हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समीक्षा # 119 – श्रीकांत : नेटफ्लिक्स ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय चलचित्र समीक्षा श्रीकांत : नेटफ्लिक्स

☆ समीक्षा # 119 –  श्रीकांत : नेटफ्लिक्स ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बहुत सी प्रेरणादायक और मेहनत से बनाई गई फिल्मों में ये फिल्म भी याद रखी जायेगी जो जन्मजात अंधत्व रूपी विकलांगता को मात देने वाले जुझारू, दृढसंकल्पित शख्स की सच्ची कहानी है जिसे अपने स्वाभाविक अभिनय के विशेषज्ञ “राजकुमार राव” ने अपने श्रेष्ठतम अभिनय से जीवंत बना दिया है।

वास्तविक शख्सियत “श्रीकांत बोलेरा” को उकेरता, उनका उत्कृष्ट अभिनय हमेशा याद किया जायेगा। श्रीकांत की मजबूत शख्सियत को दर्शाता ये डॉयलॉग फिल्म की यूएसपी है।

“जब सामना डर और चुनौतियों से होता है, तो दो ही रास्ते होते हैं, पहला चुनौतियों का मुकाबला करना या फिर रास्ता बदलकर याने कटमारकर भाग जाना” पर नेत्रहीन व्यक्ति के पास कट मारकर भागने का विकल्प नहीं होता। यही दुर्बलता फिर उसे आत्मशक्ति से सुसज्जित करती है और जुझारू बनाती है। महाभारत में हमने धृतराष्ट्र की अयोग्यता और निर्बलता देखी है पर अगर संकल्प शक्ति देखनी हो तो “श्रीकांत” देखिये जो सच्ची शख्सियत पर बनी है और नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 229 ☆ जन्माष्टमी विशेष ☆ नाटक – कालिका का मदमर्दन…  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है शिक्षक दिवस पर एक विशेष कविता  – प्रणाम गुरू जी !)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 229 ☆

? जन्माष्टमी विशेष नाटक – कालिका का मदमर्दन… ?

कालिका का मदमर्दन… नदियो में जल प्रदूषण के विरुद्ध पौराणिक संदेश

नांदी पाठ … नेपथ्य से 

पुरुष स्वर .. दुनिया की अधिकांश सभ्यतायें नदी तटों पर विकसित हुईं हैं . प्रायः बड़े शहर आज भी किसी न किसी नदी या जल स्त्रोत के तट पर ही स्थित हैं .  औद्योगिकीकरण का दुष्परिणाम यह हुआ है कि नदियो को हम कल कारखानो के अपशिष्ट से  प्रदूषित कर रहे हैं .कृष्ण की यमुना की जो दुर्दशा आज हमने औद्योगिक प्रदूषण से कर डाली है वह चिंतनीय है . यमुना में कालिया नाग का प्रसंग वर्तमान संदर्भो में नदियो में प्रदूषण का प्रतीक है .

स्त्री स्वर .. कृष्ण लीला में कालिया नाग के अंत का कथानक है जिसे नाट्य रूप में आपके लिये प्रस्तुत किया जा रहा है . कालिया नाग यमुना को विष वमन कर प्रदूषित करता है , जिससे यमुना के जलचर व तटो के वनस्पति व प्राणियो पर कुप्रभाव पड़ता है . बाल कृष्ण कालिका नाग का अंत करते हैं . यह दृष्टांत वर्तमान संदर्भो में नदियो में हो रहे प्रदूषण के अंत हेतु किये जा रहे प्रयासो को लेकर प्रासंगिक है .

मंच पर सतरंगे वस्त्रो में सूत्रधार का प्रवेश ..

सूत्रधार  .. कालिया नाग जिस कुण्ड में यमुना में रहता था, उसका जल उसके विष की गर्मी से खौलता रहता था. उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी तक झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे.  विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके जब वायु का प्रवाह होता तो नदी तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि असमय काल कवलित हो जाते थे. यह स्थिति चिंताजनक थी . एक दिन गेंद खेलते हुए बाल कृष्ण ने अपने सखा श्रीदामा की गेंद यमुना में फेंक दी.  श्रीदामा गेंद वापस लाने के लिए कृष्ण से जिद करने लगे . बाल कृष्ण यमुना में कूद पड़े . वे उछलकर कालिया के फनों पर चढ़ गए और उस पर पैरों से प्रहार करने लगे , और जल प्रदूषण के प्रतीक कालिया पर विजय प्राप्त कर ली  . वृंदावन के नर-नारियों ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण के एक हाथ में बाँसुरी थी और दूसरे हाथ में वह गेंद थी, जिसे लेने का बहाना बनाकर वे यमुना में कूदने की लीला कर रहे थे .

दृश्य ..

श्रीदामा … हे कृष्ण ! तुमने मेरी गेंद यमुना जी में क्यों फेंक दी , मुझे मेरी गेंद वापस लाकर दो .

बाल कृष्ण .. हे मित्र , यमुना में प्रवाह बहुत है , देखो जल भी कितना प्रदूषित है . वहां विषधर कालिया नाग का वास है . मैने जान बूझकर थोड़े ही गेंद यमुना जी में फेंकी है , वह तो खेलते हुये जल में चली गई . तुम घर चलो मैं तुम्हें दूसरी गेंद दे दूंगा .

श्रीदामा … नहीं नहीं कृष्ण ! मुझे दूसरी गेंद नहीं चाहिये , तुम मुझे अभी ही मेरी वही गेंद लाकर दो .  मुझे अपनी वह गेंद अति प्रिय है .

 बाल कृष्ण .. अच्छा श्रीदामा ! तुम नही मानते हो तो मैं तुम्हारी वही गेंद लाने का यत्न करता हूं . कृष्ण धीरे धीरे यमुना जी में प्रवेश कर जाते हैं ..

कृष्ण का यमुना में प्रवेश का प्रतीकात्मक अभिनय ..

संगीत अंतराल … मंच पर रोशनी कम की जावेगी .. पुनः धीरे धीरे प्रकाश बढ़ाया जावेगा 

किनारे खड़े बाल सखा … इतनी देर हो गई कृष्ण कहां गये … अरे श्रीदामा तुमने ही हमारे कृष्ण को जबरदस्ती यमुना जी में भेजा है .

दूसरा सखा .. वह भी केवल एक गेंद के लिये .

एक गोपी … रोते सुबकते हुये  .. श्रीदामा !  मेरे कृष्ण को वापस लाओ , मैं कुछ नही जानती . जोर से आवाज लगाते हुये … हे कृष्ण जल्दी वापस आ आओ .

 श्रीदामा .. रोते हुये .. नदी की ओर उस तरफ देखते हुये जहां से कृष्ण ने नदी में प्रवेश किया था .. अच्छा कृष्ण , तुम लौट आओ , मुझे गेंद नहीं चाहिये .

धीरे धीरे बृंदावन के नर नारी एकत्रित हो जाते हैं 

नर नारियो का समूह   .. सभी पुकारने लगते हैं , हे कन्हैया !  तुम कहां हो ! लौट आओ …

प्रकाश मध्दिम होता है और … पुनः प्रकाश बढ़ता है , बैकग्राउंड में पर्दे पर नदी का दृश्य .. कृष्ण कालिका नाग के फन पर सवार मुरली बजाते हुये दिखते हैं …

नर नारियो की भीड़ .उल्लास से .. हमारे कृष्ण कालिका पर सवार होकर नृत्य कर रहे हैं , उन्होंने कालिका का मद मर्दन कर दिया है .नर नारी हर्ष से नृत्य करते हैं .

