(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “मन चंगा तो कठौती में गंगा…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 333 ☆
लघुकथा – मन चंगा तो कठौती में गंगा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
उसका पुश्तैनी मकान प्रयाग में है संगम के बिल्कुल पास ही। पिछले साल दो साल से जब से कुंभ के आयोजन की तैयारियां शुरू हुई , उसकी सामान्य दिनचर्या बदलने पर वह मजबूर है। मेले की शुरुआत में परिचितों, दूर पास के रिश्तेदारों, मेहमानों के कुंभ स्नान के लिए आगमन से पहले तो बच्चे, पत्नी बहुत खुश हुए पर धीरे धीरे जब शहर में आए दिन वी आई पी मूवमेंट से जाम लगने लगा, कभी भगदड़ तो कभी किसी दुर्घटना से उसकी सरल सीधी जिंदगी असामान्य होने लगी । दूधवाला, काम वाली का आना बाधित होने लगा तो सब परेशान हो गए । इतना कि, आखिर उसने स्वयं ऑफिस से छुट्टी ली और घर बंद कर कुंभ मेले के पूरा होने तक के लिए सपरिवार पर्यटन पर निकलने को मजबूर होना पड़ा ।
प्रयाग की ओर उमड़ती किलोमीटरों लंबी गाड़ियों के भारी काफिले देख कर उसे कहावतें याद आ रही थी, देखा देखी की भेड़ चाल, मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – भाषा
– सुना है कि दुनिया की हर भाषा पढ़ लेते हो तुम।
– जी !
– अच्छा तो इस काग़ज़ पर लिखी ये चार भाषाएँ पढ़कर सुनाओ।
….मैं चुप रहा।
– जब कुछ जानते ही नहीं तो तुम्हारे बारे में यह झूठा प्रचार क्यों?
– मैं मन की भाषा की पढ़ लेता हूँ। उसके बाद दूसरी कोई भाषा जानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “चौथी सीट… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆
लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
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जब राज बहादुर बुढापे की ओर बढने लगे तो उनके बेटे ने घर की जिम्मेदारी में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो उसकी ओर से निश्चिंत हो गए। चाहते थे कि हाथ पाँव चलते बेटे का भी विवाह हो, परंतु बेटा जगदीश यह कह कर टाल देता कि वह अपनी कमाई से संतुष्ट हो जाए और स्वतंत्र रूप से गृहस्थी चलाने योग्य हो जाए तब विवाह की सोचेगा। उसने अपने पिता से कहा कि घर बनाते समय जो कर्ज चुक भी नहीं पाया और बहन के विवाह में कर्ज और चढ गया तो ऐसी हालत में और खर्च बढाना उचित नहीं है। राज बहादुर अंदर ही अंदर यह सुनकर प्रसन्न होते लेकिन बिना दर्शाए कहते, “कहते तो ठीक हो पर सही उम्र में काम होना उचित रहता है। समाज भी देखना पड़ता है।” वे केवल कहने के लिए कहते, पालन करने के लिए नहीं।
ऐसे ही समय ठीक ठाक कट रहा था। बेटी एक बच्चे की माँ बन गई थी। जगदीश का भी विवाह हो गया। काम भी ठीक चल ही रहा था। राज बहादुर कढाई का काम करते थे पर नज़र कमजोर होने की वजह से काम बंद कर दिया था। फिर भी जो काम मिलता कर लिया करते। उनकी आमदनी में घर चल जाता था पर वे कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कर सके जिससे बुढापे में पैंशन मिल सके। न सरकारी नौकरी थी न किसी बड़ी कंपनी की नोकरी, जिससे रिटायर होने पर पैंशन मिलती है।