सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – जब पराए ही हो जाएँ अपने।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने
जिद् दा सऊदी अरब का एक सुंदर शहर है। चौड़ी छह लेनोंवाली सड़कें, साफ – सुथरा शहर, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, यूरोप के किसी शहर का आभास देने वाला सुंदर सजा हुआ शहर। यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। कई यात्रियों की यह चहेती शहर है। हर एक किलोमीटर की दूरी पर सड़क के बीच गोल चक्र सा बना हुआ है जिस पर कई सुंदर पौधे और घास लगे हुए दिखाई देते हैं। रात के समय सड़कें अत्यंत प्रकाशमय है। सब कुछ झिलमिलाता सा दिखता है। जगह-जगह पर विभिन्न प्रकार के आकारों की लकड़ी और पत्थर आदि से बनाई हुई आकृतियां दिखाई देती हैं। यह आकृतियाँ शहर को सजाने के लिए खड़ी की जाती हैं। यहाँ तक कि सड़कों पर बड़े-बड़े झाड़ फानूस भी लगे हुए दिखाई देते हैं।
जिद् दा ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर है। इस शहर से 40 -50 किलोमीटर की दूरी पर मक्का नामक धर्म स्थान है। मुसलमान धर्म को मानने वाले निश्चित रूप से जीवन में एक बार अपने इस दर्शनीय तीर्थस्थल पर अवश्य आते हैं। इसे वे हज करना कहते हैं और हज करनेवाला व्यक्ति हाजी कहलाता है।
भारत से भी प्रतिवर्ष 25 से 30 लाख लोग मक्का जाते हैं। जब तीर्थ करने का महीना आता है, जिसे रमादान कहते हैं तो हर एक एयरलाइन हर हाजी की यात्रा को आसान बनाने के लिए टिकटों की दरें घटा देता है। यह सुविधा केवल हाजियों के लिए ही होती है। जिद् दा शहर में उतरने के बाद हाजियों के लिए बड़ी अच्छी सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। मुफ़्त खाने- पीने की व्यवस्था हवाई अड्डे से कुछ दूरी पर ही की जाती है। अलग प्रकार के कुछ टेंट से बने होते हैं जहाँ इनके इमीग्रेशन के बाद इन हाजियों को बिठाया जाता है। यहीं से बड़ी संख्या में बड़ी-बड़ी बसें छूटती हैं। चाहे यात्री किसी भी देश का निवासी हो, जो हाजी होता है उसके लिए अनुपम व्यवस्था होती ही है और इन्हीं बसों के द्वारा उन्हें मक्का तक पहुँचाया जाता है हर देश की ओर से जिद्दा में एजेंट्स मौजूद होते हैं और वही हर देश से आने वाले हाजियों की सुख – सुविधाओं की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से करते हैं। कुछ लोग बिना एजेंट के भी यात्रा करते हैं।क्योंकि वहाँ की भाषा अरबी भाषा है जिसे बाहर से आने वाले नहीं बोल पाते हैं तो एजेंट के साथ होने पर आसानी हो जाती है।
उन दिनों मेरे पति बलबीर सऊदी अरब के इसी जिद् दा शहर में काम किया करते थे। मुझे अक्सर वहाँ आना – जाना पड़ता था। मैं भारत में ही अपनी बेटियों के साथ रहा करती थी। प्रतिवर्ष मुझे तीन -चार बार वहाँ जाने का अवसर मिलता था इसलिए वहाँ की नीति और नियमों से भी मैं परिचित हो गई थी। वहाँ के नियमानुसार मैं भी हवाई अड्डे पर उतरने से पूर्व काले रंग का बुर्खा पहन लिया करती थी जिसे वहाँ के लोग अबाया कहते हैं। माथे पर लगी बड़ी बिंदी को हटा देती थी क्योंकि वहाँ के निवासी बिंदी को हराम समझते हैं। मैंने उन सब नियमों का हमेशा पालन किया ताकि कभी किसी प्रकार की मुश्किलों का सामना ना करना पड़े।
