हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #2 पाहुना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक लघुकथा  “पाहुना”। लघुकथा पढ़ कर सहज ही लगता है कि यह  कथा/घटना  कहीं हमारे आस पास की ही है। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 2 ☆

 

☆ पाहुना ☆

 

गाँव में जब कोई अतिथि आ जाता था उसे सभी पाहुना कहते थे। वर्तमान में पाहुना से अतिथि, मेहमान, और अब गेस्ट का नाम प्रचालित हो गया है। ऐसे ही छोटा सा गांव जहा एक वकील बाबू रहते थे, गांव में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे। लोग उनकी काफी इज्जत करते थे। कभी कोई परेशानी हो सभी उन्ही के पास जा बैठते थे। घर भी उनका बड़ा, बाहर दालान और फिर बड़े बड़े पत्थरों के चबूतरे जिनमे कोई ना कोई बैठा ही रहता था। उनका रूतबा भी बड़ा था। शरीर भी उनका गठा बदन, काली घनी मूंछ, बड़ी बड़ी आँखे और लंबाई भी सामान्य से अधिक। जब अपने पहनावे  काले कोट में निकलते थे तो सब दूर से ही हाथ जोड़ लेते थे। पर कहते हैं कहीं ना कहीं सब किसी ना किसी कारण से दुखी रहते हैं।

पांच बच्चों के पिता थे। धर्मपत्नी अक्सर बीमार रहा करती थी। छोटे छोटे बच्चों का लालन पालन उनकी सासू माँ के द्वारा हो रहा था। जो अपनी बेटी के पास रहती थी क्यूँकि बेटी के अलावा कोई और नहीं था। पति को गुजरे एक दशक हो गया था। बूढ़ी सासू माँ अपने तरीके से बच्चों की निगरानी करती थी। दो बड़े बेटे कुछ समझदार होने लगे थे। अचानक ही वकील साहब की पत्नी का देहांत हो गया। सभी परेशान हो गए।

समझ नहीं आया पर कब तक घर बैठते। काम काज के सिलसिले में उनको बनारस जाना पड़ा। वहा उनकी जान पहचान फूल वाली से हो गयी जो निहायत ही सुंदर और नवयौवना थी। लगातार आने जाने के कारण उनमे घनिष्ठता बढ़ गयी। एक दिन वो कानून उसे पत्नी बना घर ले आए और सामने वाले दूसरे घर में रहने दिया।

सभी पूछते कि ये कौन है? उनका उत्तर होता – ” पाहुना आई है कुछ दिनो के लिए”। बूढ़ी माँ को सब समझ में आ गया। बच्चों में उसने जहर का बीज बो दिया। कभी भी वो उसके पास नहीं गए। पिताजी कहते थे कि इन्हे अपनी माँ की तरह मानो। पर बच्चों ने कभी स्वीकार नहीं किया। पाहुना के भी तीन संतान, दो बेटी और एक बेटा हुआ। परन्तु कभी कोई आपस में नहीं मिले। आमने सामने रहने के बाद भी भाई बहन एक दूसरे का मुंह भी देखना पसंद नहीं करते थे।

धीरे धीरे समय सरकता गया सभी कामों मे निपुण पाहुना अपनी गृहस्थी संभाल रही थी परन्तु बच्चों का तिरस्कार उसको सहन नहीं हो पा रहा था। हमेशा वकील बाबू से कहती कि कुछ ऐसा हो जाए कि हमारे बच्चों को मैं एक साथ रहते देख सकूँ। उसके मन में सभी बच्चों के लिए एक सी भावना थी। बस बच्चों का दिल जीतना चाहती थी।

सासू माँ का देहांत हो गया परंतु हालत वैसे का वैसा ही रहा। धीरे धीरे तिरस्कार उसके मन में बीमारी का गांठ बनाने लगी और वह असमय ही बिस्तर पकड़ ली। उसकी अपनी बड़ी बिटिया सारा काम करके हमेशा माँ को समझाती परंतु वह दिन रात रोती ही रहती। वकील बाबू को बच्चों को पास लाने की जिद करती रहती। परंतु नव जवान होते बच्चे अपने दूसरी माँ को देखना भी पसंद नहीं करते थे।

