हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3 ?

(15 फरवरी 2020)

गुजरात के वेरावल शहर में यह हमारा तीसरा दिन था। उस दिन सुबह फिर एक बार सोमनाथ दर्शन कर हम पोरबंदर होते हुए द्वारका के लिए रवाना हुए।

इस समय यहाँ चौड़ी – सी सड़क बनाई जा रही थी और कहीं – कहीं सड़क तैयार भी थी। सोमनाथ से द्वारका 236 किलोमीटर की दूरी है। इसे तय करने में वैसे तो साढ़े तीन घंटे ही लगते हैं पर हम बीच में अन्य कई स्थान होते हुए द्वारका पहुँचे जिस कारण हमें द्वारका पहुँचते हुए दोपहर के तीन बज गए।

सड़क समुद्र से खास दूर न होने की वजह से हवा में एक अलग- सी गंध थी और हवा भी शीतल थी। जब गाड़ी समुद्र से थोड़ी दूरी से गुज़रती तो समुद्र की लहरों के उठने और गिरने की आवाज स्पष्ट सुनाई देती जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया और पानी उतरता गया वैसे -वैसे आवाज कम होती गई।

हमने ए.सी चलाने की बजाए खिड़कियाँ खुली रखना अधिक पसंद किया। सड़क के दोनों किनारे पर खेत नज़र आए। हरियाली मनभावन थी। हवा के कारण खड़ी फसलें इस तरह झूमती मानो आते – जाते लोगों का नतमस्तक होकर वे सबका स्वागत कर रही हों।

हम पोरबंदर पहुँचे। यहाँ का आकर्षण था उस घर को देखना जहाँ गाँधी जी का जन्म हुआ था। यहीं पोरबंदर में श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र सुदामा का भी निवास स्थान था। हमारे लिए दोनों ही स्थान उत्साह का कारण थे।

हम टैक्सी स्टैंड पर उतरे और भीड़ को धकेलते हुए एक ऑटोरिक्शा में बैठे। एक सुंदर पीले रंग से रंगी बड़ी – सी इमारत के सामने रिक्शा रुक गई। इस इमारत का नाम है कीर्ति मंदिर जिसके भीतर प्रवेश करने पर बड़ा- सा आँगन पड़ता है। सीढ़ी से ऊपर दूसरी मंज़िल पर कस्तूरबा पुस्तकालय है। इमारत की दाहिनी ओर मंदिर- सा बना हुआ है। सभी धर्म की निशानियाँ यहाँ देखने को मिलती है। कहीं कलश तो कहीं गुंबद सा बना हुआ है पर हाँ कहीं कोई मूर्ति नहीं है। यह एक दोमंजिला भव्य इमारत है जो वास्तव में एक संग्रहालय ही है।

यहाँ गाँधी जी के जीवन से जुड़ी कई अहम घटनाओं की तस्वीरें लगी हुई हैं। यों कह सकते हैं कि यह फोटोगैलरी ही है। बा और बापू दोनों की युवावस्था की बड़ी तस्वीर देखने को मिलती हैं। जिसके तीन तरफ़ काँच लगा हुआ है।

इस विशाल आँगन में प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को भव्य उत्सव और कार्यक्रम का आयोजन होता है। बड़ी संख्या में यहाँ लोग उपस्थित होते हैं।

आँगन की बाईं ओर गाँधी जी का जन्मस्थल है। यह इमारत आज दोमंजिली है जिसमें बाईस कमरे हैं पर ये सभी कमरे बहुत छोटे -छोटे ही हैं। कुछ – कुछ कमरों में मेज़नाइन फ्लोर भी बने हुए हैं।

2 अक्टोबर 1869 को जब गाँधी जी का यहाँ जन्म हुआ था तब यह एक पतली गलीनुमा जगह थी। आज जिस विशाल कीर्ति मंदिर को पर्यटक देखने जाते हैं वह बाद में बनाया गया है।

गाँधी जी के जन्मस्थल वाली इमारत उनके दादाजी के पिता (पड़पिता) ने 1777 में बनवाई थी। उस समय यह एक मंज़िली इमारत थी बाद में परिवार बड़ा होने पर कमरे भी बढ़ते गए। यह अपने समय में तीन मंज़िली इमारत तक बनाई गई थी। बाद में इसमें कुछ परिवर्तन किए गए। आज यह दोमंज़िली इमारत है।

इस इमारत में पर्यटकों की जानकारी के लिए उस स्थान पर जहाँ गाँधी जी जन्मे थे, वहाँ गाँधीजी की एक बड़ी – सी तस्वीर लगी हुई है। जहाँ वे चरखा चलाते हुए दिखाई देते हैं। इस तस्वीर के नीचे एक स्वास्तिक बना हुआ है यही मूल उनका जन्म स्थल है। सभी लोग इस जगह पर एकत्रित होते रहते हैं।

हमारी संस्कृति में स्वास्तिक का बहुत महत्त्व है। यह हर सनातनी धर्म को माननेवाला अच्छी तरह से जानता है पर आश्चर्य की बात यह देखने को मिली कि पर्यटकों को गाँधी जी की तस्वीर के नीचे खड़े होकर तस्वीर खिंचवाने का इतना तीव्र शौक था कि वे स्वास्तिक की अवहेलना करते हुए उस पर जूते -चप्पल पहनकर खड़े हो गए। हमारा मन भीतर तक न केवल क्रोध से भर उठा बल्कि लोगों की इस मूर्खता और अज्ञानता पर मन उदास भी हो उठा। मुझे काफी समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और तब जाकर उस स्वास्तिक वाली जगह खाली मिली तो गाँधीजी की तस्वीर स्वास्तिक के साथ कैमरे में कैद कर पाई।

स्पष्ट दिखाई देता है कि हम अपनी संस्कृति से कितनी दूर चले गए हैं। यह विडंबना ही है और दुर्भाग्य भी कि आज की पीढ़ी इन बातों को अहमियत नहीं देती।

हम हर कमरे को घूम-घूमकर देखने लगे। हर एक कमरा स्वच्छ है और छोटी – छोटी खिड़कियाँ हरे रंग से रंगी हैं। दरवाज़े भी खास ऊँचे नहीं हैं। दरवाजे और दीवारों पर आकृतियाँ बनाई हुई हैं। कुछ दरवाज़े तो महलों की तरह एक सीध में हैं। एक के पास खड़े रहकर सीधे में चार -पाँच दरवाज़े और भी दिखाई देते हैं। सभी खिड़कियाँ और मचान नुमा कमरे ये सभी लकड़ी की बनी हुई हैं। इस घर में गाँधी जी बचपन में कुछ वर्ष तक रहे थे। बाद में उनका अधिकांश समय राजकोट में बीता।

कीर्ति मंदिर वाली जगह बाद में बनाई गई। गाँधी जी के एक प्रिय अनुयायी थे श्री दरबार गोपालदास देसाई के नाम से जाने जाते थे वे। नानजी भाई कालिदास मेहता ने 1947 में इस मंदिर को बनाने के लिए बड़ी रकम दी तब गाँधीजी जीवित थे। पर इस भवन कोञ पूरा करने में 1950 तक का समय लग गया था। इस सुंदर स्थान को बा और बापू अपनी आँखों से न देख पाए।

हम ऑटोरिक्शा में बैठकर टैक्सीस्टैंड पर लौट आए। उसी भीड़ भाड़ के बीच एक मंदिर बना हुआ है जिसे श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा का घर माना जाता है। आज यह घर नहीं बल्कि एक मंदिर जैसी संरचना है। आस पास न केवल भीड़ है बल्कि कूड़ा करकट और गाय बैलों के झुंड भी नज़र आते हैं।

कहा जाता है कि यहीं से चलकर सुदामा द्वारका पहुँचे थे।

हमें यह देखकर अत्यंत दुख भी हुआ कि हम एक ऐतिहासिक स्थल को स्वच्छ रखने से भी चूकते हैं। यह जागरुकता का अभाव ही है।

पोरबंदर महाभारत काल से इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाए हुए है। अंग्रेजों के शासन काल में यह एक रियासती गढ़ था। यह व्यापार का क्षेत्र भी रह चुका है। कृष्ण सुदामा मंदिर एक और दर्शनीय स्थल है।

फिर हम अपने गंतव्य की ओर बढ़े। मंज़िल थी द्वारका। पोरबंदर से निकलकर जैसे – जैसे द्वारका के करीब पहुँचने लगे तो हरे भरे खेत न जाने क्यों अचानक विलीन से हो गए और दूर तक बंजर भूमि दिखाई देने लगी जो कंटीली झाड़ियों से पटी थी। इस इलाके में अब केवल बकरियों के झुंड दिखाई देने लगे जो पिछली टाँगों पर खड़ी होकर कंटीले झाड़ियों की ही फलियों का स्वाद ले रही थीं।

हम आपस में चर्चा करने लगे कि अचानक सारी ज़मीन बंजर क्यों हो गई? और यह अंतर आँखों को जैसे चुभ रही थी। चालक ने खुशखबरी देते हुए बताया कि गुजरात सरकार अब संज्ञान लेने लगी है और इन बंजर भूमि के टुकड़ों को लीज़ पर लेकर उस पर औषधीय पौधे लगाने का आयोजन किया जा रहा है।

बातों ही बातों में हम द्वारका नगरी आ पहुँचे। अभी सूर्यास्त को काफी समय था तो हम वहाँ के प्रसिद्ध शिव मंदिर का दर्शन कर आए। एक मंदिर समुद्र तट से जल में भीतरी ओर है जिसे भदकेश्वर मंदिर कहा जाता है। यह खास बड़ा मंदिर नहीं है। जब समुद्र का पानी भाटे के समय उतर जाता है तो दर्शन करना आसान हो जाता है। शाम के समय वहाँ बना मार्ग पानी में डूब सा जाता है केवल मंदिर का हिस्सा बचा रहता है।

दूसरा है नागेश्वर मंदिर। यहाँ मंदिर के परिसर में शिव जी की विशाल मूर्ति बनी हुई है। भक्तों की लंबी कतार भी लगी थी। भक्त मंदिर में कई प्रकार के फल, फूल, अनाज आदि ले जाते हैं चढ़ावे के रूप में। इन्हें खाने के लिए बैलों की बड़ी संख्या मंदिर के परिसर में घूमते दिखाई दिए। साथ ही कबूतरों को ज्वारी खिलाने की भी व्यवस्था है तो कबूतरों का भी झुंड उड़ता फिरता है। भीड़, पशु, पक्षी, जूते चप्पल, फेरीवाले, फोटोग्राफर सब कुछ मिलाकर वहाँ एक अजीब- सी भीड़ महसूस हुई और साथ में गंदगी भी। हम बाहर से ही दर्शन कर उल्टे पाँव लौटे।

हम आज भी न जाने क्यों भक्ति के साथ -साथ स्वच्छता को जोड़ने में असमर्थ हैं। अक्सर मंदिरों में भोजन आदि चढ़ावे के कारण जब साफ़ सफ़ाई दिन में कई बार न किए जाएँ तो चारों ओर फल फूल अनाज फैले हुए दिखाई देते हैं। मन में सवाल उठता है कि क्या भगवान इस अस्वच्छ वातावरण में रहना कभी पसंद करेंगे? न जाने हम कब इस दिशा और विषय की ओर सतर्क होंगे!

मंदिर के बाहर बड़ी संख्या में गरीब बच्चे नज़र आए। कोई बीस -बाईस होंगे जो चार साल से बारह -तेरह वर्ष के होंगे। उन सबने हमें घेर लिया। क्या चाहिए पूछने पर कुछ बच्चों ने दुकान में शीशे की अलमारी में रखी अमूल दूध की ओर इशारा किया। उन सभी बच्चों के हाथों में एक -एक अमूल दूध की बोतल थमाकर हम अपने होटल की ओर बढ़े।

हम भी दिन भर की यात्रा के बाद थक चुके थे तो अब आराम भी आवश्यक था और मन में एक संतोष की भावना भी।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 2 ?

(14 फरवरी 2020)

वेरावल शहर छोटा सा बंदरगाह है। समुद्र तट की सुंदरता के अलावा खास दर्शनीय कुछ  और नहीं है। हमारे हाथ में एक दिन बचा था तो सोमनाथ देखने के बाद दूसरे दिन हम दिव (Diu ) के लिए रवाना हुए।

सोमनाथ से दिव 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह समुद्री तट पर बसा शहर है। हम से टैक्सी चालक ने कहा कि हम एक दिन में ही दिव देखकर लौट सकते हैं। हमें दिव पहुँचने में 2.50 मिनिट लगे। रास्ता बहुत ही मखमली होने के कारण यह एक आरामदायक सफ़र रहा। हम हभी साधारणतया दमन और दिव कहते हैं पर ये दोनों अलग -अलग शहर हैं।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि गुजरात में सड़कों पर हमारे देश के अन्य शहरों की तरह ढाबे या रेस्तराँ की भरमार नहीं है। यहाँ के निवासी घर से ही थेपला, फाफड़ा, ढोकला, फरसाण आदि भोजन पदार्थ अपने साथ लेकर चलते हैं जिस कारण ढाबे या रेस्तराँ का खास प्रचलन नहीं है। हम लोग प्रातः सात बजे निकले थे तो अपने साथ कुछ भोजन सामग्री लेकर ही चले थे।

कुछ 30 कि.मी. जाने के बाद चाय पीने की इच्छा हुई और सड़क से हटकर ज़रा दूर एक ढाबा सा दिखा। हमने वहाँ अपनी गाड़ी मोड़ ली। ढाबे के बाहर रेतीली भूमि थी जिस पर कुछ  चारपाइयाँ रखी हुई थीं। साथ में एक प्लास्टिक की मेज़ थी जिसके पायों को  रेत में धँसा दिया गया था। अभी सुबह का ही समय था तो हमें गरमागरम चाय और पकौड़े मिले। हम अपने साथ ब्रेड और मक्खन लेकर गए थे तो सब कुछ मिलाकर बढ़िया नाश्ता हो गया।

कुछ दो घंटे बाद हम दिव पहुँचे।

दिव सुंदर स्वच्छ शहर है। पर आज भी वहाँ पुर्तगाली संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। लोगों में लेट बैक एटिट्यूड दिखाई देता है। पुर्तगाली तो चले गए पर अपना असर छोड़ गए। देर सबेरे तक शहर भर में कहीं कोई नज़र नहीं आता। यहाँ लोगों के दिन की शुरुआत भी देर से ही होती है। तब तक सभी दुकानें बंद ही होती हैं।

यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। शहर में ख़ास हलचल नहीं है, न ही भीड़भाड़ है। इस तरह का वातावरण और समानता हमने गोवा और पोर्त्युगल में भी अनुभव किया है। यहाँ की आबादी खास नहीं है।

रास्ते से जब टैक्सी गुज़रने लगी तो अधिकतर घर बंद नज़र आए जिन पर ताले जड़े दिखे। पूछने पर चालक ने बताया कि पुर्तगाल से उन स्थानों के निवासियों को स्थायी नागरिकता के लिए वीज़ा दिया जा रहा है जहाँ पुर्तगाली राज्य किया करते थे। हमने सिर पीट लिया। 450 वर्ष की गुलामी के बाद 1961 के करीब देश को उनसे मुक्ति मिली थी और अब यह क्या हो रहा है?