जो लोग स्थानीय न थे उन्हें चेहरे पर चिलमन या पर्दा डालने की बाध्यता न थी। अतः केवल काले कपड़े से सिर ढाँककर घूमने की छूट थी। पहले पहल वहाँ के नियम – कानून देखकर मैं भी घबरा गई थी पर धीरे-धीरे आते – जाते मुझे भी उन सबकी आदत – सी पड़ गई फिर अंग्रेजी में कहावत है ना बी अ रोमन व्हेन यू आर ऐट रोम
इससे किसी भी प्रकार की मुसीबतों से हम बचते हैं।
इस देश में स्त्रियों को वह आजादी नहीं दी जाती है जो हमें अपने देश में देखने को मिलती है। यदि हम उनके नियमों का सही रूप से पालन करते हैं तो सब ठीक ही रहता है अब सालभर में कई बार आते जाते मैं काले पहनावे में स्त्रियों को देखने और स्वयं भी उसी में लिपटे रहने की आदी हो चुकी थी।
2003 के दिसंबर का महीना था मैं अपनी छुट् टी जिद् दा में बिताकर अब घर लौट रही थी। हवाई अड् डे में इमीग्रेशन के बाद मैं अन्य यात्रियों के साथ कुर्सी पर जा बैठी इमीग्रेशन के लिए जब मैं कतार में खड़ी थी तब एक वृद्ध व्यक्ति को विदा करने के लिए कई भारतीय आए हुए थे। वे सबसे गले मिलते और आशीर्वाद देते। उनके मुँह से शब्द अस्पष्ट फूट रहे थे। आँखों पर मोटे काँच का चश्मा था। आँखों से बहते आँसू और काँपते हाथ निरंतर उपस्थित लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।
इमीग्रेशन के बाद वे भी एक कुर्सी पर जाकर बैठ गए। उनके कंधे पर एक छोटा -सा अंगोछा था जिससे वे अपनी आँखें बार-बार पोंछ रहे थे। मेरा हृदय अनायास ही उनकी ओर आकर्षित हुआ। मैंने देखा वे अकेले ही थे इसलिए मैंने उनकी बगल वाली कुर्सी के सामने अपना केबिन बैग रखा और पानी की एक बोतल खरीदने चली गई। जाते समय उस बुजुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। (वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।)
लौट कर देखा बुजुर्ग की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। उनके पोपले मुँह वाले पिचके गाल आँसुओं से तर थे। उनकी ठुड् ढी पर सफेद दाढ़ी थी जो हजामत ना करने के कारण यूं ही बढ़ गई थी। उन्हें रोते देख मैं उनके बगल में बैठ गई। बोतल खोलकर गिलास में पानी डालकर उनके सामने थामा फिर बुजुर्ग के हाथ पर हाथ रखा तो सांत्वना के स्पर्श ने उन्हें जगाया और उन्होंने काँपते हाथों से गिलास ले लिया। दो घूँट पानी पीकर शुक्रिया कहा। बुजुर्ग के काँपते ओंठ और कंपित स्वर ने न जाने क्यों मुझे भीतर तक झखझोर दिया। न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि वह इस शहर में अपनी कुछ प्रिय वस्तु छोड़े जा रहे थे। उनका इस ढलती उम्र में इस तरह मौन क्रंदन करना मेरे लिए जिज्ञासा का कारण बन गया। मैंने फिर एक बार बाबा को स्पर्श किया और उनसे पूछा, “बाबा क्या किसी प्रिय व्यक्ति को इस शहर में छोड़कर जा रहे हैं ?” उन्होंने मेरे सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया बस रोते रहे।
