हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 33 ☆ लघुकथा – पंख होते तो उड जाते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा   “ पंख होते तो उड जाते”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद  अतिसुन्दर शब्दशिल्प से सुसज्जित लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 33☆

☆  लघुकथा – पंख होते तो उड जाते

लॉन के कोने में  आम का एक घना पेड है. एक दिन पेड के बीचोंबीच एक चिडिया की आवाजाही जरा ज्यादा ही दिखी,  मैंने आम की डाल को हटा कर धीरे से देखा – अरे वाह ! चिडिया रानी घोंसला बना रही हैं, मन खुश हो गया. पक्षियों की चहल – पहल पूरे घर में रौनक ला देती है. चिडिया अपनी छोटी सी चोंच में घास – फूस, धागे का टुकडा तो कभी सुतली लेकर आती. धीरे – धीरे घोंसला बन रहा था , मैं चुपचाप जाकर उसकी बुनावट देखती कुछ पत्तों को धागे और  सुतली से ऐसे जोड दिया था मानों किसी इंसान ने सुईं धागे से सिल दिया हो, कैसी कलाकारी है इन पक्षियों में,  कौन सिखाता है इन्हें ये सब. इंसानों की दुनिया में दर्जनों कोचिंग क्लासेस हैं,जो चाहे सीख लो,  पर ये कैसे सीखते हैं ? नजरें आकाश की ओर उठ गईं.

चिडिया ने कब  घोंसला बना लिया और कब उसमें अंडे आ गए मुझे कुछ पता ही न चला.  एक दिन चूँ – चूँ   की मोहक आवाज ने लॉन को गूँजा दिया. चिडिया रानी अब नन्हें- नन्हें चूजों की माँ थी और अपना दायित्व निभा रही थीं. फुर्र से उडकर जाती और नन्हीं सी चोंच में दाने लाकर चूजों के मुँह में डाल देती. ना जाने कितने चक्कर लगाती थी वह. तीनों बच्चे चोंच  खोले चूँ- चूँ, चीं -चीं करते रहते. इनकी  मीठी आवाजों से आम का पेड  गुलजार  था और मेरा मन भी.

चिडिया रानी अब अपने बच्चॉं को उडना सिखाने लगी थी. वह उडकर पेड की एक  डाल पर बैठती और पीछे पीछे बच्चे भी आ बैठते. फिर पेड से उडकर छत की मुंडेर पर बैठने लगी. बच्चे कुछ उडते,  कुछ फुदकते उसके पीछे आ जाते. और फिर एक दिन  चिडिया ने लंबी उडान भरी, बच्चे उडना सीख गए थे, उनके पंखों में जान आ गई थी,  अब उनकी  अलग दिशाएं थीं, अपने रास्ते.  ना चिडिया लौटी, ना बच्चे. आम के पेड पर घोंसला अब भी वैसा ही था  पक्षियों के जीवन की कहानी कहता हुआ,  बच्चों को जन्म दिया, खिलाया, पिलाया, उडना सिखाया और बस. इंसानों की तरह ना अकेलापन, ना बेबसी, ना कोरोना,  ना रोना .

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 51 – नकल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “नकल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 51 ☆

☆ लघुकथा –  नकल ☆

 

परीक्षाहाल से गणित का प्रश्नपत्र हल कर बाहर निकले रवि ने चहकते हुए जवाब दिया, “निजी विद्यालय में पढ़ने का यही लाभ है कि छात्रहित में सब व्यवस्था हो जाती है.”

“अच्छा.” कहीं दिल में सोहन का ख्वाब टूट गया था.

“चल. अब, उत्तर मिला लेते है.”

“चल.”

