हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-११ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-११ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

प्रिय मित्रों, पिछली बार हमने शिलॉन्गका सफर शुरू किया| अब हम शिलॉन्ग में स्थित कुछ और नयनाभिराम स्थल देखेंगे| तो फिर चलिए, बहुत देर तक चलने की तैयारी करें!

एलिफेंट जलप्रपात (Elephant falls)

शिलॉन्ग के उत्तर भाग में एक अन्य सर्वांगसुंदर ऐसा स्थान है, जो कि पर्यटकों ने देखना ही चाहिए, ऐसा एलिफेंट फॉल! इस जलप्रपात के निकट हाथी के आकार की एक विशाल चट्टान थी, इसलिए ब्रिटिशों ने इसका नाम रखा एलिफेंट फॉल| परन्तु अब इस निर्झर के पास वह कुंजर सम महाकाय चट्टान नहीं रहा क्योंकि, १८९७ के भूकंप में वह नष्ट हो गया| लेकिन उसका नामकरण जिस नाम से हुआ, वहीं नाम आज भी प्रचलित है! शहर के मध्य से ११ किलोमीटर अंतर पर स्थित यह त्रिस्तरीय जलप्रपात (यह जलप्रपात तीन चरणों में गिरता है) देखने हेतु वर्षा ऋतू में जाना बेहतर है, श्वेत दुग्ध जैसी सैकड़ों फेनिल धाराओं की लयबद्ध सप्तसुरों से पूरे क्षेत्र को निनादित कर देने वाले इस जलप्रपात का प्राकृतिक रमणीय दर्शन मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। एक बार देखने पर दृष्टि हटती ही नहीं| अगर वर्षा ऋतू में जा रहे हैं, तो सीढ़ियों की उतरन ध्यानपूर्वक सम्हालते हुए एक स्तर देखिये, आँखों में समा जाये तो, नीचे उतरिये, दूसरा स्तर देखिये, फिर एक बार नीचे सीढ़ियों की उतरन, और सबसे गहरा तीसरा स्तर, जल का प्रवाह नीचे की ढलान में प्रवाहित होते हुए देखिए। सबसे नीचे इस मनोहरी तथा रमणीय नीलजलप्रपात का एकत्रित जल एक छोटेसे तालाब में समाहित होता है| तालाब के चारों ओर सदाहरित वनसम्पदा सदैव साथ में ही होती है! मित्रों, अब अगला कार्य कठिन ही समझिये, क्योंकि अब सीढ़ियां जो चढ़नी हैं! केवल निर्झर का ही नहीं बल्कि, उसे अनायास बाहुपाश में लेनेवाली नित्यहरित हरियाली का भी मनभावन दर्शन करते चलिए! खिलखिलाता हुआ यह झरना और उससे सटी, साथ देती हुई गहन हरीभरी पर्वतश्रृंखला! यह नेत्रदीपक और ‘पिक्चर परफेक्ट’ दृश्य नेत्रों और कैमरा में कैद कर लीजिये! ऐसा अभूतपूर्व दृश्य देखने के लिए शिलॉन्ग में पर्यटकों की भीड़ बड़ी संख्या में इकठ्ठी हो जाती है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है!

डॉन बॉस्को संग्रहालय (Don Bosco Museum)

यह संग्रहालय शिलॉन्ग शहर के मध्यबिंदू से ५ किलोमीटर अंतर पर सेक्रेड हार्ट चर्च के विस्तृत परिसर में स्थित है| कलासक्त, इतिहास प्रेमी, नावीन्य की नयी मार्गिका खोजने वाले, मेघालय की संस्कृति के बारे में जानने के लिए उत्सुक, इन सभी प्रकार के युवा और वृद्ध पर्यटकों का इस भवन में प्रेम से स्वागत किया जाता है। प्रारम्भ में ही एक पथदर्शक हमें इस संग्रहालय में ७ मंजिलों में स्थित विविध बड़े कमरों (दर्शक दीर्घाओं) के बारे में संक्षिप्त जानकारी देता हैं| परन्तु बाहर खड़े होकर इस भव्य-दिव्य संग्रहालय की रत्ती भर भी कल्पना नहीं की जा सकती| इस विशाल ७ मंजली इमारत में सत्रह अलग-अलग सुरम्य दर्शक दीर्घाएँ हैं! इसमें क्या नहीं है यह पूछिए! कला भवन (आर्ट गॅलरी), हस्तकला, कलावस्तू, पोशाक, गहने और ईशान्य भारत के विविध जनजातियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों का एक विस्तृत संग्रह यहां भर भर कर रखा गया है। संपूर्ण ईशान्य भारत के विहंगम दृश्यों की एकत्रित रम्य दर्शिका एक ही स्थान पर साध कर रखी है इस दर्शनीय संग्रहालय में!

यहाँ इतना कुछ देखने लायक है, कि पर्यटकों का संपूर्ण संतुष्ट होना काफी मुश्किल है! यह सब देखने के लिए एक पूरा दिन भी कम ही होगा! कितना कुछ नजरों में समाहित करें और फोटो भी कितने खींचें! “कुछ तो बाकी रह गया”, हमारी ऐसी अवस्था प्रत्येक मंजिल पर हो जाती है| इसीलिये अगर समय की कमी है तो, आप ब्रोशर को ध्यान से देखकर अपनी पसंद की मंजिलों का चयन कीजिये और जब तक संतुष्ट न हों तब तक उन्हें शांति से देखें। मैंने अपनी पसन्दानुरूप ‘आर्ट गॅलरी’ में मनमाफिक आनंदपूर्वक समय बिताया! इस इमारत का सबसे रोमांचक बिंदु निश्चित रूप से ७ वीं (शीर्ष/ऊपर वाली) मंजिल है “स्काय वॉक”| हम जब वहां पहुँचे तब थोड़े समय पहले बारिश आ चुकी थी, इसलिए मार्ग थोडासा फिसलन भरा था, यहाँ गोल गुम्बद के चारों ओर घूमकर शिलॉन्ग का मनमोहक नज़ारा देखना एक चरम मनोज्ञ अनुभव है। क्या देखना है, उस खास बिंदु पर लिखा है ही, अलावा इसके फोटो खींचना तो अनिवार्य है ही, परन्तु प्रिय मित्रों, सेल्फी लेते वक्त सावधानी बरतें! चौथी मंज़िल पर एक बढ़िया कॅफे है! उसीके बगल में ईशान्य भारत का ख़ूबसूरत दर्शन कराने वाली फिल्म एक छोटेसे सिनेमाघर में अवश्य ही देखना चाहिए। संक्षेप में बताऊँ तो यह भव्य दिव्य संग्रहालय ईशान्य भारत की सांस्कृतिक सम्पन्नता को दर्शाने वाली एक रेखात्मक चित्र-गैलरी ही समझ लीजिये!

कॅथेड्रल ऑफ मेरी हेल्प ऑफ ख्रिश्चनस

शिलॉन्ग में स्थित यह चर्च कॅथोलिक आर्कडिओसीस का कॅथेड्रल और शिलाँग के मेट्रोपॉलिटन आर्चबिशप के आसन के रूप में प्रसिद्ध है| शहर के मध्य बिंदु से केवल २ किलोमीटर दूर यह चर्च पर्यटकों की बहुत ही पसंदीदा जगह है| लगभग ५० वर्ष पूर्व निर्मित यह कॅथेड्रल शिलॉन्ग आर्कडिओसेस के साढे तीन लाख से भी अधिक कॅथलिक लोगों का मुख्य प्रार्थनास्थल है| उसमें पूर्व खासी हिल्स और री-भोई जिलों का भी समावेश है (कुल ३५ चर्च)| यह चर्च Laitumkhrah इस भाग में है| इस चर्च का नाम येशू के Mary the mother के नाम के पर दिया गया है| मदर मेरी के पुतले सहित यह शुभ्र धवल  संगमरमर की इमारत अति भव्य और शोभायमान दिखती है| इस चर्च की खासियत है ऊँची कमानें (मेहराब) और बेहतरीन रंगों से सुशोभित कांच की खिड़कियां! कॅथेड्रल के अंदर क्रॉस की कुछ सुंदर टेराकोटा स्टेशन्स हैं, जो येशू के जीवन की घटनाएं दर्शाती हैं| इस भाग में प्रमुख रूप से येशू ख्रिस्त की यातनाएं और मृत्यूविषयक चित्रों के दर्शन होते हैं| ये चित्र जर्मनी की एक कला संस्था ने तैयार किये हैं| साथ ही यहाँ पवित्र शास्त्र और संतों के जीवन के दृश्य चित्रित किये गए हैं| फ्रान्स में १९४७ साल में तैयार किये गए शीशे के अप्रतिम रंगीन दरवाजे इस चर्च की एक और विशेषता है! मुख्य वेदी के सामने बाँयी ओर शिलॉन्ग के पहले मुख्य बिशप ह्युबर्ट डी’रोसारियो की कब्र है| कब्र के आगे और मेरी तथा बाल येशू के पुतले के सामने एक और वेदी है| यहाँ के पवित्र वातावरण में कुछ समय शांति से बैठने का मन जरूर करता है! यहाँ हर महीने में नौ दिन विशेष भक्ति की जाती है| ऊँची पहाड़ी पर स्थित और वहीं उकेरा गया है ग्रोटो चर्च, जो कॅथेड्रल के ठीक नीचे स्थित है, हम इस ग्रोटो चर्च को भी भेंट दे सकते हैं|

वॉर्ड्’स लेक (Ward’s Lake)

यह सुंदर मानवनिर्मित तालाब शहर के मध्यभाग में राजभवन के निकट स्थित है| आसपास रम्य उपवन होने के कारण इस तालाब का परिसर सदैव छोटे बड़े लोगों से भरपूर भरा होता है| यहाँ का एक आकर्षण है, स्वचलित विभिन्न आकारों की नौकायन नौकाएँ। पैरों की मदद लेकर आराम से नियंत्रित की जाने वाली इन नौकाओं में सुख चैन से विहार कीजिये, साथ ही हरीभरी वृक्षलताओं का दर्शन करते करते नौकायन करते रहिये| तालाब के ऊपर इस पार्क तथा बोटॅनिकल गार्डन को जोड़ने वाला पुल है, इसके नीचे से नौका आगे ले जाएँ| इस तालाब में बगुलों की श्वेत पंक्तियाँ तैरती रहती हैं| नौका के निकट आते ही वें बिखर जाती हैं| सूरज के ढ़लते ही नौकायन बंद होता है, उसके बाद ही उनका संपूर्ण तालाब में स्वच्छंद विहार आरम्भ होता है! कुल मिलाकर यहीं सच है कि, कोई भी जानवर या पक्षी इंसानों पर भरोसा नहीं करता! नौकायन का आनंद उपभोगने के बाद इस तालाब के चारों ओर फैले उपवन की पगडंडियों पर बढ़िया चहलकदमी या सिर्फ रिलैक्स करने का भी मज़ा उठाइये। प्राकृतिक परिवेश और अत्यधिक साफ-सफाई इस पार्क को अवश्य ही देखने लायक बनाती है!

थंगराज गार्डन

यह विशाल उपवन भी बहुत सुरम्य है| विविध प्रकार के पेड़पौधों और फूलों की क्यारियों से फूला, प्राकृतिक सौंदर्य से अभीभूत या स्थान सचमुच ही देखने लायक है| अंदर प्रवेश करते ही क्या देखना चाहिए, इसका मार्गदर्शक बोर्ड नजर आता है| गार्डन में टहलते हुए आप देखेंगे कि, विशिष्ट स्थान पर स्थित वृक्षलताओं की जानकारी देने वाले बोर्ड हर जगह दिखाई देते हैं। उपवन को घेरा डालने वाली पगडंडियां और उनका बाड़(compound), नीचे नजर डालेंगे तो शिलॉन्ग का विहंगम नजारा देखते ही बनता है| सीढ़ियां चढ़नेपर विविध रंगों की वृक्षराजी दृष्टिगत होती है| यहाँ फोटो खींचने लायक बहुतसी सिनेमास्कोप जगहें हैं, साथ ही अंदर शीशे के घर में एक सुंदर नर्सरी (ग्रीनहाऊस) है!

प्रिय मित्रों, हमने आराम से चहलकदमी करते हुए शिलाँग का अद्भुत सफर किया| अभी भी ‘मुझे कुछ कहना है’| वह हम अगले अर्थात अन्तिम भाग में जानेंगे| फ़िलहाल कलम को विराम देती हूँ!

