक उत्कृष्ट संकलन है, व्यंग्यकारों की टीप्पणी यां है,जो आपको हंसने के साथ साथ सोचने पर भी मजबूर करेगी.

अगर आप तनाव में हैं तो आपको एक सुकून देगी, आप के जीवन में कुछ पल के लिए ही सही शांति प्रदान करेगी. यह विशेषांक संग्रहण करने योग्य है, अदभुत एवं बेमिसाल है.

सभी “अट्टहास” के संपादक मंडल का प्रयास अतुलनीय है, और सोने पे सुहागा अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी का संपादन प्रशंसनीय है.

आखिरी में ” शनि की प्रतिमा को विनम्र अभिवादन”

होली की रंग- गुलाल के साथ बहुत बहुत शुभकामनाएं

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 156 ☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी द्वारा रचित व्यंग्य संग्रह – “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहेंपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 156 ☆

☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक ‏: कि आप शुतरमुर्ग बने रहें (व्यंग्य संग्रह)

व्यंग्यकार : श्री शांतिलाल जैन 

प्रकाशक‏ : बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ संख्या‏ : ‎ 160 पृष्ठ 

मूल्य : 200 रु 

श्री शांतिलाल जैन 

बधाई श्री शांतिलाल जैन सर। उम्दा, स्पर्शी व्यंग्य लिखने में आपकी महारत है। थोड़े थोड़े अंतराल पर आपकी प्रभावी किताबें व्यंग्य जगत में हलचल मचा रही हैं। “कबीर और अफसर”, “न आना इस देश “, “मार्जिन में पिटता आदमी “, ” वे रचनाकुमारी को नहीं जानते ” के बाद यह व्यंग्य संग्रह “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें ” पढ़कर आपकी कल जहाँ खड़े थे उससे आगे बढ़कर नये मुकाम पर पहुंचने की रचना यात्रा स्पष्ट समझ आती है।  व्यंग्य में किसी मिथक या प्रतीक का अवलंब लेकर लेखन सशक्त अभिव्यक्ति की जानी पहचानी परखी हुई शैली है। शुतुरमुर्ग डील डौल की दृष्टि से कहने को तो पक्षी माना जाता है, पर अपने बड़े आकार के चलते यह उड़ नहीं सकता। रेगिस्तान में पाया जाता है।  संकट महसूस हो तो यह ज़मीन से सट कर अपनी लंबी गर्दन को मोड़कर अपने पैरो के बीच घुसाकर स्वयं को छुपाने की कोशिश करता है या फिर भाग खड़ा होता है। दुनिया भर में आजकल शुतुरमुर्ग व्यावसायिक लाभ के लिये पाले जाते हैं। व्यंग्य में गधे, कुत्ते, सांड़, बैल, गाय, घोड़े, मगरमच्छ, बगुला, कौआ, शेर, सियार, ऊंट,गिरगिटान वगैरह वगैरह जानवरों की लाक्षणिक विशेषताओ को व्यंग्य लेखों में समय समय पर अनेक रचनाकारों ने अपने क्थ्य का अवलंब बनाया है। स्वयं मेरी किताब “कौआ कान ले गया” चर्चित रही है। प्रसंगवश वर्ष १९९४ में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह “आक्रोश” की एक लंबी कविता “दिसम्बर ९२ का दूसरा हफ्ता और मेरी बेटी ” का स्मरण हो आया। कविता में अयोध्या की समस्या पर मैंने लिखा था कि कतरा रहा हूं, आंखें चुरा रहा हूं, अपने आपको, समस्याओ के मरुथल में छिपा रहा हूं, शुतुरमुर्ग की तरह। आज २०२४ में अयोध्या समस्या हल हो गयी है, मेरी बेटी भी बड़ी हो गई है, पर समस्याओ का बवंडर अनंत है, और शुतुरमुर्ग की तरह उनसे छिपना सरल विकल्प तथा बेबसी की विवशता भी है।

कोरोना काल में दूसरी लहर के त्रासद समय के हम साक्षी हैं।  जब हर सुबह खुद को जिंदा पाकर बिस्तर से उठते हुये विचार आता था कि भले ही यह शरीर जिंदा है, पर क्या सचमुच मन आत्मा से भी जिंदा हूं ?  मोबाईल उठाने में डर लगने लगा था जाने किसकी क्या खबर हो। शांतिलाल जैन के व्यंग्य संग्रह की शीर्षक रचना “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें ” उसी समय का कारुणिक दस्तावेज है। उस कठिन काल के दंश कितने ही परिवारों ने भोगे हैं।  कोविड का वह दुष्कर समय भी गुजर ही गया, पर कल्पना कीजीये कि जब बेबस लेखक ने लिखा होगा … अंश उधृत है ….

