हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 39 – बेबस ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेशर्म । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #39 ☆

☆ लघुकथा – बेबस ☆

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहूँ  हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है.

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहूँ ले गया. अब ५ बोरी गेहूँ बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम्म से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहूँ भरा. ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करूँ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ? ” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 38 – बेशर्म ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेशर्म । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #38 ☆

☆ लघुकथा – बेशर्म ☆

 

“बेटी ! इसे माफ़ कर दे. आखिर तुम दोनों के पिता तो एक ही है.”

“माँ ! आप इसे माफ़ कर सकती हैं क्यों की आप सौतेली ही सही. मगर माँ हो. मगर, मैं नहीं। जानती हो माँ क्यों?”

अनीता अपना आवेश रोक नहीं पाई, “क्योंकि यह उस वक्त भाग गया था, जब आप को और मुझे इस की सब से ज्यादा जरूरत थी. उस वक्त आप दूसरों के घर काम कर के मुझे पढ़ा लिखा रही थी. आज जब मेरी नौकरी लग गई है तो ये घर आ गया.”

“यह अपने किए पर शर्मिंदा है.”

“माँ ! पहले यह हम से बचने के लिए ससुराल भाग गया था और अब वहाँ की जीतोड़ खेतीबाड़ी से बचने के लिए यहाँ आ गया. यह मुफ्तखोर है. इसे सौतेली माँ बहन का प्यार नहीं, मेरी नौकरी खीच कर लाई है.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

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मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ बेदखल  ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक लघुकथा   “ बेदखल ”.)

☆ लघुकथा – बेदखल 

साम्प्रदायिक तूफान गुजर जाने के बाद मोहल्ले के लोगों ने उसका सामान उठाकर कमरे से बाहर निकाल कर सड़क पर रख दिया था और उससे हाथ जोड़कर कहा था कि अब तुम इस मोहल्ले में और नहीं रह सकते । साम्प्रदायिक दंगे के दौरान हम लोगों ने ब -मुश्किल तुम्हें बचाया , लेकिन हम लोग अब बार बार यह मुसीबत मोल नहीं ले सकते, आखिर हम लोगों के भी तो बीबी -बच्चे हैं ।

वह और उसका परिवार जिसका सब कुछ यहीं था – बचपन की यादें , जवानी के किस्से , जिन्हें छोड़कर कहीं और जाने की वे  कल्पना भी नहीं कर सकते  थे । आज अपने बिखरे सामान के बीच अपनों द्वारा बे-दखल किये जाने पर वह यही सोच रहे थे  कि ऐसी कौन सी जगह है जहां नफरत की आग न हो, एक भाई दूसरे के खून का प्यासा न हो, स्वार्थी तत्वों के बहकावे में आकर जहां लोग एक दूसरे के दुश्मन न बन जायें?

आखिर वह जाएं तो कहां जाएं ?

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 16 ☆ लघुकथा – एहसास ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “एहसास। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा  यह एहसास दिलाने में सक्षम है कि स्त्री ही स्त्री का दर्द समझ सकती है और यह एहसास कुछ अनुभव और समय के पश्चात ही हो पाता है। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 16 ☆

☆ लघुकथा – एहसास ☆

बहू वो स्टूल ले लो और यहीं पास में बैठ जाओ. हमाई चप्पल और छत्ता सोई कल ले आने  आभा ने सासु माँ को ममत्व से भरी नजरों से देख उनके  सिर पर हाथ रख हाँ में सिर हिलाया. वह किसी तरह अपने आँसू रोकने का प्रयत्न कर रही थी. सिर घुमाकर वह सिस्टर को देखने लगी. थोड़ी दूर मामा जी खड़े सास-बहू की बातें  करते देख फफक-फफक कर रो पड़े थे.  बहन  से बोले …दीदी तुम चिन्ता मत करो जल्दी ठीक हो जाओगी फिर हम बैठकर खूब बातें करेंगे.

