मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “पलायन…” लेखक : रस्किन बाॅन्ड – अनुवाद – सुश्री निलिमा भावे ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “पलायन…” लेखक : रस्किन बाॅन्ड – अनुवाद – सुश्री निलिमा भावे ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

आकाश उजळत होतं, तसतसे पाईन  आणि  देवदार  वृक्ष  स्पष्ट दिसायला  लागले  आणि पक्ष्यांची हालचाल सुरू झाली. सुरुवात दयाळ पक्ष्याने केली. त्याने एक सौम्य, मंद शीळ घातली. त्यानंतर साळुंक्या झुडुपांमध्ये कलकल करायला लागल्या. एक तांबट एका उंच झाडावर बसून कर्कश्यपणे ठक् ठक् आवाज करायला लागला. आकाश जरा आणखी पांढुरकं झाल्यानंतर तजेलदार हिरव्या रंगाचा पोपटांचा थवा झाडाच्या शेंड्यावरून उडत गेला.

पावसाची भुरभुर चालूच राहिली. पूर्वेकडच्या आकाशात तांबूस रंगाचा चमकदार प्रकाश पसरला आणि मग, अगदी अचानकपणे ढगांमधल्या फटीतून सूर्य बाहेर आला. हिरवंगार पावसाचं गवत एकदम उठून दिसायला लागलं. मी आणि दलजीत दोघेही चकित होऊन हे दृश्य पहात होतो. आत्तापर्यंत कधीच आम्ही इतक्या लवकर उठलो नव्हतो. झाडं, झुडुपं, गवत यांच्यामध्ये विणलेल्या एरवी लक्षात न येणार्‍या कोळ्यांची शेकडो जाळी सोनेरी आणि रुपेरी जलबिंदूंनी नटून लक्ष वेधून घ्यायला लागली. जाळ्याच्या नाजूक रेशमी तंतूंनी सूर्यप्रकाश आणि जलबिंदू यांना तोलून धरलं होतं. प्रत्येक जलबिंदू लहानशा रत्नासारखा चमचमत होता.

पावसात भिजून ओला आणि जड झालेला एक जांभळ्या फुलांचा जंगली डेलिया टेकडीच्या उतारावर पसरला होता आणि पाचूसारखा चमकदार हिरवा गवती किडा त्याच्या एका पाकळीवर पाय पसरून ऊन खात पहुडला होता.

पुस्तक – वावटळ आणि सात कथा

लेखक – रस्किन बॉँड 

अनुवाद – सुश्री नीलिमा भावे 

संग्राहिका : सौ उज्ज्वला केळकर 

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 194 – पौधे लगाएँ, पेड़ बचाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 194 ☆ पौधे लगाएँ, पेड़ बचाएँ ?

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे यह भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! ख़ैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोज़ाना अपने साथियों का कत्लेआम  देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के साथ ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त करते हैं। खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ, धरती को खरीदते-बेचते एजेंट।

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, जून माह है। पर्यावरण दिवस के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। काग़ज़ों पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले ही शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों, खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ जैसे ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस के आयोजनों  पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पौधे लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 67 ⇒ मोटा अनाज  || MILLETS ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी # 67 ⇒ मोटा अनाज  || MILLETS ||? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

रोटी से इंसान का पेट भरता है। पेट तो जानवर भी भर लेते हैं, लेकिन इंसान एक समझदार प्राणी है। वह घास फूस नहीं खाता, उसकी अपनी रुचि है, अपनी पसंद है, वह जरूरत और हैसियत के अनुसार अपने भोजन का चुनाव करता है, जिसमें देश, काल, परिस्थिति और पर्यावरण का भी अपना योगदान होता है।

जिस तरह इस सृष्टि में जड़ और चेतन की ही तरह जीव और वनस्पति का भी अस्तित्व है, आहार भी मुख्य रूप से शाकाहार और मांसाहार में वर्गीकृत किया जा सकता है। तीन चरों से मिलकर बना यह चराचर जगत, जलचर, नभचर और थलचर के रूप में विराजमान है। जीव के आहार की परिभाषा कम से कम और स्पष्ट शब्दों में इस तरह की गई है, जीव: जीवस्य भोजनम्।।

पेड़ पौधे, वनस्पति, फल, फूल, अनाज, सभी जीव ही तो हैं, निर्जीव नहीं, यहां तक कि हमारी माता और गऊ माता के दूध में भी एनिमल फैट मौजूद है। फिर भी एक लकीर है, जो शाकाहार और मांसाहार को अलग करती है। यह एक वृहद विषय है जिसका हमारे मोटे अनाज से कहीं दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है।

स्पष्ट शब्दों में कहें जो जैसे गाय भैंस चारा खाती है, हम संसारी जीव मोटा अनाज खाते हैं। भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार कहीं चावल की पैदावार अधिक है तो कहीं अन्य तरह के अनाज की। ।

आहार संवाद का विषय है, विवाद का नहीं ! किसान जो बोएगा, वही तो खाएगा। एक मजदूर को जितनी मजदूरी मिलेगी, उसमें ही तो वह अपना और अपने परिवार का पेट पालेगा। युद्ध जैसी त्रासदी और अकाल, बाढ़ और जलजले जैसी परिस्थिति में भूख महत्वपूर्ण होती है, पौष्टिक भोजन नहीं।

शेर घास नहीं खाता, कोस्टल एरिया में चावल और जल तुरई ही उनका प्रमुख भोजन है। बड़ा सांभर और इडली डोसा खाने वाला एक मद्रासी व्यक्ति कितनी रोटी खाएगा। कभी पंजाबी लस्सी पीजिए, मलाई मार के। ।

हमने एक समय में लाल गेहूं भी खाया है और आज मोटे अनाज पर जगह जगह परिसंवाद हो रहे हैं, जन जागरण का माहौल है। गांव में किसने ज्वार, बाजरा, और मक्के की रोटी नहीं खाई। लेकिन शहर में आकर मालवी, शरबती गेहूं ऐसा मुंह लगा कि घर घर अन्नपूर्णा आटे ने अपनी पहचान बना ली। ।

