हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ भूल -भुलैया ☆ – श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 

 

(प्रस्तुत है श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी  की मानवीय संवेदनाओं पर आधारित लघुकथा ‘उदासी’। हम भविष्य में श्री अरोड़ा जी से उनके चुनिन्दा साहित्य की अपेक्षा कराते हैं।)

 

☆ भूल -भुलैया☆

 

” क्या हुआ? आज फिर मुहं लटकाए बैठा है. कल तो जिंदगी के सुहानेपन के गीत गुनगुना  रहा था.”

” हाँ गुनगुना रहा था क्योंकि कल सुहावनापन था. ”

” मौसम तो आज भी वैसा ही है जैसा कल था.”

” पर आज वो तो नहीं है न! ”

” क्या कल वो थी? ”

” भले ही नहीं थी पर उसने फोन पर कहा था कि वो है.”

” ऐसा तो उसने बहुत बार कहा है? ”

” कल दिन भर मेरे सामने थी पर बात दूसरों से करती रही.”

” यह तो तुम दोनों के बीच बहुत दिनों से होता रहा है तो फिर अब मुहं लटकाने का क्या मतलब?”

” अब मैंने भी तय कर लिया है कि न तो उसका फोन सुनुँगा और न ही उसे फोन करूंगा.”

” तो फिर अब रोना कैसा. छूट्टी खराब मत कर. चल उठ, निकल. कहीं चल कर मस्ती करते हैं.”

” हाँ यही ठीक है, यही करेंगें.”

” वह बिस्तर से निकलने को हो आया कि तभी फोन की ट्यून बज उठी. उसने स्क्रीन पर नजर डाली. ट्यून की लहरों के बीच चमक  रहा  था  “नम्रता कॉलिंग.”

” मित्र ने स्विच आफ करने की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि उसने रोक दिया और कुछ देर तक टनटनाती ट्यून को देखने के बाद मोबाईल को कान से लगा कर आत्मीयता से बोला,” हेलो नमु. गुड मॉर्निंग! कैसी हो.”

“…………………………………………..!”

मित्र ने पाया कि यह तो फिर से उसी भूल -भुलैया में खो गया है. इसके पास रुकने का  कोई फायदा नहीं है.

 

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

डी – 184 , श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद – गाज़ियाबाद  – 201005 ( ऊ. प्र. ) – मो. 09911127277

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #5 ☆ भरोसा ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  भरोसा”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #5  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ भरोसा 

 

आज बहुत अरसे बाद मेरी मुलाकात संस्कृति से हुई, उसे देखकर ऐसा लगा जैसे उसके चेहरे की रौनक चली गई हो। हेलो, हाय सामान्य औपचारिकता के बाद हमसे रहा नहीं गया हमने पूछ ही लिया …

“क्या बात है संस्कृति सब ठीक है न, आज कल तुम पहले की तरह चहकती हुई नहीं दिखाई दे रही।”

“नहीं कोई बात नहीं सब ठीक है।”

“इतने बुझे शब्दों में तो तुमने कभी उत्तर नहीं दिया था, आज क्या हो गया? अच्छा संस्कृति मैं सामने ही रहती हूँ, चलो घर बैठकर बात करते हैं।”

“अब तुम नि:संकोच मुझे बताओ, मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

“अब कुछ नहीं हो सकता न ही कोई कुछ कर सकता है, गया हुआ समय वापस नहीं आ सकता।” इतना कहते ही संस्कृति फूट-फूटकर रोने लगी।

हमने कहा “रोओ मत, कहो मन की बात। अब बताओ.”

तुम जानती हो मेरी पक्की दोस्त ख़ुशी को, उसकी नौकरी हमारे ही शहर दिल्ली में लगी। एक रात उसका फोन आया मैं आ रही हूँ, मेरी नौकरी लग गई है बैंक में। यह सुनते ही मैं ख़ुशी से पागल हो गई और कहा – अरे तुम ज़रूर आओ.