“वे मुझसे सकारात्मक रहने की अपील कर रही थीं .. वे कह रहीं थीं हमारी लड़ाई कोविड से कम, बदलते नजरिये से ज्यादा है …. वे चाहती थीं कि मैं इस बात पर उबलना बंद कर दूं कि कोई आठ घंटे से अपने परिजन के अंतिम संस्कार के लिये लाईन में खड़ा इंतजार में है … चैनलों पर मंजर निरंतर भयावह होते जा रहे हैं, एम्बुलेंस कतार में खड़ी हैं, आक्सीजन खत्म हो रही है, चितायें धधक रही हैं, …. मेरे एक हाथ में कलम है दूसरे में रिमोट और रेत में सिर घुसाये रखने का विकल्प है। ” शांतिलाल जैन शुतुरमुर्ग की तरह सिर घुसाये रख संकट टल जाने की कल्पना की जगह अपनी कलम से लिखने का विकल्प चुनते हैं। उनकी आवाज तब किस जिम्मेदार तक पहुंची नहीं पता पर आज इस किताब के जरिये हर पाठक तक फिर से प्रतिध्वनित और अनुगुंजित हो रही है। एक यह शीर्षक लेख ही नहीं किताब में शामिल सभी ५६ व्यंग्य लेख सामयिक रचनाये हैं, व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिकार की चीखती आवाजें हैं। सजग पाठक सहज ही घटनाओ के तत्कालीन दृश्यों का पुनर्बोध कर सकते हैं। अपनी किताब के जरिये शांतिलाल जैन जी पाठको के सम्मुख समय का रिक्रियेशन करने में पूरी तरह सफल हुये हैं। रचनायें बिल्कुल भी लंबी नहीं हैं। उनकी भाषा एकदम कसी हुई है।  अपने कथ्य के प्रति उनका लेखकीय नजरिया स्पष्ट है। सक्षम संप्रेषणीयता के पाठ सीखना हो तो इस संग्रह की हर रचना को बार बार पढ़ना चाहिये। कुछ लेखों के शीर्षक उधृत कर रहा हूं … ब्लैक अब ब्लैक न रहा, सजन रे झूठ ही बोलो, चूल्हा गया चूल्हे में, आंकड़ों का तिलिस्म, फार्मूलों की बाजीगरि, अदाओ की चोरी, इस अंजुमन में आपको आना है बार बार, ईमानदार होने की उलझन, सिंदबाद की आठवीं कहानी …. आशा है कि अमेजन पर उपलब्ध इस किताब के ये शीर्षक उसे खरीदने के लिये पाठको का कौतुहल जगाने के लिये पर्याप्त हैं। बोधि प्रकाशन की संपादकीय टीम से दो दो हाथ कर छपी इस पुस्तक के लेखक म प्र साहित्य अकादमी सहित ढ़ेरों संस्थाओ से बारंबार सम्मानित हैं, निरंतर बहुप्रकाशित हैं।

प्रस्तावना में कैलाश मंडलेकर लिखते हैं “इस संग्रह की तमाम व्यंग्य रचनाओं में हमारे समय को समझने की कोशिश की गई है। जो अवांछित एवं छद्मपूर्ण है, उस पर तीखे प्रहार किये गए हैं। जहां आक्रोश है वह सकारात्मक है। जहाँ हास्य है, वह नेचुरल है। सबसे बड़ी बात यह कि व्यंग्यकार किसी किस्म के डाइरेक्टिव्ह इश्यु नहीं करता वह केवल स्थितियों की भयावहता से अवगत कराते चलता है। … व्यंग्यकार पाठक के सम्मुख युग की समस्यायें रेखांकित कर विकल्प देता है कि वह शुतुरमुर्ग बनना चाहता है या समस्या से अपने तरीके से जूझना चाहता है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 156 ☆ “मेघदूत का टी ए बिल… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री बी एल आच्छा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री बी एल आच्छा जी द्वारा रचित व्यंग्य संग्रह – “मेघदूत का टी ए बिलपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 155 ☆