वरिष्ठ नागरिक की उम्र पार करने पर उन्होंने वृद्धावस्था पेंशन के लिए कोशिश की। केंद्र व राज्य सरकार की पेंशन योजना में पैंशन के लिए आवेदन करने गए तो बताया गया कि केवल निराधार वृद्धों को पैंशन दी जाती है। निराधार का मतलब जिनके बेटा न हो। अगर बेटा हो भी तो परिवार की आय एक निश्चित रकम से कम होनी चाहिए। उनके बेटे जगदीश की आय आयकर के दायरे में तो नहीं आती परंतु उस सीमा से अधिक थी जिस सीमा तक सरकार की पैंशन मिलती है। राज बहादुर यह तो कह ही नहीं सकते कि उनका बेटा नहीं है। जगदीश एक कंपनी में काम करता था। उसके वेतन से घर चल जाता था। फिर भी कुछ ऐसे काम थे कि उसका वेतन कम पड़ जाता। घर का टैक्स यानी प्रापर्टी टैक्स तीन गुना बढ़ गया था और जगदीश टैक्स जमा नहीं कर पा रहा था। टैक्स जमा न करने के नोटिस आते तो जगदीश अपने पिता तक नहीं पहुंचने देता।
तीन साल का प्रापर्टी टैक्स देना बाकी था, इसका नोटिस देखा तो राज बहादुर सोच में पड़ गए। सोच रहे थे कि जगदीश ने टैक्स जमा क्यों नहीं किया? जगदीश से पूछने में भी उन्हें संकोच हो रहा था। क्योंकि, जगदीश ने उनसे कभी कुछ छुपाया ही नहीं। वे सोच रहे थे कि जरूर कोई गंभीर बात है। खाना खाने के बाद सब सोने चले गए पर राज बहादुर को नींद नहीं आ रही। वे वॉशरूम के लिए उठे तो देखा जगदीश के कमरे की लाइट जल रही है। पता नहीं उन्हें कमरे में झाँकने की इच्छा ने मजबूर कर दिया। वे किसी के कमरे में झाँकने को बहुत बुरा मानते थे। परंतु इस बार वे अपने आपको रोक नहीं सके। देखा जगदीश लेपटॉप खोल कर बड़ी गंभीरता से कुछ देख रहा है और कागज पर कुछ नोट करता जा रहा है। आखिर कमरे में घुसते हुए पूछ बैठे,
“जगदीश बेटा अभी तक सोए नहीं? क्या काम बहुत ज्यादा है। ” जगदीश चौंक गया। कुर्सी से उठा और सोचा कि पिताजी से छुपना ठीक नहीं तो बोला, “पापा जॉब ढूंढ़ रहा हूँ। कंपनी में छँटनी हो रही है। एकाध हफ्ते में मेरा नंबर भी आ सकता है।” “छँटनी?” “हाँ पापा छँटनी, तीन साल से यह तलवार लटकी हुई है पर अब सिर पर गिरने ही वाली है। मैंने प्रॉपर्टी टैक्स जमा नहीं किया बल्कि छोटी सी बचत कर रहा था ताकि अचानक ऐसा वक्त आए तो कम से कम रसोई चल सके। नया जॉब मिलने पर टैक्स जमा कर दूंगा। सॉरी पापा!” राज बहादुर सोचते रहे कि दिन पर दिन बढती महँगाई, तीन गुना घर का टैक्स और बेरोज़गारी की लटकती तलवार, जीना कैसे संभव होगा। ऊपर अँधेरे में आसमान की ओर हाथ उठाते हुए बड़बड़ाए “जीने की संभावना मर नहीं सकती।” तभी जगदीश कमरे से बाहर निकल आया और बोला, “पापा मुझे नया जॉब मिल जाएगा। कल इंटरव्यू है।” राज बहादुर के चेहरे पर कैसे भाव आए, उन्हें जगदीश नहीं देख सका।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन से आजाद ।)
क्या बात है दादाजी मम्मी पापा घूमने जाते हैं और हमें छोड़ जाते हैं? हम सब साथ जाते तो कितना मजा आता।
कोई बात नहीं बेटा रिंकू हम दोनों घर में खूब मजे करेंगे और कल मैं तुम्हें सुबह पार्क भी ले जाऊंगा। चलो तुम्हें क्या खाना है मैं वही बनाता हूं। वह लोग तो बाहर खाने में पता नहीं क्या कचरा सड़ा गला कितने दिनों का बासी खाएँगे। मैं तुम्हें ताजा फ्रेश खिलाता हूं। आलू और मटर की सब्जी बढ़िया रोटी में तुमको रोल करके देता हूं। तुम्हारी दादी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थी। मैं उन्हें देखते-देखते ही सीख गया। आज काम आ रहा है।
दादाजी, मैं भी जब बड़ा हो जाऊंगा तो उन्हें लेकर कहीं नहीं जाऊंगा हम और आप चलेंगे?