जिन लोगों के दादा – परदादा ने पुर्तगालियों की गुलामी की थी, अत्याचार सहे थे, जबरन ईसाई बनने के लिए मजबूर किए गए थे या प्राण बचाने के डर से अन्यत्र भाग गए थे या मार दिए गए थे उसी  दामन और दिव की आज की यह पीढ़ी  पचास साल बाद पुर्तगाल जाकर बस रही है!

पुर्तगाली स्वभाव से आलसी हैं, उन्हें सब प्रकार के काम करने के लिए लोग चाहिए इसलिए तो वीज़ा दे रहे हैं। न जाने कितने ही लोग विदेश में रहने के लालच में यहाँ से वहाँ चले गए। हमारे देशवासियों को सफेद चमड़े के प्रति इतना आकर्षण है कि फिर एक बार गुलाम बनने को तैयार हो गए। सुना है अवैध रूप से कई कागज़ात बनाकर लोग जाने की ताक में बैठे हैं। पता नहीं हम अपनी भूमि से प्रेम करना कब सीखेंगे!

भारी मन से हम आगे बढ़े। यहाँ कुछ पुराने चर्च हैं, जहाँ रविवार के दिन प्रार्थना सभा होती है। कुछ चर्च तीन सौ वर्ष पुराने भी हैं। इन सभी जगहों पर पर्यटक घूमते दिखाई देते हैं। हम एक विशाल चर्च में घुसे। हम सनातनी धर्म के अनुयायी मंदिर हो या चर्च अपने जूते उतारकर ही भीतर प्रवेश करते हैं। हमारे लिए  देवालय चाहे किसी का भी हो पूजनीय स्थान होता है।

वहाँ बैठा प्रहरी बोला जूते पहनकर जाओ माताजी, यहाँ जूते नहीं निकालते। हम आश्चर्य चकित हुए पर फिर भी जूते उतारकर ही भीतर गए। हमारी संस्कृति किसी दूसरे धर्म के ईश्वर का अपमान करने का अधिकार नहीं देती। चर्च के भीतर कुछ पुरानी मूर्तियाँ देखने को मिलीं बाकी कुछ खास नहीं। सूली पर चढ़ी उदास ईशु की मूर्ति चुपचाप सी नज़र आई। कुछ धूलयुक्त प्लास्टिक की माला गले में पड़ी थी। वैसे फूल-माला चढ़ाने की कोई प्रथा ईसाई समुदाय में नहीं है। संभवतः यह भारत भूमि पर खड़ा गिरजाघर है तो कभी किसी न चढ़ाया होगा। किसी धर्म के पैगंबर को इस तरह देखकर मन भीतर तक उदास हो उठा पर हमारे लिए झुककर प्रणाम करने के अलावा करणीय कुछ भी न था।

आज शहर में निवासी ही नहीं तो चर्च की सटीक देखभाल भी नहीं। पर अपने समय में यह एक जीता जागता प्रार्थनागृह रहा होगा क्योंकि इसकी इमारत बहुत विशाल और भव्य है।

हम घूमते हुए समुद्र तट के पास आ पहुँचे।

इस शहर में समुद्र के किनारे एक बहुत पुराना मंदिर है। कहा जाता है यह मंदिर पांडवों के समय का बना हुआ है। उस समय यहाँ तक समुद्र का जल नहीं आता था। मंदिर गुफानुमा बना हुआ है। गुफा की दीवार पर बड़ा – सा पंचमुखी नाग बनाया हुआ है और नीचे पाँच शिवलिंग हैं। कहा जाता है कि कभी वनवास के दौरान पांडव वहाँ आए थे और पूजा किया करते थे। इसे गंगेश्वर मंदिर कहते हैं। आज समुद्र का जल न जाने कितनी ही बार उन पाँच शिवलिंगों को नहला जाता है। दोपहर को पानी जब भाटे के कारण दूर सरक जाता है तब आराम से दर्शन करना संभव होता है। हम दोपहर को पानी उतरने के बाद ही मंदिर में दर्शन करने पहुँचे। मंदिर स्वच्छ था। कई सीढ़ियाँ उतरकर हम मंदिर के पास पहुँचे जहाँ शिवलिंग बने हुए हैं। एक स्थान पर बड़े से छोटे पाँच शिवलिंगों का दर्शन आश्चर्य की ही बात थी। मूलतः हर शिव मंदिर में एक ही शिवलिंग का दर्शन होता है। यह महाभारत की कथा के अनुसार एक गवाह के रूप में दिखाई देने वाला स्थान है। हमसे पूर्व लोगों ने शिवलिंगों की पूजा की थी। वहाँ खूब सारे नारियल चढ़ावे में रखे हुए थे।

हम और आगे अब समुद्र तट की ओर निकले। पास ही एक पुराना किला बना था जो समुद्र  से होनेवाले आक्रमणों से बचने के लिए बनाया गया था। यह किला भी कुछ तीन सौ वर्ष पुराना ही था। भाटा पूरे ज़ोर पर था जिस  कारण पानी उतर चुका था और बड़े -बड़े पत्थर तथा  चट्टानें अब समुद्र के जल से ऊपर बाहर की ओर निकल आई  थीं। ऐसा लग रहा था मानो विशाल मत्स्य जल से निकलकर हवा को सूँघ रहा हो।

दोपहर का समय था पर समुद्री तट पर शीतल हवा थी। हमें ज़रा भी गर्मी का अहसास नहीं हुआ। तट से दूर समुद्र की लहरें कदमताल करती आतीं और दूर से ही लौट जातीं। उन लहरों पर जब सूरज की किरणें पड़तीं तो असंख्य लहरों के ऊपरी हिस्से यों चमकते मानो कई बड़े से नाग अपने फन पर मणि लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ रहे हों। आँखों को एक अद्भुत सुकून का अहसास हो रहा था। हम सभी निःशब्द इस सौंदर्य को सम्मोहित – सा  होकर निहार रहे थे।

समुद्र पर सफ़ेद महीन, मुलायम कपास के समान सुकोमल  रेत फैली थी। पैर मानो उसमें धँसे जा रहे थे और उस मुलायम रेत के भीतर ठंडी रेत जब पैरों को छू रही थी तो पैरों को एक अद्भुत गुदगुदी के साथ आराम का भी अहसास हो रहा था। दोपहर का सूरज सिर पर था। रेत में बहुत ही छोटी -छोटी  सींपियाँ और शंख थे जिन्हें बड़ी संख्या में हम चुनने में व्यस्त हो गए।

एक लड़के ने पास आकर कहा, “ताल ले लो माई” हमारी तंद्रा टूटी। काले से ताल के भीतर मुलायम मीठे नारियल की गरी के समान ताल की मलाई उसने निकालकर हमें दी। मीठा, रसीला स्वादिष्ट! हमने पूछा, “कहाँ से लाया ?”

तो उसने उँगली ऊपर करके तट की ओर इशारा किया। समुद्र के तट पर दूर तक जहाँ नज़र दौड़ाते ताल के ही वृक्ष सजे हुए दिखाई दिए। इतनी देर तक हम सब लहरों को देखकर मुग्ध हो रहे थे उस बालक के कहने पर हमने सुदूर  तट की ओर रुख किया। हवा की वेग से उसके झालरदार पत्ते झूम रहे थे मानो कोई मतवाला हाथी सिर हिलाता हुआ झूम रहा हो।

देर दोपहर तक हम तट पर ही बैठे रहे। शांत वातावरण में लहरों की ध्वनि किसी गीत के धुन के समान कर्ण प्रिय लग रही थी। हम सबने वहीं बैठकर न जाने पृथ्वी के कितने ही विभिन्न समुद्र तट और अपने अनुभवों की चर्चा करते रहे। एक महिला अंगीठी पर भुट्टे भूनकर दे रही थी। हम लोगों ने दोपहर का भोजन तो किया ही न था। जो कुछ साथ लाए थे वही चबाते रहे। भुट्टे के भुनने की तीव्र गंध ने नथुनों को फुला दिया और हमारे पेट में भूख जाग उठी। बड़े -बड़े भुट्टे कोयले की आग पर  सेंके गए और उस पर नींबू और मसाला लगाकर दिया गया। हमने मानो बचपन को फिर एक बार जी लिया।

शाम होने लगी। पानी अब तट की ओर बढ़ने लगा। हमने भी प्रस्थान करना उचित समझा।

रास्ते में एक ढाबे पर गरम थेपले और इलायची अदरकवाली चाय का हमने आनंद लिया। प्रशंसनीय तो यह बात थी कि उस ढाबे को चलानेवाली और काम करनेवाली सभी महिलाएँ ही थीं। साथ में यह संदेश भी मिला कि वहाँ महिलाओं के लिए कोई डरवाली बात नहीं होती है। वे स्वाधीनता से अपना जीवन जीती हैं। वे सब बहुत सुरक्षित महसूस करती हैं। वाह! रे मेरे गुजरात !

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1 ?

(13 फरवरी 2020)

भ्रमण मेरा शौक़ है। इस बार हमने सोचा कि अपने देश के उन क्षेत्रों का दौरा किया जाए जो हमारे इतिहास और पुराणों में वर्णित हैं।

इस वर्ष हमने चुना गुजरात।

हम पुणे से सोमनाथ के लिए रवाना हुए। पुणे से सोमनाथ जाने के लिए सोमनाथ नामक कोई स्टेशन नहीं है। इसके लिए आपको वेरावल नामक स्टेशन पर उतरना होगा। पुणे से वेरावल तक रेलगाड़ी की सुविधाजनक व्यवस्था उपलब्ध है। विरावल से सोमनाथ का मंदिर सात किलोमीटर की दूरी पर है। हम पुणे से शाम को रवाना हुए और दूसरे दिन देर दोपहर को हम वेरावल पहुँचे।

गुजरात जानेवाली रेलगाड़ियों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। यह मेरा अनुभव रहा इसलिए हम पर्याप्त भोजन सामग्री साथ लेकर ही चले थे।

होटल पहुँचकर नहा धोकर हम मंदिर का दर्शन करना चाहते थे।

हमने शाम को ही सोमनाथ मंदिर का दर्शन किया। इसे प्रथम ज्योर्तिलिंग मंदिर माना जाता है। सुंदर, साफ़ – सुथरा विशाल परिसर जो समुद्र के तट पर ही स्थापित है। हमें संध्या के समय आरती में शामिल होने का अवसर मिला। मंदिर में स्त्री पुरुषों की कतारें अलग कर दी जाती है। मंदिर के गर्भ गृह का सौंदर्य देखते ही बनता है। आज अधिकांश हिस्सा चाँदी का बनाया हुआ है, पहले यही सब सोने से मढ़ा रहता था। आरती में उपस्थित रहकर मन प्रसन्न हुआ।

यह फरवरी का महीना था। डूबते सूरज की किरणों से मंदिर का कलश स्वर्णिम सा चमक रहा था। धीरे धीरे अस्ताचल भानु के साथ कलश का रंग मानो बदलने लगा। कुछ समय बाद केवल कलश पर ही सूर्य की किरणें पड़ने लगीं। उस दृश्य को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई भक्त प्रभु की वंदना करके बिना पीछे मुड़े धीरे -धीरे प्रभु की ओर ताकते हुए मंदिर से विदा ले रहा हो। समुद्र जल में सूर्य विलीन हो गया। आसमान अचानक लाल-सुनहरी छटाओं से पट गया मानो शिवजी के सुंदर विस्तृत तन पर पारदर्शी सुनहरी ओढ़नी डाल दी गई हो। आकाश को देख मन मुग्ध हो उठा।

समुद्र की लहरें दौड़ -दौड़ कर मंदिर की दीवारों को ऐसे छूने आतीं मानो छोटा बच्चा माँ की गोद में चढ़ने के लिए मचल रहा हो और जब माँ उसे पकड़ना चाह रही हो तो नटखट फिर भाग रहा हो। साथ ही ठंडी हवा तन -मन को शीतल कर रही थी। समस्त परिसर में सुगंध प्रसरित थी।

शाम को सूर्यास्त के बाद लाइट एंड साउंड कार्यक्रम का हमने आनंद लिया। उसके विशाल इतिहास की जानकारी फिर एक बार ताज़ी हो गई। इस विशाल और आकर्षक मंदिर की रचना सबसे पहले किसने की थी इसके बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु ऋग्वेद में इसके तब भी होने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है आज से कुछ 3500 वर्ष पूर्व चंद्रदेव सोमराज ने इस मंदिर की संरचना की थी।

जिस मंदिर की संपदा को एक ही विदेशी ताक़त ने सत्रह बार लूटा, वहाँ कितनी संपदा रही होगी जिसे वे लूटने बार -बार आए होंगे?

मेरे मन में सवाल उठता है कि इतना वैभवशाली राज्य ने एक-दो आक्रमण के बाद भी सुरक्षा बल तैनात रखने की आवश्यकता महसूस न की ? हमने क्या तब भी अपनी सुरक्षा की बात न सोची? क्या हम भारतीयों में सच में एकता का अभाव था जो विदेशी आ – आकर हमें लूटते रहे? हम देश के नागरिक इतने बेपरवाह से बर्ताव क्यों करते रहे !!

