(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पाप…)
☆ पुरस्कृत लघुकथा – पाप… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
(कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-2024 में प्रथम पुरस्कार प्राप्त लघुकथा)
कन्या पैदा हुई। घर के सब लोग एकदम ख़ामोश थे। कन्या के गले में तम्बाकू रख दिया गया, कन्या हिचकी भी नहीं ले पाई। दो मर्दों ने, जिनमें से एक कन्या का पिता था, गड्ढा खोदा और निरासक्त भाव से उसे धरती के अँधेरे में पहुँचा दिया। दफ़न के वक्त कन्या के पिता ने कन्या से कहा, “जा, जहाँ से आई थी, आगे अब भैया को भेजना।”
कन्या का पिता कन्या को दफ़न करने और पुजारी जी को सीधा पहुँचाने के बाद कन्या की माँ के पास आ बैठा। वह रो रही थी। कन्या के पिता ने कहा, “रोती क्यों हो? वंश तो बेटे से ही चलेगा न!”
“हमारा अंश थी वह! दुनिया मे आई और आँख खोलने से पहले चली भी गई। भारी पाप लगेगा हमें।”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक लघु कथा – “पत्तों की जादूगरनी…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 346 ☆
लघु कथा – पत्तों की जादूगरनी… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
किले से शहर जाने वाली सड़क, दिन भर पर्यटकों की आमादरफ्त होती रहती थी।
अपनी आजीविका के लिए मालिन हरिया सड़क किनारे कभी फूलों से तो कभी पेड़ पौधों की टहनियों से अनोखी कलाकृति बनाया करती थी। पर्यटक बरबस रुकते, जो तेज रफ्तार आगे निकल जाते वे भी लौटने पर मजबूर हो जाते। लोग उसके आर्ट की प्रशंसा करते, सेल्फी लेते, फोटो खींचते। इनाम में हरिया को इतना तो मिल ही जाता कि उसकी गुजर बसर हो जाती, यह हरिया मालिन की कला का जादू ही था।
हर दिन एक नई योजना हरिया के हुनर में होती थी। कभी छींद के पत्तों से वह पंखा बना लेती तो कभी नारियल के खोल की गुड़िया बनाकर बेचा करती थी। कभी टेसू के फूलों से सजावट करती, तो कभी गेंदें के फूलों की बड़ी सी रंगोली डालती।
एक संस्था ने हरिया के ईको आर्ट की प्रदर्शनी भी शहर में लगवाई थी, जिसकी खूब चर्चा अखबारों में हुई थी।
हरिया को भी लोगों के प्रोत्साहन से नया उत्साह मिलता, वह कुछ और नया नया करती।
आज हरिया ने हरी पत्तियों से कला का ऐसा जादू किया था कि तोतों की ढेर सारी आकृतियां बिल्कुल सजीव बन पड़ी थीं। “पत्तों की जादूगरनी” सड़क किनारे अपनी कला का जादू बिखेर रही थी, मन ही मन संतुष्ट और प्रसन्न थी।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – आत्मनिर्भरता।)
पंद्रह दिन हो गये दुबे जी का निधन हुए. सारे रिश्तेदार अपने घर लौट गए. बेटा बहू परसों ही बैंगलोर जाने वाले हैं।
वे माँ से बोले – आप भी चलो। आप अकेले यहां रहकर क्या करोगी?पड़ोस के वर्मा अंकल और भी कई लोग मकान हमारा खरीदना चाहते हैं, अच्छे पैसे भी दे रहे हैं। यह मकान बेच देंगे।
– मकान बेचने के विचार से पहले कम से कम एक बार मुझसे चर्चा तो करना था । इस मकान की मालकिन तुम्हारे पापा ने मुझे बनाया है। उन्होंने यह मेरे नाम से ही खरीदा था। हम दोनों ने इसे बड़े प्यार से सजाया है।
कमल जी गुमसुम छत पर बैठकर आगे के जीवन की उधेडबुन मे लगी थी।
कैसै कटेगा यह शेष जीवन? दुबे जी मुझे कभी कुछ करने नहीं दिया। हर काम में हमेशा मेरा साथ दिया। अब अकेले क्यों छोड़ कर चले गए?