फिर डा. पाठक आ गये और आज ही इनका आपरेशन होना है आप इन्हें आपरेशन के लिये तैयार करवाने दें. उसी रात सासू माँ ने कहा था. आभा मैं तुम्हें बहुत दिनो बाद और देर से समझ पाई, हमें माफ करना बेटी तुम न होती तो कभी यह एहसास न होता कि औरत ही औरत का दुख समझ सकती है. तुमने मेरी और ससुर की खूब सेवा करी तुम्हें भगवान खूब खुशी दे चारो तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ हो.

अचानक बेटी के स्पर्श ने आभा को जगाया माँ क्या हुआ दादी को याद कर रहीं थी. आज चलिये दादी की याद में विकलांग बच्चों के साथ कुछ समय बिताकर  आते हैं और अनजाने बहते आँसुओं को पोंछ कर आभा उसके साथ  जाने को तैयार हो गई

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हरि की माँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – हरि की माँ

हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।

हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।

हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।

हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।

हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’

 

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 5.05, 24.2.20)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 38 – लघुकथा – भुतहा पीपल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अनुकरणीय एवं प्रेरक लघुकथा  “भुतहा पीपल ” जो हमें अपरोक्ष रूप से  पर्यावरण संरक्षण का सन्देश भी देती है।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह लघुकथा  हमें कई शिक्षाएं देती है जैसे  अंधविश्वास  के विरोध के अतिरिक्त ईमानदारी, परोपकार, पर्यावरण संरक्षण  आदि का पाठ सिखाती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 38☆

☆ लघुकथा –  भुतहा पीपल 

गाँव के बाहर बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष। चारों तरफ से हरी घनी छाया। संभवत सभी गाँव वालों का कहना कि यह भगवान या किसी भूत प्रेत का भूतहा पीपल है। शाम ढले वहां से कोई निकलना नहीं चाहता था। सभी अपना अपना काम करके जल्द से जल्द गाँव के अंदर आ जाते या फिर जो बाहर होते वह दिन होने का इंतजार कर दूसरे दिन आते थे।

एक प्रकार से दहशत का माहौल बन गया था। दिन गुजरते गए। गांव में अचानक एक गुब्बारे वाला आया। बहुत अधिक बारिश होने के कारण वापस जा रहा था पर नहीं जा सका। उसी पीपल के वृक्ष के नीचे खड़ा होकर बारिश के रुकने का इंतजार करने लगा।

कहते हैं कि भाग्य पलटते देर नहीं लगती। अचानक वहां पर कुछ लुटेरे आकर खड़े हो गए। जिनके पास शायद बहुत सारा रुपया पैसा, सोना चांदी था। उन्होंने देखा कि कपड़ों से फटा बेहाल मनुष्य खड़ा है। उसमें से एक ने कहा… इसे यहीं टपका  दे, परंतु बाकी लोग कहने लगे… नहीं हमेशा पाप की कमाई से जीते आए हैं। आज इसे कुछ नहीं करते। इसको मालामाल कर देते हैं।

उस गुब्बारे वाले को पास बुलाकर लुटेरे ने कहा… तुम अच्छी जिंदगी जी सकते हो बड़े आदमी बन सकते हो, परंतु हमारी शर्त है… हमारी बात जिंदगी भर राज ही रहने देना। हम तुम्हें धन दौलत दिए जा रहे हैं। तुम इसका चाहे जैसा इस्तेमाल करो। गुब्बारे वाला तुरंत मान गया। गरीब बेचारा सोचता रहा। लुटेरों ने अपना सामान उठाया और  चले गए।

उसी समय जोरदार बिजली कौधी  और जैसे गुब्बारे वाले को ज्ञान प्राप्त हो गया। उसने सुबह होते ही पीपल के चारों तरफ साफ सफाई करके सब कचरा एकत्रित कर जला दिया और लूट का सामान जो दे गए उसे पोटली बना अपने पास रख लिया।

सुबह होते ही गाँव के लोगों का आना जाना शुरू किए। एक से दो और दो से चार बाते होते देर नहीं लगी। पूरा गाँव इकट्ठा हो गया गुब्बारे वालों ने बताया कि…. रात बारिश की वजह से मैं यहीं पर रुक गया था। रात में पीपल देव दर्शन देकर गांव की उन्नति और इसे अच्छे कामों में लगाने के लिए यह सारा सोना चांदी और रुपया पैसा दिए हैं। गांव वालों के मन से उस भुतहा पीपल का डर निकल गया। गुब्बारे वाले से रुपए लेकर गांव के पंच ने वहां पर सुंदर बाग बगीचा मंदिर बनाने का निर्णय लिया और गुब्बारे वाले को भी परिवार सहित गांव में रहने के लिए मकान दिया गया।

