हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ डॉ लता अग्रवाल की हिन्दी लघुकथा ‘अर्धांगिनी’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। )

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम डॉ लता अग्रवाल जी  की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘अर्धांगिनी’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद ‘अर्धांगिनी

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डॉ लता अग्रवाल

(सुप्रसिद्ध हिंदी वरिष्ठ साहित्यकार  एवं शिक्षाविद डॉ लता अग्रवाल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । आप महाविद्यालय में प्राचार्य पद  पर सेवारत हैं । प्रकाशन शिक्षा पर – 16 पुस्तकें, कविता संग्रह –4,  बाल साहित्य – 5, कहानी संग्रह – 2, लघुकथा संग्रह – 5, साक्षात्कार संग्रह –1, उपन्यास – 1, समीक्षा – 3, लघुरूपक – 18 । पिछले 10 वर्षों से आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर संचालन, कहानी तथा कविताओं का प्रसारण, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में रचनाएँ प्रकाशित | )

☆ अर्धांगिनी 

“अच्छा ! माँ –बाबा ! मैं चलता हूँ।”

“कितनी बार कहा है चलता हूँ नहीं आता हूँ कहते हैं बेटा।” मां ने गंभीर चेहरे पर बनावटी शिकायत का भाव लाते हुए कहा।

“ओह हां ! आता हूं माँ –बाबा।” अभी 8 ही दिन हुए हैं अवधेश के विवाह को, पूरे 1 माह की छुट्टी लेकर आया था, विवाह के पश्चात पत्नी को कहीं मनोरम स्थान पर घुमाने ले जायेगा …दोनों एक दूसरे के मन के भाव जानेंगे, मगर अटारी बॉर्डर पर हुए सैनिक हमले में कई सैनिक मारे गए अतः हेड ऑफिस से कॉल आया,

‘लेफ्टिनेंट अवधेश ! इमीजियेट ज्वाइन योर ड्यूटी।’ आदेश पाते हैं अवधेश ने जब अपनी नवविवाहित पत्नी से सकुचाते हुए कहा,

“सीमा ! हेड क्वार्टर से बुलावा आया है मुझे अर्जेंट ही जाना होगा।”

“क्या कल ही चले जायेंगे ?”

“हां ! अलसुबह निकलना होगा।”

“कुछ दिन और नहीं रुक सकते।” सीमा ने आत्मीय भाव से पूछा।

“नहीं सीमा उधर बॉर्डर पर मेरी आवश्यकता है …मेरा इंतजार हो रहा होगा। पता नहीं मेरे कौन-कौन साथी …।” अपने अनजाने खोये साथियों के शोक की कल्पना में अवधेश के स्वर डूब गये।

“फिर कब लौटना होगा ?”

“कह नहीं सकता …जब तक सीमा पर शांति बहाल ना हो या …शायद ……।”

“बस आगे कुछ मत कहिए, अच्छा सोचिये सब शुभ होगा।” सीमा ने पति के होठों पर प्यार से उंगली रखते हुए कहा।

“मैं जानता हूँ सीमा यह सप्ताह तुम्हारा रीति रिवाजों की औपचारिकता और मेहमान नवाजी के बीच बीत गया और अब हमें अपना हनीमून भी कैंसिल करना होगा मैं तुम्हें कुछ नहीं दे पाया उल्टे अब घर की मां -बाबा की देखभाल भी तुम्हें सौंपे जा रहा हूं। ” अवधेश ने सीमा को सीने से लगाते हुए कहा।

“आप चिंता मत कीजिए जी, हम सैनिकों की पत्नियों को ईश्वर अतिरिक्त साहस और धैर्य देकर भेजता है। आप निश्चिंत रहें आपके लौटने तक मैं मां -बाबा का पूरा ख्याल रखूंगी और आपका इंतजार करूंगी।” पत्नी ने अवधेश के मन का बोझ उतार दिया। अत: आज जाते हुए अवधेश स्वयं को  हल्का महसूस कर रहा था अपना प्रतिनिधि मां -बाबा की सेवा के लिए जो छोड़े जा रहा था। जाते हुए घर के बाहर गांव के कई लोग जमा थे बुजुर्ग कह रहे थे,

‘गांव के अपने इस लाड़ले पर हमें नाज है।’ युवा, बच्चे सभी अवधेश को सैल्यूट देते हुए,

‘जय हिन्द अवधेश भैय्या’ कह रहे थे।  दूर दहलीज पर पर्दे की ओट में खड़ी सीमा की ओर देखते हुए आंखों में कृतज्ञता का भाव लिए अवधेश ने एक जोरदार सैल्यूट दिया,

‘थैंक्स अर्धांगिनी, सही मायने में सैनिक तो तुम हो जो अपने जीवन के अमूल्य पल हंसते- हंसते हम पर कुर्बान कर देती हो।’ भाव सीमा तक पहुंच गये थे, उसके मुट्ठी के कसाव ने पर्दे  को जोर से भींच लिया ।

© डॉ लता अग्रवाल

भोपाल, मध्यप्रदेश मो – ९९२६४८१८७८

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☆ अर्धांगिनी 

(मूळ  रचना –  डॉ लता अग्रवाल भोपाल  अनुवाद – उज्ज्वला केळकर  )

 ‘अच्छा! आई-बाबा मी जातो.’

‘किती वेळा सांगितलं, जातो, नाही येतो, म्हणावं रे!’ आई गंभीर चेहर्‍याने  खोट्या तक्रारीच्या सुरात म्हणाली.

‘ओह! येतो!’

अवधेशाच्या विवाहाला अद्याप आठ दिवससुद्धा झाले नव्हते. चांगली एक महिन्याची सुट्टी घेऊन आला होता तो. विवाहानंतर पत्नीला एखाद्या निसर्गरम्य ठिकाणी तो घेऊन जाणार होता. दोघांना एकमेकांच्या मनातले भाव नीटपणे जाणून घेता येतील. पण अटारी बॉर्डरवर सैनिकांवर आक्रमण झाले. अनेक सैनिक मारले गेले. हेड ऑफिसमधून त्याला कॉल आला, ’लेफ्टनंट अवधेश, ताबडतोब तुमच्या ड्यूटीवर हजार व्हा.’ आदेश मिळताच अवधेश आपल्या नवपरिणीत पत्नीला संकोचत म्हणाला, ‘सीमा, हेडक्वार्टरवरून आदेश आलाय, मला लगेचच निघायला हवं!’

