हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्रोध – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – क्रोध

 

दोनों में बहस होने लगी थी। विवाद की तीक्ष्णता बढ़ती गई। आक्रोश में दोनों थे पर पहला मनुष्य था, दूसरा क्रोधी था। क्रोध, तर्क का पथ तज देता है, मर्म को चोट पहुँचाने की राह चलता है। इस राह के विनाशकारी मोड़ पर तिलमिलाहट टकराती है।

तिलमिलाहट में क्रोधी ने एक बड़ा पत्थर मनुष्य के सिर पर दे मारा। मनुष्य की मौत हो गई। क्रोधी को फाँसी चढ़ना पड़ा।

यश, संपदा, नेह, सम्बंध, अंतत: समूचे अस्तित्व की बलि ले लेता है क्रोध।

 

मनुष्यता बनी रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अक्षय – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Inexhaustiblepublished today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – अक्षय ☆

बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी।  दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।

सुनते हैं, अकिंचन का संचय सदा अक्षय रहा।

जीवन ऊर्जा अक्षय रहे।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆ अम्माँ को पागल बनाया किसने? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक लघुकथा “अम्माँ को पागल बनाया किसने?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆

 

☆ लघुकथा – अम्माँ को पागल बनाया किसने ?  ☆ 

 

“भाई! आज बहुत दिन बाद फोन पर बात कर रही हूँ तुमसे। क्या करती बात करके? तुम्हारे पास बातचीत का सिर्फ एक ही विषय है कि ‘अम्माँ पागल हो गई हैं’। उस दिन तो मैं दंग रह गई जब तुमने कहा – अम्माँ बनी-बनाई पागल हैं। भूलने की कोई बीमारी नहीं है उन्हें।”

“मतलब” – मैंने पूछा

“जब चाहती हैं सब भूल जाती हैं, वैसे फ्रिज की चाभी ढूँढकर सारी मिठाई खा जाती हैं। तब पागलपन नहीं दिखाई देता? अरे! वो बुढ़ापे में नहीं पगलाई, पहले से ही पागल हैं।”

“भाई! तुम सही कह रहे हो – वह पागल थी, पागल हैं और जब तक जिंदा रहेगीं पागल ही रहेंगी।अरे! आँखें फाड़े मेरा चेहरा क्या देख रहे हो? तुम्हारी बात का ही समर्थन कर रही हूँ।” ये कहते हुए अम्माँ के पागलपन के अनेक पन्ने मेरी खुली आँखों के सामने फड़फड़ाने लगे।

“भाई! अम्माँ का पागलपन तुम्हें तब समझ में आया जब वह तुम्हारे किसी काम की नहीं रह गई, बोझ बन गई तुम पर | पागल ना होती तो मोह के बंधन काटकर तुम पति-पत्नी को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया होता। तुम्हारी मुफ्त की नौकर बनकर ना रहतीं अपने ही घर में। सबके समझाने पर भी अम्माँ ने बड़ी मेहनत से बनाया घर तुम्हारे नाम कर दिया। कुछ ही समय में उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था।  इसके बाद भी ‘मेरा राजा बेटा’ कहते उनकी जबान नहीं थकती, पागल ही थीं ना बेटे-बहू के मोह में? जब जीना दूभर हो गया तुम्हारे घर में तब मुझसे एक दिन बोली – ‘बेटी! बच्चों के मोह में कभी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी ना मार बैठना, मेरी तरह। मैं तो गल्ती कर बैठी, तुम ध्यान रखना।”

“भाई! फोन रखती हूँ। कभी समय मिले तो सोच लेना अम्माँ को पागल बनाया किसने??”

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – पथ – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – पथ ☆

न दुर्गम था, न सुगम। न जटिल था, न सरल। पथ वैसा ही था, जैसा होना चाहिए। कहीं प्रशस्त, कहीं संकीर्ण। कहीं समतल, कहीं उबड़खाबड़। कहीं पुष्पित, कहीं कंटकाकीर्ण। सभी चलते रहे।

एक सहयात्री ने कहा, “वाह! पुष्प ही पुष्प भरे हैं पथ पर..” और उसने ढेर सारे पुष्प आँचल में भर लिए। एक को पूरे मार्ग में टेढ़े-मेढ़े से लेकर सुघड़-सुंदर छोटे-छोटे पत्थर दृष्टिगोचर हुए। उसने पत्थर बटोर लिए। एक वनस्पतिशास्त्री को भाँति-भाँति की वनस्पतियाँ दिखीं, उसने उनके पत्ते चुन लिए। हरेक की अपनी आँख थी और थी अपनी दृष्टि। उसे चप्पे-चप्पे पर कविता और कहानियाँ मिलीं, उसने सहेज लीं।

” इन्होंने अनगिन कविताएँ और कहानियाँ रची हैं..”,   किसीने उनका परिचय देते हुए कहा।

वह सोच में पड़ गया कि चलना और रचना समानार्थी कैसे हुए?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆ नसीहत ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “नसीहत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆

 

☆ नसीहत ☆

 

थाइराइड से मोटी होती हुई बेटी को समझाते हुए मम्मी ने कहा, ” तू मेरी बात मान लें. तू रोज घुमने जाया कर. तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा. मगर, तू हमारी सलाह कहां मानती है ?” मां ने नाराजगी व्यक्त की.

