हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 – सुलोचना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “सुलोचना ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 ☆

🌻 लघुकथा – सुलोचना 🌻

यही नाम था उस मासूम सी बिटिया का। माता-पिता की इकलौती संतान और सभी की दुलारी। मोहल्ले पड़ोस में सभी की आँखों का तारा। सुंदर नाक नक्श, रंग साँवला, पर नयन बला की सुन्दरता लिए पानीदार जैसे अभी बोल पड़े।

सुलोचना से सल्लों बनते देर नहीं लगी। समय और आज की दौर में छोटे-छोटे नामों का चलन।

बस सल्लों अपने आप में मस्त। सल्लों की बातें और समझदारी सभी को अच्छी लगती और सब उसे चाहते इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुलोचना को चने की दाल बीनते – बीनते नैनों से अश्रुं धार बहने लगी ।

तभी सासु माँ ने जोर से आवाज लगाई। “अरी ओ! काली चना कुछ समझ में आया कि नहीं आज ही काम खत्म करना है। परंतु तुम्हारे भेजे में कुछ समाता ही नहीं है। काली चना जो ठहरी।”

इससे पहले की दर्द की दरिया बहे। ससुर जी पेपर के पन्ने पलटते कहने लगे… “अरे वो भाग्यवान! आओ तुम्हें बताता हूँ। काली चने के फायदे।”

” आज पेपर पर वही छपा है। तुम अनपढ़ को आज तक समझ नहीं आया कि गँवार फली को चाहे कितना भी विद्ववता से कोई बुलाए परंतु उसे गँवार फली ही कहा जाता है।

ज्ञानकली नहीं!!”

अपनी बाजी पलटते देखा सासु माँ ने समझ लिया कि अब यहाँ से खिसकने में ही भलाई है।

क्योंकि नाम उसका ज्ञान कली।

और वह अंगूठा छाप। सिर्फ मुँह चलाना जानती थी।

सुलोचना के आँसु कब कृतज्ञता के भाव में पिताजी के चरणों पर झुके और सुलोचना ने देखा कि दोनों हाथ पिताजी ने उसके सिर पर रखे हुए हैं। एक मजबूत सहारे की तरह। मैं हूँ न।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – शाप – मुक्त – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – शाप – मुक्त ।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – शाप – मुक्त – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

उसके तीनों बेटे एक ही रास्ते के मुसाफिर निकले। शहर की मुसाफिरी की बुनियाद बड़े बेटे ने रखी थी। पिता का तो शहर से दूर का भी नाता नहीं था। कमाना, घर चलाना सब उसके अपने गाँव से होता था। इसके विपरीत बड़ा बेटा केवल शहर की बात करता था। पिता कहाँ जानता बड़े बेटे के भीतर कैसा सपना पल रहा है।

बेटे ने एक दिन पिता से कहा वह एक काम से शहर जा रहा है। पर जाने के बाद तो वह लौटा ही नहीं। पिता उसे ढूँढने गया। संयोग से बेटा उसे दिख गया। बेटा टोकरी में बाज़ार के लिए सिर पर सब्जियाँ ढोता था। पतलून और कमीज़ फटी थी। वह नंगे पाँव था। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। चेहरे से वह क्रूर लगता था। पिता को आश्चर्य ही तो होता। गाँव में यही बेटा खाली पाँव कभी चलता नहीं था। कपड़ों का वह पूरा ध्यान रखता था।

पिता ने उसे न टोक कर सारा दिन उसका अध्ययन किया। बेटा शाम को एक गली में गया। औरतें उस गली में ग्राहकों के लिए मंडरा रही थीं। औरतों के मतवाले उनसे बातें करने के बाद उनके साथ घर के भीतर चले जाते थे। बेटा इन्हीं औरतों में से किसी एक के यहाँ रहता था। बेटा अब न दिखने से पिता अपने दुख को अपने सीने में किसी तरह दबाये लौट गया।