☆ “मेघदूत का टी ए बिल… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री बी एल आच्छा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति  – मेघदूत का टी ए बिल (व्यंग्य संग्रह)

व्यंग्यकार – श्री बी एल आच्छा

चर्चा  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

☆ पुस्तक चर्चा – मेघदूत का टी ए बिल… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

हरिशंकर परसाई जी का एक व्यंग्य है हनुमान जी का टी ए बिल।  इस व्यंग्य में उन्होंने आडिट कार्यालयों की कार्य पद्धति पर गहरा कटाक्ष किया है।  जब अयोध्या में राम के राज्याभिषेक के बाद हनुमान जी ने संजीवनी बूटी लाने की उनकी यात्रा का टी ए बिल प्रस्तुत किया तो आडीटर ने आब्जेक्शन लगा दिये कि हनुमान जी क्लास टू अफसर हैं और उन्हें हवाई यात्रा की पात्रता ही नहीं थी, फिर उन्होंने तत्कालीन राजा भरत से भी यात्रा की अनुमति नही ली और समूचा पर्वत लाकर अतिरिक्त वजन के साथ यात्रा की अतः यात्रा देयक वापस किया जाता है। किन्तु जब हनुमान जी ने आडीटर से दक्षिणा भेंट कर ली तो उसी आडीटर ने आब्जेक्शन का निदान करते हुये नोट लिखा  कि चूंकि तब भी श्री राम जी की चरण पादुकाओ के माध्यम से वे राज्य कर रहे थे अतः राजा भरत की अनुमति की आवश्यकता नहीं थी, लक्ष्मण जी के जीवन के संकट को देखते हुये उन्हें एक्स पोस्ट फैक्टो हवाई यात्रा तथा अतिरिक्त वजन के साथ यात्रा की अनुशंसा की जाती है और  टी ए बिल पारित कर दिया गया। ऑडिट कार्यालयों का यह यथार्थ व्यंग्य के साथ हास्य का अवसर निकाल लेता है।

किसी पुराने लोकव्यापी कथानक का अवलंब लेकर कटाक्ष करना और पाठको तक लक्षित संदेश संप्रेषित कर देना व्यंग्यकार की अपनी विशेषता होती है। बी एल आच्छा जी वरिष्ठ, परिपक्व, शैली तथा भाषा संपन्न सक्षम व्यंग्यकार हैं। उनकी अनेक किताबें पूर्व प्रकाशित हैं, जिनमें व्यंग्य की किताबें आस्था के बैंगन, पिताजी का डैडी संस्करण आदि प्रमुख हैं। उन्हें अनेक ख्याति लब्ध सम्मान मिल चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओ में रचनाकार के रूप में उनका नाम देखकर उन्हें पढ़े बिना पन्ना पलटना मेरे जैसे पाठकों के लिये आनंददायी अवसर होता है। मेघदूत का टी ए बिल शीर्षक से संस्कृति प्रकाशन से उनका नया व्यंग्य संग्रह आया है। पहला ही व्यंग्य किताब का शीर्षक व्यंग्य है “मेघदूत का टी ए बिल ” इसी तरह की रचना है, उससे उधृत है …