मैंने अपने हसबेंड को बताया, ख़ुशी आ रही है। इन्होने भी कहा कोई बात नहीं आने दो तुम्हें भी सहारा मिल जायेगा नए मेहमान आने में ज़्यादा समय नहीं है। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था बहुत बरसों के बाद दो दोस्त मन की बातें करेंगे।

ख़ुशी आई। हमने अपने हसबेंड से मिलवाया, ख़ुशी ने कहा हम आप लोगों की लाइफ को डिस्टर्ब नहीं करेंगे 15 दिनों में हमें घर मिल जायेगा, हम चले जायेंगे। हमने कहा कोई बात नहीं तुम यहां भी रह सकती हो।

एक सप्ताह बाद मेरी तबीयत ख़राब हुई मैं अस्पताल में भर्ती हो गई. डॉ. ने कहा बच्चे को खतरा है, डॉ  ने बहुत कोशिश की पर बच्चा खो दिया, पति ने गुस्से से कहा तुमने मेरे साथ बहुत ग़लत किया। मैं करीब 5 / 6 दिन भर्ती रही और यही सोचती रही बच्चा खोने में मेरी क्या गलती है?

अगले दिन घर पहुंची तो आराम करना ज़रूरी ही था, ख़ुशी मेरी बहुत सेवा करती रही, पर पतिदेव बहुत ही रुष्ट नजर आये। हमने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ख़ुशी ने कहा कोई बात नहीं सब ठीक हो जायेगा। इसी आशा से रोते–रोते सो गई जब आँख खुली तो कुछ आवाजें  सुनाई दी। मैं बाहर हॉल में गई तो देखा पतिदेव ख़ुशी के साथ हाथ में हाथ डाले बैठे थे। मैंने कहा ख़ुशी ये क्या?

ख़ुशी के पहले ही पतिदेव बोल पड़े, साली है आधी घरवाली का दर्जा है।

मैंने कहा, सुबह होते मुझे तुम दिखनी नहीं चाहिए।

अगले दिन सुबह मेरे होश ही उड़ गए जब देखा ख़ुशी तो नहीं गई पर पतिदेव ने कहा संस्कृति इस घर में तुम्हारी कोई जगह नहीं है। ख़ुशी ने मुझे वह ख़ुशी दी है जो आज तक तुमसे नहीं मिली।

ख़ुशी मैंने कभी नहीं सोचा था,  तुम मेरी हंसी–ख़ुशी, सुख–चैन सब कुछ छीन लोगी।

मैंने कहा “अरे इतना सब कुछ तुम अकेले झेलती रही और कहाँ रही अब तक?”

“यहीं दिल्ली में अलग रूम लेकर रह रही हूँ मेरा तलाक हो चुका है। उन दोनों ने शादी कर ली है मौज से रहते है।”

“जहां तक मुझे याद है, तुमने लव मैरिज की थी।”

“हां सही याद है।”

“मुझे बाद में पडौसी से पता चला जब मैं अस्पताल में थी तब ही ख़ुशी ने इन्हें अपने कब्जे में कर लिया था।”

“क्या कभी शोभित मिलने नहीं आये या कुछ बोला नहीं, कोई अफ़सोस?”

“अब तो उस शख्स के बारे में सोचना भी नहीं चाहती, सोचकर धोखे की बू आती है।”

“जब जो मेरा अपना था, उसने ही भरोसा तोड़ा तो दोस्त की क्या बिसात?”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #7 – दस्तक ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “दस्तक ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  को  मीन साहित्य संस्कृति मंच द्वारा  हिन्दी साहित्य सम्मान  प्राप्त  प्रदान किया  गया है ।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 7 ☆

 

☆ दस्तक ☆

 