एक दिन पाहुना का अंतिम समय आ गया। सभी बच्चों को बुला कर वकील साहब ने कहा कि बेटे पाहुना के जाने का दिन आ गया है, वो अब जा रही है सदा के लिए। तुम सब एक बार उनसे मिल लो। बस फिर क्या था सबने यही कहा – पिताजी पाहुना को जाने नहीं देना आप अकेले हो जाएंगे। माँ आपको छोड़ कर पहले ही चली गई है आप पाहुना को जाने नहीं देना। इतना सुनना था कि वकील बाबू का मुंह खुला का खुला ही रह गया। उनको समझते देर ना लगी कि सब पाहुना से उतना ही प्यार करते थे सिर्फ जताते नहीं थे। परंतु बहुत देर हो चुकी थी। सभी बच्चे खड़े अपनी माँ के अंतिम क्षण में व्याकुल थे। परंतु पाहुना अपनी जीत पर मुस्कुराते हुए आज बहुत खुश हो रही थी और मुस्कुराते हुए ही उसने अपनी आंख बंद कर ली।

सदा सदा के लिए पाहुना उस घर से जा चुकी थी। सभी ने मिल कर उसका अंतिम संस्कार किया। आज पाहुना बहुत खुश थी क्यूँकि उसे उसका अपना घर मिल गया था जिस घर में वो पाहुना(मेहमान) आई थी। आज सब कुछ उसका अपना था। अब वो पाहुना नहीं थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #1 ☆ मैं ऐसा नहीं ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  ने इस साप्ताहिक स्तम्भ के लिए  हमारे अनुरोध को स्वीकार किया इसके लिए हम उनके आभारी हैं । इस स्तम्भ के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  हृदयस्पर्शी लघुकथा “मैं ऐसा नहीं”। )

 

☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #1 ☆

 

☆ मैं ऐसा नहीं ☆

 

वह फिर गिड़गिड़ाया, “साहब ! मेरी अर्जी मंजूर कर दीजिए. मेरा इकलौता पुत्र मर जाएगा.”

मगर, नरेश बाबू पर कोई असर नहीं हुआ, “साहब नहीं है. कल आना.”

“साहब, कल बहुत देर हो जाएगी. मेरा पुत्र बिना आपरेशन के मर जाएगा.आज ही उस के आपरेशन की फीस भरना है. मदद कर दीजिए साहब. आप का भला होगा,” वह असहाय दृष्टि से नरेश की ओर देख रहा था.

“ कह दिया ना, चले जाइए, यहाँ से,” नरेश बाबू ने नीची निगाहें किए हुए जोर से चिल्लाते हुए कहा.

तभी उस का दूसरा साथी महेश उसे पकड़ कर एक ओर ले गया.

“क्या बात है नरेश! आज तुम बहुत विचलित दिख रहे हो.” महेश बाबू ने पूछा, “वैसे तो तुम सभी की मदद किया करते हो ? मगर, इस व्यक्ति को देख कर तुम्हें क्या हो गया?” वह नरेश का अजीब व्यवहार समझ नहीं पाया था.

नरेश कुछ नहीं बोला. मगर, जब महेश बाबू ने बहुत कुरैदा तो नरेश बाबू  ने कहा, “क्या बताऊँ महेश ! यह वही बाबू है, जिस ने मेरी अर्जी रिश्वत  के पैसे नहीं मिलने की वजह से खारिज कर दी थी और मेरे पिता बिना इलाज के मर गए थे.”

“क्या !’’ महेश चौंका.

“हाँ, ये वहीं व्यक्ति है.”

“तब तू क्या करेगा?” महेश ने धीरे से कहा, “जैसे को तैसा?”

“नहीं यार, मैं ऐसा नहीं हूं,” नरेश ने कहा, “मैंने इस व्यक्ति की अर्जी कब की मंजूर कर दी है और इलाज का चैक अस्पताल पहुंचा दिया है. यह बात इसे नहीं  मालूम है.’’ कहते हुए नरेश खामोश हो गया.

महेश यह सुन कर कभी नरेश को देख रहा था कभी उस व्यक्ति को. जब कि वह व्यक्ति माथे पर हाथ रख कर वहीं ऑफिस में बैठा था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #1 ?नीम की छांव ? ☆ – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। सुश्री सिद्धेश्वरी जी ने इस साप्ताहिक स्तम्भ के लिए मेरे आग्रह को स्वीकारा इसके लिए उनका आभार।  अब आप प्रत्येक मंगलवार उनकी एक लघुकथा पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “नीम की छांव”।)

 

☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं ☆

?नीम की छांव ?