पार्श्व संगीत …

काले नाग के नथैया

अपने प्यारे कृष्ण कन्हैया

जय कृष्ण .. जय कृष्ण ..

फन पर हुये सवार भैया

अपने प्यारे कृष्ण कन्हैया

जय कृष्ण .. जय कृष्ण ..

बांसुरी की धुन के नाद के साथ परदा गिरता है .‍

नेपथ्य स्वर … हे कृष्ण , द्वापर में तो आपने कालिका का मद मर्दन कर यमुना को बचा लिया था। आज फिर यमुना ही नहीं सारी की सारी नदियां प्रदूषण से दुखी हैं। आइए प्रभु नव रूप में पधारिए और हमारे जल स्रोतों की प्रदूषण मुक्ति के लिए हमे राह दिखाइए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रपटावर बोलू काही ☆ The Chorus ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

🎞️ चित्रपटावर बोलू काही 🎞️

☆ The Chorus ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

१९८२ सालची इराणची ‘द कोरस’ ही शॉर्ट फिल्म पाहण्यात आली. 

तर मंडळी ही फिल्म खूप जुनी असल्यानं ती बऱ्यापैकी ब्लर दिसते. पण यातले प्रमुख पात्र ‘आजोबा’ आहेत त्यांच्या चेहऱ्यावरचे हावभाव मात्र काही काही प्रसंगात स्पष्ट दिसतात. आणि त्यावरून फिल्मच्या मूळ चित्रीकरणाचा दर्जा लक्षात येतो. 

ऐकू येत नाही म्हणून कानाला मशीन लावावं लागणारे आजोबा एका घोडागाडीच्या खाली येता येता वाचतात. नंतर मात्र ते न विसरता कानाला यंत्र लावतात आणि काही बाजारहाट करून घरी जातात. इथं एक गोष्ट मला फार आवडली की फिल्ममध्ये संवाद अत्यल्प आहेत. जवळ जवळ नाहीच असं म्हणलं तरी चालेल. पण आजोबांनी कानाला मशीन लावलं की आपल्याही आवाजाची तीव्रता वाढते आणि काढलं की कमी होते. हा साउंड इफेक्ट इथं फारच परिणामकारक वापरला आहे. कारण संवादाच्या अनेक जागा या ‘साउंडनं’ भरून काढल्या आहेत. किंबहुना आवाज हाच या फिल्मचा आत्मा आहे असं म्हणायला हरकत नाही. या फिल्ममध्ये जाणवलं की व्यक्ती म्हणजे त्यांचे पोशाख, हुद्दा, त्यांचे चेहरे वगैरे गोष्टी इथं महत्त्वाच्या नाहीत पण ‘त्यांनी ऐकणं’ आणि त्यावर प्रतिक्रिया देणं जास्त महत्त्वाचं आहे.  

तर हे आजोबा घरी गेल्यानंतर जे घडतं ते अधिक महत्त्वाचं आहे. ते काय घडतं अगदी साधीशी घटना… आजोबा कानाचं मशीन काढतात आणि खाली घराचं दार लागलं जातं आणि शाळेतली नात आजोबांना हाक मारून दार उघडण्यासाठी विनंती करत राहते… पुढे काय होतं ते नक्की पाहा. अनेक घरांत घडणारी ही घटना पण जेव्हा ती सामाजिक आशयातून मांडली जाते तेव्हा तिच्याकडे पाहण्याचा दृष्टीकोन तर बदलतोच, पण व्यवस्थेला एक चिमटाही काढला जातो.   

ऐकू न येणं, ऐकू येऊन न ऐकल्यासारखं करणं किंवा एखादा आवाज दाबण्यासाठी त्यापेक्षा दुसरा मोठा आवाज निर्माण करणं या सगळ्या गोष्टी आपण सगळे जाणून आहोत. व्यवस्था, मग ती कुठलीही असो, त्यात ते कसं पद्धतशीरपणे केलं जातो ते पाहतो, तर कधी कधी नकळत या व्यवस्थेचा भाग बनतो याची जाणीव आपल्याला यातून होते.

यातल्या रस्त्याचं खोदकाम हा भाग मोठ्या आवाजाचं प्रतिक म्हणून वापरलाय तो एकदम चपखल आहे. रस्ता म्हणजे वहिवाट, प्रथा, परंपरा याचं प्रतिक. त्याची दुरुस्ती करणं हे साधं सोपं काम नाही. त्याचा आवाज दडपणे अशक्य. पण यात एखादी लहानशी आर्त अशी हाक आपल्या आतल्या माणसापर्यंत पोहोचू शकते का…  त्या हाकेतली कोवळीक जाणवून आपण त्याला सकारात्मक प्रतिसाद देऊ शकतो का… हे पाहणं महत्त्वाचं. कारण व्यवस्था सुधारताना, बदलताना आपण आतल्या अगदी अंतरातल्या लहान हाकेची, भविष्यातल्या स्वप्नांची साथ देणं महत्त्वाचं आहे. विशेषतः इराणसारख्या ठिकाणी, जिथं बरीच सामाजिक बंधन पाळावी लागतात… जिथं सहजासहजी व्यक्तीस्वातंत्र्य स्वीकारलं जात नाही तिथे हे घडणं अपेक्षित आहे. 

ते घडेल का… आणि कसं… असा एका लहानसाच प्रश्न…  पण उत्तरात मात्र बरेच मोठे बदल घडण्याची शक्यता असलेला… यामध्ये विचारला गेला आहे.  

परिचय

© सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रपटावर बोलू काही ☆ राकेट्री (हिंदी सिनेमा) – दिग्दर्शक – आऱ्. माधवन ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

🎞️ चित्रपटावर बोलू काही 🎞️

☆ Rocketry (हिंदी सिनेमा) – दिग्दर्शक – आऱ्. माधवन ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

आज Rocketry हा हिंदी सिनेमा बघण्याचा योग आला. योगच म्हणावे लागेल कारण गेल्या आठवड्यापासून तो सिनेमा बघण्याचे मनात असले तरी वेळ काढता आला नाही. आज मात्र ठरवून रॉकेट्री सिनेमा बघितला.

डॉक्टर विक्रम साराभाईंनी ज्यांच्यावर मुलासारखं प्रेम केलं, ज्यांच्या प्रचंड बुद्धीमत्तेवर विश्वास ठेवला, ज्यांचा विक्षिप्तपणा सांभाळून घेतला, तेच डॉ. नंबी नारायणन ह्यांच्या आयुष्यावर चित्रित केलेला हा सिनेमा. आर. माधवन ह्या अभिनेत्याने हा चित्रपट दिग्दर्शित केला आहे , आणि स्वतःच डॉ. नंबी नारायणन ह्यांची भूमिका केली आहे. हा सिनेमा बनवून, त्याने आपल्या भारत देशातील सगळ्या देशवासीयांसमोर एक असा काही नजराणा ठेवला आहे की तो आपण प्रत्येकाने स्वीकारून त्याचा नुसता आस्वाद न घेता, त्याचे स्मरण आपल्या आयुष्यात कायम राहील ह्याची खात्री बाळगली पाहिजे. 