खुबलेई! (khublei) (यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

टिप्पणी – 

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)

Shillong city |Capital of Meghalaya | Informative Video

 

PYNNEH LA RITI || by kheinkor composed by apkyrmenskhem

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मनोवेधक मेघालय…भाग – ९ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

☆ मनोवेधक  मेघालय…भाग – ९ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय वाचकांनो,

आपल्याला दर वेळी प्रमाणे आजही लवून कुमनो! (मेघालयच्या खास खासी भाषेत नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)

मंडळी, मागील वेळेस आपण शिलॉन्गची सफर करायला सुरुवात केली. आता शिलॉन्गमधील अजून कांही नयनरम्य स्थळांना भेट देऊ या. चला तर मग भरपूर चालायची तयारी करून! 

एलिफेंट धबधबा (Elephant falls)

शिलॉन्गच्या उत्तर भागातील एक अन्य सर्वांगसुंदर असे ठिकाण म्हणजे पर्यटकांनी बघितलेच पाहिजे असे एलिफेंट धबधबा (एलिफेंट फॉल्स)! या जलप्रपाताला खेटून हत्तीच्या आकारासारखा एक विस्तीर्ण खडक होता, म्हणून ब्रिटिशांनी याचे नांव एलिफेंट फॉल्स असे ठेवले. मात्र आता या निर्झराजवळील तो कुंजरासम भलामोठा खडक नाही, कारण तो १८९७ मधील भूकंपात नष्ट झाला. मात्र या निर्झराचे बारसे ज्या नांवाने झालय तेच नांव आजही प्रचलित आहे! शहराच्या मध्यापासून ११ किलोमीटर अंतरावर असलेला हा त्रिस्तरीय धबधबा (हा धबधबा तीन टप्प्यांमध्ये पडतो) बघायला वर्षाऋतूत जावे, फेसाळणाऱ्या शत शत दुग्ध धारांच्या लयबद्ध सप्तसुरांनी अवघा परिसर निनादून टाकणाऱ्या या निर्झराचे प्राकृतिक रमणीय दर्शन अतिशय मोहून टाकणारे. एकदा बघितल्यावर दृष्टी खिळवून टाकणारे. पावसाळ्यात जात असाल तर पायऱ्यांची उतरण काळजीपूर्वक सांभाळून एक स्तर बघा, डोळ्यात साठवा, खाली उतरा, दुसरा स्तर बघा, परत खाली पायऱ्यांची उतरंड अन सर्वात खोल असा तिसरा स्तर पाण्याच्या प्रवाहात प्रवाहित होतांना बघा. सर्वात खाली या मनोहरी अन रमणीय नीलजलप्रपाताचे एकत्रित जल एका छोट्याशा तलावात साठते. तलावाभोवती हिरवी वनराई सतत सोबत असतेच! मित्रांनो, पुढचे कार्य त्रासदायक, कारण आता पायऱ्या चढायच्या आहेत! केवळ निर्झराचं दर्शन नव्हे तर त्याला अनायास कवेत घेणाऱ्या सदाहरित हिरवाईचे बाहुपाश आहेतच! खळाळणारा हा जलप्रपात अन त्याला लगटून सोबतीला हिरवेगार डोंगर! हे नेत्रदीपक अन ‘पिक्चर परफेक्ट’ दृश्य नेत्रात अन कॅमेऱ्यात कैद करून ठेवा! असे हे अभूतपूर्व दृश्य बघण्यासाठी शिलॉन्गमध्ये पर्यटक मोठ्या संख्येने गर्दी करतात यात नवल ते काय!

डॉन बॉस्को संग्रहालय (Don Bosco Museum)

हे संग्रहालय शिलॉन्ग शहराच्या मध्यबिंदू पासून ५ किलोमीटर अंतरावर सेक्रेड हार्ट चर्चच्या आवारात आहे. कलासक्त, इतिहास प्रेमी, नाविन्याची वाट चोखाळणाऱ्या, मेघालयच्या संस्कृतीविषयी जाणून घेण्यास उत्सुक असणाऱ्या अशा सर्व प्रकारच्या आबालवृद्ध पर्यटकांचे या वास्तूत प्रेमाने स्वागत होते. आरंभीच एक पथदर्शक आपल्याला या संग्रहालयाच्या ७ मजल्यात स्थित विविध दालनांची थोडक्यात माहिती देतो. मात्र बाहेर उभे राहून या भव्य-दिव्य संग्रहालयाची पुसटशी कल्पना देखील येत नाही. या विशाल ७ मजली इमारतीत सतरा वेगवेगळ्या नयनरम्य गॅलरी आहेत! त्यांत काय नाही ते विचारा! कलाभवन (आर्ट गॅलरी), हस्तकला, कलावस्तू, पोशाख, दागिने आणि ईशान्य भारतातील विविध जमातींनी वापरलेली शस्त्रे यांचा विस्तृत संग्रह इथे खच्चून भरलेला आहे. संपूर्ण ईशान्य भारताच्या विहंगम दृश्यांची पर्वणी एकाच ठिकाणी साधून देणारे दर्शनीय असे हे संग्रहालय!

इथे इतके काही बघण्यासारखे असल्याने पर्यटकांचे संपूर्ण समाधान होणे जरा कठीणच! हे सर्व बघण्याकरता एक दिवस देखील कमी पडणार! किती म्हणून नजरेत साठवावे अन फोटो तरी किती काढावेत! “काही बघायचे राहून गेले”, अशी प्रत्येक मजल्यावर आपली अवस्था होते. म्हणूनच आपल्याकडे वेळ कमी असल्यास, पत्रकात बघून आपल्याला आवडतील ते मजले चोखंदळपणे निवडावेत अन ते समाधान होईपर्यंत शांतपणे बघावेत. मी माझ्या आवडीनुसार आर्ट गॅलरीत मनसोक्त रमले! या इमारतीचा सर्वात उत्कंठावर्धक बिंदू अर्थात सर्वात वरचा मजला, “स्काय वॉक”. आम्ही गेलो तेव्हा नुकताच पाऊस पडल्याने मार्ग जरा निसरडा होता, गोल घुमटाभोवती फिरत शिलॉन्गचे मनमोहक दर्शन घ्यायचे, इथे हा चरम मनोज्ञ अनुभव घ्यायलाच हवा, काय बघायचे ते त्या त्या पॉईंट वर लिहिले आहेच, शिवाय फोटो काढणे आलेच, पण सेल्फी काढतांना जपून बरं का मंडळी! चौथ्या मजल्यावर एक छानसे कॅफे आहे! याच्याच बाजूला ईशान्य भारताचं बहारदार दर्शन घडवणारी चित्रफीत एका छोट्या चित्रपट थिएटर मध्ये दाखवल्या जाते, ती आवर्जून बघावी अशीच आहे. थोडक्यात सांगायचे झाले तर, हे भव्य दिव्य संग्रहालय ईशान्य भारताची सांस्कृतिक संपन्नता सांगणारे रेखीव चित्र-दालनच समजा ना!              

कॅथेड्रल ऑफ मेरी हेल्प ऑफ ख्रिश्चनस

शिलॉन्ग येथील हे चर्च कॅथोलिक आर्कडिओसीसचे कॅथेड्रल चर्च आणि शिलॉन्गच्या मेट्रोपॉलिटन आर्चबिशपचे आसन म्हणून प्रसिद्ध आहे. शहराच्या मध्यबिंदू पासून केवळ २ किलोमीटर दूर असलेलं हे चर्च पर्यटकांचे अत्यंत आवडते ठिकाण आहे. सुमारे ५० वर्षांपूर्वी हे बांधलेले कॅथेड्रल शिलॉन्ग आर्कडिओसेसच्या साडेतीन लाखांहून अधिक कॅथलिक लोकांचे मुख्य प्रार्थनास्थळ आहे. त्यात पूर्व खासी हिल्स आणि री-भोई जिल्ह्यांचा समावेश आहे (एकंदर ३५ चर्च). हे चर्च Laitumkhrah या भागात आहे. या चर्चचे नांव येशूच्या Mary the mother यांच्यावरून दिलेले आहे, मदर मेरीच्या पुतळ्यासह ही पांढरी शुभ्र संगमरवरी इमारत अति भव्य आणि शोभिवंत दिसते. या चर्चची खासियत म्हणजे उंच कमानी आणि सुंदर रंगांनी सुशोभित काचेच्या खिडक्या! कॅथेड्रलच्या आत, क्रॉसची काही सुंदर टेराकोटा स्टेशन्स आहेत, जी येशूच्या जीवनातील घटना दर्शवतात. या भागात प्रामुख्याने येशू ख्रिस्ताच्या यातना व मृत्यूविषयक चित्रांचे दर्शन होते, ही चित्रे जर्मनी येथील एका कला संस्थेने तयार केली आहेत. या सोबतच येथे पवित्र शास्त्र आणि संतांच्या जीवनातील दृश्ये चित्रित केली आहेत. फ्रान्स येथे १९४७ ला तयार केलेली अप्रतिम रंगीत तावदाने हे या चर्चचे आणखी एक वैशिष्ट्य! मुख्य वेदीसमोर डावीकडे शिलॉन्गचे पहिले मुख्य बिशप ह्युबर्ट डी’रोसारियो, यांची कबर आहे. कबरीच्या पुढे अन मेरी आणि बाल येशूच्या पुतळ्यासमोर आणखी एक वेदी आहे. येथील पवित्र वातावरणात कांही वेळ शांतपणे बसावेसे वाटते! इथे दर महिन्याला नऊ दिवस विशेष भक्ती केली जाते. एका टेकडीवर उंचावर असलेल्या, त्याच टेकडीवर कोरलेल्या आणि कॅथेड्रलच्या अगदी खाली स्थित असलेल्या ग्रोटो चर्चला देखील आपण भेट देऊ शकतो.

वॉर्ड्’स लेक (Ward’s Lake)

हा सुंदर मानवनिर्मित तलाव शहराच्या मध्यभागी राजभवनजवळच स्थित आहे. “अवती भवती रम्य उपवने” असल्याने या तलावाचा परिसर सदैव लहान मोठ्या माणसांनी फुललेला असतो. इथले एक आकर्षण म्हणजे स्वचलित वल्हवणाऱ्या विविध आकाराच्या नौका. पायांनी आरामात नियंत्रित करणाऱ्या या बोटीतून तलावात विहार करावा, सोबतच हिरव्यागार वृक्षवेली अन पुष्पवाटिकांचे दर्शन घेत घेत नौकानयन करावे. तलावाच्यावर  पार्क आणि बोटॅनिकल गार्डन यांना जोडणारा पूल आहे, त्याखालून नौका पुढे घ्यावी. या तलावात बगळ्यांची माळफुले तरंगत असतात, नौका जवळ आली की ती विखुरतात. सांजवेळी नौकानयन बंद झाल्यावरच संपूर्ण तलावात त्यांचा स्वच्छंद विहार सुरु होतो! एकंदरीत, माणसांवर कुणीही प्राणी अथवा पक्षी विश्वास ठेवत नाहीत हेच खरे! नौकानयनाचा आनंद लुटल्यावर येथील तलावाभोवती असलेल्या उपवनातील पायवाटांवर मस्त फेरफटका मारा किंवा नुसतेच रिलॅक्स करायला देखील मजा येईल. निसर्गरम्य वातावरण आणि कमालीची स्वच्छता, याकरता हा पार्क आवर्जून बघावा असाच आहे!

थंगराज गार्डन

हे विशाल उपवन पण फार नयनरम्य आहे. विविध वृक्षराजींनी अन फुलांच्या ताटव्यांनी बहरलेले हे निसर्ग शोभेने सजलेले ठिकाण खरोखरी बघण्यासारखे आहे. आत शिरताच काय बघावे याचे मार्गदर्शन करणारा फलक दिसतो. गार्डनमध्ये फिरतांना त्या त्या ठिकाणच्या वृक्षवेलींची माहिती देणारे फलक जागोजागी दिसतात. उपवनाला वेढा घालणाऱ्या पायवाटा अन त्यांचे कुंपण, खाली नजर टाकली की शिलॉन्गचे विहंगम रूप दिसते. पायऱ्या चढल्या की विविध रंगांची वृक्षराजी दृष्टीस पडते. इथे फोटो काढण्याकरता बरीच सिनेमास्कोप ठिकाणे आहेत, आत काचेच्या घरात एक सुंदर नर्सरी (ग्रीनहाऊस) आहे!