‘उद्याच निघणार?’

‘हो! उद्या पहाटेच निघायला हवं’

‘आणखी काही दिवस नाही थांबू शकणार?’ सीमानं आत्मीयतेने विचारलं .

‘नाही सीमा, तिकडे बॉर्डरवर माझी वाट बघत असतील. कुणास ठाऊक माझे कोण कोण साथी…’ आपल्या अज्ञात हरवलेल्या साथिदारांच्या शोकाच्या कल्पनेने अवधेशचा स्वर भिजून गेला.

‘परत कधी येणं होईल?’

‘काही सांगता येत नाही. जोपर्यंत सीमेवर शांतीचा वातावरण… किंवा मग…’

‘बस… बस .. पुढे काही बोलू नका. चांगला विचार करा. सगळं शुभ होईल. सीमा पतीच्या ओठांवर बोट ठेवत म्हणाली.’

‘सीमा, हा आठवडा रीती-रिवाजांची औपचारिकता आणि पाहुण्यांचे आदरसत्कार करण्यात निघून गेला॰ आता तर आपल्याला आपला हनीमूनही कॅन्सल करावा लागतोय. मी तुला काहीच देऊ शकलो नाही. उलट आई-बाबांना सांभाळण्याची जबाबदारी तुझ्यावर सोपवून चाललोय.’ सीमाला छातीशी कवटाळत अवधेश म्हणाला.

‘आपण काळजी करू नका. आम्हा सैनिकांच्या पत्नींना ईश्वर अतिरिक्त साहस आणि धैर्य देऊन पाठवत असतो. आपण निश्चिंत रहा. आपण येईपर्यंत आई-बाबांची मी नीट काळजी घेईन आणि आपली वाट पाहीन.’ सीमाने अवधेशच्या मनावर असलेला भार  हलका केला. त्यामुळे आज घरातून बाहेर पडताना अवधेशला अगदी हलकं हलकं वाटत होतं॰ आपल्या आई-बाबांची सेवा करण्यासाठी तो आपला प्रतिनिधी मागे ठेवून जात होता. तो घराबाहेर पडला, तेव्हा बाहेर किती तरी लोक त्याला निरोप देण्यासाठी जमा झाले होते. ज्येष्ठ मंडळी म्हणत होती, ‘गावाच्या या लाडक्या मुलाचा आम्हाला अभिमान आहे.’ तरुण , मुले सगळे अवधेशला सॅल्यूट देत म्हणत होते, ‘जय हिंद अवधेशभैय्या!’ दूर उंबरठ्यावर पडद्याआड उभ्या असलेल्या सीमाकडे बघताना त्याच्या डोळ्यात कृतज्ञता होती. अवधेशने तिला एक जोरदार सॅल्यूट देत, तो डोळ्यांनीच म्हणाला , ‘थॅंक्स अर्धांगिनी खर्‍या अर्थाने तूच सैनिक आहेस. आपल्या जीवनातले अमूल्य क्षण तू हसत हसत आमच्यावरून ओवाळून टाकतेस.’

त्याच्या मनातले भाव सीमापर्यंत पोचले. तिच्या मुठीने पडद्याची कड घट्ट धरून ठेवली.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #4 ☆ मराठी लघुकथा ‘पुतळा’ – हिन्दी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  की मूल मराठी  लघुकथा  ‘पुतळा’ एवं  तत्पश्चात आपके ही द्वारा इस  लघुकथा का हिंदी अनुवाद  ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #4 ☆ 

☆ पुतळा

 ‘साहेब…’

‘बोल….’

‘सरकारच्या प्रत्येक योजनेबद्दल, निर्णयाबद्दल टीका करणं, हीच आपली  पक्षीय नीति आहे. होय नं?’

‘बरं.. मग … ‘

‘मग त्या दिवशी आपण मुख्यमंत्रीजींच्या नव्या घोषणेचं स्वागत कसं केलत?

‘ मी? स्वागत केलं? कसली घोषणा ? कसलं स्वागत ?’

‘तीच घोषणा … नगराच्या मधोमध नेताजींचा पुतळा उभा करायची घोषणा … त्या दिवशी आपण म्हणाला होतात, सरकारच्या सगळ्या विधायक कार्यात आमचा पक्ष सहकार्य करेल. आपल्या दृष्टीने तर सरकारचं कुठलच कार्य विधायक नसतं. मग यावेळी सहकार्याची भाषा कशी काय?

‘अरे, मुर्खा, पुतळा उभा करायचा तर देणग्या गोळा करायला नकोत? ..’

‘हां… ते आहेच.’

‘त्या कामात आपण त्यांना मदत करू .’

‘पण का?’

‘तेव्हाच मग देणगीतील काही पैसा आपल्या तिजोरीत जमा होईल नं?

‘हूं … ‘

‘पुतळा उभा केल्यानंतर कधी-ना-कधी , कुणी-ना-कुणी त्या पुतळ्याची विटंबना करेल किंवा तिथे तोडफोड करेल…’

‘पण असं झालं नाही तर…’

‘ती व्यवस्थादेखील आपण करू. मग आंदोलन होईल. लूट –मार होईल. दंगे-धोपे होतील. तेव्हा मग आपली चांदीच चांदी॰…

 

©श्रीमति उज्ज्वला केळकर

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☆  प्रतिमा

(मराठी कथा – पुतळा   मूळ लेखिका – उज्ज्वला केळकर)

‘साहबजी…’

‘बोल…’

‘सरकार की हर योजना, निर्णय की आलोचना करना , यही हमारी पक्षीय नीति है. है नं?’

‘हं.. तो फिर… ‘

‘तो उस दिन आपने मुख्यमंत्रीजी की घोषणा का स्वागत कैसे किया?’

‘मै ने किया ?  कैसी घोषणा ? कैसा स्वागत ?’

‘वही … नगर के बीचों बीच उस नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा … उस दिन आप ने कहा  था, सरकार के सभी विधायक कार्यों में हमारा पक्ष अपना सहयोग देगा. अपनी दृष्टि से तो सरकार का कोई भी कार्य विधायक हो ही नहीं सकता. तो फिर इस बार सहयोग की भाषा कैसी?

‘अरे, मूरख प्रतिमा बनानी है, तो चंदा इकठ्ठा करना ही पड़ेगा ..’

‘हां! सो तो है !’