डॉ एस. नंबी नारायणन (जन्म १२ डिसेंबर १९४१ ) हे रॉकेट वैज्ञानिक आणि एरोस्पेस अभियंता होते , ज्यांनी भारतीय अंतराळ संशोधन संस्था ( ISRO ) इथे काम केले आणि विकास रॉकेट इंजिनच्या विकासात योगदान दिले. २०१९ मध्ये त्यांना भारत सरकारचा तिसरा सर्वोच्च नागरी पुरस्कार पद्मभूषण प्रदान करण्यात आला. भारताने प्रक्षेपित केलेल्या पहिल्या PSLV मध्ये वापरलेल्या विकास इंजिनसाठी फ्रान्सकडून तंत्रज्ञान घेतलेल्या संघाचे त्यांनी नेतृत्व केले. इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनायझेशन (ISRO ) चे वरिष्ठ अधिकारी म्हणून ते क्रायोजेनिक्स विभागाचे प्रभारी होते

अतिशय हुशार आणि प्रामाणिक असणाऱ्या डॉ नंबी नारायणन ह्यांना नासा ( National Aeronautics and Space Administration ) कडून खूप मोठ्या पगाराच्या नोकरीचा प्रस्ताव आला होता. पण फक्त नि फक्त त्यांचे देशप्रेम आणि आपल्या देशाचे नाव जगात अव्वल असावे ह्यासाठी त्यांनी तो प्रस्ताव ठोकरला. 

अशा प्रामाणिक आणि देशप्रेमी डॉ नंबी नारायणन ह्यांच्यावर १९९४ मध्ये हेरगिरीचा आरोप ठेवण्यात आला आणि त्यांना केरला सरकारकडून अटक करण्यात आली. एप्रिल १९९६ मध्ये केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने त्यांच्यावरील आरोप फेटाळले आणि भारताच्या सर्वोच्च न्यायालयाने तांत्रिक कारणास्तव केरळ सरकारला तपास सुरू ठेवण्यापासून रोखले. संपूर्ण दोन वर्षे ते आपल्या परिवारापासून लांब जेलमध्ये होते. दरम्यान ह्या सगळ्या प्रकाराचा त्यांच्या बायकोच्या डोक्यावर परिणाम झाला आणि  तिच्यावर मनोविकारतज्ञाकडून इलाज करावे लागले. २०१८ मध्ये सर्वोच्च न्यायालयाने, दीपक मिश्रा यांच्या खंडपीठामार्फत, डॉ नंबी नारायणन यांना ५०,००,००० रुपयांची भरपाई देऊन त्यांना निर्दोष ठरविले. तिरुअनंतपुरम येथील उपन्यायालयात केरला राज्याविरुद्ध दाखल केलेला खटला निकाली काढण्याच्या डिसेंबर २०१९  च्या मंत्रिमंडळाच्या निर्णयानुसार, कोषागारातून १.३ कोटी रुपयांची अतिरिक्त भरपाई डॉ नंबी नारायणन ह्यांच्या बँक खात्यात हस्तांतरित करण्यात आली.

दिग्दर्शक आणि डॉ नंबी नारायणन ह्यांची भूमिका केलेले आर. माधवन ह्यांनी ह्या सिनेमात खूप काही दाखविले आहे. भारताची अवकाश संशोधन संस्थेमधील गुपितं पाकिस्तानला विकल्याच्या आरोपावरून डॉ नंबी नारायणन ह्या देशनिष्ठ शास्त्रज्ञाला केरला सरकारने तुरुंगवास कसा घडविला- डॉ नंबी नारायणन आणि त्यांच्या संपूर्ण कुटुंबाने शारिरीक आणि मानसिक हालांना तोंड कसे दिले- एका न्यायी सीबीआय ऑफिसरमुळे तुरुंगातून ते बाहेर तर आले, पण काही राजकीय पक्ष्याच्या पाठिंब्यामुळे लोकांनी केलेला तीव्र धिक्कार कसे सोसत राहिले- संपूर्ण कुटुंबाची होणारी वाताहात घट्ट मनाने कसे सहन करत राहिले – हे सगळे यात दाखवले आहे.  तुरुंगातल्या छळाने डॉ नंबी नारायणन यांचे शरीर दुबळे झाले होते पण त्यांच्या बुद्धीची धार आणि संशोधनाची आस तशीच तेजस्वी होती.

डॉ नंबी नारायणन ह्यांची मे १९९६ मध्ये सीबीआय कोर्टाने निर्दोष मुक्तता केली होती. तरीही २०१८ पर्यंत त्यांना अनेक वर्षे  कायदेशीर लढायांना सामोरे जावे लागले, कारण निर्दोष सुटल्यानंतर लगेचच केरळ सरकारने पुन्हा चौकशीचे आदेश दिले होते आणि त्यांना डॉ नंबी नारायण ह्यांनी आव्हान दिले होते आणि सरतेशेवटी सर्वोच्च न्यायालयाने त्यांची निर्दोष मुक्तता केली.

आर. माधवनच्या ‘Rocketry’ सिनेमाने प्रेक्षकांना अभिमानाचे क्षण दिले आहेत, तसेच नकळत डोळ्यांतून पाणीही आणले आहे. पण मुख्यतः ह्या सिनेमांत डॉ नंबी नारायणन ह्यांच्या बुद्धिमत्तेचे दाखले दाखविले आहेत. एक मात्र नक्की, डॉ नंबी नारायणनसारखी असामान्य माणसे जेव्हा देशासाठी अशी  काही असामान्य कामे करतात तेव्हा आपल्यासारख्या सामान्य माणसांना त्यांच्या असामान्य कामाची निदान थोडी फार जाणीव तरी असलीच  पाहिजे.

मी सर्वांनाच अतिशय नम्रपणे आवाहन करतो की हा सिनेमा नक्की बघावा, म्हणजे डॉ नंबी नारायणन ह्यांनी आपल्या देशासाठी काय काय केले आणि त्याबद्दल त्यांना काय काय सोसावे लागले ह्याची आपल्याला जाणीव होईल.

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रपटावर बोलू काही ☆ मेजर… निर्देशक – शशि किरण टिक्का ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

🎞️ चित्रपटावर बोलू काही 🎞️

☆ मेजर… निर्देशक – शशि किरण टिक्का ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

मेजर संदीप उन्नीकृष्णन

आज दिनांक ६-६-२०२२ ला असा एक सिनेमा बघण्याचा योग आला की तो सिनेमा बघून भूतकाळात घडलेले ते दोन, तीन  दिवस पुन्हा डोळ्यांसमोर आले.