मिस अर्पणा सिंग’ स्कुल की अध्यापिका। नाम भी सुन्दर दिखने में औरों से बहुत अच्छी। सख्त और अनुशासन प्रिय। सभी उनके रूतबे से डरते थे। किसी की हिम्मत नहीं होती कि बिना परमिशन के उनके स्कूल या घर में कोई दस्तक दे। घर परिवार में भी उसी प्रकार रहना, न किसी  का आना जाना और न ही स्वयं किसी के घर मेहमान बनना। इसी वजह से  सब लोगों ने उनका नाम बदल दिया ‘मिस अपना सिंग’ । उनको कोई पसंद भी नहीं करता था। बस स्कूल की गरिमा और उनका कड़क जीवन यापन ही उन्हें अच्छा लगता था।

किसी ने आज तक उनसे उनके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। जानता भी कौन? किसी से उनकी बात ही नहीं  होती थी। समय बीतता गया। कब तक अकेली सफर करती। एक दिन अचानक पाँव फिसल जाने के कारण पैर की हड्डी टूट गई। जैसे उन पर दुखों का पहाड़ आ गया। जैसे तैसे पड़ोसी अस्पताल ले जा कर प्लास्टर लगवा कर ले आये। फिर घर पर अकेली अपनी काम वाली बाई के साथ पड़े रहना।

स्कूल में कुछ बच्चे खुश पर कुछ उदास थे। पर उनके पास जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। पता चला दरवाजे से ही बाहर भगा दिया तो? पर सब की बातों से बेखबर एक उनके कक्षा का विद्यार्थी जिसका नाम ‘अनुज’ था जो बहुत ही शरारती और अपने चंचल स्वभाव के कारण सब का मनोरंजन करता रहता था। सिंग मेडम कभी टेबिल के उपर तो कभी क्लास रूम के बाहर कर देती थीं। उसे अपनी अध्यापिका को देखने और मिलने जाने का मन हुआ।

चुपके से सब बच्चों के साथ जा पहुँचा मेडम के घर। दरवाजे पर दस्तक दिया।  दरवाजा अधखुला और हाथों में पेपर लिए मेडम चश्मे से दरवाजे पर देख कर बोली. कौन? क्या काम है? बस क्या था बाकी बच्चे अनुज को छोड़कर भाग खड़े हुए। परन्तु अनुज हिम्मत कर बोला…. “मेडम जी मैं, आपका अपना अनुज”।

अपना अनूज सुनते ही अध्यापिका की आँखें भर आईं। बड़ी मुश्किल से अपनी भावना को दबाते हुए उसे अन्दर बुलाकर पूछी.. “कैसे आना हुआ?” अनूज ने बड़े डर से बताया “आप को देखने आया था। सब कोई आना चाहते हैं। क्या सब को बुला लूं?”  मेडम ने हां में सिर हिलाया। अनुज दौड़ कर बाहर चला गया।

आज अध्यापिका ‘मिस अपना सिंग’ को अपने नाम से ज्यादा अच्छा ‘अपना अनुज’ कहना  लग रहा था। उनके दिल पर किसी ने ‘दस्तक’ जो दे दिया है। जैसे उन्हें सारे जहां की खुशी मिल गई हो।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆ सिंदूर ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “सिंदूर”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆

 

☆ सिंदूर ☆

 

मोहन ने सभी तरह के प्रयास किए, मगर मोहनी उस के जाल में नहीं फंसी.

“आप से दस बार कह दिया कि मैं अपने पति रमण जी के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती हूँ.”

मोहन भी पूरा जिद्दी था.  “आप चाहे जो सोचे. मगर एक बार मेरे नाम की ही सही.  एक चीज आप को पहनना ही पड़ेगी. हम आप से प्रेम करते है .”

मगर मोहनी ने कभी कोई चीज नहीं ली.

वही मोहन आज उज्जैन से आया था.  ” लीजिए रमण जी ! आप ने उज्जैन की प्रसिद्ध चीज – यह सिंदूर मंगाया था.”

“अरे हाँ , मोहन जी लाइए.” कह कर रमण ने सिंदूर अपनी पत्नी मोहनी को पकड़ा दिया.

मोहनी के तन-मन में आग लग गई,” नहीं चाहिए मुझे सिंदूर,” कहते हुए मोहनी चीख उठी और सिंदूर की डिब्बी जोर से एक और फेंक दी.