‘इस काम में हम उन की मदद करेंगे.’

‘क्यों?’

‘तभी तो चंदे का कुछ हिस्सा अपनी तिजोरी में भी आ जाएगा नं?

‘हूं … ‘

‘प्रतिमा की स्थापना करने के बाद कभी – न – कभी , कोई –न – कोई उस की विडम्बना करेगा. उसे तोड भी सकता है.’

‘मगर ऐसा नहीं हुआ तो…’

‘तो उस की व्यवस्था भी हम करेंगे . तब आंदोलन होगा. लूट-मार होगी. दंगा-फसाद  होगा. तब तो समझो अपनी चांदी – ही – चांदी…’

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #3 ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा की हिन्दी लघुकथा ‘दंतमंजन’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा जी की मूल हिंदी लघुकथा  ‘दंतमंजन ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद  ‘दंतमंजन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #3 ☆ 

सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । आपकी अब तक देश की सभी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018 )

☆ दंतमंजन

महिला समिति की सदस्यों ने इस माह के प्रोजेक्ट के अंतर्गत झुग्गी वासियों की एक बस्ती के स्वास्थ्य जाँच शिविर के आयोजन का निर्णय लिया. तय हुआ कि बस्ती के लोगों का डेंटल चेकअप किया जाय तथा सभी को दंतमंजन निःशुल्क वितरित किए जाएँगे.

निश्चित दिन सभी झुग्गीवासियों को बुलाकर कतार में खड़ा किया गया. दो डॉक्टर उनके दांतों के परीक्षण में जुट गये. अधिकांश लोगों के दांत सड़े हुए, गंदे तथा रोगग्रस्त थे. सभी को दंतमंजन के डिब्बे दिए गये और रोज दांतों की सफाई की हिदायत दी गई. जिनके दांत रोगग्रस्त थे उन्हें दवाइयां भी दी गईं. लगभग पूरा दिन ही इस प्रोजेक्ट में गुजर गया. समिति की सदस्य बड़ी प्रसन्न थीं फोटोग्राफर, पत्रकार भी इस प्रोजेक्ट में उपस्थित थे. काफी सारे फोटोज लिए गये और लम्बी, प्रभावशाली खबर बनाई गई जो अगले दिन स्थानीय अख़बारों में छपनी थी. प्रोजेक्ट की समाप्ति पर सभी महिलाऐं होटल गईं और दिन भर की थकान उतारते हुए ठन्डे पेय,चाय कॉफ़ी और बढ़िया खाना खाया.

अगले दिन समिति की एक सदस्य रविवार के हाट में खरीदारी के लिए गई. सब्जी खरीदकर वह जैसे ही मुड़ी उसने देखा तीन चार लडके दंतमंजन के डिब्बों के ढेर को सजाए गुहार लगा रहे थे –‘दंतमंजन का पांच रूपये वाला डिब्बा चार रूपये में.’ यह उसी बस्ती के लडके थे जहाँ वे कल दन्त परीक्षण के लिए गयी थीं.और उनके मुफ्त बांटे गये दंतमंजन के डिब्बों के आसपास अब अच्छी खासी भीड़ जुटने लगी थी.

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

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☆ दंत मंजन  

(मूळ हिन्दी कथा –दंत मंजन   मूळ लेखिका – नरेंद्र कौर छाबडा  अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

महिला समीतीच्या सदस्यांनी  या महिन्यात एक प्रकल्प हाती घेतला. एका झोपडपट्टीतील लोकांची दंत तपासणी करायची. सगळ्यांची तपासणी झाल्यानंतर दंत मांजनाच्या डब्या तिथे मोफत वाटायच्या.

ठरलेल्या दिवशी तिथे लोकांना एकत्र बोलावले. त्यांना रांगेत उभे केले. डेन्टल सर्जन त्यांचे दात तपासू लागले. अनेकांचे दात किडले होते. हिरड्या रोगग्रस्त होत्या.  दांत तपासणीनंतर सगळ्यांना दंत मांजनाच्या डब्या दिल्या गेल्या. रोज दात स्वच्छ घासण्याची सूचनाही दिली गेली. हा कार्यक्रम संपण्यास पूर्ण दिवस लागला.

समीतीच्या सदस्या प्रसन्न होत्या. फोटोग्राफर, पत्रकारदेखील या कार्यक्रमासाठी उपस्थित होते. खूप फोटो काढले. लांबलचक बातमी तयार केली गेली. दुसर्‍या दिवशीच्या वृत्तपत्रात ती छापून येणार होती. कार्यक्रम संपल्यावर सगळ्या जणी हॉटेलात गेल्या. दिवसभराची थकावट दूर करण्यासाठी काही चविष्ट डिश मागवल्या गेल्या. चहा -कॉफी, थंड पेय पण झाले.

दुसर्‍या दिवशी समीतीच्या एक सदस्या बाजारात काही खरेदीसाठी गेली. खरेदी करून ती वळली आणि तिला दिसलं, तीन चार मुले दंत मांजनाच्या डब्यांचा ढीग लावून ओरडत होती. ‘दंत मांजनाची पाच रुपयाची डबी चार रुपयात…’ ही मुले त्या वस्तीतलीच होती, जिथे त्यांनी दंतमंजनाच्या डब्या मोफत वाटल्या होत्या. त्या डब्यांच्या आसपास चांगली गर्दी जमली होती.

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #2 ☆ सुश्री वसुधा गाडगिल की हिन्दी लघुकथा ‘लाइलाज’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री वसुधा गाडगिल जी की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘लाइलाज ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद  नाइलाज

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #2 ☆ 

सुश्री वसुधा गाडगिल

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री वसुधा गाडगिल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । पूर्व प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य), महर्षि वेद विज्ञान कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर, मध्य प्रदेश. कविता, कहानी, लघुकथा, आलेख, यात्रा – वृत्तांत, संस्मरण, जीवनी, हिन्दी- मराठी भाषानुवाद । सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक, भाषा तथा पर्यावरण पर रचना कर्म। विदेशों में हिन्दी भाषा के प्रचार – प्रसार के लिये एकल स्तर पर प्रयत्नशील। अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलनों में सहभागिता, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ,आकाशवाणी , दैनिक समाचार पत्रों में रचनाएं प्रकाशित। हिन्दी एकल लघुकथा संग्रह ” साझामन ” प्रकाशित। पंचतत्वों में जलतत्व पर “धारा”, साझा संग्रह प्रकाशित। प्रमुख साझा संकलन “कृति-आकृति” तथा “शिखर पर बैठकर” में लघुकथाएं प्रकाशित , “भाषा सखी”.उपक्रम में हिन्दी से मराठी अनुवाद में सहभागिता। मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट, नारनौल (हरियाणा ) द्वारा “डॉ. मनुमुक्त मानव लघुकथा गौरव सम्मान”, लघुकथा शोध केन्द्र , भोपाल द्वारा  दिल्ली अधिवेशन में “लघुकथा श्री” सम्मान । वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। )

