हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 23 ☆ लघुकथा – आ अब लौट चलें ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “आ अब लौट चलें”।  यह लघुकथा हमें जीवन  के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जिसे हम  जीवन की आपाधापी में मशगूल होकर भूल जाते हैं।  फिर महामारी के प्रकोप से बच कर जो दुनिया दिखाई देती है वह इतनी बेहद खूबसूरत क्यों दिखाई देती है ?  वैसे तो इसका उत्तर भी हमारे ही पास है। बस पहल भी हमें ही करनी होगी। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 23 ☆

☆ लघुकथा – आ अब लौट चलें

वही धरती, वही आसमान, वही सूरज, वही  चाँद, हवा वही,  इधर- उडते  पक्षी भी  वही, फिर क्यों लग रहा है कि कुछ  तो अलग है ?  आसमान  कुछ ज़्यादा ही  साफ दिख  रहा है, सूरज देखो कैसे  धीरे- धीरे  आसमान  में  उग  रहा  है, नन्हें अंकुर सा,  पक्षियों  की आवाज कितनी मीठी है ?  अरे ! ये  कहाँ  थे अब तक ? अहा ! कहाँ  से आ  गईं   इतनी रंग – बिरंगी  प्यारी चिडियाँ  ? वह मन ही मन हँस पडा.

उत्तर भी खुद से ही  मिला   –   सब यहीं  था,   मैं  ही शायद   आज  देख रहा हूँ   ये सब  !  प्रकृति हमसे दूर होती  है भला  कभी ? पेड – पौधों   पर   रंग- बिरंगे    सुंदर फूल  रोज खिलते हैं,   हम ही इनसे दूर  रहते हैं ?  जीवन  की  भाग – दौड में हम जीवन का आनंद उठाते कहाँ  हैं ? बस  भागम -भाग  में  लगे रहते हैं,कभी पैसे कमाने और  कभी  किसी पद को पाने की  दौड, जिसका कोई अंत नहीं ? रुककर   क्यों  नहीं  देखते धरती पर   बिखरी  अनोखी सुंदरता को  ?  वह सोच  रहा था —–

-अरे हाँ, खुद को ही तो समझाना है, हंसते हुए एक चपत खुद को लगाई और फिर मानों मन के सारे धागे सुलझ गये. कोरोना के कारण  21 दिन घर में रहना  अब उसे समस्या नहीं समाधान लग रहा था. बहुत कुछ  पा  लिया  जीवन में, अब मौका मिला है धरती की सुंदरता देखने का, उसे जीने का —–

अगली अलसुबह वह चाय की चुस्कियों  के साथ  छत  पर  खडा पक्षियों  से घिरा  उन्हें दाना खिला रहा था. सूरज  लुकाछिपी कर आकाश में लालिमा बिखेरने लगा था. उसके  चेहरे पर ऐसी मुस्कान पहले कभी ना आई  थी.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 41 – उन्माद ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “उन्माद । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 41 ☆

☆ लघुकथा-  उन्माद  ☆

“हे माँ ! तूने सही कहा था. ये एक लाख रुपए तेरी बेटी की शादी के लिए रखे हैं. इसे खर्च मत कर. मगर मैं नहीं माना, माँ. मैंने तुझ से कहा था, “माँ ! मैं इस एक लाख रुपए से ऑटोरिक्शा खरीदूंगा. फिर देखना माँ. मैं शहर में इसे चला कर खूब पैसे कमाऊंगा.”

“तब माँ तूने कहा था, “शहर में जिस रफतार से पैसा आता है उसी रफ्तार से चला जाता है. बेटा तू यही रह. इस पूंजी से खेत खरीद कर खेती कर. हम जल्दी ही अपनी बिटिया की शादी कर देंगे. तब तू शहर चला जाना.”

“मगर माँ , मैं पागल था. तेरी बात नहीं मानी. ये देख ! उसी का नतीजा है”, कह कर वह फूट-फूट कर रोने लगा. लोग उसे पागल समझ कर उस से दूर भागने लगे.

