हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 12 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 12 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 12 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ 

जब से भारत में शहरीकरण बढ़ा है और विकसित होते  व्यवसायिक केन्द्रों में युवा पीढी अपने सपनों को साकार करने हाड़-तोड़ मेहनत कर रही है तो उन्हें मानसिक सूकून देने पर्यटन के क्षेत्र में भी एक नई क्रान्ति हुई है । यह क्रान्ति है, प्रकृति के नज़दीक तेजी से, कुकुरमुत्तों की भाँती उगते हुए रिसार्टों की । शहर की जिन्दगी से दूर , हरी भरी वादियों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच बने  इन खूबसूरत  होटलों में,  जहाँ एक ओर रहन-सहन की आधुनिक सुविधाएं है, शहर की कोलाहल व  भागदौड़ भरी जिन्दगी से मुक्ति है तो दूसरी ओर उनके गतिविधि केंद्र या एक्टिविटी सेंटर मनोरंजन के लिए अनेक गतिविधियों को भी संचालित करते हैं और  साहस व रचनात्मकता से भरपूर यह गतिविधियाँ सभी उम्र के लोगों के लिए होती हैं, जिससे परिवार की तीन पीढियां एक साथ अवकाश के क्षणों का लुत्फ़ उठा सकती हैं ।

कोशी नदी, जिसका पौराणिक नाम  कौशिकी है के किनारे,  क्लब महिन्द्रा द्वारा संचालित, कार्बेट रिसार्ट, जहाँ हम ठहरे थे, ऐसी अनेक गतिविधियों का संचालन, अपने सदस्य अतिथियों के मनोरंजनार्थ सुबह से देर शाम तक करता रहता है । और जब कोई ग्यारह बजे हमने उनके एक्टिविटी सेंटर में  संपर्क किया तो पता चला कि नेचर वाक व सायकल चालन का आयोजन वे सुबह-सुबह करते हैं और दोपहर में विलेज वाक का मजा लिया जा सकता है । नेचर वाक का मजा तो मैं पिछली यात्रा के दौरान नौकुचियाताल में ले चुका था और अगले दिन यानी 29 नवम्बर की सुबह इस हेतु मैं जाने ही वाला था तथा बढ़ती उम्र के साथ सायकिल चलाना तो लगभग भूल ही चुका था, और ऐसा अनुभव मैंने एक्टिविटी सेंटर में खडी सायकिल को थोड़ी दूर चलाकर कर भी लिया, इसीलिए हमने विलेज वाक या ग्राम भ्रमण पर जाने का निर्णय लिया ।

हम लोग, एक गाइड के साथ जिप्सी में सवार होकर, गाँव की ओर चल पड़े । रिसार्ट से कोई दस किलोमीटर दूर सड़क के किनारे बसे एक गाँव में जब गाइड ने हमें उतरने को कहा तो एकबारगी लगा कि सड़क के किनारे बसे गाँव देखकर क्या मिलेगा । पर जैसे ही गाइड आगे बढ़ा और हम शनै-शनै रिंगौडा गांव की उबड़ खाबड़  गलियों से होकर गुजरने लगे तो आनंद दुगना होता चला  गया । हमारा भ्रमण हमें प्रकृति के नजदीक ले जा रहा था । प्रकृति द्वारा निर्मित कच्चा  मार्ग, उसके किनारे खड़े ऊंचे ऊंचे वृक्ष हमें मोह रहे थे । बीच-बीच में गाइड हमें बताता जाता था कि साहब यह साल का वृक्ष  है जो सालभर हराभरा रहता है, देखिये यह बेलपत्र का पेड़ है, इसके पत्ते छोटे हैं और यह बेलपत्र  आपके यहाँ की बड़े पत्तों वाली  प्रजाति जैसा नहीं है, यह हल्दू है जैसा नाम वैसा गुण, इसका तना अन्दर से पीले रंग का होता है । इतने में उसने कुछ और बृक्षों की ओर इशारा किया और मैं भी ठहरा वनस्पति  शास्त्र का पुराना विद्यार्थी, झट से बोल उठा हाँ भाई यह शीशम और सागौन के पेड़ हैं, सबसे अच्छी इमारती लकड़ी इन्ही से मिलती है ।  हम कुछ दूर चले ही थे कि एक विशाल बरगद के वृक्ष ने हमारा स्वागत किया । इस वृक्ष  के नीचे गिर ग्राम देवी विराजित हैं जो  ग्रामीणों की श्रद्धा व पूजा  का केंद्रबिंदु  है । बरगद के निकट ही एक बरसाती नाला था और बरगद की फैलती जड़ों ने भू स्खलन को रोक दिया था, जहाँ इस बड़े बृक्ष की जड़ें नहीं फ़ैली थी वहाँ से मिट्टी का कटाव स्पष्ट दिखता था । तनिक आगे, ढलान पर  एक सुन्दर दृश्य हमारा इन्तजार कर रहा था, पानी का झरना, गाँव से कोई दो किलोमीटर दूर,ग्रामीणों के लिए वर्ष भर जल का एक मात्र स्त्रोत । पहाड़ी क्षेत्रों में यही हाल है, उन्हें आज भी पेय जल लाने के लिए लम्बी दूरियाँ तय करनी पड़ती है लेकिन पहाड़ी महिलाएं इस जिम्मेदारी को प्रसन्नता पूर्वक तेज गति से निपटाती है । इस झरने का पानी बहुत ही मीठा था और बिस्लहरी या आरओ के पानी को भी मात कर रहा था । हम सब ने एक-एक चुल्लू पानी पिया और रिंगौडा गांव के  जीरो प्वाइंट की ओर चल दिए , सामने धीर गंभीर, कलकल  नाद करती हुई कोशी नदी बह रही थी और साल के दो विशाल बृक्षों के मध्य खड़े होकर जब हमने ऊपर, आसमान  की ओर देखा तो एक विरल-सघन आबादी का शहर दिखाई दिया, गाइड ने हमें बताया कि यह नैनीताल की वादियाँ हैं । इस नैसर्गिक  व्यु को हमें बहुत देर तक निहारते रहे और फिर दूसरे मार्ग से आगे बढ़ गए । एक कुटी के सामने, शुद्ध कुमायुनी अंदाज में हमारा स्वागत करने,  विमला आरती का थाल लिए खडी थी । उन्होंने हमें तिलक लगाया, आरती उतारी और फिर प्रेम से अपना घर दिखाया । लेंटाना और  कुरी की  झाड़ियों की फेंसिंग के मध्य सुन्दर बागीचा है जहाँ आम,कड़ी पत्ता,बेलपत्र, आवंला  और सब्जियों की बागवानी के मध्य दो कमरे व एक रसोईघर बनाया हुआ है । मकान के सामने ही कुछ खम्भों  पर  पुआल की छत से एक चबूतरानुमा जगह पर बेंच व टेबल लगाकर भोजन शाला बनाई गई है । यह विमला का स्वरोजगार है- होम स्टे, कुमायुनी भोजन  व जैविक उत्पाद का विक्रय केंद्र । ग्रामीणजन भी  हम शहरियों की मानसिकता अब समझने लगे हैं । यद्दपि चाय की चुस्कियों और कडी-पत्ता व  आलू के पकोड़े खाते हुए मैंने उसकी आर्थिक आमदनी के बारे में तो कुछ नहीं पूछा पर ग्रामीण समस्यायों के बारे में जरुर जानने की कोशिश की । पेय जल की समस्या का जिक्र तो मैं  पहले कर ही चुका हूँ , बिजली के खम्भे गाँव में इसलिए नहीं लगे हैं क्योंकि यह आबादी वन क्षेत्र  के अंतर्गत है लेकिन केंद्र सरकार ने सभी घरों में अनुदान देकर सोलर पेनल लगवा दिए हैं और इससे उत्पन्न ऊर्जा  से ग्रामीण प्रकाश, व हैण्ड-पम्प आदि चलाने की व्यवस्था कर लेते हैं । बच्चे शिक्षित हो रहे हैं यह अच्छी खबर विमला ने हमें दी । वह देर तक हमें अपने किस्से सुनाती रही और हर बार शाम को रुकने व भोजन कर वापस जाने का आग्रह करती रही पर हमें जिप्सी चालक को तय समय पर छोड़ना था सो हम उसके जैविक उत्पादों में से पहाडी लूंण ( एक प्रकार का मसाले दार नमक, कुछ कुछ वैसा ही जैसा बुंदेलखंड के हमारे जैन बंधू प्रयोग में लाते हैं ) व बोतल बंद चटनी क्रय कर अपने ठिकाने लौट आये जहाँ रात्रि का भोजन और बिछौना हमारा इन्तजार कर रहा था ।