 

एक गांव में नीम की छांव पर उसने अपना घर बनाया। दिमाग से थोड़ा विक्षिप्त घर से निकाल दी गई थी। सही गलत का फैसला कर नहीं पाती थी। एक तो गरीबी और उपर से बेटी की लाचारी पर तरस तो सभी खाते पर कोई सहारा देना नहीं चाहते थे।  बूढ़े मां बाप के खतम होने के साथ उसका रूप भी नीम की छांव के नीचे सब को दिखने लगा था।

एक बडे़ घर से कार आकर रोज ही रूकने लगी, कभी खाने का सामान तो कभी कपड़े। वो नासमझ समझ न सकी कि उस पर इतनी मेहरबानी क्यों हो रही है। उसे उसका साथ अच्छा लगने लगा। अब तो कार वाला छुपके से दरवाजा खोल कार में बिठा उसे ले जाने लगा। समय पंख लगा कर उड़ चला।उसे देखने से समझ में आने लगा कि वो किसी झांसे का शिकार हो चुकी है। अब कार आना बंद हो चुका था। मातृत्व की झलक उस बेचारी पर दिखने लगी। समय आने पर उसने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया और फिर उसे अपने तरीके से पालने लगी। कहते हैं उसके दुखों का अंत नहीं हुआ। असमय अनेक प्रकार की बीमारी से उसका अंत हो गया और छोड़ गयी एक नन्ही सी जान। सभी उस पर दया की भावना रखने लगे। उसी नीम की छांव पर खेलती और वहीँ सो जाया करती।

एक बढे भव्य भवन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था। कन्या भोज के समय उसे भी बुला लिया गया। पूछने पर पता चला कि नीम की छांव ही उसका घर है। पिताजी को देखीं नहीं और माँ को किसी ने जला दिया। इतना ही कह सकी। उस भवन की जैसे नीव ही हिल चुकी थी । जिस प्रकार से बेटी ने अपना परिचय दिया। सारी कहानी सुनते ही आँखों से आँसू गिरने लगे। सभी परेशान थे कि मामला क्या है। अचानक ही उसने सबसे कहा कि बरसों से मैं शीतला देवी की पूजा करता था। आज शीतला कन्या के रूप में स्वयं मेरे यहां आई है। और अब से यही घर ही इसका मंदिर है। समाज ने कोई आपत्ति नहीं उठाई। गर्व से उसने अपनी बेटी को सत्कार पूर्वक अपना लिया और किसी को पता भी नहीं लगने दिया। बिटिया भी इस चीज को समझ न सकी पर भक्त रूपी पिता को पा कर बहुत ही खुश हो गयी। बस उसकी एक इच्छा थी कि घर के सामने उसे अपनी माँ ” नीम की छांव ” चाहिए।

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© सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #1 – ओछा काम ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ा एवं सराहा जाता रहा है।  उनकी रचनाएँ आप तक नियमित रूप से पहुंचा सकूँ इसके लिए मेरे अनुरोध को डॉ परिहार जी ने स्वीकारा  इसके लिए मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ। अब आप  समय समय पर उनकी रचनाओं को पढ़ते रहेंगे । इसके अतिरिक्त हम प्रति रविवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक से उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “ओछा काम” जो निश्चित ही सराहनीय एवं शिक्षाप्रद रचना है एवं समाज को एक नई दृष्टि भी देती  है। आपको ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार ☆

☆ ओछा काम ☆

वर्मा जी के घर में काम तो सरिता की माँ करती है लेकिन उसकी ड्यूटी अक्सर सरिता को बजानी पड़ती है। कारण यह है कि माँ ने कई घरों में काम फँसा लिया है, इसलिए समय का टोटा बना रहता है। जब तब पुचकार कर सरिता से कहती है—-‘चली जा बेटी। जरा काम संभाल ले। मैं नहीं जा पाऊँगी। वैसे भी मेरी तबियत ठीक नहीं रहती। जी नहीं चलता।’

सरिता मुँह फुलाती है। दस बजे उसे बस्ता टाँग कर स्कूल जाना होता है, लेकिन वह माँ को मना नहीं कर सकती। अकेली माँ क्या क्या संभाले? किसी तरह गिरते-पड़ते वह उसके बताये घरों में झाड़ू-पोंछा, बर्तन करके स्कूल भागती है। वर्मा जी के घर में पोंछा लगाते समय उसकी आँखें टीवी पर जमी रहती हैं। कोई मज़ेदार दृश्य आते ही हाथ रुक जाता है। इसीलिए मिसेज़ वर्मा सारे वक्त हिदायत देतीं उसके पीछे मंडराती रहती हैं। पीछे से टेर लगाती हैं—-‘हाथ चला लड़की, हाथ चला।’