☆ लाइलाज

अस्पताल की लेखा शाखा में दोनों लिपिकों की आपस में चर्चा चल रही थी।

” सरकार ने हर मरीज पर राशि भेजी है ! ”

” अच्छा! कितनी ! ”

” पचास हज़ार प्रति मरीज ।”

” बहुत है! ”

” कुर्सी तन्नक इधर लो …हाँ ऐसे! मरीज तक दस हज़ार का इलाज पहुँच रहे हैं । ”

” बाकी चालीस हज़ार! ”

” मंत्रियों, अफसरों, स्वास्थ्य विभाग के अन्य अधिकारियों की तंदुरुस्ती बनाने में… हेंहेंहें..! ”

” महामारी का पैसा भी ड़कार लेंगे! हद है ! ”

” लालच… लाचारी, महामारी को नहीं देखती! ”

” हाँ मित्र, ये महामारी तो एक समय बाद खत्म हो जायेगी लेकिन भ्रष्टाचार की महामारी…ये लाईलाज है!

© वसुधा गाडगिल

संपर्क –  डॉ. वसुधा गाडगिल  , वैभव अपार्टमेंट जी – १ , उत्कर्ष बगीचे के पास , ६९ , लोकमान्य नगर , इंदौर – ४५२००९. मध्य प्रदेश.

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☆ नाईलाज 

(मूल कथा – लाईलाज   मूल लेखिका – डॉ. वसुधा गाडगीळ     अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

 

इस्पितळाच्या लेखा विभागात दोन लिपिक आपापसात बोलता होते.

‘सरकारने प्रत्येक रुग्णासाठी पैसे पाठवले आहेत.’

‘अच्छा! किती? ‘

‘प्रत्येक रुग्णागणिक पन्नास हजार.’

‘खूप झाले ना?’

‘जरा खुर्ची इकडे जवळ सरकवून घे…. हां… अशी …प्रत्येक रुग्णापर्यंत इलाजासाठी दहा हजार पोचतात.’

‘मग बाकीचे चाळीस हजार?’

‘मंत्री, ऑफिसर, स्वास्थ्य विभागातील अधिकार्‍यांना तंदुरुस्त बनवण्यात खर्ची पडतात… हाहाहा…!’

‘महामारीचा पैसासुद्धा गिळून टाकतात हे लोक…  हद्द झाली.’

‘लालसा… लाचारी, महामारी बघत नाही.’

‘होय मित्रा, ही महामारी काही काळाने का होईना संपून जाईल पण भ्रष्टाचाराची महामारी … हिच्यावर काहीsss इलाज नाही.’

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 ☆ मित….. (अंतिम भाग) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 ☆ मित….. (अंतिम भाग) ☆

पुसत तो बाहेर आला. बाहेर येऊन पाहिले तर त्याचे बाबा आणि गावातल्या काही मंडळींची बैठक सुरु होती. जवळजवळ संपण्याच्या तयारीत होती. अब्दुल मियाँ ही बसले होते.

मित जवळ आला तेव्हा बैठक संपली होती जाता जाता अब्दुल मियाँ मितला म्हटले

अब्दुल मियाँ- संभाल लेना बेटा। बच्ची थोड़ी-सी नादान है पर शिक़ायत का कोई मौक़ा नहीं देगी ।

एवढे सांगुन अब्दुल मियाँ चालले  गेले. सगळी मंडळी मितच्या बाबांना शुभेच्छा देत जात होते. बाबा फार खुश दिसत होते. सगळी मंडळी गेल्यावर बाबा त्याच्या जवळ आले.

बाबा- मोठा झालास तू आज…….

आणि हसतच चालले गेले. एवढे खुश बाबा तेव्हाच व्हायचे जेव्हा खुप महत्वाची गोष्ट किंवा महत्वाचा निर्णय करायचे. हे त्याला माहीत होते. तो आई जवळ गेला. आई स्वयंपाक घरात काहीतरी काम करत होती.

मित- आई. अगं काय आहे हे. बाबा असं का म्हणताहेत.  आणि ते अब्दुल मियाँ पण……मला काहीच कळत नाहीये.

आई (हसत) – पण आम्हाला कळले आहे. आणि तुझं लग्न तुझ्या आवडीच्या मुलीशी, मुस्कानशी करून देताहेत तुझे बाबा.

मित(आश्चर्याने) – काय? मुस्कान…. आणि कोणी सांगीतले गं तुला ती मला आवडते म्हणून.

आई –  मग नाही आवडत का? आता झालीय ना बोलणी पुर्ण. आता लपवून काय भेटणार आहे तुला.

मित – अगं कोणी काय केलं. मला काही कळू देशील का?

आई- अरे, लग्न ठरलंय तुझं मुस्कानशी. तुच नाही का तिला पाहायला जायचा. ती पण तुझीच वाट पाहायची म्हणे. सगळ्या गावात चर्चा चालली होती. तिच्या बाबांना कळलं आणि ते आले होते घरी. तूझे बाबा पण लगेच तयार झाले लग्नाला. त्यांनीच ठरवलं. तुझ्या बाबांनाही आवडते ती मुलगी.

मित- अगं मी आणि तिला पाहायला. आई तुम्ही उगाच काहीही समजू नका. माझ्यात आणि तिच्यात काहीच नाही. आणि मी काही तिला पाहायला नाही गेलो कधी.

आई- पण तीने तर जेवण सोडलं होतं म्हणे तुझ्या साठी.

मित- काय?

आई- हो. सगळ्या गावाला माहीत आहे. आणि तुझ्या बाबांनीही लग्नाची तारीख फिक्स केली.

मित- अगं पण………

आई- पण बीन काही नाही. मला खुप कामं करायची आहेत. तू जा बरं इथून.