भोजन में बढ़ती केमिकल फर्टिलाइजर की मात्रा ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया और संतुलित आहार और भोजन की गुणवत्ता पर अधिक जोर दिया जाने लगा। एकाएक भोजन से टाटा का नमक और शकर गायब होने लगी। तेल घी और मिर्च मसालों की तो शामत ही आ गई। मत पूछिए फिर बाजार में चाट पकौड़ी और कचोरी समोसे कौन खाता है।

मोटे तौर पर मोटा अनाज आठ प्रकार का होता है जिसमें ज्वार, बाजरा, रागी, सावां, कंगनी, चीना, कोदो, कुटकी और कुट्टू का आटा प्रमुख है। हमने तो इनमें से सिर्फ ज्वार बाजरे का नाम ही सुना है। रागी आजकल अधिक प्रचलन में है। कुट्टू का आटा, हमारे लिए फलाहार का विकल्प है। ।

आप जैसे ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होते हैं, सस्ती खाद्य सामग्री आसमान छूने लगती है।

उपेक्षित ज्वार बाजरे की आजकल चांदी है। ब्राउन राइस और ब्राउन राइस अलग भाव खा रहे हैं।

आप अगर ऑर्गेनिक हो सकें तो हो ही जाएं, स्वास्थ्य की कीमत पर, कोई महंगा सौदा नहीं है।

कभी मोटा अनाज गरीबों के नसीब में होता था, आज हम भी नसीब वाले हैं कि इतनी न्यूट्रीशनल वैल्यू वाला मोटा अनाज हमारी पहुंच में है और उधर बेचारा गरीबी रेखा से नीचे वाला आदमी, उसे तो सरकार के मुफ्त राशन से ही अपने पेट की आग बुझानी है। ज्यादा भावुक होने की आवश्यकता नहीं, अपना स्वास्थ्य सुधारें, स्वाद पर नहीं, गुणवत्ता पर जाएं। जान है तो जहान है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रेम… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ प्रेम… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

प्रेमाला उपमा नाही हे देवाघरचे लेणे — खरंच किती भावार्थ लपला आहे नाही या गाण्यात…प्रेम ही ईश्वरी देणगी आहे.. प्रेम हे ठरवून कधीच होत नाही.. प्रत्येक व्यक्ती कधीना कधी कोणावर ना कोणावर प्रेम करतेच नाही का..

कुणीतरी आपल्यासाठी आपल्याला आवडतं म्हणून काही करणं म्हणजे प्रेम असतं. प्रेम हे केवळ व्यक्तीवर  असतं ? तर नाही.. ते भावनेवर असतं त्याच्या/ तिच्या अस्तित्वावर असतं.. त्याच्या / तिच्या  सहवासात असतं… प्रेम हे दिसण्यात असतं ? तर  ते  नजरेत असतं. जगायला लावणाऱ्या उमेदीत असतं. प्रेम निर्बंध असतं..त्याला वय , विचारांचं बंधन कधीच नसतं. जेंव्हा एखादी व्यक्ती प्रेमात पडते तेव्हा अख्खं जग सुंदर दिसू लागतं…त्याचे संदर्भ मनातल्या मंजुषेशी जुळलेले असतात…ते एक अनामिक नातं भावनांच्या मनस्वी लाटा वाहवणार असतं…एक हुरहूर,ओढ आणि तेवढीच धडधड वाढविणारही असतं. कांहीही नसताना खूप कांही जपणार आणि जोपासणार असतं. अश्या अनामिक नात्याची उत्कटता शब्दांत व्यक्त करताचं येत नाही…

प्रेम सहवासाने वाढते.. ते कृतीतून  स्पर्शातून व्यक्त होते.. प्रेमामुळे तर आपुलकी स्नेह निर्माण होतो.

सर्वोच्च प्रेमाची परिणीती म्हणजे त्याग…

आपल्या प्रिय गोष्टीचा त्याग करणे हे ही एक प्रकारचे प्रेमच असते. नाही का..! शेकडो मैल केलेला प्रवास म्हणजे प्रेमाची परिसीमाच नाही काय?.. प्रेम ही एक सर्वोच्च शक्ती आहे. प्रेमामुळेच विविध महाकाव्यांची निर्मित झाली.. 

प्रेम हे  पहाटेच्या धुक्यात असते… रातराणीच्या सुगंधात असते..खळखळ वाहणाऱ्या निर्झरात असते.. तर प्रेम पहाटेच्या मंद झुळकीत ही असते बरे.. इतकं नाही तर दूरदूर जाणाऱ्या रस्त्यात सुद्धा प्रेम असते… प्रेम गालावरच्या खळीत असते…झुकलेल्या नजरेत असते…ओथंबलेल्या अश्रूत ही असते.. शीतल चांदण्यात,  आठवणींच्या गाण्यात, चिंचेच्या बनात, निळ्याशार तळ्यात..दोन ओळींची चिठ्ठीसुद्धा प्रेम असतं..घट्ट घट्ट मिठीत सुद्धा असते. 

गुणगुणाऱ्या भुंग्याला पाहून लाजणाऱ्या फुलात ही प्रेम असते.

सृष्टीच्या प्रत्येक रचनेत चराचरात … निसर्गात प्रेम असते आणि आहे…

विरह हा प्रेमाचा खरा साक्षीदार …वाट पाहण्यातील आतुरता, हुरहुर, ती ओढ, ती न संपणारी प्रतीक्षा.. वेळ किती हळूहळू जातोय असं वाटणारी ती जीवघेणी अवस्था. …तो किंवा ती कधी येईल ? ही वाटण्यातील अधीरता, तो किंवा ती आपल्याला फसवणार तर नाही ना ? अशी मनात येणारी दृष्ट शंका. ..किती किती भावना नाही का? 