“मंद-मंद मुस्कुराते हुए ऑडिटर ने लिखा- कालिदास को हवाई रूट से भेजा गया था, तो वे सीधे नागपुर होते हुए अलकापुरी न जाकर विदिशा में क्यों अटके? विदिशा से वे वक्री होकर उज्जैन क्यों चले गए? इस तरह यात्रा मार्ग एवं दिन क्यों बढ़ाये गए?   आडीटर की आपत्ति यह भी थी कि कालिदास को विरह की चिट्ठी लेकर जाना था, सो भी ‘यक्ष सरकार के सेवार्थ’ लिफाफा सील लगाकर। माना कि यक्ष ने मौखिक संदेश दिया होगा, पर कवि ने उसमें अपना मसाला मिला दिया है। उसने लिखा है- श्यामल लताओं में तुम्हारा शरीर, चकितहरिणी की आंखों में तुम्हारी चितवन, चन्द्रमण्डल में तुम्हारा मुख, मयूर-पंखों में तुम्हारी केशराशि, नदी की तरंगों में तुम्हारी भौंहों का विलास देख लेता हूं, पर सारे सुंदर उपमान एकसाथ नहीं मिलते जैसी तुम्हारी सुंदर देह में एकत्र मिल जाते हैं।’ तो क्यों न ऐसा माना जाए कि कवि ने यक्ष के बहाने अपना काम उसी तरह निकाला है, जैसे कई बार निजी कार्य के लिए सरकारी काम निकालकर यात्रा कर ली जाती है। अत: यह बिल मूलत: वापस किया जाता है। व्यंग्यकार ने लिखा है कि जब आपत्तियों के निदान के लिये आडीटर से व्यक्तिगत भेंट की गई तो वास्तविकता समझ आई दरअसल आडीटर कालिदास के साहित्य के प्रशंसक थे और आब्जेक्शन के बहाने वे उनसे सीधी भेंट करना चाहते थे। ” लोकव्यवहार में इस तरह की तिकड़में असामान्य नहीं, मेरी जानकारी में एक शिक्षक ने स्थानांतरण पर आये प्रशासनिक अधिकारी की बेटी जो अब मेरी पत्नी हैं, के एडमीशन के लिये पहुंचे मातहत की नहीं सुनी और शालापंजी में हस्ताक्षर के बहाने उन्हें व्यक्तिगत रुप से आने पर विवश कर दिया, उनका तर्क था कि हमें तो हमेशा ही प्रशासनिक कार्यालयों के चक्कर लगाने होते हैं, आज ऊंट पहाड़ के नीचे आ ही जाये। इसी तरह लंदन के भारतीय दूतावास ने एक नामी पत्रकार मेरे दामाद को वीजा जारी करने से पहले व्यक्तिगत बुलावा भेज दिया क्योंकि वे उनसे कनेक्ट बनाना चाहते थे। अस्तु इस अधिकारों के इस तरह उपयोग की विसंगति को रोचक कथानक में पिरोकर आच्छा जी ने उम्दा व्यंग्य पाठको को दिया है। व्हाट्सअप और विरह, वेल इन टाइम से वेलेन्टाइन तक, ये देवता रोते क्यों नहीं, रचना प्रकाशन के सोलह श्रंगार, बात बात में इमोजी व्यापार, आम लेखक के कंधों पर लटका वेताल, करोड़पति हो गया मेरा मोबाईल नम्बर, गुरूजी का सर होते जाना, शब्दों की खेती पर एम एस पी खरीद, ऐसी बानी बोलिये जमकर झगड़ा होय, मुझ पर पीएचडी हो गई आदि आदि रचनायें उल्लेखनीय हैं जिन्हें पढ़ना सुखद है।

मात्र एक सौ अस्सी रुपयों में चेन्नई से छपी १५४ पृष्ठीय संग्रह मेघदूत का टी ए बिल का हर व्यंग्य पठनीय तो है ही किसी न किसी व्यवहारिक आस पास बिखरी विसंगति को उजागर कर छोटे छोटे व्यंग्य में अंत तक पाठक को बांधे रखने में सक्षम हैं। किताब बड़े फांट्स में रीडर्स फ्रेंडली तरीके से अच्छे कागज पर त्रुटि रहित प्रकाशित हुई है। आच्छा जी लोकाचार में अकथित व्यक्तव्य सुनने की समझ रखते हैं और उसे पाठको के लिये आकर्षक कथानक में प्रस्तुत करते हैं। समीक्षा के हर्बल ब्यूटी पार्लर भी एक रचना है जिसमें उन्होंने लिखा है .. ” हर अखबार, हर पत्रिका में अनेक समीक्षायें ही किताब को पहचान देती हैं। ” यहां यह उल्लेख करना चाहता हूं कि यह कृति किसी समीक्षा की मोहताज नहीं है, न्यूनतम मूल्य में स्तरीय पठनीय व्यंग्य सामग्री इस पुस्तक की खासियत है, पुस्तक में ४१ व्यंग्य हैं। ठेठ दक्षिण चेन्नई से प्रकाशित हिन्दी व्यंग्य की यह किताब पढ़ने की अनुशंसा करते हुये आच्छा सर से लगातार और व्यंग्य संग्रहो, व्यंग्य उपन्यास की अपेक्षा हम व्यंग्य प्रेमी करते हैं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “कि आप शुतरमुर्ग बने रहें” – श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री शशिकांत सिंह ’शशि’ ☆

श्री शशिकांत सिंह ’शशि’