पहाड़ के भोलेभाले  ग्रामीणजनों व उनके गावों का उल्लेख जिम कार्बेट ने अपनी किताब My ।nd।a में बख़ूबी किया है । वे लिखते हैं कि “जिस हिन्दुस्तान को मैं जानता हूँ, उसमें चालीस करोड़ लोग रहते हैं, जिनमें से नब्बे फीसदी लोग सीधे-सादे, ईमानदार, बहादुर, वफादार और मेहनती हैं जिनकी रोजाना की इबादत ऊपर वाले से यही रहती है कि उनकी जान-माल की सलामती बनी रहे और वो अपनी मेहनत का फल अच्छे से खा सकें । हिन्दुस्तान के ये वो लोग हैं जो निपट गरीब हैं और जिन्हें अक्सर ‘ हिन्दुस्तान के करोड़ों अधपेटे’ कहा जाता है ।”  जिम कार्बेट को ऐसे हिन्दुस्तानियों से बेपनाह मुहब्बत थी और एक बार ऐसे ही किसी गाँव के लोगों ने आदमखोर शेर से स्वयं को बचाने के लिए जिम कार्बेट को चन्दा जमा करके एक टेलीग्राम भेजा था । इस टेलीग्राम को भेजने के लिए ग्रामीणों का हरकारा कई मील दूर पैदल चलकर पोस्ट आफिस गया था । जिम कार्बेट ने भी इन विश्वासी  ग्रामीणों को निराश नहीं किया और वे, टेलीग्राम मिलते ही  मोकामघाट(बिहार ) से इस गाँव के लिए अपना काम छोड़कर आ गए – एक आदमखोर शेर को मारने के लिए । उन्हें हज़ार मील की लम्बी यात्रा  और लगभग बीस मील पैदल चलकर इस गाँव में पहुंचने में तब एक सप्ताह का समय लगा था । और वह गाँव इन्ही वादियों के मध्य स्थित था । लौटते वक्त हमें जंगल विभाग का वह गेस्ट हाउस भी दिखा जहाँ बाघ के शिकार के लिए आये जिम कार्बेट ने अपनी रातें बिताई थी।

आज़ादी के बाद इन सत्तर सालों में गाँव का नक्शा बदला है, घर अब पक्के हो गए हैं, पहुँच मार्ग और आवागमन के साधनों का जाल बिछा है , मूलभूत सुविधाएं भी सुधरी हैं और ग्रामीण जनों को उपलब्ध हुई हैं । लेकिन एक बात आज भी ठीक वैसी ही है जिसका जिक्र जिम कार्बेट ने My ।nd।a में किया  है और जिसका हिंदी अनुवाद मैंने ऊपर लिखा है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 11 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 11 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 11 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ 

 नैनीताल में एक रात बिताकर और हिमालय दर्शन करते हुए हम जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य की ओर चल दिए । नैनीताल के ताल और वन शिखरों को पार करते हुए हम  धीरे-धीरे मैदान की ओर बढ़ रहे थे ।  लेकिन मैदान भी हरे भरे जंगलों और खेतों में उगती हुई नई रबी फसल की  हरियाली  की छटा बिखेर रहे थे । मैं सदैव सोचता हूँ कि रंग बिरंगे फूलों और पत्तों को अपने आँचल में समेटे हुए भारत भूमि के जंगल अद्भुत हैं और यह विश्व भर में इसीलिए भी विलक्षण हैं क्योंकि हमारे जंगलों में रंग-बिरंगी  वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ हैं, हमारी पृकृति एकरंगी नहीं है और इसीलिये हमारी संस्कृति भी बहुरंगी है ।

कार से यह मनमोहक  यात्रा  लगभग तीन घंटे की थी और  इस दौरान हमने तीन  पर्यटक स्थलों का भी भ्रमण किया । नैनीताल से मैदान उतरते ही पहला मनभावक दृश्य कोशी नदी के जल प्रपात का था । थोड़े कम घने जंगलों के मध्य कोई आधा किलोमीटर पैदल चलने के बाद हम इस जलप्रताप के निकट पहुंचे । शांत प्रकृति के बीच चीतल और लंगूरों के दर्शन हुए तो कुछ पक्षी भी चहचहाते हुए दिख गए । जल प्रताप वन क्षेत्र के अन्दर है और जाहिर है सरकार को शुल्क दिए बिना प्रकृति की इस अनुपम नैसर्गिक  कृति का आनंद आप नहीं ले सकते । कोशी नदी, उत्तराखंड की  प्रमुख पवित्र नदियों मे से के है और  कौसानी के पास से उद्गमित होकर अल्मोड़ा , नैनीताल रामनगर होकर बहती है और आगे रामगंगा से मिल जाती है। यह छोटा सा मनलुभावन जलप्रपात इसी नदी में  कलकल करता बहता है । जलप्रपात जंगल की सीमा के अन्दर है तो इसीलिये बिना टिकट प्रवेश हो नहीं सकता । हम पैदल भी चले और रास्ते भर सागौन के घने  वृक्षों के मध्य जंगली मुर्गियां  व चीतल को निहारते हुए आगे बढ़ते रहे ।

कुछ दूरी पर हनुमानघाट है और यहाँ निर्माणाधीन मंदिर परिसर में हनुमान की चित्ताकर्षक मूर्तियाँ उनके विभिन्न स्वरूपों यथा पंचमुखी हनुमान, बाल हनुमान, राम भक्त हनुमान आदि को दर्शाती हैं और ऊपर की ओर सुन्दरकाण्ड से प्रेरित अनेक भित्तिचित्र हनुमान की महिमा और सीता के खोज के उद्देश्य से उनकी लंका यात्रा को दर्शाते हैं ।

इन दोनों स्थलों को पारकर हम कालाडुंगी पहुँच गए । रास्ते में हमने एक लम्बी और पक्की बाउंड्री वाल भी देखी और फिर जिम कार्बेट का निवास स्थान, उनका अंग्रेजी स्थापत्य की छवि लिए बँगला  भी देखा , जिसे अब इस महान शिकारी, पर्यावरणविद  और भारत प्रेमी की याद में संग्रहालय में बदल दिया गया है । मैं जब महाविद्यालय में अध्ययनरत था तो हमारी अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तक में एक लम्बी कहानी थी ‘मेन इटर्स आफ कुमायूं’, समय के साथ शिकार की इस कहानी को तो मैं भूल गया पर उसके लेखक जिम कार्बेट की बहादुरी के किस्से मन में बसे रहे और आज उन्ही जिम कार्बेट के बंगले  के सामने मैं खडा था, जहाँ इस मानवता और पशुओं के प्रेमी ने अपनी बहन के साथ भारत के आज़ाद होने तक निवास किया था । जिम कार्बेट की चर्चा चंद पंक्तियों में करना उनके भारत प्रेम के प्रति अन्याय होगा । मैंने संग्रहालय के द्वारा संचालित सुवेनियर शाप से जिम कार्बेट द्वारा लिखी गई  दो पुस्तकें Man Eaters of Kumon व मेरा हिन्दुस्तान (My ।nd।a का हिन्दी अनुवाद ) खरीदी । इस यात्रा वृतांत को लिखते हुए मैं इन दो पुस्तकों को भी पढ़ रहा हूँ और इस महान व्यक्तित्व पर आगे अलग से चर्चा करने का ख्याल मन में उपजने लगा है तो चलिए शिकारी  जिम कार्बेट को यहीँ छोड़कर हम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान का एक चक्कर लगा लें ।

जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य के बारे में केवल इतना बताना चाहता हूँ कि 1936 में जब यह अस्तित्व में आया तो इसे हैली नेशनल पार्क नाम दिया गया और फिर 1955-1956 में, जिम कॉर्बेट को श्रद्धांजलि और वन्य जीवन के संरक्षण में उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए, इसे अपना वर्तमान, जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क, नाम मिला। मैं बाघ परियोजना को समर्पित इस उद्द्यान के बारे में इससे ज्यादा चर्चा इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि यह जानकारी तो आपको गूगल महाराज भी दे देंगे । मैं तो आपसे अपनी उस एक मात्र जंगल सफारी की यात्रा का अनुभव साझा करूंगा जिसका भरपूर आनंद मैंने 28 नवम्बर 2020 की हल्की पर चुभन वाली ठण्ड में सुबह सबेरे छह बजे से दस बजे तक लिया । आनलाइन के इस युग में जंगल सफारी के लिए पहले से ही आरक्षण करवाना अनिवार्य है । कोरोना के इस संक्रमण काल में भी जब मैंने रामनगर पहुँच कर इसकी तहकीकात की तो पता चला कि अगले दिन की सफारी मिलना मुश्किल ही है । शुक्र था कि हमने रुपये 3800/- देकर एक जिप्सी पहले ही आरक्षित करवा ली थी । इस लागत में जिप्सी का किराया 2200/- रूपए व वनक्षेत्र में प्रवेश  का शुल्क 1080/-  शामिल है शेष राशि बुकिंग एजेंट के खाते में । हमें गाइड की सुविधा वन विभाग के माध्यम से मिल गई और इसका शुल्क 800/- रुपये अलग से था । झिरना, ढेरा, ढिकाला आदि प्रवेश द्वारों से इस  राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश किया जा सकता है पर हमने बुकिंग एजेंट की सलाह पर बिजरानी गेट से वन गमन सुनिश्चित किया । तराई क्षेत्र के इस घने जंगल के दर्शन तो रामनगर से ही होने लगते है ।  सागौन का सघन  वृक्षारोपण बाहरी इलाके में है और सागौन के ऐसे  लम्बे व मोटे तने युक्त वृक्ष मैंने मध्य प्रदेश के विभिन्न जंगलों में, जहाँ के सागौन की गुणवत्ता सबसे बेहतर है, भी नहीं देखे ।  जंगल के अन्दर तो वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ हैं, ज्यादातर वृक्ष साल के हैं, फिर हल्दू, जामुन, आम, सेमल, बरगद आदि भी बहुतायत में हैं । ऊँचे घने पेड़ों के नीचे लेंटाना व कुरी की झाडियां और घांस सारे जंगल को घेरे हुए हैं। हमारे गाइड ने बताया कि लेंटाना की झाड़ियाँ तेजी से फैलती हैं और इनके उन्मूलन के ‘असफल प्रयास’ वन विभाग द्वारा समय समय पर होते रहते हैं । यह लेंटाना की झाडिया हमने अपने बचपन में भी खूब देखी थी । इसकी बाडी लगाकर बाग़ बगीचों की रक्षा होती थी और लाल पीले रंग के गुच्छेदार फूल व काले रंग के फल किसी काम के न थे । हाँ इसकी बेंत अच्छी बनती थी जिसका उपयोग हमारे शिक्षक व पिताजी हमें सुधारने के लिए अक्सर करते थे । जंगल में अन्दर जाने के पहले हमारे गाइड ने  हमें बताया था कि इस पार्क की खासियत रॉयल बंगाल टाइगर, एशियाई हाथी और घड़ियाल के साथ अन्य  प्रजातियों के जंगली  जानवर जैसे काला  भालू, हिरणों की विभिन्न प्रजातियाँ, बार्किंग डियर, सांभर, चीतल, श्याम मृग आदि  और गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों की उपलब्धता है और आपको इन सभी को  देखने का सुनहरा अवसर अवश्य  मिलेगा । इसके अलावा  यहाँ पक्षियों में ग्रेट चितकबरा हॉर्नबिल, सफेद पीठ वाला गिद्ध,मोर, हॉजसन बुशचैट, उल्लू आदि भी दीखते हैं । पर हमारी किस्मत कोई ख़ास अच्छी न थी । हमने बाघ के पदचिन्ह तो खूब देखे पर वनराज हमसे शर्माते ही रहे । गणेश के स्वरुप हाथी तो खैर दिखे ही नहीं बस दो चार ऐसे पेड़ों को हमने देखा जिन्हें रात में हाथियों ने धाराशाई कर दिया था । लेकिन इतनी निराशा की बात भी न थी हम चीतल, सांभर, बार्किंग डियर, जंगली मुर्गियां, सफ़ेद गिद्ध, मोर आदि को उनके ही घर में विचरते हुए देखने  में  कामयाब हुए ।  राम गंगा नदी और दीमक की अनेक विशालकाय बाम्बियाँ हमें जगह जगह दिखी पर मगरमच्छ, और किंग कोबरा जैसे सरीसृप देखने से हम वंचित ही रहे । कोई तीन -चार घंटे हम इस शानदार जंगल में बिताकर वापस अपने ठिकाने क्लब महिंद्रा के जिम कार्बेट रिसोर्ट में वापस आ गए और दोपहर कैसे बिताई जाय इसकी चर्चा रिसार्ट के  गतिविधि विशेषज्ञ से करने पहुँच गए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -10 – बिनसर वन अभ्यारण”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ 