सिंदूर की डिब्बी सीधे मोहन के शरीर पर गिरी और वे पूरे लाल हो गए. मानो वे मोहनी के क्रोध में नहा गए हों .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #5 – छोटा मुंह बड़ी बात….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही शिक्षाप्रद लघुकथा  “छोटा  मुँह बड़ी बात….. ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #5 ☆

 

☆ छोटा मुँह बड़ी बात….. ☆

 

पांच वर्षीय मेरा चुलबुला पोता दिव्यांश स्कूल व अपने गृहकार्य के बाद अधिकांश समय मेरे कमरे में ही बिताता है। कक्ष में बिखरे कागज व पत्र-पत्रिकाएं ले कर पढ़ने का अभिनय करते हुए बीच-बीच में वह मुझसे कुछ-कुछ पूछता भी रहता है।

आज दोपहर फिर एक पत्रिका खोल कर पूछता है — “दादू ये क्या लिखा है? ये वाली कविता पढ़कर मुझे सिखाओ न दादू! ये कविता भी आपने ही लिखी है न ?”

“नहीं बेटू–ये मेरी कविता नहीं है।”

“फिर भी आप पढ़ कर सुनाएं मुझे।””

टालने के अंदाज में मैंने कहा- “बेटू जी आप ही पढ़ लो, आपको तो पढ़ना आता भी है।”

“नहीं दादू! मुझे अच्छे से नहीं आता पढ़ना। आप ही सुनाइए।”

“इसीलिए तो कहता हूँ बेटे कि, पहले खूब मन लगा कर अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लो, फिर बड़े हो कर अच्छे से कविताएं पढ़ना और सब को सुनाना भी।”

बड़े हो कर नहीं दादू! मुझे तो अब्बी छोटे हो कर ही कविता पढ़ना और सुनाना भी है, आप तो पढ़ाइए ये कविता।”

“आपसे सीख कर अभी छोटा हो कर ही कविता सुनाते-सुनाते फिर जल्दी मैं बड़ा भी हो जाऊंगा”।

पोते को कविता पढ़ाते-सुनाते हुए मैं खुश था, आज उसने अपनी बाल सुलभ सहजता से  जीवन में बड़े होने का एक सार्थक  सूत्र  मुझे दे दिया था।

“छोटे हो कर कविता सुनाते-सुनाते बड़े होने का।”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #6 गौरव ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “गौरव ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 6 ☆

 

☆ गौरव ☆

 

माता पिता ने अपने इकलौते बेटे का नाम रखा गौरव।

मां हमेशा कहती बेटा जैसा नाम रखा है, वैसा कुछ काम करना। बस छोटे से बाल मन में ये बात घर कर गई थीं।

धीरे-धीरे बड़ा हुआ गौरव।  गौरव ने बारहवीं कक्षा अच्छे नम्बरों से पास करने के बाद देश सेवा में जाने की इच्छा बताया। आर्मी बटालियन का पेपर, फिर ट्रेनिंग के बाद सिलेक्शन हो गया। और एक दिन बाहर बार्डर पर तैनात हो गया।

हमेशा मां की बात मानने वाला गौरव भारत माँ की निगरानी, रक्षा करते नहीं थकता था। माँ  शादी की बात करने लगी। वह हँस कर कहता मुझे अभी भारत माता की सेवा करनी है। माता-पिता भी कुछ न कहते।

एक दिन सुबह सब कुछ अनमना सा था। माँ को समझ नहीं आ रहा था। दरवाजे पर एक सिपाही आया देख पिता जी बाहर आकर पूछे क्या बात हैं? उसने बड़े ही दर्द के साथ बताया कि गौरव भारत मां की रक्षा करते शहीद हो गया।

माँ समझ गई। रो रो कर कह उठी “मेरा गौरव मेरी बात का इतना बड़ा मान रखेगा।  मैं जान न सकी। गौरव इतना महान बनेगा।” माँ का रूदन रूक ही नहीं रहा था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆ जनरेशन गेप ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “जनरेशन गेप ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆

 

