सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग तीन – पत्थर साहब लदाख)
मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीन – पत्थर साहब लदाख
(सितम्बर 2015)
2015 इस वर्ष हम रिटायर्ड शिक्षकों का यायावर दल ने लेह लदाख जाने का निर्णय लिया। सितंबर का महीना था। लेह-लदाख जाने के लिए यही समय सबसे उत्तम होता है।
चूँकि हम सभी साठ पार कर चुकीं थी तो यही निर्णय लिया कि मुंबई से डायरेक्ट लेह न जाकर हम श्रीनगर तक फ्लाइट से जाएँ और वहाँ से हम बाय रोड लेह-लदाख तक की यात्रा करें।
इस निर्णय के पीछे एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण था। लेह -लदाख समुद्री तल से 3500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जिस कारण ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। अगर सीधे लेह जाकर उतरते तो दो दिन ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ अस्पताल में पड़े रहते। श्रीनगर से आगे बाय रोड जाने पर घटते ऑक्सीजन की मात्रा का अहसास ही नहीं होता। शरीर बाहरी जलवायु के अनुकूल होता जाता है।
श्रीनगर में हम दो रात रहे। तीसरे दिन हम कारगिल के लिए रवाना हुए। श्रीनगर से अट्ठाइस किलोमीटर की दूरी पर नौवीं शताब्दी में निर्मित अवन्तिपुर मंदिर के खंडहर को देखने के लिए हम लोग रुके।
विशाल पत्थरों पर सुंदर और अद्भुत आकर्षक नक्काशी देखने को मिला। विशाल परिसर में फैला विष्णुजी और शिवजी के यहाँ कभी भव्य मंदिर हुआ करते थे। सुल्तानों ने इसे न केवल लूटा बल्कि तोड़- फोड़कर इसका विनाश भी किया। अब केवल खंडहर शेष है। यह खंडहर ही उसकी भव्यता का दर्शन कराता है।
हम आगे सेबों से लदे बगीचों का आनंद उठाते हुए कारगिल पहुँचे। श्रीनगर से कारगिल 202 किलोमीटर के अंतर पर है। पाँच -छह घंटे पहुँचने में लगे।
हम कुछ दो बजे कारगिल पहुँचे। यह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इसे द्रास घाटी कहा जाता है। यहीं पर पाकिस्तान के साथ 26 जुलाई 1999 को युद्ध छिड़ा था।
आज यहाँ एक विशाल मेमोरियल बनाया गया है। यहाँ शहीद सैनिकों का बड़ा सा सूची फलक है। यहाँ युद्ध संबंधी डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी देखने का मौका मिला। हम आम नागरिक अपने घर में सुरक्षित होते हैं जबकि हमारी सेना दिन रात ठंडी-गर्मी में हमारी सुरक्षा में तैनात रहती है। इस बात का अहसास तब होता है जब वहाँ की शीतलहर को थोड़ी देर झेलकर हम काँप उठते हैं।
1999 के युद्ध में देश ने जीत हासिल की इस बात का न केवल हमें गर्व है बल्कि हमें खुशी भी है पर शहीद हुए जवानों की सूची देखकर तथा किन हालातों का हमारी सेना ने सामना किया था यह जानकर दिल दहल भी उठा। उन सबके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम सबका मस्तक झुक जाता है।
हमने दो रातें कारगिल में बिताई और वहाँ के अन्य दर्शनीय स्थल देखकर हम लोग नुब्रा वैली के लिए रवाना हुए।
पुणे से रवाना होने से पूर्व हरेक को एक – एक छोटी-सी पोटली दी गई थी। इन पोटलियों में विशेष औषधीय गुण युक्त कपूर थे। रास्ते भर हम कपूर सूँघते हुए श्वास-कष्ट से बचते हुए आगे बढ़ रहे थे। कपूर में ऑक्सीजन लेवल को नियंत्रण में रखने का गुण होता है। हम में से किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ।
रास्ते अच्छे थे और लोकल चालक भी सतर्क और जानकार। घुमावदार सड़कें और दूर-दूर तक बर्फीली चोटियाँ आकर्षक दिखाई दे रही थीं। हमारी गाड़ी भी बीहड़ पहाड़ों के बीच से गुज़र रही थी। हर पहाड़ का रंग ऐसा मानो किसीने तूलिका फिरा दी हो।
नुब्रा वैली जाने से पहले हम दुनिया के सर्वोच्च मोटरेबल रोड खारडुंगला पास पहुँचे। इसका असली नाम खारडूंगज़ा ला है। यह 18,380 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पर जवानों के लिए एक सुंदर शिव मंदिर है। हमें कड़कड़ाती बर्फीली ठंड में बीस मिनट ही गाड़ी से बाहर रहने की इज़ाज़त थी। ऑक्सीजन लेवेल कम होने के कारण तबीयत बिगड़ने की संभावना होती है। हम सभी सहेलियाँ यहाँ लगे बोर्ड के सामने तस्वीरें खींचकर , शिव मंदिर में बाहर से ही दर्शन करके तुरंत गाड़ी में लौट आए।
खारडुंगला के बाद हम चांग ला पास से गुज़रे। यह 17800 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।