मी तिच्यावर /त्याच्यावर प्रेम करावे. त्याला /तिला अजिबात जाणीव नसू नये. .मी निष्ठापूर्वक प्रेम करावे त्याची उपेक्षा व्हावी. ..त्यामुळे झालेले दुःख मला प्राणापेक्षा प्रिय आहे. ही कधी संपत नाही अशी गोष्ट आहे नि न संपणारी रात्र आहे. .फक्त आणि फक्तच ज्योत बनून तेवत रहाणे हेच तर खऱ्या प्रेमाचे भाग्यदेय आहे नाही का? ….

पण खेदाची बाब ही आहे की प्रेम या सर्वोच्च भावनेचा, त्याच्या पवित्रतेचा अर्थच लोकांना अद्याप समजलेला नाही.. नसावा त्यामुळे तर विकृती कडे पाऊले उचलली जात आहेत  प्रेमात वासनेला मुळीच स्थान नसते तर तिथे हळूवार नाजूक स्पर्श हवा असतो. दोन जीवांच्या अत्युच्च प्रेमामुळेच तर सृष्टीची निर्मिती झाली आहे. अशक्य ते शक्य करण्याची ताकद प्रेमात असते नुसते मनच नाही तर जगही प्रेमामुळे जिंकता येते. 

प्रेम म्हणजे स्वतः जगणं आणि दुसऱ्याला जगवण आहे… प्रेमाचा परिसस्पर्श ज्याला होतो त्याचे सारे आयुष्य उजळून निघते..म्हणूनच याला देवाघरचे लेणे असे संबोधले आहे…

प्रेम हृदयातील एक भावना.. कुणाला कळलेली.. कुणाला कळून न कळलेली.. कुणी पहिल्याच भेटीत उघड केलेली.. तर कुणी आयुष्यभर लपवलेली… कुणी गंमत करण्यासाठी वापरलेली.. तर कुणाची गंमत झालेली.. कुणाचे आयुष्य उभारणारी.. तर कुणाला आयुष्यातुन उठवणारी….. . फक्त एक भावना…!!

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “तिसरी पोळी…” लेखक – श्री आशिष चांदुरकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ “तिसरी पोळी…” लेखक – श्री आशिष चांदुरकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

पत्नीच्या मृत्यूनंतर, रामेश्वरचे सकाळी आणि संध्याकाळी आपल्या मित्रांसह गप्पाटप्पा करून उद्यानात फिरणे नेहमीचे ठरले होते.

तसा घरात त्याला कोणत्याही प्रकारचा त्रास नव्हता. प्रत्येकजण त्याची खूप काळजी घेत असे. 

आज सर्व मित्र शांत बसले होते. एका मित्राला वृद्धाश्रमात पाठवल्याबद्दल दुःखी होते.

“तुम्ही सर्वजण मला नेहमी विचारत असता मी देवाला तिसरी पोळी कशासाठी मागतो ? आज मी सांगेन.” रामेश्वर बोलला !

“सून तुला फक्त दोनच पोळ्या देते का?” एका मित्राने मोठ्या उत्सुकतेने विचारले !

“नाही यार ! असं काही नाही, सून खूप छान आहे……   वास्तविक “पोळी” चार प्रकारची असते. पहिल्या “मजेदार” पोळीमध्ये “आईची” ममता “आणि” वात्सल्य “भरलेले असते. जिच्या सेवनाने पोट तर भरते, पण मन कधीच भरत नाही. *

एक मित्र म्हणाला, “शंभर टक्के खरं आहे, पण लग्नानंतर आईची भाकरी क्वचितच उपलब्ध असते”.

” दुसरी पोळी ही पत्नीची आहे, ज्यामध्ये आपुलकी आणि समर्पणाची भावना आहे, जी “पोट” आणि “मन” दोन्ही भरते.” तो पुढे म्हणाला

“आम्ही असा विचार केलाच नाही, मग तिसरी पोळी कोणाची आहे? ” मित्राने विचारले.

“तिसरी पोळी ही सूनेची आहे, ज्यात फक्त “कर्तव्या ची” भावना आहे, जी थोडी चव देते आणि पोट देखील भरते, सोबतच चौथ्या पोळीपासून आणि वृद्धाश्रमांच्या त्रासांपासून वाचवते “.

तिथे थोडा वेळ शांतता पसरली !

“मग ही चौथी पोळी कसली आहे?”  शांतता मोडून एका मित्राने विचारले!

“चौथी पोळी ही कामवाल्या बाईची आहे, जिच्याने आपले पोटही भरत नाही किंवा मनही भरत नाही ! चवीचीही हमी नसते.”

“ मग माणसाने काय करावे? …… 

आईची उपासना करा, बायकोला आपला चांगला मित्र बनवून आयुष्य जगा, सूनेला आपली मुलगी समजून तिच्या लहान-सहान चुकांकडे दुर्लक्ष करा. जर सून आनंदी असेल तर मुलगा देखील तुमची काळजी घेईल.

जर परिस्थिती आम्हाला चौथ्या पोळीपर्यंत आणते, तर देवाचे आभार माना की त्याने आपल्याला जिवंत ठेवले आहे, आता चवीकडे लक्ष देऊ नका, फक्त जगण्यासाठी फारच थोडे खावे जेणेकरुन म्हातारपण आरामात कापले जाऊ शकेल.” 

सर्व मित्र शांतपणे विचार करीत होते की, खरोखरच आपण किती भाग्यवान आहोत !!