तो पाय आपटत निघून गेला. रूममध्ये येऊन त्याने परत मोबाईल पाहीला. मॅसेज अजुनही रीड झाला नव्हता. त्याने फोन केला पण फोन ही लागले नाही. त्याने खुप प्रयत्न केला पण काही फायदा झाला नाही. शेवटी कंटाळून त्याने मोबाईल बाजुला ठेवला. आणि पलंगावर तसाच विचारात पडून राहीला.

सोशल मिडियाच्या या व्हॅर्चयुअल जगात अनेक ओळखी बनतात. पुसल्या जातात. काही क्षणभर आठवतं तर काही चिरकाल स्मरणात राहतात. सोशल मिडियावर का होईना पण प्रेम हे कुठेही झाले तरी ते प्रेम आहे. भावना तेवढ्याच जुळतात.

गुलज़ार म्हणतात,

जब जायका आता था एक सफ़ा पलटने का 

अब उँगली क्लिक करने से एक झपकी गुजरती है 

बहुत कुछ तय ब तय खुलता चला जाता है पर्दे पर 

किताबों से जो जाती राबता था, कट गया है 

कभी सीने पर रख के लेट जाते थे 

कभी गोदी मे लेते थे 

कभी घुटनों को  अपनी रहल की सुरत बना कर 

नींद सजदे मे पढा करते थे 

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा मगर 

मगर वो जो किताबों मे मिला करते थे सूखे फूल और महका हुए रुके 

किताबें मांगने गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे 

उनका क्या होगा

जे प्रेम आधी डोळयांतल्या डोळ्यांत सुरू व्हायचं. डोळ्यांत असो की ऑनलाइन प्रेम हे प्रेम असतं. भावना त्याच असतात. पण जुळण्याचे स्वरूप बदलले आणि दुखावण्याचेही.

(समाप्त)

 © कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिन्दी / मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ सुश्री मीरा जैन की हिन्दी लघुकथा ‘वृक्षारोपण’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री मीरा जैन जी  की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘वृक्षारोपण’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद वृक्षारोपण’

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सुश्री मीरा जैन 

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री मीरा जैन जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है ।  अब तक 9 पुस्तकें प्रकाशित – चार लघुकथा संग्रह , तीन लेख संग्रह एक कविता संग्रह ,एक व्यंग्य संग्रह, १००० से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से व्यंग्य, लघुकथा व अन्य रचनाओं का प्रसारण। वर्ष २०११ में ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएं’  पुस्तक पर विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) द्वारा शोध कार्य करवाया जा चुका है।  अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित। कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों से पुरस्कृत / अलंकृत । नई दुनिया व टाटा शक्ति द्वारा प्राइड स्टोरी अवार्ड २०१४, वरिष्ठ लघुकथाकार साहित्य सम्मान २०१३ तथा हिंदी सेवा सम्मान २०१५ से सम्मानित। २०१९ में भारत सरकार के विद्वानों की सूची में आपका नाम दर्ज । आपने प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पांच वर्ष तक बाल कल्याण समिति के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं उज्जैन जिले में प्रदान की है। बालिका-महिला सुरक्षा, उनका विकास, कन्या भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आदि कई सामाजिक अभियानों में भी सतत संलग्न । आपकी किताब 101लघुकथाएं एवं सम्यक लघुकथाएं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मानव संसाधन विकास मंत्रालय व छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आपकी किताबों का क्रय किया गया है.)

वृक्षारोपण 

‘अरे हरिया! तू यह क्या कर रहा है कल ही नेता जी ने यहां ढेर सारे  पौधे लगा वृक्षारोपण का नेक कार्य किया हैं ताकि हमारे गांव मे भी खूबसूरत हरियाली छा जाये और पर्यावरण शुद्ध रहे, देख अखबार में फोटो भी छपी है एक तू है कि इन पौधों को उखाड़ने में तुला  हुआ है  तेरी जगह और कोई होता तो मैं पुलिस के हवाले कर देता उन्होंने फोन कर मुझे इन पौधों की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा है समझा, चल भाग यहां से’

गांव के मुखिया की आवाज सुन हरिया ने सिर ऊपर उठाया और समझाइशी स्वर में जवाब दिया-

‘मुखिया जी! कल वृक्षारोपण के वक्त आप तो यहां थे नहीं, मैं ही था  ये गढ्ढे भी मैंने खोदे हैं नेताजी ने तो केवल अखबार में  छपने के लिए ही वृक्षारोपण किया है उसी काम को मैं अब अंजाम दे रहा हूं देखिए आपके पीछे आम, जाम, नीम, जामुन आदि के पौधे रखे हैं जिन्हें में यहां वहां से ढूंढ ढूंढ कर इन गड्ढों में लगाने के लिए लाया हूं और  इन पौधों को देखिए जिन्हे उनके साथ आए लोग आनन-फानन में पास वाले खेत से कुछ पौधे उखाड़ लाये और नेताजी के हाथों लगवाते हुए फोटो खींचा और चले गए.’

मुखिया जी की नजर जब उन पौधों पर पड़ी तो उनका तमतमाया  चेहरा लटक गया क्योंकि वे पौधे भिंडी, टमाटर ग्वारफली, मिर्ची आदि के थे.

© मीरा जैन

उज्जैन, मध्यप्रदेश

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☆ वृक्षारोपण 

(मूळ कथा – वृक्षारोपण  मूळ लेखिका – मीरा जैन   अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

‘अरे हरिया, काय चाललाय काय तुझं? कालच नेताजींनी इथे अनेक झाडं लावून वृक्षारोपणाचं मोठं चांगलं काम केलय. आता आपल्या गावात सगळीकडे हिरवाई दिसेल. पर्यावरण शुद्ध राहील. बघ… बघ… वर्तमानपत्रात फोटोसुद्धा आलाय आणि एक तू आहेस की लावलेली ही झुडुपं उपटायला लागला आहेस. तुझ्या जागी दूसरा कुणी असता, तर मी त्याला पोलीसांच्याच स्वाधीन केलं असतं. नेताजींनी फोन करून माझ्यावर या झाडांच्या सुरक्षिततेची जबाबदारी सोपवलीय. कळलं. चल. निघ इथून.’