उस दिन टीवी पर डाक्टरों की हड़ताल और प्रदर्शन का दृश्य चल रहा था। कुछ तनख्वाह वगैरः बढ़ाने का मामला था। डाक्टर लोग मरीजों को भगवान भरोसे छोड़ अपना विरोध जताने के लिए बगबग सफेद गाउन पहने सड़क पर झाड़ू लगा रहे थे। दो डाक्टर ब्रश और पालिश लिये लोगों के जूतों पर पालिश करके उनसे पैसे माँग रहे थे। विरोध-प्रदर्शन के बावजूद माहौल मौज-मजे का था।

सरिता को मज़ा आया। ठुड्डी पर तर्जनी रखकर बोली, ‘ओ बप्पा, देखो डाक्टर लोग कैसे सड़क साफ कर रहे हैं। अच्छा है, ऐसा करेंगे तो सड़कें साफ रहेंगी।’

मिसेज़ वर्मा उसकी नादानी पर हँसकर बोलीं, ‘ये डाक्टर सड़क साफ नहीं कर रहे हैं। वे सरकार को बता रहे हैं कि अगर उनकी तनख्वाहें नहीं बढ़ीं तो वे झाड़ू लगाने और जूता-पालिश करने के ओछे काम करेंगे। पढ़े लिखे लोग ऐसे काम करें तो सब की आत्मा को क्लेश तो होगा न!’

सुनकर सरिता का मुँह उतर गया। एक क्षण रुककर बोली, ‘तो क्या झाड़ू लगाना ओछा काम है?’

मिसेज़ वर्मा ने जवाब दिया, ‘पढ़े लिखे लोग ऐसइ सोचते हैं। इसीलिए सफाई और पालिश करनेवाले को सोसाइटी में कोई इज्ज़त नहीं देता।’

सरिता को छोटी सी उम्र में नया ज्ञान मिला। घर की तरफ चलते चलते उसने ईश्वर से प्रार्थना की, ‘भगवान, मुझे जल्दी इतना पढ़ा लिखा दो कि मुझे झाड़ू-पोंछा न करना पड़े।’

फिर उसने सारे समाज का भला सोचते हुए अपनी प्रार्थना में सुधार किया—-‘भगवान, कुछ ऐसा करो कि किसी को झाड़ू-पोंछा और जूता-पालिश न करना पड़े।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा –  ??‍?  गुड्‍डी  ??‍? – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी का e-abhivyakti  में स्वागत है। प्रस्तुत है उनकी लघुकथा ‘गुड्डी’। सुश्री सिद्धेश्वरी जी ने जीवन के कटु सत्य को बड़े ही सहज तरीके से लिपिबद्ध कर दिया है। संभवतः यही उनके लेखन की विशेषता है। ) 

??‍?  गुड्‍डी  ??‍?

गांव में एक संभ्रांत परिवार में जन्‍मी गुड्‍डी बहुत ही सुंदर, सुशील और गुणवान थी। बचपन बहुत सादगी से बीता। गांव में स्‍कूल नहीं होने से पढा़ई भी नही कर सकी। पढा़ई का बहुत शौक था उसे।  कहीं की किताब और कहीं का भी पेपर हमेशा पढ़ कर दूसरों को सुनाती थी । बाल विवाह बहुत खुशी खुशी कर दिया गया । गुड्‍डी दुल्‍हन बन गई। दुल्‍हन बनने के बाद जैसे उसका बचपन छीन सा गया। चहकती फिरती अब वह घर का काम करने लगी। विधी का विधान उसका पति जो उम्र में  २ साल बड़ा था, गांव में मस्तिष्क ज्‍वर के कारण उसकी मृत्‍यु हो गई ।

गुड्‍डी अब बाल विधवा बन चुकी थी । सारा समय कोई न कोई उसे ताने देता रहता । किसी के कारण वह बहुत परेशान भी होती । बचपन में उसे समझ में नहीं आया कि ये सब क्‍या हो रहा है । मगर थी तो बच्ची ही, खेलना कूदना उसे भाता था । दिनचर्या फिर से शुरु हो गई । मगर ताने का सिलसिला जारी रहा । जैसे जैसे बड़ी हुई उसे सब बातें बड़ों के द्‍वारा सुनने पर समझ में आने लगी। सुंदरता की मूरत मगर सफेद साडी़ सबका मन एक जैसा नहीं होता। कोई उसकी बेबसी और कोई उसकी तरफ अलग दृष्टि रखने लगा। वह भी सब जान रही थी। गांव में ही सिलाई केन्‍द्र खुला। उसने उसमे दाखिला ले अपनी जीविका चलाने लगी । घर वाले भी खुश थे कि अब उसका जीवन यापन चल जाएगा। पर सपने और हकीकत कुछ अलग अलग होते हैं ।