लेखक : आशिष चांदुरकर

(गोधनी रेल्वे, नागपुर)

प्रस्तुती : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “पैशाची रोख देवघेव करणारे स्वयंचलित यंत्र ”- मूळ लेखक: अज्ञात ☆ अनुवाद – सुश्री सुलू साबणे जोशी  ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “पैशाची रोख देवघेव करणारे स्वयंचलित यंत्र ”  – मूळ लेखक:  अज्ञात ☆ अनुवाद – सुश्री सुलू साबणे जोशी 

   

(ATM – Automated Teller Machine) — हे आता आपल्या आयुष्याचा एक अपरिहार्य भाग झालेले आहे.                                                             

स्नानपात्रात (टबमध्ये) बसून स्वतःच्याच आळशीपणावर वैतागलेल्या जॉन शेफर्ड-बॅरॉनला (हा शिलाँगमध्ये जन्मलेला स्कॉटिश इसम) अकस्मात स्फूर्तिदेवता प्रसन्न झाली. १९६०च्या मध्यास, एके दिवशी बँकेतून पैसे काढायला म्हणून हा गेला आणि नेमका बँक बंद झाल्यावर एक मिनिट उशीरा पोहोचला. त्यामुळे झालं काय की, सप्ताहाची अखेर त्याला पैशांविना घालवावी लागली.  तो चडफडला, विचारात पडला की, ‘बँकेच्या कामकाजाच्या वेळाव्यतिरिक्त पैसे काढता यायला हवेत. काय करावं बरं?’  

दिवसाच्या किंवा रात्रीच्या कुठल्याही वेळी पैसे टाकल्यावर चॉकलेट देणारे स्वयंचलित विक्रीयंत्र त्याच्या मनःचक्षूंसमोर चमकून गेले. अशा त-हेने, एका मुद्रणसंस्थेत काम करणा-या शेफर्ड-बॅरॉनने एक स्वयंचलित रोख पैसे देणारी पद्धती शोधून काढली.  

१९६०च्या अखेरीस अकस्मात एक दिवस जेवणाच्या सुट्टीत त्याची गाठ बार्कलेज बँकेच्या महाव्यवस्थापकांशी पडली आणि त्यांच्याकडे केवळ ९० सेकंदांचा वेळ मागून, छानशा गुलाबी वाईनचे घुटके घेत शेफर्ड-बॅरॉनने आपल्या अभिनव स्वयंचलित रोखीच्या यंत्राची कल्पना त्यांच्यापुढे मांडली. “तुम्ही तुमच्या बँकेशेजारी एक खाच बसवली, की ज्यात तुमचा अधिकृत धनादेश टाकला, तर तिथून कोणत्याही वेळेला प्रमाणित रोकड मिळू शकेल, अशा कार्यपद्धतीची कल्पना माझ्याकडे आहे.”  त्यावर बँकेचे महाव्यवस्थापक म्हणाले, “तू सोमवारी सकाळी मला येऊन भेट.”  

बार्कलेज बँकेने शेफर्ड-बॅरॉनला सहा स्वयंचलित रोखीची यंत्रे कार्यान्वित करण्याचे काम दिले. त्यापैकी पहिले यंत्र लंडनच्या उत्तर भागातील एन्फिल्ड उपनगरात दि.२७ जून १९६७ रोजी बसविण्यात आले.                                                                       

शेफर्ड-बॅरॉनचा जन्म १९२५ साली, भारतात शिलाँग येथे झाला. पुढे त्याने भारतीय सैन्याच्या हवाई दलाच्या दुस-या तुकडीत नोकरी केली आणि गुरखा सैनिकांना हवाई छत्रीचे प्रशिक्षण दिले.                                                                  

तसाच त्याने अजून एक अभिनव शोध लावला – भारतीय सैन्यातील परिचय क्रमांकाप्रमाणे PIN चा (Personal Identification Number) शोध ! सुरूवातीला त्याने हा क्रमांक सहा अंकी करण्याचे ठरवले. पण त्याच्या पत्नीने – कॅरोलिनने तक्रार केली की सहा अंकी क्रमांक फार लांबलचक होतो, म्हणून त्याने तो चार अंकी केला. त्याची आठवण सांगतांना त्याने म्हटले की, “स्वयंपाकाच्या मेजावर चर्चा करतांना ती म्हणाली की, चार अंक सहजपणे तिच्या लक्षात रहातात. मग काय? चार अंकी क्रमांकाला मिळून गेला जागतिक दर्जा.”   

ही गोष्ट शक्य होण्याचे कारण म्हणजे भारतीय प्रतिभावान गणितज्ञ – श्रीनिवास रामानुजन — अपारंपारिक प्रतिभावान गणितज्ञ – श्रीनिवास रामानुजन् यांनी गणिताचे कोणतेही अधिकृत शिक्षण घेतले नव्हते आणि मद्रास विद्यापीठातही त्यांना पुढचे शिक्षण घेता आले नव्हते. परंतु त्यांचे मद्रास पोर्ट ट्रस्टमधील कार्यालयीन वरिष्ठ, जे इंग्लिश होते, त्यांनी ट्रिनिटी कॉलेज, केंब्रिजमधील प्राध्यापक हार्डी यांच्याशी पत्रव्यवहार करण्यास त्यांना उद्युक्त केले. श्रीनिवास रामानुजन् यांनी आपली गणितीय समीकरणे मांडून एक भले मोठे पत्र लिहिले, ज्यामुळे प्रा. हार्डी अतिशय प्रभावित झाले. त्यांनी कुठल्याही पूर्वपरीक्षेशिवाय, इतकेच काय, अत्यंत कठीण समजली जाणारी ‘ट्रायपॉस परीक्षा’ पास होण्याच्या अटीशिवाय श्रीनिवास रामानुजन् यांचा कॉलेज-प्रवेश नक्की करून टाकला. केंब्रिजच्या ट्रिनिटी कॉलेजने सर्व नियम मोडून टाकून त्यांना कॉलेज-प्रवेश दिला नसता, तर त्यांना आपल्या ‘विभाजन सिद्धांता’ने प्राप्त झालेल्या जागतिक ख्यातीला वंचित व्हावे लागले असते, यात शंकाच नाही. 