” वाह मम्मी! आप ऐसा मत करा करो. आप तो हमेशा मुझे जलील करती रहती है.”

” अरे! मैं तूझे जलील कर रही हूं,” मम्मी ने चिढ़ कर कहा, ” तेरे भले के लिए कह रही हूं. इस से तेरे हाथ पैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा.”

” तब तो तू भी इस के साथ घूमने जाया कर,” बहुत देर से चुपचाप पत्नी के बात सुन रहे पति ने कहा तो पत्नी चिढ़ कर बोली, ” आप तो मेरे पीछे ही पड़े रहते हैं. आप को क्या पता है कि मैं नौकरी और घर का काम कैसे करती हूं. यह सब करकर के थक कर चूर हो जाती हूं. और आप है कि मेरी जान लेना चाहते हैं.”

” और मम्मी आप, मेरी जान लेना चाहती है,” जैसे ही बेटी ने मम्मी से कहा तो मम्मी झट से अपने पति से बोल पड़ी, ” आप तो जन्मजात मेरे दुश्मन है……. ”

बेटी कब चुप रहती. उस ने कहा, ” और मम्मी आप, मेरी दुश्मन है. मेरे ही पीछे पड़ी रहती है. आप को मेरे अलावा कोई कामधंधा नहीं है क्या ?”

यह सुन कर, पत्नी पराजय भाव से पति की ओर देख कर गुर्रा रही थी. पति खिसियाते हुए बोले, ” मैं तो तेरे भले के लिए बोल रहा था. तेरे हाथ पैर दुखते हैं वह घूमने से ठीक हो जाएंगे. कारण, घूमने से मांसपेशियों में लचक आती है. यही बात तो तू इसे समझा रही थी.”

इस पर पत्नी चिढ़ पड़ी, ” आप अपनी नसीहत अपने पास ही रखिए.” इस पर पति के मुंह से अचानक निकल गया,” आप खावे काकड़ी, दूसरे को दैवे आकड़ी,” और वे विजयभाव से मुस्करा दिए.

” क्या!” कहते हुए पत्नी की आँखों  से अंगार बरसने लगे. मानों वह बेटी और पति से पराजित हो गई हो.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ रोटियां सेंकने जाना था ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ  मराठी कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे.

आज प्रस्तुत है   ई-अभिव्यक्ति  पहली हिंदी लघुकथा “रोटियां सेंकने जाना था.” )

 

☆ लघुकथा –  रोटियां सेंकने जाना था ☆

 

दिन भर कि थकान से हरीश घर वापिस लौटा । आते ही वह बेड पर लेट गया। थकान से चूर होने कि वजह से उसकी कब आँख लग गई पता ही नही चला। उसके बेटे ने उसे जगाया कहा- “पापा उठिए मम्मी खाने पर बुला रही है।” तब जा कर वह जागा लेकिन बेटे के इन शब्दो ने उसे उसके अतीत में ले जा कर छोड़ दिया। जब वह छोटा था तब माँ भी उसे ऐसे  ही खाना खाने और भी अन्य काम करवाने  के लिए जगा दिया करती थी।

उस दिन भी हरीश ऐसे ही सोया था। उसकी माँ ने उसे जगाया और कहा- “हरीश, बेटे बनिया की दुकान से कूछ सामान ला दे। तब तक मैं रोटियाँ सेंक लेती हूँ। तूझे भी भूख लगी होगी। जा जल्दी”। माँ की बात सुन छोटा हरीश बोला ” माँ मुझे भी सिखा दो ना रोटियां सेंकना। जब आप दीदी के घर जाओगी तो मै खुद भी बना कर खा सकता हूँ। जब आप जाते तब खाना देते समय बगल वाली आंटी का मुँह फूला हुआ रहता है”।   छोटे हरीश की बात सुन माँ हल्के से मुस्कुरायी और उसे हाँ कहकर बनिया की दुकान पर भेजा। बिल्डिंग के नीचे उतरकर हरीश रास्ता पार कर दुकान पर पहुंचा। जेब से पैसे निकाल कर बनिये के हाथ मे देने ही वाला था कि पीछे से  जोर से कुछ फटने की आवाज आयी। उसने पीछे मुड़ कर देखा तो उसी के बिल्डिंग की ओर कूछ लोग भागते हुए जा रहे थे और कह रहे थे कि सिलिंडर फट गया है । हरीश  पैसे जेब मे रख बिल्डिंग की ओर भागा। जा कर उसने देखा कि उसकी माँ कब से गतप्राण हो चुकी थी। सिलिंडर फटने की वजह से जल भी चुकी थी। वह अपनी माँ को उस अवस्था मे देखता ही रह गया।