☆ “कि आप शुतरमुर्ग बने रहें” – श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री शशिकांत सिंह ’शशि’ ☆

पुस्तक ‏: कि आप शुतरमुर्ग बने रहें

प्रकाशक‏ : बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ संख्या‏ : ‎ 160 पृष्ठ 

मूल्य : 200 रु 

☆ सत्ता से सवाल करती रचनाएं – श्री शशिकांत सिंह ’शशि’ ☆

बतौर पाठक मैं मानसिक ऊर्जा और वैचारिक बहस के लिए साहित्य पढ़ना पसंद करता हूं। उन लेखकों को पढ़ना पसंद करता हूं जो सत्ता से सवाल करते हैं जिनकी कलम मशाल बनकर जलना चाहती है। विशेषकर व्यंग्य साहित्य में मुझे हमेशा वही रचनाएं पसंद आती हैं जो सत्ता को कठघरे में खड़ी करें। दुर्भाग्य यह है कि आजकल विसंगति के नामपर साहित्यिक पुरस्कार, और साहित्यिक गुटबाजियों को ही विषय बनाकर ज्यादातर लिखा जाता है क्योंकि ऐसी रचनाएं आसानी से छप जाती हैं चूंकि रोज छपना है इसलिए छपनीय रचनाएं लिखी जाती हैं। ऐसे में यदि कोई ऐसा संग्रह हाथ में आ जाये जिसकी हर रचना मन को ऊर्जा से भर दे तो मन आनंद से भर उठता है। शांतिलाल जैन साहब नई पीढ़ी के लेखकों में मेरे पसंदीदा लेखक हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि मेरी सूची बहुत लंबी है, उसमें से एक नाम हैं बल्कि मेरी सूची में तीन या चार नाम हैं उसमें से एक हैं श्री शांतिलाल जैन। उनके नवीनतम् संकलन ’कि आप शुतरमुर्ग बने रहें की चर्चा यहां की जा रही है।

श्री शांतिलाल जैन 

सबसे पहले बात करते हैं शीर्षक की हम जानते हैं कि शुतरमुर्ग तूफान देखकर रेत में सिर छिपा लेता है क्योंकि वह रेत का सामना नहीं कर सकता। नहीं करना चाहता। वह संदेश तो यह देना चाहता है कि वह तूफान के मुकाबले में खड़ा है लेकिन ऐन मौके पर रेत में सिर छिपा लेता है। ठीक उसी तरह जिस तरह व्यंग्य लिखने के नाम पर अभिव्यक्ति के खतरों से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं लेखक। मंचों पर ताल ठोककर सिंह गर्जना करने वाले महामानव कलम हाथ में लेते ही मेमने की गति को प्राप्त हो जाते हैं और संपदकों की पसंद की रचनाएं लिखने लगते हैं। जो तुझको हो पसंद वही बात कहेंगे। बहरहाल, इस संकलन में पचास से अधिक रचनाएं संकलित हैं जो वर्त्तमान में व्याप्त अधिकांश विसंगतियों की पड़ताल करते हैं। राजनीति, धर्म, समाज, अर्थव्यवस्था, नई तकनीक, नई पीढ़ी, मोबाईल, सरकारी भोंपूवाद, प्रशासन, तमाम विषयों पर चिंतनजनित व्यंग्य रचनाएं दी हैं शांतिलाल जी ने।

कि आप शुतरमुर्ग बने रहें’ में आरामपसंद मध्यमवर्ग का पलायनवाद है जो चाहता तो है कि भगत सिंह जन्म लें लेकिन पड़ोसी के घर में। वह शब्दों का वीर है, समर का नहीं, हर चुनौती का मंुह छुपाकर सामना करता है। ’नलियबाखल से मंडीहाउस’ में गोबर के गणेश बनने की कथा है। रम्मू जो अखबार के हॉकर थे अखबार के मालिक बनकर, मीडियाहाउस चलाने लगते हैं, अगले वर्ष उनके संसद में जाने की पूरी संभावना है। गुण ? उनका अच्छी तरह चिल्लाने की क्षमता। ’अब आपकी नदी आपके द्वार’ में नगर की गंदगी का काव्यमय चित्रण है तो ’भाईसाहब हमारा नंबर कब आयेगा’ में एक सज्जन डॉक्टर के दुर्जन सहयोगी की बदतमीजी से आहत मरीज की व्यथा है।