२६-११-२००८ ते २९-११-२००८ ह्या तीन दिवसांत पाकिस्तानमधल्या लष्करे तयबा ह्या इस्लामिस्ट टेररिस्ट ऑर्गनाजेशनच्या दहा अतिरेक्यांनी जवळजवळ १६६ जणांना जीवानिशी मारले होते आणि त्या दिवशी तुकाराम ओंबळे साहेबांमुळे एक अतिरेकी जिवंत पकडला गेला तर बाकीच्या ९ अतिरेकीना मुंबई पोलिसांनी आणि आपल्या NSG कमांडोनी यमसदनास पाठविले होते. जे काही घडले होते आणि ज्यांनी कोणी टीव्ही वर ते पहिले होते, ते कोणीही, कधीही विसरू शकणार नाहीत पण त्या दिवशी ज्यांनी कोणी आपले प्राण पणाला लावून ह्या आपल्या देशासाठी, आपल्या देशातल्या माणसांसाठी आपल्या आयुष्याची आहुती देऊन त्या अतिरेक्यांना मारून शहीद झाले त्यांच्याबद्दल आपल्याला खूप कमी माहिती असते आणि आज आम्ही जो सिनेमा बघितला त्या सिनेमाने आम्हांला आज अशाच एका शहीद झालेल्या आपल्या जवानाची खरी ओळख करून दिली.

अशोकचक्रवीर मेजर संदीप उन्नीकृष्णनवर आलेला सिनेमा,  ” मेजर “. आजपर्यंत आम्ही खूप सिनेमे बघितले. गेले कित्येक वर्षे दर सोमवारी मी आणि रेषा एखादा तरी सिनेमा सिनेमागृहात जाऊन बघतोच. आजपर्यंत अनेक हिरो हिरॉइनचे सिनेमे आम्ही बघितले पण आज ” मेजर ” सिनेमा  बघितल्यावर मनापासून आम्हांला दोघांनाही वाटले की ह्या सिनेमाने आज आम्हांला खऱ्या हिरोची ओळख करून दिली. ह्या सिनेमात त्या तीन दिवसांचा आढावा घेण्यात आला असला तरी जास्त फोकस हा मेजर संदीप उन्नीकृष्णनच्या, त्याने जगलेल्या त्याच्या कमी आयुष्याचा आणि त्या दिवशीचा म्हणजेच ताज हॉटेलवर त्या नराधम अतिरेक्यांबरोबर झालेल्या लढाईवर आहे. हो , ती  लढाईच होती. शत्रूने केलेल्या अभ्यासपूर्ण हल्ल्याला आपल्या NSG म्हणजेच नॅशनल सिक्युरिटी गार्डच्या जवानांनी– ज्यांना ब्लॅक कॅट म्हणून ओळखले जाते त्यांनी— सडेतोडपणे दिलेल्या उत्तराचे ते चित्रण आहे. मेजर संदीप उन्नीकृष्णन हे NSG चे ट्रेनिंग ऑफिसर होते. खरे म्हणजे नियमानुसार ट्रेनिंग देणाऱ्या ऑफिसरने कुठच्याही चढाईवर भाग घ्यायचा नसतो पण मेजर संदीप उन्नीकृष्णन ह्यांनी हट्टाने ह्या मिशनमध्ये नुसता भाग नाही घेतला तर ह्या मिशनमध्ये त्यांनी लीड केले. ” जान दूंगा, देश नही ” म्हणणाऱ्या मेजर संदीप उन्नीकृष्णनच्या खऱ्या आयुष्याची ओळख ह्या सिनेमातून करून दिली ती त्याचा रोल करणाऱ्या अदिवी शेष ह्या तेलगू अभिनेत्याने. त्यानेच ह्या सिनेमाचा स्क्रिनप्लेही लिहिला आहे. डायरेक्टर शशी किरण टिक्का ह्यांनी हा सिनेमा बनवितांना कुठेही तडजोड न करता, जे काही घडले होते तसेच प्रेक्षकांसमोर चांगल्या रितीने मांडले आहे.

ह्या सिनेमाची गोष्ट काय आहे किंवा ह्या सिनेमात कोणी कसे काम केले आहे ह्याबद्दल येथे मला काहीही लिहायचे नाही, कारण तो अनुभव प्रत्यक्ष प्रत्येकांनी घ्यायला हवा.  पण येथे एक गोष्ट मला नमूद करावीशी वाटते ती म्हणजे सिनेमा बघतांना त्याला मिळालेला लोकांचा प्रतिसाद किती कमी आहे त्याची. पूर्ण सिनेमागृहात आम्ही ६ जणच होतो. त्या खान लोकांच्या सिनेमाला अती प्रतिसाद देणाऱ्या आम्हां भारतीयांना ह्या खऱ्या  हिरोंची ओळख करून घ्यायला उसंत नाही. ह्या सिनेमात त्या ताज हॉटेलवरील हल्ल्याच्या दिवशी आपल्या मीडियाने आपल्या प्रत्येकाच्या चॅनेलचा TRP वाढवण्यासाठी कसा गोंधळ घातला होता आणि ते टीव्हीवर बघून त्याचा फायदा आपला शत्रू कसा घेत होते त्याचे व्यवस्थित चित्रण केले आहे. त्याच मीडियाला ह्या सिनेमाचे प्रमोशन करायला वेळ नाही. खरे म्हणजे असे सिनेमे हे आपल्या सरकारकडून टॅक्स फ्री करून दिले पाहिजेत. प्रत्येक भारतीयाने हा सिनेमा नुसता बघितला नाही पाहिजे, तर आपले सैनिक ह्या आपल्या देशासाठी, आपल्या देशातील लोकांसाठी कसे आपले जीवन समर्पित करतात हे जाणून घेतले पाहिजे. ह्या सिनेमात प्रेक्षकांच्या करमणुकीचा विचार करून गाणी किंवा नाच असे काहीही नाही, आहे ते फक्त मेजर संदीप उन्नीकृष्णनच्या आयुष्याच्या शेवटापर्यंतचे यथार्थ चित्रण.

ह्या लेखाद्वारे मी सगळ्यांना विनंती करतो, आपल्या ह्या रोजच्या धाकधुकीच्या जीवनातून जरा वेळ काढून सिनेमागृहात  जाऊन अशोकचक्र मिळालेल्या मेजर संदीप उन्नीकृष्णन ह्यांच्या जीवनावरील हा सिनेमा जरूर बघावा म्हणजेच त्यांना आपण दिलेली ती आदरांजली ठरेल. हो, सिनेमा बघून झाल्यावर माझ्या हातून नकळत त्यांना एक सॅल्यूट मारला गेला. तुम्हालाही सिनेमा संपल्यावर सॅल्यूट मारावसा वाटला तर लाजू नका. तुमच्याकडूनही त्यांना सॅल्यूट मारला जाईल हयाची मला खात्री आहे.