मंदिर कई बार ध्वस्त किया गया, हिंदुओं की मूर्त्ति पूजा का विरोध यहाँ राज करनेवाले हर मुगल ने किया। आखरी बार औरंगजेब ने इसे बुरी तरह से ध्वस्त किया। हिंदू राजाओं ने बार – बार मंदिर का निर्माण भी किया। आज मंदिर पहले की तरह स्वर्ण से भले ही मढ़ा न हो पर उसकी भव्यता और सौंदर्य को बनाए रखने का भरसक प्रयास किया गया है।

आज हम जिस मंदिर का दर्शन करते हैं उसे सन 1950 में भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने दोबारा बनवाया था। पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया।

आज यहाँ भारी सुरक्षा की व्यवस्था है जो गुजरात सरकार के मातहत है। फोटो खींचने तक की सख्त मनाही है। मोबाइल, कैमरा आदि जमा कर देने पड़ते हैं। काफी दूर तक चलने के बाद मंदिर का परिसर प्रारंभ होता है। मंदिर के बाहर मेन रोड है आज, शायद कभी वहाँ बाज़ार हुआ करता था।

यह वेरावल शहर समुद्रतट पर बसा होने के कारण शहर में घुसते ही हवा में मछली की तीव्र बू आती है। यहाँ भारी मात्रा में मछली पकड़ने का व्यापार किया जाता है। पचास प्रतिशत लोग मुसलमान हैं जो मछली पकड़ने का ही व्यापार करते हैं। यहाँ नाव बनाने और उनकी मरम्मत करने के कई कारखाने हैं। मूल रूप से लोग समुद्र से जुड़े हुए हैं।

यहाँ के लोग मृदुभाषी हैं। सभी गुजराती और हिंदी बोलते हैं। सभी एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। दो धर्मों के बीच मतभेद कहीं न दिखाई दिया जो आमतौर पर टीवी पर टीआरपी बढ़ाने के लिए दिखाए जाते हैं। लोग मिलनसार हैं और सहायता के लिए तत्पर भी। आनंद आया सोमनाथ का दर्शन कर और वेरावल के निवासियों का स्नेहपूर्ण व्यवहार पाकर।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 23 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -6 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 23 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 6 ?

(30 मार्च 2024)

सुबह भर पेट नाश्ता कर हम फुन्टोशोलिंग के लिए रवाना हुए। मौसम बहुत अच्छा था। रास्ते में पेमा हमारे प्रश्नों का उत्तर देता रहा और भूटान की अन्य जानकारी भी। शिक्षकों की आदत होती है सवाल पूछने की और हमारे सवालों का उत्तर देने के लिए तत्पर था पेमा।

भूटान भारत के बीच का संबंध बहुत पुराना और अच्छा रहा है। हम जब थिम्फू होते हुए गुज़र रहे थे तो हमें एक विशाल अस्पताल दिखाया गया। हाल ही में जब मोदी जी भूटान आए थे तो बच्चों के लिए इस उत्तम अस्पताल का उद्घाटन अपने हाथों से करके गए थे।

इस अस्पताल का एक हिस्सा 2019 में बनाया गया और दूसरा हिस्सा 2023 में पूरा हुआ। यह सारी व्यवस्था भारत के एक्सटर्नल मिनिस्ट्री द्वारा की गई। यह भारत की ओर से सहायता थी।

पेमा ने बताया कि इससे पहले भी भारत ने बड़ी मात्रा में भूटान को औषधीय सहायता प्रदान की है और यह मोदी जी के कार्यकाल से ही अधिक बढ़ा है। मन प्रसन्न हुआ कि मेरा देश पड़ोसी देशों के लिए भी फिक्रमंद है।

भारत से कई वस्तुओं का भूटान में व्यापार होता है। खासकर रोज़ाना लगनेवाली वस्तुएँ जैसे नमक, हल्दी, चायपत्ती, शक्कर गुड़ तथा अन्य भोजन सामग्री। मछली भी बड़ी मात्रा में भेजी जाती है। दवाइयाँ सब यहीं से जाती हैं।

पेमा ने हमें अपना राष्ट्रगान सुनाया और कुछ फिल्मी गीत भी सुनाए। उसका स्वर भी बहुत मधुर है। सात दिन हम साथ घूमते- फिरते परिवार जैसे हो गए।

थिम्फू से उतरते समय पहाड़ी पर हमने मिट्टी से बनी छोटी -छोटी हाँडीनुमा आकृतियाँ देखीं जो ऊपर के हिस्से में पिरामिड जैसी बनी हुई थीं। बड़ी संख्या में पहाड़ों के निचले हिस्से में ये हँडियाँ रखी हुई दिखीं। पूछने पर पेमा ने बताया कि प्रत्येक हाँडी में मंत्र लिखे हुए हैं। किसी के घर में कोई बीमार हो या शैयाग्रस्त हो या मरणासन्न हो या मृत हो ऐसे समय पर घर से दूर वीरान स्थान पर ये हँडियाँ रखी जाती हैं। मृत आत्मा की शांति की प्रार्थना उसमें डाली जाती है। बीमार लोगों को रोगमुक्त करने की प्रार्थना लिखी रहती है। इन हाँडियों को थथा कहा जाता है।

लोगों का विश्वास है कि प्रकृति ही सबकी देखभाल करती है। प्रकृति की ही गोद में जब प्रार्थनाओं से पूरित हँडियाँ सील करके रखी जाती हैं तो प्रकृति सबका ध्यान रखती है। प्रणाम है ऐसी आस्था को जो प्रकृति के प्रति इतनी समर्पित है। महान हैं वे लोग जो सच में प्रकृति को जीवित मानते हैं। उसकी शक्ति को पहचानते हैं और उसमें विश्वास रखते हैं। प्रकृति भूटानियों के प्रतिदिन के जीवन में अत्यंत घनिष्ठता से जुड़ी हुई है और शायद इसीलिए यहाँ असंख्य वृक्ष स्वच्छंद से श्वास लेते हैं।

थिप्फू दस हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह पहाड़ी इलाका है। यहाँ लाल रंग के खिले हुए खूब सारे वृक्ष दिखाई दिए। छोटे -बड़े वृक्ष लाल फूलों से लदे हुए हैं। इन्हें रोडोड्रॉनड्रॉन कहा जाता है। ये फूल दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर ही खिलते हैं। अब हम धीरे -धीरे नीचे उतरने लगे। फिर लौटकर गा मे गा नामक होटल में लौटकर आए। एक रात यहाँ रुककर हम अगले दिन 31 तारीख को सुबह बागडोगरा के लिए रवाना हुए। 30 तारीख शाम को ही हमें भूटान के इमीग्रेशन ऑफिस जाकर अपने पेपर जमा करने पड़े। पेमा और साँगे का साथ यहीं तक था।

हम सुखद स्मृतियों के साथ, पड़ोसी देश की अद्भुत जानकारियों के साथ अपने घर लौट आए।

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 22 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -5 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 22 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 5 ?

(29 मार्च 2024)

पारो शहर की यात्रा आनंददायी रही। मौसम भी साथ दे रहा था। आसमान में हल्के बादल तो थे पर वर्षा के होने की कोई संभावना न थी। आज हम विश्व विख्यात ताकत्संग या टाइगर नेस्ट देखने के लिए निकले। यह इस देश की सबसे पुरानी मोनैस्ट्री है। तथा पारो शहर का सबसे बड़ा आकर्षण केंद्र भी।

यह मोनेस्ट्री पारो घाटी से 3, 000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नीचे से ही यह अत्यंत आकर्षक और मोहक दिखाई देती है। यह विशाल इमारत लाल और सफ़ेद रंग से पुती हुई है। एक खड़ी चट्टान पर इतनी बड़ी मोनैस्ट्री कैसे बनाई गई यह एक आश्चर्य करनेवाली बात है।

यात्रियों ने तथा गाइड ने हमें बताया कि ऊपर जाने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है बल्कि पत्थर काटकर रास्ता बनाया गया है। आने -जाने में छह से सात घंटे लगते हैं। यात्री घोड़े पर सवार होकर भी वहाँ जा सकते हैं। हम कुछ दूर तक चलकर गए परंतु ऊपर तक जाने की हमने हिम्मत नहीं की। बताते चलें कि यहाँ जाने के लिए प्रतिव्यक्ति प्रवेश शुल्क ₹1500 /- है। मौसम सही हो और मार्च अप्रैल का महीना हो तो तकरीबन सौ से दोसौ लोग प्रतिदिन दर्शन करने जाते हैं। सबसे आनंद की बात है कि यह बौद्ध धर्मस्थल है और आनेवाले सभी पर्यटक बौद्धधर्म का सम्मान करते हैं।

हम वहीं एक चट्टान पर बैठ गए और पेमा ने हमें तकत्संग की स्थापना और महत्त्व की जानकारी दी।

यह एक मठ है जिसे मोनैस्ट्री ही मूल रूप से कहा जाता है। यहाँ आज भी बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुक रहते हैं। पूजा की विधि का पालन नियमित होता है। शाम को पाँच बजे के बाद यात्रियों को ऊपर रुकने नहीं दिया जाता है।

इसे टाइगर नेस्ट या मठ भी कहा जाता है। इस बड़ी इमारत का निर्माण 17वीं शताब्दी के अंत में चट्टान में बनी एक गुफा के स्थान पर किया गया था। यद्यपि इसे अंग्रेज़ी में टाइगर नेस्ट कहते हैं, लेकिन तकत्संग का सटीक अनुवाद “बाघिन की माँद” है और इसका नाम इसके पीछे जो किंवदंती है उसके साथ मिलता जुलता भी है।

कहा जाता है कि 8वीं शताब्दी में किसी रानी ने बाघिन का रूप धरा था और तिब्बत से पद्मसंभव को पीठ पर बिठाकर यहाँ की गुफा में लेकर आई थी। पुरातन काल में काला जादू का प्रभाव इन सभी स्थानों में था। यही कारण है कि इसे बाघिन की माँद नाम दिया गया है। सत्यता का तो पता नहीं पर पुरानी गुफा तो है जहाँ आज भी मठाधीश ध्यान करते हैं। मुझे यह कथा सुनकर माता वैष्णों देवी के मंदिर का स्मरण हो आया। यह मंदिर भी पहाड़ी के ऊपर स्थित है और चौदह कि.मी ऊपर चढ़ने पर मंदिर में तीन छोटे -छोटे पिंड के रूप में माता विराजमान हैं। यहाँ भी एक किंवदंती है।

तकत्संग मठ की इमारतों में चार मुख्य मंदिर हैं। यहाँ आवासीय आश्रम भी है। पहले जो गुफा थी उसी के इर्द -गिर्द की चट्टानों पर अनुकूल इमारत बनाई गई है। आठ गुफाओं में से चार तक पहुँचना तुलनात्मक रूप से आसान है। वह गुफा जहाँ पद्मसंभव ने बाघ की सवारी करते हुए पहली बार प्रवेश किया था, उसे थोलू फुक के नाम से जाना जाता है और मूल गुफा जहाँ उन्होंने निवास किया था और ध्यान किया था उसे पेल फुक के नाम से जाना जाता है। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध भिक्षुओं को यहाँ मठ बनाने का निर्देश दिया।

मुख्य गुफा में एक संकीर्ण मार्ग से प्रवेश किया जाता है। अँधेरी गुफा में बोधिसत्वों की एक दर्जन छवियाँ हैं और इन मूर्तियों के सामने मक्खन के दीपक जलाए जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि इस गुफा मठ में वज्रयान बौद्ध धर्म का पालन करने वाले भिक्षु तीन साल तक यहीं रहते हैं और कभी पारो घाटी में उतरकर नहीं जाते।

यहाँ की सभी इमारतें चट्टानों में बनी सीढ़ियों के ज़रिए आपस में जुड़ी हुई हैं। रास्तों और सीढ़ियों के साथ-साथ कुछ जर्जर लकड़ी के पुल भी हैं, जिन्हें पार किया जा सकता है। सबसे ऊँचे स्तर पर स्थित मंदिर में बुद्ध की एक प्रतिमा है। प्रत्येक इमारत में एक झूलती हुई बालकनी है, जहाँ से नीचे की ओर सुंदर पारो घाटी का दृश्य दिखाई देता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए और लौटने के लिए 1800 सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने की आवश्यकता होती है।

पेमा से सारी विस्तृत जानकारी हासिल कर हम लोग लौटने की तैयारी करने लगे तो रास्ते में ढेर सारे घोड़े बँधे हुए दिखे। यहाँ के घोड़ों की पीठ पर थोड़े लंबे लंबे बाल होते हैं और ऊँचाई में भी वे कम होते हैं।

कुछ दूरी पर अनेक कुत्ते दिखे। आश्चर्य की बात यह थी कि सभी कुत्ते काले रंग के ही थे। भूटान में जहाँ – तहाँ ये काले कुत्ते दिखाई देते हैं जो ठंडी के कारण सुस्ताते रहते हैं। हमने पास की दुकान से ढेर सारे पार्लेजी बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को खिलाया और उन्हें प्यार किया। ये सरल जीव पूँछ हिलाते हुए हमें अलविदा कहने गाड़ी तक आए। हृदय भीतर तक पसीज गया। थोड़े से बिस्कुटों और स्पर्श ने उनके भीतर की सरल आत्मा के स्वामीभक्ति वाला भाव अभिव्यक्त कर दिया।

आगे हम पारो किचू मंदिर के दर्शन के लिए गए। यह भूटान का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर को 7वीं सदी में तिब्बत के राजा साँग्तेसन गैम्पो ने बनवाया था। वह तिब्बत का 33वाँ राजा था जिसने लंबे समय तक राज्य भी किया था। इस राजा ने भू सीमा की रक्षा हेतु 108 मंदिर बनवाए थे। यह उनमें से एक है। कहा जाता है कि राक्षसों के निरंतर उत्पातों से बचने के लिए ये 108 मंदिरों की स्थापना की गई थी। मंदिर का परिसर स्वच्छ है तथा भक्त गण दर्शन करने आते रहते हैं। इस मंदिर के साथ एक छोटा सा संग्रहालय तथा पुस्तकालय भी है। बाहर सुंदर फूलों के पेड़ लगे हुए हैं।

यहाँ से निकलकर हम भूटान नैशनल म्यूज़ियम देखने गए। यह बाहर से तो दो मंजिली इमारत है परंतु भीतर प्रवेश करने पर भीतर यह पाँच मंज़िली इमारत है। एक – एक मंज़िल की दीवारों पर पुराने समय से उपयोग में लाए जानेवाले अस्त्र -शस्त्र सजे हुए हैं। भूटानी भाषा में वहाँ का इतिहास लिखा हुआ है। जो हम पढ़ न सके पर यह जानकारी मिली कि तिब्बत और भूटान के बीच नियमित युद्ध हुआ करते थे। भूटान के वर्तमान राजा पाँचवी पीढ़ी है जिनके पूर्वजों ने संपूर्ण भूटान को एक छ्त्र छाया में इकत्रित करने का काम किया था। भूटान स्वतंत्र राज्य था और अब भी है। आज वाँगचुक परिवार राज्य करता है।

इस संग्रहालय में आम पहने जाने वाले भूटानी वस्त्र, योद्धाओं के वस्त्र, मुद्राएँ, अलंकार, बर्तन आदि रखे गए हैं। यह एक संरक्षण के लिए बनाया गया किला था जो अब संग्रहालय में परिवर्तित है। हम मूल रूप से पाँचवीं मंजिल से उतरने लगे, प्रत्येक मंजिल में दर्शन करते हुए निचली मंजिल पर उतरे और उसी सड़क से गाड़ी की ओर बढ़े। पहाड़ी इलाकों में रास्ते के साथवाली ज़मीन पर बननेवाली मंज़िल सबसे ऊपर की मंज़िल होती है। उसके बाद पहाड़ काटकर नीचे की ओर इमारत बनाई जाती है।

आज शाम पाँच बजे ही हम होटल में लौट आए क्योंकि अगली सुबह हमें लंबी यात्रा करनी थी।

क्रमशः

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 21 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -4 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 21 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 4 ?