बिनसर वन अभ्यारण, अल्मोड़ा जिले में स्थित है । एक ऊंची पहाड़ी चोटी में हरे भरे वृक्षों से आच्छादित यह स्थल लगभग 200 प्रजातियों की वनस्पतियों और 150 किस्म के पक्षियों का घर है । स्थानीय भाषा में इस पहाड़ी को झांडी ढार  कहते हैं लेकिन बिनसर का अर्थ है नव प्रभात और इस पहाड़ी से सुबह सबरे नंदा देवी पर्वत शिखर में सूर्योदय देखना अनोखा अनुभव प्रदान करता है । सूर्य की प्रथम किरण जब नंदा देवी पर पड़ती है तो 300 किलोमीटर की यह पर्वतमाला गुलाबी रंग से सरोबार हो उठती है और फिर ज्यों ज्यों सूर्य की रश्मियाँ अपने यौवन की ओर बढ़ती हैं तो पूरी पर्वत श्रंखला रजत हो उठती है । यद्दपि हमने पिछली बार कौसानी से सूर्योदय के समय गुलाबी होते हिम शिखर के दर्शन किये थे पर इस सौभाग्य से हम बिनसर में तीन दिन तक रुकने के बाद भी वंचित ही रहे । प्रकृति के एक अन्य रूप, जल शक्ति के प्रतीक वरुण देवता ने धुंध और बादलों का ऐसा जाल बिछाया कि हिम शिखर का दिखना तो दूर , हिमालय की निचली पहाड़ियां भी लुकाछिपी का खेल खेलती रही । इस ऊँची पहाड़ी पर कुमायूं विकास मंडल ने एक सुन्दर होटल का निर्माण किया है । मेरी पुत्री को इंटरनेट के माध्यम से कुछ कार्य करना था और वाई-फाई की आशा में हम इस होटल के प्रबंधक से मिले । उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया । हमारे ड्राइवर महाशय होटल का एक चक्कर लगा आये और उनसे हमें पता चला कि यहाँ से हिम दर्शन हो रहे हैं, फिर क्या था हम होटल द्वारा निर्मित व्यू पॉइंट की ओर चले गए और वहाँ से हिमालय को निहारते रहे । बर्फ की श्वेत चादर से ढका  नंदा देवी पर्वत माला की चोटियों हमें  रुक रुक कर दिखने लगी । जब कभी बादलों के बीच से सूर्य देव अपनी छटा इन चोटियों पर बिखेरते तो अचानक ही हिम शिखर चांदी जैसा चमकने लगता । हम इस अद्भुत दृश्य को निहार ही रहे थे कि होटल प्रबंधक ने हमारे लिए गर्मागर्म चाय भिजवा दी । चाय की ट्रे लिए बेयरे ने हमारे अनुरोध को अनमने ढंग से स्वीकार करते हुए त्रिशूल से लेकर नेपाल तक फैली हिम चोटियों की दिशा बताई और साथ ही यह सूचना भी दी की मुख्य  शिखर बादलों की ओट में छिपे हुए हैं यह सब कुछ पर्वत माला का निचला हिस्सा है । लेकिन हमें इस सूचना से कोई सरोकार न था हम तो चाय की चुस्कियों के साथ हिमालय को निहारते रहे । कोई आधे घंटे में पुत्री ने  भी अपना काम निपटा लिया और हम सब बिनसर वन अभ्यारण में ट्रेकिंग के लिए निकल गए । मौसम खराब होने के कारण पर्यटक भी नहीं थे और गाइड भी गायब थे । मैंने वनस्पति शास्त्र के अपने अल्प ज्ञान का प्रयोग कर कुछ वनस्पतियों जैसे देवदार, चीड़, ओक आदि की पहचान की तो वाहन चालक ने हमें बांज, उतीस, बुरांश  के पेड़ दिखाए । देवदार एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे, हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। संस्कृत साहित्य में इसका बड़ा गुणगान किया गया है और इसका प्रयोग  औषधि व यज्ञादि में होता है । ओक या सिल्वर ओक की खासियत यह है कि इसके पत्ते खाँचेदार होते हैं। पेड़ की पहचान इसके पत्तों और फलों से होती है। सिल्वर ओक की लकड़ी सुन्दर होती  है और उससे बने फर्नीचर उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। एक समय जहाजों के बनाने में इस्सका काष्ठ ही प्रयुक्त होता था। बुरांश, जिसे हमारे वाहन चालक ने पहचाना,  हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल सूर्ख रंग के फूल खिलते हैं। बुरांस के फूलों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्रोतों को यथावत रखने में बुरांस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत बनाया जाता है, वहीं इसकी लकड़ी का उपयोग कृषि यंत्रों के हैंडल बनाने में किया जाता है। हमें ऐसी जानकारी थी कि बिनसर वन्य जीव अभयारण्य में तेंदुआ पाया जाता है। इसके अलावा हिरण और चीतल तो आसानी से दिखाई दे जाते हैं। पर अभ्यारण्य में एक भी पशु नहीं दिखा हाँ लौटते वक्त एक लंगूर अवश्य दिख गया । यहां 150 से भी ज्यादा तरह के पक्षी पाये जाते हैं। इनमें उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल सबसे प्रसिद्ध है पर इन विभिन्न पक्षियों की  मधुर आवाज तो हमें सुनाई दी पर दर्शन किसी के न हुए ।  इस दो किलोमीटर की ट्रेकिंग का अंत जीरो प्वाइंट पर होता है । यह इस पहाड़ी की  सबसे उंचा शिखर है और यहाँ से हिम शिखर के दर्शन होते हैं ।  अधिक सर्दी पड़ने पर यहाँ बर्फबारी भी हो जाती है ।

जब हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे तो एक पुरानी कोठरी पर मेरी निगाह पड गई । पत्थरों  से निर्मित    यह जल स्त्रोत 120 वर्ष पुराना है जिसका जीर्णोदार कैम्पा योजना के तहत अभी कोई दो बर्ष पहले किया गया था । सदियों पुरानी पेयजल की यह व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। यह  नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी नहीं छेड़ा था। नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ऊपर के स्रोत को एकत्रित करने वाला एक छोटा सा कुण्ड है। इसकी सुंदर संरचना देखने लायक होती है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। इन्हें जल मंदिर कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है।नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है।नौला की छत चौड़े किस्म के पत्थरों  से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है।  हमारे वाहन चालक ने हमें बताया कि शादी के बाद जब नई बहू घर में आती है तो वह घर के किसी कार्य को करने से पहले नौला पूजन के लिए जाती है और वहां से अपने घर के लिए पहली बार स्वच्छ जल भरकर लाती है। यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है। विकास की सीढ़ियों को चढ़ते हुए अब लोगों ने इस व्यवस्था को भुला देना शुरू कर दिया है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ जीवधन गड आणि नाणेघाट…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ जीवधन गड आणि नाणेघाट…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

३० जानेवारी २०२१ रोजी मी रात्री १०:३० वाजता ‘गिरीदर्शन’ च्या ‘जीवधन’ गड ट्रेक साठी ‘व्याडेश्वर’ समोर पोहोचलो. परंतु नेहमीची बस आलेली नव्हती आणि त्याऐवजीची ठरवलेली बस उशिरा येत आहे असे शुभवर्तमान कळले. पुढे जवळजवळ तासभर मागील ट्रेकच्या एकमेकांच्या रंजक गप्पा मारण्यात / ऐकण्यात वेळ कसा गेला ते मात्र कळले नाही. बदली बस मात्र छोटी होती त्यामुळे सर्वजण सामानासह जेमतेमच मावले. नारायणगाव येथे रात्री १:३० ला चहा घ्यायला थांबली तेवढीच नंतर एकदम पायथ्याच्या घाटघर गावातील मुक्कामाच्या घरीच थांबली.

घराबाहेर हवेतून एक “चर्र चर्र” असा आवाज ऐकू येत होता तो कुठून येतोय हे कळेना.  परंतु तेव्हा पहाटेचे ३:३० वाजलेले असल्याने आधी मिळेल तेवढी झोप घ्यावी आणि आवाजाचे कोडे सकाळी सोडवूयात असे ठरवून पथारी पसरल्या. पण थोड्याच वेळात मी जिथे झोपलो होतो त्याशेजारील बंद दरवाजाच्या फटीतून थंड हवा झुळुझुळू यायला सुरुवात होऊन थंडी वाजायला लागली. सकाळी तारवटलेल्या चेहेर्‍याने उठलो पण खिडकी उघडल्याउघडल्या ‘गुलाबी’ सूर्यदर्शन झाले आणि थकवा पार पळून गेला.  गरमागरम पोहे आणि काळा चहा प्यायल्यावर सर्व तेवीस जण ट्रेकसाठी सुसज्ज होऊन निघालो. त्याआधी थोडे जीवधन गडाबद्दल…

सातवाहन काळात म्हणजे इ. स. पू. पहिले शतक ते तिसरे शतक ह्या काळात बांधलेला हा एक अतिप्राचीन गड आहे. ह्यांच्या काळातच ‘नाणे घाट’ हा व्यापारी मार्ग बांधून काढण्यात आला. घाटाच्या माथ्याशी गुहा असून त्यात ब्राह्मी लिपीत मजकूर कोरला आहे. गुंफेत काही प्रतिमाही होत्या ज्यांचे आज फक्त पायच पहायला मिळतात. जीवधन हा ह्या नाणेघाटचा संरक्षक दुर्ग! चला तर पुढे… बघूयात वर्तमान काळात काय काय पाहायला मिळतंय जीवधन गडावर!

आमच्या आजच्या चमूमध्ये एक मनाने तरुण, गड-इतिहास-प्रेमी तसेच मोडी लिपी तज्ञ असे लळींगकर काका खास नवी मुंबईहून ट्रेकसाठी आले होते. मुक्कामच्या ठिकाणाहून गडाच्या पायथ्याजवळ बस आम्हाला घेऊन निघाली तेव्हापासूनच त्यांनी उत्साहाने आजूबाजूला दिसणार्‍या गडांची माहिती द्यायला सुरुवात केली होती.