पास मे एक निम्‍न जात का एक अच्छा लड़का गुड्‍डी को बहुत ही चाहने लगा था। उसे आते जाते देखता, उसकी तकलीफ देखकर उसको सहारा देना चाहता था। पर बडे़ समाज के बंधन और रीति रिवाज के कारण वह बोल नहीं पा रहा था। एक दिन हिम्मत कर उसने गुड्‍डी से अपनी मन की बात रखी, वह भी उसको मन ही मन अच्छा लगता था। तो तैयार हो गई।  मंदिर में विवाह कर लिया दोनों ने।

दोनों के परिवारो ने उन्हें अलग कर दिया। अपनी दुनिया बसा ली उन्होंने। समय पंख लगा कर उड़ चला। दो सुंदर बेटियों को गुड्‍डी ने जन्म दिया। मगर तानों की कमी नही थी। हमेशा चलते आते जाते उसे सुनना ही पड़ता। धीरे धीरे वह मानसिक रूप से परेशान होने लगी। एक दिन उसका पति गांव से बाहर था और बच्‍चियां स्‍कूल में। मन में उठते सवाल जवाब को लेकर वह चुल्‍हे पर खाना बना रही थी। अचानक ही साडी़ का पल्‍ला आग की चपेट में आ गया। उसे सुध नहीं थी और ना ही उसने अपने आप को बचाने की कोशिश की। क्षण भर में जीवन समाप्त हो चला।

अर्थी उठाई गई, अब गुड्‍डी को सब देवी मानने लगे। सभी गांव वालों की सहानुभूति अचानक जग उठी। मगर गुड्‍डी का पति इन सब को जानता था। वह सब काम निपटने के बाद अपनी बेटियों को लेकर दूसरे शहर चला गया। जहाँ वह स्कूल की जिन्दगी और अपनी बेटियों को पाल सके। बड़ी बिटिया ने शहर में पढ़ लिख कर ब्‍यूटिशियन का कोर्स कर अपनी  माँ के नाम पर “गुड्‍डी ब्‍यूटी पार्लर” खोल दिया और छोटी बिटिया स्‍कूल की अध्यापिका बन गई। गांव की सारी महिलाए उसके पार्लर पर आने लगी, अब गुड्‍डी उनके लिए देवी बन गई। और सब उसी के जैसी सुंदर और सुशील होना चाहती है। जिसको पल पल जिल्‍लत की जिन्दगी मिली उसी के तस्वीर की पूजा कर सब अपने परिवार की सुख शांति मांगने लगे है । उस गांव में अब गुड्डी,  ‘गुड्डी देवी ” बन चुकी थी।

© सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ छुटकारा ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी का e-abhvyakti में हार्दिक स्वागत है। आप एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। हम भविष्य में ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए आपकी चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।)  

 

☆ छुटकारा ☆

 

“अभिनव, पापा जी को बोलो न, वे वहाँ खड़े-खड़े क्या सामान गिन रहे हैं? एक तरफ जाकर बैठ क्यों नहीं जाते? कहीं किसी मजदूर का सामान ले जाते हुए धक्का लग गया तो व्यर्थ ही अस्पताल भागना पड़ेगा और तुम तो जानते ही हो कि अभी हम यह जोखिम नहीं उठा सकते। नये मकान में कितना काम पड़ा है। जाओ और उन्हें समझा दो कि हम केवल अपना ही सामान ले जा रहे हैं, वे निश्चिंत रहें, हम उनका कुछ भी नहीं ले जाएंगे।” पाठक जी को बरामदे में खड़ा देख कर नेहा ने कुढ़कर पति से कहा।

“हाँ, तुम ठीक कह रही हो, अभी कहता हूँ।” अभिनव ने कहा।

“अरे पापा जी, क्या आप से चैन से बैठा नहीं जाता? आते-जाते किसी मजदूर का धक्का लगेगा तो आपका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, बैठे-बिठाए हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। जाइये, अपने कमरे में आराम से बैठिये।” अभिनव ने मानो पिता को वहाँ से धकेलते हुए कहा।