पडोसन सखी रागिनी आई और बोली- क्या हुआ बहन जी आप यहां छत पर अकेले क्यों बैठी हो? कुछ खाना खाया या नहीं। चलो साथ में थोड़ा पार्क में घूमते हैं।
कुछ सोचते हुए कमल ने पडोसन से कहा – रागिनी तुम कह रही थी कि पास में इंजीनियरिंग कॉलेज के बच्चे घर मकान ढूंढ रहे हैं। वह पेइंग गेस्ट की तरह रहना चाहते हैं। क्या उन्हें तुम मेरे घर बुला लाओगी। मैं उन्हें अपने घर में रखूंगी। ध्यान देना लड़कियां होनी चाहिए। देखो रागिनी तुम मेरी मदद करना।
चलो मैं अभी उनसे मिला देती हूं वह तीन लड़कियां पास में बंटी की मम्मी के यहां रहती हैं वह उन्हें बड़ा परेशान करती है।
– बेटी निशा तुम लोग घर ढूंढ रही हो ना यह आंटी का घर पार्क के पास है देखा है ना। क्या वहां पर तुम लोग रहोगे? जितना पैसा यहां देते हो उतना ही वहां पर देना पड़ेगा और तुम्हें आराम रहेगा।
– ठीक है आंटी हम थोड़ी देर बाद अपना सामान लेकर आप बोलो तो घर आ जाते हैं क्योंकि यह आंटी तो हमसे घर खाली करा रही हैं।
– चलो बेटा साथ में घर देख लो।
घर देख कर वे बोलीं – आपका घर तो बहुत अच्छा है हम तीनों लड़कियां 5000 आपको देगी।
तभी बेटे अविनाश ने कहा – माँ, यह क्या नाटक लगा के रखा है?
– देखो अविनाश मैं तुम्हारे घर जाकर नहीं रहूंगी। तुम लोगों का जितना दिन मन करता है इस घर में रहो बाकी मैं अपना खर्चा चला लूंगी। तुम लोगों से एक पैसा नहीं मांगूंगी। तुम्हारे दरवाजे पर नहीं जाऊंगी और अपना घर भी नहीं बेचूंगी ।
जिंदगी भर कभी काम नहीं किया पर मैं अब आत्मनिर्भर बनूंगी।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम एवं विचारणीय लघुकथा “स्नेह का साहित्य”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 ☆
🌻लघुकथा🌻 स्नेह का साहित्य
आजकल पूरी जिंदगी पढ़ते-पढ़ाते, सीखते-सीखाते निकलती है। जिसे देखो पाने की चाहत, सम्मान की भूख, और मीडिया में बने रहने की ख्वाहिश।
पारिवारिक गाँव परिवेश से पढ़ाई करके अपने आप को कुछ बन कर दिखाने की चाहत लिए, गाँव से शहर की ओर वेदिका और नंदिनी दो पक्की सहेली चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।
हॉस्टल की जिंदगी जहाँ सभी प्रकार की छात्राओं से मुलाकात हुई। परन्तु दोनों बाहरी वातावरण, चकाचौंध से दूर, सादा रहन-सहन, पहनावे में भी सादगी, बेवजह खर्चो से अपने आप को बचाती दोनों अपने में मस्त।
साहित्यकार बनने की इच्छा। इस कड़ी में जगह-जगह से साहित्यकारों का साक्षात्कार एकत्रित करती फिरती थी। चिलचिलाती धूप, न टोपी, न काला चश्मा और न ही छाता।
आटो में बैठते वेदिका बोल उठी — “नंदिनी हम जहाँ जा रहे हैं। बहुत दूर है। रास्ता भी ठीक से नहीं मालूम। सुना है साहित्यकार समय के बड़े पाबंद होते हैं। शब्दों में ही सुना देते हैं। पानी भी नहीं मिलता। क्या हम लोगों को संतुष्टी मिल पायेगी?”
आटो वाले ने अनजान लोगों का फायदा उठा अचानक एक जगह पर उतार कहने लगा — “बस यहाँ से आप पैदल निकल जाए वो रहा उनका घर।”
सभी से पूछने पर पता चला– ये तो वो जगह है ही नहीं। दोनों को समझ में आ गया हम रास्ता भटक चुके हैं।
समय से विलंब होता देख साहित्यकार का मोबाइल पर कॉल आया — “कहाँ हैं आप लोग?” घबराहट से बस इतना ही बोल पाई वेदिका – -“हमें नहीं मालूम मेडम हम कहाँ हैं। सभी – अलग-अलग बता रहे हैं।”
“जहाँ खड़े हो वही खड़े रहिए। किसी होटल या चौक का नाम बताओ। मै आ रही हूँ।” दोनों मन में न जाने क्या- क्या सोच रही थी।
अचानक टूव्हीलर रुकी – – “आप दोनों ही हो। चलो गाड़ी में बैठो। घर में बात होगी।”
चुपचाप गाड़ी में बैठी – – ममता, अपनापन, दुलार और नेह की बरसात होते देख दोनों का ह्रदय साहित्य के प्रति और गहरा होता चला गया। शब्दों से साहित्य को सजते सँवरते देखा था।
आज तो वेदिका, नंदिनी की आँखे भर उठी, नेह, ममत्व, ममता से भरा साहित्य निसंदेह समाज को सुरक्षित और सम्मानित करता है।
कड़कती धूप भी आज उन्हें माँ के आँचल की तरह सुखद एहसास करा रही थी।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– शापित मातृत्व…” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — शापित मातृत्व… —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
माँ अपनी बेटी को दामाद के हाथों मार से बचाने के लिए रोते कलपते वहाँ पैसे पहुँचाती थी। अपना बेटा भी तो दुष्ट ही था। अपनी दुखी बहू के कहने पर उसकी माँ रोते कलपते उसके घर पैसा लाती थी। बाद में दोनों माएँ भीख मांगते रास्ते पर मिलीं। इस शापित मातृत्व पर कहानी लिखना लेखक को बहुत जरूरी लगा। उसने दोनों माँओं को सौ सौ का एक एक नोट दे कर उन से यह कहानी खरीदी।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “खोया हुआ कुछ…”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
-सुनो।
-कौन?