(28 मार्च 2024)

आज हम पारो पहुँचे थे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई देता था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।

पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।

दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था दी गई और उन्हें लाल भात और मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला!

रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह पौष्टिक बन जाता है।

कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें हैं। वहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए। इस बाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलती। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए खुला फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है।

अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।

पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए। हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठे।

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 3 ?

27 मार्च 2024

हम लोग सुबह ही 9 बजे दोचूला पास देखने के लिए रवाना हुए। यहाँ एक पहाड़ी के ऊपर 108 स्तूप बने हुए हैं। यहाँ काफी सर्द हवा चल रही थी। यह एक खूबसूरत स्थान है। यहाँ 2003 में जो मिलीटरी ऑपरेशन हुए थे उन भूटानी शहीद सैनिकों की स्मृति में ये स्तूप बनाए गए हैं। इसे द्रुक वाँग्याल चोर्टेन्स कहा जाता है। ऊपर से दृश्य अद्भुत सुंदर है। मेघ ऐसे उतर आते हैं मानो वे स्तूपों के साथ उनका अनुभव साझा करना चाहते हैं। हमने यहाँ खूब सारी तस्वीरें खींची। स्वच्छ और नीले आकाश से बादलों के टुकड़े बीच- बीच से झाँकते रहे। चारों ओर पहाड़ों पर हरियाली थी। मेघ के टुकड़े रूप बदलते हुए सरक रहे थे। देखकर ऐसा लग रहा था कि हम उन्हें अपने हाथों में भर लें। हवा सर्द थी। घंटे भर बाद हम वहाँ से नीचे उतर आए और हमारे दूसरे दर्शनीय स्थान की ओर बढ़े।

यह था फर्टीलिटी टेम्पल। यह गोलाकार ऊँची बड़े भूखंड पर बना एक मंदिर है। इसे चिमी लाख्यांग टेम्पल कहते हैं। मंदिर में शिश्न की बड़ी आकृति रखी रहती है जिसे फुलाका कहा जाता है। भूटान के लोगों का विश्वास है कि इस मंदिर में पूजा करने पर संतान की प्राप्ति होती है। संतान की स्त्री अपने हाथ में फुलाका पकड़कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है। संतान प्राप्ति के पश्चात नवजात के नामकरण के लिए सपरिवार इस मंदिर में दर्शन करने आता है। यह चौदहवीं शताब्दी में बनाया गया मंदिर है। वास्तव में देखा जाए तो भारत के कई राज्य में भी संतान प्राप्ति हेतु माता के मंदिर हैं। अंतर इतना ही है कि भूटान में फुलाका का महत्त्व है। हमारे यहाँ माता शक्तिरूपा है इसलिए माता की पूजा होती है। थाइलैंड में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है जिसकी पूजा वहाँ के निवासी संतान के जन्म की अभिलाषा से करते हैं। स्मरण करा दें कि थाईलैअंड भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।

मंदिर में दर्शन लेकर हम अब पुनाखा द्ज़ॉंग देखने के लिए निकले। यह एक महल है। पत्थर और नक्काशीदार लकड़ियों से बनी इमारत है। सन 1637-38 में ज़ाब्दरंग नाग्वांग नामग्याल इसी राजा ने भूटान की स्थापना की थी। इससे पूर्व यह सारा देश छोटे -छोटे कबीलो में बँटा हुआ था।

भूटान में दो नदियाँ बहती हैं जिनका नाम है फो चू और मो चू ये दोनों नदियाँ पिता और माता के रूप में मानी जाती हैं। यह इमारत इन्हीं दो नदियों के संगम स्थान पर बनी हुई है।

राजा का विश्वास था कि पुरुष और स्त्री दोनों के सहयोग से परिवार, समाज और राज्य बनता है साथ ही दोनों मिलकर ही ऊर्जा देते हैं ठीक इन नदियों की तरह। ये दोनों नदियाँ लंबी यात्रा करती हैं और यथेष्ट पानी से नदियाँ भरी रहती हैं।

द्ज़ॉंग इमारत धार्मिक तथा शासकीय व्यवस्थाएँ चलाने के उद्देश्य से सन 1950 तक काफ़ी कार्यशील रही। यहाँ कई प्रकार के धार्मिक कार्यक्रम होते रहे। साथ ही भूटान के राजा उज्ञेन वाँगचुक का राजतिलक भी यहीं पर हुआ था। यहीं से वाँगचुक परिवार राजा बनते आ रहे हैं और आज यहाँ पाँचवे वर्तमान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक हैं। उनकी पत्नी जेत्सुन पेमा वांगचुक रानी हैं। संसार के सबसे जवान और कम उम्र में बने राजा हैं जिग्मे।

इस विशाल इमारत में आज भी कई धार्मिक उत्सव मनाए जाते हैं। इसका विशाल परिसर, स्वच्छ और सुंदर आँगन, बड़ी सी इमारत न केवल स्थानीय लोगों को आकर्षित करती है बल्कि पर्यटकों को यह सब कुछ बहुत ही सुंदर और शांति प्रदान करने वाली जगह प्रतीत होती है।

इस इमारत से थोड़ी दूरी पर श्मशान भूमि है क्योंकि यहाँ नीचे नदी बहती है। फिर एक कच्ची और उबड़-खाबड़ रास्ते से हम ससपेन्शन ब्रिज देखने पहुँचे।

यह ब्रिज थाँगटॉन्ग ग्याल्पो ने बनया था। इस ससपेन्शन ब्रिज की कई बार मरम्मत भी की गई है। इसे पुनाखा डोज़ॉन्ग से उस पार के अन्य गाँवों से जोड़ने के लिए बनाया गया था। यह ब्रिज 180 मीटर लंबा है। यह फो चू नदी पर बनाया हुआ है। इस पर चलते समय थोड़ा डर अवश्य प्रतीत होता है क्योंकि यह लोहे से बना पुल केवल इस पार से उस पार तक झूल रहा है। बीच में कोई आधार नहीं है। हवा चलने पर पुल हमारे भार से लहराने लगता है। पुल के दोनों ओर असंख्य प्रार्थना पताकाएँ बाँधी हुई हैं। यह स्थानीय लोगों की आस्था का प्रतीक भी है। देर शाम तक घूमने के बाद हम अपने होटल में लौट आए। हमारा दिन आनंदमय और जानकारियों से परिपूर्ण रहा।

28/3/24

आज हम पारो पहुँचे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।

पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। कई बार भारतीय विमान के साथ भी व्यवस्था रहती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।

दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था की गई थी और उन्हें अलग टेबल पर बिठाया गया था। वहीं पर उन दोनों को अपने परिचित कुछ चालक और गाइड भी मिले। भोजन के पश्चात पेमा ने बताया कि उन्हें लाल भात, मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क ) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला! वहाँ आनेवाले हर ड्राइवर और गाइड को भरपेट भोजन दिया जाता है। यहाँ बता दें कि भूटानी तेज़ मिर्चीदार भोजन पसंद करते हैं।

रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह और अधिक पौष्टिक बन जाता है।

कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें थीं।

यहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे छोटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुएँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए तो गाड़ी काफी दूर लगी हुई थी।

इसबाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि दुकानी वाले अहाते में यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलतीं। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से दूर रहकर आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है। अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।

पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए।

स्थान -स्थान पर चेरी के और आलूबुखारा के फूलों से लदे वृक्ष दिखे। ये गुलाबी रंग के सुंदर फूल होते हैं। दृश्य अत्यंत मनोरम रहा। कहीं कहीं छोटे बगीचे भी बने हुए दिखाई दिए।

हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 2 ?

(26 मार्च 2024)

सुबह 9 बजे आज से थिंप्फू की  हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। हम जल्दी ही नाश्ता करके निकल पड़े। गाड़ी में बैठते ही हम लोगों ने गणपति जी की प्रार्थना की, माता का सबने स्मरण किया। तत्पश्चात साँगे ने अपनी प्रार्थना भूटानी भाषा में गाई।ये प्रार्थना नाभी से कंठ तक चढ़ती अत्यंत गंभीर स्वरवाले शब्द प्रतीत हुए।फिर उसने बौद्ध प्रार्थना गाड़ी में लगाई जो अत्यंत मधुर थी।

सर्व प्रथम हम बुद्ध की एक विशाल मूर्ति का दर्शन करने गए। इसे डोरडेन्मा बुद्ध मूर्ति कहा जाता है। यहाँ कोई प्रवेश शुल्क नहीं होता है। इस विशाल बुद्ध की मूर्ति की ऊँचाई 169 फीट है।

यह संसार की सबसे ऊँची और विशाल बुद्ध मूर्ति है। शांत सुंदर मुख,  आकर्षक मुखमुद्रा अर्ध मूदित नेत्र मन को भीतर तक शांत कर देनेवाली मूर्ति।

यह एक खुले परिसर में बना हुआ है।परिसर भी बहुत विशाल है। समस्त परिसर पहाड़ों से ढका हुआ  है।फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर के भीतर प्रवेश किया जाता है। भीतर बुद्ध की कई मूर्तियाँ हैं और एक विशाल मूर्ति मंदिर के गर्भ गृह में है।

पीतल के कई  बर्तनों में प्रतिदिन ताज़ा पानी बुद्ध की मूर्ति के सामने रखते हैं।फल आदि रखने की भी प्रथा है। भीतर प्रार्थना करने की व्यवस्था है। हर धर्म के अनुयायी यहाँ दर्शन करने आते हैं।परिसर के चारों ओर कई सुंदर सुनहरे रंग की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। ये मूर्तियाँ स्त्रियों की हैं।संपूर्ण परिसर शांति का मानो प्रतीक है। हर दर्शक मंदिर की परिक्रमा अवश्य करता है।सीढ़ियों के बाईं ओर विशाल हाथी की मूर्ति बनी हुई है जिसका संबंध गौतम बुद्ध के जन्म से भी है। मंदिर के भीतर तस्वीर लेने की इजाज़त नहीं है।

यह मूर्ति शाक्यमुनि बुद्धा कहलाती है।

यह भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिंग्ये वाँगचुक के साठवें जन्म दिवस के अवसर पर पहाड़ी के ऊपर बनाई गई  विशाल मूर्ति है। यह संसार का सबसे विशाल बुद्ध  मूर्ति है।इसके अलावा यहाँ एक लाख छोटे आकार की बुद्ध प्रतिमाएँ भी हैं। कुछ आठ इंच की हैं और कुछ बारह इंच की प्रतिमाएँ हैं।ये काँसे से बनाई मूर्तियाँ हैं, जिस पर सोने की पतली परत चढ़ाई गई  है। इस मंदिर का निर्माण 2006 में प्रारंभ हुआ था और सितंबर 2015 में जाकर कार्य पूर्ण हुआ।

इसके बाद हम भूटान की सांस्कृतिक जन जीवन की झलक पाने के लिए एक ऐसे स्थान पर गए जिसे सिंप्ली भूटान कहा जाता है। यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति पर्यटक एक हज़ार रुपये है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि भूटान का राष्ट्रीय रोज़गार का स्रोत पर्यटन है जिस कारण हर एक व्यक्ति पर्यटक को देवता के समान समझता है।पर्यटक का सम्मान करते हैं, खूब आवभगत भी करते हैं।

भूटान में हर स्थान पर प्रवेश शुल्क कम से कम पाँच सौ रुपये हैं या हज़ार रुपये हैं कहीं -कहीं पर पंद्रह सौ भी है।इस दृष्टि से यह राज्य बहुत महँगा है।

कोई पर्यटक जब भूटान जाने की तैयारी करता है तो उससे यह बात कोई नहीं बताता कि एन्ट्री फी कितनी होती है।इस आठ दिन की ट्रिप में हमने प्रति व्यक्ति साढ़े पाँच हज़ार रुपये केवल प्रवेश शुल्क के रूप में दिया है।सहुलियत यह है  कि यह मुद्राएँ भारतीय रुपये के रूप में स्वीकृत हैं। मेरी दृष्टि में यह बहुत महँगा है। पर जिस राज्य के पास खास कुछ उत्पादन का ज़रिया न हो तो यही एक मार्ग रह जाता है।