त्यांनी बोट दाखवलेल्या दिशेला पहिले तर आम्हाला ‘नवरा-नवरी-करवली-भटोबा’ सुळके दिसले आणि त्यामागे काही ‘वराती’ सुळके दिसले. ह्या सगळ्यांना मिळून  ‘वर्‍हाडी  डोंगर’ असे गमतीशीर नाव आहे.

जंगलातील चढाई सुरुवातीला वाटली तितकी सोपी नव्हती. दगड घट्ट नसल्याने व उंच असल्याने त्यावर पाय जपून ठेवावे लागत होते. तरी बर्‍याच ठिकाणी दगडांवर पाय ठेवायला लोखंडी जाळ्या लावलेल्या दिसल्या.

साधारण ८० टक्के चढाई झाल्यावर श्वास चांगलाच फुलला होता. हयामागे कोरोना लोकडाऊन पोटी घ्यावी लागलेली अनेक महिन्यांची ‘सक्तीची विश्रांती’ कारणीभूत होती. पुढील २० टक्के वाटचालीत दगडी पायर्‍या चढून जाणे होते तसेच एका प्रस्तरावरून पुरातत्वखात्याने टाकलेली शिडी चढून जाण्याचा रोमांचक अनुभवही सर्वांना मिळाला.

साधारण अडीच तासात वर चढून आल्यावर उजव्या हातास थोडे खालच्या अंगास लपलेली धान्याची एक दगडी कोठी दिसते. आतमध्ये पायर्‍या उतरून जवळजवळ चार खोल्या असलेले अंधारे कोठार बघायला तुम्हाला टॉर्चच्या प्रकाशाचा आधार घ्यावाच लागतो. आत पायाला सर्वत्र मऊ माती लागते. कोरलेले  दरवाजे आणि कोनाडे असलेले व प्रवेशद्वाराच्या उंबरठावजा पायरीखालून पाण्याची पन्हाळ असलेली ही जागा “पूर्वी एखादे मंदीर असावे का?” अशी एक शंका मनात आल्यावाचून रहात नाही.

क्रमशः ….

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ 

चितई गोलू मंदिर बिनसर से कोई तीस किलोमीटर दूर है । अल्मोड़ा से  यह ज्यादा पास है और आठ किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ हाईवे पर है। यहां गोलू देवता का आकर्षक मंदिर है। मंदिर के बाहर अनेक प्रसाद विक्रेताओं की दुकानें है जिनमें तरह तरह की आकृति व आकार के घंटे मिलते हैं। मुख्य गेट से लगभग तीन सौ मीटर की दूरी पर एक छोटे से मंदिर के अंदर सफेद घोड़े में सिर पर सफेट पगड़ी बांधे गोलू देवता की प्रतिमा है, जिनके हाथों में धनुष बाण है।

उत्तराखंड में गोलू देवता को स्थानीय संस्कृति में सबसे बड़े और त्वरित न्याय के लोक देवता के तौर पर पूजा जाता है। उन्हें  शिव और कृष्ण दोनों का अवतार माना जाता है। उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश  विदेश से भी लोग गोलू देवता के इस मंदिर में लोग न्याय मांगने के लिए आते हैं। वे मनोकामना पूरी होने के लिए इस मन्दिर में अर्जी लिखकर आवेदन देते हैं और मान्यता पूरी होने पर पुनः आकर मंदिर में घंटियां चढ़ाते हैं। असंख्य घंटियों को देखकर  इस बात का अंदाजा लगता है  कि भक्तों की इस लोक देवता पर अटूट आस्था है, यहां मांगी गई  भक्त की मनोकामना कभी अधूरी नहीं रहती। अनेक लोग मन्नत के लिए स्टाम्प पेपर पर भी आवेदन पत्र लिखते हैं।आवेदन पत्र चितई गोलू देव, न्याय  के देवता, अल्मोड़ा को संबोधित करते हुए लिखते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि कोर्ट में उनकी सुनवाई नहीं हुई या न्याय नहीं मिला। राजवंशी देवता के रुप में विख्यात गोलू देवता को उत्तराखंड में कई नामों से पुकारा जाता है। इनमें से एक नाम गौर भैरव भी है। गोलू देवता को भगवान शिव का ही एक अवतार माना जाता है। अद्भुत और अकल्पनीय देश में लोक मान्यताओं और विश्वास की परमपराएं सदियों पुरानी है। न्याय की आशा तो ग्रामीण जन करते ही हैं लेकिन न्याय उन्हें राजसत्ता से शायद कम ही मिलता है। और अगर न्याय न मिले तो गुहार तो देवता से ही करेंगे। इसी विश्वास और आस्था ने गोलू देवता को मान्यता दी है। हो सकता है वे कोई राजपुरुष रहे हों या राबिनहुड जैसा चरित्र रहे हों और सामान्यजनों के कष्टहरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो तथा ऐसा करते-करते वे लोक देवता के रुप में पूजनीय हो गए।

मेरा ऐसा सोचना सही भी है लोक कथाओं के अनुसार गोलू देवता चंद राजा, बाज बहादुर ( 1638-1678 ) की सेना के एक जनरल थे और किसी युद्ध में वीरता प्रदर्शित करते हुए उनकी मृत्यु हो गई थी । उनके सम्मान में ही अल्मोड़ा में चितई मंदिर की स्‍थापना की गई।

कोरोना काल में मंदिरों में लोगों का आना-जाना, काफी हद तक रोकथाम व पूजा-पाठ में निर्देशों का कड़ाई से पालन करने के कारण, कम हुआ है। इसलिए हमें इस मंदिर में ज्यादा समय नहीं लगा।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं – 8 – बिनसर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -8 – बिनसर ☆ 

बिनसर एक छोटा सा गाँव है और यहीँ क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम तीन दिन रुके और प्रत्येक दिन सुबह सबेरे पहाड़ी क्षेत्र में सैर का आनन्द लिया । ऐसी ही सुबह की सैर करते समय दो पांडेय बंधु मिल गए। मेहुल पांचवीं में पढ़ते हैं तो उनके चचेरे भाई वैभव पांडे जवाहर नवोदय विद्यालय की सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं। मेहुल वैज्ञानिक बनने का इच्छुक है और वैभव बड़ा होकर गणित का शिक्षक बनने का सपना संजोए हुए है। वैभव कहता है सफल जीवन के लिए गणित में प्रवीणता जरुरी है, वैज्ञानिक भी वही बन सकता है जिसकी गणित अच्छी हो। मुझे उसकी बातें अच्छी लगी और थोड़ी आत्मग्लानि भी हुई, कारण मुझे तो गणित से शुरू से, बचपन से ही डर लगता था। गणित की कमजोरी ने मुझे जीवन में मनोवांछित सफलता से दूर रखा और दुर्भाग्य देखिए मुझे रसायनशास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन भी भौतिक रसायन में करना पड़ा जिसे गणित ज्ञान के बिना समझना मुश्किल है फिर नौकरी भी बैंक में की जहां गणित का गुणा-भाग बहुत जरुरी है।  मैंने भी अपने अनुभव के आधार पर उसकी बात का समर्थन किया। पर्यावरण के विषय में दोनों बच्चों से चर्चा हुई, पर जितना स्कूल की किताबों में उन्होंने पढ़ा वे उसे स्पष्ट तौर से बता तो न सके लेकिन मोटा मोटी-मोटी जानकारी उन्हें थी। शायद गांव के बच्चे ऐसे ही होते हैं, उनमें संवाद क्षमता का अभाव होता है। मैंने अपना थोड़ा सा ज्ञान उन्हें दिया। मैंने बताया कि कैसे हिरण आदि जंगली जानवर पर्यावरण की रक्षा करते हैं। उनके द्वारा खाई गई घांस के बीज दूर दूर तक फैलते हैं और  दौड़ने से खुर पत्थर को मुलायम कर देता है इससे जमीन की पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है। बच्चों ने मुझे बिनसर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी देखने की सलाह दी और अनेक जंगली जानवरों, बार्किंग डियर, जंगली बकरी आदि के बारे में बताया। उन्होंने बताया की देवदार का पेड़ काफी उपयोगी है। लकड़ी जलाने के काम आती है और फर्नीचर भी बनता है। बच्चों से मैंने सुंदर लाल बहुगुणा के बारे में पूंछा । उन्हें  एकाएक याद तो नहीं आया पर जब मैंने पेड़ों की कटाई रोकने के योगदान की बात छेड़ी तो मेहुल बोल पड़ा हां चिपको आन्दोलन के बारे में उसने सुना है।