इस प्रकार उन लुटेरों के धन से ईमानदार गुब्बारे वाले ने सदा के लिए उस गाँव का डर मिटा दिया और अब पीपल देव के नाम से पूजा होने लगी। सभी गाँव वाले प्रसन्न और उत्साहित थे। सभी ने ईश्वर का धन्यवाद किया और अपनी गलती की क्षमा प्रार्थना की। गाँव  में पर्यावरण को बढ़ावा दिया गया। गुब्बारे वाले ने सभी से कहा… कि गांव के बाहर खेतों पर एक एक पेड़ जरूर लगाएं। और वह गांव भूतहा पीपल वाला गांव की जगह पीपल देव  गांव कहलाने लगा। चारों तरफ हरियाली फैल गई। सरकार ने भी उस गांव की हरियाली देख गांव को पुरस्कृत करने का  फैसला किया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ विवशता ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित बदलते सामाजिक परिवेश पर विवशता पर विचार करने योग्य एक सार्थक लघुकथा   “ विवशता ”.)

☆ लघुकथा – विवशता

मोहनलाल की लड़की सुंदर , सुशील, संस्कारित एवं गृह कार्य में दक्ष थी । बचपन से मिले सुसंस्कार एवं शर्मीले स्वभाव के कारण वह वर्तमान परिवेश की आधुनिकता से कोसों दूर थी । पढ़ने में रुचि होने के कारण स्नातक होने के बाद अन्य विभिन्न डिग्रियों को प्राप्त करते -करते उसकी उम्र 28 वर्ष हो चुकी थी।

मोहनलाल अपनी लड़की की शादी हेतु बहुत परेशान थे। रिश्ते आ तो बहुत रहे थे, लेकिन लड़के वालों की मांग उनकी हैसियत से बहुत अधिक होने के कारण वे मन मसोस कर रह जाते।

एक शाम वे आफिस से घर पहुंचे तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा – “क्यों जी, आपने कुछ सुना, मेहता साहब की लड़की ने लव मैरिज कर ली, घर से भाग कर।”

पत्नी की बात सुन वे गुमसुम से अपने अंदर उठते विचारों के अंतर्द्वंद्व में उलझ से गये ।वे सोचने लगे कि कालोनी के नामचीन इंजीनियर मेहता साहब, जिनके पास आधुनिक विलासिता से युक्त समस्त सुविधा है, लक्ष्मी की असीम कृपा से उनके घर पर मानो रुपयों की बाढ़ आती है। वे अपनी लड़की की शादी में लाखों रुपये सिर्फ दिखावटी तामझाम पर खर्च कर सकते हैं, लेकिन उन्हें कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा।

और एक वे हैं , जो अपनी लड़की की शादी पर्याप्त धन न होने के कारण नहीं कर पा रहे हैं। काश उनकी लड़की भी …..।

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 22 ☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “पर्दा”।  यह लघुकथा हमें जीवन  के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जिसे हम देख कर भी  अनजान बन जाते हैं । जब आँखों पर मोह का पर्दा पड़ता है तो सब कुछ जायज ही लगता है।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 22 ☆

☆ लघुकथा – पर्दा

 

“पापा! आज भाई ने फिर फोन पर अपशब्द बोले.”

“एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो.”

“आप दोनों के लिए भी अनाप-शनाप बोलता है.”

मुस्कुराकर – “अपने भाईसाहब की बातों को  प्रवचन की तरह सुनो, जो नहीं   चाहिए, छोड दो.”

“हमसे सहन नहीं होता है अब, फोन नहीं उठाउँगी उसका, बात करनी ही नहीं है उससे.”

“ऐसा नहीं कहते, एक ही भाई है तुम्हारा”

“और मेरा क्या?”

“भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो”

“मेरा मान – सम्मान ??”