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PYNNEH LA RITI || by kheinkor composed by apkyrmenskhem

प्रिय मैत्रांनो, आपण शिलॉन्गची अद्भुत सफर अगदी रमतगमत केली. अजून कांही सांगायचे शिल्लक राहिले आहेच. ते आपण पुढील अर्थात अंतिम भागात जाणून घेऊ! आत्तापुरता विराम देते!

खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)

टीप-

*लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो (कांही अपवाद वगळून) व्यक्तिगत आहेत!

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से…  – गोपालदास और श्री कृष्ण ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  गोपालदास और श्री कृष्ण)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – गोपालदास और श्री कृष्ण ?

एक राहगीर सड़क पर चल रहा था। अभी दोपहर का समय था। धूप सिर पर थी। पर ठंडी के दिन थे तो चलने वाले राहगीर को कष्ट नहीं हो रहा था। सड़क भी अच्छी और नई बनी हुई थी। खास लोगों का आना -जाना न हो रहा था। एकाध गाड़ी कभी पास से गुज़र जाती अन्यथा सड़क सूनी ही थी। राहगीर को अपने गाँव पहुँचना था। वह भी गति बनाकर चल रहा था।

इतने में उसके पास आकर एक गाड़ी रुकी। गाड़ी चालक ने मधुर स्वर में राहगीर से गाड़ी में बैठने को कहा। वह बोला – आओ मित्र गाड़ी में बैठो । कहाँ जाना है? मैं उतार दूँगा वहाँ। उसके मुख पर मुस्कान थी।

राहगीर थोड़ा हक्का-बक्का रह गया। फिर संभलकर बोला – नहीं साहब, पूछने के लिए शुक्रिया। मैं थोड़ी देर में पहुँच जाऊँगा। पास ही है मेरा गाँव।

पर चालक अपनी ज़िद पर अड़ा रहा बोला

– अरे आ जाओ दोस्त, मैं द्वारिका तक जा रहा हूँ। बीच में तुम्हें जहाँ जाना हो उतार दूँगा। घबराओ नहीं यहाँ से पोरबंदर अभी पंद्रह किलोमीटर है। आओ बैठो।

उसने अब दरवाज़ा खोल दिया। राहगीर सिमटकर सीट पर बैठ गया। अब दोनों साथ बैठे तो गाड़ी चल पड़ी। राहगीर ने गाड़ी में बैठते ही साथ कहा “कृष्णा कृष्णा। “

चालक ने पूछा – तुम्हारा नाम क्या है मित्र?

– गोपालदास।

– कहाँ जा रहे हो ?

– पोरबंदर

– सुदामा के गाँव?

– जी हमारा पूरा कुनबा आज कई वर्षों से यहीं रहता आ रहा है।

– आप द्वारिका में रहते हैं?

– नहीं, कभी रहा करता था। सुना है अब पनडुब्बियों में बिठाकर हज़ारों वर्ष पुराना कृष्ण नगरी की समुंदर में सैर करने की व्यवस्था की जा रही है। बस वही सब देखने का उत्साह है।

– हाँ साहब सुना है कि समुंदर के नीचे स्वर्ण नगरी द्वारका मिली है।

– पोरबंदर अभी बीस – पच्चीस मिनिट में पहुँच जाएँगे। तुमने बैठते ही साथ कृष्णा का नाम क्यों लिया?

– वे हमारे आराध्य हैं साहब । हम सब उसी को पूजते हैं।

– पर वह तो चोर था, मक्खन चुराता था, गोपियों के मटके फोड़ता था। कालिया को उसने मारा था फिर अपने मामा कंस को भी मारा। साथ में महाभारत के भीषण युद्ध में भी रथ पर सवार सारी लड़ाई का खेल देखता रहा। उसके तो कई अवगुण थे।

– साहब गाड़ी रोको।

– क्यों ? क्या हुआ?

– हम अपने आराध्य के विरुद्ध एक शब्द नहीं सुन सकते। मुझे उतार दीजिए साहब। मैं उसी का मनन करते हुए घर पहुँच जाऊँगा।

– अरे क्षमा करो मित्र ! तुम्हें आहत करना मेरा उद्देश्य न था। मैं तो उसके अवगुणों के बारे में ही अधिक जानता हूँ।

– तो गलत जानते हो। राहगीर क्रोधित होकर बोला। – कृष्ण पालनहार हैं। संसार से बुराइयों को दूर करने के लिए ही उनका जन्म हुआ था। एक बार गीता पढ़ लो साहब सकारात्मक सोच पैदा हो जाएगी। फिर कृष्ण के अवगुण भूल जाओगे। आप गाड़ी वाले अधूरा ज्ञान रखते हैं। सच क्या है यह भी तो जानिए।

– वाह! हज़ारों साल बाद भी कृष्ण के प्रति तुम्हारी आस्था देखकर आनंद आया। क्षमा करो मित्र मैंने अनजाने में तुम्हें आहत किया।

अब उसने गाड़ी रास्ते के किनारे लगाई और बोला – लो बातों – बातों में तुम्हारा गाँव आ गया।

– धन्यवाद साहब। आपने अपना नाम नहीं बताया?

– मेरा नाम कृष्ण है।

राहगीर गाड़ी से उतरने लगा बोला – कृष्ण नाम है और तब भी कृष्ण के गुणों के बारे में नहीं जानते? आधुनिक दुनिया के पढ़े -लिखे लोग कृष्ण से कितने दूर हैं! गीता अवश्य पढ़िएगा।

गाड़ी से उतरकर दरवाज़ा बंद करने के लिए जब वह मुड़ा तो वहाँ कोई गाड़ी न थी। दूर दूर तक कोई दिखाई न दिया। न गाड़ी के पहियों के निशान थे। हाँ उस स्थान पर मोर का एक पंख अवश्य पड़ा था।

राहगीर गोपाल दास अपने घुटनों पर बैठ गया। मोर पंख को माथे से लगाकर फफक- -फफककर वह रोने लगा।

न जाने किस रूप में नारायण मिल जाएँ।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ३ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ३ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

बाली म्हणजे वेगवेगळे समुद्रकिनारे.

प्रत्येक समुद्रकिनाऱ्याचे वैशिष्ट्य आणि सौंदर्य वेगळे. एकच हिंदी महासागर पण त्याची अनंत रूपे.  बाली मधल्या वास्तव्यात या उदात्त सागरदर्शनाने आम्ही खरोखरच प्रसन्न तर झालोच पण एका अज्ञात गूढ शक्तीने अंतर्मनात कुठेतरी पार शुद्धी मिळाल्यासारखे वाटले. निसर्गाशी तद्रूप होणे म्हणजे काय हे अंशत: अनुभवले.

दक्षिण कुटा येथील बारुंग मधला पांडव बीच हा असाच एक दूरस्थ समुद्रकिनारा.  दोन उंच टेकड्यांनी वेढलेला. यापैकी एका टेकडीवर वरपासून खालपर्यंत कुंती, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव यांचे पुतळे कोरलेले आहेत. खाली पसरलेल्या अथांग समुद्राचे  आणि संथ किनाऱ्यावर फेसाळत येणाऱ्या लाटांचे निसर्ग चित्र केवळ अप्रतिम! हे थोडे अवघड पर्यटन स्थळ होते. निदान आमच्या वयाचा विचार करता.  त्यामुळे आपण येथे तरुण असताना का आलो नाही हा प्रश्न घेऊनच आम्ही परतलो. 

बाली म्हणजे सागर तसेच बाली म्हणजे मंदिरे.  हिंदू देवदेवतांची अनेक मंदिरे येथे आहेत. बालीनीज तसे धार्मिक, श्रद्धाळु.

रस्त्यातून जाताना लाल कौलांची सुरेख बैठी घरं पाह्यला मिळायची.  प्रत्येक घरासमोर तुळशी वृंदावन सदृश बांधकाम दिसायचं आणि खजुराच्या पानांच्या टोपलीत  ठेवलेल्या तृणपात्या, चाफ्याची, जास्वंदीची फुले, पाने वाहिलेली असत.  अगदी प्रत्येक टॅक्सी मध्ये सुद्धा डॅशबोर्डवर अशा प्रकारचं पूजन केलेलं असायचं. त्याला ते अर्पण म्हणजेच त्यांच्या भाषेत कनांगसाडी असे म्हणतात.  शिवाय अनेक ठिकाणी झाडांवर इतरत्र कृष्णधवल  चौकडे असलेले कापडही गुंडाळलेले दिसले. तोही एक  भक्तीचाच प्रकार आहे.  अशा प्रकारच्या पताका, रुमाल अथवा वस्त्रं  ईशान्य भारताच्या भागातही आढळतात. एकप्रकारे,”देवा! तुझ्या कृपेची उब मला सदैव मिळो“ अशी विनवणी त्याद्वारे केली जात असावी. एकंदरच  इंडोनेशियन आणि भारतीय संस्कृतीतले साम्य बऱ्याच बाबतीत दिसून येते.

एका मंदिराला भेट देण्याचे आम्ही ठरवले.  तसे ते उंच पर्वतावरच होते.  मात्र आमचा टॅक्सीवाला आणि तेथील काउंटर वरचे लोक म्हणाले,” फारसे कठीण नाही. थोड्या पायऱ्या आहेत आणि दहा-पंधरा मिनिटांची चाल आहे.” म्हणून आम्ही या स्थळाला भेट देण्याचे ठरवले. प्रत्येकी २५ हजार आयडीर भरून तिकीटेही काढली आणि मंदिराच्या दिशेने कूच केले.  बरेचसे चढ-उतार, पायऱ्या चढत, उतरत चालत राहिलो.  वाटलं तितकं सोपं नव्हतं पण आता इतके आलोच आहोत तर अजून थोडे पुढे जाऊया करत चालत राहिलो, चढत राहिलो.  सभोवताली गर्द झाडी आणि वरून दिसणारा  सागर मनभावन, लुभावणारा होता. पण झाडांवरच्या माकडांनी मात्र उच्छाद मांडला होता. कुणाचा चष्मा पळव, कुणाची पर्स, मोबाईल, चप्पल, टोपी. माकडचेष्टा या शब्दाचा खरा अर्थ अनुभवत होतो. आम्ही अगदी सावधानतेने आपापल्या वस्तू घट्ट सांभाळत चाललो होतो तरी सतीश ची कॅप आणि साधनाची चप्पल माकडांनी पळवलीच. 

मंदिरापर्यंत पोहोचलो. कमरेवर बाली पद्धतीप्रमाणे निळ्या, भगव्या सिल्कचे काही लुंगी टाईप वस्र गुंडाळावे लागले होते.  मात्र इतके चढून आल्यानंतर कळले की मंदिराचे द्वार बंद आहे. बाहेरून मंदिराच्या आतला भाग दिसत होता.  उंच खांबावर एक राजदंड होता आणि त्याचे बाहेरूनच दर्शन घ्यायचे होते.  ते प्रतिकात्मक हनुमान मंदिर होते आणि सभोवतालची माकडे मंदिराचं खोडकर प्रतिनिधित्व करत होते!

निसर्गाचा नजारा मात्र अवर्णनीय होता आणि देव आम्हाला त्या दूर क्षितिजावर, विस्तीर्ण जलाशयात हलकेच मावळणाऱ्या सूर्याच्या रूपातच भेटला हे मात्र अगदी खरं.आम्ही मनोभावे त्या मावळणार्‍या भास्कराला वंदन केले.

प्रचंड थकलो होतो. कसेबसे पाय ओढत उतरलो आणि टॅक्सीत बसून बंगल्यावर  परतलो.

दरम्यान एका वाईट प्रसंगाचे  साक्षी व्हावे  लागले होते. मंदिरावरून खाली सेंटरवर परतलेल्या एका माणसाला तीव्र हृदयविकाराचा झटका आला. तो तिथेच  कोसळला. लोकांची धावपळ झाली. गर्दी जमली. मदतीचे अनेक हात पुढे आले. स्थानिक लोकांपैकी कुणी  ॲम्बुलन्स मागवली, डॉक्टर्सना फोन केले. घोळक्यात कुणी डाॅक्टर आहे म्हणून विचारले.त्या गृहस्थाच्या समवेत असलेल्यांची बावरलेली स्थिती केवीलवाणी होती. आम्ही मनातल्या मनात त्याच्या आयुष्यासाठी प्रार्थना केली आणि परतलो. मानवतेचं झालेलं ते दर्शन हृदयस्पर्शी नक्कीच होतं. पृथ्वीच्या पाठीवर कुठेही असा माणूस हा माणसासाठी धावतोच  हे चित्र मात्र दिलासा देणार होतं. आम्ही मात्र ऐंशी च्या उंबरठ्यावर ही घटना पाहून एकच ठरवलं” इथून पुढे फारशी धाडसं करायची नाहीत.  झेपेल तेवढं आणि पचनी पडेल तेवढंच करायचं. “ बालीचा अनुभव घ्यायचा, फक्त निसर्गातच रमायचं.