प्रश्नोत्तर की कापी देखते ही रवि के होश के साथ-साथ उस के ख्वाब भी भाप बन कर उड़ चुके थे. वही सोहन की आँखों में मेहनत की चमक तैर रही थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दो-दो नाकें ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं /महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। आज प्रस्तुत है  उनकी एक सार्थक लघुकथा “ दो-दो नाकें”। )

☆ लघुकथा – दो-दो नाकें ☆  

एक आदमी एक  साथ आधा दर्जन बकरियाँ खरीद लाया. घास पत्ती खाकर बकरियां अपना परिवार बढ़ाने लगी. मोहल्ले के बच्चे बकरियों के छौने खिलाने लगे. पड़ोसी के घर घी – दूध की नदी बहने लगी. सुबह-सुबह महंगे दामों पर बकरी का शुद्ध दूध खरीदने वालों की कतारें लगने लगीं.

मोहल्ले वालों में फिर शीघ्र ही बकरी मालिक से मतभेद बढ़ने लगा. उसकी  संपन्नता मोहल्ले वालों से देखी नहीं जा रही थी.

वे सब बकरी मालिक से बोले- भाई जी, बकरियों ने हमारी नींदे खराब कर दी है. उनके मल मूत्र की गंध ने हमारा सुख चैन छीन  लिया है. आप शीघ्र ही इसका कोई उपाय कीजिए.

बकरी वाला पूरी निडरता से बोला-  बकरियां तो गांधी बाबा के पास भी थीं. उनकी बकरियों से तो किसी को भी शिकायतें  नहीं रहीं. मेरी बकरियों की दुर्गंध आपको कैसे आने लगी. आपके पास दो दो नाकें है क्या?

बकरी मालिक और पड़ोसियों के बीच एकाएक गांधीजी आ खड़े हुए तो सबकी बोलती बंद हो गयी.

आज भी गांधी बाबा इसी तरह हरिजनों -गिरीजनों के बीच उनकी लाठी बनकर खड़े हो जाएं तो क्या कीजिएगा?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ लाठी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है  उनकी एक अतिसुन्दर  एवं सार्थक लघुकथा “ लाठी ”। )

☆ लघुकथा – लाठी ☆  

“यह किसकी लाठी है?”

“मेरे दादाजी की  है जी.”

“और यह लाठी ?”

“दादाजी के दादाजी की है जी. ”

“और उस कोने में  रखी वह लाठी?”

“दादा जी के दादाजी के दादाजी की है जी.”

“अजीब देश है तुम्हारा जी, जहां देखो जिसके हाथ में देखो, लाठी मिलेगी. बिना लाठी यहां के लोग चल नहीं सकते है क्या? ”

“ठीक कहा है जी आपने, इन सभी लाठियों के ऊपर है गांधी बाबा की लाठी.”

“वही पुरानी सी पतली सी लाठी!”

“हां वही पुरानी पतली सी लाठी, जिसने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी…… अरे एक युग हांक दिया था उस लाठी ने जी. ”

“वह तो मैंने अखबारों में पढ़ा था. लाठियों की  पीढ़ियां देखने मिल गई. कभी कुछ लिखने लायक हुआ तो लाठियों पर पी.एच.डी. जरूर करूंगा. काश! गांधी बाबा हमारे देश में पैदा हुए होते, मेरे ऊपर एक कृपा करना, देश लौटते समय एक लाठी मुझे भी भेंट कर देना.”

एक विदेशी पर्यटक इस देश का मेहमान बना था. जाते समय वह एक लाठी लेकर अपने देश चला गया.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ कहानी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  लघुकथा – कहानी

‘यह दुनिया की सबसे लम्बी कहानी है। इसे गिनीज बुक में दर्ज़ किया गया है,.’ जानकारी दी जा रही थी।

वह सोचने लगा कि पहली श्वास से पूर्णविराम की श्वास तक हर मनुष्य का जीवन एक अखंड कहानी है। असंख्य जीव, अनंत कहानियाँ..। हर कहानी की लम्बाई इतनी अधिक कि नापने के लिए पैमाना ही छोटा पड़ जाए।…फिर भला कोई कहानी दुनिया की सबसे लम्बी कहानी कैसे हो सकती है..?