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

०६-०६- २०२२

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रपटावर बोलू काही ☆ दि बुक थीफ… दिग्दर्शक – ब्रायन पर्सिवल ☆ परिक्षण – सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

🎞️ चित्रपटावर बोलू काही 🎞️

☆ दि बुक थिफ … दिग्दर्शक – ब्रायन पर्सिवल ☆ परिक्षण – सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

युद्धातल्या खऱ्या रम्यकथा…

मार्कस झुसॅक यांच्या कादंबरीवर आधारित

दिग्दर्शक – ब्रायन पर्सिवल

सध्या आपण रशिया आणि युक्रेन यांच्या युद्धाच्या बातम्या ऐकतो आहोत, पाहतो आहोत आणि या युद्धाचे इतर देशांवर होणारे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, गंभीर-किरकोळ स्वरूपाचे परिणामदेखील पहात आहोत, अनुभवत आहोत. यावरून माझ्या एकच लक्षात आलं की आता युद्ध ही संकल्पना कुठल्याही ठराविक भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजकीय किंवा सामाजिक सीमेपुरती मर्यादित राहिलेली नाही. तर ती पृथ्वीच्या कुठल्याही एका बिंदूपासून सुरू होऊन हळूहळू संपूर्ण पृथ्वीला कह्यात घेते… आणि एका विषयापासून सुरू होऊन इतर अनेक विषयांनाही कवेत घेते. भूतकाळ, वर्तमानकाळ, भविष्यकाळ या तीनही काळांचा संबंध युद्ध या संकल्पनेशी घट्ट रुजलेला आहे. त्यामुळे आधी घडून गेलेल्या काही युद्धांच्या कथा जरी अत्यंत विनाशकारी असल्या तरी आजही पुन्हा पुन्हा आठवल्या जातात. त्यावर पुन्हा पुन्हा चर्चा घडत राहते. आणि हळूहळू या कथा निरनिराळ्या साहित्यकृतींचं ही आकर्षण ठरतात.

दुसरं महायुद्ध हे आजही अनेकदा चर्चिलं जातं, आणि त्याबरोबरच चर्चिला जातो तो या युद्धाचं केंद्रस्थान असलेला, अनेकांच्या दृष्टीने खलनायक ठरलेला हिटलर. याच हिटलरच्या कारकिर्दीतील एका युद्धघटनेवर आधारित ‘द बुक थीफ‘ हा चित्रपट नुकताच पाहण्यात आला. आणि हा चित्रपट पाहताना आणि पाहून झाल्यावरही कित्येक काळ यातले अनेक प्रसंग माझ्या मनात रुंजी घालत राहिले.

युद्धस्य कथा रम्या: असं जे म्हटलं जातं ते का म्हटलं जात असावं… संपूर्ण मानवी सृष्टीचा संहार करणाऱ्या युद्धामध्ये रम्य असं काय असतं, असा माझा प्रश्र्न… केवळ पराकोटीचं साहस, वीरता, आपल्या धर्माचे रक्षण, देशप्रेम दर्शवण्याची एक संधी, की कुणा एकाची अर्तक्य साम्राज्यलालसा. यापलीकडे युद्ध नक्की काय सांगतं… जे सर्वसामान्य लोक या सगळ्यापासून पूर्णपणे अलिप्त असतात आणि आपलं मानवी जीवन शांततेनं, प्रेमानं जगू इच्छितात त्या लोकांच्या मनात या युद्धकाळामध्ये नक्की काय विचार मंथन चालू असतं? ते या युद्धाकडे नक्की कोणत्या दृष्टीने बघत असतात? आपल्या देशाविरुद्ध लढण्यासाठी उभ्या असणाऱ्या देशाप्रती, तिथल्या समाजातल्या असंख्य लोकांप्रती त्यांच्या नक्की काय भावना असतात? हे युद्ध झाल्यानंतर कोणीही जिंकलं किंवा कोणीही हरलं तरी या सर्वसामान्य लोकांच्या दृष्टीने त्यांच्या जगण्यात काय फरक पडतो? आणि या युद्धांच्या घटनांचं जे वार्तांकन केलं जातं… युद्धभूमीवरील वार्तांकनाने देशन् देश पेटून उठलाय असं सांगितलं जातं, ते खरंच तसं असतं का… या सगळ्या प्रश्नांची उत्तरं थोड्याफार प्रमाणात का होईना हा चित्रपट देतो. भले मग चित्रपट या माध्यमातलं कलात्मक आणि काल्पनिक स्वातंत्र्य या दोन गोष्टी जरी गृहीत धरल्या तरीदेखील या चित्रपटात युद्धकाळात दिसणारे सर्वसामान्यांचे जीवन आणि त्यांच्या माणूस म्हणून एकमेकांप्रती असलेल्या भावना या अतिशय प्रामाणिक आणि खऱ्या वाटतात. आणि म्हणूनच यातल्या अनेक घटना माझ्यासारख्या सर्वसामान्य व्यक्तीला महत्त्वाच्या वाटतात आणि मनावर खोल परिणाम करतात.

मुळात या चित्रपटाची कथा आपल्याला सांगतो तो निवेदक साक्षात मृत्यू आहे. आणि आपण करत असलेल्या कामाबद्दल तो अतिशय तटस्थपणे सांगत आहे. आपण आजपर्यंत कितीतरी खलनायकांसाठी अतिशय आज्ञाधारकपणे काम केलंय हे तो खुलेपणाने मान्य करतो. पण त्याच वेळेस एका सर्वसामान्य घरातल्या सर्वसामान्य लहान मुलीच्या तो प्रेमात पडलाय याचं त्यालाही वाटणारं आश्चर्य तो व्यक्त करतो.

आणि मग सुरु होते कहाणी लीझल नावाच्या मुलीची. तिच्या आयुष्यात घडणाऱ्या अनेक व्यथांचा जन्मच हिटलरच्या काळ्या कारकीर्दीत होऊ लागतो. आपले सख्खे नातेवाईक गमावण्यापासून ते आपण ज्यांच्याकडे आश्रित म्हणून राहायला आलो आहोत त्यांनाही गमावण्यापर्यंत अनेक प्रसंग घडत जातात. पण असं असलं तरीही ही कहाणी फक्त मृत्यूच सांगत नाही, तर या प्रत्येक मृत्यूमधलं जीवनदेखील आपल्याला सांगते आणि ज्या लीझल नावाच्या मुलीची ही कथा आहे त्या मुलीला अंधारी आणि अधांतरी अवस्थेत हे जीवन सापडतं तरी कुठे? तर ‘पुस्तकांमध्ये’.

आश्चर्यचकित झाला असाल कदाचित; पण तरीही हेच उत्तर आहे. आणि हेच वैशिष्ट्य आहे या चित्रपटाचं. आपल्याला वाचता येत नाही हे माहीत असूनसुद्धा ही मुलगी आपल्या भावाच्या मृत्युनंतर त्याच्या कबरीजवळ पडलेलं ‘कबर कशी खोदावी?` हे सांगणारं एक पुस्तक चोरते. ते पुस्तक चोरताना ते नक्की कशाचं आहे आणि आपल्याला त्याचा काय उपयोग आहे यापैकी कश्शाचाही विचार तिच्या मनात येत नाही. तिच्या दृष्टीने फक्त एकच गोष्ट महत्त्वाची असते ती म्हणजे ते पुस्तक तिच्या भावाच्या कबरीजवळ त्याची कबर खोदताना पडलेलं आहे. आणि त्यामुळेच आपल्या भावाचा एक छोटा फोटो ती त्या पुस्तकात ठेवून देते आणि ते पुस्तक जिवापाड जपते.