टॅक्सी सुरु झाली.  मन बेचैन होतं.

साधना सुरेख आवाजात गात होती,पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा….”

– क्रमश: भाग तिसरा 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१० ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१०  ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे सचमुच बहुत कुछ दिया है! मित्रों, हमने जो थोड़ा बहुत मेघालय देखा, उसकी महिमा पिछले नौ भागों में मैंने बखान की है, परन्तु हमारी यह यात्रा ११ दिनों की थी, इसलिए हम फिर मेघालय यात्रा करेंगे यह तो निश्चित है ही! मेघालय की  नयनाभिराम स्मृतियाँ संजोकर लिखा हुआ यह दसवाँ और आगे के भाग मैंने खास करके षोडश वर्षीय, नवयौवना के सामान यौवन से लहराते और महकते शिलॉन्ग यानि, इस मेघालय की राजधानी के लिए आरक्षित कर रखे थे| हमने मुंबई से आसामकी राजधानी गुवाहाटी का सफर हवाई जहाज से किया। उज्ज्वलने (मेरा जमाई) मेघालय के संपूर्ण प्रवास हेतु कॅब बुक की थी| हवाई अड्डेपर आसामका एक ड्राइवर अजय हमारे स्वागत के लिए हाज़िर था| उसके साथ हमने अगले ११ दिन अत्यंत आनंद से प्रवास किया| कभी घमासान बारिश का आक्रमण, कभी कोहरे का गहरा गलीचा, कभी तंग गलियारे, कभी घुमावदार मोड़, तो कभी हमारी देरी, इन सब को धैर्यपूर्वक सहते हुए अजय अविरत गाडी चला रहा था, यातायात के सभी नियमों का सख्ती से पालन करते हुए! वह बड़े ही प्रेमपूर्वक हमारे साथ संवाद कर रहा था और कहाँ क्या देखने लायक है, इस बारे में सूचना और मार्गदर्शन भी कर रहा था| किसी भी पर्यटन स्थल के निकट पहुँचते ही मुझे तो वह “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” यह प्यार भरी चेतावनी देता था। हम समूचे सफर में मधुर गीत (बंगाली या आसामी) सुनते गए| उन्हींमें से एक गाना था भूपेन हजारिका का बहुत ही मीठा तथा श्रवणीय ऐसा “ओ गंगा”! हम सबको वह बहुत ही भाया! हमारे पसंदीदा इस गाने का वीडियो आखरी में जोड़ा है| हमने गुवाहाटी से शिलॉन्ग को जाते जाते भूपेन हजारिका के सुंदर स्मारक को देखा|

शिलॉन्ग भारत के मेघालय राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है| इसके अलावा शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिले का प्रशासकीय केंद्र है| १९६९ तक यह शहर संयुक्त आसाम प्रांत की राजधानी था| १९७२ साल में मेघालय स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रस्थापित होने के बाद यहीं शहर मेघालय की राजधानी बना और आसाम की राजधानी गुवाहाटी के एक उपनगर दिसपूर में स्थानांतरित की गई| आज शिलॉन्ग मेघालय की आर्थिक, सांस्कृतिक तथा वाणिज्य राजधानी है| २०२४ में इस  शहर की लोकसंख्या है अंदाजन ५०८०००, यहीं लोकसंख्या २०११ में अंदाजन १४३००० इतनी थी| यहाँ के लगभग ४७ प्रतिशत निवासी ख्रिश्चन धर्मीय तथा ४२ प्रतिशत निवासी हिंदू हैं| यहाँ की अधिकृत भाषा अंग्रेजी है और खासी, जैंतिया तथा गारो इन स्थानिक भाषाओँ को राजकीय दर्जा दिया गया है|

खासी और जैंतिया हिल्स यह भूभाग पारंपारिक काल से खासी जनजाति के आधिपत्य में था| यहाँ की राजधानी सोहरा (चेरापुंजी) हुआ करती थी| परंतु सिल्हेट से आसाम तक रास्ता निर्माण करने हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी को यहाँ की जमीन की आवश्यकता महसूस हुई| इसके कारण युद्ध हुआ और ब्रिटिशों का पलड़ा भारी रहा| १८३३ साल में यह भूभाग ब्रिटिशों ने जीत लिया। परंतु चेरापुंजी यह स्थान सुविधाजनक न होने से ब्रिटिशों ने १८६० के दशक में शिलॉन्ग शहर की स्थापना की| १८७४ में ब्रिटिश सरकार ने नवनिर्वाचित आसाम प्रांत की स्थापना की तथा शिलॉन्ग आसाम की राजधानी का शहर बन गया| यहाँ के पहाड़ी प्रदेश व् सौम्य मौसम के कारण ब्रिटिशों को यह शहर पूर्व के स्कॉटलँड जैसा प्रकृतिसंपन्न और सुंदर लगता था| मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थल होने के बावजूद यहाँ मार्गिकाओं और रेल्वेमार्गों का विकास नहीं हो पाया, इसलिए शिलॉन्ग की प्रगति मंदगति से होती रही|

यहाँ आए ख्रिश्चन मिशनरियों ने इस भाग में ख्रिश्चन धर्म का प्रसार किया| साथ ही बच्चों की शिक्षा हेतु स्कूल शुरू किये| इस भाग को प्रकृति की अनमोल विरासत का वरदान है। ब्रिटीश उपनिवेशवाद की विरासत का संदेश देनेवाले घरों की रचना तथा कॅफे में बजाया जाने वाला संगीत यह इस शहर की अलग विशेषता है| यहाँ पर्यटन के दृष्टिकोण से हर जगह प्रकृति की सम्पन्नता दृष्टिगोचर होती है| यह प्रदेश सुन्दर तो है ही, साथ ही प्रदूषणमुक्त भी है| शिलॉन्ग पहाड़ी के उतरन पर बसा हुआ है| यहाँ के शिलॉन्ग व्यू पॉइंट से आप समूचा शहर देख सकते हैं| आसमान में फैला हुआ घना कोहरा और उसमें खोया हुआ  शिलॉन्ग शहर अलग ही अनुभूती देकर जाता है| (हम यह पॉईंट देख नहीं पाए, क्यों कि उस वक्त वह बंद किया गया था)

शिलॉन्ग हवाईअड्डा शहर से ३० किलोमीटर उत्तर में स्थित है| यहाँ से दिल्ली, कोलकाता, साथ ही ईशान्य के दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, अगरतला इत्यादि प्रमुख शहरों के लिए सीधी विमान यात्रा उपलब्ध है| राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्ग को गुवाहाटी और अन्य महत्वपूर्ण शहरों के साथ जोड़ता है | दुर्भाग्य से आज भी शिलॉन्ग भारतीय रेल के नक़्शे पर नहीं है| परन्तु भविष्य में गुवाहाटी से मेघालय रेलमार्ग का निर्माण होगा यह आशा की जा रही है| आज की तारीख में गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग से १०५ किलोमीटर दूर है|

           मित्रों, अब हम शिल्लोन्ग के(अर्थात हमने देखे हुए) सुन्दर स्थलों का सफर करेंगे!

उमियम सरोवर (Umiyam Lake)

शिलॉन्गकी ओर जाने वाले हमारे रास्ते पर एक अति लावण्यमय, जैसे किसी चित्रप्रतिमा को बड़े प्रयास और प्रेम से चित्रित किया हो, ऐसा उमियम सरोवर दिखाई दिया| मानवनिर्मित होकर भी उसका प्राकृतिक नैसर्गिक सरोवर समान भासमान होने वाला सौंदर्य बिलकुल अनायास ही सिनेमास्कोपिक और  फोटोजेनिक था! कहीं भी कैमरा फिक्स कीजिये और क्लिक करिये, उस चित्र की मोहिनी मन मोहने लगेगी ही! दीवाना बनाने वाले इस सरोवर को घेरा है, वृक्षलताओं की हरितिमा और विशाल पूर्व खासी पर्वत श्रृंखलाओंने! शिलॉन्ग के मध्यबिंदु से यह स्थल १६ किलोमीटर दूर है| उमियम नदीको पाट कर बनाया हुआ यह विशाल और विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी (आईने की तरह दमकता) सरोवर देखते ही हम उस पर लुब्ध हो बैठे! स्थानीय लोग इसे “बडापानी” कहते हैं| अगर आप सैरसपाटे के लिए गाँव से बाहर जाना चाहते हैं, तो यह जगह उसके लिए एकदम सही है! इसीलिये यहाँ पर्यटकों का कभी खत्म न होने वाला जमघट लगा रहता है, खास कर छुट्टियों के दिनों में! यहाँ का सूर्यास्त नयनाभिराम नारंगी, गुलाबी और लाल रंगों की आभा बिखेरते हुए रंगावली अंकित करने के पश्चात ही ही रात्रि के आगोश में विराम लेता है! बारिश के बाद के विहंगम इंद्रधनुषी रंग देखना है तो यहीं रुकिए, क्योंकि, ये सारे रंग इस सरोवर में अपना राजसी रुप निहारते रहते हैं!

हम यहाँ पहुंचे तो देखा कि हरित पन्नों की माला में जैसे नीलम गूंथा हो, वैसे ही सदाहरित वनश्री में यह सरोवर चमक रहा था| आकाश के बदलते रंग इस जलाशय के जल के रंगों को भी बदल रहे थे। कभी धवल, कभी नीलकांती, तो कभी मेघवर्णम शुभांगम! मैं तो इस परिसर में जैसे खो गई| मित्रों, आप भी यहाँ ऐसे ही खो जाएंगे! यहाँ का नौकानयन यानि इस जल की नीलिमा को निकट से देखने का स्वर्णिम अवसर ही समझिये, अर्थात यह अपरिहार्य ही है! नौकानयन करते हुए हमारी नौका (मोटरबोट) छोटे से शंकू के आकार के पन्नों जैसे प्रतीत होने वाले द्वीपों को घेरा डालते हुए विहार कर रही थी| हमारा भाग्य अच्छा था, क्योंकि, हमें ले जाने वाली नौका का ईंधन बीच में ही ख़त्म हो गया और उसके आने तक हम आसपास के सौंदर्य का आनंद लेते रहे, जैसे कोई बोनस मिला हो! वह आये ही नहीं यह आशा कर रहे थे, कि वह आ ही गया! इस सरोवर में वॉटर स्पोर्ट्स की सुविधा भी उपलब्ध है (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादि)| अर्थात इसके लिए आसमान और सरोवर का शांत और सौम्य रहना आवश्यक है! आप को अगर ऐसा कुछ भी नहीं करना है, तो मजे से चहलकदमी करें और बस इस खूबसूरत क्षेत्र को देखने का आनंद लें! अगर हो सके तो इस झील के पास किसी होटल में ठहरें और प्रकृति की सुंदरता का जी भर कर आनंद अनुभव करें|

मित्रों, अगले भाग में शिलाँग में और उसके आसपास चहल कदमी करेंगे! तब तक थोड़ा इन्तजार करना होगा!

आज की मुलाकात बस इतनी!

तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

  टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)

“ओ गंगा तुमी” अल्बम-“गंगोत्सव”

गायक और संगीतकार: भूपेन हजारिका

(इसी गाने का हिन्दी संस्करण भी यू ट्यूब पर उपलब्ध है|)

 

The Sounds of Meghalaya – #GOLDEN by MEBA OFILIA | Meghalaya Tourism Official

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

८ जून २०२२     

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मनोवेधक मेघालय…भाग – ८ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

☆ मनोवेधक  मेघालय…भाग – ८ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय वाचकांनो,

आपल्याला दर वेळी प्रमाणे आजही लवून कुमनो! (मेघालयच्या खास खासी भाषेत नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)

आपल्या प्रतिसादाने मला खरंच खूप काही दिलंय! मित्रांनो, आम्ही जे थोडके मेघालय बघितले त्याची महती मागील सात भागात गायली, मात्र आमचा प्रवास ११ दिवसांचा होता, त्यामुळे आम्ही परत मेघालय बघणार हे निश्चित आहेच! हा मेघालायच्या नयनरम्य आठवणी जपत लिहिलेला आठवा आणि पुढील भाग मी खास करून षोडश वर्षीय, नवयौवनेसम तारुण्याने सळसळत्या अशा शिलॉन्ग या मेघालयच्या राजधानी करता राखून ठेवले होते. आम्ही मुंबई ते आसामची राजधानी गुवाहाटी येथील प्रवास विमानाने केला. उज्ज्वलने (माझा जावई) मेघालयच्या संपूर्ण प्रवासासाठी कॅब बुक केली होती. विमानतळावर आसामचा एका ड्रायव्हर अजय आमच्या स्वागताला हजर होता. त्याच्या सोबत आम्ही नंतरचे १० दिवस अतिशय आनंदाने प्रवास केला. कधी धो धो पावसाचे आक्रमण, कधी धुक्याची रजई, कधी अरुंद गल्ल्या, कधी वेडीवाकडी घाटाची वळणे, तर कधी आमची दिरंगाई, हे सर्व अत्यंत धीराने सहन करत अजय अविरत गाडी चालवत होता, वाहतुकीचे सर्व नियम कडकपणे पाळीत! आमच्याशी प्रेमाने संवाद साधत कुठे काय बघण्यासाखे आहे, या बाबत तो सूचना आणि मार्गदर्शन देखील करीत होता. मला तर तो कुठलेही प्रेक्षणीय स्थळ आले की “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” अशी प्रेमळ ताकीदच द्यायचा. संपूर्ण प्रवासात आम्ही नादमधुर अशी गाणी (बंगाली आणि आसामी) ऐकत गेलो. त्यातीलच एक गाणे होते भूपेन हजारिका यांचे अत्यंत गोड आणि श्रवणीय असे “ओ गंगा”! आम्हा सर्वांना आवडलेल्या या गाण्याची ध्वनिफीत शेवटी दिलेली आहे. आम्ही गुवाहाटी ते शिलॉन्गला जाता जाता भूपेन हजारिका यांचे सुंदर स्मारक बघितले. 

 शिलॉन्ग ही भारताच्या मेघालय राज्याची राजधानी आणि तेथील सर्वात मोठे शहर आहे. याशिवाय शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिल्ह्याचे प्रशासकीय केंद्र आहे. १९६९ पर्यंत हे शहर संयुक्त आसाम प्रांताची राजधानी होते. १९७२ साली मेघालय हे स्वतंत्र राज्य म्हणून प्रस्थापित झाल्यावर हेच शहर मेघालयच्या राजधानीचे शहर बनले व आसामची राजधानी गुवाहाटीमधील एक उपनगर दिसपूर येथे हलवण्यात आली. आज शिलॉन्ग मेघालयची आर्थिक, सांस्कृतिक व वाणिज्य राजधानी आहे. २०२४ मध्ये या शहराची लोकसंख्या आहे सुमारे ५०८०००. हीच लोकसंख्या २०११ साली सुमारे १४३००० इतकी होती. येथील सुमारे ४७ टक्के रहिवासी ख्रिश्चन धर्मीय तर ४२ टक्के लोक हिंदू आहेत. इंग्लिश ही येथील अधिकृत भाषा असून खासी, जैंतिया व गारो ह्या स्थानिक भाषांना राजकीय दर्जा देण्यात आला आहे. खासी व जैंतिया हिल्स हा भूभाग पारंपारिक काळापासून चेरापुंजी येथे राजधानी असलेल्या खासी जमातीच्या अखत्यारीखाली होता, परंतु सिल्हेट ते आसाम दरम्यान रस्ता बांधण्यासाठी ईस्ट इंडिया कंपनीला येथील जमिनीची आवश्यकता भासू लागली. ह्यावरून झालेल्या युद्धात ब्रिटिशांची सरशी झाली व १८३३ साली हा भूभाग ब्रिटिशांनी जिंकला. परंतु चेरापुंजी हे ठिकाण सोयीचे नसल्यामुळे ब्रिटिशांनी १८६० च्या दशकात शिलॉन्ग शहराची स्थापना केली. १८७४ मध्ये ब्रिटिश राजवटीने नवनिर्वाचित आसाम प्रांताची स्थापना केली व शिलॉन्ग आसामची राजधानीचे शहर बनले.

या भागाला निसर्गाचा बहुमोल वारसा लाभलेला आहे. येथील डोंगराळ भाग व सौम्य हवामानामुळे ब्रिटीशांना हे शहर पूर्वेकडील स्कॉटलँडसारखे निसर्गसंपन्न आणि सुंदर वाटायचे. मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थळ असून देखील येथे रस्ते व रेल्वेमार्गांचा विकास होऊ शकला नाही, म्हणून शिलॉन्गची प्रगती संथ गतीने होत राहिली. १८ व्या शतकामध्ये येथे आलेल्या ख्रिश्चन मिशनऱ्यांनी या भागात ख्रिश्चन धर्माचा प्रसार केला व मुलांच्या शिक्षणासाठी शाळा सुरू केल्या. ब्रिटीश वसाहतवादाचा वारसा सांगणारी घरांची रचना, हॉटेल व कॅफे मध्ये वाजवले जाणारे संगीत ही या शहराची वेगळी वैशिष्टये आहेत. पर्यटनाच्या दृष्टीने ठायी ठायी निसर्गाची लयलूट असलेला अत्यंत संपन्न असा हा प्रदूषणमुक्त प्रदेश आहे. शिलॉन्ग हे डोंगर उतारावर वसलेले आहे. येथील शिलॉन्ग व्यू पॉइंट वरून आपण संपूर्ण शिलॉन्ग शहर पाहू शकतो. आकाशात पसरलेले प्रचंड धुके आणि त्या धुक्यात हरवलेले शिलॉन्ग हे शहर वेगळीच अनुभूती देऊन जाते. (आम्ही हा पॉईंट बघू शकलो नाही कारण तेव्हां तो बंद करण्यात आला होता) 

शिलॉन्ग विमानतळ शहराच्या ३० किलोमीटर उत्तरेस स्थित आहे. येथून दिल्ली, कोलकाता तसेच ईशान्येकडील दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, आगरताळा इत्यादी प्रमुख शहरांसाठी थेट विमानसेवा उपलब्ध आहे. राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्गला गुवाहाटी तसेच इतर महत्वाच्या शहरांसोबत जोडतो. दुर्दैवाने आजही शिलॉन्ग भारतीय रेल्वेच्या नकाशावर नाही. मात्र भविष्यात गुवाहाटी ते मेघालय रेल्वेमार्ग बांधला जाईल अशी आशा आहे. आजच्या घडीला गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग पासून १०५ किलोमीटर दूर आहे. 

मित्रांनो, आता आपण शिल्लोन्ग येथील (अर्थातच आम्ही बघितलेली) प्रेक्षणीय स्थळे बघू या!

उमियम सरोवर (Umiam lake)

आम्ही शिलॉन्गच्या वाटेवर असतांना एक अतीव लावण्यमय, जणू काही चित्रप्रतिमेप्रमाणे निगुतीने घडवलेले असे उमियम सरोवर बघितले. मानवनिर्मित असूनही त्याचे नैसर्गिक सरोवरासारखेच भासमान होणारे सौंदर्य अगदी विनासायास सिनेमास्कोपिक अन फोटोजेनिक असे! कुठंही कॅमेरा फिक्स करा अन क्लिक करा, त्या चित्राची मोहिनी मन मोहणारच! या वेड लावणाऱ्या सरोवराला वेढलंय हिरव्यागार वनश्री अन विशाल पूर्व खासी पर्वतशृंखलांनी! शिलॉन्गच्या मध्यबिंदू पासून हे स्थळ १६ किलोमीटर अंतरावर आहे. उमियम नदीला बांध घालून हे विशाल आणि विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी सरोवर बघताच आम्ही त्यावर लुब्ध झालो. स्थानिक लोक याला “बडापानी” म्हणतात. सहलीसाठी गावाबाहेर जायचंय ना, मग त्यासाठी हे ठिकाण एकदम सही! म्हणूनच इथे पर्यटकांची धो धो गर्दी असते, खास करून सुट्टीच्या दिवशी! इथला सूर्यास्त नयनाभिराम नारिंगी, गुलाबी अन लाल रंगांची उधळण करीत रंगावली रेखितच रात्रीच्या कुशीत विराम पावतो! पावसानंतरचे विहंगम इंद्रधनुषी रंग बघावे ते इथेच, कारण हे सर्व रंग या सरोवरात स्वतःचे राजस रुपडे न्याहाळत असतात!

 

आम्ही जेव्हा इथे पोचलो तेव्हा बघितले की, हिरव्याकंच पाचूंच्या माळेत नीलम गुंफला जावा तसे हिरव्यागार वनश्रीत हे सरोवर चमकत होते. आकाशाचे बदलते रंग या जलाशयाच्या जलाचे रंग देखील बदलत होते. कधी धवल, कधी नीलकांती, तर कधी मेघवर्णम शुभांगम! हरखून गेले मी या परिसरात. मित्रांनो, तुम्ही सुद्धा असेच हरवून जाल इथे! इथले नौकानयन म्हणजे या जलाच्या निळाईचे सौंदर्य जवळून पाहण्याची सुवर्णसंधी, अर्थातच हे अपरिहार्य! नौकानयन करतांना आमची नौका(मोटरबोट) इवलाल्या शंकूच्या आकाराच्या पाचूंच्या बेटांना वेढा घालीत विहार करीत होती. आमचे नशीब जोरावर होते, कारण आम्हाला नेणाऱ्या नौकेचे इंधन मधेच संपले आणि ते येईपर्यंत बोनस मिळावा तसे आम्ही भोवतालचे सृष्टी सौंदर्य न्याहाळीत बसलो. ते येऊ नये असे वाटत असतांनाच आले! या सरोवरात वॉटर स्पोर्ट्सची सुविधा देखील आहे (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादी). अर्थात यासाठी आभाळ व सरोवर शांत अन सौम्य असणे आवश्यक! आपल्याला यापैकी काहीच करायचे नसेल तर मजेत फेरफटका मारत या रम्य परिसराचं नुसतंच आनंददायी निरीक्षण करीत राहा! आपणास शक्य असल्यास या सरोवराजवळील हॉटेलमध्येच मुक्काम करा, अन निसर्ग शोभेचा मनसोक्त अनुभव घ्या.

पुढील भागात शिलॉन्गमध्ये आणि त्याच्या आसपास फेरफटका मारू या!

तोवर जरा दम धरा मंडळी! आत्तापुरते आवरते!

खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)

टीप – *लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो व्यक्तिगत आहेत

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – २ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – २ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

२९/११/२३

तसं पाहिलं तर आम्ही सारेच ८० च्या उंबरठ्यावरचे. आयुष्यात या आधीही आम्ही अनेक प्रवास केले होते, अनेक पर्यटन स्थळांना धावून धावून, अत्यंत उत्सुकतेने, जग पाहण्याच्या दृष्टीने भेटी दिल्या होत्या.  पण कालचा सूर्यास्त पाहताना जाणवत होती ती आमच्या आयुष्यातील संध्याकाळ. 

या सहलीला येण्याचा एकच हेतू होता निवांतपणा  अनुभवावा. पृथ्वीवरच्या एका वेगळ्याच परिसराचा, तिथल्या निसर्गाचा, मानवी जीवनाचा, आनंददायी, निराळा अनुभव घ्यायचा होता आम्हाला.  मनातली हिरवळ जपत, वयाला न नाकारता निसर्ग आणि निराळ्या संस्कृतीत वावरण्याचा एक मजेदार अनुभव घेत स्वतःला रिफ्रेश्ड, तजेलदार करायचे होते. आज भी हम जवान है असे निदान एकमेकांना बजावायचं होतं.  आलेल्या अनेक पर्यटकांमध्ये ९०% माणसं तरुण वर्गातली असली तरी दहा टक्के आमच्यासारखेच तरुण तुर्क म्हातारे अर्क होतेच की! आणि ही सारी तरुण माणसं आमच्याबरोबर कौतुकाने सेल्फी काढत होते, म्हणत होते,” आमचंही म्हातारपण असच तुमच्यासारखं टवटवीत असावं”

तेव्हा या टवटवीत सहा जणांचा आजचा  पहिला स्थलदर्शनाचा दिवस.