विमान के छूटने का तथा यात्रियों को द्वार क्रमांक 12 पर कतार बनाकर खड़े होने के लिए निवेदन किया गया। सभी से कहा गया कि वे अपने पासपोर्ट तथा बोर्डिंग पास तैयार रखें। लोगों ने तुरंत द्वार क्रमांक 12 पर एक लंबी कतार खड़ी कर ली। हम मुंबई लौट रहे थे। एयर इंडिया का विमान था। जिद् दा से मुंबई का सफर तय करने के लिए 5:30 घंटे लगते हैं। अभी सुबह के 10:00 बजे थे 11:00 बजे हमारा विमान उड़ान भरने वाला था। हम 4:30 बजे मुंबई पहुँचने वाले थे। अनाउंसमेंट के बाद भी जब बाबा ना उठे तो मैंने भी उनके साथ हो लेने का निश्चय किया। हवाई अड्डे के मुख्य द्वार से काफी दूर विमान खड़े किए जाते थे। वहाँ तक पहुँचाने के लिए हवाई अड्डे द्वारा नियोजित सुंदर बसों की व्यवस्था थी। जब आखरी बार यात्रियों को बस में बैठने के लिए अनाउंसमेंट किया गया तब मैंने उनसे कहा बाबा चलिए हमारे विमान के उड़ान भरने का समय हो गया। वे कुछ ना बोले। कंधे पर एक थैला था, हाथ में एक लाठी। वे लाठी टेकते हुए आगे बढ़ने लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। पासपोर्ट और बोर्डिंग पास दिखाने के लिए कहा गया। मैंने उनके कुरते की जेब से झाँकते पासपोर्ट और टिकट निकाल कर उपस्थित अफसर को दिखाया और हम आखरी बस की ओर अग्रसर हुए।
न जाने क्यों बुज़ुर्ग के प्रति मेरे हृदय में एक दया की भावना सी उत्पन्न हो रही थी। वे असहाय और किसी दर्द से गुज़र रहे थे। साथ ही उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा सी जागृत हो गई थी। बुज़ुर्ग भी मेरे द्वारा दी गई सहायता को चुपचाप स्वीकारते चले गए। अब दोनों के बीच एक अपनत्व की भावना ने जन्म ले लिया था।*
बस में बैठते ही मैंने फैसला कर लिया था कि मैं भी उस बुजुर्ग के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए एयरहोस्टेस से निवेदन करूँगी ताकि यात्रा के साढ़े पाँच घंटों में और कुछ जानकारी उनसे हासिल कर सकूँ। ईश्वर ने मेरी सुन ली कहते हैं ना जहाँ चाह वहीं राह। एयरहोस्टेस ने तुरंत मेरी सीट बदल दी और बुजुर्ग की बगल वाली सीट मिल गई। मुझे देखकर बुजुर्ग ने एक छोटी – सी मुस्कान दी। मानो वे अपनी प्रसन्नता जाहिर कर रहे थे। मैंने अपनी सीट पर बैठने से पहले उनकी लाठी ऊपर वाले खाने में रख दी साथ ही अपना केबिन बैग भी। बैठने के बाद पहले बेल्ट बाँधने में उनकी सहायता की, उनके हाथ काँप रहे थे।संभवतः कुछ अकेले यात्रा करने का भय था, कुछ आत्मविश्वास का अभाव भी। फिर अपनी बेल्ट लगा ली। इतने में एयर होस्टेस ने हमें फ्रूटी का पैकेट पकड़ाया। मैंने दो पैकेट लिए और बुजुर्ग की ओर एक पैकेट बढ़ाया।
मेरी छोटी – छोटी सेवाओं ने बुजुर्ग के दिल में मेरे लिए खास जगह बना दी। अब उनका रोना भी बंद हो चुका था। मैं भी आश्वस्त थी और अब जिज्ञासा ने प्रश्नावलियों का रूप ले लिया था। मन में असंख्य सवाल थे जिनके उत्तर यात्रा के दौरान इन साढ़े पाँच घंटों में ही मुझे हासिल करना था।
मैंने ही पहला सवाल पूछा, फिर दूसरा, फिर तीसरा और फिर चौथा …..
थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई, बिल्कुल चुप और बुज़ुर्ग बस बोलते रहे, बस बोलते ही चले गए। उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा आज मैं उन सच्चाइयों को आप पाठकों के सामने रख रही हूँ। उन्हें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे शायद इन घटनाओं के सिलसिले को पढ़कर आपका हृदय भी द्रवित हो उठे। मैं इस कहानी में बुजुर्गों का नाम तथा पहचान गुप्त रखना चाहूँगी क्योंकि किसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाना उचित नहीं है।
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बुजुर्ग का बेटा मुंबई शहर में टैक्सी चालक था।काम ढूँढ़ने के लिए सत्रह वर्ष की उम्र में वह इस शहर में आया था। वह जब सफल रूप से पर्याप्त धन कमाने लगा तो वह अपने माता – पिता को भी गाँव से मुंबई ले आया था। माता-पिता गाँव में दूसरों के खेत में मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करते थे। बेटा बड़ा हुआ तो उसका विवाह किया गया। अब तो उसके बच्चे भी कॉलेज में पढ़ रहे थे। बुजुर्ग की पत्नी और बहू के बीच अब धीरे-धीरे अनबन होने लगी थी। संभवतः कम जगह, बढ़ती महंगाई ने रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं। अनबन की मात्रा इतनी बढ़ गई कि बुज़ुर्ग के बेटे ने उन्हें अलग रखने का फैसला किया।
2000 के फरवरी माह की एक सुहानी शाम के समय बुजुर्गों का बेटा अपने माता-पिता के लिए हज करने के लिए मक्का मदीना भेजने की व्यवस्था कर आया।वे अत्यंत प्रसन्न हुए अपने बेटे – बहू को आशीर्वाद देते नहीं थकते थे। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था। बुजुर्ग और उनकी पत्नी ने अपने सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि उन्हें हज पर जाने का मौका मिलेगा। बेटे से पूछा कि इतने पैसों का प्रबंध कैसे हो पाया तो उसने कहा कि उसने अपना घर गिरवी रखा है। वह अपने माता पिता को लेकर हज कर आना चाहता है।उनके पड़ोसी उनसे मिलने आते और उनके सौभाग्य की सराहना करते। बूढ़ा अपने बेटे बहू की प्रशंसा करते ना थकते।
फिर वह सुहाना दिन भी आ गया। बुजुर्ग और उनकी पत्नी अपने बेटे के साथ छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर पहुँचे। कोई फूलों का गुच्छा देता तो कोई फूलों की माला पहनाता। अनेक पड़ोसी और रिश्तेदार उन्हें विदा करने एयरपोर्ट आए थे।
बुजुर्ग ने अपनी जिंदगी बड़े कष्टों में गुजारी थी तभी तो उनका बेटा 17 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश के एक गाँव से उठकर रोज़गार की तलाश में मुंबई आया था। उन्होंने कभी भी नहीं सोचा था कि वह कभी हज करने जा सकेंगे। दो वक्त की रोटी जहाँ ठीक से नसीब ना हो वहाँ इतना बड़ा खर्च कैसे किया जा सकता है भला? पर बेटे ने तो वह सपना पूरा करना चाहा जो कभी आँखों ने देखे भी न थे।
हवाई यान ने उड़ान भरी। मां-बाप और सुपुत्र चले मक्का। 10 मार्च 2001 व्यवस्थित योजना के मुताबिक सुचारू रूप से सब कुछ होता रहा। जिद् दा हवाई अड् डे से बस में बैठकर अन्य यात्रियों के साथ उसी दिन रात को तीनों मक्का पहुँचे।