ठीक है अच्छे से पढ़ाई कर लो रिंकू।
तभी अचानक बहू बेटे आ जाते हैं और बहू रिंकू की बात सुन लेती है। बाबूजी आप छोटे से बच्चे के कान में हमारे खिलाफ क्या-क्या भरते रहते हैं? कल हम इसे हॉस्टल भेज देंगे आपकी संगत में यह बिगड़ जाएगा।
हां बात तो सही है तुम्हारी। रेनू जब मैं छोटा था तो बाबूजी मुझे यही बात कहते रहते थे। हां किशोर मैं तुम्हें यही बात तो कहता रहता था लेकिन तुमने मेरी बात सुनी कहा विदेश पढ़ने के लिए भेजा था अपने लिए कुछ ना रखते हुए तुम्हें पढ़ाया लिखाया। और मुझे क्या पता था कि तुम मेरा ही जीवन नर्क बनाओगे। नहीं तो तुम कभी रेनू से शादी करते?
मैं इतना ख्याल रखती हूं बाबूजी आपका। तब भी आप मेरे लिए ऐसे ही सोचते हैं अब तो लग रहा है कि आपको वृद्ध आश्रम के रास्ते दिखाने पड़ेंगे।
मैं जानता था कि एक दिन ऐसा आएगा। पंडित जी के आश्रम में अभी जा रहा हूं। यह तो मैं पोते के मोह में यहां पर था। रिंकू में जा रहा हूं पास में आश्रम और मंदिर है तुम बेटा आते रहना। मुझे तुम पर गर्व है तुम मेरी तरह बनना। अपने माता-पिता की तरह नहीं। आज तुम्हारा धन्यवाद अदा करता हूं कि तुम लोगों ने मुझे इस बंधन से आजाद कर दिया। मैं थोड़ा लोभी हो गया था।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 43 – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत
घटना तब की है जब पिथौरागढ़ एक छोटी – सी जगह थी। कुमाऊँ- गढ़वाल इलाके का एक साधारण गाँव। यह गाँव पहाड़ों के ऊपरी इलाके में स्थित था। अल्पसंख्यक जनसंख्या थी।
रतनामाई छोटी – सी उम्र में ब्याह कर यहीं आई थी। फिर यही गाँव और अपना छोटा – सा घर उसकी दुनिया बन गई थी। वह निरक्षर थी पर अपने सिद्धांतों की बहुत पक्की थी। आत्मनिर्भरता का गुण उसमें कूट-कूटकर भरा था।
प्रातः उठना घर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना और फिर पास के मैदानों से लकड़ियाँ तोड़कर लाना, उन्हें घर के पास पत्थरों से बने एक कमरे में जमा करना उसकी आदत थी। बूढ़ी हो गई थी पर यह आदत न छुटी।
पति के गुज़रने के बाद उसने अपने घर के बाहरी आँगन में पत्थरों को मिट्टी से लीपकर टेबल जैसा बना लिया था और छोटी – सी आँगड़ी पर चाय बनाकर बेचा करती थी। घर की छोटी-मोटी ज़रूरतें उससे पूरी हो जाती थीं। दोनों बेटिओं ने भी अपनी माँ का साथ दिया तो कभी पकोड़े तो कभी मैगी भी अब दुकान में बिकने लगीं थीं।
अब तो माई की उम्र सत्तर के करीब थी। दोनों बेटियाँ ब्याही गई थीं, दो बेटे जवान हो चुके थे, बहुएँ और पोते – पोतियाँ थीं पर अभी भी प्रातः उठकर चूल्हा जलाना, गरम पानी रखना, चाय बनाना, आटा गूँदना और फिर थोड़ी धूप निकलते ही लकड़ियाँ चुनने खुले मैदान की ओर निकल जाना उनकी दिनचर्या में शामिल था।
बेटों ने कई बार अपनी माँ से कहा कि अब तो सरकार ने गैस सिलिंडर भी दे रखे हैं क्या ज़रूरत है लकड़ियाँ एकत्रित करने की भला ? उत्तर में रतनामाई कहतीं -कल किसने देखा बेटा, क्या पता कब ये लकड़ियाँ काम आ जाएँ!