इस कहानीकार का हर कहानीकार को नमस्कार।

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रातः 6:30 बजे, 26.5.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 32 ☆ लघुकथा – दूरदर्शिता ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक  “ बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता ”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 32☆

☆  बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता 

पानी से लबालब भरे एक तालाब में दो मछलियां रहती  थीं – दूरदर्शी और नुक्ताचीनी  , दोनों अच्छी दोस्त थीं पर स्वभाव में एक दूसरे के विपरीत. दूरदर्शी गंभीर स्वभाव की थी और हर काम सोच- समझकर किया करती थी. नुक्ताचीनी आलसी थी और हर बात को हँसकर हवा में उडा देती थी. उसका कहना था जो होगा देखा जाएगा. दूरदर्शी बहुत कोशिश करती थी उसे समझाने की, सही रास्ते पर लाने की लेकिन वह तो अपनी मर्जी की मालिक थी.

एक दिन दूरदर्शी तालाब की दीवार से सटी आराम कर रही थी तभी उसने दो मनुष्यों को आपस में बात करते सुना —‘ इस तालाब में बहुत मछलियां होंगी कल सबेरे आकर जाल डालेंगे, खूब कमाई होगी ‘. दूरदर्शी ने जल्दी से जाकर अन्य  मछलियों को सारी बात बताई और बोली हम सबको दूसरे तालाब में चले जाना चाहिए, नहीं तो जाल में फँस जाएंगे. यह सुनकर नुक्ताचीनी हँसकर बोली – अरे ये तो ऐसे ही डराती रहती है, जरूरी नहीं है कि कल वो आदमी जाल लेकर आ ही जाएं,कल की कल देखेंगे और यह कहकर वह तेजी से  गहरे पानी में चली गई.  दूरदर्शी क्या करती,वह चुप रही और सुबह होने का इंतजार करने लगी.

सुबह तालाब में ऊपर आकर उसने नजर दौडाई, देखा,  दो आदमी जाल लिए चले आ रहे थे. वे तालाब में जाल डालने की तैयारी करने लगे.वह  तेजी से अपनी सखियों से बोली – जल्दी से सब निकल चलो यहाँ से,  मछुआरे आ गए हैं. नुक्ताचीनी ने अब भी उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया. मछुआरों ने जाल डाला और नुक्ताचीनी उसमें फँस गई. वह बेबस निगाहों से अपनी सखियों की ओर देख रही थी पर अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत ?

दूरदर्शी  मछली अपनी दूरदर्शिता से दूसरे  तालाब  में अन्य सखियों के साथ जीवन का आनंद उठा रही थी. सच ही है दूरदर्शिता जीवन में बहुत से संकटों से हमें बचा लेती है.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 50 – काँच की दीवार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “काँच की दीवार । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 50 ☆

☆ लघुकथा –  काँच की दीवार  ☆

 

“लड़कियों को छूट देना, मन चाही जगह जाने देना, ज्यादा रोका टोकी नहीं करना, अच्छे कालेज में पढ़ाना, मनचाहा मोबाइल देना – इन्ही सब वजह से लड़कियां बिगड़ जाती है. मैंने तुझे कहा था की मोना को ज्यादा लाड़ प्यार मत कर. बिगड़ जाएगी. यह उसी का नतीजा है कि तेरी लड़की ने भाग कर दूसरी जाति के लड़के से शादी कर ली. एक मेरी लड़की टीना को देख….,” मोहन अपने छोटे भाई के जले पर नमक छिटक रहे थे.

तभी मोहन जी के लडके ने आ कर कहा, “पापाजी ! मामाजी का फोन है. कह रहे है कि टीना ने ही मोना की शादी का बंदोबस्त किया था.”