सकाळीच मस्त complimentary नाश्ता घेतला. बालिअन पद्धतीचा नाश्ता होता.  वेगळ्या चवीची पुडिंग्ज, खीर, काही भाज्या, सॅलड्स, ब्रेड, भात, फळे,, फळांचा रस वगैरे भरपूर होते. नाश्ता छान आरोग्यदायी आणि चविष्ट होतात आम्हाला फिरायला घेऊन जाण्यासाठी दारातच टॅक्सी उभी होती.  जवळजवळ दिवसभराची आठ तासांची दूर होती.  खर्च रुपये तेरा लाख  इंडोनेशियन रुपीज.  प्रत्येक वेळी या लाखांची गोष्ट अनुभवत होतो आम्ही.  पण हे इंडियन नसून इंडोनेशियन रुपीज आहेत या विचाराने भानावरही येत होतो.

आमचा पहिला थांबा होता नुसा डुआ  बीच. अतिशय विस्तीर्ण असा रम्य सभोवताल.   तशी फारशी गर्दी जाणवत नव्हती.   आम्ही एका शटलने किनाऱ्यापर्यंत आलो.  लांबलचक पांढऱ्या वाळूचा किनारा, त्याला लागूनच नारळाची, तसेच नारळ जातीतल्या वृक्षांची रांग, काही पपनसाचे वृक्ष ही तिथे आम्ही पाहिले.  किनाऱ्याचे जणू काही ही वृक्षवल्ली संरक्षणाच करत होती.  समुद्राचे पाणी निळसर होते. पर्यटकांसाठी हे एक बाली इंडोनेशिया येथील अत्यंत आकर्षक स्थळ आहे. देशोदेशीचे पर्यटक येथे विखुरले होते आणि समोर पसरलेल्या महासागराच्या दर्शनाने थक्क होत होते.  माझ्या मनात नेहमी एक प्रश्न येतो की जगातला कुठलाही सागर हा त्या त्या वेळी अथवा प्रत्येक वेळी सौंदर्यातली विविधता घेऊनच आपल्यासमोर का येतो?  प्रत्येक किनारा आपण तितक्याच नवलाईने का पाहतो?  कदाचित याचं एकच उत्तर असेल हीच त्या किमयागाराची किमया!

इथे आसपास अनेक रेस्टॉरंट्सही  होती. अनेक साहसी सागरी क्रीडा होत्या. सांगितिक कार्यक्रमही होते. दरवर्षी मार्च महिन्यात येथे जाॅयलँड फेस्टिवल साजरा केला जातो. जी20 ची परिषद इथे भरली होती.  अनेक सांगितिक क्षेत्रातल्या कलाकारांसाठी नुसा डुवा हे एक उत्तम व्यासपीठ आहे. 

जितकं निसर्ग सौंदर्य डोळ्यात साठवता येईल तितकं साठवण्याचा आम्ही अक्षरशः प्रयत्न करत होतो. त्या विस्तीर्ण परिसरात असलेली राम, सीता, लक्ष्मण यांची सुरेख शिल्पं आमच्या कॅमेराला आकर्षित करीत होती. उन्हाचा तडका जसा जाणवत होता तसाच समुद्रावरून वाहत येणारा वाराही मनाला सुखावत होता.

बाली येथे दरवर्षी जवळजवळ देशोदेशीचे पाच मिलियन पर्यटक भेट देतात.  इथल्या अनेक आकर्षणांपैकी एक प्रमुख आकर्षण म्हणजे गरुड विष्णू कल्चरल पार्क.(GWK).

या येथे गरुडावर बसलेल्या विष्णूचा ७५ मीटर उंच असा अत्यंत कलात्मक वास्तुकलेच्या आणि शिल्पकलेच्या दृष्टीने ही थक्क करणारा असा पुतळा आहे. तो एका सिमेंटच्या उंच पायावर बसवलेला आहे आणि हे सगळं बांधकाम पुन्हा एका तीन मजली इमारतीवर लॉन्च केलेलं आहे. त्यामुळे या पुतळ्याची संपूर्ण उंची जवळजवळ 121 मीटर होते. जगातले हे तिसऱ्या क्रमांकाचे उंच असे शिल्प गणले जाते. बालीमध्ये फिरत असताना ते अनेक ठिकाणाहून दिसते. आमचं विमान डेन्सपार विमानतळावर उतरत असतानाही आम्हाला सर्वप्रथम मोकळ्या आकाशात या गरुड विष्णूचे दर्शन झाले आणि आम्ही मनोमन आनंदलो.

बालीमध्ये हिंदू धर्माचे अधिक वर्चस्व आहे. विष्णू ही संरक्षक देवता मानली जाते.  या पुतळ्यातील विष्णूच्या हातातही कमलपुष्प, शंख आणि राजदंड आहे. बाली येथील उंगासान  बारुंग येथे एका उंच डोंगरावर या संपूर्ण शिल्पाची उभारणी केलेली आहे. जणू काही गरुडावरचा हा विष्णू उंचावरून बाली या बेटावर आपली संरक्षक नजर ठेवून आहे.

न्याओमन नुआरर्ता या वास्तुशास्त्रज्ञाने याची रचना केलेली आहे आणि या वास्तूचे उद्घाटन सप्टेंबर २०१८साली झाले आहे.  म्हणजे बाली येथील हे पर्यटन स्थळ तसे नवीन, अलीकडचेच आहे. प्रवेशासाठी येथे प्रत्येकी ५० हजार इंडोनेशियन रुपीज ची दोन तिकिटे काढावी लागतात .म्हणजे आम्हाला सहा जणांसाठी सहा लाख IDR लागले. पुतळ्यापर्यंत जाण्यासाठी येथे विनामूल्य शटल सर्विस आहे. हे मात्र आमच्यासाठी दिलासा देणारे होते. परिसर खूपच भव्य आणि विस्तीर्ण आहे आणि जागोजागी रामायणातील, पुराणातील कथा सांगणारी विशेष व्यक्तींची अतिशय दिलखेचक आणि उंच मोठी शिल्पे उभारलेली आहेत.  त्यात अगदी रावण, शूर्पणखा पण आहेत. ऋषि कश्यप, विनिता यांचे पुतळे आहेत. गरुडाची आई विनिता म्हणूनच गरुडाला वैनतेय असेही म्हणतात.

गरुडावर आरुढ झालेल्या विष्णूची एक कथा येथे सांगतात.  गरुडाला त्याच्या आईला गुलामगिरीतून मुक्त करायचे होते आणि त्यासाठी त्याला समुद्रमंथनातून निर्माण झालेले अमृत हवे होते.

“मी तुला माझ्या पंखावर घेतो आणि तू मला ते अमृत दे” असा गरुड आणि विष्णु मध्ये करार होतो.  विष्णूचे वाहन गरुड असल्या मागची ही  एक दंतकथा आहे.

पक्षी श्रेष्ठ गरुडाचे पसरलेले पंख आणि त्यावरचा रुबाबदार सुंदर विष्णू पाहताना अक्षरशः डोळ्याचे पारणे फिटते.  हे शिल्प कॉपर, ब्रास आणि सिमेंटच्या मिश्रणातूनच बनवलेले आहे. पण पाहताना मात्र ते दगडी असल्याचा भास होतो. १९९३ ला या बांधकामाची सुरुवात झाली आणि २०१८ साली त्याचे उद्घाटन झाले. २१७ फूट रुंद आणि चारशे फूट उंच असलेलं हे भव्य सौंदर्य पहायला बालीत आलेले देशोदेशीचे पर्यटक गर्दी करतात. थक्क होतात, तृप्त होतात.

शिवाय इथे अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम जसे की संगीत, नृत्य, बालीअन सादर करतात. लोक परंपरा जपण्याच्या भावनेतून  झालेले हे कार्यक्रम मनोरंजक वाटतात. असा आनंददायी  अनुभव घेत, तीस हजाराचं(IDR) आईस्क्रीम खाऊन आणि बालीनीज कन्ये बरोबर छायाचित्र खेचून आम्ही तेथून तृप्त मनाने परतलो.  घेता किती घेशील आणि सांगू किती सांगशील अशीच आमची अवस्था झाली होती.

क्रमश: भाग दुसरा  

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-९ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-८ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail))

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

एक शक (पिछले भाग का और इस भाग का भी) 

यह सब तो ठीक ही है, यह मावफ्लांग का घना जंगल, यहाँ मेरी ही कोई शिकार करे तो? (यहाँ के जानवरों ने ये नियम थोड़े न पढ़े होंगे!) मित्रों, इसीलिये अपना साथ निभाने वाला, यहाँ के एक-एक पदचिन्ह को पहचानने वाला स्थानीय गाइड जरुरी है, उसका अनुसरण करते जाइये, सीधी      ( हो या ना हो) पगडण्डी मत छोड़िये, घनघोर जंगल में घुस कर संकट को आमंत्रित करने वाली जरुरत से ज्यादा हिम्मत मत कीजिये! आप बाघ की तलाश मत कीजिये, वह भी जानबूजकर आपको तलाशते हुए नहीं आएगा!!! ईमानदारी से बताती हूँ, ईश्वर की इस अनाहत निर्मिति ने हमें इतना अभिभूत कर दिया था कि, इस रमणीय जंगल में हमारे मन में एक बार भी ऐसे वैसे विचारों ने झाँकने की हिम्मत तक नहीं दिखाई|  मित्रों, यह जंगल अवश्य देखिए, चार एक घंटों की मोहलत रहने दीजिये! गाईड के भरोसे पर निश्चिन्त हो जाइये, उसके पास बंदूक वग़ैरा नहीं होती, मात्र होती है असीम श्रद्धा! आप अगर सच्चे प्रकृतिप्रेमी हैं, तो यह वनवैभव नहीं बल्कि, साक्षात् वनदेवता अपने विशाल हरित बाहुपाश में आपको बद्ध करने के लिए सिद्ध है!

डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail):

मेघालय का यह सबसे पुराना पादचारी रास्ता है| डेविड स्कॉट नामक ब्रिटिश प्रशासक ने भारत के उत्तर पूर्व भाग में करीबन ३० वर्ष (१८०२-१८३२) कार्य किया| उसने संपूर्ण खासी पर्वतश्रृंखला की पैदल यात्रा की| उस समय आसाम से सिल्हट(अभी का बांग्लादेश) का अंतर करीबन १०० किलोमीटर था! इस मार्ग पर घोडा-गाड़ियां ले जाने योग्य रास्तों की खोज की गई! इसे माल ढुलाई के लिए इस्तेमाल किया जाना था!यहीं है वह पूर्व खासी पर्वतश्रृंखलाओं में से जाने वाला ट्रेल, इसे डेविड स्कॉट का ही नाम दिया गया है! मूलतः १०० किलोमीटर का अति दुर्गम और कठिनतम मार्ग, परन्तु अब पर्यटकों की सुविधा के लिए छोटे छोटे हिस्सों में विभाजित किया गया है| समुद्र तल से ४८९२ फीट की ऊंचाई पर इस प्राकृतिक सौंदर्य से सजी पगडण्डी पर मार्गक्रमण करते हुए आपको नजर आएंगे छोटे-छोटे शांत गांव, प्राचीन पवित्र वनसम्पदा, विविध औषधी वनस्पतियां, ऑर्किड, मॅग्नोलिया जैसे फूलों की बहार, रबर के पेड़, ब्लॅकबेरी तथा गूसबेरी जैसे ताज़े फल, विस्तीर्ण हरे-भरे चरागाह के मैदान, छोटी-बड़ी जलधाराएँ, जलप्रपात, छोटी-बड़ी झीलें, एकाश्म, पथरीले पुल इत्यादी इत्यादी| कृत्रिमता का जरासा भी स्पर्श नहीं, यहीं है इस मार्ग का बिलकुल सच्चा प्राकृतिक लावण्य! इसका मुख्य कारण है यहाँ मानव का आवागमन बहुत ही कम है!