गावातल्या सरपंचांचा आवाज ऐकून हरियाने मान वर केली आणि त्यांना समजवण्याच्या स्वरात उत्तर दिलं, ‘साहेब, काल वृक्षारोपणाच्या वेळी आपण काही इथे नव्हतात. मीच होतो. हे खड्डे मीच खणले आहेत. नेताजींनी केवळ वर्तमानपत्रात छापून येण्यापुरतं वृक्षारोपण केलाय. तेच काम मी आज पूर्ण करत आहे. आपल्या मागे बघा. आंबा, जांभूळ, लिंब, वडा, पिंपळ इ. झाडांची रोपं ठेवली आहेत. कुठून कुठून ती या खड्ड्यातून लावायला मी मिळवून आणलीत आणि या खड्ड्यात लावलेल्या रोपांकडे बघा. त्यांच्या बरोबर आलेल्या लोकांननी आसपासच्या शेतातून भाज्यांची झुडुपं उपटून आणलीत. नेताजींच्या बरोबर फोटो काढले. त्यांचं काम संपलं.

सरपंचांची नजर आता त्या झुडुपांकडे वळली आणि त्यांचा संतप्त चेहरा विकल झाला कारण ती भेंडी, टोमॅटो, गवार, मिरची  यांची झुडुपं होती.

‘हीही मला त्या त्या जागी नेऊन पुन्हा लावायचीत ना!’ हरिया म्हणाला आणि पुन्हा मान खाली घालून कामाला लागला.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 ☆ मित….. (भाग-8) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #7 ☆ मित….. (भाग-8) ☆

पुढचे दोन दिवस मुंबई सह महाराष्ट्रातील प्रसिद्ध पर्यटन स्थळी फिरतांना त्यांचा हक्काचा मार्गदर्शक मीत होता. त्याचं सोबत असणं तिला आतल्या आत सुखावत होतं. त्याचं हसणं, बोलणं, वागणं, प्रत्येक गोष्ट संयमाने व विचारपूर्वक हाताळणं तिला त्याच्याकडे अधिकच आकर्षित करत होतं. सोबत घालवलेला प्रत्येक क्षण ती त्याला पारखत होती. एक चांगला मित्रच नव्हे तर चांगला जीवनसाथी होण्यास पात्र आहे का ? हे पाहत होती. आणि तिने केलेले विश्लेषण बरोबर आहे का हे स्वतःला विचारत होती. शुद्ध सोने सिद्ध होण्यासाठी कराव्या लागणा-या चारही परिक्षेतून ती त्याला पारखून घेत होती. आजचं त्याचं असं पावलो पावली काळजी घेणं असंच आयुष्यभर राहीलं का याचा अंदाज ती घेत होती.

अशा एक ना अनेक प्रकारे तिने त्याची परिक्षा घ्यायला सुरुवात केली होती. आणि तिच्या प्रत्येक प्रश्नाचं उत्तर तो अगदी चोख देत होता. त्याच्यासोबत मारलेल्या गप्पांमध्ये त्याने त्याच्या बद्दल ज्या ज्या गोष्टी सांगितल्या होत्या त्या अगदी तंतोतंत ती अनुभवत होती. आणि प्रत्येक परिक्षेत पैकीच्या पैकी गुण देऊन पास करत होती. आता तिच्या परिक्षाही संपल्या होत्या. आणि तिच्या वडिलांच्या सुट्ट्याही. शिर्डीला बाई बाबांचे दर्शन घेऊन ते मुंबईला आले. हाॅटेलवर येऊन सामानाची आवरा आवर करू लागले.

रिमझिम जड अंतःकरणाने सारी कामे करत होती. कदाचित तिला परत जायचं नव्हतं. तिच्या बाबांनी तिला ‘काय झालं ‘ विचारले पण ‘ काही नाही’ म्हणून तीने त्यांना टाळलं. गॅलरीत वाळत ठेवलेला स्कार्प    काढायला गेली. तिच्यावर चोरटी नजर ठेऊन असलेला मीत संधी पाहून तिच्या मागे गेला. आणि तिच्या अगदी मागे उभा राहिला. स्कार्प काढून ती जशी मागे फिरली तशी तीच्या अगदी जवळ मीत उभा होता. ती क्षणभर घाबरली. पण सावरलीही. आणि एकमेकांच्या डोळ्यांत डोळे घालून बघत राहीले.

रिमझिम- क्यो देखते हो ऐसी नजरो से की इंसान खो-सा रह जाए

मीत- मै भी हैरान हूँ. की तुम्हे देखकर क्यो आँखो में ये नुर-सा क्यो जाग जाता है. लेकीन सुकून भी उतना ही मिलता है. और दिल मे बेचैनी भी

रिमझिम- कुछ तो नाम होगा इस बेचैनी का. अपनापन या फिर………

मीत- या फिर…..

तीने लाजून मान खाली घातली. त्याने हळूच तिची हनुवटी वर केली. आणि

मीत- प्यार……….

लांब श्वास घेऊन मीत शब्द न काढता फक्त तोंडातून निघणा-या हवेच्या साह्याने बोलला. पुन्हा ती लाजली आणि मान खाली घातली. तिला त्याच्या डोळ्यांत डोळे घालून बोलायचे होते. आणि ती ही किती प्रेम करते हे जाहीर करायचे होते. पण शरमेने खाली गेलेल्या पापण्या वरती होत नव्हत्या. तशीच ती त्याच्या खांद्यावर डोके ठेऊन विसावली. गॅलरीतून आलेल्या हवेच्या झुळूकने दरवाजाला लावलेला पडदा हळूच त्याच्या भोवती गुंडाळला गेला.

मीत – रिमझिम, पता नही क्यो, पर मुझे लग रहा है की तुम हमेशा के लिए रूक जाओ. मेरे साथ

रिमझिम- क्या ये संभव है?

मीत- तुम चाहो तो……..

त्याने तीला मिठीतून सोडले. आणि आपल्या समोर उभे केले. आणि हळूच तिची हनुवटी पुन्हा वर केली.

मीत- इन खुबसूरत आँखो मे मै जिंदगी भर डुब कर रह जाना चाहता हूँ. इन ओठों की हंसी यु ही उम्रभर बरक़रार रखना चाहता हूँ. इस हसी चेहरे का नूर यूँ ही हमेशा के लिए बरक़रार रखना चाहता हूँ. और जिंदगी भर बस तुमसे ही प्यार करना चाहता हूँ. अगर तूम चाहो तो……

ती लाजली आणि तेथून निघुन गेली. तिच्या गालावर पसरलेली लाली त्याला ते सगळं काही सांगुन गेली होती.