जेव्हा तुम्ही तुमचे डेबिट किंवा क्रेडिट कार्ड यंत्रामध्ये सरकवता आणि तुम्हाला हवी असलेली रक्कम यंत्राने द्यावी, असे फर्मावता – तेव्हा यंत्र तुम्हाला हव्या असलेल्या रकमेचे विभाजन – रामानुजन् ‘विभाजन सिद्धांता’नुसार करून ती तुमच्या हाती पडेल, असे बघते. जसे की पुढीलप्रमाणे :-                           

अंकगणितात सकारात्मक पूर्णांकांचे विभाजन (n), जे पूर्णांक विभाजन म्हटले जाते, ती ‘n’ ही सकारात्मक पूर्णांकांची बेरीज पद्धति आहे. दोन बेरजा ज्या दोन किंवा अधिक प्रमाणात वेगवेगळ्या निर्दिष्टांमध्ये दर्शविल्या असतील, त्याही समान विभाजन मानल्या जातील.                                                                                                                     

उदा. “४” ह्या संख्येचे विभाजन पाच प्रकारे करता येईल :-                                              

४  =   ३ + १                                                             

         २ + २                                                                   

         २ + १ + १                                                              

         १ + १ + १  + १                                                                                                   

 हे स्वयंचलित रोखीचे यंत्र ह्या श्रीनिवास रामानुजन् यांच्या ‘विभाजन सिद्धांता’नुसार बरोबर रकम रोख अदा करते.

(एक छानशी टिप :- श्रीनिवास रामानुजन नावाच्या प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञांच्या नावाने ‘रामानुजन समेशन’ म्हणून ओळखल्या जाणार्‍या या मालिकेबद्दल तुमच्यापैकी जे अपरिचित आहेत त्यांच्यासाठी: – त्यात असे नमूद केले आहे की तुम्ही सर्व नैसर्गिक संख्या जोडल्यास, म्हणजे 1, 2, 3, 4, आणि असेच, अनंतापर्यंत सर्व मार्ग, तुम्हाला ते  -1/12 च्या बरोबरीचे आढळेल.) 

तर, दोन अत्यंत आदर्श सद्गृहस्थ, जे कधीही एकमेकांना भेटले नाहीत आणि ज्यांनी आपल्या संशोधनाच्या/कल्पनेच्या स्वामित्वहक्काबद्दल जराही फिकीर केली नाही, त्यांच्या अलौकिक प्रतिभेचा आविष्कार म्हणजे स्वयंचलित रोखीच्या यंत्राकडून तुमच्या हातात पडणारी रोकड !  

आता जेव्हा जेव्हा तुम्ही स्वयंचलित रोखीच्या यंत्रासमोर उभे रहाल, तेव्हा या दोन प्रतिभावंतांची जरूर आठवण करा – एक, ज्याला कल्पना सुचली आणि दुसरा, ज्याला स्वयंचलित रोखीचे यंत्र अवतरण्यापूर्वी त्याच्यासाठी वापरायची गणिती कार्यपद्धती सुचली.   

(मूळ इंग्लिश लघुलेखाचे हे रूपांतर आहे.)

मूळ लेखक:  अज्ञात

अनुवाद : सुश्री सुलू साबणे जोशी

मो – 9421053591

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ मराठी भाषेचे सौंदर्य पहा… ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

सौ अंजली दिलीप गोखले

? वाचताना वेचलेले ?

☆ मराठी भाषेचे सौंदर्य पहा… ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले

इलेक्ट्रिकच्या  दुकानवाल्याने फलकावर लिहिलं होतं..

” तुमच्या बुध्दीचा प्रकाश पडो ना पडो, आमच्या बल्बचा नक्की पडणार “.. 

 

इलेक्ट्रॉनिक दुकानावर लिहिलेलं वाचून माझं मन भरून आलं ..

“आपला कुणी फॅन नसेल तर आमच्याकडून एक घेऊन जा “..

 

चहाच्या टपरीवर असाच फलक होता..

” मी साधा माणूस आहे पण चहा मात्र खास बनवतो..”

 

एका उपाहारगृहाच्या  फलकावर वेगळाच मजकूर होता  ..

” इथे घरच्यासारखं खाणं मिळत नाही, आपण बिनधास्त आत या..” 

 

पाणीपुरीवाल्यानं लिहिलं होतं..

” पाणीपुरी खाण्यासाठी मन मोठं नसलं तरी तोंड मात्र मोठं हवं ” ..

 

फळं विकणाऱ्या माणसाने तर कमालच केली. ..

“तुम्ही फक्त पैसे देण्याचे कर्म करा, फळं आम्ही देऊ “.. 

 

घड्याळाच्या दुकानदाराने अजब मजकूर लिहिला होता  ..

” पळणाऱ्या वेळेला काबूत ठेवा, पाहिजे तर भिंतीवर टांगा किंवा हातात बांधा..”

 

ज्योतिषाने फलक लावला होता आणि त्यावर लिहिलं होतं…..

” या आणि फक्त १०० रुपयांत आपल्या आयुष्याचे पुढील एपिसोड बघा …”

 

आणि आमच्या ग्रुपवर लिहिले होते …… 

इथे दररोज येऊन तर बघा

सर्व अडचणी विसरून जाल… 

संग्रहिका – सौ अंजली दिलीप गोखले 

मो 8482939011

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “आधुनिक वटपौर्णिमा…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “नातं अश्रूंचं…” ☆ सौ राधिका भांडारकर

त्यादिवशी  माझी मदतनीस निर्मला मला म्हणाली, “ ताई आताशा मले रडाया बी येत नाय. इतकं दुःख पेललंय् की डोळ्यातलं सारं टिप्पूस पार सुकूनच गेलय  बगा.”

ती इतकी सहज आणि निर्विकारपणे  हे उद्गारली की तिच्या वक्तव्याने माझ्या डोळ्यातून टपकन अश्रू ओघळले. आणि त्याच क्षणी जाणवलं तिच्या कोरड्या डोळ्यांशी माझं अश्रूंचं एक कणवेच नातं होतं. एक स्त्रीत्वाचा जाणता गहिवर होता. 

… असे कित्येक अश्रू मी माझ्या हृदयात सांभाळून ठेवलेत.  कारण त्यांच्याशी माझं खोल नातं आहे.