मोहन जी को लगा कि अभी-अभी वे जिन शब्दों से अपने स्वाभिमान रूपी कांच की दीवार खड़ी कर रहे थे उसे उन की लड़की मोना के व्यवहार रूपी पत्थर से चकनाचूर हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०४/०८/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी ☆ कलयुग का कल्पतरु ☆ श्री सूरज कुमार सिंह

श्री सूरज कुमार सिंह 

(युवा साहित्यकार श्री सूरज कुमार सिंह जी  ने साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न प्रयोग किये हैं।  वृद्धावस्था में अकेलेपन को लेकर रचित यह लघुकथा भी ऐसे ही प्रयोग का परिणाम है।  अतिसुन्दर शब्दशिल्प में रचित इस लघुकथा कलयुग का कल्पतरु की सकारात्मकता अन्तर्निहित है। ) 

☆ कलयुग का कल्पतरु ☆

कल्पतरु वृक्ष से जुड़ी एक अनोखी मान्यता है। ऐसा माना जाता है कि यह वृक्ष समुद्र मंथन से उत्पन्न हुए थे और यह भी कि ये लोगों की इच्छाएं पूरी करते हैं। इसके पत्ते भी सदाबहार रहते हैं। भारत मे ऐसे सिर्फ नौ वृक्ष हैं।  इनमे से दो, जवाहर मिश्र जी उर्फ़ पंडित जी के रांची स्थित आवास के समीप हैं।

हर प्रातः काल भ्रमण के दौरान वे कल्पतरु के पास से गुज़रते थे। उन्हे दोनो वृक्षों और अपने बीच एक समानता की अनुभूति होती और अंतर्मन मे एक सहानुभूति भी। यह एक सत्य है की वह स्वयं भी प्रिय जनो की इच्छाएं पूरी करने वाले बनकर रह गए थे।  पर वह  कल्पतरु की तरह सदाबहार नही थे। उम्र निरंतर ढल रही थी। हां, पर फिर भी एक और समानता अवश्य थी! जिस तरह मनोकामना की पूर्ति होते ही लोग कल्पतरु वृक्ष को भूलकर उससे दूर चले जाते, पंडित जी के प्रिय जनों ने भी उनके साथ ठीक यही किया था।

पर पंडित जी इतने कमज़ोर दिल वाले भी नही थे। पत्नी के गुज़र जाने के बाद अपने जीवन की राह सुनिश्चित की और उस पर तब तक चलते रहे जब तक कदम खुद-ब-खुद रुके। वह भले  ही ज़्यादा समय हमारे बीच नही रहे पर जब तक जिये विराट कल्पतरु के समान, पूरे आत्मसम्मान से जिये।

 

© श्री सूरज कुमार सिंह

रांची, झारखंड   

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 48 – लघुकथा – सुधारस ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “ सुधारस  ।  जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार मानव  के चरित्र के भी दो पहलू होते हैं । व्यक्ति की पहचान तो समय पर ही होती है। ऐसे कई तथ्यों को लेकर आई  हैं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी वास्तव हम किसी के प्रति जैसी धारणा बना लें हमें वह वैसा ही दिखने लगता  है।  रिश्तों पर लिखी गई एक सार्थक एवं अतिसंवेदनशील सफल लघुकथा।  इस सर्वोत्कृष्ट  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 48 ☆

☆ लघुकथा  – सुधारस

ट्रिन – ट्रिन फोन की घंटी बजी। हेलो बिना सुने ही  सामने से  रोती हुई आवाज़ “सुधीर, तुम्हारे बड़े भैया को  दिल का दौरा पड़ा है। उन्हें लेकर हम अस्पताल जा रहे हैं। दया कर कुछ रुपए का इंतजाम कर देना।”

“मैं सब लौटा दूंगी घर को गिरवी रख कर। मेरी बात पर विश्वास करना, भगवान के लिए” और फोन बंद हो गया।

सुधीर उस समय बाथरूम में स्नान कर रहा था। जल्दी-जल्दी ऑफिस जाना था। इसलिए अपनी धर्मपत्नी को आवाज लगा कर बोला…” मेरा टिफिन तैयार कर देना सुधा, आज लेट हो गया हूं खाना नहीं खाऊगां।”