बुजुर्ग और उनकी पत्नी की खुशी की सीमा न थी वह तो मानो स्वर्ग पहुँच गए थे। अल्लाह के उस दरवाजे पर आकर उस दिन खड़े हुए जहाँ नसीब वाले ही पहुँच सकते थे। मक्का में यात्रियों और हाजियों की भीड़ थी बेटे ने हिदायत दी थी कि वे एक दूसरे के साथ ही रहे साथ ना छोड़े।
बुजुर्ग और उनकी पत्नी अनपढ़ थे। मजदूरी करके जीवन काटने वाला व्यक्ति दुनिया की रीत भला क्या समझे उसके लिए तो दो वक्त की रोटी पर्याप्त होती है मक्का का दर्शन हो गया काबा के सामने खड़े अल्लाह से दुआएँ माँग रहे थे। अपने बेटे की लंबी उम्र और सफल जीवन के लिए दुआएँ कर रहे थे। उन्हें क्या पता था कि वह उसी स्थान पर कई दिनों तक खड़े-खड़े बेटे की प्रतीक्षा ही करते रहेंगे।
मक्का में दो दिन बीत गए। बेटा उसी भीड़ में कहीं खो गया। भाषा नहीं आती थी। किसी तरह अन्य भारतीयों हाजियों की सहायता लेकर पुलिस से गुमशुदा बेटे की शिकायत दर्ज़ कराई। बुजुर्ग की पत्नी का रो-रोकर हालत खराब हो रही थी।
गायब होने से पहले बेटे ने अपने वालिद के हाथ में पाँच सौ रियाल रखे थे और कहा था थोड़ा पैसा अपने पास भी रखो अब्बा।
पुलिस ने छानबीन शुरू की। बुजुर्ग के पास न पासपोर्ट था, न वीज़ा,न हज पर आने की परमिट पत्र।भाषा आती न थी। घर से बाहर ही कभी मुंबई शहर में अकेले कहीं नहीं गए थे यह तो परदेस था। पति-पत्नी भयभीत होकर काँपने लगे, पत्नी रोने लगी।पर पुलिस को तो नियमानुसार अपनी ड्यूटी करनी थी।
पुलिस ने कुछ दिनों तक उन्हें जेल में रखा क्योंकि उन पर बिना पासपोर्ट के पहुँचने का आरोप था। पर छानबीन करने पर कंप्यूटर पर उनका पासपोर्ट नंबर और नाम मिला तो मान लिया गया कि उनका पासपोर्ट कहीं खो गया। उन्होंने अपने बेटे का नाम और मुंबई का पता बताया तो पता चला कि उस नाम के व्यक्ति की जिद् दा से एग्जिट हो चुकी थी।
एक और एक जोड़ने पर बात स्पष्ट हो गई। बुजुर्ग और उनकी पत्नी से पिंड छुड़ाने के लिए उन्हें मक्का तक ले आया और उन्हें धोखा देकर उनका पासपोर्ट तथा टिकट लेकर स्वयं भारत लौट गया।
बात यही॔ खत्म नहीं हुई। घर का जो पता दिया गया था उस पते अब उस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता था। बूढ़े को याद आया कि उसके रहते ही उस घर को देखने कुछ लोग आए थे। तब बेटे ने बताया था कि वह घर गिरवी रख रहा था बुजुर्ग को क्या पता था कि बेटे और बहू के दिमाग में कुछ और शातिर योजनाएँ चल रही थीं।
उधर भारतीय एंबेसी लगातार बुजुर्ग के परिवार को खोजने की कोशिश कर रही थी। इधर बुजुर्ग और उनकी पत्नी की हालत खराब हो रही थी। एक तो बेटे द्वारा दिए गए धोखे का गम था, दूसरा बुढ़ापे में विदेश में जेल की हवा खानी पड़ी। अपमान और ग्लानि के कारण बुजुर्ग की पत्नी की तबीयत दिन-ब-दिन खराब होने लगी थी। पुलिस की निगरानी में आश्रम जैसी जगह में उन्हें रखा गया था। यहाँ उन हाजियों को रखा जाता था जो हज करने के लिए मक्का तो पहुँच जाते थे पर उनके पास पर्याप्त डॉक्यूमेंट ना होने के कारण वे लौटकर अपने देश नहीं जा पाते। यह लोग अधिकतर इथियोपिया,चेचनिया इजिप्ट या अन्य करीबी देशों से आने वाले निवासी हुआ करते थे। फिर कुछ समय बाद वे इसी देश में रह जाते थे।