“मेरी छोडिए, आप दोनों से इतने अपमानजनक ढंग से बोलता है, यह गलत नहीं है क्या?”

“बेटा है हमारा, हमसे नहीं बोलेगा तो किससे ——-”

“बेटी! तुम अपना कर्तव्य करती रहो  बस”

पिता की आँखों  पर मोह का  पर्दा  था.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 37 – बोझ  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बोझ  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #37 ☆

☆ लघुकथा – बोझ  ☆

 

“क्या हुआ था, हेड साहब ?”

“कोई ट्रक वाला टक्कर मार गया. बासाहब की टांग कट गई. लड़का मर गया.”

पुलिस वाले ने आगे बताया, ” इस के तीन मासूम बच्चे और अनपढ़ बीवी है.”

सुनते ही मोहन दहाड़ मार कर रो पड़ा,” भैया ! कहाँ चले गए. मुझ गरीब बेसहारा के भरोसे अपाहिज बाप, बेसहारा बच्चे और अपनी बीवी को छोड़ कर. अब मैं इन्हें कैसे संभालूँगा.”

और वह इस मानसिक बोझ के तले दब कर बेहोश हो गया .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 15 ☆ लघुकथा – वाह री परंपरा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “वाह री परम्परा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज  की एक ऐसी प्रथा  के परिणाम और दुष्परिणाम पर विस्तृत दृष्टि डालती है जिस पर अक्सर लोग सब कुछ जानते हुए भी विवाद में न पड़ते  हुए कि  लोग क्या कहेंगे सोच कर निभाते हैं , तो  कुछ लोग दिखावे मात्र के लिए निभाते हैं ताकि लोग  उनका  उदहारण  दे।   समाज की परम्पराओं पर पुनर्विचार की महती आवश्यकता  है ।

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 14 ☆

☆ लघुकथा – वाह री परम्परा ☆

 एक  करीबी रिश्तेदार की मौत हो जाने  पर तेरह दिनों मे कम से कम सात दिन समय निकाल कर आना जाना पड़ा।  गाँव का मामला था।  सभी धनाढ्य सम्पूर्ण थे।  जब भी हम जाते तभी चूल्हे पर परिवार की लड़कियाँ गैस जमीन पर रख गरमी सह कर ढेर सारा भोजन बनाती दिखती। उन्हें दोपहर में ही कुछ घंटे मिलते। उसमे वे बेटियाँ अपनी कंघी चोटी करती। खारी के बाद से दिन होने तक साफ सफाई के बाद से यह प़किया चल पड़ती। आने वाले से भेंट करना दुख प़कट करना यहां का रिवाज  है।

गंगा जी जाना। फिर हिन्दू पध्दति से पूजन करना आवश्यक होता है। प़तिदिन  सैकड़ो आदमियों का खाना होता।

ताज्जुब हमें तब हुआ जब हमने तेरहवी के दिन सुबह पूजन के बाद ब़ाम्हणो का भोज बिदाई कार्यक्रम देखा।

और फिर नाते रिश्तेदार  सभी ने तेरहवीं का खाना खाया खाया। करीब रात के आठ बजे तक पूरा का पूरा गाँव भोजन कर चुका था और भोजन के बाद बाहर आते ही भोजन की बढ़ाई या बुराई शुरु। ये पुरानी परम्पराओं का क्या कहीँ विराम नहीं? एक तो घर का प्राणी चला जाये और उस पर यदि उसके पास पैसा नहीं तो कर्जा कर आयोजन करवाना और झूठी शान पर जिन्दा रहना कब तक चलेगा?

जाने वाला तो चला गया पर उसके साथ और थोड़ा बहुत जीवन बसर का पैसा धेला बचा वह भी समाज के ठेकेदारों ने नोच खाया. कब बदलाव आयेगा? हम कब समझेंगे पता नहीं?

अगर किसी रोगी या बहन-बेटी या किसी बुजुर्ग की सेवा के लिये यह अधिक लगने वाला पैसा उपयोग में आ जाता तो जीवन जीने लायक और भविष्य को निर्मित कर देता पर  यह नहीं है।

बस दिखावा और रूढिवाद का बोलवाला।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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