पर मुझे जिस रचना ने सबसे अधिक अपनी ओर आकर्षित किया वह है ’बहिष्कृत सेब और परित्यक्त केला संवाद’ जैसी कलात्मक रचना जिसमें केला और सेब दोनों को कचरे में फेंक दिया जाता है। सेब इसलिए मुसलमां हो गया है क्योंकि उसे एक मुसलमान बेच रहा था और केला इसलिए हिंदू हो गया क्योंकि उसे एक हिन्दू बेच रहा था। खरीदने वालों ने उन्हें दूसरे धर्म की अमानत समझकर कचरे में फंेक दिया। उनके संवाद में जो गहराई है वह हमारे आज के समाज की हकीकत है। हम जो मंदिर-मस्जिद के नारे में फंसकर अपने असली रंग में आ गये हैं। अपने अंदर छुपे धार्मिक पशु को आवारा छोड़ दिया है जिसको मर्जी काट ले। अंत में सेब सोच रहा है कि मानव सभ्यता आदम और हव्वा के जमाने में लौट जाये अर्थात रिवाईंड कर जाये तो अच्छा है जब कोई धर्म नहीं था।

एक शानदार रचना है -’प्रतिध्वनियों में गुम सच’ कमाल की कला साधी गई है इस रचना में। हम मीडिया को कोसते हैं लेकिन यह रचना उनकी पीड़ा को भी स्वर देती है। ईको पाइंट की मजबूरी है कि जो भी शिला पर चढ़कर बोलेगा उसका ईको करेगा लेकिन वह सारा सच जानता है।  जब शिला पर आकर एक आदमी चीखता है कि ’मैने ’रिश्वत नहीं ली’तो इको पाईंट उसी पंक्ति को इको करता है लेकिन वह जानता है कि यह आदमी बहुत बड़ा रिश्वतखोर है। लेखक की सहानुभूति देखिये-’ईको पाईंट की मजबूरी ठहरी साहब। उसे वही दोहराना पड़ता है जो सत्ता की शिला पर खड़े लोग कहें। कई सारे ईको पाईंटस हैं हमारे देश में। ईका पांईट्स वही रहते हैं शिला पर चढ़ने वाले पांच साल में बदल जाते हैं।’ यह एक गहरे चिंतन से उपजी रचना है। जो दिखता है वह है नहीं, और जो है वह आप देख नहीं रहे। ’लक्ष्मी नहीं बेटी आई है’ इस रचना में लेखक इस बात का विरोध करता है कि बेटी को लक्ष्मी क्यों कहा जाये ? वह मनुष्य है उसे मनुष्य रहने दिया जाये। एक रचना में अलीबाबा सिमसिम के आगे खड़े हैं लेकिन पासवर्ड भूलगये हैं। पासवर्ड याद आये तो धन निकले। धन निकले तो अलीबाबा अपने घर जायें पत्नी के फोन आ रहे हैं। यंत्रीकरण के युग की तल्ख सच्चाई उकेरती रचना है। तकनीक हमारे लिए जितनी सुविधाएं पैदा करती है उतरी ही परेशानियां भी।

एक कमाल की रचना है -’कानून के हाथ’ जिसमें कानून की बेचारगी सामने आती है। पंक्ति देखिये कि ’कानून के हाथ लंबे हैं, प्रशासन के और लंबे और शासन के लंबेस्ट।’ लेखक की पीड़ा यह है कि बुलाडोजर ही अब सारे फैसले करने लगे हैं। न अपील होगी, न वकील, न दलील, न विधि, न विधि द्वारा स्थापित अदालतें। आदमी का धर्म देखकर जिस प्रकार बुलडोजरें न्याय करने लगी हैं उसका विराध करने का साहस बहुत कम लेखकों ने दिखाया है।