थोड़े दिनों बाद बड़ा बेटा शहर में मारा गया। पिता को पता लगा तो शव को घर लाया। अरथी उठने के दूसरे दिन मझला बेटा यह कह कर शहर गया वह पता लगाने जा रहा है उसके भाई के साथ क्या हुआ था। वह गया और लौटा ही नहीं। पिता पहले बेटे की तरह उसे भी ढूँढने शहर गया। बहुत भटकने के बाद बेटा दिखाई दिया। पिता ने उसकी गतिविधियों का पता लगा कर देख लिया। वह भी बड़े भाई की तरह सिर पर टोकरी ढोता था। बेटा दिन भर टोकरी ढोने के बाद एक गली के किनारे भिखारियों में जा मिला। इस बार भी वही हुआ, पिता ने उससे मिलना चाहा तो वह दिखा ही नहीं।

कुछ दिनों बाद यह बेटा भी शहर में मारा गया। सूचना पाने पर पिता ने शव लाने की बात बिल्कुल नहीं की। पिता शव को न लाता तो छोटा बेटा स्वयं शहर चला गया। अब तो पिता को उसके लिए भी शहर जाना पड़ा। बेटा उसे मिला। वह भीख मांगता था। उसे दिखाई नहीं देता था। उसने पिता को बताया उसकी आँखों में तेजाब फेंका गया था। उसने पिता से कहा शहर में तो वह ठीक था। बस आँखें न जातीं। पिता उसे हाथों में कस कर रोने लगा। बेटा भी अपनी सूनी आँखों से रोया।

बेटा अपने पिता के साथ गाँव लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ। शोकातुर पिता ने अपने आप से कहा “शायद मेरे परिवार पर शहर का कोई शाप होगा। उस शाप को इसी रूप में उतरना था !”

***

© श्री रामदेव धुरंधर

11 – 05 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 140 ☆ लघुकथा – चटकन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा चटकन। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 140 ☆

☆ लघुकथा – चटकन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सुबह उठकर रोज की तरह अखबार उठाया और छत  पर चली गई। उसे अच्छी लगती है छत पर लगे पेड़-पौधों से मुलाकात। हवा में लहराती डालियां मानों गलबहियां करने को आतुर हैं। उसकी नजर पड़ी –‘अरे ! खिल गया यह फूल ,कितना सुंदर है’, धीरे से सहला दिया। फूल मानों बालों में टँक गया। वह गमलों में पड़ी सूखी पत्तियां निकालने लगी, खर-पतवार भी निकाल फेंके। अब इनको पूरा पोषण मिलेगा। जीवन में खर -पतवार नजर क्यों नहीं आते? मुरझाते पौधों को पानी से सींच वह मानों खुद ही हरी – भरी हो गई।

पेड़ – पौधों को खाद – पानी देते कितना समय निकल गया, पता ही नहीं चला। नाश्ता बनाना है, वह नीचे आ गई। पति सुबह जाकर रात में ही घर आते हैं, कहते हैं बहुत काम रहता है उन्हें। घर में वह सारा दिन अकेली। अपने कमरे में आकर चादर की सलवटें ठीक कीं, तकिए जगह पर रखे ,हाँ अब ठीक। बच्चों के कमरे पर नजर डाली, सब साफ ही है, पहले कितना बिखरा रहता था घर, अब तो — उसने गहरी साँस ली। डाईनिंग टेबिल से चाय के कप , गिलास , सॉस की बोतल हटाकर जगह पर रखी। फूलदान में रखे फूलों का पानी बदला। पानी बदलने से  फूलों में जैसे जान आ गई हो। कितने दिनों से घर के बाहर निकली ही नहीं , रोज वही काम , वही रूटीन । ड्राइंगरूम में रखे काँच के फूलदान को बहुत संभालकर उठाया।‘ओह! कितना नाजुक है,’ धीरे से रख रही थी फिर भी अनायास जोर से रखा गया, ‘उफ! चटक गया।‘ जीवन में रिश्ते भी तो ना जाने कब, कैसे बिखर जाते हैं –?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #228 – लघुकथा – ☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा वातानुकूलित संवेदना” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #228 ☆

☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक उनकी नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर साहित्यजीवी बुद्धिप्रकाश जी उसके पास पहुँच कर देखते हैं –

वह व्यक्ति खर्राटे भरते हुए इत्मीनान से गहरी नींद सोया है।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच सर्व सुविधाभोगी,अनिद्रा रोग से ग्रस्त बुद्धिप्रकाश जी को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने गहरे से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे  पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वे वापस अपनी कार में सवार हो गए और घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में जुट गए।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए बुद्धिप्रकाश जी आत्ममुग्ध हो एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास से भर गए।

रिक्शाचालक पर सृजित अपनी इस दयनीय सशक्त कहानी को दो-तीन बार पढ़ने के बाद उनके मन-मस्तिष्क पर इतना असर हो रहा है कि, खुशी में अनायास ही इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी जोरों से मन में हिलोरें लेने लगी।

तो ताजे-ताजे मिले इस संवेदना परक विषय पर कविता लिखना बुद्धिप्रकाश जी ने इसलिए भी जरूरी समझा कि, हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से पात्र रिक्शेवाले के ज़रिए उन्हें किसी सम्मानित मुकाम तक पहुँचा कर कल को प्रतिष्ठित कर दे।

यश-पद-प्रतिष्ठा और सम्मान के सम्मोहन में बुद्धिप्रकाश जी अपने शीत-कक्ष में अब कविता की उलझन में व्यस्त हैं।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 22 – मुक्ति मार्ग ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मुक्ति मार्ग।)

☆ लघुकथा – मुक्ति मार्ग श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

भूखे पेट भजन न होय गोपाला। भूख तो सबको लगती है भगवान के दर्शन हो जाएं तो मन तृप्त होता है लेकिन शरीर के लिए तो भोजन आवश्यक है ।

देखो बहू मैं साड़ी देख रही थी तो तुम्हें और जीतू को ऐतराज हो रहा था मैं तुम्हारे लिए ही साड़ी बनाना चाह रही थी।  डिजाइन को अपने दिमाग में बिठा रही थी देखो चूड़ी बिंदी तो सब जगह मिलती है, लेकिन तुम्हारा मन ललचाया ।

कोई बात नहीं तुम देखो?

तब तक मैं सभी के खाने की व्यवस्था करती हूं। उस सामने वाले रेस्टोरेंट में आ जाना।

तभी मां एवं जीतू के पास एक बुजुर्ग आती है और कहती है बहन जी काशी में आई है कुछ दान पुण्य तो कर लीजिए, मुक्ति मार्ग दान के सहारे ही मिलेगा।

हां अब बस तुम ही तो बाकी रह गई हो उपदेश देने को उधर मंदिर में पुजारी, टीवी खोल कर बैठो तो साधु से लेकर युवा पीढ़ी सभी लोग फेसबुक, व्हाट्सएप जाने कहां से इतना सभी के पास ज्ञान आता है ?

बेटा हम तुम भोजन करें वही हमारे लिए मुक्ति मार्ग है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 – बोझिल पहचान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बोझिल पहचान”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 ☆

🌻 लघुकथा – बोझिल पहचान 🌻

किसी भी व्यक्ति की सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, मीठी वाणी, निश्चल व्यवहार, और सादगी से सँवरता हुआ परिधान। हजारों की भीड़ में उसे अलग दिखा सकता है। उसे अपनी पहचान बनाने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के ज्ञान का परचम धीरे-धीरे ही सही बढ़ता और महकता जरूर है।

जीवन का सरल होना आज के समय पर ज्यादा कठिन है क्योंकि सभी नर-नारी अपने संपूर्ण जीवन को बोझिल बन चुके हैं। जरूरत से ज्यादा उदासीनता, ऊपरी दिखावा, मेल मिलाप की कमी और अपने निष्ठुर व्यवहार को यहाँ-वहाँ प्रदर्शित कर अपनी पहचान को छुपा चुके हैं।