वह अपने जलते हुए ऑटोरिक्शा की और देख कर चिल्लाया, “देख माँ ! यह ऑटोरिक्शा, उस की डिक्की में रखा ‘बैंक-बैलेंस’ और शादी के अरमान, एक शराबी की गलती की वजह से खाक हो गए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 40 – लघुकथा – मुआवजा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “मुआवजा।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  सर्वोत्कृष्ट लघुकथा है जो अत्यंत कम शब्दों में वह सब कह देती है जिसके लिए कई पंक्तियाँ लिखी जा सकती थीं।  मात्र चार पंक्तियों में प्रत्येक पात्र का चरित्र और चित्र अपने आप ही मस्तिष्क में उभर  आता है। इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 40☆

☆ लघुकथा  – मुआवजा

कोरोना से गांव में बुधनी की मौत।

अस्सी साल की बुधनी बेटा बहू के साथ टपरे पर रहती थी। गरीबी की मार और उस पर कोरोना का द्वंद। बुधनी अभी दो-तीन दिन से उल्टा पुल्टा चीज खाने को मांग रही थी और रह-रहकर खट्टी दही अचार खा रही थी।  उसे सांस लेने में तकलीफ की बीमारी थी। बेटे ने मना किया पर मान ही नहीं रही थी। अचानक बहुत तबीयत खराब हो गई सांस लेने में तकलीफ और खांसी बुखार । बेटा समझ नहीं पाया अम्मा को क्या हो गया बुधनी अस्पताल पहुंचकर शांत हो गई।  कोरोना से मरने वालों के परिवार को मुआवजा मिलता है। बुधनी ने  पडोस में बातें करते सुन लिया था। शांत होकर भी बुधनी मुस्करा रही थी। अब बेटे के टपरे घर पर खपरैल लग जायेगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 42 ☆ लघुकथा – कुशलचन्द्र और आचार्यजी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  की लघुकथा  ‘कुशलचन्द्र और आचार्यजी ’  में  डॉ परिहार जी ने उस शिष्य की पीड़ा का सजीव वर्णन किया है जो अपनी पढ़ाई कर उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो जाता है । फिर किस प्रकार उसके भूतपूर्व आचार्य कैसे उसका दोहन करते हैं।  इसी प्रकार का दोहन शोधार्थियों का भी होता है जिस विषय पर डॉ परिहार जी ने  विस्तार से एक व्यंग्य  में चर्चा भी की है। डॉ परिहार जी ने एक ज्वलंत विषय चुना है। शिक्षण के  क्षेत्र में इतने गहन अनुभव में उन्होंने निश्चित ही ऐसी कई घटनाएं  देखी होंगी । ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 42 ☆

☆ लघुकथा  – कुशलचन्द्र और आचार्यजी   ☆

 कुशलचन्द्र नामक युवक एक महाविद्यालय में अध्ययन करने के बाद उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो गया था। उसी महाविद्यालय में अध्ययन करने के कारण उसके अनेक सहयोगी उसके भूतपूर्व गुरू भी थे।

उनमें से अनेक गुरू उसे उसके भूतपूर्व शिष्यत्व का स्मरण दिलाकर नाना प्रकार से उसकी सेवाएं प्राप्त करते थे। शिष्यत्व के भाव से दबा और नौकरी कच्ची होने से चिन्तित कुशलचन्द्र अपने गुरुओं से शोषित होकर भी कोई मुक्ति का मार्ग नहीं खोज पाता था।

प्रोफेसर लाल इस मामले में सिद्ध थे और शिष्यों के दोहन के किसी अवसर को वे अपने हाथ से नहीं जाने देते थे।

वे अक्सर अध्यापन कार्य से मुक्त होकर कुशलचन्द्र के स्कूटर पर लद जाते और आदेश देते, ‘वत्स, मुझे ज़रा घर छोड़ दो और उससे पूर्व थोड़ा स्टेशन भी पाँच मिनट के लिए चलो।’

कुशलचन्द्र कंठ तक उठे विरोध को घोंटकर गुरूजी की सेवा करता।

एक दिन ऐसे ही आचार्य लाल कुशलचन्द्र के स्कूटर पर बैठे, बोले, ‘पुत्र, ज़रा विश्वविद्यालय चलना है। घंटे भर में मुक्त कर दूँगा।’