उसकी बात सच निकली। मानो उसे दूरदृष्टि थी। एक साल इतनी अधिक बर्फ पड़ी कि पंद्रह दिनों के लिए रास्ते बंद पड़ गए और गैस सिलिंडर दूर -दराज़ गाँवों तक समय पर न पहुँचाए गए। ऐसे समय माई की जमा की गई लकड़ियाँ ही ईंधन के काम आईं, बल्कि पड़ोसियों को भी माई की इस मेहनत का प्रसाद मिला।
अनुभवी और दूरदृष्टि रखनेवाली माँ से अब उनके बेटे विवाद न करते। समय बीतता रहा।
कुछ समय पहले इतनी भारी बर्फ पड़ी कि सारी भूमि श्वेतिमा से भर उठी। दूर – दूर तक बर्फ़ ही बर्फ़ दिखाई देती। जनवरी का महीना था अभी ही तो सबने नए साल का जश्न मनाया था पर उस दिन सुबह रतनामाई नींद से न जागी। रात के किसी समय नींद में ही वह परलोक सिधर गई।
बाहर बर्फ की मोटी परतें चढ़ी थीं, सूर्यदेव भी छुट्टी पर थे। मोहल्लेवालों ने आपस में तय किया कि इतनी भारी बर्फ में माई को श्मशान तक ले जाना कठिन होगा। इसलिए पास के खुले मैदान पर जहाँ बर्फ तो थी पर घर के पास की ही समतल भूमि पर चिता सजाई गई। माई के अंतिम संस्कार में माई द्वारा संचित लकड़ियाँ उस दिन काम आईं।
चिता जल उठी, माई का स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता और दूरदृष्टि धू- धूकर जलती हुई लपटों में लिपट कर आकाश की ओर मानो प्रभु से मिलने को निकल पड़ी। एक अनुभवी काल का अंत हुआ।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “– गणित से परे –” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — गणित से परे —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
एशना ने अपने माँ – बाप को लड़ते तो कभी नहीं देखा। दोनो घर में हों और बेटी से बातें कर रहे हों तो लगता था उनके बीच तो अनंत प्रेम पलता है। हो सकता था उनके प्रेम की परिभाषा यही हो, लेकिन इस तरह अपनेपन से भरे घर में जब तलाक की बात उठी तो एशना समझ न पायी किसे अधिक देखे माँ को या पिता को? या दोनों को बराबर देखे या उन्हें बिल्कुल न देखे? अदालत में तलाक के साथ न्याय यह सामने आया कि एशना अपनी माँ के साथ रहेगी। माँ ने इस खुशी में बेटी को गले लगाया तो पिता ने बेटी को प्यार से शाबाशी देते हुए कहा यही होना चाहिए था। इस वात्सल्य के बाद पिता धीरे से हट गया। एशना अपने पिता का यह उदार वात्सल्य अपने साथ ले कर माँ के साथ गई। वह अपनी माँ के मना करने पर भी पिता से अलगाव करती नहीं। पर उसने तो देखा माँ स्वयं चाहती थी पिता के प्रति उसका प्रेम बना रहे। पिता जब फोन से कहता था ठीक से पढ़ना और माँ यह सुन लेती थी तो कहती थी अपने पिता का कहा मानना। बेटी परीक्षा में जब भी पास हुई माँ ने उसे यह सूचना अपने पिता को देने के लिए कहा। पिता ने सूचना पाते ही उसे शाबाशी दी और कहा तुम्हारी माँ को यह श्रेय जाता है। एशना अपनी माँ से यह कहती थी। माँ को सुनने पर बहुत अच्छा लगता था। पर यह एक छत वाले समझोते का विकल्प बनता नहीं था।
बेटी की शादी की जब बात चली तो माँ – बाप के तलाक के तेरह साल हो रहे थे। न माँ ने दूसरी शादी की और न ही पिता ने। माँ के साथ रहने वाली एशना की शादी माँ के घर से ही हुई। पिता ने आ कर शादी में खूब हाथ बटाया। दोनों ने मिल कर कन्यादान किया। परिवार के लोग दोनों की दूरी को इस तरह असंभव समीपता में देख कर जैसी भी बातें कर रहे हों दोनों इससे बेखबर थे।
बेटी के विदा होने से पहले पिता माँ के घर से चला गया। बेटी सदा के लिए एक टीस ले कर ससुराल गई। एशना अपने माँ – बाप के शरीर को कहाँ जाने, वह जाने तो अपने माँ – बाप की आंतरिकता को। उसके बीच में होने से उसके माँ – बाप एक मन और एक भाषा के हो जाते थे। बेटी की शादी होते ही उनका यह रिश्ता बहुत गहरे टूट गया !