मुंबई सेंट्रलला रेल्वे उभी होती. ‘बेटा, इस अनजान जगह पर आने के बाद मुझे अपने बच्चो की बहोत फ़िक्र हो रही थी. पर तुम्हारे साथ होने के बाद लगा ही नही की हम अनजान जगह पर है. जितने भी साथ रहे. आप मेरे परिवार का हिस्सा बनकर रहे. वैसे तो आप उम्र मे बहोत छोटे हो हमसे. फिर भी आप का बहोत बहोत शुक्रिया. हमेशा खुश रहो.

मीत- अंकल जी, जब आपने हमे अपने परिवार का हिस्सा कहा है. तो मै ये आपको बता दूँ  की अपनों का शुक्रिया अदा कैसा ?तेव्हा तिचा लहान भाऊ गिरीश म्हटला

‘ हाँ,  और कभी गुवाहाटी आओ तो हमे जरूर बताना. हम तुम्हे गुवाहाटी की सैर कराएगे ‘

त्याच्या या विनोदावर सर्वच हसले.

मीत- जरूर आएँगे और गुवाहाटी के साथ साथ पुरे आसाम की खुबसूरती तुम्हारी नजरों से ही देखेंगे

तेवढ्यात गाडीचा हाॅर्न वाजला. रिमझिम चे बाबा ‘ अच्छा बेटा हम करते है. अपना खयाल रखना’ आणि गाडीत बसायला लागले. खिडकीतून रिमझिमला त्याने एक नजर शेवटचे पाहिले. आणि हळूच ‘हॅप्पी जर्णी ‘ म्हटले. गाडी सुरू झाली. मीत मागे परतला.

बसमध्ये तिच्यासोबतच्या आठवणींमध्ये हरवला. कधी स्मित हास्य तर कधी काळजी असे प्रसंगानुरूप त्याच्या चेह-यारचे भाव बदलत होते. तसेच काहीसे रिमझिमचे पण होते. पण सर्वापासून तिने ते भाव अगदी शिताफीने लपवले होते.

मीत घरी पोहोचला. बॅगेतला सामान तो कपाटात ठेवत होता. तेव्हा त्याला बॅगेत एक पार्सल दिसले. ते त्याचे नव्हते. मग कोणी ठेवले हा प्रश्न त्याला पडला. आणि उत्सुकतेने त्याने ते पार्सल उघडले. आणि त्याला आश्चर्य झाले. आत तीच बुद्धमुर्ती ठेवलेली होती. जी अजिंठा लेण्या पहायला गेले असतांना त्याला पसंत पडली होती. ती रिमझिम ने त्याला माहीती न पडू देता त्याला भेट दिली होती. त्या मुर्तीच्या मागे तीने एक कागद चिकटवलेला होता. त्याने पाहीले. ज्यावर लिहीले होते, ‘ मनमीत जी, अपने कहा की आप मेरे चेहरे की हसी जिंदगी भर यूँ ही बरक़रार रखना चाहते हो. तो अपना बहोत खयाल रखीएगा. क्यो की अब मेरे चेहरे की मुस्कान आप हो……..

  क्रमशः

 © कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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मराठी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – बुद्ध पूर्णिमा विशेष – संबोधी तत्व ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

बुद्ध पूर्णिमा विशेष

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  बुद्ध पूर्णिमा के पर्व पर विशेष कविता  “संबोधी तत्व )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ बुद्ध पूर्णिमा विशेष – संबोधी तत्व ☆

शुद्ध वैशाख पौर्णिमा

गौतमास ज्ञान प्राप्ती.

भवदुःखे हरण्याला

पंचशील ध्येय व्याप्ती. . . !

 

शोधियले दुःख मूळ

बौद्ध धर्म स्थापियला

समानता, मानवता

करूणेत  साकारला. . . . !

 

जग रहाटी जाणता

लोभ, तृष्णा, आकलन

मुळ शोधूनी दुःखाचे

केले त्याचे निर्दालन . . . !

 

जन्म मृत्यू  समुत्पाद

सांगितले सारामृत.

वैरभाव विसरोनी

दिले जगा बोधामृत.. . !

 

बुद्ध करूणा सागर

बुद्ध  असे  भूतदया.

सा-या नैतिक तत्वांची

अंतरात बुद्धगया . . . !

 

बोधीवृक्ष संबोधीने

आर्य सत्य साक्षात्कार .

असामान्य गुणवत्ता

ध्यान मार्गी चमत्कार. . . . !

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 45 – आजचं कथानक ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनका एक समसामयिक संस्मरणात्मक  लघुकथा  “आजचं कथानक”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #45 ☆ 

☆ आजचं कथानक ☆ 

ह्या लाँकडाऊन मुळे काहीच कळत नाहीये…फक्त चालू आहे तो म्हणजे एकांताचा एकांताशी संवाद. तो ही निशब्द . . ! घरातल्या फुलांनीही आता उमलणं सोडलंय. पुन्हा पुन्हा तेच तेच फोन . . तेच तेच आवाज. .  तीच तीच चौकशी. .  काळजी घे . .  जपून रहा . . ऐकून ऐकून  घाबरायला होतय.  या सा-यात ना वेळेचं भान रहातं, ना दिवसाचं. . !

आज कोणती तारीख कोणता वार काहीच कळत नाही. माझे कान  मात्र सारखेच कुणाच्या तरी पावलाची चाहूल लागतेय की काय ह्या कडेच लागलेले असतात  आणि जेव्हा काहीच कळत नाही तेव्हा खिडकीच्या एका कोप-यात वही पेन घेऊन मी बसून राहतो तासन तास. . ! वेळेचं भान हरवून. .माझ्याच विचारात गर्क . . ! तसंही आत्ता  वेळ खूप आहे. …पण. . ह्या जगण्यात तोच तोच पणा इतका वाढलाय की, टेप रेकॉर्डरमध्ये कुणीतरी रोज सकाळी तीच तीच कँसेट पुन्हा पुन्हा लावतंय की काय असा भास होऊ लागलाय….! कसलाच संवाद नसतानाही संवाद जाणवू लागलाय. . !