कुशलचन्द्र दीनभाव से बोला, ‘गुरूजी, मुझे स्कूटर पिताजी को तुरन्त देना है। वे ऑफिस जाने के लिए स्कूटर की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उनका स्कूटर आज ठीक नहीं है।’

आचार्यजी हँसे, बोले, ‘वत्स, जिस प्रकार मैं तुम्हारी सेवाओं का उपयोग कर रहा हूँ उसी प्रकार तुम्हारे पिताजी भी अपने कार्यालय के किसी कनिष्ठ सहयोगी की सेवाओं का उपयोग करके ऑफिस पहुँच सकते हैं। अतः चिन्ता छोड़ो और वाहन को विश्वविद्यालय की दिशा में मोड़ो।’

कुशलचन्द्र चिन्तित होकर बोला, ‘गुरूजी, हमारे घर के पास ऑफिस का कोई कर्मचारी नहीं रहता।’

आचार्यजी पुनः हँसकर बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र! तुम्हारे पिताजी बुद्धिमान और साधन-संपन्न हैं। वे इस नगर में कई वर्षों से रह रहे हैं। और फिर स्कूटर न भी हो तो नगर में किराये के वाहन प्रचुर मात्रा में हैं।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘लेकिन रिक्शे से जाने में देर हो सकती है। मेरे पिताजी ऑफिस में कभी लेट नहीं होते।’

आचार्यजी बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र, यह समय की पाबन्दी बड़ा बंधन है। अब मुझे देखो। मैं तो अक्सर ही महाविद्यालय विलम्ब से आता हूँ, किन्तु उसके बाद भी मुझे तुम जैसे छात्रों का निर्माण करने का गौरव प्राप्त है। अतः चिन्ता छोड़ो और अपने वाहन को गति प्रदान करो।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘गुरूजी, आज तो मुझे क्षमा ही कर दें तो कृपा हो।’

अब आचार्यजी की भृकुटि वक्र हो गयी। वे तनिक कठोर स्वर में बोले, ‘सोच लो, कुशलचन्द्र। अभी तुम्हारी परिवीक्षा अर्थात प्रोबेशन की अवधि चल रही है और परिवीक्षा की अवधि व्याख्याता के परीक्षण की अवधि होती है। तुम जानते हो कि मैं प्राचार्य जी की दाहिनी भुजा हूँ। ऐसा न हो कि तुम अपनी नादानी के कारण हानि उठा जाओ।’

कुशलचन्द्र के मस्तक पर पसीने के बिन्दु झिलमिला आये। बोला, ‘भूल हुई। आइए गुरूजी, बिराजिए।’

इसी प्रकार कुशलचन्द्र ने लगभग छः माह तक अपने गुरुओं की तन, मन और धन से सेवा करके परिवीक्षा की वैतरणी पार की।

अन्ततः उसकी साधना सफल हुई और एक दिन उसे अपनी सेवाएं पक्की होने का आदेश प्राप्त हो गया।

दूसरे दिन अध्यापन समाप्त होने के बाद कुशलचन्द्र चलने के लिए तैयार हुआ कि आचार्य लाल प्रकट हुए। उसे बधाई देने के बाद बोले, ‘वत्स! कुछ वस्तुएं क्रय करने के लिए थोड़ा बाज़ार तक चलना है। तुम निश्चिंत रहो, भुगतान मैं ही करूँगा।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘भुगतान तो अब आप करेंगे ही गुरूजी,किन्तु अब कुशलचन्द्र पूर्व की भाँति आपकी सेवा करने के लिए तैयार नहीं है। अब बाजी आपके हाथ से निकल चुकी है।’

आचार्यजी बोले, ‘वत्स, गुरू के प्रति सेवाभाव तो होना ही चाहिए। ‘

कुशलचन्द्र ने उत्तर दिया, ‘सेवाभाव तो बहुत था गुरूजी, लेकिन आपने दो वर्ष की अवधि में उसे जड़ तक सोख लिया। अब वहाँ कुछ नहीं रहा। अब आप अपने इतने दिन के बचाये धन का कुछ भाग गरीब रिक्शे और ऑटो वालों को देने की कृपा करें।’