तात्पर्य यह कि विषय चयन में श्री शांतिलाल जैन साहब सुरक्षित कोना नहीं ढूंढ़ते। न मनोरंजन के नाम पर सत्ता के वंदनवार सजाने लगते हैं। सीधे-सीधे सवाल करते हैं। उनके विषय कभी ’हल्के-फुल्के’ नहीं होते। यही कारण है कि मेरे जैसा पाठक जो विषय की गंभीरता को देखकर किताब उठाता है पूरी किताब पढ़ता चला जाता है।  हो सकता है कि सत्ता सेवी लोगों को शांतिलाल जी की रचनांए न पचें क्योंकि उनके लिए इस रामराज्य में व्यंग्यकारों का काम बस एक दूसरे को कोसना और मसखरी करना रह गया है। तो, विषय की गहराई भी है लेखक के पास, केवल समस्या परोसने भर के लिए नहीं लिखते। सुधार की संभावनाओं को भी दिखाते हैं। समाधान का पक्ष भी उनकी रचनाओं में झलकता है। यह कहना कि छोटी रचनाओं में विषय के साथ न्याय नहीं हो सकता। ठीक नहीं है, कम से कम शंातिलाल जी की रचनाओं को देखकर तो यही लगता है। कम शब्दांें में विषय की पूरी पड़ताल की जा सकती है बशर्ते शब्दों की जलेबी न बनाई जाये।

अनावश्यक रूप से कहीं भी कलाकारी दिखाने का मोह लेखक में नहीं दिखता। न बेवजह पंचलाईन, न जबरदस्ती का हास्य, न निरर्थक संवाद, बस सधी हुई और तपी हुई शब्दसाधना। पंच प्रेमी सज्जनों को एकदम से निराशा भी नहीं होगी। कुछ पंक्तियां देखिये-

  • ’आज वे विचार भी उसी शिद्दत से बेच लेता है जिस शिद्दत से कभी खटमलमार पावडर बेचा करता था।’
  • ’बिना जमीर की पत्रकारिता करने की उसने एक नयाब नजीर कायम की है।’
  • ’स्मार्ट फोन एक नहीं दो ले लीजिये, रोजगार नहीं दे पायेंगे।’
  • ’कुछ आत्माएं संसार कभी नहीं छोड़तीं। अब नीरो को ही ले लीजिये,दो हजार बरस पहले बादशाह हुये थे रोम में, मगर आत्मा आज तक देश दर देश भटक रही है।
  • ’अब आदमी के कान की सीमाएं होती हैं जनाब, जब डंका बज रहा हो, तो तूतियो का स्वर सुनाई नहीं देता।।
  • ’सुल्तान को अपने नाम का डंका बजवाने का जुनूं ऐसा है कि अपन के मुल्क की दवा अपन की रियाया को देने से पहले गैर मुल्कों को दे डाली।

कला और कथ्य दोनों में कमाल का संतुलन और भाषा की रवानगी के बावजूद कहीं-कहीं नये शब्द बनाने के जुनून से परेशानी हो रही थी। अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में मिलाकर नये शब्द आजकल बनाते हैं लोग लेकिन वह भाषा को कमजोर करती है (ऐसा मुझे लगता है जरूरी नहीं कि मुझे सही लगे)। साहित्य से समाज शब्द और भाषा सीखता हैं अतः लेखक को मंुबइया भाषा के मोह में या जैसा बोलेंगे वैसा लिखेंगे की लालच मंे वही तो को वोईच, बहुत को भोत, जैसे प्रयोग से बचना चाहिए (ऐसा मुझे लगता है जरूरी नहीं कि मुझे सही लगे)। मैं लेखन में स्तरीय शब्द प्रयोग का हिमायती रहा हूं। लेखक की जिम्मेवारी समाज को भाषा की शिक्षा देने की भी है। पर, ऐसे प्रयोग बहुत कम हैं अधिकांश रचनाओं में विषय के अनुसार शब्द प्रयोग हैं।

अंत में बात इतनी ही कि मुझे यह सकंलन पढ़कर मानसिक संतुष्टि हुई। पुस्तक के प्रकाशक हैं-बोधि प्रकाशन, जयपुर। सुंदर पुस्तक है। कीमत है दो सौ रुपये जो आज के समय को देखते हुये ठीक ही है। एक सौ साठ पन्नों की किताब दो सौ में सौदा बुरा नहीं है। कम से कम पढ़कर आपको भी लगेगा कि लेखक के पास रीढ़ की हड्डी है जिसका आजकल नितांत अभाव चल रहा है।

© श्री शशिकांत सिंह ’शशि’ 

संपर्क : जवाहर नवोदय विद्यालय, सुखासन, मधेपुरा, बिहार

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 155 ☆ “विद्युल्लता… ” (काव्य संग्रह) – श्री रामनारायण सोनी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री रामनारायण सोनी जी द्वारा रचित काव्य संग्रह – “विद्युल्लता” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 155 ☆