साहसी ट्रेकर्स यह संपूर्ण मार्ग (१०० किलोमीटर)४-५ दिनों में (गांव में रैनबसेरा करते हुए) चलते हुए पूरा करते हैं | परन्तु इससे अधिक व्यावहारिक और लोकप्रिय ऐसा एक दिन का (करीबन ४ से ६ घंटों में पूरा कर सकते हैं) १६ किलोमीटर का मार्ग उपलब्ध है| मावफ्लांग (Mawphlang) से लाड मावफ्लांग (Lad Mawphlang) ऐसा यह मार्ग है|

इस ट्रेल की शुरवात करने के लिए पहले शिलाँग से २५ किलोमीटर दूर मावफ्लांग गांव में पहुंचना जरुरी है, फिर इस गांव से यात्रा शुरू करते हुए मार्गक्रमण करते रहना है, जब तक लाड मावफ्लांग तक आप पहुँच न जाएँ! इस दीर्घ मार्गिका में क्या नहीं है यह पूछिए! प्रकृति का मुक्त संचार, हरीतिमा से परिपूर्ण पर्वत, खाइयां तो हैं ही, साथ ही जिसका हमें दर्शन अत्यंत दुर्लभ हो वह संपूर्ण तल एकदम स्वच्छ और अच्छे से नज़र आए ऐसा निर्मल जल, सब कुछ सिनेमास्कोपिक चलचित्र के समान! एक छोटी सरिता तरंगिणी अपने रुपहले जल की मचलती लहरों का नादस्वर लेकर लगातार हमारा साथ देते रहती है| इस राह में बीच बीच में उमियम नदी हमें दर्शन देती है| मित्रों, उमियम यानि “अश्रुपात की बाढ़”| इस नाम के उत्त्पत्ति की दिल को छू लेने वाली कहानी बताती हूँ! दो बहनें स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रही थी, उस दौरान, बीच राह में एक बहन खो गई, और उसे खोजने वाली दूसरी बहन के अश्रुपात से इस उमियम नदी का निर्माण हुआ!

मेरी बेटी आरती, जमाई उज्ज्वल और पोती अनुभूती ने यह ट्रेक पूरा किया| आरती का अनुभव उसीके शब्दों में नीचे दे रही हूँ!

“मेघालय ट्रिप के अंतिम दिन हमने किया हुआ यह ट्रेक बहुत ही इंटरेस्टिंग था| हमारे गाईड (दालम) के साथ हमने सुबह ९ बजे इस १६ किलोमीटर लम्बे  प्रवास की शुरवात की| प्राकृतिक वातावरण के निकट समय बिताने का अनूठा अनुभव लेने के लिए हम बहुत ही  उत्सुक थे| हमारा गाइड बीच बीच में ताजी रसदार बेरी तोड़ कर दे रहा था| वहां के पानी के प्रवाह और सुंदर निर्झरों का जल अत्यंत स्वच्छ और शीतल था| सीधे प्रवाह और निर्झरों से यह जल पीना यह तो हम शहरवासियों के लिए एक अनोखा ही अनुभव था| चलने के तनाव और परिश्रम से मुक्ति पाने के लिए हम हर निर्झर में मुँह और हाथ पाँव धो रहे थे, उससे श्रमपरिहार तो हो ही रहा था, परन्तु हमारा मन भी प्रसन्न हो उठा था| ट्रेक के आरम्भ में ही एक कुत्ता हमारे साथ हो लिया और पहले ८ किलोमीटर तक लगातार वह हमारे साथ ही था! उसे हमसे अधिक हमारे पास मौजूद चिप्स और अन्य जंक फूड में ज्यादा रस है, ऐसा लग रहा था! चिप्स का पॅकेट खोलने की महज आवाज से वह चौकन्ना हो जाता था और जब तक कि हम उसे थोडासा हिस्सा नहीं देते थे, तबतक, हमें उससे छुटकारा नहीं मिलता था! (हमारे एक फोटो में वह भी दिखाई दे रहा है) दालम ने हमें एक मनोरंजक कथा बतलाई| प्राचीनकाल में मानव बहुत मजबूत शरीर का धनी होता था| एक ही आदमी एक बड़ा (पाषाण) एकाश्म आराम से उठा लेता था, परन्तु उसे उठाने के पहले वह इस एकाश्मश से सुन्दर संवाद साधता था और उसकी अनुमति भी लेता था| यद्यपि पाषाण उससे बात नहीं कर सकता था, फिर भी यह कहा जाता है कि, उस आदमी को उस पाषाण के स्पंदन सुनाई देते थे!मानव से ऐसी प्यार भरी गुहार सुनने के पश्चात् वह पाषाण नरम हो उठता था!  मित्रों, कहानी में ही क्यों न हो, प्रकृति से संवाद साधने वाले ये वन्य जीव!  हमें उनकी भावनाओं का आदर करना ही चाहिए, सच कहूं तो, प्रकृति का रक्षण करने के लिए अब प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़े मानव की ही नितांत आवश्यकता है!

हमने एक गांव में दोपहर का खाना मॅगी और नीम्बू पर निपटाया| कुछ स्कूली बच्चों से मिलने के बाद यह ज्ञात हुआ कि वे स्कूल पहुँचने के लिए इसी कठिन मार्ग पर रोज आना जाना करते हैं, चाहे मौसम कितना ही ख़राब क्यों न हो! कुछ स्थानीय स्त्रियां उनके शिशुओं को पीठ पर बांध कर जाते हुए इसी रास्ते पर मिलीं!(इन बहादुर बच्चों को और स्त्रियों को हमारा अर्थात साष्टांग कुमनो!)यहाँ कोई भी वाहन नहीं हैं, कोई भी नेटवर्क चलता नहीं है | एक बार आपने ट्रेक का आरम्भ किया तो फिर उसे समाप्त करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता! हमारा यह प्रकृति के संग किया सुन्दर प्रवास सायंकाल ४ बजे समाप्त हुआ| यह ट्रेक हमें जिंदगी भर याद रहेगा!हमारे गाईड दालम ने (DalamLynti Dympep, आयु केवल २२ वर्ष, मु.पो. मावफलांग, फोन क्र ८८३७०४०९५८) हमें अत्यंत उत्तम मार्गदर्शन किया और संपूर्ण प्रवास में हमारी सर्वतोपरी मदद की| हम दिल से उसके बहुत बहुत आभारी हैं! हमारी सलाह है कि, इस प्रवास में साथ निभाने के लिए गाईड लेना बिलकुल  जरुरी है! दालम जैसा गाइड हो तो कितने ही संकट क्यों न आएं, उन पर विजय पाना आसान होगा, इसमें कोई शक नहीं! नीचे के फोटो में तीन एकाश्म (मोनोलिथ्स) और उनके साथ नजर आ रहा है दालम!”

प्रिय पाठकगण, यह प्रवास अब शिलाँग तक आ चुका है! अगले मेघालय दर्शन के भाग में आपको मैं ले चलूंगी, शिलाँग, अर्थात मेघालय की राजधानी में और उसके आसपास के अद्भुत प्रवास के लिए!

तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!  

डेविड स्कॉट ट्रेल के कुछ व्हिडिओ यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं|    

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मनोवेधक मेघालय…भाग -७ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

☆ मनोवेधक  मेघालय…भाग -७ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail)

प्रिय वाचकांनो,

आपल्याला दर वेळी प्रमाणे आजही लवून कुमनो! (मेघालयच्या खासी या खास भाषेत नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)

एक शंका (मागची अन पुढची देखील )

हे असे मावफ्लांगचे घनदाट जंगल, तिथेच माझी शिकार होणार कां? (तिथल्या जनावरांनी कुठले वाचलेत हे नियम!) मित्रांनो, म्हणूनच आपली सोबत करणारा, इथल्या पावलापावलाचे ठसे ओळखणारा स्थानिक वाटाड्या हवा, त्याचे अनुसरण करत चला. सरळ (असो का नसो) पायवाट सोडायची नाही, घनघोर जंगलात घुसायची ज्यादा अवलक्षणी हिंमत करायची नाय!तुम्ही वाघाला शोधू नका, तो पण तुम्हाला मुद्दाम शोधत येणार नाही!!! प्रामाणिकपणे सांगते, ईश्वराच्या या अनाहत निर्मितीने आम्ही इतके भारावलो होतो की, या रमणीय जंगलात आमच्या मनात एकदाही असे भलते सलते विचार यायला धजावले देखील नाहीत. मित्रांनो हे जंगल अवश्य बघा, चार एक तासांची बेगमी असू द्या! गाईडच्या भरवश्यावर निश्चिन्त असा, त्याच्याजवळ बंदूक वगैरे नसते, मात्र असते ती अपार श्रद्धा! तुम्ही निसर्गप्रेमी असाल तर ही वनराई नव्हे तर, साक्षात देवराई आपले विशाल हरित बाहू पसरून तुम्हाला कवेत घ्यायला सिद्ध आहे! 

डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail):

मंडळी, मागील भागात मी वायदा केला होता, त्याला अनुसरून आज या दुर्गम प्रदेशाच्या एका अत्यंत दुष्कर आणि दुष्प्राप्य ट्रेलची! ही वाट दूर जाते…….. संपण्याचे नाव नको, अशी ही ताज्यातवान्या विशेषज्ञ ट्रेकर्सला भारी पडणारी अन भूल पाडणारी ट्रेल (पायवाट), चला तर मग!     

मेघालयातील ही सर्वात जुनी पायवाट. डेविड स्कॉट या ब्रिटिश प्रशासकाने भारताच्या उत्तर पूर्व भागात जवळपास ३० वर्षे (१८०२-१८३२) कार्य केलं. त्याने संपूर्ण खासी पर्वतरांगा आपल्या पायाखालून घातल्या. या काळात आसाम ते सिल्हट(आत्ताचे बांगलादेश), हे अंतर जवळपास १०० किलोमीटर होते! या मार्गावर घोडागाड्या नेता येतील अशा योग्य वाटांचा शोध घेण्यात आला! मालवाहतुकीसाठी याचा उपयोग होणार होता! हाच तो पूर्व खासी पर्वत रांगांतून जाणारा ट्रेल, त्याला डेविड स्कॉट यांचंच नाव दिल्या गेलंय! मूळ १०० किलोमीटरचा अति दुर्गम आणि खडतर मार्ग, आता मात्र पर्यटकांच्या सोयीसाठी लहान लहान भागात विभागला गेलेला! समुद्रसपाटी पासून ४८९२ फुटांवरील या निसर्गरम्य पायवाटेवरून मार्गक्रमण करतांना दिसतील लहान लहान शांत खेडी, प्राचीन पवित्र वनराई, विविध औषधी वनस्पती, ऑर्किड, मॅग्नोलिया सारख्या फुलांचा बहर, रबराची झाडे, ब्लॅकबेरी तथा गूसबेरी सारखी ताजी फळे, विस्तीर्ण हिरवीगार कुरणे, लहान मोठे ओढे, जलप्रपात, लहान मोठे तलाव, एकाश्म, दगडी पूल इत्यादी इत्यादी. कृत्रिमतेचा जराही स्पर्श नाही हेच या मार्गाचं खरंखुरं प्राकृतिक लावण्य! याचे मुख्य कारण काय तर माणसांची तुरळक ये जा!

साहसी ट्रेकर्स हा संपूर्ण मार्ग (१०० किलोमीटर) ४-५ दिवसात (रात्री गावात मुक्काम करून) चालत जाऊन पुरा करतात. मात्र यापेक्षा जास्त व्यावहारिक आणि लोकप्रिय असा एक दिवसाचा (साधारण ४ ते ६ तासात पूर्ण करता येईल असा) १६ किलोमीटरचा मार्ग  उपलब्ध आहे. मावफ्लांग (Mawphlang) ते लाड मावफ्लांग (Lad Mawphlang) असा हा मार्ग आहे.

या ट्रेलची सुरवात करायला आधी शिलाँग पासून २५ किलोमीटर दूर मावफ्लांग गावात पोचावे लागते, मग या गावापासून प्रवास सुरु करीत मार्गक्रमण करीत राहा, लाड मावफ्लांग ला पोचेस्तोवर! या दीर्घ मार्गिकेत काय नाही ते विचारा! निसर्गाची मुक्त उधळण, हिरवेगार पर्वत, दऱ्या वगैरे आहेतच पण आपल्याला ज्याचे दर्शन देखील दुर्मिळ असलेले संपूर्ण तळ स्वच्छपणे दिसेल असे नितळ पाणी, सारे काही सिनेमास्कोपिक चलचित्रासमान! एक छोटी सरिता तरंगिणी आपल्या चंदेरी जलाच्या उसळत्या लहरींचा नादस्वर घेऊन सतत आपली सोबत करीत असते. या वाटेवर मधून मधून उमियम नदी आपल्याला दर्शन देते. मित्रांनो, उमियम म्हणजे “अश्रूंचा महापूर”. या नावाच्या उगमाची हृदयद्रावक कथा सांगते! दोन बहिणी स्वर्गातून पृथ्वीवर येत असता, वाटेत एक बहीण हरवली अन तिला शोधणाऱ्या दुसऱ्या बहिणीच्या अश्रूपाताने ही उमियम नदी तयार झाली!

माझी मुलगी आरती, जावई  उज्ज्वल अन नात अनुभूती यांनी हा ट्रेक पूर्ण केला. आरतीचा अनुभव तिच्याच शब्दात खाली दिलाय! 