आचार्यजी ने लम्बी साँस ली,बोले, ‘ठीक है वत्स, मैं पैदल ही चला जाऊँगा।’

फिर वे किसी दूसरे शिष्य की तलाश में चल दिये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 40 – बेनाम रिश्ता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेनाम रिश्ता। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 40 ☆

☆ लघुकथा – बेनाम रिश्ता ☆

 

ट्रेन में चढ़ते ही रवि ने कहा, “ले बेटा ! मूंगफली खा.”

“नहीं पापाजी ! मुझे समोसा चाहिए” कहते हुए उस ने समोसा बेच रहे व्यक्ति की और इशारा किया.

“ठीक है” कहते हुए रवि ने जेब में हाथ डाला.  “ये क्या ?” तभी दिमाग में झटका लगा. किसी ने बटुआ मार लिया था.

“क्या हुआ जी ?”

घबराए पति ने सब बता दिया.

“अब ?”

“उस में टिकिट और एटीएम कार्ड भी था ?” कहते हुए रवि की जान सूख गई .

सामने सीट पर बैठे सज्जन उन की बात सुन रहे थे. कुछ देर बाद उन्हों ने कहा “आप लोगों का वहां जाने और खाने का कितना खर्च होगा ?”

“यही कोई १५०० रूपए .”

” लीजिए” उन सज्जन ने कहा,” वहां जा कर इस पते पर वापस कर दीजिएगा.”

“धन्यवाद” कहते ही रवि की आँखे में आंसू आ गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 39 – लघुकथा – होली का रंग ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “होली का रंग।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह लघुकथा यह दर्शाने में सफल हो गई है कि गॉंव में अब भी भेदभाव से दूर भाईचारे  से  रहते हैं। फिर आज समाज में ऐसे कौन से तत्व हैं जो इस प्रेम और स्नेह के बंधन को तोड़ने के लिए आमादा है  और आने वाली पीढ़ी के मन में और समाज /गांव की फ़िज़ा में जहर घोलने का काम कर रहे हैं।    सब का कर्तव्य है सब सजग रहें और ऐसे तत्वों से समाज की रक्षा करें। इस अतिसुन्दर  शिक्षाप्रद लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 39☆

☆ लघुकथा  – होली का रंग

छोटा सा गांव। गांव की सुंदरता भी इतनी की सभी परस्पर भाईचारा से रहते। दुख-सुख सभी वहीं गिनती के घरों पर मिलजुलकर होता था। तीज त्यौहार भी इकट्ठे ही मनाया जाता था। गांव में कहीं से समझ नहीं आता  की हिंदू कौन और मुस्लिम कौन है? सभी अल्लाह के बंदे और सभी ईश्वर के भक्त थे।

माता के जगराता के समय आरती मुल्ला-काजी भी करते और ईद की सेवइयां हिंदू भी बड़े प्यार से अपने-अपने घरों पर बनाते थे। इसी गांव में दो दोस्त-एक मुस्लिम परिवार से और एक हिंदू परिवार से। अतीक और अमन इतनी दोस्ती की साथ में स्कूल आना-जाना, कपड़े भी एक जैसा ही पहनना। रक्षाबंधन का त्यौहार अमन के यहां से ज्यादा अतीक के घर मिलकर मनाया जाता था।

धीरे-धीरे बड़े होने लगे। शहर की हवा गांव तक पहुंचने लगी। पहले बात और फिर सबकुछ अलग हुआ। फिर मन की सांझा होने वाली बातें शायद मन में गठान बनने लगी। दोनों दोस्त एक-दूसरे को मिलते परंतु पहले जैसे दोस्ती नहीं रही।

अतीक आईआईटी कर रहा था। और अमन अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई दूसरे शहर जाकर कर रहे थे। दूरियां दोनों में बढ़ती गई। एक शहर में रहने के बाद भी दोनों कभी नहीं मिलते थे। दोनों के मन में राजनीति का असर और हिंदू-मुसलमान की भावना पनपने लगी थी। अतीक की दोस्ती कुछ खराब लड़कों के साथ हो गई जोकि सभी प्रकार के कामों में आगे रहते थे। दंगा फसाद, तोड़फोड़ और गुप्त रूप से गांव समाज की बातों को बाहर करने का जिम्मा ले रखे थे।