वह शायद एक तराशी हुई सुंदर आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लगती थी। जिसे कुछ भी कह सकते थे। जब भी वह बाहर निकलती। अपनी आकर्षक मुस्कान बड़ी-बड़ी आँखे केश के सुंदर लट बिखरे हुए, चेहरे पर बनावटी सुंदर मुस्कान, कानों के सहारे मोती माला में झूलते चश्के अंदर से निहारते नयन और उसकी बातों से सभी को लगता शायद यह एक दमदार और सच्ची महिला है।

कई महिलाएं उसके झांसे में आ जाती। परंतु आज अचानक एक भोली- भाली महिला उसकी बातों में आकर उस देवी जी के घर पहुंच गई।

अनजाने लोग, अचानक का समय उसने शायद उसकी कल्पना नहीं की थी। घर के अंदर से खिड़की से झाँक कर उसे लगा शायद वह महिला को कुछ पता नहीं चलेगा।

जैसे ही माननीया ने दरवाजा खोला बिना लेंस के टटोलती हाथों में कापी पेन, सर पर छोटे-छोटे घास फूल जैसे बाल, हाथ पैर झुलसे और परिधान से जाने किस समय से उसने स्नान नहीं किया था।

बस देखते ही बरस पड़ी आपको बिना बताए नहीं आना चाहिए।

अतिथि महिला ने तत्काल कहा… तभी तो आपकी पहचान हो पाई है। आप कितना अपनी पहचान बोझिल बनाकर चल रही हैं।

स्वयं भी उसमें उलझी हुई हैं और दूसरों को भी उलझा कर रखी हैं। आप सादगी और असली पहचान में रहती तो शायद मेरी सद्भावना आपके लिए और होती, परंतु जो स्वयं नकली और नकली मुखौटा लगाकर दुनिया को बेवकूफ बना रही है, वह क्या किसी को समझ पाएगी।

कहती हुई वह महिला बाहर निकलने लगी। महोदया को हजारों रुपए के लटकते नकली केश, इधर-उधर बिखरे मेकअप का सामान आज बिना माल के नजर आने लगा।

जो एक गरीब महिला उसे दो टके का जवाब देकर चली गई। अपनी पहचान के लिए वह आईने के सामने खड़ी थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “लीडरी” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –लीडरी“.)

लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

दृश्य वही था। लोमड़ी नदी में पानी पी रही थी। उसके ऊपर की ओर भेड़िया था।

भेड़िया गुर्राया-गंदा पानी इधर भेज रही है–ऐं। फिर तेरा झूठा पानी भी पीना पड़ेगा-ऐं।

‘गंदा और झूठा तो आप कर रहे हैं महाराज। पानी का बहाव तो उधर से इधर की ओर है।’

भेड़िया गुर्र्रा कर बोला-चोप्प।

‘चोप्प क्यों महाराज। इसमें मेरी गलती कहां है महाराज।’

‘चोप्प, मुंह लडाती है, चोटटी कहीं की।’

अब लोमड़ी ने अपना रूप दिखाया-‘चोटटा होगा तू—तेरी सात पीढ़ी—तू मुझसे ही खेल रहा है सांप सीढ़ी।’

अब भेड़िया घबराया। यह तो तो उलटी गंगा बहने लगी थी। लोमड़ी भेड़िए को आंखें दिखाने लगी थी।  तब तक लोमड़ी ने भेड़िए को फिर हवा भरी। अपनी आंखें तरेरते हुए बोली-

‘यहां की मादा यूनियन की सेक्रेटरी हूं मैं। किसी भी मादा से अशिष्टता की सजा जानता है तू।’

‘घेराव, जुलूस, पुलिस, अदालत फिर सजा। जंगल से बहिष्कार मादाओं की भी इज्जत होती है आखिरकार।’