☆ “विद्युल्लता… ” (काव्य संग्रह)– श्री रामनारायण सोनी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कृति चर्चा

पुस्तक चर्चा

कृति  विद्युल्लता (काव्य संग्रह )

कवि  रामनारायण सोनी

चर्चा  विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

☆ पुस्तक चर्चा – श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

कविता न्यूनतम शब्दों में अधिकतम की अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ संसाधन होती है। कविता मन को एक साथ ही हुलास, उजास और सुकून देती है। नौकरी और साहित्य के मेरे समान धर्मी श्री रामनारायण सोनी के कविता संग्रह विद्युल्लता को पढ़ने का सुअवसर मिला। संग्रह में भक्ति काव्य की निर्मल रसधार का अविरल प्रवाह करती समय समय पर रची गई सत्तर कवितायें संग्रहित हैं। सभी रचनायें भाव प्रवण हैं। काव्य सौष्ठव परिपक्व है। सोनी जी के पास भाव अभिव्यक्ति के लिये पर्याप्त शब्द सामर्थ्य है। वे विधा में पारंगत भी हैं। उनकी अनेक पुस्तकें पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं, जिन्हें हिन्दी जगत ने सराहा है। सेवानिवृति के उपरांत अनुभव तथा उम्र की वरिष्ठता के साथ रामनारायण जी के आध्यात्मिक लेखन में निरंतर गति दिखती है। कवितायें बताती हैं कि कवि का व्यापक अध्ययन है, उन्हें छपास या अभिव्यक्ति का उतावलापन कतई नहीं है। वे गंभीर रचनाकर्मी हैं।

सारी कवितायें पढ़ने के बाद मेरा अभिमत है कि शिल्प और भाव, साहित्यिक सौंदर्य-बोध, प्रयोगों मे किंचित नवीनता, अनुभूतियों के चित्रण, संवेदनशीलता और बिम्ब के प्रयोगों से सोनी जी ने विद्युल्लता को कविता के अनेक संग्रहों में विशिष्ट बनाया है। आत्म संतोष और मानसिक शांति के लिये लिखी गई ये रचनायें आम पाठको के लिये भी आनंद दायी हैं। जीवन की व्याख्या को लेकर कई रचनायें अनुभव जन्य हैं। उदाहरण के लिये “नेपथ्य के उस पार” से उधृत है … खोल दो नेपथ्य के सब आवरण फिर देखते हैं, इन मुखौटों के परे तुम कौन हो फिर देखते हैँ। जैसी सशक्त पंक्तियां पाठक का मन मुग्ध कर देती हैं। ये मेरे तेरे सबके साथ घटित अभिव्यक्ति है।

संग्रह से ही  दो पंक्तियां हैं … ” वाणी को तुम दो विराम इन नयनों की भाषा पढ़नी है, आज व्यथा को टांग अलगनी गाथा कोई गढ़नी है। ” मोहक चित्र बनाते ये शब्द आत्मीयता का बोध करवाने में सक्षम हैं। रचनायें कवि की दार्शनिक सोच की परिचायक हैं।

रामनारायण जी पहली ही कविता में लिखते हैं ” तुम वरेण्य हो, हे वंदनीय तुम असीम सुखदाता हो …. सौ पृष्ठीय किताब की अंतिम  रचना में ॠग्वेद की ॠचा से प्रेरित शाश्वत संदेश मुखर हुआ है। सोनी जी की भाषा में ” ए जीवन के तेजमयी रथ अपनी गति से चलता चल, जलधारा प्राणों की लेकर ब्रह्मपुत्र सा बहता चल “।

यह जीवन प्रवाह उद्देश्य पूर्ण, सार्थक और दिशा बोधमय बना रहे। इन्हीं स्वस्ति कामनाओ के साथ मेरी समस्त शुभाकांक्षा रचना और रचनाकार के संग हैं। मैं चाहूंगा कि पाठक समय निकाल कर इन कविताओ का एकांत में पठन, मनन, चिंतन करें रचनायें बिल्कुल जटिल नहीं हैं वे अध्येता का  दिशा दर्शन करते हुये आनंदित करती हैं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆जब सारा विश्व राममय हो रहा है, तब प्रासंगिक कृति – “रघुवंशम” – श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ पुस्तक चर्चा – आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी ☆

Please share your Post !

Shares
image_print