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 27 ☆ मालतीचं पत्र ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके स्वानुभव  एवं  संबंधों  पर आधारित  कथा  “मालतीचं पत्र”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 27 ☆

☆ मालतीचं पत्र ☆ 

(कथा)

रोजच्याप्रमाणे पोस्टमन दिसल्याबरोबर मंजुळा बाईंनी त्याला विचारलंच ..” आमचं  पत्र आलंय कां.? ” पोस्टमन फक्त गालातल्या गालात हसला व पुढं गेला त्याला हे नित्य परिचयाचं होतं.

पण त्यानंतर चारच दिवसांनी त्याने मंजुळाबाईंच्या हातात एक लिफाफा दिला व म्हणाला घ्या तुमच्या सुनबाईंचं पत्र.! अगदी उत्साहाने त्यांनी ते फोडलं पण वाचता येत नसल्याने त्यांनी आजूबाजूला पाहिलं तेवढ्यात आमच्या घराच्या ओसरीवर बसायला येणाऱ्या सदाला त्यांनी हाक मारली व म्हणाल्या ” सदा एवढं पत्र वाचून दाखव रं !”

मग ओसरीवरच मंजुळाबाई मांडी घालून डाव्या हाताचा कोपरा गुडघ्यावर टेकवून ऐटीत बसल्या अन् म्हणाल्या “बघ रं काय म्हणतीय मालती ?”

मालती हे माझं माहेरचं नाव पण मला त्या कायम त्याच नावानं बोलवायच्या.

आमचं. लग्न होण्यापूर्वी माझे सासरे वर्षभर अगोदर गेलेले होते. आम्हा दोघांना एकाच खात्यात एकाच दिवशी नोकरी लागल्याने आम्ही परगावी होतो. आणि मोठ्या दिरांच्या बदलीने तेही दूर त्यामुळे गावी त्या व शाळेत जाणारी दोन मुले गावी असायची.

साधारण १९६३ साल खेडेगावात त्यावेळी दुसरा  काही विरंगुळा नसायचा. मुलं शाळेत गेली की त्या एकट्या असायच्या. तशा माझ्या चुलत सासुबाई, आजेसासुबाई तिथंच असायच्या. आमचं घर बऱ्यापैकी ऐसपैस. आमची स्वयंपाकघरं वेगवेगळी पण ओसरी मोठ्ठ अंगण एकच होतं.

आजेसासूबाईंना सर्वजण मोठीआई म्हणायचे. म्हणजे वयाने तर होत्याच पण ओसरीचा अर्ध्या खणाचा भाग त्यांच्या बैठकीने व्यपलेला असायचा.

ओसरीवर बसून जाणायेणाऱ्यांकडे नव्वदाव्या वर्षीही त्यांचं अगदी बारीक लक्ष असायचं. अन् पोस्टमन घराच्या दिशेने येताना दिसला की म्हणायच्या ….

“अगं मंजुळा तुझ्या मालतीचं पत्र आलं गं ऽऽ आलं…!”

मी पोस्टकार्ड वर कधीच पत्र लिहीत नसे. कारण माझा मजकूर त्यावर कधी बसायचाच नाही.फुलस्केप वर पानभर आणि पाठपोठ असा माझा मजकूर असायचा….

माझ्या ठसठशीत अक्षरातला सविस्तर मजकूर वाचून त्यांना खूप आनंद व्हायचा. म्हणायच्या

बघा माझी मालती कशी रेघ न् रेघ कळवती लिहून काय झालं काय नाही…

माझ्या जन्म दिलेल्या मुलालाही नाही पण हिला किती काळजी असते.

माझं आलेलं पत्र त्या दिवसातून दोन तीनदा तरी भेटेल त्याच्याकडून वाचून घ्यायच्या.

माझ्या पत्रात माझं घरातलं सगळं आवरून ऑफिसला जाताना होणारी तारेवरची कसरत, ऑफिसात साहेबांचा खाल्लेला ओरडा. कारण एस एस.सी  झाल्यावर दोन वर्षांतच नोकरी सुरू.त्यामुळे वय आणि अनुभव दोन्ही बेताचेच.! असं सगळं माझं साग्रसंगीत वर्णन त्या पत्रात असायचं. त्याची त्यांना गंमत आणि कौतुक दोन्हीही वाटायचं.

आमची मुलं जरा मोठी झाल्यावर आम्ही उभयता मे १९७९ मध्ये “नेपाळ दार्जिलिंग” सहलीला गेलो होतो. तिथंन मी प्रवासाच्या सुरुवातीपासूनचं संपूर्ण सहलीचं वर्णन वेळोवेळी पाठवत होते.

त्यातल्या एका पत्रात मी हिमालयाच्या बर्फाच्छादित शिखरांचं वर्णन पाठवलं. कैलास पर्वताच नाव ऐकताच त्या म्हणाल्या बघा  कैलासराणा शिवचंद्रमौळी जिथं रहातो ते माझी सून मुलगा बघून आली. त्या रोज ते स्तोत्र म्हणत असल्यानं त्यांनी मला नंतर सांगितलं की तुमच्याबरोबर मी कैलास पर्वताचं दर्शन घेऊन आल्याचं मला जाणवलं.

पत्र म्हणजे तरी काय हो “या हृदयीचे त्या हृदयी.!”  आपल्या मनाच्या कप्प्यातल्या भावना इतरांना समजावून सांगण्याचा एक खूप सुंदर सोपं साधन !

आठवणींना उजाळा देणारी शब्दांजली म्हणजेच पत्र.! अगदी आत्ता हे लिहिताना माझ्या पूर्वीच्या सर्व आठवणी जाग्या झाल्या. म्हणून तर म्हणतात ” मनात दाटलेल्या भावनांना वाट मोकळी करुन देणारं हळूवार शस्त्र म्हणजे पत्र “!

मग ते पत्र श्रीसमर्थांनी छत्रपती संभाजी महाराजांना लिहिलेले असो, पूज्य साने गुरुजींनी लिहिलेली ,पं.जवाहरलाल यांनी प्रियदर्शनीस लिहिलेली, बॅ.पी.जी.पाटील यांनी पूज्य कर्मवीर भाऊराव पाटील यांना लंडनहून लिहिलेली, सीमेवरच्या वीर जवानाने त्याच्या प्रियजनांस लिहिलेली असो ही एक अत्यंत अनमोल ठेव आहे असे मला. वाटते.!

“पू. मंजुळा स्मृतीस अर्पण”

 

©®उर्मिला इंगळे

सतारा  मो –  9028815585

दिनांक:-.२१-३-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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