दोनों शहर से गांव कम आने लगे। आते भी तो अलग-अलग। घर वालों को पता नहीं लग रहा था। और साथ आ भी जाते तो पढ़ाई या कुछ काम है कहकर एक-दूसरे के घर आना जाना नहीं कर रहे थे। उनके घरवाले समझ रहे थे की जिम्मेदारी उठाने के लिए दोनों अब समझदार हो रहे हैं। परंतु अमन की मां को सब समझ में आ गया था। क्योंकि अमन ने एक दिन अतीक के बारे में थोड़ा बहुत बताया था। परंतु मां की ममता- “कुछ मत कहना” कहकर चुप करा दी थी। हमें क्या करना है। दोनों बच्चों की नाराजगी परिवार वाले समझ गए थे। परंतु नई पीढ़ी है सब समय पर ठीक हो जाएगा कह कर सोच रहे थे।

अतीक पूरी तरह बदल चुका था। बार-बार समझाता रहता था कि “दोस्त ये सब अच्छा नहीं है। हम गांव वालों को इन सब बातों पर नहीं पड़ना चाहिए। अपना भाईचारा अलग है। हम सब एक हैं। ” परंतु अतीक हमेशा उससे हट कर, नजर बचाकर चला जाता था। कुछ दिनों बाद होली का त्यौहार आने वाला था। अमन ने कहा” अतीक चल गांव चलते हैं। बहुत साल हो गए गांव की होली खेली नहीं हैं। “अतीक ने कहा “चलो इस साल बिल्कुल पकके रंग की होली खेलेंगे।” अमन उसकी बातों को समझ नहीं पाया।

खुशी-खुशी दोनों गांव आए। रात में सारा गांव खुशियां मना रहा था। सभी ढोल बाजों के साथ नाच गा रहे थे। अमन और अतीक भी शामिल थे। दोनों का शहर से आना सभी गांव वालों को अच्छा भी लग रहा था। भंग का नशा भी चढ़ने लगा। सभी झूम रहे थे। ठीक उसी समय अतीक ने धीरे से तेज धार वाला चाकू निकालकर भीड़ में अमन को वार किया जो किसी को दिखाई नहीं दिया और कहा “ये असली रंग की होली।” अमन ने हंसते हुए चाकू को निकालकर लोगों की नजरों से बचाकर होलिका के बीच में फेंक दिया और जोर से चिल्लाया “मुझे लकड़ी से लग गया।” गांव वाले तुरंत अस्पताल ले गए । चोट गहरी नहीं थी अमन बच गया। आंख खोलने पर देखा अतीक के दाहिने हाथ पर बहुत बड़ी पट्टी बंधी है और आंखों से आंसू निकल रहे हैं। अमन कुछ पूछता इससे पहले गांव के एक आदमी ने बताया कि “जिस लकड़ी से तुम को चोट लगी थी। उस लकड़ी को निकालते समय अतीक का हाथ कट गया।”  परंतु बात कुछ और थी। जो दोनों दोस्त जान रहे थे। गांव वाले खुश थे कि दोस्ती का रंग और होली का रंग दोनों गहरा है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 39 – बेबस ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेशर्म । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #39 ☆

☆ लघुकथा – बेबस ☆

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहूँ  हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है.

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहूँ ले गया. अब ५ बोरी गेहूँ बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम्म से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहूँ भरा. ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करूँ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ? ” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 38 – बेशर्म ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेशर्म । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #38 ☆

☆ लघुकथा – बेशर्म ☆

 

“बेटी ! इसे माफ़ कर दे. आखिर तुम दोनों के पिता तो एक ही है.”

“माँ ! आप इसे माफ़ कर सकती हैं क्यों की आप सौतेली ही सही. मगर माँ हो. मगर, मैं नहीं। जानती हो माँ क्यों?”