बच्चों को गांधी जी के बारे में भी मालूम है।  गांधी जी के नाम से लेकर उनके माता पिता कानाम, जन्म तिथि, जन्म स्थान, भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान आदि सब वैभव ने एक सांस में सुना दिया। अब मेहुल की बारी थी, उसने गांधी जी की हत्या की कहानी सुनाई कि 30 जनवरी को उन्हें तीन गोलियां मारी गई थी। मैंने पूंछा गांधी जी के बारे में इतना कुछ कैसे जानते हो, वे बोले हम तो गांधीजी के बारे में पुस्तकों में तो पढ़ते ही हैं फिर हमारे   परदादा स्व.श्री हर प्रसाद पाण्डेय (1907-1978 ) स्वतंत्रता सेनानी थे और अल्मोड़ा जेल में भी बंद रहे। हालांकि बच्चों ने उन्हें गांधी जी के साथ जेल में बंद होना बताया पर शायद वे नेहरू जी के साथ बंद रहे। उनकी मूर्ति भी गांव में लगाई गई है। पर मूर्त्ति में लगा उनका नाम पट्ट  छोटा है और उद्घाटनकर्ताओं की पट्टिका बहुत लंबी चौड़ी है।

दोनों बच्चों से मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। वे सवर्ण समुदाय के हैं और तरक्की करना चाहते हैं। उनकी यह सोच मुझे सबसे अच्छी  लगी, अद्भुत व अद्वतीय लगी। ऐसी सोच का मुझे मध्य प्रदेश के सवर्ण छात्रों में अभाव दिखा है और उन्हें भी शनै शनै धार्मिक कट्टरवाद की ओर ढकेला जा रहा है। वैभव को जवाहर नवोदय विद्यालय में , प्रतियोगिता से प्रवेश मिला था, पूरे ब्लाक से उसका अकेला चयन हुआ। दोनों के पिता साधारण कर्मचारी हैं और उन्होंने अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य का जो सपना संजोया है उसे पूरा करने में अपनी ओर से कोताही नहीं बरती है।अब सरकार की जिम्मेदारी है कि उनके सपने ध्वस्त न होने दें। अगर वैभव सरीखे बच्चे आगे बढ़ेंगे तो देश का भविष्य संवरेगा और यह बच्चे आगे बढ़ें, खूब पढ़ें , तरक्की करें इसकी जिम्मेदारी समाज की है, हम सबकी भी है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 3 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 3 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

इथून पुन्हा जगदीश्वरच्या मंदीराकडे येताना एका महत्वाच्या पायरीकडे लक्ष जाते, ते म्हणजे ‘हिरोजी इंदूळकर’ ह्यांच्या. हिरोजींनी मोठ्या हिकमतीने, निष्ठेने रायरीच्या डोंगराचा ‘रायगड’ असा कायापालट केला आणि महाराजांनी त्यांच्यावर जो विश्वास दाखवला होता तो सार्थ केला. महाराज जेव्हा हा दुर्ग बघायला आले तेव्हा हिरोजींनी सोन्यासारखा घडवलेला बेलाग ‘रायगड’ पाहून प्रसन्न झाले. त्यांनी हिरोजींना विचारले “तुम्हाला काय इनाम हवे?” त्यावर हिरोजी म्हणाले “मला सोने नाणे इनाम काही नको. फक्त मंदिराकडे येणार्‍या भक्तांस माझ्या नावाची पायरी दिसेल अशी ठिकाणी ती बांधण्याची परवानगी द्यावी!”

स्वामीनिष्ठ हिरोजींना मानाचा मुजरा करून पुढे आम्ही गाठले ते टकमक टोक! स्वराज्यातील गुन्हेगारांना, विश्वासघातक्यांना इथून कडेलोटाची कठोर शिक्षा दिली जात असे. पण इथेही काही पर्यटकांनी प्लास्टिकच्या बाटल्यांचा कडेलोट करून कड्याच्या टोकावरच कचरा केला आहे. असो.

इथेच घडलेली एक ऐकायला मजेशीर पण प्रत्यक्षात थरारक कथा नेहमी सांगितली जाते. ती म्हणजे, महाराज ‘टकमक’ टोकावर आले असताना त्यांच्यावर छत्री धरणारा एक सेवक वार्‍याच्या झंझावातबरोबर हवेत उडाला. सुदैवाने त्याने छत्री घट्ट पकडून ठेवल्याने तो हवेवर तरंगत, भरकटत, अलगदपणे शेजारील निजामपूर गावात सुखरूप उतरला. तेव्हापासून त्या गावाचे नाव निजामपूर छत्रीवाले असे ठेवण्यात आले. बसने पुण्यास परतीच्या मार्गावर असताना मला ह्या गावाचे नावंही एका फाट्यावर वाचायला मिळाले.

टकमक टोकावरून आमची वरात पुन्हा होळीच्या माळावर आली आणि तिथून महाराजांच्या पुतळ्यामागे असलेल्या राजदरबार, सदर पाहायला निघाली. हा परिसर मात्र चांगलाच भव्य आहे. दरबारात सिंहासनावर बसलेल्या महाराजांचा मेघडंबरी पुतळाही आहे. पण इथे काही फुटांवरून दर्शन घ्यावे लागते, अगदी जवळ जायला आता मनाई आहे. ह्याला कारण म्हणजे काही वर्षांपूर्वी कुणा समाजकंटकांनी तलवारीचा तुकडा तोडून पळविला होता.

त्यामागे आले असता दिसतात ते म्हणजे महाराजांचा राजवाडा, राण्यांचे महाल, शयनगृह इ. इथे मात्र सर्व भग्नावशेष पाहून मन खिन्न झाले. नुसतीच जोती पाहून महालांची ऊंची कशी कळणार? आपण नुसत्या कल्पनेचे महाल उभारायचे. राजवाड्याची एकंदर भव्यता मात्र जाणवल्यावचून राहत नाही. येथील एका बाजूच्या मेणा दरवाजाने तुम्हाला गंगासागर तलाव आणि मनोर्‍यांकडे जाता येते तर दुसर्‍या बाजूने धान्य कोठार व तसेच पुढे उतरून ‘रोप वे’च्या वरच्या स्थानका कडे जाता येते.

एव्हाना दोन वाजल्यामुळे जनतेला भूक लागली होती. सर्वजण जेवणाची आतुरतेने वाट पाहत होते जे थोड्याच वेळात ‘रोप वे’ ने दोघे जण घेऊन आले. मेणा दरवाज्याच्या बाहेरील मोकळ्या जागेत अंगतपंगत मांडून पोळी, फ्लॉवर-मटार-बटाटा अशी तिखट रस्सा भाजी, बटाट्याची सुकी भाजी, पापड आणि ‘गिरीदर्शन’ क्लबतर्फे ‘चितळे’ श्रीखंड अशा चविष्ट जेवणावर यथेच्छ ताव मारून झाल्यावर गंगासागर तलावाचे मधुर पाणी पिऊन आम्ही ‘दुर्गदुर्गेश्वर रायगडा’चा निरोप घेतला.

आता उर्वरीत दोन-तृतीयांश ‘रायगडा’चे दर्शन कधी मिळते आहे ह्याची मी रांगेत उभा राहून वाट पाहतो आहे. जगदीश्वर मजवर कृपा करो आणि हा योगही लवकर जुळून येवो, हीच प्रार्थना!