भेड़िया घबराया। यह कहां का बबाल उसने बना डाला। किस मुसीबत से पड़ गया है पाला। अपना गिरगिट जैसा रंग बदलकर बोला-‘माफी दें लोमड़ी बहन, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी।’लोमड़ी की बन आई थी इसलिए रौब झाड़ कर बोली-‘चल फूट नासपीटे—पानी पीने का मजा ही किरकिरा कर दिया।’

भेड़िए के दुम दबाकर भागने पर वह अकड़ती हुई जंगल में घुसती चली गई।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – थपेड़े – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  थपेड़े ।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – थपेड़े – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

आकाश प्रेम से देखता था, चाँद आत्मीयता से तकता था, पृथ्वी खुशी से स्पंदित होती थी। यह एक बालक के जन्म का उत्सव था। अच्छा करने में बालक की अद्भुत लगन थी। पर बालक बड़ा होने की प्रक्रिया में परिवर्तित दिखायी दिया। तब तो आकाश, चाँद और पृथ्वी का उत्सव शिथिल पड़ गया। बालक पूर्व जन्म से कुछ ले कर धरती पर आया था जिसे जमाने के थपेड़ों ने नष्ट करके उसे अपने धरातल पर खड़ा कर लिया था।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

17– 04 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 139 ☆ लघुकथा – दिन छुट्टी का ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा दिन छुट्टी का ?। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 139 ☆

☆ लघुकथा – दिन छुट्टी का ?  ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रविवार का दिन। छुट्टी के दिन सबके काम इत्मीनान से होते हैं। बच्चे तो दस बजे तक सोकर उठते हैं। रिया सबसे पहले नहाने चली गई, छुट्टी के दिन बाल ना धो तो फिर पूरे हफ्ते समय ही नहीं मिलता। ऑफिस से लौटते हुए सात बज जाते हैं फिर वही रात के खाने की तैयारी। उसने नहाकर पूजा की और सीधे रसोई में चली गई नाश्ता बनाने। रविवार को नाश्ता में कुछ खास चाहिए सबको। आज नाश्ते में इडली बन रही है। नाश्ते करते-करते ही ग्यारह बज गए। बच्चों को आवाज लगाई खाने की मेज साफ करने को। तभी पति की आवाज सुनाई दी –‘सुनो! मेरी पैंट शर्ट भी वाशिंग मशीन में डाल देना। ‘ झुंझला गई – ‘अपने गंदे कपड़े भी धोने को नहीं डालते, बच्चे तो बच्चे ही हैं, पर ये —

बारह बजने को आए, जल्दी से खाने की तैयारी में लग गई। दाल-चावल , सब्जी बनाते-बनाते दो बजने को आए। गरम-गरम फुलके खिलाने लगी सबको। तीन बजे उसे खाना नसीब हुआ। रसोई समेटकर कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि बारिश शुरू हो गई। अरे, मशीन से निकालकर कपड़े बाहर डाल दिए थे, जब तक बच्चों को आवाज लगाएगी कपड़े गीले हो जाएंगे, खुद ही भागी। सूखे कपड़े तह करके सबकी अल्मारियों में रख दिए जो थोड़े गीले थे कमरे में सुखा दिए। शाम को फिर वही क्रम रात का खाना, रसोई की सफाई— । छुट्टी के दिन के लिए कई काम सोचकर रखती है पर कई बार रोजमर्रा के काम में ही रविवार निकल जाता है। छुट्टीवाले दिन कुछ ज्यादा ही थक जाती है। छुट्टी का तो इंतजार ही अच्छा होता है बस। थककर चूर हो गई, आँखें बोझिल हो रही थीं कि पति ने धीरे से कंधे पर हाथ रखकर कहा– ‘आज सारा दिन मैं घर पर था पर तुम दो मिनट आकर बैठी नहीं मेरे पास, क्या करती रहीं सारा दिन? प्यार करती हो ना मुझसे? वह जैसे नींद में ही बोली— ‘प्यार?’ आगे कुछ बोले बिना ही वह गहरी नींद में सो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #168 – प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “लघुकथा – प्रायश्चित)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 168 ☆

☆ लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”

“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”

“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”

“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।

“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनोगी?”

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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