पुढे मग ती हे पुस्तक वाचायला कशी शिकते, ते शिकताना तिला काही अडथळे आले तर त्यावर कशी मात करते, हे सगळं पाहणं अतिशय हृद्य आहे. याबरोबरच पुस्तक वाचण्याचा तिला लागलेला लळा हा तिला पुस्तक-चोर बनवतो. पण ही चोरी तिला तिच्या आयुष्यात किती समृद्ध बनवते हे या चित्रपटातून अतिशय उत्तमरित्या मांडलेलं आहे. पुस्तक वाचनाच्या तिच्या वेडामुळेच तिच्या घरी आश्रयासाठी लपून राहिलेला ज्यू तरुण, मॅक्स तिचा घट्ट मित्र बनतो आणि तिने आता वाचनाबरोबर लिहिलं पाहिजे हे आग्रहानं तिला सांगतो. मॅक्स आणि लीझल यांच्यातले प्रसंग मला सर्वांत जास्त भावले…  मग तो हिटलरच्या आईनं त्याला पत्र लिहिण्याच्या काल्पनिक प्रसंगाचा असो किंवा बाहेरचं वातावरण कसंय ते मला तुझ्या शब्दांत सांग असं म्हणल्यावरचा असो, किंवा तिनं बाहेरुन त्याला बर्फ आणून देण्याचा असो, किंवा तळघरात त्यांनी गुप्तपणे ख्रिसमस साजरा करण्याचा असो, किंवा ज्यू लोकांमध्ये शब्द म्हणजे काय हे सांगण्याचा असो… हे प्रसंग अतिशय तरल, काव्यात्मक, उत्कट पण तितकेच खरेही वाटतात.

शिवाय अजून एका प्रसंगाचा तर आवर्जून उल्लेख करायलाच हवा. युद्ध चालू झाल्यावर त्यापासून वाचण्यासाठी सगळेजण एका तळघरात जमलेले असतात आणि तिथे तिला अचानक गोष्ट स्फुरू लागते. ती गोष्टदेखील एका काळ्या रंगाच्या आड लपणाऱ्या भावाची आहे, जो तिच्या बहिणीला भेटत असतो‌. प्रतिकात्मक अशी अत्यंत सुंदर गोष्ट. चित्रपटातील हे सगळे प्रसंग जरी काल्पनिक असले तरी ते अत्यंत खरे वाटतात, कारण प्रतिकूल परिस्थितीत आपल्यातलं  माणूसपण जिवंत ठेवणारे मानवतावादी लोक असं साधं-सोपं, निरलस वागू शकतात किंबहुना वागतात.

लीझल, मॅक्स यांबरोबरच ज्यांच्याकडे हे दोघं आश्रित म्हणून राहत असतात ते हान्स आणि रोझा, लीझलच्या प्रेमात पडलेला तिचा शेजारी मित्र रूडी, त्याचे आई-वडील, नगराध्यक्षाची बायको या सगळ्याच व्यक्तिरेखा अत्यंत जीवन अभिलाषी आणि नात्यांवर विलक्षण प्रेम, विश्वास आणि श्रद्धा असलेल्या आहेत. युद्धकाळात आपापसातल्या अनेक चौकटी विसरून एकमेकांना मदत करण्यासाठी सरसावलेली ही जिवंत माणसं म्हणजेच युद्धातल्या खऱ्या रम्यकथा म्हणाव्यात असं मला वाटतं. आणि म्हणूनच की काय मृत्यूदेखील त्यांच्या नात्यांच्या मोहात अडकलेला आहे.

परीक्षण – ©  सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

(“जागतिक सिनेमा आणूया मराठीत” या उपक्रमाबद्दल शंकर ब्रम्हे समाज विज्ञान ग्रंथालय,पुणे यांचे विशेष आभार”)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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सूचनाएँ/Information – ☆ रंगमंच/Theatre ☆ विवेचना, जबलपुर का 27 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह – 23 से 27 मार्च 2022 ☆ श्री हिमांशु राय ☆

सूचनाएँ/Information

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ विवेचना, जबलपुर का 27 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह – 23 से 27 मार्च 2022 ☆ श्री हिमांशु राय ☆

 

6 नायाब नाटकों का मंचन होगा

23 से 27 मार्च 2022 तकविवेचना का 27 वां राट्रीय नाट्य समारोह

वसंत काशीकर की स्मृति को समर्पित है यह समारोह

अमृतसर, जम्मू, दिल्ली और भोपाल के बहुरंगी नाटकों से सजा है समारोह

भगतसिंह पर केन्द्रित नाटक वसंती चोला से होगी शुरूआत

पंजाब के लोकगायक गाएंगे वीरों की गाथा

काव्य पाठ, नृत्य, संगीत से सजा होगा प्रतिदिन पूर्वरंग

विवेचना थियेटर ग्रुप (विवेचना, जबलपुर) का 27 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह इस वर्ष 23 से 27 मार्च 2022 तक आयोजित होगा।

समारोह की शुरूआत 23 मार्च को भगतसिंह शहादत दिवस पर भगतसिंह पर केन्द्रित नाटक ’बसंती चोला’ से होगी। इस नाटक का निर्देशन देश के जाने माने नाट्य निर्देशक केवल धालीवाल ने किया है।

23 मार्च शहादत दिवस के लिए पंजाब के प्रसिद्ध लोकगायकों का दल जबलपुर आ रहा है जो ’बसंती चोला’ के मंचन से पहले वीरों की याद में वीर गायन करेगा।

दूसरे दिन 24 मार्च को एमेच्योर थियेटर ग्रुप,जम्मू के कलाकार देश के वरिष्ठ निर्देशक मुश्ताक काक के निर्देशन में ’लम्हों की मुलाकात’ नाटक मंचित करेंगे। यह नाटक कृष्ण चंदर के दो कहानियों ’शहज़ादा’ और ’पूरे चांद की रात’ पर आधारित है।

25 मार्च शुक्रवार को प्रिज्म थियेटर सोसायटी, दिल्ली के कलाकार बहुप्रशंसित नाटक ’दरारें’ का मंचन करेंगे। यह नाटक अन्तर्राट्रीय भारत रंगमहोत्सव मेें मंचित हो चुका है। यह नाटक आज के समय में परिवारों में पड़ी दरारों और उसके कारणों पर बात करता है।

चौथै दिन 26 मार्च को सिली सोल्स फाउंडेशन, दिल्ली के कलाकार दो अलग अलग भावों के नाटक ’एडवर्टीजमेंट’ और ’पड़ोसन’ प्रस्तुत करेंगे। इनका लेखन व निर्देशन प्रियंका शर्मा ने किया है। दो अलग अलग स्वभाव के नाटक दर्शकों को रोमांचित करेंगे।

पांचवें और अंतिम दिन 27 मार्च को कारवां, भोपाल के कलाकार नजीर कुरैशी के निर्देशन में ’डाॅ आप भी’ नाटक मंचित करेंगे। यह नाटक आदर्शवादी डाक्टर पति और व्यावसायिक दृष्टिकोण वाली डाक्टर पत्नी के बीच के विवाद की कथा है। यह अजित दलवी के प्रसिद्ध मराठी नाटक ’डा. तुम्हीं सुद्धा ! ’ का हिन्दी अनुवाद है।

2019 में संपन्न 26 वें समारोह के बाद से 2 वर्षों के अंतराल के पश्चात विवेचना का नाट्य समारोह होने जा रहा है। विगत दो वर्षों से दर्शक नाटकों के मंचन की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं। विवेचना का नाट्य समारोह सैकड़ों दर्शकों को सपरिवार एक दूसरे से मिलने का मौका प्रदान करता है।

यह समारोह तरंग प्रेक्षागृह में एम पी पावर मैनेजमेंट कं लि, केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद के सहयोग से आयोजित होगा।

नाटकों का मंचन प्रतिदिन संध्या 7.30 बजे होगा।

विवेचना थियेटर ग्रुप की ओर हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, अनिल श्रीवास्तव, मनु तिवारी, अजय धाबर्डे आदि ने सभी नाट्य प्रेमी दर्शकों से समारोह के सभी नाटकों को देखने का अनुरोध किया है।

हिमांशु राय
सचिव विवेचना

  • नाटकों के प्रवेश पत्र तरंग प्रेक्षा गृह में समारोह के दौरान उपलब्ध रहेंगे
  • नाटकों के सीजन (पांचों दिनों के) प्रवेश पत्र व्हाट्सएप्प नम्बर 9425387580 या 9827215749 पर एडवांस में बुक किये जा सकते हैं।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ नाट्यछटा ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ नाट्यछटा ☆ श्री आनंदहरी ☆

” आलिया भोगासी असावे सादर !….”