अश्रू आनंदाचे, अश्रू दुःखाचे, वियोगाचे, भेटींचे, निरोपाचे, कधी ते केवळ आपल्याशी संबंधित तर कधी अवाढव्य पसरलेल्या या जगात कुणाकुणाच्या डोळ्यातून वाहताना पाहिलेले, अनपेक्षित आणि साक्षी भावाने.  त्या त्या वेळी त्या अश्रूंविषयी उमटलेल्या भावनांशी  माझ्या अस्तित्वाचा, माझ्या सजीवतेचा दाखला देणारं नातं नक्कीच होतं.  त्या साऱ्यांचे फायलिंग माझ्या अंतःकरणात वेळोवेळी झालेलं आहे. 

माझ्या आजीचं हार्नियाचं ऑपरेशन होतं. १९५६ साल असेल ते.  त्यावेळी शल्यशास्त्र आजच्या इतकं प्रगत नव्हतं.  माझे पपा अत्यंत अस्वस्थ, व्याकूळ होते. पपांनी आम्हा साऱ्यांसाठी त्यांच्या डोळ्यातलं पाणी बांधून ठेवलं होतं. पण जेव्हा डॉक्टर ओ.टी. मधून बाहेर आले आणि पपांचे  हात हाती घेऊन म्हणाले,” डोन्ट वरी.  ऑपरेशन ईज सक्सेसफुल. ” ….  हे ऐकल्यावर माझे पपा  भवताल विसरून ढसढसा रडले. इतका वेळ धरुन ठेवलेला चिंतेचा लोंढा अश्रूंच्या रुपात वहात होता.  त्या अश्रूंच्या पावसात मीही भिजले. वास्तविक तो क्षण किती आनंदाचा, तणाव मुक्ततेचा होता ! पण त्यावेळी जाणवलं होतं ते मात्र माय लेकाचं घट्ट नातं ! ते त्या अश्रूंमध्ये मी पाहिलंं आणि माझ्या मनात कायम रुजलं.

अगदी आजही रणजीत देसाईंची “स्वामी” कादंबरी वाचताना शेवटचा— रमा सती जातानाचा जो प्रसंग आहे तो वाचताना माझ्या डोळ्यात पाणी येतच.  हे अश्रू म्हणजेच त्या प्रसंगाशी, त्या शब्दांशी जुळलेलं एका  वाचकांचं नातं असतं. 

गीत रामायणातलं सीतेच्या मुखातलं… मज सांग लक्ष्मणा जाऊ कुठे?

                                                          पती चरण पुन्हा मी पाहू कुठे?

हे गाणं आणि तिने फोडलेला टाहो ऐकून ज्याचे हृदय आणि  डोळे भरून येणार नाहीत तो माणूसकुळातलाच  नाही असेच मी म्हणेन.  कारण माणसाच्या संवेदनशील मनाशी अश्रूंचं थेट नातं असतं.  ते सदा वाहत असतं, वारंवार जाणीव करून देणार असतं.

पु.लंचे चितळे मास्तर जेव्हा म्हणतात, ” अरे पुर्षा ! आमच्या डोळ्यातच मोतीबिंदू असणार.  खरे मोती आम्ही कुठे पाहणार?”

… असं अल्प शब्दातलं पण इतकं खरं दारिद्र्याचं  स्वरूप पाहताना डोळे पाझरणारच ना?

माणूस दुःखातच रडतो असं नाही. सुखातही ओलावतो. शब्दात, कथेत, गाण्यात, अपयशात आणि यशातही ओलावतो. शिखरावर पोहचल्यानंतर माथ्यावरच्या आकाशाकडे  तो साश्रु नयनाने पाहतो. ते अश्रु काहीतरी साध्य केल्याचं समाधान देणारे असतात. ब्रह्मपुत्रा नदीचे विस्तीर्ण पात्र पाहताना त्या दिव्यत्वाच्या तेजानेही मी पाझरले. ही अशी अव्यक्त नाती फक्त अश्रूच  व्यक्त करतात… नि:शब्दपणे. जिथे शब्द संपतात तिथूनच अश्रूंचं नातं सुरु होतं.

वीस-बावीस वर्षांनी जेव्हां  मी माझ्या मावस भावाला अमेरिकेत भेटले, तेव्हा कितीतरी वेळ आम्ही एकमेकांशी बोलूही शकलो नाही.  नुसते डोळे वाहत होते आणि वाहणाऱ्या डोळ्यातून आमचं सारं बालपण पुन्हा पुन्हा दृश्यमान होत होतं.  एका रम्य काळाचं प्रतिबिंब त्या अश्रूंच्या पाण्यात उमटलं  होतं.  हे लिहिताना आताही  या क्षणी माझे डोळे ओलावलेले आहेत. 

… नात्यातल्या प्रेमाची एक खरी साक्ष हे अश्रूच देतात.

एकदा आमच्या घरी काम करणाऱ्या गणूला एक पत्र आलं होतं.  त्याने ते वाचलं, डोळे पुसले आणि पत्राची पुन्हा घडी करून ठेवली.  मला वाटलं काहीतरी दुःखद घटना घडली असावी गणूच्या गावी.  म्हणून मी चौकशी केली, तेव्हा त्याने आढेवेढे घेतले आणि मग तो हळूच म्हणाला, ” माझ्या कारभारणीचा कागद हाय.” आणि तो कागद त्याने माझ्या हातात दिला.  मी तो उलगडला तर काय एका कोऱ्या कागदावर ओल्या थेंबामुळे  पुसलेली एक आडवी रेष होती फक्त.  मी गणूकडे पाहिलं तेव्हा तो इतकंच म्हणाला, 

” तिला लिवता वाचता येत नाय.” डोळ्यातल्या थेंबाने पुसलेली रेष जणू हेच सांगत होती का?…  ” तुमची भारी सय येते धनी.” वाह ! क्या बात है ! एका कागदावर एक सुकलेला अश्रू अंतःकरणातल्या खोल भावनाही किती सुंदरपणे व्यक्त करू शकतो !