सहसा पुत्र की झिड़की का कोई जवाब नहीं दे सके पाठक जी, चुपचाप अपने कमरे में आज्ञाकारी बालक की भाँति जा बैठे। उधर सामान ट्रक में लादा जा चुका था। तभी पाठक जी का पोता डुग्गू उन्हें ढूँढ़ता हुआ वहाँ पहुँच गया और बोला, “अरे दादू आप यहाँ क्यों बैठे हैं, क्या आप को चलना नहीं है? सारा सामान तो लादा जा चुका है और आप अभी तक तैयार भी नहीं हुए? चलिये जल्दी करिये।”

“अरे नहीं डुग्गू, मैं वहाँ भला कैसे जा सकता हूँ, यहाँ भी तो कोई रहना चाहिये ना!” पाठक जी ने अपने अंदर उठते तूफान को थामते हुए बोला।

“तो ठीक है, मैं अभी पापा जी को कह देता हूँ कि मैं भी यहीं रहूंगा। वैसे भी आप अकेले यहाँ कैसे रहेंगे? कोई तो आपके साथ होना चाहिये ना?” डुग्गू जैसे सहसा बहुत बड़ा हो गया था।

“चलो डुग्गू, देर हो रही है, गाड़ी में बैठो। आप भी पापा जी इसे बातों में उलझाए हुए हैं, क्या आपको दिखाई नहीं देता कि हम कितने व्यस्त हैं?”  नेहा ने पाठक जी को डांटते हुए कहा।

“मैं दादू के साथ ही रहूंगा मम्मी, यहाँ अकेले दादू कैसे रहेंगे? देखती नहीं हो कि दादू कितने बीमार हैं? मैं जाऊंगा तो दादू को भी ले जाना पड़ेगा।” डुग्गू ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया।

“डुग्गू तुम्हारी बहुत जुबान चलने लगी है, चलो अब बकवास बंद करो और चलकर गाड़ी में बैठो। बड़ी मुश्किल से तो इनसे छुटकारा मिला है। रात भर खाँसते हैं, न खुद सोते हैं और न दूसरों को सोने देते हैं।” नेहा डुग्गू को बाजू से पकड़कर खींचकर ले जाते हुए बड़बड़ाई।

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ उदासी ☆ – श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 

 

(श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री अरोड़ा जी की मानवीय संवेदनाओं पर आधारित लघुकथा ‘उदासी’। हम भविष्य में श्री अरोड़ा जी से उनके चुनिन्दा साहित्य की अपेक्षा कराते हैं।)

 

☆ उदासी ☆

 

‘कभी कभी ऐसा क्यूँ हो जाता है कि बिना वजह हमे उदासी घेर लेती है? ‘

‘ तुम उदास हो क्या?’

‘ उदास तो नहीं पर खुशी भी महसूस नहीं कर पा रहा ।’

‘ मेरा साथ तो तुम्हें पसन्द है और मैं तुम्हारे साथ हूँ । फिर भी तुम उदास हो । कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारा मन मुझसे भर गया है ? ‘

‘ ऐसी बातें मत करो । इससे मेरी उदासी बढ़ जायेगी । ‘

‘ फिर तुम भी उदास होने की बात मत करो ।’

‘ यार! एक बात बताओ, जिंदगी क्या  सिर्फ हमारी – तुम्हारी  दिनचर्या का नाम है ? ‘

‘ ऐसा क्यों सोच रहे हो? हम हर दिन उन सारे लोगों से मिलतें हैं, जिनसे हमें कोई न कोई काम होता है । बेमतलब तो किसी से बात नहीं की जा सकती न ।’

‘ बस इसे ही जिंदगी कहते हैं क्या?’