अनीता अपना आवेश रोक नहीं पाई, “क्योंकि यह उस वक्त भाग गया था, जब आप को और मुझे इस की सब से ज्यादा जरूरत थी. उस वक्त आप दूसरों के घर काम कर के मुझे पढ़ा लिखा रही थी. आज जब मेरी नौकरी लग गई है तो ये घर आ गया.”

“यह अपने किए पर शर्मिंदा है.”

“माँ ! पहले यह हम से बचने के लिए ससुराल भाग गया था और अब वहाँ की जीतोड़ खेतीबाड़ी से बचने के लिए यहाँ आ गया. यह मुफ्तखोर है. इसे सौतेली माँ बहन का प्यार नहीं, मेरी नौकरी खीच कर लाई है.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ बेदखल  ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक लघुकथा   “ बेदखल ”.)

☆ लघुकथा – बेदखल 

साम्प्रदायिक तूफान गुजर जाने के बाद मोहल्ले के लोगों ने उसका सामान उठाकर कमरे से बाहर निकाल कर सड़क पर रख दिया था और उससे हाथ जोड़कर कहा था कि अब तुम इस मोहल्ले में और नहीं रह सकते । साम्प्रदायिक दंगे के दौरान हम लोगों ने ब -मुश्किल तुम्हें बचाया , लेकिन हम लोग अब बार बार यह मुसीबत मोल नहीं ले सकते, आखिर हम लोगों के भी तो बीबी -बच्चे हैं ।

वह और उसका परिवार जिसका सब कुछ यहीं था – बचपन की यादें , जवानी के किस्से , जिन्हें छोड़कर कहीं और जाने की वे  कल्पना भी नहीं कर सकते  थे । आज अपने बिखरे सामान के बीच अपनों द्वारा बे-दखल किये जाने पर वह यही सोच रहे थे  कि ऐसी कौन सी जगह है जहां नफरत की आग न हो, एक भाई दूसरे के खून का प्यासा न हो, स्वार्थी तत्वों के बहकावे में आकर जहां लोग एक दूसरे के दुश्मन न बन जायें?

आखिर वह जाएं तो कहां जाएं ?

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 16 ☆ लघुकथा – एहसास ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “एहसास। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा  यह एहसास दिलाने में सक्षम है कि स्त्री ही स्त्री का दर्द समझ सकती है और यह एहसास कुछ अनुभव और समय के पश्चात ही हो पाता है। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 16 ☆

☆ लघुकथा – एहसास ☆

बहू वो स्टूल ले लो और यहीं पास में बैठ जाओ. हमाई चप्पल और छत्ता सोई कल ले आने  आभा ने सासु माँ को ममत्व से भरी नजरों से देख उनके  सिर पर हाथ रख हाँ में सिर हिलाया. वह किसी तरह अपने आँसू रोकने का प्रयत्न कर रही थी. सिर घुमाकर वह सिस्टर को देखने लगी. थोड़ी दूर मामा जी खड़े सास-बहू की बातें  करते देख फफक-फफक कर रो पड़े थे.  बहन  से बोले …दीदी तुम चिन्ता मत करो जल्दी ठीक हो जाओगी फिर हम बैठकर खूब बातें करेंगे.

फिर डा. पाठक आ गये और आज ही इनका आपरेशन होना है आप इन्हें आपरेशन के लिये तैयार करवाने दें. उसी रात सासू माँ ने कहा था. आभा मैं तुम्हें बहुत दिनो बाद और देर से समझ पाई, हमें माफ करना बेटी तुम न होती तो कभी यह एहसास न होता कि औरत ही औरत का दुख समझ सकती है. तुमने मेरी और ससुर की खूब सेवा करी तुम्हें भगवान खूब खुशी दे चारो तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ हो.

अचानक बेटी के स्पर्श ने आभा को जगाया माँ क्या हुआ दादी को याद कर रहीं थी. आज चलिये दादी की याद में विकलांग बच्चों के साथ कुछ समय बिताकर  आते हैं और अनजाने बहते आँसुओं को पोंछ कर आभा उसके साथ  जाने को तैयार हो गई

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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