☆ जनरेशन गेप  ☆

 

पापाजी  उसे समझा रहे थे ,” सीमा बेटी ! अब तुम्हारी सगाई हो गई है . अब इस तरह यार दोस्तों के साथ घूमने जाना, सिनेमा देखना, शापिंग करना ठीक नहीं है ?….” पापाजी उसे आगे कुछ समझते कि सीमा ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा , ” पापाजी ! आप भी ना , १७ वी सदी की बातें कर रहे है.  हम नई पीढ़ी के लोग हैं. ऐसी पुरानी बातों में विश्वास नहीं करते हैं .”

अभी सीमा अपने पिताजी को जनरेशन गेप पर कुछ और लेक्चर सुनाती कि उस के मोबाइल के वाट्सएप्प पर एक सन्देश आ गया. जिसे पढ़- देख कर सीमा ‘धम्म’ से जमीन पर बैठ गई .

“क्या हुआ ?” सीमा के चेहर पर उड़ती हवाईया देख कर पापाजी ने पूछा तो सीमा ने अपना मोबाइल आगे कर दिया. जिस में एक फोटो डला हुआ था और  नीचे लिखा था , ” सीमा ! मैं इतना भी आधुनिक नहीं हुआ हूँ कि अपनी होने वाली बीवी को किसी और के साथ सिनेमा देखते हुए बर्दाश्त कर जाऊ. इसलिए मैं तुम्हारे साथ मेरी सगाई तोड़ रह हूँ.”

यह पढ़- देख कर पापाजी के मुंह से निकल गया , “बेटी ! यह कौन सा जनरेशन गेप है ? मैं समझ नहीं पाया ?”

शायद  सीमा भी इसे समझ नहीं पाई थी.  इसलिए चुपचाप रोने लगी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #4 – वातानुकूलित संवेदना ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “वातानुकूलित संवेदना”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #4 ☆

 

☆ वातानुकूलित संवेदना ☆

 

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती तीखी धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये हुए एक व्यक्ति पर अचानक नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास पहुँचा।

देखा – वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से कुछ ईर्ष्या सी होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस कारुण्य दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया

अनायास रिक्शेवाले से मिले इस नये विषय पर एक कहानी  बुनने की उधेड़बुन मेरे संवेदनशील मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगी।

घर पहुंचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व  उल्लास है।

रिक्शाचालक पर तैयार मेरी इस सशक्त दयनीय कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।

अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि – हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचा दे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #5 निःशब्द ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “निःशब्द ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 5 ☆

 

☆ निःशब्द ☆

दामोदर एक साधारण व्यक्ति। कद काठी सामान्य । थुलथला बदन और पान के शौकीन। मुंह से चारों तरफ से पान गिरना। गरीबी के कारण बुढापा जल्दी आ गया था। 50-52 साल के परन्तु लगते 70 साल के। प्लंबर का काम, घर घर जाकर काम करना जो उन्हें बुला ले। बेटे के नालायक निकल जाने के कारण दामोदर टूट चुके थे। पत्नी और बिना ब्याही बिटिया घर पर। रोजी से जो कुछ भी मिलता अपनी पत्नी को पूरा का पूरा ले जाकर दे देना।

अपने लिए कभी किसी से मांगने नहीं जाते। खुशी से दे दे तो गदगद हो जाना और यदि मेहनताना कम मिले तो कुछ कहना ही नहीं बस चलते बनना। उनके इस व्यवहार के कारण, सिविल एरिया पर नल सुधारना, पाईप बदलना छोटे-छोटे काम के लिये सिर्फ़ दामोदर का ही नाम होता था। सब काम बहुत मन लगाकर करना।

लगभग 3-4 महिने से दामोदर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। सभी एक दूसरे से पूछते पर कहीं गांव में रहने के कारण उनका पता कोई नहीं जान रहा था। सिर्फ एक मोबाइल नंबर दे रखा था उसने।

अचानक एक दिन  किचन का नल खराब हो जाने से, उस नम्बर पर काल करने से उधर से आवाज आई…. “कौन साहब बोल रहे हैं?”