‘ और क्या होती है जिंदगी? आज ऐसा क्या हुआ जो नहीं होना चाहिए था और ऐसा क्या नहीं हुआ जो होना चाहिए था कुछ समझ नहीं आया । आखिर कहना क्या चाहते हो ? ‘

‘ यही कि वो आदमी कितनी शिद्दत से जिन लोगों की जिंदगी के गड्ढे भरने की कोशिश कर रहा था ‘ वो उसी गड्ढे में गिरकर मर गया जिसे उन लोगों ने उसे भरने नहीं दिया । मतलब उसे जबर्दस्ती मार दिया गया ।’

‘ तो क्या इसीलिए उदास हो? ‘

‘ क्या मेरी उदासी के लिए ये वजह काफी नहीं है कि उस आदमी ने जिन लोगों के लिए गड्ढों को भरने की कोशिश की वही उसकी मौत का कारण बन गए! ‘

‘ समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारे साथ रहकर, तुम्हें पहले से ज्यादा प्यार करूँ या तुम्हें तुम्हारी कँकरीली  उदासियों के बीच  छोड़कर किसी  सरपटी  नरम  राह की राहगीर बन जाऊं ? ‘

‘ अच्छा तो यही होगा कि तुम कोई नरम राह चुन लो ।’

‘ तुम्हें पता भी है कि हर नरमी को कठोर धरातल की जरूरत होती है। नहीं तो वह नरमी कुछ देर बाद धंस कर गड्ढा बन जाती है । और हाँ, तुम्हारी उदासियों से वो आदमी जिन्दा नहीं हो जायेगा ।’

‘ तो क्या करूं? ‘

‘ उठो और उसकी तमाम कोशिशों के बाद भी जो गड्ढे भरे नहीं जा सके, उसकी वजह खोजों और उन्हें भरने की कोशिश भी करो । फिर देखना वो आदमी फिर से जिन्दा हो उठेगा ।’

वो स्नेह सिक्त मुद्रा में उसे देखने लगा ।

 

© सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ भेड़िया ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा  भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी की शब्द चयन एवं सांकेतिक शैली  मौलिक है। )

 

☆ भेड़िया ☆

 

वह नियमित रूप से भगवान के पूजन अर्चन हेतु  मंदिर जाती थी । वैधव्य के अकेलेपन को वह भगवान के चरणों मे बैठकर दूर करने का प्रयास करती ।

कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि पुजारी उस पर ज्यादा ही मेहरबानी दिखा रहा है ।

एक दिन पुजारी ने उसके हाथ से पूजा की थाली लेते हुए कहा — ” शाम को हमारे निवास पर सत्संग का कार्यक्रम है , आप अवश्य पधारें । ”

उसने विनम्रता से पुजारी से कहा — ”  मैं अवश्य आती यदि आपकी आंखों में मुझे वासना की जगह वात्सल्य नजर आता । तुम भेड़िया हो सकते हो किन्तु में भेड़ नहीँ हूँ ।  ” वह मंदिर से लौटते हुए सोच रही थी कि भगवान ने हम महिलाओं को पुरुषों की नजर पढ़ने की

विशेष क्षमता दी है, फिर भी महिलाएं इन वहशियों के जाल में कैसे फँस जाती हैं?

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कोहराम ……. ☆ – डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता

 

(डॉ . मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की  मातृ दिवस पर विशेष लघुकथा कोहराम …… ।)

मातृ दिवस विशेष 

☆ कोहराम ……. ☆

रेवती के पति का देहांत हो गया था। अर्थी उठाने की तैयारियां हो रहीं थीं।

उसके तीनों बेटे गहन चिंतन में मग्न थे। वे परेशान थे कि अब माँ  को कौन ले जायेगा? उसका बोझ कौन ढोयेगा? उसकी देखभाल कौन करेगा? इसी विचार-विमर्श में उलझे वे भूल गये कि लोग अर्थी को कांधा देने के लिये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

श्मशान से लौटने के बाद रात को ही तीनों ने माँ को अपनी-अपनी मजबूरी बताई कि उनके लिये वापिस जाना बहुत ज़रूरी है। उन्होंने माँ को आश्वस्त किया कि वे सपरिवार तेरहवीं पर अवश्य लौट आयेंगे।

उनके चेहरे के भाव देख कोई भी उनकी मनःस्थिति का अनुमान लगा सकता था।

उन्हें देख ऐसा लगता था मानो एक-दूसरे से पूछ रहे हों ‘क्या इंसान इसी दिन के लिये बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करता है? क्या माता पिता के प्रति बच्चों का कोई कर्त्तव्य नहीं है?’ वे आंखों में आंसू लिये हैरान, परेशान चिंतित एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे। उनके भीतर का कोहराम थमने का नाम नहीं ले रहा था।

ऐसी स्थिति में रेवती को लगा, सिर्फ पति ही नहीं, शेष संबंधों की डोरी भी खिंच गयी है। उसके टूटने की आशंका बलवती होने लगी है।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003

ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ एक मुकदमा ☆ – श्री संदीप तोमर