खारडुंगला पास से 38 की.मी की दूरी पर पत्थर साहिब गुरुद्वारा है। यहाँ दूर -दूर तक रहने की कोई व्यवस्था नहीं है। न ही खाने -पीने के लिए कोई रेस्तराँ ही है बस एक सुंदर गुरुद्वारा है। हर आने-जाने वाली गाड़ी यहाँ अवश्य रुकती है। दर्शन करके ही आगे बढ़ती है।
गुरु नानक अपने सिद्धांतों का प्रचार करते हुए तिब्बत, भूटान, नेपाल होते हुए लदाख पहुँचे। लौटते समय वे इसी स्थान पर रुके थे।
वहाँ के लोग एक कथा सुनाते हैं कि एक राक्षस था जो वहाँ के लोगों को सताया करता था। लोकल लोग नानक जी को नानक लामा कहते हैं। तिब्बत के लोग उन्हें गुरु गोमका महाराज कहा करते हैं। यद्यपि लदाख के अधिकांश लोग बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं पर वे गुरु नानक का भी सम्मान करते हैं।
एक दिन वे साधना में लीन थे कि पीछे से उस राक्षस ने एक विशाल और भारी पत्थर नानक जी को मारने के लिए ऊपर से लुढ़का दिया। पत्थर लुढ़ककर नानक जी की पीठ पर धँस गया। पर पत्थर मोम की तरह पिघल चुका था। पत्थर पर आज भी उनकी पीठ की निशानी है। नानक जी को चोट नहीं लगी यह देखकर राक्षस ने नीचे उतरकर पत्थर की दूसरी छोर पर लात मारी तो उसका पैर मोम जैसे पत्थर पर चिपक गया।
उसे समझ में आ गया कि नानक जी साधारण मनुष्य नहीं थे। वह वहाँ से चला गया और फिर उसने गाँववालों को कभी नहीं सताया।
वहाँ के निवासी उस पत्थर को बहुत महत्व देते थे। समय के साथ -साथ घटना पुरानी भी हो गई और भूली भी गई।
सन 1970 में जब लेह -नीमू सड़क निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो वह पत्थर रोड़ा बन गया। आर्मी ने उसे हटाने का बहुत प्रयास किया। पर पत्थर टस से मस न हुआ। जब उस पत्थर को बम विस्फोटक द्वारा उड़ा देने का निर्णय लिया गया तो वहाँ के निवासी और कुछ लामाओं ने आकर ऐसा करने से उन्हें रोका। गुरु नानक लामा की कथा आर्मी चीफ को सुनाई गई और सबने मिलकर वहाँ पत्थर साहिब गुरुद्वारा का निर्माण किया।
आज इस गुरुद्वारे की देखरेख वहाँ की आर्मी ही करती है। साफ -सुंदर परिसर। विशाल ठंडे बर्फीले पर्वतमालाओं के बीच स्थित यह गुरुद्वारा पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
जिस दिन हम दर्शन के लिए गुरुद्वारा पहुँचे तो वहाँ अखंड पाठ समाप्त ही हुआ था। किसी कर्नल की पल्टन अपनी अवधि पूरी करके लदाख से शिफ्ट हो रही थी। इसलिए अखंड पाठ रखा गया था। साथ ही बहुत ही उम्दा लंगर का आयोजन भी था। उस दिन गुरुद्वारे में पल्टन के सभी लोग उपस्थित थे। उत्सव का वातावरण था। आने-जानेवाले पर्यटक भी लंगर में शामिल हुए थे। हम भी लंगर में शामिल हो गए।
हम सभी ने इस दर्शन को अपना सौभाग्य ही माना कि इतने दूर दराज स्थान पर हमें नानक जी के उस रूप का दर्शन मिला जो एक पवित्र पाषाण के रूप में है। वैसे गुरुद्वारों में सिवाए गुरु ग्रंथसाहब के किसी मूर्ति को रखने की प्रथा नहीं है। पर यहाँ यह पत्थर मौजूद है और यात्री पास जाकर दर्शन कर सकते हैं।
हम वहाँ से नुब्रा पहुँचे। हमारे रहने की बहुत ही उत्तम व्यवस्था की गई थी। नुब्रा में एक रात रहने बाद इसके आगे हमारी यात्रा बहुत लंबी थी। हम पैंगोंग त्सो देखने के लिए निकले। रास्ते में कहीं कहीं बायसन चरते हुए दिखाई देते। यहाँ के निवासी ज़मीन के नीचे गुफा जैसी जगह बनाकर रहते हैं ताकि सर्द हवा और बर्फ से बचे रहें। गाड़ी के चालक ने बताया कि बायसन पालनेवाले उनके दूध से चीज़ बनाने की कला सीख गए हैं। यहाँ लेह लदाख के सुदूर इलाकों में जीवन बहुत कठिन है। उद्योग के खास ज़रिए भी नहीं है।
हम सब पैंगोंग त्सो या लेक देखने पहुँचे। यहाँ पर भी प्रियंवदा के नेतृत्व में हमें आर्मी मोटर बोट में बैठकर विहार करने का 112 मौका मिला। यद्यपि पिछले पाँच वर्षों से वहाँ पर्यटकों के लिए नौका विहार की मनाही थी। पर प्रियंवदा के किसी परिचित आर्मी चीफ की सहायता से हम शिक्षकों को इजाज़त मिल गई और हम सबने इस विहार का आनंद भी लिया।
लेक के किनारे ही गणपति जी का छोटा-सा मंदिर है। उस दिन सुदैव से संकष्टी चतुर्थी का दिन था। हम सबने आरती की और टेन्ट की ओर बढ़े जहाँ हमारे रहने की व्यवस्था थी। न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि कदम – कदम पर ईश्वर इस यात्रा में हमारे साथ उपस्थित थे। जो कुछ देखना चाहा,करना चाहा बस वह जादू की तरह तुरंत सामने उपस्थित हो जाता। इसे ईश्वर की कृपा ही कहेंगे न!