खैर जो घूमने जाता है वह खर्च भी करता है इसमें दो मत नहीं। यहाँ यह भी बता दूँ कि भारतीय रुपये तो बड़ी आसानी से स्वीकार करते हैं और बदले में छुट्टे पैसे अगर लौटाने हों तो वह भूटानी मुद्रा ही देते हैं।भूटानी मुद्रा को नोंग्त्रुम (न्गुलट्रम) कहा जाता है। भारतीय एक रुपया भूटानी एक नोंग्त्रुम के बराबर है।

यहाँ गूगल पे नहीं चलता।

जिस तरह हमारे देश में कच्छ उत्सव मनाया जाता है ठीक वैसे ही यहाँ कृत्रिम रूप में एक विशाल स्थान को भूटानी गाँव में परिवर्तित किया गया। इस स्थान का नाम है सिंप्ली भूटान।

यहाँ  हमारा स्वागत थोड़ी- सी वाइन देकर किया गया। वाइन पीने से पूर्व हमसे कहा गया कि हम अपनी अनामिका और अंगूठे को वाइन में डुबोएँ तथा हवा में उसकी बूँदों का छिड़काव करें। जिस प्रकार हम भोजन पकाते समय  अग्निदेव को अन्न समर्पित करते हैं या भोजन से पूर्व इष्टदेव को अन्न समर्पित करते हैं ठीक उसी प्रकार उनके देश में इस तरह देवता को अन्न -जल का समर्पण किया जाता है।

उसके बाद हमें वहाँ की लोकल बेंत की टोपी (हैट) पहनाई गई और खुले हिस्से में ले जाकर मिट्टी से घर बनाने की प्रथा दिखाई गई।इस प्रक्रिया में जब धरती को एक विशिष्ट प्रकार के भारी औज़ार से पीटते हैं ताकि घर की फर्श समतल हो जाए तो वे निरंतर धरती माता से क्षमा याचना करते हैं कि “हमारी आवश्यकता के लिए हम धरती को औज़ार से पीट रहे हैं। जो जीवाणु घायल हो रहे हैं या मर रहे हैं हम उन सबसे क्षमा माँगते हैं। ” यह एक सुमधुर गीत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कितनी सुंदर कल्पना है और ऐसे समर्पण के भाव मनुष्य को ज़मीन से जोड़े रखते हैं।

इसके पश्चात हमें भूटानी रसोई व्यवस्था से परिचय करवाया गया। आटा पीसने का पत्थर, नूडल बनाने की लकड़ी के बर्तन, चार मिट्टी के बनाए लिपे -पुते चूल्हे, भोजन पकाने के बर्तन, लोकल फलों से तथा भुट्टे से वाइन बनाने की प्रक्रिया आदि स्थान दिखाए गए।यद्यपि आज सभी के घर गैस के चूल्हे हैं पर यह उनके ग्रामीण जीवन से जुड़ी वस्तुएँ हैं।

इस देश में कई प्रकार के मुखौटे पहनकर नृत्य करने का एक त्योहार होता है। हमने विविध प्रकार के मुखौटे देखे। उनमें अधिकतर राक्षस के मुखौटे  ही थे। उनका यह विश्वास है कि ऐसे मुखौटे पहनकर जब वे नृत्य करते हैं तो नकारात्मक उर्जाएँ समाप्त हो जाती हैं। उनके कुछ तारवाले वाद्य रखे हुए थे। हमें उन्हें बजाने और मधुर ध्वनियों को सुनने का मौक़ा मिला। ये हमारे देश के संतूर जैसे वाद्य थे।

तत्पश्चात हमें एक खुले आंगन में ले जाया गया जहाँ उनकी कलाकृति से वस्तुएँ निर्माण की जाती हैं। पर्यटक उन वस्तुओं को खरीद सकते हैं।पाठकों को बता दें कि भूटानी पेंटिंग, मूर्तियाँ, लकड़ी छील कर बनाई वस्तुएँ सभी कुछ काफी महँगी होती है। अधिकतर पैंटिंग सिल्क के कपड़े पर विशिष्ट प्रकार के रंग से की जाती है। इन्हें बनने में बहुत समय लगता है और ये अत्यंत सूक्ष्म काम होते हैं। कुछ पैंटिंग तो लाख रुपये के भी दिखाई दिए। हम चक्षु सुख लेकर आगे बढ़ गए।

इसी स्थान पर एक विकलांग नवयुवक अपने पैरों से लकड़ी छीलकर गोलाकार में कुछ आकृतियाँ बना रहा था। उसी स्थान पर उसके द्वारा बनाई गई कई आकृतियाँ छोटी – छोटी कीलों पर लटकी हुई थीं। हम सहेलियों ने भी कई आकृतियाँ खरीदीं। हमारे मन में उस विकलाँग नवयुवक की प्रशंसा करने का यही उपाय था। वह न बोल सकता था न अपने  हाथों का उपयोग ही कर सकता था।उसने कलम भी अपने पैरों की उँगलियों में फँसाई और खरीदी गई हर आकृति पर हस्ताक्षर भी किए। कहते हैं राजमाता ने उसे पाला था और यह कला उसे  सिखाई थी।

हम आगे बढ़े। एक खुले आँगन में पुरुष के गुप्त अंग की कई विशाल आकृतियाँ बनी हुई थीं।भूटान में प्रजनन की भारी समस्या है। इसलिए वे मुक्त रूप से पुरुष के गुप्त अंग अर्थात शिश्न की पूजा करते हैं। कई  घरों के बाहर, दुकानों में, तथा एक विशिष्ट मंदिर में यह देखने को मिला। हमें जापान में भी इस तरह का अनुभव मिला था।नॉटी मंक नामक एक मंक का मंदिर भी बना हुआ है जो पारो में है।

अब हमें भूटानी नृत्य और संगीत का दर्शन कराने ले जाया गया। वहाँ के स्थानीय  स्त्री -पुरुष, स्थानीय पोशाक में एक साथ नृत्य प्रदर्शन करते हैं और पर्यटकों को भी सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं।यहाँ हमें भुट्टे के ऊपर जो रेशे होते हैं उसे उबालकर काली चाय दी गई  और साथ में मीठा पुलाव ( दोनों की मात्रा बहुत थोड़ी होती है। यह केवल उनकी संस्कृति की झलक मात्र के लिए  है) यह सब कुछ एक घंटे के लिए ही होता है।

 सिंपली भूटान में भूटानी संस्कृति की झलक का आनंद लेकर हम जब बाहर निकले तो डेढ़ बज चुके थे।

हमने दोपहर के समय भूटानी व्यंजन लेने का निर्णय लिया। भूटान में मांसाहारी और शाकाहारी मोमो बड़े चाव से खाए जाते हैं। नूडल्स भी यहाँ का प्रिय भोजन है। इसके अलावा लोग लाल चावल खाना पसंद करते हैं। यह चावल न केवल भूटान की विशेषता है बल्कि अत्यंत पौष्टिक भी माना जाता है। स्थानीय लोग इस चावल के साथ अधिकतर चिकन या पोर्क करी खाते हैं। पाठकों को इस बात को जानकर आश्चर्य भी होगा कि कई स्थानीय लोग निरामिष भोजी भी हैं।

होटलों में भारतीय व्यंजन भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध होते हैं। हमने लाल चावल, रोटी और शाकाहारी कुकुरमुत्ते की तरीवाली सब्ज़ी मँगवाई। साथ में स्थानीय सब्ज़ी की सूखी और तरीवाली सब्ज़ियाँ भी मँगवाई।हमने साँगे और पेमा से भी कहा कि वे भी हमारे साथ भोजन करें।

 भोजन के दौरान हमें साँगे ने बताया कि भूटान में पुरुष एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते हैं। वर्तमान राजा के पिता जो अब राज्य के कार्यभार से मुक्त हो चुके थे,  उन्होंने चार शादियाँ की थीं।आज वे राजकार्य से मुक्त होकर एक घने जंगल जैसे इलाके में संन्यास जीवन यापन कर रहे हैं।

सभी रानियाँ अलग -अलग महलों में रहती हैं। राजमाता उनकी दूसरी पत्नी हैं। वे काफी समाज सेवा के कार्य हाथ में लेती हैं।भूटान के लोग नौकरी के लिए खास देश के बाहर नहीं जाते। उनकी जनसंख्या कम होने के कारण वे अपने देश में रहकर देश की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। हर किसी को रोज़गार मिल ही जाता है। मूलरूप से वे राष्ट्रप्रेमी हैं।

सुस्वादिष्ट भोजन के बाद हम टेक्सटाइल संग्रहालय पहुँचे। इस स्थान पर भूटान के बुनकरों की जानकारी दी गई  है तथा विभिन्न वस्त्र के कपड़े की बुनाई तथा सिलाई कैसे होती है इसकी विस्तृत जानकारी स्लाइड द्वारा भी दी गई है। संग्रहालय दो मंज़िली इमारत है और काफी वस्त्रों का प्रदर्शन भी है। इस संग्रहालय को राजमाता ने ही बनवाया था। आज यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति ₹500 है।

संग्रहालय स्वच्छ सुंदर और आकर्षक है।

अब तक चार बज चुके थे। हमें चित्रकारी देखने के लिए आर्ट ऍन्ड कल्चर सेंटर जाना था। इस स्थान पर छात्र रेशम के कपड़ों पर तुलिका से रंग भरकर अपने चित्र को सुंदर बनाते हैं।अधिकतर चित्र बुद्ध के जीवन से संबंधित होते हैं।यहाँ कई छात्र तल्लीन होकर चित्रकारी भी कर रहे थे। यहाँ ऊपर एक कमरे में कई  नक्काशीदार बर्तन आदि प्रदर्शन के लिए रखे गए थे।छोटी -सी जगह पर हर छात्र अपने आवश्यक वस्तुओं को लेकर तन्मय होकर अपने चित्र को सजा रहा था। उन्हें हमारी उपस्थिति से कोई फ़र्क नहीं पड़ा। यह भूटान का आर्ट कॉलेज है।

अब दिन के छह बज गए।हम भी थक गए  थे।अब होटल लौटकर आए।कमरे में आकर हम सखियों ने चाय पी।पेमा और साँगे को भी चाय पीने के लिए आमंत्रित किया।चाय के साथ हमने उन्हें भारतीय नमकीन भी खिलाए जिसे खाकर वे अत्यंत प्रसन्न भी हुए।उनके जाने पर आठ बजे तक हम सखियाँ ताश खेलती रहीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भुलक्कड़ बाबू)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ?

कुछ लोग अत्यंत साधारण होते हैं और साधारण जीवन जीते हैं फिर भी वह अपनी कुछ अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही एक अत्यंत साधारण व्यक्तित्व के साधारण एवं सरल स्वभाव के व्यक्ति थे बैनर्जी बाबू।

बनर्जी बाबू का पूरा नाम था आशुतोष बैनर्जी। हम लोग उन्हें बैनर्जी दा कहकर पुकारते थे। उनकी पत्नी शीला बनर्जी और मैं एक ही संस्था में कार्यरत थे। हम दोनों में वैसे तो कोई समानता ना थी और ना ही विषय हमारे एक जैसे थे लेकिन हम उम्र होने के कारण हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी। शीला विज्ञान विषय पढ़ाती थी और मैं हिंदी।

शीला कोलकाता की निवासी थी। यद्यपि हिंदी भाषा के साथ दूर तक उसका कोई संबंध नहीं था पर मेरी कहानियाँ वह बड़े चाव से पढ़ती थी। वह अंग्रेज़ी कहानियाँ पढ़ने में रुचि रखती थी फिर चाहे वह बच्चों वाली पुस्तक एनिड ब्लायटन ही क्यों न हो। अगाथाक्रिस्टी की कहानियाँ और शिडनी शेल्डन उसे प्रिय थे। अपने बच्चों के साथ हैरी पॉटर की सारी कहानियाँ भी वह पढ़ चुकी थीं। वह इन सभी लेखकों की कहानियाँ रात भर में पढ़ने का प्रयास करती थी। दूसरे दिन एक साथ जब हम विद्यालय की बस में बैठकर यात्रा करते तब उन कहानियों की मूल कथा वह मुझे सुनाती। कभी-कभी इन कहानियों से हटकर उसके पति बनर्जी साहब के कुछ रोचक किस्से भी सुनाया करती थी।

बनर्जी दा को न जाने हमेशा किस बात की हड़बड़ी मची रहती थी। जब भी वह मिलते कहीं जल्दी में जाते हुए सारस की – सी डगें भरते हुए या तीव्रता से अपनी पुरानी वेस्पा पर सवार दिखते थे। चलो चलो जल्दी करो उनका तकिया कलाम ही था। हर बात के लिए वे इस वाक्य का उपयोग अवश्य करते थे। हर बात में हड़बड़ी, हर बात में जल्दबाज़ी और अन्यमसस्क रहना ही उनकी खासियत थी। इसीलिए शीला के पास अक्सर हमें सुनाने के लिए बैनर्जी दा के रोज़ाना नए किस्से भी हुआ करते थे।

दस वर्ष शीला के साथ काम करते हुए तथा एक साथ काफी वक्त साथ बिताने के कारण दोनों परिवार में एक पारिवारिक संबंध – सा ही जुड़ गया था। कई किस्सों के हम गवाह भी रहे और खूब लुत्फ़ भी उठाए। पर उनके हजारों किस्सों में से कुछ चिर स्मरणीय और हास्यास्पद तथा रोचक किस्सों का मैं यहाँ जिक्र करूँगी।

शीला की दो बेटियाँ थीं। काजोल और करुणा। काजोल बड़ी थी और अभी हमारे ही स्कूल में दसवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा देकर छुट्टियों के दौरान बास्केटबॉल की ट्रेनिंग ले रही थी। वह शीला के साथ ही आना-जाना करती थी। अप्रैल का महीना था नया सेशन शुरू हुआ था पर 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त होने के बाद भी छात्रों को स्कूल में आकर खेलने की इजाज़त थी। करुणा दूसरे विद्यालय में पढ़ती थी।