-मैं।
-मैं कौन?
– अच्छा। अब मेरी आवाज भी नहीं पहचानते?
– तुम ही तो थे जो काॅलेज तक एक सिक्युरिटी गार्ड की तरह चुपचाप मुझे छोड़ जाते थे। बहाने से मेरे काॅलेज के आसपास मंडराया करते थे। सहेलियां मुझे छेड़ती थीं। मैं कहती कि नहीं जानती।
– मैं? ऐसा करता था?
– और कौन? बहाने से मेरे छोटे भाई से दोस्ती भी गांठ ली थी और घर तक भी पहुंच गये। मेरी एक झलक पाने के लिए बड़ी देर बातचीत करते रहते थे। फिर चाय की चुस्कियों के बीच मेरी हंसी तुम्हारे कानों में गूंजती थी।
– अरे ऐसे?
– हां। बिल्कुल। याद नहीं कुछ तुम्हें?
– फिर तुम्हारे लिए लड़की की तलाश शुरू हुई और तुम गुमसुम रहने लगे पर उससे पहले मेरी ही शादी हो गयी।
-एक कहानी कहीं चुपचाप खो गयी।
– कितने वर्ष बीत गये। कहां से बोल रही हो?
– तुम्हारी आत्मा से। जब जब तुम बहुत उदास और अकेले महसूस करते हो तब तब मैं तुम्हारे पास होती हूं। बाॅय। खुश रहा करो। जो बीत गयी सो गयी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हँसो कि…)
☆ लघुकथा – हँसो कि… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
सिर के बल चलता हुआ वह ऐसे लग रहा था कि जैसे कोई हाँडी लुढ़कती आ रही हो। उसके आगे-पीछे भीड़ थी। भीड़ में से कुछ लोग उस पर पत्थर फेंक रहे थे। जब भी पत्थर पड़ता, वह बिलबिलाकर पत्थर मारने वाले के पीछे भागता और फिर वापस रास्ते पर लौट आता। वह वीभत्स दिखता था और हास्यास्पद भी। उसकी टाँगें बाँहो की जगह पर चिपकी थीं और बाँहें टाँगों की जगह। उसकी आँखें पीठ पर थीं, इसी कारण वह बार-बार ठोकर खा रहा था। कान बाँहों पर चिपके थे, नाक हथेली पर रखी थी, सिर के बाल पेट पर लटक रहे थे। दोनों टाँगें विपरीत दिशाओं में घिसटती हुई ज़मीन को कुरेदे जा रही थीं, हाथ हवा में टहनियों की तरह झूल रहे थे। यह तो मैं जानता था कि पिछले काफ़ी समय से विशेषज्ञों की देखरेख में इसके सौंदर्यीकरण का काम चल रहा था, पर इसका यह सौन्दर्यीकृत रूप देखकर मुझे बरबस हँसी आ गई।
“हँसो, हँसो, ख़ूब ज़ोर से हँसो, तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को तो रोना ही है।” इतिहास की आवाज़ में चीत्कार था, धिक्कार था, हँसी थी, जो रुदन के कंठ में फँसी थी।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “वॉइस नोट… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 345 ☆
लघु कथा – वॉइस नोट… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
बेटे बहू दुबई में बड़े पद पर काम करते हैं, रमेश जी उनके पास कुछ समय के लिए चले आया करते हैं। आज उनका वीजा समाप्त हो रहा था, उन्हें वापस दिल्ली लौटना पड़ेगा ।
रमेश जी के जागने से पहले ही बच्चे ऑफिस जा चुके थे। उन्होंने अपना बैग संभाला , तो केयर टेकर शांति दीदी दरवाजे पर एक थैले में टिफिन, पानी की बोतल और दवाइयों की छोटी डिब्बी लिए खड़ी थीं । रमेश जी बोले अरे यह रहने दो, मुझे फ्लाइट में ही खाने को कुछ मिलेगा ।
शांति ने कुछ कहा नहीं, उसने अपना मोबाइल चालू किया और एक वाइस नोट सुना दिया , शांति दीदी! वॉइस नोट में बहू की आवाज़ थी, “आज पापा दिल्ली वापस जा रहे हैं। वो मना करेंगे टिफिन ले जाने से, लेकिन आप उनकी मत सुनना। टिफिन पैक कर देना। दवाई और पानी भी साथ रख देना।”