(रेडिओवर गाणे लागले आहे, नवरा नको ग बाई मला दादला नको ग बाई…गाणे बंद करते )

अगदी खरं आहे बाई तुझे.. नवरा नको ग बाई मला दादला नको ग बाई.. अगदी असंच वाटतं बघ..

काय म्हणालात ‘ असं का गं ?’ काय सांगायचं तुम्हांला ? अहो, आमच्या ह्यांशी संसार करणे म्हणजे सोपी का गोष्ट आहे..

“अहो,  एक काम धड करतील तर शपथ..साधे कपडे धुवायला टाकताना कपडे सरळ सुद्धा करणार नाहीत.. जीव अगदी मेटाकुटीला येतो हो !…हा संसाराचा गाडा ओढायचा ओढायचा म्हणजे किती ओढायचा एकटीने.. (कपडे उचलण्याचा,सरळ करण्याचा अभिनय )

दोन दिवस वाण सामान आणण्यासाठी यांच्या कानी-कपाळी ओरडतेय.. पण ऐकू जाईल तर शप्पत ! आले आपले हात हालवत.. विचारलं तर म्हणतात कसं ?. अगं ऑफिसमध्ये काम जास्त होतं .. गडबडीत विसरलो… बरं झालं बाई, आज ऑफिसला जातानाच वाणसामानासाठी हातात पिशव्या दिल्या यांच्या ते… पिशव्या पाहून तरी आठवणीनं आणतील सामान..

अहो, वाणसामानाचं दुकान का जवळ आहे ? आणि घरातलं सारं आवरून परत इतक्या लांब जायचं म्हणजे खूप वेळ जातो हो.. दुपारची झोप सुद्धा मिळत नाही.. तशी मी दुपारी झोपत नाहीच म्हणा.. ? अहो ,वेळच कुठं मिळतो ? सारं आवरेपर्यंत बारा तरी वाजतातच.. ती ही धुण्याभांड्याची सखू वेळेवर आली तरच हं … पण स्वैपाकाच्या काकू  मात्र अगदी वक्तशीर हो .. सकाळी सात म्हणजे सात.. अगदी घड्याळ लावून घ्यावं त्या आल्या की.. काय करणार हो ? एवढ्या सकाळी स्वैपाक आवरवाच लागतो.. ऑफिसला जाताना यांना डबा द्यायचा असतो ना ..  हे अगदी नऊच्या ठोक्याला जातात ऑफिसला..  ते ऑफिसला गेले की सखूची वाट बघत बसायचं.. नुसता वैताग येतो हो.. बाईसाहेब कधी दहाला उगवणार तर कधी अकराला.. वेळेचं काही भानच नाही तिला ..वर तिला काही बोलायची पंचाईत..  म्हणतात ना ‘फट म्हणता ब्रह्महत्या..’ तशातली गत व्हायची.  अहो, काम सोडून गेली तर दुसरी कुठून बघू..? मोकळा वेळ असा मिळतोच कितीसा मला ?  त्यात पुन्हा दुसरी कामवाली शोधत बसायचं म्हणजे.. ? माझा काही जीव आहे की नाही.. सखू आली की झाडलोट करणार, मग कपडे धुणार.. भांडी घासून झाली की निघाल्या राणीसाहेब तरातरा.. एखादं जादाचं काम सांगावं तर म्हणते कशी..

‘ केलं असतं हो पण वाडकरांकडे उशीर होतो कामाला.. आणि वाडकर वहिनी किती कजाग आहेत ते तुम्हांला माहितीच आहे..

जरा उशीर झाला की लगेच बडबडायला सुरवात करतात … ‘

सगळे खोटे..  मी काही वाडकर वहिनींना ओळखत नाही होय ? हीच मेली कामचुकार.. हिलाच काम करायचं नसतं ..मला काही कळत नाही होय..? पण बोलणार कसं ? 

सखू गेली की जरा आडवं व्हावं म्हणून आडवे व्हायला जावं तर.. डोळे मिटतायत, न मिटतायत तोवर घड्याळात चार वाजतात.

तुम्हाला सांगते, ही घड्याळे पण एवढी आगाऊ असतात.. आपण जरा विसावा घ्यावा म्हणलं की पळतात पुढं पुढं.. अगदी वाघ मागे लागल्यासारखी ! स्त्री द्वेष्टी मेली. जाऊद्या.. आता उठलं तर पाहिजेच.

पण आता काय करावं बरं ? हं ! रंजनाला कॉल च करते , रंजना म्हणजे माझी मैत्रीण हो ! 

(मोबाईल वर कॉल लावते)

अं ss उचलत कसा नाही.. झोपली असेल .  दुसरे काय ? पुन्हा लावून बघते ? (परत कॉल लावते )

“हॅलो ss!”

काय म्हणालीस , कामात आहेस? नंतर करतेस?

कामात आहे म्हणून कट केला हो तिने ..

अहो, कामात कसली ? घरात इकडची काडी तिकडे करत नाही.  धुणे भांडी, स्वैपाक , झाडलोट सगळ्याला बायका आहेत कामाला , उरले सुरले सासूबाई करतात अजून… नटमोगरी मेली.. परवा परेरांची लेक गेली कुणाचा तरी हात धरून पळून … तेंव्हा दहादा फोन करीत होती.. चौकशी करायला.. तिला कुणाच्या उखाळ्या पाखाळ्या काढायच्या असल्या की बरा वेळ असतो.. आणि आत्ता…? जाऊद्या …

आले वाटतं, चहा टाकते .. आमच्या ह्यांना की नाही,  आल्या आल्या हातात चहाचा कप लागतो..  आयता ..स्वतःहून कधी करून घेतील.. मला देतील .. पण नाव नाही. अहो घरात कशाला हात लावतील तर शपथ..!  नुसता वैताग येतो हो.. एखाद्यानं करायचे करायचे म्हणजे किती करायचे.. पण यांना त्याचं काही आहे का?

“अहो, आणलंत का सामान..?  काय म्हणताय? विसरलात ? अहो पिशव्या दिल्या होत्या ना आठवणीसाठी.. त्या कशासाठी दिल्या ते ही विसरलात की काय ?  बरे झाले बाई, नोकरीवर जायचे, घरी यायचे विसरत नाही ते..  आपल्याला घर आहे बायको आहे हे विसरत नाही ते काही कमी आहे का. ?