खेलते – खेलते एक दिन काजोल छलाँग मारती हुई बास्केट में बॉल डालने का प्रयास कर रही थी कि वह गिर पड़ी और उसका दाहिना पैर टखने के पास से टूट गया। शीला ने बनर्जी दा को फोन पर इस बात की जानकारी दी। काजोल का पैर टूट जाने की खबर सुनाकर उसने उन्हें यह भी बताया कि वह पास के अस्पताल में पहुँचे। शीला ने अस्पताल का नाम भी बताया।

हम पहले ही बता चुके हैं कि बनर्जी दा हमेशा ही अन्यमनस्क रहते थे। न जाने हड़बड़ी में उन्होंने क्या सुना वे जल्दबाजी में अस्पताल तो पहुँचे पर वहाँ पूछताछ की खिड़की पर वे करुणा बनर्जी के बारे में ही पूछते रहे। जब उन्हें पता चला कि उस नाम का कोई पेशेंट वहाँ नहीं है तो वह उस इलाके के हर अस्पताल में चक्कर काटते रहे। पर काजोल नाम उनके ध्यान में आया ही नहीं।

उधर शीला घायल बेटी को लेकर एक्सरे रूम में बैठी रही। जब दो-तीन घंटे तक बनर्जी दा का कुछ पता ना चला तो उसने फिर घर पर फोन किया तो किसी ने फोन नहीं उठाया। उन दिनों मोबाइल का कोई प्रचलन हमारे देश में नहीं था। केवल लैंडलाइन की सुविधा ही उपलब्ध थी। शीला समझ गई कि उसके पति निश्चित ही हमेशा की तरह हड़बड़ी में कहीं और पहुँच गए होंगे। उस दिन शीला को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। घर जाने पर जब असलियत का पता चला तो शीला बनर्जी दा पर बस बरस ही पड़ी।

एक बार शीला बहुत बीमार पड़ी। शाम के समय स्कूल छूटने के बाद कुछ सहकर्मी महिलाएँ विद्यालय की बस पकड़ कर शीला से मिलने उसके घर पहुँची।

घंटी बजी। शीला को तेज बुखार था वह बिस्तर से उठ न सकी। बनर्जी दा अभी-अभी शीला के लिए दवाइयाँ लेकर घर लौटे थे। वे बाहर पहने गए कपड़े बदल रहे थे। घंटी बजते ही वे जल्दबाज़ी में कपड़े पहने और दरवाज़ा खोलकर सबका स्वागत किया। महिलाओं को शीला के कमरे में ले गए।

उन्हें देखते ही साथ सभी महिलाएँ अपनी आवाज़ दबाए हँसने लगीं। बनर्जी दा उन्हें शीला के पास बेडरूम में बिठाकर सब के लिए उत्साहपूर्वक चाय बनाने चले गए। फिर ट्रे में चार प्याली चाय लेकर वे आए। महिलाएँ

तब भी हँसती हुई नज़र आईं। शीला को हमेशा ही अपने पति की अन्यमनस्कता और हड़बड़ी की आदत की चिंता रहती थी। उसने जब बनर्जी दा की ओर देखा तो पता चला कि अपने पजामे की जगह पर उन्होंने अलगनी से शीला का पेटीकोट उठाकर पहन लिया था और शर्ट के नीचे से उसका नाड़ा लटक रहा था। वह बेचारी शर्म के मारे गड़ी जा रही थी। तीन-चार दिनों के बाद जब वह स्कूल आई तो किसी से वह आँख न मिला पाई।

चूँकि शीला भी नौकरीपेशा थी इसलिए बनर्जी दा घर से टिफन लेकर दफ्तर जाते थे। दोपहर की छुट्टी में वे घर नहीं जाते थे। उस दिन शाम को जब दफ्तर से छूटे तो टिफिन की अपनी थैली उठाए घर चले आए। शीला ने जब टिफन धोने के लिए थैला खोला तो उसमें से दो ईनो सॉल्ट की काँच की बोतलें निकलीं। एक में पीले रंग का तरल पदार्थ था और दूसरे में मल। जब उसने बनर्जी दा से पूछा तो वे झेंप से गए, ” बोले शायद मैं शर्मा साहब की थैली गलती से उठा लाया हूँ। शाम को दफ्तर छूटने से थोड़ी देर पहले ही उनका बड़ा बेटा यह थैला रख कर गया था। सुना है उनके छोटे बेटे को जॉन्डिस हुआ है।

शीला को समझने में देरी न लगी कि अपनी थैली टिफन बॉक्स समेत पति महोदय वहीं दफ्तर में छोड़ आए थे और शर्मा जी के बेटे के स्टूल टेस्ट के लिए दी जाने वाली बोतलों वाली थैली उठा लाए थे। दूसरे दिन दफ्तर में बनर्जीदा की खूब खिंचाई हुई और टिफन बॉक्स ना रहने के कारण बाहर जाकर भोजन खाना पड़ा।

एक बार बनर्जी दा और शीला स्कूटर पर बैठ कर किसी मित्र के घर के लिए निकले थे। उस मित्र के घर जाने से पहले एक रेलवे लाइन पड़ती थी। उस वक्त जब वे वहाँ पहुँचे तो रेलवे लाइन का फाटक बंद हो गया था। पाँच – सात मिनट के बाद रेलगाड़ी वहाँ से गुज़रने वाली थी। भीड़ – भाड़ वाली जगह पर स्कूटर पर बैठे रहने से बेहतर शीला ने स्कूटर से उतरकर थोड़ी देर खड़ी रहना पसंद किया। उसने बनर्जी दा की कमर से अपना हाथ हटा लिया और वहाँ स्कूटर के पास खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब फाटक खुला बनर्जी दा हड़बड़ी में बिना शीला को लिए फाटक पार कर आगे निकल गए। जब तक शीला उन्हें पुकारती वह काफी दूर पहुँच चुके थे। पीछे से कुछ लोगों ने जाकर हॉर्न बजाया और बनर्जी दा को बताया कि आपकी पत्नी फाटक के उस पार छूट गई हैं। तब वे फिर फाटक के पास लौट कर आए। उस दिन शीला इतनी नाराज़ हुई कि उसने बनर्जी दा से कहा कि तुम हमारे मित्र के घर चले जाओ मैं एक रिक्शा पकड़ कर घर जा रही हूँ। उनसे कह देना मेरी तबीयत ठीक नहीं।

हमारे विद्यालय में एक बार प्रधानाचार्य ने हस्बैंड ईव कार्यक्रम का आयोजन रखा। इस कार्यक्रम का उद्देश्य था कि सभी विवाहिता शिक्षिकाओं के पतियों का आपस में मेलजोल हो। यह एक छोटा – सा कार्यक्रम था और उन दिनों के लिए यह एक नई कल्पना थी। सभी बहुत उत्साह और कुतूहल से इस ईव की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमारे विद्यालय में शिक्षिकाओं की संख्या ही अधिक थी। संस्था की खासियत भी यही थी कि विद्यालय को विशिष्ट ढंग से हर कार्यक्रम के लिए सजाया जाता था। उस दिन भी उस हस्बैंड ईव के लिए विद्यालय के प्रांगण को पार्टी लुक दिया गया और इसके लिए शिक्षिकाओं को जल्दी बुलाया गया।

शीला बनर्जी दा की कमीज़ मैचिंग टाई, सूट व पतलून बिस्तर पर रख आई थी। साथ में दो जोड़े जूते भी बिस्तर के पास फर्श पर रखकर आई थी। साफ हिदायतें भी दी थी कि वे जो उचित लगे वह जोड़े पहन लें।

सभी हस्बैंड खास तैयार होकर आए। महफिल जमी, कई पार्टी गेम्स का आयोजन किया गया था। टग ऑफ वॉर, म्यूजिकल चेयर, हाउज़ी, आदि खेलों द्वारा सबका मनोरंजन भी किया गया। विभिन्न खेलों में जीते गए लोगों को पुरस्कृत भी किया गया। एक खास पुरस्कार ऐसे व्यक्ति के लिए था जो पार्टी में सबसे अलग हो और उठकर दिखे। और यह पुरस्कार बनर्जी दा को ही मिला कारण था वे दो अलग रंग व डिजाइन के शूज़ पहनकर विद्यालय आए थे। शीला ने जब उन्हें गेट से भीतर आते देखा तो उसे खुशी हुई कि उसके पति महोदय ठीक-ठाक तैयार होकर ही आए थे पर जब पुरस्कार की घोषणा हुई वह बेचारी मारे शर्म के पानी – पानी हो गई।

हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्य बहुत बुद्धि मती तथा व्यवहारकुशल थीं। उन्होंने बड़े करीने से परिस्थिति को संभाल लिया और माइक पर बैनर्जी दा का नाम घोषित करती हुई बोली, “दूसरों पर हँसना बड़ा आसान होता है पर जो व्यक्ति अपने आप पर दूसरों को हँसने का मौका देता है वह इस संसार का सबसे बड़ा विनोदी व्यक्ति होता है और आज इस पुरस्कार के हकदार श्रीमान बनर्जी हैं। “

बनर्जी दा के सिर में बहुत कम बाल थे। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगी कि वे गंजे ही थे। लेकिन घंटों आईने के सामने खड़े होकर बड़े करीने से अपने सात आठ बाल जो अब भी सिर पर बचे हुए थे उन्हें बाईं तरफ से दाईं तरफ कंघी फेरकर सेट किया करते थे।

जाड़े के दिन थे। नारियल का तेल जम गया था। रविवार का दिन था तो कोई जल्दी भी नहीं थी। शीला बाज़ार गई थी। बनर्जी दा ने नारियल तेल की बोतल धूप में रखी ताकि तेल गल जाए। उसी बोतल के साथ उनकी बड़ी बेटी काजोल ने अपने एन.सी.सी के जूते चमकाने के लिए काली पॉलिश भी धूप में रख छोड़ी थी। बनर्जी दा नहा- धोकर आए और अन्यमनस्कता से हड़बड़ी में बिना आईने में देखे सिर पर तेल लगाने के बजाय जूते की पॉलिश लगा ली। उस पॉलिश में किसी प्रकार की कोई गंध न थी जिस कारण उन्हें तेल और पॉलिश के बीच का अंतर समझ में नहीं आया। वैसे भी वह अन्यमनस्क प्राणी थे।

शीला के साथ उस दिन मैं भी बाजार गई थी। सामान लेकर कॉफी पीने के लिए हम उसके घर पहुँचे तो बनर्जी दा ने ही दरवाजा खोला। उनका गंजा सिर जूते के काले पॉलिश से तर हो रहा था और वे वीभत्स- से दिख रहे थे। मेरी तो ऐसी हँसी छूटी कि मैं खुद को रोक न सकी पर शीला उनके इस अन्यमनस्कता से बहुत परेशान थी। पर चूँकि मैं ही उसके साथ थी तो गुस्सा थूककर वह भी ज़ोर – ज़ोर से हँस पड़ी। बनर्जी दा फिर से नहाने चले गए।

काजोल उन दिनों चंडीगढ़ में पी.जी.आई में मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी। शीला और बनर्जी दा उससे मिलने जा रहे थे। वे दोनों दिल्ली स्टेशन पहुँचे। दिल्ली से शताब्दी नामक रेलगाड़ी चलती थी। सुबह शताब्दी नाम से कई ट्रेनें चलती थीं। पाँच -दस मिनट के अंतर में शताब्दी नामक ट्रेन अलग-अलग प्लेटफार्म से भी छूटती थीं। प्रातः 6:30 बनर्जी दा और शीला चंडीगढ़ जाने के लिए रवाना हुए। स्टेशन पर पहुँचे हड़बड़ी में वे दोनों एक शताब्दी नामक ट्रेन में बैठ गए। सीट नंबर देखा तो वे भी खाली ही मिले। लंबी यात्रा के कारण दोनों थके हुए थे। उस दिन शीला ने भी ज्यादा ध्यान ना दिया। गाड़ी चल पड़ी। घंटे भर बाद जब टीसी आया तो पता चला कि वे अमृतसर जाने वाली गाड़ी में सवार थे। अब क्या था शताब्दी जहाँ अगले स्टेशन पर रुकने वाली थी उस स्टेशन तक का किराया तो उनको देना ही पड़ा साथ ही निर्धारित दिन और समय पर वे दोनों चंडीगढ़ न पहुँच सके।

एक और मजेदार किस्सा पाठकों के साथ साझा करती हूँ। दफ्तर के किसी कॉन्फ्रेंस के लिए बनर्जी दा को कोलकाता जाना था। फ्लाइट का टिकट था दफ्तर के कुछ और भी दूसरे लोग साथ जाने वाले थे। तीन दिन का काम था। उनके दोस्त ने टिकट अपने पास ही रखा क्योंकि बनर्जी दा भुलक्कड़ स्वभाव के आदमी थे। शीला ने पति महोदय को दफ्तर के लोगों के साथ बातचीत करते हुए सुना था वह निश्चिंत थी कि वे समय पर एयरपोर्ट पहुँच जाएँगे। शाम को 6:00 बजे की फ्लाइट थी बनर्जी दा 3:30 बजे घर से निकले 5:30 बजे वे घर भी लौट आए। बाद में पता चला कि उनकी फ्लाइट सुबह 6:00 बजे की थी ना कि शाम के 6:00 बजे की।

पतिदेव से विस्तार मालूम होने पर शीला ने तो अपना सिर ही पीट लिया।

बैनर्जी दा को गुज़रे आज कई वर्ष बीत चुके। शीला ने भी संस्था छोड़ दी और वह कोलकाता लौट गई पर मेरे पास बैनर्जी दा की हड़बड़ी और अन्यमनस्कता के इतने किस्से हैं कि मैं जब याद करती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि कल की बातें हैं। हँसी के वे पल थे तो बड़े ही सुखद ! बनर्जी दा तो आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी याद आज भी ताजा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – जब पराए ही हो जाएँ अपने)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने?