” गड आला पण सिंह गेला ! “ हे म्हणताना तो युगपुरुषही अश्रूंना थोपवू शकला नव्हता. त्या स्वामीभक्ताला प्रत्यक्ष स्वामींनी दिलेली ही साश्रु मानवंदना इतिहासात कोरली गेली.

… अनेक प्रसंग अश्रूंच्या माध्यमातून असे कोरले गेले आहेत.

आमच्या एका मित्राने मृत्यूशी  अचाट झुंज देऊन जगाचा निरोप घेतला.  त्याचा लोकसंग्रह,  लोकप्रियता अफाट होती. त्याच्या अंत्यदर्शनाला सारा गाव लोटला होता. पण हा माणूसप्रिय आत्मा शांत पहुडला होता.  त्याची पत्नी शांत होती. स्वतःला सावरत होती. वयाच्या अठराव्या  वर्षापासूनच्या जीवनसाथीला निरोप देणं किती कठीण होतं !  पण तो एक क्षण माझ्या मनात घर करून आहे. खूप प्रेमाचं नातं होतं त्यांचं.  तसं परिपूर्ण आयुष्य दोघांनी जगलं होतं.  जेव्हां त्याच्या निर्वाणाची  वेळ आली तेव्हां तिच्या डोळ्यातून गळलेला अश्रू त्याच्या स्थिर निश्चल पापणीवर ओघळला आणि त्याच क्षणी त्याचा देह  चार खांद्यावर विसावला. त्यावेळी माझ्या मनात आलं ‘ हा सारं वैभव इथेच ठेवून गेला पण जाताना पत्नीच्या प्रेमाचा एक अश्रू मात्र सोबत घेऊन चाललाय.’  त्या अश्रूशी  त्याचं असलेलं नातं चिरंतन होतं. 

आमच्या आईनेही जाताना शेवटच्या क्षणी आम्हा पाची बहिणींना जवळ घेतलं, आणि एवढेच म्हणाली, ” मी तृप्त आहे. माझी जीवनाविषयी कोणतीही तक्रार नाही. तुम्ही साऱ्या सुखी रहा. शोक करु नका. ” बोलताना तिच्या डोळ्यातून अश्रू वाहत होते. निरोपाचाच तो क्षण. तिचा एक एक अश्रू म्हणजे जीवनातल्या मूल्यांचा, संस्काराचा  एक एक मोती होता.  जगातले सारे मोती एकत्र केले ना तरी या एका अश्रूच्या थेंबांची किंमत त्यांना लाभणार  नव्हती. तो एका स्त्रीचा, आईचा अश्रू होता. महान, शक्तिमान… तिची शक्ती त्या अश्रूंच्या माध्यमातून जणू आमच्यात झिरपत होती.

तेव्हा हे असं आहे अश्रूंचं नातं…..  

आता नक्राश्रू, रुदालीचे अश्रू, मोले घातले रडाया, या शब्दप्रयोगांना आपण तूर्तास तरी दूर ठेवूया आणि अश्रूंशी जीवनभर असलेल्या नात्याला रचनात्मक रितीने स्मरूया. 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

radhikabhandarkar@yahoo.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “तिचं मंगलपण…” भाग-2 ☆ सुश्री मृणालिनी चितळे ☆

सुश्री मृणालिनी चितळे

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☆ “तिचं मंगलपण…” भाग-2 ☆ सुश्री मृणालिनी चितळे 

गणितज्ञ डॉ. मंगल नारळीकर

(करोना काळात  घराघरातून सॅनिटायझरने भाज्या, फळे धुतली गेली नि करोनाचा प्रादुर्भाव कमी झाला तशी ही कृती विस्मृतीत गेली. मंगलताई मात्र कटाक्षाने स्वयंपाकघरातील विज्ञान कायम आचरणात आणत आहे.) इथून पुढे —

प्रत्येक गोष्टीचा वापर… पुनर्वापर 

होता होई तो, एकही गोष्ट वाया घालवायची नाही आणि पर्यावरणाला हानी पोचेल असं काही करायचं नाही याचा वसा तिनं घेतला आहे. त्यासाठी तिच्यातील कलागुणांना तिनं कल्पकतेची जोड दिली आहे. सभासमारंभात मिळणाऱ्या शालींचे  मुलांसाठी गरम कोट स्वत: शिवून अनेकांना भेट दिले आहेत. लहान मुलांसाठी कपडे शिवताना कपड्यांना ती अस्तर अशा खुबीने लावते की त्याची शिवण अजिबात टोचू नये. साडीबरोबर येणाऱ्या डिझाईन्सच्या ब्लाउज पिसमधून नातींसाठी झबली, परकर पोलकी शिवली आहेत. नुकतंच तिनं मला मायक्रोव्हेवमध्ये ठेवून गरम करता येईल असं हिटिंग पॅड भेट दिलं. आयताकृती कापडाला कप्पे करून त्यामध्ये धान्य भरल्यानंतर ते शिवून टाकले होते. मायक्रोव्हेवमध्ये ठेवल्यावर हे पॅड त्यातील धान्यासह गरम होते आणि बाहेर काढून मस्त शेक घेता येतो. हे पॅड कुणाकडे तरी पाहून तिनं बनवलं असलं तरी ते बनवण्यासाठी घेतलेले कष्ट आणि सुबकता वाखाणण्याजोगी आहे. लॉक डाऊनच्या सुरवातीला जुन्या मऊ साड्या वापरून, तिनं तीन पदरी मास्क बनवले. अगदी एन ९५ मास्क इतकेच सुरक्षित ठरावेत असे. दरवर्षी राख्या ती स्वत: बनवते. एकदा तिच्या राहत्या इमारतीच्या वरती मधमाशांनी पोळी केली. माणूस बोलवून तिनं पोळी तर उतरवलीच पण त्यानंतर स्वच्छ कापडानं मध गाळून घरोघर वाटण्याचा उपद्व्याप केला. घरात नवा फ्रिज घेतल्यावर त्याचं भलं मोठं खोकं टाकून न देता नातींना खेळायला दिलं. नातींनी त्यामध्ये दारखिडक्या कापून एक झोपडी बनवली. उरलेल्या कचऱ्यातून मंगलताईनं झोपडीच्या दारांसाठी कड्या – नातींच्या शब्दात ‘क्लेव्हर बोल्ट.’ बनवले. आजीनातींचा खेळ अजूनही रंगला असता, परंतु दिवाणखान्यात ती झोपडी इतकी मध्येमध्ये यायला लागली की तिला आपल्या घरी घेऊन जाण्याचा वटहुकुम जयंतरावांना काढावा लागला. अलीकडे ते थकल्यामुळे पायी फिरायला बाहेर पडलं की त्यांना मध्येमध्ये बसावं लागे. वाटेत बाक असत, पण त्यांची उंची कमी असल्याने ते सोयीचे ठरत नसत. मंगलताईनं लगेच यावर तोडगा काढला. घरच्या उशीला पट्टा शिवला. पर्सप्रमाणे ती उशी स्वत:च्या खांद्याला लटकवून फिरायला जाण्यात खंड पडू दिला नाही.   