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘डबल पैसा ? ‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 147 ☆
☆ लघुकथा – डबल पैसा ?☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
“रिक्शावाले भइया! चौक चलोगे?”
“हां बिटिया! काहे न चलब”
“पैसा कितना लेबो?”
रिक्शावाले ने एक नजर हम दोनों पर डाली और बोला – “दुई सवारी है पैसा डबल लगी। रस्ता बहुत खराब है और चढ़ाई भी पड़त है। ”
“पैसा डबल काहे भइया! रास्ते में जहां चढ़ाई होगी हम दोनों रिक्शे से उतर जाएंगे”
“दो लोगन का खींचै में हमार मेहनत भी डबल लगी ना बिटिया!”
अदिति ने उसको मनाते हुए कहा- “अरे! चलो भइया हो जाएगा, थोड़ा ज्यादा पैसा ले लेना और दोनों जल्दी से रिक्शे में बैठ गईं। ”
रिक्शावाला सीट पर बैठकर रिक्शा चलाने लगा। चढ़ाई होती तो वह सीट से नीचे उतरकर एक हाथ से हैंडिल और एक से सीट को पकड़कर रिक्शा आगे खींचता। चढ़ाई आने पर हम रिक्शे से उतर भी गए फिर भी रिक्शावाला पसीने से तर-बतर हो बार- बार अँगोछे से पसीना पोंछ रहा था। पैडल पर रखे उसके पैर जीवन जीने के लिए भीड़, उबड़-खाबड- रास्तों और विरुद्ध हवा से जूझ रहे थे।
रिक्शावाले की बात मेरे दिमाग में घूमने लगी ‘डबल सवारी है तो पैसा डबल लगेगा’। बचपन से मैंने माँ को घर और ऑफिस की डबल ड्यूटी करते हुए चकरघिन्नी सा घूमते ही तो देखा है। दोनों के बीच तालमेल बिठाने के लिए वह जीवन भर दो नावों में पैर रखकर चलती रही। घर का काम निपटाकर ऑफिस जाती और वापस आने पर रात का खाना वगैरह न जाने कितने छोटे-मोटे काम—
निरंतर घूम रहे पैडल के साथ- साथ बचपन की यादों के न जाने कितनी पन्ने खुलने लगे। सुबह होते ही स्कूल के लिए भाग-दौड़ और शाम को हम दोनों का होमवर्क, स्कूल की यूनीफॉर्म, बैग तैयार करके रखना सब माँ के जिम्मे, साथ में पारिवारिक जीवन के उतार, चढ़ाव, तनाव—-। थोड़ी देर में ही मन अतीत की गलियों में गहरे विचर आया। स्त्रियों को उनकी इस डबल ड्यूटी के बदले क्या मिलता है ?