जिद् दा सऊदी अरब का एक सुंदर शहर है। चौड़ी छह लेनोंवाली सड़कें, साफ – सुथरा शहर, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, यूरोप के किसी शहर का आभास देने वाला सुंदर सजा हुआ शहर। यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। कई यात्रियों की यह चहेती शहर है। हर एक किलोमीटर की दूरी पर सड़क के बीच गोल चक्र सा बना हुआ है जिस पर कई सुंदर पौधे और घास लगे हुए दिखाई देते हैं। रात के समय सड़कें अत्यंत प्रकाशमय है। सब कुछ झिलमिलाता सा दिखता है। जगह-जगह पर विभिन्न प्रकार के आकारों की लकड़ी और पत्थर आदि से बनाई हुई आकृतियां दिखाई देती हैं। यह आकृतियाँ शहर को सजाने के लिए खड़ी की जाती हैं। यहाँ तक कि सड़कों पर बड़े-बड़े झाड़ फानूस भी  लगे हुए दिखाई देते हैं।

जिद् दा  ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर है।  इस शहर से 40 -50 किलोमीटर की दूरी पर मक्का नामक धर्म स्थान है। मुसलमान धर्म को मानने वाले निश्चित रूप से जीवन में एक बार अपने इस दर्शनीय तीर्थस्थल पर अवश्य आते हैं। इसे वे हज करना कहते हैं और हज करनेवाला व्यक्ति हाजी कहलाता है।

भारत से भी प्रतिवर्ष 25 से 30 लाख लोग मक्का जाते हैं। जब तीर्थ करने का महीना आता है, जिसे रमादान कहते हैं तो हर एक एयरलाइन हर हाजी की यात्रा को आसान बनाने के लिए टिकटों की दरें घटा देता है। यह सुविधा केवल हाजियों के लिए ही होती है। जिद् दा शहर में उतरने के बाद हाजियों के लिए बड़ी अच्छी सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। मुफ़्त खाने- पीने की व्यवस्था हवाई अड्डे से कुछ दूरी पर ही की जाती है। अलग प्रकार के कुछ टेंट से बने होते हैं जहाँ इनके इमीग्रेशन के बाद इन हाजियों को बिठाया जाता है। यहीं से बड़ी संख्या में बड़ी-बड़ी बसें छूटती  हैं। चाहे यात्री किसी भी देश का निवासी हो,  जो हाजी होता है उसके लिए अनुपम व्यवस्था होती ही है और इन्हीं बसों के द्वारा उन्हें मक्का तक पहुँचाया जाता है हर देश की ओर से जिद्दा में एजेंट्स मौजूद होते हैं और वही हर देश से आने वाले हाजियों की सुख – सुविधाओं की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से करते हैं। कुछ लोग बिना एजेंट के भी यात्रा करते हैं।क्योंकि वहाँ की भाषा अरबी भाषा है जिसे बाहर से आने वाले नहीं बोल पाते हैं तो एजेंट के साथ होने पर आसानी हो जाती है।

उन दिनों मेरे पति बलबीर सऊदी अरब के इसी जिद् दा शहर में काम किया करते थे। मुझे अक्सर वहाँ आना – जाना पड़ता था। मैं भारत में ही अपनी बेटियों के साथ रहा करती थी। प्रतिवर्ष मुझे तीन -चार बार  वहाँ जाने  का अवसर मिलता था इसलिए वहाँ  की नीति और नियमों से भी मैं परिचित हो गई थी। वहाँ के नियमानुसार मैं भी हवाई अड्डे पर उतरने से पूर्व काले रंग का बुर्खा पहन लिया करती थी जिसे वहाँ के लोग अबाया कहते हैं। माथे पर लगी बड़ी बिंदी को हटा देती थी क्योंकि वहाँ के निवासी बिंदी को हराम समझते हैं। मैंने उन सब नियमों का हमेशा पालन किया ताकि कभी किसी प्रकार की मुश्किलों का सामना ना करना पड़े।

जो लोग स्थानीय न थे उन्हें चेहरे पर चिलमन या पर्दा डालने की बाध्यता न थी। अतः केवल काले कपड़े से सिर ढाँककर घूमने की छूट थी। पहले पहल वहाँ के नियम – कानून देखकर मैं भी घबरा गई थी पर धीरे-धीरे आते – जाते मुझे भी उन सबकी आदत – सी पड़ गई फिर अंग्रेजी में कहावत है ना बी अ  रोमन व्हेन यू आर ऐट रोम

इससे किसी भी प्रकार की मुसीबतों से हम बचते हैं।

इस देश में स्त्रियों को वह आजादी नहीं दी जाती है जो हमें अपने देश में देखने को मिलती है। यदि हम उनके नियमों का सही रूप से पालन करते हैं तो सब ठीक ही रहता है अब सालभर  में कई बार आते जाते मैं काले पहनावे में स्त्रियों को देखने और स्वयं भी उसी में लिपटे रहने की आदी हो चुकी थी।

2003 के दिसंबर का महीना था मैं अपनी छुट् टी जिद् दा में बिताकर अब घर लौट रही थी। हवाई अड् डे में इमीग्रेशन के बाद मैं अन्य यात्रियों के साथ कुर्सी पर जा बैठी इमीग्रेशन के लिए जब मैं कतार में खड़ी थी तब एक वृद्ध व्यक्ति को विदा करने के लिए कई भारतीय आए हुए थे। वे सबसे गले मिलते और आशीर्वाद देते। उनके  मुँह से शब्द अस्पष्ट  फूट रहे थे। आँखों पर मोटे काँच का  चश्मा था। आँखों से बहते आँसू और काँपते हाथ निरंतर उपस्थित लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।

इमीग्रेशन  के बाद वे भी  एक कुर्सी पर जाकर बैठ गए। उनके कंधे पर एक छोटा -सा अंगोछा था जिससे वे अपनी आँखें बार-बार पोंछ रहे थे। मेरा हृदय अनायास ही उनकी ओर आकर्षित हुआ। मैंने देखा वे अकेले ही थे इसलिए मैंने उनकी बगल वाली कुर्सी के सामने अपना केबिन बैग रखा और पानी की एक बोतल खरीदने चली गई। जाते समय उस बुजुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। (वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।)

लौट कर देखा बुजुर्ग की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। उनके पोपले मुँह वाले पिचके गाल आँसुओं से तर थे। उनकी ठुड् ढी पर सफेद दाढ़ी थी जो हजामत ना करने के कारण यूं ही बढ़ गई थी। उन्हें रोते देख मैं उनके बगल में बैठ गई। बोतल खोलकर गिलास में पानी डालकर उनके सामने थामा फिर बुजुर्ग के हाथ पर हाथ रखा तो सांत्वना के स्पर्श ने उन्हें जगाया और उन्होंने काँपते हाथों से गिलास ले लिया।  दो घूँट पानी पीकर शुक्रिया कहा। बुजुर्ग के काँपते ओंठ और कंपित स्वर ने न जाने क्यों मुझे भीतर तक झखझोर दिया। न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि वह इस शहर में अपनी कुछ प्रिय वस्तु छोड़े जा रहे थे। उनका इस ढलती उम्र में इस तरह मौन क्रंदन करना मेरे लिए जिज्ञासा का कारण बन गया। मैंने फिर एक बार बाबा को स्पर्श किया और उनसे पूछा, “बाबा क्या किसी प्रिय व्यक्ति को इस शहर में छोड़कर जा रहे हैं ?” उन्होंने मेरे सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया बस रोते रहे।

 विमान के छूटने का तथा यात्रियों को द्वार क्रमांक 12 पर कतार बनाकर खड़े होने के लिए निवेदन किया गया। सभी से कहा गया कि वे अपने पासपोर्ट तथा बोर्डिंग पास तैयार रखें। लोगों ने तुरंत द्वार क्रमांक 12 पर एक लंबी कतार खड़ी कर ली। हम मुंबई लौट रहे थे। एयर इंडिया का विमान था। जिद् दा से मुंबई का सफर तय करने के लिए 5:30 घंटे लगते हैं। अभी सुबह के 10:00 बजे थे 11:00 बजे हमारा विमान उड़ान भरने वाला था। हम 4:30 बजे मुंबई पहुँचने वाले थे। अनाउंसमेंट के बाद भी जब बाबा ना उठे तो मैंने भी उनके साथ हो लेने का निश्चय किया।  हवाई अड्डे के मुख्य द्वार से काफी दूर विमान खड़े किए जाते थे। वहाँ तक पहुँचाने के लिए हवाई अड्डे द्वारा नियोजित सुंदर बसों की व्यवस्था थी। जब आखरी बार यात्रियों को बस में बैठने के लिए अनाउंसमेंट किया गया तब मैंने उनसे कहा बाबा चलिए हमारे विमान के उड़ान भरने का समय हो गया। वे  कुछ ना बोले। कंधे पर एक थैला था, हाथ में एक  लाठी। वे लाठी  टेकते हुए आगे बढ़ने लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। पासपोर्ट और बोर्डिंग पास दिखाने के लिए कहा गया। मैंने उनके कुरते की जेब से झाँकते पासपोर्ट और टिकट निकाल कर उपस्थित अफसर को दिखाया और हम आखरी बस की ओर अग्रसर हुए।

न जाने क्यों बुज़ुर्ग के प्रति मेरे हृदय में  एक दया की भावना सी उत्पन्न हो रही थी। वे असहाय और किसी दर्द से गुज़र रहे थे। साथ ही उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा सी जागृत हो गई थी। बुज़ुर्ग भी मेरे द्वारा दी गई सहायता को चुपचाप स्वीकारते चले गए। अब दोनों के बीच एक अपनत्व की भावना ने जन्म ले लिया था।*

बस में बैठते ही मैंने फैसला कर लिया था  कि मैं भी उस बुजुर्ग के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए एयरहोस्टेस से निवेदन करूँगी ताकि यात्रा के साढ़े पाँच घंटों में और कुछ जानकारी उनसे हासिल कर सकूँ। ईश्वर ने मेरी सुन ली कहते हैं ना जहाँ चाह वहीं राह। एयरहोस्टेस ने तुरंत मेरी सीट  बदल दी और बुजुर्ग की बगल वाली सीट मिल गई। मुझे देखकर बुजुर्ग ने एक छोटी – सी मुस्कान दी।  मानो वे अपनी प्रसन्नता जाहिर कर रहे थे। मैंने अपनी सीट पर  बैठने से पहले उनकी  लाठी ऊपर वाले खाने में रख दी साथ ही अपना केबिन बैग भी। बैठने के बाद  पहले बेल्ट बाँधने में उनकी सहायता की, उनके हाथ काँप रहे थे।संभवतः कुछ अकेले यात्रा करने का भय था, कुछ आत्मविश्वास का अभाव भी। फिर अपनी बेल्ट लगा ली। इतने में एयर होस्टेस ने हमें फ्रूटी का पैकेट पकड़ाया। मैंने दो पैकेट लिए और बुजुर्ग की ओर एक पैकेट बढ़ाया।

मेरी छोटी – छोटी सेवाओं ने बुजुर्ग के दिल में मेरे लिए खास जगह बना दी। अब उनका रोना भी बंद हो चुका था। मैं भी आश्वस्त थी और अब जिज्ञासा ने प्रश्नावलियों का रूप ले लिया था। मन में असंख्य सवाल थे जिनके उत्तर यात्रा के दौरान इन साढ़े पाँच  घंटों में ही मुझे हासिल करना था।

मैंने ही पहला सवाल पूछा, फिर दूसरा, फिर तीसरा और फिर चौथा …..

थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई,  बिल्कुल चुप और बुज़ुर्ग बस बोलते रहे, बस बोलते ही चले गए। उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा आज मैं उन सच्चाइयों को आप पाठकों के सामने रख रही हूँ। उन्हें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे शायद इन घटनाओं  के सिलसिले को पढ़कर आपका हृदय भी  द्रवित हो उठे। मैं इस कहानी में बुजुर्गों का नाम तथा पहचान गुप्त रखना चाहूँगी क्योंकि किसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाना उचित नहीं है।

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बुजुर्ग का बेटा मुंबई शहर में टैक्सी चालक था।काम ढूँढ़ने के लिए  सत्रह वर्ष की उम्र में वह इस शहर में आया था। वह जब सफल रूप से पर्याप्त धन कमाने लगा तो वह अपने माता – पिता को भी गाँव से मुंबई ले आया था। माता-पिता गाँव में दूसरों के खेत में मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करते थे। बेटा बड़ा हुआ तो  उसका विवाह किया गया। अब तो उसके बच्चे भी कॉलेज में पढ़ रहे थे। बुजुर्ग की पत्नी और  बहू के बीच अब धीरे-धीरे  अनबन होने लगी थी। संभवतः कम जगह, बढ़ती महंगाई ने रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं। अनबन  की मात्रा इतनी बढ़ गई कि बुज़ुर्ग के बेटे ने उन्हें अलग रखने का फैसला किया।

2000 के फरवरी माह की एक सुहानी शाम के समय बुजुर्गों का बेटा अपने माता-पिता के लिए हज करने के लिए मक्का मदीना भेजने की व्यवस्था कर आया।वे अत्यंत प्रसन्न हुए अपने बेटे – बहू को आशीर्वाद देते  नहीं थकते थे। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था। बुजुर्ग और उनकी पत्नी ने अपने सपने  में भी कभी नहीं सोचा था कि उन्हें हज पर जाने का मौका मिलेगा। बेटे से पूछा कि इतने पैसों का प्रबंध कैसे हो पाया तो उसने कहा कि उसने अपना घर गिरवी रखा है। वह अपने माता पिता को लेकर हज कर आना चाहता है।उनके पड़ोसी  उनसे मिलने आते और उनके सौभाग्य की सराहना करते।  बूढ़ा अपने बेटे बहू की प्रशंसा करते ना थकते।

फिर वह सुहाना दिन भी आ गया। बुजुर्ग और उनकी पत्नी अपने बेटे के साथ छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर पहुँचे। कोई फूलों का गुच्छा देता तो कोई फूलों की माला पहनाता। अनेक पड़ोसी और  रिश्तेदार उन्हें  विदा करने एयरपोर्ट आए थे।

 बुजुर्ग ने अपनी जिंदगी बड़े कष्टों में गुजारी थी तभी तो उनका बेटा 17 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश के एक गाँव से उठकर रोज़गार की तलाश में मुंबई आया था। उन्होंने कभी भी नहीं सोचा था कि वह कभी हज करने जा सकेंगे। दो वक्त की रोटी जहाँ ठीक से नसीब ना हो वहाँ इतना बड़ा खर्च कैसे किया जा सकता है भला?  पर बेटे ने तो वह सपना पूरा करना चाहा जो कभी आँखों ने देखे भी न थे।