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर– अलमोड़ा”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा  ☆

अल्मोड़ा बागेश्वर हाईवे पर “कसार” नामक गांव में स्थित कश्यप पहाड़ी की चोटी पर एक गुफानुमा जगह पर दूसरी शताब्दी के समय निर्मित कसार देवी का मंदिर है । इस मंदिर में माँ दुर्गा के आठ रूपों में से एक रूप “देवी कात्यायनी” की पूजा की जाती है  । लोक मान्यताओं के अनुसार इसी  स्थान पर  “माँ दुर्गा” ने शुम्भ-निशुम्भ नाम के दो राक्षसों का वध करने के लिए “देवी कात्यायनी” का रूप धारण किया था

कहते है कि स्वामी विवेकानंद 1890 में ध्यान के लिए कुछ महीनो के लिए इस स्थान में आये थे । और अल्मोड़ा से कुछ दूरी पर स्थित  काकडीघाट में उन्हें विशेष ज्ञान की अनुभूति हुई थी और उसके बाद ही उन्होंने पीड़ित  मानवता की सेवा का वृत संन्यास के साथ लिया ।   इसी तरह बौद्ध गुरु “लामा अन्ग्रिका गोविंदा” ने गुफा में रहकर विशेष साधना करी थी |

यह क्रैंक रिज के लिये भी प्रसिद्ध है , जहाँ 1960-1970 के दशक में “हिप्पी आन्दोलन” बहुत प्रसिद्ध हुआ था । इस  मंदिर में  1970 से 1980 के बीच अनेक तक डच संन्यासियों ने भी साधना की । हवाबाघ की सुरम्य घाटी में स्थित इस  मंदिर के पीछे एक विशाल चट्टान है जो देखने में शेर की मुखाकृति जैसी दिखती है ।

उत्तराखंड देवभूमि का यह  स्थान भारत का एकमात्र और दुनिया का तीसरा ऐसा स्थान है , जहाँ ख़ास चुम्बकीय शक्तियाँ  उपस्थित है ।दुनिया के तीन पर्यटन स्थल ऐसे हैं जहां कुदरत की खूबसूरती के दर्शनों के साथ ही मानसिक शांति भी महसूस होती है। जिनमें अल्मोड़ा स्थित “कसार देवी मंदिर” और दक्षिण अमरीका के पेरू स्थित “माचू-पिच्चू” व इंग्लैंड के “स्टोन हेंग” में अद्भुत समानताएं हैं । ये अद्वितीय और चुंबकीय शक्ति के केंद्र भी हैं। यह क्षेत्र ‘चीड’ और ‘देवदार’ के जंगलों का घर है । यह पर्वत शिखर  अल्मोड़ा शहर के  साथ साथ हिमालय के मनोरम दृश्य भी प्रदान करता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 2 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 2 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

ह्यापुढे आम्ही पोहोचलो ते एका अतिशय ऐतिहासिक महत्वाच्या जागी तो म्हणजे होळीचा माळ. इथे गडावरील होळीचा सण साजरा व्हायचा आणि इथेच महाराजांचा राज्याभिषेकाचा सोहळा पार पडला होता. तिथल्या छत्रपतींच्या भव्य पुतळ्यापुढे नतमस्तक झाल्यावर जन्माचे सार्थक झाल्यासारखे वाटले. ‘स्वराज्य’ मिळवण्यासाठी स्वत:चे अवघे आयुष्य ओवाळून टाकणार्‍या, जिवाची बाजी लावून परक्या शत्रूचा तसेच घरभेद्यांचाही नि:पात करणार्‍या, प्रसंगी महाघोर संकटांना शौर्याने तोंड देऊन स्वत:ची, अवघ्या रयतेची, स्वदेशाची आणि स्वधर्माची अस्मिता जपणारे आणि उजळवून टाकणारे श्रीमान योगी जिथे राजसिंहासनावर बसले त्याच भूमीवर आपण उभे आहोत ही जाणीव मनाला गहिवर आणि डोळ्यांत कृतज्ञतेचे अश्रू आणते.

होळीच्या माळावरून चालत पुढे आम्ही बाजारपेठ मध्ये आलो. आता ह्या ठिकाणी घरांची फक्त जोती शिल्लक आहेत. इथे घोड्यांवरून मालाची खरेदी-विक्री चालायची असे म्हणतात. काही इतिहासतज्ञ असेही म्हणतात की ही बाजारपेठ नसून गडावर मुक्कामास असलेल्या सरदारांची / भेटीस आलेल्या खाशांच्या राहण्याची सोय म्हणून बांधलेली घरे आहेत.

बाजारपेठेतून पुढे आल्यावर एका मावशींकडे कोकम सरबत पिण्याचा मोह आवरला नाही. मावशींकडे “तुमचे गाव कोणते? आता धंदा’पाणी’ कसे सुरू आहे?” अशी विचारणा केल्यावर “पायथ्याचं हिरकणवली आमचं गाव. अजून पूर्वीइतके पर्यटक येत नाहीत.” म्हणाल्या. “इथून भवानीकडा किती लांब आहे?” असे विचारण्याचाच अवकाश त्यांनी गडाची सगळी कुंडलीच माझ्यासमोर मांडली.  ? “गड पूर्ण बघायला किमान तीन दीस लागतील, गडावर इतकी तळी आहेत, तितकी टाकं आहेत”,

त्याचजोडीला “दारूगोळ्याच्या कोठारावर इंग्रजांचा तोफगोळा पडून मोठा स्फोट झाला आणि पुढे बारा दिवस गड जळत होता”, अशी काही दारुण ऐतिहासिक माहिती बाईंकडून ऐकायला मिळाली. त्यांचा नवरा किंवा घरातील कुणीतरी गाईडचे काम करणारे असावे अशी मला शंका येते न येतेस्तोवरच एक कुरळ्या केसांचा पुरुष तिच्याकडे आला आणि म्हणाला “चल, लवकर पाणी पाज”. हयालाच मी थोड्या वेळापूर्वी पर्यटकांच्या एका चमूला माहिती देताना पहिले होते. सुशिक्षित काय किंवा अशिक्षित काय बायकोच शेवटी नवर्‍यास पाणी पाजणार!!  ?? असो.

इथून पुढे थोडे चालत आम्ही जगदीश्वर मंदिरापाशी आलो. महाराज रोज पूजेसाठी इथे येत असत. त्यामुळे मंदीराच्या बाहेर पादत्राणे उतरवूनच आत जावे. थोड्या भग्नावस्थेतील नंदीचे दर्शन घेऊन गाभार्‍यात प्रवेश करावा. शंकराच्या पिंडीचे दर्शन घ्यावे आणि आजूबाजूची गर्दी विसरून दोन मिनिटे डोळे मिटून शांत बसावे.

चिरेबंदी मंदिराची रचना भव्य असून एका चिर्‍यावर संस्कृत श्लोक कोरलेला आहे. हा चिरा भिंतीमधील इतर चिर्‍यांपेक्षा वेगळा दिसतो त्यामुळे असेही म्हणतात की हा चिरा मूळ घडणीतील नसून नंतरच्या काळात बसवण्यात आला असावा.

मंदिराच्या मागील बाजूसच छत्रपती शिवाजी महाराजांचे समाधीस्थळ आहे. ह्या पवित्र जागी माथा टेकवून सर्व भक्तमंडळी धन्यधन्य होतात. रणजीत देसाईंच्या पुस्तकातील ‘श्रीमान योगी’ इथे समाधीस्थ असले तरी सर्व हिंदूंच्या हृदयसिंहासनावर अजून जागृत राज्य करीत आहेत ह्याची जाणीव होते. महाराजांच्या समाधीमागेच वाघ्या कुत्र्याची समाधी आहे. इथूनच थोड्या दूर अंतरावर लिंगाण्याचा सुळका आव्हान देत उभा दिसतो. त्याच्या मागेच राजगड-तोरणा ही दुर्गजोडी अस्पष्ट का होईना पण दिसते. सूर्योदय किंवा सूर्यास्ताच्या वेळी मात्र स्पष्टपणे दिसते. समाधीच्या डाव्या बाजूस पहिले तर ‘कोकणदिवा’ दृष्टीस पडतो.