बुजुर्ग और उनकी पत्नी गरीब जरूर थे पर उनकी अपनी इज्जत थी उनके गाँव के निवासी, मुंबई के पड़ोसी सब मान करते थे वरना मुंबई के हवाईअड् डे पर फूल लेकर उनसे मिलने क्यों आते? यह तो हर हज पर जाने वाले व्यक्ति का अनुभव होता है उसे विदा करने और लौट आने पर स्वागत करने के लिए असंख्य लोग आते हैं।
तीन महीने बीत गए। बुजुर्ग और उनकी पत्नी अब मक्का से जिद् दा लाए गए। उसी शहर में कुछ ऐसे भारतीय थे जो जिद् दा शहर में नौकरी के सिलसिले में कई सालों से रह रहे थे वे साधारण नौकरी करते थे तथा बड़े-बड़े फ्लैट किराए पर लेकर कई लोग एक साथ रहा करते थे। उन लोगों में कुछ टैक्सी चालक थे कुछ टेलीफोन के लाइनमैन तो कुछ फिटर्स तथा कुछ बड़ी दुकान में सेल्समैन। सभी अपने-अपने परिवारों को भारत में छोड़ आए थे और वहीं सारे पुरुष एक साथ भाई – बंधुओं की तरह रहा करते थे।
इन तीन महीनों में इन्हीं लोगों ने दौड़ भाग कर इंडियन एंबेसी से पत्र व्यवहार किया पैसे इकट्ठे किए कागजात बनवाए और बुजुर्गों को जिद् दा ले आए। बुजुर्ग की उम्र सत्तर से ऊपर थी और उनकी पत्नी अभी सत्तर से कम। वे दिन रात प्रतीक्षा में रहते। जिन लोगों ने उन्हें अपने साथ रखा था वे जानते थे बुज़ुर्ग का बेटा उन्हें ले जाने के लिए यहाँ छोड़ कर नहीं गया था। उसकी तो साज़िश थी उन से पीछा छुड़ाने का। बुजुर्ग इस सच्चाई को कुछ हद तक मान भी लेते लेकिन उनकी पत्नी इस बात को मानने को तैयार नहीं थी। वे दोनों इसी गलतफ़हमी में थे कि उनका बेटा कहीं खो गया था।
पत्नी का रो – रो कर बुरा हाल हो रहा था। जिस तरह पानी बरसने के बाद कुछ समय बीतने पर जमीन ऊपर से सूख तो जाती है पर भीतर तक लंबे समय तक उसमें गीलापन बना रहता है।ठीक उसी तरह बूढ़ी की हर साँस से दर्द का अहसास होता था। अब रोना बंद हो गया पर साँसें भारी हो उठीं।
उनके इर्द-गिर्द रहनेवाले वे सारे लोग उनके आज अपने थे। एक बाप अपने कलेजे के टुकड़े को न छोड़ पाएगा पर माँ- बाप को बोझ समझनेवाला शायद उन्हें छोड़ सकता है।यह किसी धर्मविशेष की बात नहीं है, वरना स्वदेश में इतने वृद्धाश्रम न होते।
बुजुर्गों की पत्नी की तबीयत बिगड़ती गई और माह भर सरकारी अस्पताल में रहने के बाद अपने नालायक बेटे को याद करते – करते उसने दम तोड़ दिया। धर्मपत्नी की मय्यत को वहीं मिट्टी दी गई क्योंकि भारत में अब बेटे का भी पता न था और हाथ में किस प्रकार के कोई डॉक्यूमेंट लौटने के लिए नहीं थे। घर बेचकर किस शहर को वह चला गया था यह तो खुदा ही जानता था। बुजुर्ग अब अकेले रह गए पत्नी की मौत ने मानो उनकी कमर ही तोड़ दी। वे भी उसी के साथ जाना चाहते थे मगर मौत अपनी मर्जी से थोड़ी आती है। उनका कलेजा हरदम मुँह को आ जाता था पर शायद उन्हें अभी और दुख झेलने थे।
सारे अन्य भारतीय लोगों के बीच रहते और इंडियन एंबेसी के निर्णय का वे रास्ता देखते रहे।
आज वही दिन था जब जिद् दा शहर से हमेशा के लिए वे विदा हो रहे थे। अपनी औलाद ने पिंड छुड़ाने के लिए इतनी दूर लाकर छोड़ा था और जिनके साथ उनका रिश्ता भी नहीं वे अपनों से बढ़कर निकले। पराए देश में एक असहाय दंपति का साथ दिया, उनकी सेवा की, सहायता की, आश्रय दिया। यहां तक कि बुजुर्ग की पत्नी का अंतिम संस्कार भी नियमानुसार किया। बुजुर्ग के लिए एंबेसी जाते रहते और अंत में विभिन्न एजेंटों की सहायता से पासपोर्ट बनाकर वीजा की व्यवस्था करके एग्जिट का वीजा लेकर आए। वह आज उनके कितने अपने थे उनके साथ पिछले छह महीने रहते-रहते ऐसा अहसास हुआ कि संसार का सबसे बड़ा रिश्ता प्रेम का रिश्ता है। जिद् दा शहर में रहने वाले लोग चाहे भारत के किसी भी राज्य के हों, चाहे जिस किसी धर्म के हों उनमें प्रेम है, एकता है। वे सब मिलजुलकर सभी त्यौहार मनाते हैं। खुशी और ग़म में एक दूसरे का साथ देते हैं।