उसकी माँ के साथ रोटियाँ सेंकने की ख्वाहिश आज भी अधूरी रह गई। माँ की वे बातें उसके जहन मे आज भी जिंदा थी। उन बातों को याद कर उसने आँखे पोंछी और खाना खाने निकल गया।

 

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार

मो  9168471113

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 18 – जीवन साथी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “जीवन साथी”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि –  पति पत्नी अपने परिवार के दो पहियों की भाँति होते हैं ।  यदि वे  मात्र आपने परिवार ही नहीं अपितु एक दूसरे के परिवार का भी ध्यान रखें तो जीवन कितना सुखद हो सकता है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 18 ☆

 

☆  जीवन साथी ☆

 

जीवनसाथी कहते ही मन प्रसन्न हो जाता है।  दोनों परिवार वाले और पति पत्नी का साथ सुखमय होता है। ऐसे ही ममता और विनोद की जोड़ी बहुत ही सुंदर जोड़ी। ममता अपने गांव से पढ़ी लिखी थी और विनोद एक इंजीनियर।

ममता के घर खेती बाड़ी का काम होता था। भाई भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। सभी खेती किसानी में लगे थे परंतु सभी खुशहाल थे। ममता के पिताजी यदा-कदा ममता के यहां शहर आना-जाना करते थे। ममता को अपने ससुराल में सभी के साथ घुल मिल कर रहता देख पिताजी खुश हो जाते थे। बात उन दिनों की है जब स्मार्टफोन का प्रचलन शुरू हुआ था।

गांव में भी किसी किसी के पास फोन हुआ करता था परंतु ममता के मायके में फोन अभी तक नहीं आया था। कुछ दिनों बाद ममता के भाइयों ने स्मार्ट फोन ले लिया परंतु पिताजी को नहीं देते थे। उनका भी मन होता था फोन के लिए। एक दिन शहर आए थे ममता के घर बड़े ही उदास मन से बेटी से बात कह रहे थे कि उनका भी मन फोन लेने को होता है परंतु अभी पैसे नहीं हो पा रहे हैं दूसरे कमरे से विनोद चुपचाप पिताजी और ममता की बात सुन रहे थे।  अपने समय पर वह ऑफिस निकल गए। ममता पिता जी की बातों से दुखी थी। दिन भर अनमने ढंग से काम कर रही थी।

शाम होते ही विनोद ऑफिस से घर आए। चाय बनाकर ममता ले आई पिताजी साथ में बैठे थे। विनोद ने बैग से पैकेट निकाल पिताजी को देते हुए कहा-  पिताजी आपके लिए। ममता आश्चर्य से देखती रह गई उनके हाथ में स्मार्टफोन का डिब्बा था। ममता की आंखों से आंसू निकल आए। पिताजी भी कुछ ना बोल सके खुशी से विनोद को गले लगा लिया।

ममता दूसरे कमरे में चली गई विनोद ने जाकर कंधे पर हाथ रख कर कहा कि क्या तुम्हारे पिताजी के लिए मैं इतना भी नहीं कर सकता। तुम दिन भर मेरे घर परिवार की देख भाल करती हो आखिर वह भी हमारे पिताजी हैं।

इतना समझने वाला जीवन साथी पाकर ममता बहुत खुश है। ईश्वर से बार-बार प्रार्थना करती रही सुखमय जीवन के लिए और विनोद जैसा जीवन साथी पाने के लिए।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – लघुकथा – ☆आलोचक बुद्धि… ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

नवरात्रि विशेष 

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज प्रस्तुत हैं नवरात्रि पर विशेष लघुकथा   “आलोचक बुद्धि… “। )

 

☆ लघुकथा – आलोचक बुद्धि… ☆  

 

दुर्गोत्सव पर्व पर भक्तवृन्द की भारी उपस्थिति के साथ मंदिर में आरती हो रही थी।

इसी बीच आज के कार्यक्रम में आमंत्रित मुख्य अतिथि के रूप में स्थानीय नेता जी का आगमन हुआ।

अग्रिम पंक्ति में खड़े समिति के गणमान्य नागरिकों में एक-दूसरे के सूचनार्थ खुसर-फुसर के साथ वे सब शांति से भीड़ को चीरते हुए नेताजी की अगवानी को दौड़ पड़े।

ससम्मान उन्हें भीड़ में रास्ता बनाते हुए देवी प्रतिमा के सम्मुख ले आये।

समापनोपरांत स्वभावानुसार रामदीन मुझसे कहने लगा – बंधु! अभी आपको कुछ गलत नहीं लगा?