सुधा भी कुछ नहीं बोली। “अभी लीजिए” कह कर डिब्बा जल्दी पकड़ा। सुधीर के जाने के बाद जल्दी जल्दी तैयार हो जरूरी समान रख, अस्पताल के लिए निकल पड़ी।

जेठानी जी ने देखा कि देवरानी सुधा सिढ़ियों से चली आ रही है। वह जोर जोर से रोने लगी। उसने समझा आज फिर कुछ लड़ाई हो गई है सुधीर और सुधा के बीच हम लोगों को लेकर। तभी तो सुधीर नहीं आया। पर उसका अंदाज गलत निकला।

सुधा ने गले लगा कर कहा “दीदी यह कुछ रुपए और सारा इंतजाम करके मैं आई हूं। जेठजी को कुछ नहीं होगा। फोन मैंने ही उठाई थी। बस आप डॉक्टर को ऑपरेशन के लिए हां बोल दीजिए।”

कागजी कार्यवाही और चेकअप के बाद इलाज तत्काल शुरू हो गया। सुधा के जेठ जी खतरे से बाहर हो गए। तब तक शाम हो चली। सुधा ने कहा” दीदी अब मैं घर जा रही हूं आप चिंता ना करना। मैं फिर आऊंगी।”

ऑफिस से निकलते समय सुधीर का पड़ोसी, जो कि उनके भैया को अस्पताल पहुंचा कर आया था मिल गया। उसने बताया कि “भैया का ऑपरेशन सफल हो गया और अब खतरे से बाहर हैं।” इतना सुनते ही सुधीर परेशान सा हो गया और भागते हुए गाड़ी चलाकर ऑफिस से अस्पताल की ओर निकल पड़ा। अस्पताल के जाते तब उसने रास्ते में सोचा कि पता नहीं भाभी ने मुझे खबर क्यों नहीं दिया! क्या मैं इतना पराया हो गया ? हाँफते हुए वह सीढियां चढ अस्पताल पहुंचा। भाभी के सामने पहुंचा।

भाभी रोते हुए मुस्कुरा कर बोली “सुधा इतनी भी खराब नहीं है। जितना हमने सोच लिया था।” सुधीर को कुछ समझ नहीं आया। भाभी ने सब कहानी बताई। सारा पैसों का इंतजाम और अस्पताल की पूरी देख रेख सुधा ने किया है और यह भी कह कर गई कि ‘अब हम सब अस्पताल से घर जाकर, एक साथ रहेंगे।’ ऐसा बोल गई है। आज सुधीर भाभी से बोल रहा था “सच में मैं हार गया, सचमुच सुधा रस से” और मुस्कुरा उठा।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विनिमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  विनिमय

…जानते हैं, कैसा  समय था उन दिनों! राजा-महाराजा किसी साम्राज्य से संधि करने या लाभ उठाने के लिए अपने कुल की कन्याओं का विवाह शत्रु राजा से कर दिया करते थे।  आदान-प्रदान की आड़ में हमेशा सौदे हुए।

…अत्यंत निंदनीय। मैं तो सदा कहता आया हूँ कि हमारा अतीत वीभत्स था। इस प्रकार का विनिमय मनुष्यता के नाम पर धब्बा है, पूर्णत: अनैतिक है।

पहले ने दूसरे की हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ-वहाँ से होकर बात विषय पर आई।

…अच्छा, उस पुरस्कार का क्या हुआ?

…हो जाएगा। आप अपने राज्य में हमारा ध्यान रख लीजिएगा, हमारे राज्य में हम आपका ध्यान रख लेंगे।

विषय पूरा हो चुका था। उपसंहार के लिए वर्तमान, अतीत की आलोचनाओं में जुटा था।  भविष्य गढ़ा जा रहा था।

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 7:17 बजे, 18.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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