हवाई यान ने उड़ान भरी। मां-बाप और सुपुत्र चले मक्का। 10 मार्च 2001 व्यवस्थित योजना के मुताबिक सुचारू रूप से सब कुछ होता रहा। जिद् दा हवाई अड् डे  से बस में बैठकर अन्य यात्रियों के साथ उसी दिन रात को तीनों मक्का पहुँचे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी की खुशी की सीमा न थी वह तो मानो स्वर्ग पहुँच गए थे। अल्लाह के उस दरवाजे पर आकर उस दिन खड़े हुए जहाँ नसीब वाले ही पहुँच सकते थे। मक्का में यात्रियों और हाजियों की भीड़ थी बेटे ने हिदायत दी थी कि वे एक दूसरे के साथ ही रहे साथ ना छोड़े।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी अनपढ़ थे। मजदूरी करके जीवन काटने वाला व्यक्ति दुनिया की रीत भला क्या समझे उसके लिए तो दो वक्त की रोटी पर्याप्त होती है मक्का का दर्शन हो गया काबा के सामने खड़े अल्लाह  से दुआएँ माँग रहे थे। अपने बेटे की लंबी उम्र और सफल जीवन के लिए दुआएँ कर रहे थे। उन्हें क्या पता था कि वह उसी स्थान पर कई दिनों तक खड़े-खड़े बेटे की प्रतीक्षा ही करते रहेंगे।

 मक्का में दो दिन बीत गए। बेटा उसी भीड़ में कहीं खो गया। भाषा नहीं आती थी। किसी तरह अन्य भारतीयों हाजियों की सहायता लेकर  पुलिस से गुमशुदा बेटे की शिकायत दर्ज़ कराई।  बुजुर्ग की पत्नी का रो-रोकर हालत खराब हो रही थी।

गायब होने से पहले बेटे ने अपने वालिद के हाथ में पाँच सौ रियाल रखे थे और कहा था थोड़ा पैसा अपने पास भी रखो अब्बा।

पुलिस ने छानबीन शुरू की। बुजुर्ग के पास न पासपोर्ट  था, न वीज़ा,न हज पर आने की परमिट पत्र।भाषा आती न थी। घर से बाहर ही कभी मुंबई  शहर में अकेले कहीं नहीं गए थे यह तो परदेस था। पति-पत्नी भयभीत होकर काँपने लगे, पत्नी रोने लगी।पर पुलिस को तो नियमानुसार अपनी ड्यूटी करनी थी।

पुलिस ने कुछ दिनों तक उन्हें जेल में रखा क्योंकि उन पर बिना पासपोर्ट के पहुँचने का आरोप था। पर छानबीन करने पर कंप्यूटर पर उनका पासपोर्ट नंबर और नाम मिला तो मान लिया गया कि उनका पासपोर्ट कहीं खो गया। उन्होंने अपने बेटे का नाम और मुंबई का पता बताया तो पता चला कि उस नाम के व्यक्ति की जिद् दा  से एग्जिट हो चुकी थी।

एक और एक जोड़ने पर बात स्पष्ट हो गई। बुजुर्ग और उनकी पत्नी से पिंड छुड़ाने के लिए उन्हें मक्का तक ले आया और उन्हें धोखा देकर उनका पासपोर्ट तथा टिकट लेकर स्वयं भारत लौट गया।

बात यही॔ खत्म नहीं हुई। घर का जो पता दिया गया था उस पते अब उस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता था। बूढ़े को याद आया कि उसके रहते ही उस घर को देखने कुछ लोग आए थे। तब बेटे ने बताया था कि वह घर गिरवी रख रहा था बुजुर्ग को क्या पता था कि बेटे और बहू के दिमाग में कुछ और शातिर योजनाएँ चल रही थीं।

उधर भारतीय एंबेसी लगातार बुजुर्ग के परिवार को खोजने की कोशिश कर रही थी। इधर बुजुर्ग और उनकी पत्नी  की हालत खराब हो रही थी। एक तो बेटे  द्वारा दिए गए धोखे का गम था, दूसरा बुढ़ापे में विदेश में जेल की हवा खानी पड़ी। अपमान और ग्लानि के कारण बुजुर्ग की पत्नी की तबीयत दिन-ब-दिन खराब होने लगी थी। पुलिस की निगरानी में आश्रम जैसी जगह में उन्हें रखा गया था। यहाँ उन हाजियों को रखा जाता था जो हज करने के लिए मक्का तो पहुँच जाते थे पर उनके पास पर्याप्त डॉक्यूमेंट ना होने के कारण वे लौटकर अपने देश नहीं जा पाते। यह लोग अधिकतर इथियोपिया,चेचनिया इजिप्ट या अन्य करीबी देशों से आने वाले निवासी हुआ करते थे। फिर कुछ समय बाद वे  इसी देश में रह जाते थे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी गरीब जरूर थे पर उनकी अपनी इज्जत थी उनके गाँव के निवासी, मुंबई के पड़ोसी सब मान करते थे वरना मुंबई के हवाईअड् डे पर फूल लेकर  उनसे मिलने क्यों आते? यह तो हर हज पर जाने वाले व्यक्ति का अनुभव होता है उसे विदा करने और लौट आने पर स्वागत करने के लिए असंख्य लोग आते हैं।

तीन  महीने बीत गए।  बुजुर्ग और उनकी पत्नी अब मक्का से जिद् दा लाए गए। उसी शहर में कुछ ऐसे भारतीय थे जो जिद् दा शहर में नौकरी के सिलसिले में कई सालों से रह रहे थे वे साधारण नौकरी करते थे तथा बड़े-बड़े फ्लैट किराए पर लेकर कई लोग एक साथ रहा करते थे। उन लोगों में कुछ टैक्सी चालक थे कुछ टेलीफोन के लाइनमैन तो कुछ फिटर्स तथा कुछ बड़ी दुकान में सेल्समैन। सभी अपने-अपने परिवारों को भारत में छोड़ आए थे और वहीं सारे पुरुष एक साथ भाई – बंधुओं की तरह रहा करते थे।

इन तीन  महीनों में इन्हीं लोगों ने दौड़ भाग कर इंडियन एंबेसी से पत्र व्यवहार किया पैसे इकट्ठे किए कागजात बनवाए और बुजुर्गों को जिद् दा  ले आए। बुजुर्ग की उम्र सत्तर से ऊपर थी और उनकी पत्नी अभी सत्तर से कम। वे दिन रात प्रतीक्षा में रहते। जिन लोगों ने उन्हें अपने साथ रखा था वे जानते थे बुज़ुर्ग का बेटा उन्हें ले जाने के लिए यहाँ छोड़ कर नहीं गया था। उसकी तो साज़िश थी उन से पीछा छुड़ाने का। बुजुर्ग इस सच्चाई को कुछ हद तक मान भी लेते लेकिन उनकी पत्नी इस बात को मानने को तैयार नहीं थी।  वे दोनों इसी गलतफ़हमी में थे कि उनका बेटा कहीं खो गया था।

पत्नी का रो – रो कर बुरा हाल हो रहा था। जिस तरह पानी बरसने के बाद कुछ समय बीतने पर जमीन ऊपर से सूख तो जाती है पर भीतर तक लंबे समय तक उसमें  गीलापन बना रहता है।ठीक उसी तरह बूढ़ी की हर साँस से दर्द का अहसास होता था। अब रोना बंद हो गया पर साँसें भारी हो उठीं।

उनके इर्द-गिर्द रहनेवाले वे सारे लोग उनके आज अपने थे। एक बाप अपने कलेजे के टुकड़े को न छोड़ पाएगा पर माँ-  बाप को बोझ समझनेवाला शायद उन्हें छोड़ सकता है।यह किसी धर्मविशेष की बात नहीं है, वरना स्वदेश में इतने वृद्धाश्रम न होते।

बुजुर्गों की पत्नी की तबीयत बिगड़ती गई और माह भर सरकारी अस्पताल में रहने के बाद अपने नालायक बेटे को याद करते – करते उसने दम तोड़ दिया। धर्मपत्नी की मय्यत को वहीं मिट्टी दी गई क्योंकि भारत में अब बेटे का भी पता न था और हाथ में किस प्रकार के कोई डॉक्यूमेंट लौटने के लिए नहीं थे। घर बेचकर किस शहर को वह चला गया था यह तो खुदा ही जानता था।  बुजुर्ग अब अकेले रह गए पत्नी की मौत ने मानो उनकी कमर ही तोड़ दी। वे भी  उसी के साथ जाना चाहते थे मगर मौत अपनी मर्जी से थोड़ी आती है। उनका कलेजा हरदम मुँह को आ जाता था पर शायद उन्हें अभी और दुख झेलने थे।

सारे अन्य भारतीय लोगों के बीच रहते और इंडियन एंबेसी के निर्णय का वे रास्ता देखते रहे।

आज वही दिन था जब जिद् दा शहर से हमेशा के लिए वे विदा हो  रहे थे।  अपनी औलाद ने पिंड छुड़ाने के लिए इतनी दूर लाकर छोड़ा था और जिनके साथ उनका रिश्ता भी नहीं वे  अपनों से बढ़कर निकले। पराए देश में एक असहाय दंपति का साथ दिया,  उनकी सेवा की,  सहायता की, आश्रय दिया।  यहां तक कि बुजुर्ग की पत्नी का अंतिम संस्कार भी नियमानुसार किया। बुजुर्ग के लिए एंबेसी जाते रहते और अंत में विभिन्न एजेंटों की सहायता से पासपोर्ट बनाकर वीजा की व्यवस्था करके एग्जिट का वीजा लेकर आए। वह आज उनके कितने अपने थे उनके साथ पिछले छह महीने रहते-रहते ऐसा अहसास हुआ कि संसार का सबसे बड़ा रिश्ता प्रेम का रिश्ता है।  जिद् दा शहर में रहने वाले लोग चाहे भारत के किसी भी राज्य के हों,  चाहे जिस किसी धर्म के हों उनमें प्रेम है, एकता है। वे सब मिलजुलकर सभी त्यौहार मनाते हैं। खुशी और ग़म में एक दूसरे का साथ देते हैं।

बुजुर्ग की आँखें चमक उठी और बोले यह सब जो मुझे छोड़ने आए थे वह सब हिंदू, मुसलमान और ईसाई लोग थे। पर उन सब की एक ही जाति और धर्म है और वह है मानवता। फिर बुजुर्ग ने अल्लाह का शुक्रिया करते हुए कहा कि मैं तो जिद् दा की पुलिस, सरकार, राजा सबको धन्यवाद देता हूं क्योंकि सब ने हमारी बहुत देखभाल की।

विमान को उड़ान भरे पाँच घंटे हो गए हमें पता ही न चला। एक बार फिर से सीट बेल्ट बाँधने का अनाउंसमेंट हुआ और मुझे अहसास हुआ कि हम छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर उतरने जा रहे थे। मेरा दिल एक बार इस चिंता से धड़क उठा और समझ में नहीं आ रहा था कि मैं बुजुर्ग से कैसे पूछूँ फिर भी साहस जुटाकर मैंने उनसे पूछ लिया कि मुंबई उतर कर वे  कहाँ जाएँगे। तब उन्होंने अपनी जेब से काँपते हाथों से एक लिफाफा निकाला जिसमें एक महिला की तस्वीर थी और उसका पता लिखा हुआ था।

विमान उतरा,  हम इमीग्रेशन की ओर निकले। औपचारिकता पूरी  करने के बाद अपना सामान बेल्ट पर से उतारकर ट्रॉली पर रखा और बाहर आए। एक मध्यवयस्का महिला एक व्हीलचेयर  लेकर खड़ी थी। हम जब थोड़ा और आगे बढ़े तो  उस महिला ने बुजुर्ग को आवाज लगाई, “अब्बाजान मैं रुखसाना!” और वह एक सिक्योरिटी के अफसर के साथ बुजुर्ग के पास आई। बड़े प्यार से उन्हें गले लगाई मीठी आवाज में बोली, “अब्बाजान  घर चलिए। सब आपका इंतजार कर रहे हैं।

 मैंने उनसे पूछा,”रुखसाना जी बाबा को कहाँ ले जा रही हैं ? “

उन्होंने मेरी ओर ऊपर से नीचे  एक बार देखा फिर पूछा, ” आपका परिचय?”  मैंने भी झेंपते  हुए कहा, ” बस कुछ घंटों का साथ था बाबा के साथ। मैं भी यात्री हूँ।

बाबा बोले,”  रुखसाना बेटा साढ़े पाँच  घंटों में यह सफ़र कैसे कटा पता ही न चला।अगर ये ख़ार्तून ना मिलतीं तो यह सफ़र मेरे लिए तय करना बड़ा मुश्किल होता। आपने पूछा था ना कि मैं क्या पीछे छोड़े जा रहा हूँ ? मैं  अपनों को छोड़ आया हूँ जिन्होंने मुझे आज अपने देश लौटने का मौका दिया।  इसलिए मैं अपने आँसू रोक न पा  रहा था। अगर आप ना मिलतीं तो शायद  इसी तरह रोता रहता। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया,आपने बोझ हल्का करने में मदद की।

रुखसाना ने अपने पर्स से अपना पहचान पत्र निकाला ‘सोशल वर्कर मुंबई’।  बाबा का नया घर था वृद्धाश्रम! जिद् दा के  बच्चों ने ही यह व्यवस्था  की थी जिनके साथ उनका कोई खून का रिश्ता नहीं था।

बाबा ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा आपने अपना नाम क्या बताया बेटा ?

 मैं जोर से हँस पड़ी, मैंने कहा “बाबा मैंने तो आपको मेरा परिचय दिया ही ना था। “

 तब तक हम तीनों बाहर  पहुंच गए थे जहाँ टैक्सी मिलती है। मैंने बाहर आने पर झुककर बाबा को प्रणाम किया और कहा “मैं भी आपकी हिंदू बेटी हूँ। फिर मिलूँगी आपसे।”

© सुश्री ऋता सिंह

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