बुजुर्ग की आँखें चमक उठी और बोले यह सब जो मुझे छोड़ने आए थे वह सब हिंदू, मुसलमान और ईसाई लोग थे। पर उन सब की एक ही जाति और धर्म है और वह है मानवता। फिर बुजुर्ग ने अल्लाह का शुक्रिया करते हुए कहा कि मैं तो जिद् दा की पुलिस, सरकार, राजा सबको धन्यवाद देता हूं क्योंकि सब ने हमारी बहुत देखभाल की।
विमान को उड़ान भरे पाँच घंटे हो गए हमें पता ही न चला। एक बार फिर से सीट बेल्ट बाँधने का अनाउंसमेंट हुआ और मुझे अहसास हुआ कि हम छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर उतरने जा रहे थे। मेरा दिल एक बार इस चिंता से धड़क उठा और समझ में नहीं आ रहा था कि मैं बुजुर्ग से कैसे पूछूँ फिर भी साहस जुटाकर मैंने उनसे पूछ लिया कि मुंबई उतर कर वे कहाँ जाएँगे। तब उन्होंने अपनी जेब से काँपते हाथों से एक लिफाफा निकाला जिसमें एक महिला की तस्वीर थी और उसका पता लिखा हुआ था।
विमान उतरा, हम इमीग्रेशन की ओर निकले। औपचारिकता पूरी करने के बाद अपना सामान बेल्ट पर से उतारकर ट्रॉली पर रखा और बाहर आए। एक मध्यवयस्का महिला एक व्हीलचेयर लेकर खड़ी थी। हम जब थोड़ा और आगे बढ़े तो उस महिला ने बुजुर्ग को आवाज लगाई, “अब्बाजान मैं रुखसाना!” और वह एक सिक्योरिटी के अफसर के साथ बुजुर्ग के पास आई। बड़े प्यार से उन्हें गले लगाई मीठी आवाज में बोली, “अब्बाजान घर चलिए। सब आपका इंतजार कर रहे हैं।
मैंने उनसे पूछा,”रुखसाना जी बाबा को कहाँ ले जा रही हैं ? “
उन्होंने मेरी ओर ऊपर से नीचे एक बार देखा फिर पूछा, ” आपका परिचय?” मैंने भी झेंपते हुए कहा, ” बस कुछ घंटों का साथ था बाबा के साथ। मैं भी यात्री हूँ।
बाबा बोले,” रुखसाना बेटा साढ़े पाँच घंटों में यह सफ़र कैसे कटा पता ही न चला।अगर ये ख़ार्तून ना मिलतीं तो यह सफ़र मेरे लिए तय करना बड़ा मुश्किल होता। आपने पूछा था ना कि मैं क्या पीछे छोड़े जा रहा हूँ ? मैं अपनों को छोड़ आया हूँ जिन्होंने मुझे आज अपने देश लौटने का मौका दिया। इसलिए मैं अपने आँसू रोक न पा रहा था। अगर आप ना मिलतीं तो शायद इसी तरह रोता रहता। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया,आपने बोझ हल्का करने में मदद की।
रुखसाना ने अपने पर्स से अपना पहचान पत्र निकाला ‘सोशल वर्कर मुंबई’। बाबा का नया घर था वृद्धाश्रम! जिद् दा के बच्चों ने ही यह व्यवस्था की थी जिनके साथ उनका कोई खून का रिश्ता नहीं था।
बाबा ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा आपने अपना नाम क्या बताया बेटा ?
मैं जोर से हँस पड़ी, मैंने कहा “बाबा मैंने तो आपको मेरा परिचय दिया ही ना था। “
तब तक हम तीनों बाहर पहुंच गए थे जहाँ टैक्सी मिलती है। मैंने बाहर आने पर झुककर बाबा को प्रणाम किया और कहा “मैं भी आपकी हिंदू बेटी हूँ। फिर मिलूँगी आपसे।”
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