“बिटिया! आय गवा चौक बाजार, उतरें।”
“दीदी! उतरो नीचे किस सोच में डूब गई” – आस्था ने कहा
उसकी आवाज से मानों तंद्रा टूटी। मैंने रिक्शावाले के हाथ में बिना कुछ कहे दुगने पैसे रख दिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
श्री संजय भारद्वाज जी की माताजी श्रीमती मंगला काशीलाल मिश्र का मोक्षगमन कल 29 जनवरी 2025 रात्रि लगभग 1 बजे हुआ। ईश्वर से प्रार्थना है कि वे उन्हें श्री चरणों में स्थान दें और शोक संतप्त परिवार को इस दुख को सहन करने की शक्ति प्रदान करें। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🙏
संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष
(आज हम श्री संजय भारद्वाज जी की पूर्व प्रकाशित लघुकथा पुनर्पाठ में प्रस्तुत कर रहे हैं।)
उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।
मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।
देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।
अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।
संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी।
……..धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हम तो गुलाम हैं…।)
☆ लघुकथा # 57 – हम तो गुलाम हैं…☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
आज क्या बात है सोहन तुमने जल्दी दुकान को साफ कर दिया? सारी चीज अच्छे से जमा दिया और सफेद, ऑरेंज, हरे रंग के गुब्बारे से पूरी दुकान को सजा दिया। शाबाश बहुत बढ़िया किया।
भैया मैंने बहुत अच्छा काम किया इसके बदले में आज मैं शाम को 4:00 बजे जल्दी छुट्टी करके घर जाना चाहता हूं।
दुकान के मालिक किशोर ने कहा – वह तो मैं समझ गया था कि इतने काम करने के पीछे कुछ न कुछ मतलब होगा ।
सुनो, छुट्टी तो तुम्हें 7:00 बजे ही मिलेगी। अभी मैं दुकान का सामान लेकर पास में जो परेड ग्राउंड है वहां पर जा रहा हूं। बड़े-बड़े लोगों ने बुलाया है और जल्दी-जल्दी गिफ्ट पैक करो वहां पर सबको खेलकूद के लिए उपहार दिए जाएंगे।
भैया जब आप आओगे तब मैं चला जाऊंगा?
तुमने भी क्या छोटे बच्चों की तरह रट लगाकर रखी है। मैंने कहा जल्दी नहीं जाना है। ज्यादा बकवास करोगे तो रात में 10:00 ही जाने दूंगा।
ठीक है भैया सामान पैक करके उसने गाड़ी में रख दिया।
अपनी पत्नी और बच्चों को फोन किया कि तुम लोग जाओ घूम कर आओ मैं नहीं आ सकता। दुकान के मालिक भी परेड ग्राउंड गए हैं। शाम को 7:00 बजे छुट्टी देने के लिए भैया ने बोला है। फिर हम लोग एक साथ बाहर खाना खाने चलेंगे। आज तुम बच्चों के साथ घूम के आ जाओ। कुछ सामान बच्चों को दिला देना। मैंने कुछ पैसे बच्चों के अकाउंट में डाल दिये हैं। बिटिया सुमन ऑनलाइन पेमेंट कर देंगी। कम से कम तुम लोग तो मजा करो मेरी मजबूरी को समझो।
तभी बिटिया सुमन ने फोन लेकर कहा कि ठीक है पापा हम लोग शाम को इकट्ठे खाना खाने चलेंगे। आप हमारी चिंता मत करो।
ठीक है बेटा ध्यान से जाना। सोहन दुकान में बैठे-बैठे सोचने लगता है। देश आजाद हो गया संविधान लागू हो गया। लेकिन हम गरीबों को कभी आजादी नहीं मिलेगी। जब तक जीवन है काम करना पड़ेगा। घूमना फिरना तो बड़े रईसों का काम है। हमारे लिए कैसा जश्न? हम तो गुलाम हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “अथकथा में, हे कथाकार!”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 201 ☆
☆ लघुकथा- तीर्थयात्रा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
हरिद्वार जाने वाली गाड़ी दिल्ली पहुंची थी कि फोन घनघना उठा,” हेल्लो भैया !”
“हाँ हाँ ! क्या कहा ? भाभी की तबियत ख़राब ही गई. ज्यादा सीरियस है. आप चिंता न करें.” कहते हुए रमन फोन काट कर अपनी पत्नी की ओर मुड़ा, “ सीमा ! हमें अगले स्टेशन पर उतरना पड़ेगा.”
“क्यों जी ? हम तो तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं. फिर वापस घर लौटना पड़ेगा ?” सीमा का वर्षों पूर्व संजौया सपना पूरा हो रहा था, “ कहते हैं कि तीर्थयात्रा बीच में नहीं छोड़ना चाहिए. अपशगुन होता है.”
“कॉमओन सीमा ! कहाँ पुराने अंधविश्वास ले कर बैठ गई,” सीमा के पति ने कहा, “ कहते हैं कि बड़ों की सेवा से बढ़ कर कोई तीर्थ नहीं होता हैं ”
यह सुन कर सीमा सपनों की दुनिया से बाहर आ गई और रेल के बर्थ पर बैठेबैठे बुजुर्ग दंपत्ति के हाथ यह देखसुन कर आशीर्वाद के लिए उठ गए.