पैगोंग त्सो या लेक 134 कि.मी लंबा है। यह
समुद्री तल से 4350 मी.की ऊँचाई पर है। यह संसार का सबसे ऊँचाई पर स्थित खारे जल का स्रोत है।
इसके एक छोर पर चीन का कब्ज़ा है। इस लेक का पानी स्वच्छ ,पारदर्शी और आकर्षक है। लेक के किनारे स्थित पहाड़ों का प्रतिबिंब लेक के जल में इतना स्पष्ट दिखाई देता है कि आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। यहाँ भयंकर सर्द हवा चलती है। ठंड के दिनों में लेक पर बर्फ की मोटी परत चढ़ जाती है। सारा पानी जम जाता है। इस लेक में किसी प्रकार के कोई जीव,मत्स्य आदि नहीं पाए जाते। यह खारे जल का स्रोत है।
अनेकों कमियों और अभावों के चलते भी हमारे रहने तथा भोजन आदि की व्यवस्था अति उत्तम थी। पर्यटकों के आने पर कई लोगों को रोज़गार भी मिल जाता है।
दूसरे दिन हम लदाख से लेह की ओर लौटने लगे। रास्ते में थ्री इडियट नामक सिनेमा में दर्शाए गए फुनसुख वांगडू की पाठशाला भी देखने गए। लोकल लोगों के नृत्य का कार्यक्रम देखने का अवसर मिला। उनके साथ हमारी सखियाँ नाच भी लीं। आनंदमय वातावरण था। सन ड्यू रेगिस्तान में दो कूबड़ वाले और लंबे बालवाले ऊँट की सवारी की गई। थोड़ी देर के लिए हम सब अपनी उम्र भूल ही चुके थे।
धीरे -धीरे लेह की ओर लौटते हुए कई बौद्ध विहार के हमने दर्शन किए। कुछ पहाड़ों की ऊँचाई पर स्थित हैं तो कुछ पहाड़ों की तराई में। हर एक मंदिर /विहार अपनी सुंदरता,शांति और भव्यता के कारण पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।
वहाँ के निवासी सीधे -सरल और मिलनसार हैं। वे पर्यटकों की बहुत अच्छी देखभाल करते हैं। मृदुभाषी हैं। सभी बड़ी सरलता से हिंदी बोलते हैं।
गाड़ी के चालक से ही ज्ञात हुआ कि जब कड़ाके की सर्दी पड़ती है और पर्यटक भी नहीं होते तब वे हमारी सेना की सहायता के लिए सियाचिन की ओर निकल जाते हैं और तीन माह वे वहीं अच्छी रकम पाकर सामान ढोने का काम करते हैं। सियाचिन में भी एक निश्चित स्थान के बाद सेना की ट्रकें आगे नहीं बढ़ सकती हैं वहीं ये लदाखी काम आते हैं।
हमारे लौटने का समय आ गया था। दस – बारह दिन अत्यंत आनंद के साथ गुज़ारे गए। हम जिस भीड़भाड़ में रहते हैं,जहाँ सभी दौड़ते – से लगते हैं उस भीड़ से बिल्कुल हटकर एक अलग दुनिया की हम सैर कर आए थे। शांति, संतोष, सौंदर्य और सरलता का अगर दर्शन करना चाहते हैं तो लेह लदाख अवश्य जाएँ।
यह मेरा सौभाग्य ही है कि 2022 सितंबर के महीने में मैं अपने पति बलबीर को साथ लेकर फिर लेह- लदाख के लिए निकली। इस बार पत्थर साहब में बाबाजी का दर्शन साथमें किया।
ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इस तरह दूर -दराज़ स्थानों के पवित्र मंदिर और गुरुद्वारों के दर्शन का मुझे निरंतर सौभाग्य मिलता आ रहा है।
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