श्री संदीप तोमर 

☆ एक मुकदमा ☆

(e-abhivyakti में श्री संदीप तोमर जी का स्वागत है। आपने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में सृजन कार्य किया है और कई सम्मानों एवं अलंकरणों से सुशोभित हैं। आपके उपन्यास “थ्री गर्ल्सफ्रेंड्स” ने आपको चर्चित उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया। हम भविष्य में ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए और भी साहित्य की अपेक्षा करते हैं।)

 

ऐतिहासिक मुकदमा था। कोर्ट परिसर लोगो से अटा पड़ा था। न्यायाधीश ने कहा-“सानन्द जी, आपने जो केस फाइल किया, उसमें आपने अपनी माँ की मृत्यु अस्थमा से बताई है, लेकिन साथ ही आपका कहना है कि आपकी माँ की की हत्या हुई है, आप क्या कहना चाहते हैं स्पष्ट कहिये।”

“माता जी दीवाली पर सदा परेशान रहती थी। मेरा घर कालोनी के ऊपर के माले पर है, नीचे बमों की लड़ी, और बम पटाखों का धुआं सीधा ऊपर आता था। जज साहब यकीन करिये , माँ का  दम घुटने लगता था। वो  80 वर्ष की थी, मेरी माता जी का क्या हाल होता होगा, आप अंदाजा लगा सकते है। वो तड़पती थी।“

लेकिन आप जाकर बोल सकते थे, पुलिस के पास जा सकते थे।“-न्यायधीश ने कहा।

“दीवाली पर किसे नीचे जाकर बोलता जज साहब कि बंद करो ये सब, मेरी माँ को तकलीफ है और नीचे ही क्यो? धुंआ तो पूरे इलाके में है, पूरे शहर में ये ही आलम है, माँ चद्दर लेकर मुँह ढक लेती थी, लेकिन राहत कहाँ मिलती उसे।“

“एक आपकी माँ ही बुजुर्ग नहीं शहर में बहुत बुजुर्ग हैं।“

“शायद दुनिया के सारे बुजुगों को ऐसा महसूस नही होता होगा, पर मेरी माँ को होता था।  पूरी रात बैचैन रहती थी माँ।“

“ठीक है, लेकिन बिमारी के चलते उनकी मृत्यु हुई आप उसे हत्या कैसे कह सकते हैं”

“जज साहब वो रात बड़ी भयानक थी, लोग दीपावली की खुशियाँ मना रहे थे, जैसे-जैसे पटाखों का धुआं और शोर बढ़ता जाता था, उसकी साँस फूलती जाती थी, वो तकलीफ अपने आँखों से देखी थी,  मैं बार बार बालकनी तक आता था, माँ को नुबेलाइज करता और सोचता था  अब बंद हो पटाखें, लेकिन रात जैसे जैसे सबाब पर आती गयी आतिशबाजी बढती गयी, माँ ने आँखें बंद कर ली, वो चली गयी जज साहब, वो चली गयी।“

लेकिन ये एक धर्म पर आरोप का मामला हुआ।“

“नहीं जज साहब, वो सब्बेबारात, गुरुपरब, गुड फ्राइडे सब दिन ऐसे ही जीती-मरती रहती थी।“

“हाँ सानन्द आपने अब मेरी मुस्किल आसान कर दी,  कोर्ट के फैसले का इन्तजार कीजिये।“

“जी जज साहब, आप इन्साफ करेगे इसका मुझे विश्वास है लेकिन मेरे भारत में मायलार्ड को गाली देने वालो की कमी नही है। कोर्ट में बैठे मेरे कई साथी मुझसे असहमत होंगे, मुझे उनसे कोई शिकायत नही, मैं स्वार्थी हूँ, मुझे आज भी अपनी माँ की वो तस्वीर, उसका चेहरा याद आता है तो तकलीफ होती है, किसी भी धर्म का मेरी बात से लेना-देना नही है। मैंने तो बम-पटाखों से फैलते धुंए की वजह से अपनी माँ की तकलीफ से, कोर्ट को अवगत कराया है। निस्वार्थी और बम पटाखों के प्रबल समर्थकों और धर्म के रखवालों से माफी चाहूँगा, आज मेरी माँ नही है, मुझे उसकी तकलीफें है, कल आपको भी होगी।“

सानन्द बोले जा रहे थे।

जज साहब ने टाइपिस्ट को फैसला टाइप करने का इशारा किया।

© श्री संदीप तोमर 

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