 

लेखन… वाचन… सामाजिक बांधिलकीचं भान…

जयंतराव आणि मंगलताई दोघांनाही अभिजात साहित्याची विलक्षण जाण आहे आणि आवडही. त्यांच्या दिवाणखान्यातील कपाटं पुस्तकांनी खचाखच भरलेली असतात आणि टीपॉयवर पुस्तकं नि मासिकं ढिगानं रचलेली असतात. दोघांनी विपुल लेखन केलं आहे. मंगलताईनं तिच्या लेखनातून आपल्या समाजातील चुकीच्या प्रथापरंपरांवर अनेकदा टीका केली आहे तर कधी अनेक गोष्टींमागचं विज्ञान उलगडून दाखवलं आहे. जयंतरावांनी लिहिलेल्या ‘आकाशाशी जडले नाते’ या ग्रंथांचे तिनं इंग्रजीत भाषांतर केले आहे. दोन्ही भाषांवर प्रभुत्व असल्यामुळे ही गोष्ट शक्य झाली, हे निश्चित ! तिला आवडलेली पुस्तकं अनेकांपर्यंत पोचावी, या उद्देशानं, ती पुस्तकांच्या प्रती विकत घेऊन ग्रंथालयांना भेटीदाखल देते. लेखनवाचनाइतकाच शिक्षकी पेशा तिच्या रोमारोमात भिनला आहे. तिचं वैशिष्ट्य असं की पदव्युत्तर विद्यार्थ्यांना शिकवताना तिला जेवढा आनंद मिळतो तेवढाच आनंद पहिली दुसरीतल्या मुलांना शिकवताना मिळतो. काय शिकवतो यापेक्षा आपण जे शिकवतो ते समोरच्यापर्यंत पोचणं तिला महत्वाचं वाटतं. आत्तापर्यंत आर्थिक कमकुवत गटातील असंख्य शाळकरी मुलांना तिनं तन्मयतेनं शिकवलं आहे. अनेकांना शिक्षण, आजारपण यासाठी मदत केली आहे, परंतु लग्नखर्चासाठी म्हणून कुणी पैशाची मागणी केली तर ती नाकारण्याइतका सडेतोडपणा तिच्यापाशी आहे.

 

आजाराशी दोन हात

विविध आघाड्यांवर कार्यरत असताना १९८६ साली वयाच्या त्रेचाळीसाव्या वर्षी कॅन्सरशी सामना करायची वेळ तिच्यावर आली. शरीरमनाची ताकद खच्ची करणाऱ्या आजाराला तिनं खंबीरपणे तोंड दिलं. त्यानंतर १९८८ साली आणि अलीकडे २०२१ आणि २०२२ साली त्यानं परत डोकं वर काढलं. प्रत्येक वेळी आपली सारी व्यवधानं सांभाळत अपराजित वृत्तीनं ती लढली आहे. आजही लढत आहे. तिच्या तिन्ही मुली आणि जगभर विखुरलेले असंख्य सुहृदजन तिची काळजी घेत आहेत. तिची हिंमत पाहून स्तिमित होत आहेत. 

मंगलताईच्या व्यक्तिमत्वाचं एका शब्दात वर्णन करायचं ठरवलं तर ओठावर शब्द येतो, ‘सहजता’. सहजता हाच तिच्या व्यक्तिमत्वाचा स्थायीभाव आहे. एकाच वेळी ती करत असलेल्या असंख्य गोष्टी पाहून बघणाऱ्याला वाटतं हे सगळं सहजसोपं असतं म्हणून. कारण हे सगळं करताना आपण खूप काही करतोय असा तिचा भाव नसतो नि अभिनिवेशही. असते ती तिची गणिती बुद्धी आणि कलावंताची मनस्वी वृत्ती. त्यामुळे काळ, काम वेगाचं व्यस्त गणित ती बिनचूक रीतीनं सोडवू शकली आहे. तिच्या वाट्याला आलेली प्रश्नपत्रिका नक्कीच सोपी नव्हती. कठीण प्रसंग… अवघड माणसं तिच्याही आयुष्यात आली. परंतु रडतकुढत न बसता सगळ्यांना तिनं व्यवस्थित कोष्टकात बसवलं. तिच्या बोलण्यात स्पष्टपणा असतो, तेवढाच मायेचा ओलावाही. शिस्त असते, पण शिस्तीची धास्ती वाटावी इतकी कठोर ती कधीच नसते. यातच तिच्या व्यक्तिमत्वातील ‘मंगलपण’ सामावलेलं आहे. 

***समाप्त***

© सुश्री मृणालिनी चितळे

मोबाईल ९८२२३०१७५० 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ अतिप्राचीन अतिप्रगत हिंदुस्तानी संख्या मापन… ☆ प्रस्तुती – डाॅ. शुभा गोखले ☆

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१०,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,००,०००

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मोजा आणि इतरांनाही सांगा….. 

संग्राहिका :  डॉ. शुभा गोखले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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