“दामोदर जी घर पर है क्या?…..” बात शुरू करना चाहते थे। परन्तु उनकी पत्नी  इतना ही बोल सकी, “वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। एक माह पहले उनका देहांत हो गया।”

फोन पर “हैलो, हैलो….. ” की आवाज आती रही। पर उत्तर पर ‘निःशब्द ‘ कुछ बोल न सके। लगा शायद फोन आज डेड हो गया है।

सब कुछ दामोदर के लिए निःशब्द हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 5 – दो पिताओं की कथा ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “दो पिताओं की कथा ” जो निश्चित ही आपको  यह सोचने पर मजबूर कर देगी कि बदलते सामाजिक परिवेश में दोनों पिताओं में किसका क्या कसूर है? कौन सही है और कौन गलत? इससे भी बढ़कर प्रश्न यह है कि इस परिवेश में समाज की भूमिका क्या रह जाएगी? ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 5 ☆

 

☆ दो पिताओं की कथा☆

 

कस्बे के एक समाज के प्रमुख सदस्यों की बैठक थी। समाज के एक सदस्य रामेश्वर प्रसाद की बेटी ने घर से भाग कर अन्तर्जातीय विवाह कर लिया था। अब लड़की-दामाद रामेश्वर प्रसाद के घर आना चाहते थे लेकिन रामेश्वर भारी क्रोध में थे। उनके खयाल से बेटी ने उनकी नाक कटवा दी थी और उनके परिवार की दशकों की प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी थी।

बैठक में इस प्रकरण पर विचार होना था। समाज के एक सदस्य किशोरीलाल एक माह पहले अपनी बेटी का विवाह धूमधाम से करके निवृत्त हुए थे। लड़के वालों की मांगें पूरी करने में वे करीब दस लाख से उतर गये थे। इस बैठक में वे ही सबसे ज़्यादा मुखर थे।

रामेश्वर प्रसाद को इंगित करके वे बोले, ‘असल में बात यह है कि कई लोग अपने बच्चों को ‘डिसिप्लिन’ में नहीं रखते, न उन्हें संस्कार सिखाते हैं। इसीलिए ऐसी घटनाएं होती हैं। हमारी भी तो लड़की थी। गऊ की तरह चली गयी।’

रामेश्वर प्रसाद गुस्से में बोले, ‘यहाँ फालतू लांछन न लगाये जाएं तो अच्छा। हम अपने बच्चों को कैसे रखते हैं और उन्हें क्या सिखाते हैं यह हम बेहतर जानते हैं।’

समाज के बुज़ुर्ग सदस्यों ने किशोरीलाल को चुप कराया। फिर समस्या पर विचार-विमर्श हुआ। यह निष्कर्ष निकला कि लड़कों लड़कियों के द्वारा अपनी मर्जी से दूसरी जातियों में विवाह करना अब आम हो गया है, इसलिए इस बात पर हल्ला-गुल्ला मचाना बेमानी है। रामेश्वर प्रसाद को समझाया गया कि गुस्सा थूक दें और बेटी-दामाद का प्रेमपूर्वक स्वागत करें। अपनी सन्तान है, उसे त्यागा नहीं जा सकता। रामेश्वर प्रसाद ढीले पड़ गये। मन में कहीं वे भी यही चाहते थे, लेकिन समाज के डर से टेढ़े चल रहे थे।

यह निर्णय घोषित हुआ तो किशोरीलाल आपे से बाहर हो गये। चिल्ला चिल्ला कर बोले, ‘हमारी लड़की की शादी में दस लाख चले गये,  हम कंगाल हो गये, और इनको मुफ्त में दामाद मिल गया। या तो इनको समाज से बहिष्कृत किया जाए या फिर समाज मेरे दस लाख मुझे अपने पास से दे।’

वे चिल्लाते चिल्लाते माथे पर हाथ रखकर बिलखने लगे और समाज के सदस्य उनका क्रन्दन सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

 

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