रमेश जी चुपचाप बच्चे की तरह टिफिन तो लिया ही, साथ ही शांति के मोबाइल से वह वाइस नोट भी खुद को फॉरवर्ड कर लिया ।
दिल्ली में सुबह की चाय के साथ अपने कमरे में बैठे वे बारम्बार मोबाइल पर वही वाइस नोट सुन रहे थे । उनके चेहरे पर न दिखने वाली खामोश मुस्कान थी, और आँखों में नमी। वे रॉकिंग चेयर पर टिक गए। फिर से मोबाइल वही वाइस नोट दोहरा रहा था।
बहू से उनकी ज़्यादा बातें नहीं हो पातीं थी। वह ऑफिस में बड़े जिम्मेदारी के पद पर थी। लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि उसकी अनबोली खामोशी में भी कितना अपनापन और फिक्र छुपी होती है।
वह वॉइस नोट सिर्फ शब्द नहीं थे , उसमें परिवार की धड़कन थी ।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – सपना
बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।
उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।
अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके हाथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।
अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।
तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।
आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है
प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दहलीज।)
“उषा, उषा अरे उषा तुम कहां हो?” अचानक आई आवाज से उषा सहम गई।
सोचने लगी आज भैया मुझे क्यों इतनी जोर-जोर से आवाज देकर बुला रहे हैं ? आज तक तो ऐसे कभी घबराए हुए देखा नहीं?
“क्या मुझसे कोई गलती हुई है भैया जो आप मुझे बुला रहे हैं ?”
तभी अचानक भैया ने आकर झकझोरा- “तू ठीक है न।”
उसके बड़े भाई अनुराग ने स्वयं को संभालते हुए कहा – “नहीं नहीं कुछ नहीं?”
“सुनो तुम अपना ख्याल रखना और घर से बाहर कोई भी काम हो तो मुझे बताना। मैं तुम्हारे सारे काम कर दूंगा?”
“क्यों भैया? मैं भी तो कर सकती हूं? आज से पहले तो भैया आपने ऐसी बात नहीं की। अचानक आपको क्या हुआ?”
“तुम तो बड़ी क्लास में आ गई हो और अपनी जिम्मेदारियां को समझ जितना बोल रहा हूं उतना ही सुन कल से तुझे स्कूल भी मैं ही छोडूंगा।”
“भैया क्या मैंने दसवीं पास करके कोई गुनाह कर लिया क्या? कक्षा में सारे लोग मेरे ऊपर हसेंगे।”
“ज्यादा सवाल मत कर तू हम दोनों भाइयों के बीच में एक लाडली बहन है।”
“हां लेकिन भैयाजी छोटे को तो कुछ नहीं बोलते हो मेरे ऊपर क्यों शासन लगा रहे हो?”
“चाचा जी और उनके पड़ोस के लड़कों किसी से भी बात मत करना। उषा तुम छोटी बहन हो लेकिन मेरी बेटी जैसी हो। बाहर की दुनिया तुम नहीं समझोगी।”
अभी अभी बाहर से वह सभी देख कर आ रहा था जो वह बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
“आजकल तो ऐसा जमाना आ गया है की तेरी सहेली कविता के साथ क्या हुआ तुझे पता नहीं है आजकल तो घर में भी लोग सुरक्षित नहीं है।”
बाहर जो भी हुआ वह डरावने सपने जैसा उसकी आंखों के सामने बार-बार आ रहा था। दिनदहाड़े बीच बाजार में एक लड़की को सरेआम लूटा गया। वही देखकर उसका मन डर गया था।
“तू अपने घर की दहलीज कभी मत पर करना वह उसे लड़के को चाहती थी । किसी के ऊपर भी विश्वास और भरोसा नहीं करना चाहिए एक बात ध्यान रखना कि घर के बड़ों की बात मानना क्योंकि हम दोनों भाई हैं और हमारे घर में कोई नहीं है तुम्हारे सिवाय और तुम्हें समझाने के लिए । कभी भी अपने घर की दहलीज को मत पार करना।”