“मरावे परी कीर्तीरूपी उरावे”

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

२०१९ च्या दिवाळीत पंढरपूर क्षेत्री जाऊन जवळजवळ दीड तास दर्शनाच्या रांगेत उभा राहिलो असताना मी विचार करीत होतो की ‘इतका वेळ रांगेत घालवणे उचित आहे का? देवालयाला बाहेरूनच नमस्कार करायला काय हरकत आहे?’ पण मग विचार केला की देवाचे दर्शन हे सहजपणे न होता हे असेच कष्टसाध्य असले पाहिजे. नुसते पैसे भरून काही मिनिटांत होणारे सुलभ दर्शन “देखल्या देवा दंडवत!” सारखे झटपट समाधान देईलही कदाचित पण त्याने देवदर्शनाची आस फिटेल का? सरतेशेवटी एकदा पांडुरंगाच्या सगुण मूर्तीसमोर उभा राहिलो आणि मात्र डोळ्याचे पारणे फिटून धन्यधन्य झालो! कदाचित मंदिरातील, गाभार्‍यातील वातावरणाचा, आवाजाचा कुठेतरी मनावर खोलवर परिणाम होत असावा. “स्थानं खलु प्रधानं” असे म्हटले आहे ते काय उगीच नव्हे. थोडाफार असाच परिणाम नुकताच पुन्हा एकदा अनुभवास आला जेव्हा मी रायगडावरील ‘महाराजां’च्या स्फूर्तिदायक मूर्तीसमोर उभा राहिलो तेव्हा.

१६ जानेवारी २०२१ रोजी मी रात्री 10:30 वाजता ‘गिरीदर्शन’च्या ‘रायगड’ ट्रेकच्या बसमध्ये उत्साहाच्या भरात चढलो आणि लक्षात आले की मी मास्क आणि उन्हाळी टोपी ह्या दोन्ही आवश्यक गोष्टी घरीच विसरलो आहे. JJ असो. बस हलली असल्याने आता काही करणेही शक्य नव्हते. बसमध्ये मात्र सर्वत्र तरुणाई भरली होती त्यामुळे उत्साहाचे वारे संचारले होते. मग माझ्या शेजारी बसलेल्या मेकॅनिकल इंजींनीयरिंगच्या तिसर्‍या वर्षाला शिकत असलेल्या चिंचवडच्या सर्वेश बरोबर ओळख काढून गप्पा सुरू केल्या. “कोविद मुळे लेक्चर्स ऑफलाइन झाली नाहीत आणि ऑनलाइनही नियमितपणे होत नाहीत” असे गार्‍हाणे गात बिचारा जेरीस आलेला होता. कुठेतरी आयुष्यात बदल हवा म्हणून तो ट्रेकला आला होता. असो.

रात्री साधारण साडेतीन वाजता पाचाड गावातील एकांच्या मुक्कामस्थळी पोहोचलो. लगेचच घरच्या सारवलेल्या ओसरीवर पसरून सर्व पुरुषांनी ताणून दिली आणि मुली घरातील एका खोलीमध्ये विसावल्या. पुढील तीन-चार तासच जेमतेम झोपायला मिळणार होते. पण तासभर झाला असेल नसेल, आमच्या शेजारीच कांबळी टाकून झाकलेल्या एका दुरडीखाली ठेवलेल्या कोंबड्याने बांग द्यायला सुरुवात केली. त्याला आजूबाजूच्या त्याच्या साथीदारांनी सुरात सूर मिसळून साथ द्यायला सुरुवात केली. त्याच जोडीला दुरडीमध्येच असलेल्या कोंबड्याच्या पिल्लांनीही चिवचिवायला सुरुवात केली. एखाद्याच्या “झोपेचे खोबरे होणे” ह्याऐवजी झोपेचे कुकुच्च्कू होणे असा वाक्प्रचार प्रचलित करून ‘अखिल कोंबडे पक्ष्या’चा निषेध करावा असे ठरवून मी झोपेची आराधना करायला लागलो.

सकाळी साडेसहाला उठून पहिले तर ‘रोप वे’च्या पाळण्याच्या ट्रिप सुरू झालेल्या दिसल्या. लगेच आवरून आम्ही हॉटेल ‘मातोश्री’ मध्ये पोहे-चहाचा भरपूर नाश्ता करून पायथ्याशी पोहोचलो आणि आमच्या दुहेरी ‘लेग वे’ ने चढाईस प्रारंभ केला.

रविवारची सुट्टी असल्याने पर्यटकांची भरपूर गर्दी लोटली होती. त्यामुळे गडाची संपूर्ण माहिती देणार्‍या गाईडनाही काम मिळत होते. पायथ्याची सर्व दुकाने एव्हाना सजली असल्याने मला उन्हाळी टोपी लगेच विकत घेता आली. मास्क मात्र कोणीच घातलेला नव्हता, त्यामुळे मीही तो घेण्याच्या फंदात पडलो नाही. काही पायर्‍या चढून पहिल्या बुरूजापाशी थांबलो. स्वराज्याची दुसरी राजधानी असलेल्या रायगडच्या दर्शनाला आलेल्या भक्तांच्या भावना अनावर होऊन “छत्रपती शिवाजी महाराज की जय”, “जय भवानी, जय शिवाजी” अशा उत्स्फूर्त घोषणा सतत उठत होत्या. तिथल्या दुकानातच महाराजांची प्रतिमा असलेला ‘जाणता राजा’ लिहिलेला भगवा झेंडा मिळत होता. त्यासोबत फोटो काढून घेण्याची सर्वजण धडपड करीत होते. काहीजण तो झेंडा हातात घेऊन धावत गड चढून जात होते.

आपल्या आवडत्या राजाला मानाचा मर्दानी मुजरा देण्याची व भेटण्याची केवढी विलक्षण आतुरता!!

मजल दरमजल करीत चढत असताना आमच्या मध्येच पाठीवर पायरीचे तासीव अवजड दगड लादलेली गाढवे ही गड चढत होती. एका पाथरवटाला विचारले तर कळले की एका दिवसात एक गाढव तीन फेर्‍या मारते. हे ऐकून मात्र ह्या कष्टाळु प्राण्याचे भारीच कवतिक वाटले. इथे आम्ही कसाबसा एकदा हा गड चढउतार करून मोठा पराक्रम गाजवणार होतो! अर्थात रायगडच्या पायर्‍यांचे वैशिष्ट्य म्हणजे सकाळी चढाईच्या वेळेत उन्ह अजिबात लागत नव्हते व त्यामुळे थकवा जाणवत नव्हता. एक पर्यटक मोबाईलवर मोठयाने गाणी ऐकत गड उतरत होता त्याला आमच्या चमूतील एकाने ताबडतोब बंद करायला लावला. सुमारे दोन-सव्वादोन तासांत आम्ही वर पोहोचलो.

प्रथम दर्शन झाले ते महादरवाज्याचे. काही वर्षांपूर्वीच बसवलेला हा 16 फूटी भव्य दरवाजा खरोखर बघण्यासारखा आहे. त्यानंतर स्वागत करतो ते ‘हत्ती तलाव’. “हत्ती तलावात शिरला तर कसं बाहेर येईल?” तर ह्याचे उत्तर “ओला होऊन!” हा विनोद मला आठवला. पण रायगडावरील ह्या तलावात जर हत्ती शिरला तर तो खात्रीने पायाचे तळवेही न ओलावता कोरडा ठणठणीत बाहेर येईल इतका हा शुष्क पडला आहे. पावसाचे पाणीही गळतीमुळे ह्यात टिकत नाही. पूर्वी केलेल्या गळती-प्रतिबंधक योजना पूर्णपणे अयशस्वी ठरल्या आहेत. इथून थोडे वर आल्यावर ‘शिरकाई’ देवीचे मंदिर लागते.

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print