“काय म्हणालात ? काम जास्त होते..निघेपर्यंत दुकाने बंद झाली ? “

तुम्हांला सांगत्ये नुसती कारणं हो एखादं काम सांगितली की..काम कुठलं हो.. बसायचं मित्रांसोबत चकाट्या पिटत.. मला का कळत नाही होय? आणि नेमकं  काम सांगितलं की बरं यांच्या ऑफिसातील काम वाढतं ? कामचुकार मेले.. नुसता वैताग येतो हो .. पण करणार काय ? पदरी पडले आणि..

.. बघा बघा, दुसऱ्यांचे नवरे घरात कित्ती कामं कर असतात ते आणि आमचे हे ध्यान..

कधी कधी वाटतं बिन लग्नाची राहिले असते तरी बरं झाले असतं.. पण असला नवरा.. नको नको ग बाई !

काय म्हणालात? अगं बाई ,ऐकू गेलं वाटतं… बोलणं…” हो हो  अहो मी आहे म्हणून.. दुसरी तिसरी कुणी असती तर कधीच सोडून गेली असती हो…पण काय करणार ? लग्न केलयं ना तुमच्याशी…

ऐकू येतंय म्हणलं मला..

हो हो .. पण तुमचे कसले भोग हो ..? भोग तर माझे आहेत…

अहो, लग्न केलंय ना मग  भोगतेय आता..भोगायलाच हवं..

आता बोलून तरी काय उपयोग आहे ? ..म्हणतातच ना…

आलिया भोगासी असावे सादर ..!

◆◆◆◆◆

© श्री आनंदहरी

अद्वैत, मंत्रीनगर, इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099/9422373433

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गटुळं – भाग-7 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ गटुळं – भाग-7 ☆ श्री आनंदहरी 

(रंगाचा सोपा.. शक्य असेल तर सोप्यात धुरपदाचा हार घातलेला फोटो.. बाकी नेपथ्य पूर्ववत )

भामा  :- ( हातात धुरपदाचं गटूळं )  बरं झालं बाई.. म्हातारी गेली तवा कुनाच्याबी नदरंला पडायच्या आगुदरच म्या गटूळं लपीवलं त्ये.. न्हायतर सारजीची नदार त्येच्यावं पडली असती तर समदंच केल्यालं पान्यात गेलं आसतं.. म्हातारीचं समदं दिस होस्तंवर .. पावनं पै जकडल्या तकडं जास्तंवर..  गटूळं कवा बगतीया.. आन  माळ- पैका आडका कवा घितीया आसं झालं हुतं .. आता  गटूळयातलं पैकं आन माळ  समदं माजं येकलीचंच..

(खाली बसते.. गटूळं उलगडते.. काहीच दिसत नाही.. अविश्वासाने गटूळ्यातला एकेक कपडा इकडं तिकडं टाकते…माळ दिसते तशी खुशीत येऊन माळ उचलते.. )

भामा :-   आँ ss ! येक पैका बी न्हाय गटूळ्यात.. तवा तर म्हातारीनं शंभराची नोट काडलीवती.. पर माळ घावली ही ब्येस झालं..

(खुशीत माळ गळयात घालू लागते तेवढ्यात काहीतरी जाणवून माळ डोळ्यासमोर घेऊन पाहते…) आँ ss !  ही सोन्याची न्हाय … असली माळ तर धा-इस रुपैला बाजारात मिळती .. ( माळ दूर भिरकावते आणि कपाळावर हात मारून घेत ) आरं माज्या दैवा.. म्हातारीनं फशीवलं की मला…

(भामा कपाळावर मारलेला हात तसाच असताना स्तब्ध होते..)

रंगा :- (आतून प्रेक्षकांसमोर येत.. भामाकडे हात करून हसत ) अश्या सुना भेटल्याव.. परत्येक सासुनं आसंच गटूळं सांभाळाय पायजेल… ही बाकी खरं हाय बरंका !

(वर आकाशाकडे पहात हात जोडून उभा राहतो.)

(हळूहळू पडदा पडतो)

समाप्त

© श्री आनंदहरी

अद्वैत, मंत्रीनगर, इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099/9422373433

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गटुळं – भाग-6 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ गटुळं – भाग-6 ☆ श्री आनंदहरी 

ग्रामीण एकांकिका :-   गटुळं

(धुरपदा अंगणात कडेलाच थाटीत तांदूळ निवडत बसलेली असते .. रंगा अंगणात येतो…तिच्याजवळ जाऊन बसतो.. )

रंगा :- आयेss काय करतीयास गं ? “

धुरपदा :- काय न्हाय रं .बस वाईच..चुलीवं भात ठेवायचा हाय.. तांदूळ निवडाय घेतल्यात….   खातूस का वाईच गरम गरम ?

(रंगा काहीच बोलत नाही . गप्प राहून जमिनीकडं बघत बसतो.)

धुरपदा :-  ( मायेने, काळजीने ) रंगा, लेकरा,  गपगुमान का रं बसलायस ? काय हूतंय काय तुला ? “

रंगा  :- काय न्हाय ग आये , काय हुतंय मला..? ती  तांदळाचं ऱ्हाऊंदेल…. चल आदी घरात ..

धुरपदा :-     आरं , माजी लाकडं ग्येलीती म्होरं मसनात, आता घरात काय आन दारात काय ?..येकच की रं “

रंगा :-   आये, उगा कायबाय कशापाय बोलाय लागलीयास  गं ? चल, घरात चल..

धुरपदा :-  लेकरा,  माजं काय रं , तूमी ठयेवशीला ततं आन तसं ऱ्हायाचं… पर बायकूला ईचारलंस का आगुदर ?

रंगा :-   तिला काय ईचारायचं हाय ? घर काय तिच्या बा चं हाय वी ? तू चल …

धुरपदा :-  तसं नगं ल्येकरा , जा. तिला ईचारून ये…   उगा माज्यासाठनं तुमा नवराबायकूत भांडान नगं बाबा.”

रंगा :- ( तिथूनच काहीसं रागाने… अधिकारवाणीने ) भामे ss ए भामेss ! भायेर ये आगुदर .. ( भामा अपराध्यासारखी खाली मान घालून बाहेर येते ) आय ला घरात घिऊन जा..

भामा :- आत्ती, चुकलं माजं.. चला ..घरात चला…

धुरपदा :- ( रंगाला ) आरं, माजं काय हाय रं ?  तुमी म्हंशीला तसं… चल रं लेकरा..ती वाकाळ घे ..( रंगा वाकळ घेऊन भामाकडे देतो..)

रंगा :- आये, ती गटूळं दे की माज्याकडं..

धुरपदा :-  असू दे बाबा.. आगुदरच माजं वजं तुमच्याव हाय .. त्यात आनी गटूळयाचं वजं कशापायी रं ? … ऱ्हाऊंदेल घेत्ये म्याच..

 (पुढं भामा, मागून रंगाचा हात धरून  गटूळं घेतलेली धुरपदा असे आत जात असताना प्रकाश कमी होत होत अंधार होतो )

अंधार

क्रमशः…

© श्री आनंदहरी

अद्वैत, मंत्रीनगर, इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099/9422373433

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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