मेघालय ट्रिपच्या शेवटच्या दिवशी आम्ही केलेला हा ट्रेक फार इंटरेस्टिंग होता. आमच्या गाईड (दालम) बरोबर आम्ही सकाळी ९ वाजता या १६ किलोमीटर लांब प्रवासाची सुरवात केली. नैसर्गिक वातावरणात रमण्याचा अनन्यसाधारण अनुभव घेण्यास आम्ही फार उत्सुक होतो.आमचा गाईड मध्ये मध्ये ताजी रसदार बेरी तोडून देत होता. तेथील ओहळांचे आणि सुंदर निर्झरांचे पाणी अतिशय स्वच्छ आणि शीतल होते. थेट ओढ्यांमधून आणि निर्झरांमधून हे पाणी पिणे हा आम्हा शहरवासियांसाठी एक अनोखाच अनुभव होता. चालण्याच्या ताणतणावातून मुक्त होण्यासाठी आम्ही प्रत्येक निर्झरात तोंड आणि हात पाय धूत होतो, त्यामुळे श्रमपरिहार होतच होता, पण आमचे मन देखील प्रसन्न राहत होते. ट्रेकच्या सुरवातीलाच एक कुत्रा आमच्या सोबत आला आणि पहिल्या ८ किलोमीटरपर्यंत तो आमच्या सतत सहवासात होता!  त्याला आमच्यापेक्षा आमच्याजवळ असलेल्या चिप्स आणि तत्सम जंक फूड मध्ये जास्त रस असावा! चिप्सचे पॅकेट उघडण्याच्या निव्वळ आवाजानेच तो सजग व्हायचा अन आम्ही त्यातील थोडा भाग त्याला देईपर्यंत आमची सुटका नसायची! (आमच्या एका फोटोत तो बी हाये!) दालमने आम्हाला एक मनोरंजक कथा सांगितली. प्राचीन काळी मानव खूप मजबूत बांध्याचा होता. एकच माणूस एक मोठा (पाषाण) एकाश्म आरामात उचलत असे, मात्र त्याला उचलण्याधी तो या एकाश्मशी छान संवाद साधत असे  व त्याची परवानगी देखील घेत असे. पाषाण जरी याच्याशी बोलत नसला तरी याला मात्र पाषाणची स्पंदने ऐकू यायची म्हणे! माणसाकडून अशी प्रेमाची गुजगोष्ट ऐकली की तो पाषाण नरमाईने वागत असे! मित्रांनो, गोष्टीत का होईना, निसर्गाशी संवाद साधणारे हे वन्य जीव!  त्यांच्या भावनांचा आपण आदर करायलाच हवा, खरे पाहिले तर निसर्गाचे रक्षण करायला अशा या निसर्गाशी तादात्म्य पावलेल्या माणसांचीच आता नितांत आवश्यकता आहे!  

आम्ही एका गावात दुपारचं जेवण मॅगी आणि लिंबू यावर आटोपले. काही शाळेत जाणाऱ्या मुलांना भेटल्यावर कळले की ते शाळेत पोचायला रोज याच कठीण मार्गावर ये  जा करतात, हवामान कितीही वाईट असो! काही स्थानिक स्त्रिया त्यांच्या छकुल्यांना पाठीशी घेऊन याच रस्त्याने जातांना भेटल्या! (या बहाद्दर  मुलांना आणि स्त्रियांना आमचा अर्थातच साष्टांग कुमनो!) इथे कुठलीही वाहने नाहीत, कुठलेही नेटवर्क नाही. एकदा का तुम्ही ट्रेक सुरु केली की ती संपवण्यावाचून अन्य पर्याय नसतो! आमचा हा निसर्गाच्या संगतीत केलेला सुंदर प्रवास संध्याकाळी ४ वाजता संपला. हा ट्रेक आमच्या आयुष्यभर लक्षात राहील! आमच्या गाईड दालमने (DalamLynti Dympep,  वय केवळ २२ वर्षे, मु. पो. मावफलांग,  फोन क्र ८८३७०४०९५८) आम्हाला अतिशय चांगले मार्गदर्शन केले आणि संपूर्ण प्रवासात आम्हाला सर्वतोपरी मदत केली. त्याचे  मनापासून खूप खूप आभार! आमचा सल्ला आहे की या प्रवासात सोबतीला गाईड घ्यायलाच हवा. दालमसारखा वाटाड्या असेल तर कितीही संकटे का येईनात, त्यांच्यावर मात करणे सुकर होईल यात कुठलीच शंका नाही! एका फोटोत तीन एकाश्म (मोनोलिथ्स) अन त्यांच्यासोबत दिसतोय तो दालम!

प्रिय वाचकहो हा प्रवास आता शिलाँगपर्यंत आलाय! पुढच्या मेघालय दर्शनच्या भागात तुम्हाला मी नेणार आहे शिलाँग या मेघालयाच्या राजधानीत आणि तिच्या जवळच्या एका अद्भुत प्रवासासाठी!

तर आतापुरते खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)

टीप – 

*लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो व्यक्तिगत आहेत!

डेविड स्कॉट ट्रेलचे काही व्हिडिओ यू ट्यूब वर उपलब्ध आहेत.

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – १ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – १ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

२७/११/२३

बाली इंडोनेशियातील एक बेट.  जावा बेटाच्या पूर्वेकडचे हे बेट.  वास्तविक जावा, सुमित्रा, या हिंदी महासागरातल्या बेटांबद्दल शालेय जीवनात भूगोलातून अभ्यास केला होताच. बाली हेही याच बेटांपैकी असलेलं एक सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थळ.  कला, संगीत,  नृत्य,समुद्र किनारे आणि मंदिरे यासाठी प्रसिद्ध असलेलं एक नितांत सुंदर बेट आणि मित्र परिवारांच्या समवेत या बेटास प्रत्यक्ष भेट देण्याचे माझे एक बकेट लिस्ट मधले स्वप्न पूर्ण होण्याची संधी मला मिळाली.  जीवनातल्या अनेक भाग्य क्षणांच्या संग्रहात याही अनमोल क्षणाची भर पडली.

दिनांक २७ नोव्हेंबर २०२३ रोजी आम्ही चक्क सिंगापूर एअरलाइन्सच्या एस क्यू 423 या फ्लाईटने *मुंबई ते सिंगापूर (चांगी विमानतळ) ते डेन पसार (न्गुराह राय विमानतळ) असा प्रवास करून बाली या बेटावर येऊन पोहोचलो. आम्ही बुक केलेले रिसाॉर्ट कर्मा चांडीसार हे विमानतळापासून जवळजवळ दोन तासाच्या अंतरावर होते. पण ड्राईव्ह अतिशय रमणीय होता.  सुंदर रस्ते,सभोवती अथांग सागर, झाडी, डोंगर आणि चौकाचौकातले उंच, कलात्मक, रामायणातली कॅरेक्टर्स शिल्पे! भव्य बांधकाम असलेली प्रवेशद्वारे. कोणती कोणती छायाचित्रे टिपावीत हेच कळेनासं झालं होतं.  मग ठरवलं आजचा तर पहिलाच दिवस आहे. छायाचित्रे टिपायला आपल्याजवळ अजून पुढचे सहा दिवस आहेतच की.

पण डेनपसार शहरात प्रवेश करता क्षणीच जाणवले होते ते इथली हिंदू धर्मीय जीवन पद्धती.  रामायण या पवित्र ग्रंथांशी त्यांचं असलेलं जन्मजात खोल नातं.  कसं असतं ना माणसाचं ? धर्म, संस्कृती, कला यांचं एकात्म्य हे क्षणात आपल्याला आपुलकीच्या नाते बंधनात जोडतं. मग वातावरणातल्या बदलाशी आपण नकळत तुलनात्मक रित्या बांधले जातो.

मी पटकन म्हणाले,” मला तर इथे आल्यापासून गोव्यात आल्यासारखंच वाटतंय!  इथल्या बोगन वेली, जास्वंदी, चाफा, कर्दळ, शिवाय नारळ, केळी, बांबू हे तर सारं कोकण —केरळ यांचीच आठवण करून देत होतं.  भारत आणि इंडोनेशियाचं हे मनातल्या मनात केलेलं एकत्रीकरण अर्थातच खूप गंमतीदार होतं.

आमचा सहा जणांचा ग्रुप.  मी, विलास, सतीश, साधना, सुमन आणि प्रमोद.  सतीश चे कर्मा ग्रुपचे सदस्यत्व असल्यामुळे आम्हाला कर्मा चांडीसार या प्राॅपर्टी मध्ये एक सुंदर ऐसपैस बंगला मिळाला होता.  तोही अगदी समुद्रकिनाऱ्याला लागूनच.  हिंदी महासागराचं जवळून  झालेलं ते नयनरम्य दर्शन केवळ अप्रतिम! आमचा सहा जणांचा ग्रुप एकदम आनंदला.

आम्ही सारे पंच्याहत्तरी  पार केलेले, खूप वर्षांपासून मैत्रीच्या घट्ट बंधनात बांधलेले. क्षणात अक्षरशः केवढे तरी तरुण झालो आणि या सहलीत आपण काय काय साहसे करू शकतो याविषयीचे बेत आखू लागलो. चालू ,चढू, पोहू करू की सारं…!! अंतर्मन म्हणायचं,” वय विसरू नका.” पण निसर्गाच्या सानिध्यात माणूस वय विसरतो हे मात्र खरं.

२८/११/२३ 

बालीत (इंडोनेशिया) प्रवेश केल्यावर हवाई अड्ड्यावरच आपण एकदम मिलियाॅनिअर झाल्याचा भास का असेना पण सुखद अनुभव आला. 

पोहोचल्याबरोबरच आम्ही प्रथम व्हिसाची प्रक्रिया पूर्ण केली. इथे व्हिसा ऑन अरायव्हल असतो. व्हिसासाठी आम्हाला प्रत्येकी ३३ डॉलर भरावे लागले. नंतर मनी चेंजरकडून इंडोनेशियन रुपयाची (आयडीआर) करन्सी घेतली आणि काय सांगू अक्षरशः पैशांचा पाऊसच पडला. केवळ ५० हजारा.चे जवळजवळ ८८ लाख इंडोनेशियन रुपये हातात आले. एकेक लाखाच्या, पन्नास हजारांच्या, वीस हजारांच्या च्या भरपूर नोटा.  पर्समध्ये मावेनात. क्षणात खूप श्रीमंत झाल्याचा एक मजेशीर अनुभव मात्र घेतला.

पहिल्या दिवशी टॅक्सीने आम्ही आमच्या आरक्षित बंगल्यावर जेव्हा आलो तेव्हा टॅक्सीचे बिल साडेनऊ लाख इंडोनेशीयन  रुपये झाले होते, त्याचीही गंमत वाटली.

तसे आम्ही दुपारीच पोहोचलो होतो.  विमानात खाणे झालेच होते तरीही थोडे ताजेतवाने होत बरोबर आणलेल्या खाद्यपदार्थांचा आम्ही समाचार घेतला.  सोबत सॉफ्ट ड्रिंक्स, रेड वाइन वगैरे होतंच. 

आमचा बंगला अगदी वेल फर्निश्ड आणि सर्व सुविधायुक्त होता. सुरेख सजवलेले अद्ययावत किचनही  होते.

पहिल्या दिवशी थोडा आरामच करायचे ठरवले. बंगल्याजवळच स्विमिंग पूल होता व तेथे असणार्‍या रेस्टॉरंट पलीकडे अथांग पसरलेला शांत. गूढ, हिंदी महासागर. या सागरात ठिकठिकाणी मोठ मोठी  जहाजे दिसत होती.   काही व्यापारीही असतील कारण बाली हे सुप्रसिद्ध व्यापारी बेट आहे. काही पर्यटन बोटीही असतील तर काही मच्छीमारांच्या बोटी होत्या.  मच्छीमारी हा इथला महत्त्वाचा व्यवसाय आहे.बालीचं हे प्राथमिक दर्शन मनभावन होतं.

हळूहळू सूर्य क्षितिजा पलीकडे गेला. सोनेरी किरणांनी आकाश रंगले आणि मग त्यातूनच अंधाराची वाट पसरत गेली. मात्र मानवनिर्मित रोषणाईने संपूर्ण सागर किनारा चमकू लागला. परिसरातील संमीश्र शांतता, गुढता अनुभवत आम्ही परतलो.  सतीशने दुसऱ्या दिवशीचा साईट सीईंगचा कार्यक्रम आखलेला होताच.

– क्रमश: भाग पहिला 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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