क्या गलत हो गया भाई? मैंने जानना चाहा

बोले वे,- आरती के मध्य अपने स्थान से किसी का हटना यह तो गलत ही है न? फिर नेता जी तो आरती में सम्मिलित होने ही आये थे, दो-चार मिनट वहीं खड़े रहते तो उन्हें व समिति वालों को देवी जी कोई श्राप तो नहीं दे देती।

सच पूछो तो इनका पूरा ध्यान भक्ति भाव और देवीजी की अपेक्षा नेता जी और उनसे मिलने वाले चढ़ावे में अधिक था।

भाई रामदीन! आप जो कह रहे हो, शायद  ठीक ही हो, वैसे मेरे विचार से अपने यहाँ आमंत्रित किसी भी विशिष्ट व्यक्ति का स्वागत-सम्मान करना, यह आयोजन समिति द्वारा अपने दायित्वों के निर्वहन की दृष्टि से तो मुझे उचित ही लगता है, हमारी संस्कृति भी तो यही कहती है हमें।

हाँ, तुम्हें तो उचित लगेगा ही, आखिर तुम भी तो उसी लाबी के हो।

अच्छा! कुछ पल के लिए मान भी लें कि, मैं उसी लाबी का हूँ, पर बंधु – यह तो बताओ कि, उस समय देवी माँ की आरती के बीच आप का ध्यान कहाँ था?

इस अनपेक्षित प्रश्न पर रामदीन मौन था।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – तीन – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – तीन ☆

तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई।  तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।

पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।

दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।

तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।

तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ मानव ☆ श्री सदानंद आंबेकर 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(महात्मा गांधी जी के  150वें  जन्म दिवस पर श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित विशेष लघुकथा ‘मानव’श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।) 

 

लघुकथा – मानव

 

शहर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं वरिष्ठ नागरिक श्री नाना देशपाण्डे साग भाजी लेकर बाजार से लौट रहे थे कि दंगों के लिये कुख्यात क्षेत्र महात्मा गांधी मार्ग पर अचानक किसी बात पर दो धर्मों के लोग आपस में भिड़ गए। मारकाट एवं लूट आरंभ हो गई।

नाना ने तत्काल एक गली में प्रवेश किया व तेजी से घर जाने लगे। थोड़ी दूर गए थे कि सामने से हथियारबंद भीड़ आ गई। नाना को घेरा तो वे चिल्लाते हुए भागे कि अरे मैं तो हिंदू हूँ, मुझे जाने दो। लेकिन फिर भी भागते भागते दो चार लाठियाँ पड़ ही गईं ओर वे किसी तरह बचकर दूसरी गली से भाग निकले।

गली पार भी न हो पाई थी कि दूसरे दल के लोग तलवारें लेकर दीवानों की तरह उनकी ओर लपके। नाना फिर उलटे पैर भागे और चिल्लाए कि “अरे-अरे मैं मुसलमान हूँ, शेख सलीम नाम है मेरा..” पर वहां भी उनको भीड़ ने दौड़ा ही दिया। आगे आगे नाना और पीछे पीछे वहशी भीड़, और अचानक सामने से वही पहले वाला दल भी आ गया। अब तो नाना बेचारे दो पाटों के बीच आ गए। पीछे वाला दल चिल्लाया – “कत्ल कर दो इसका काफिर बचके नहीं जा पाए ”।  सामने वाले दल ने नारा लगाया- ” खत्म कर दो विधर्मी को और पुण्य कमाओ ”।

नाना अब गला फाड़ कर चिल्लाये – “अरे दानवों, मैं एक भारतीय हूँ, और मेरे ही देश में मुझे मत मारो”। लेकिन अंधी बहरी भीड़ में से किसी ने एक लठ्ठ मारा और दूसरे ने उनके पेट में तलवार भोंक दी। नाना बेचारे चकरा कर गिर पडे़ और अंतिम सांसे गिनने लगे।

उधर दोनों दलों में अपने अपने धर्म को बचाने के लिए आमने-सामने का खूनी खेल आरंभ हो गया और इधर बूढ़े नाना, मरते मरते अस्पष्ट शब्दों में कह रहे थे- “अरे दुष्टों मुझे क्यों मारा, मैं एक  मानव हूँ ”।

 

©  सदानंद आंबेकर

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