हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – झोलाराम ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “झोलाराम“.)

☆ लघुकथा – झोलाराम ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक था झोला राम। उसे झोला खरीदने का बड़ा शौक था। जहां भी कोई नया नायाब झोला दिखाई देता, उसे खरीद लेता।

बहुत सारे झोले उसके पास हो चुके थे।

एक दिन उसकी जिंदगी में बुरा समय आ गया। दाने दाने को मोहताज हो गया था झोला राम। जब फाका पड़ा तो उसने एक झोला बेच दिया। कुछ दिनों बाद दूसरा फिर तीसरा।

सुंदर और नायाब झोले, फटाफट बिक जाते।

एक दिन उसने पुराने और नए झोलों को मिलाकर एक नई डिजाइन का झोला बनाकर बाजार में पेश कर दिया।

झोले खूब बिके। एक दिन  वह सेठ झोला राम बन गया। उसने अपने नए महल का नाम ‘झोला महल’ रखा।

फिर झोला बाग, झोला बाजार बनते रहे। वह अपने घर में झोले की पूजा पहले करता, दूजा काम बाद में होता।

‘झोला नगर’ बनते बनते सेठ झोला राम प्रसिद्धि के सोपान पार कर चुका था। एक दिन अखबार वाले चले आए और सेठ झोलाराम से उसकी सफलता का राज पूछने लगे।

झोलाराम बोला- ‘अपने शौक को बाजार तक पहुंचाने की कला भर आनी चाहिए बस, यही मैंने किया है। शौक और कला मिलकर माला माल कर सकते हैं।’

सेठ झोला राम का यह वक्तव्य दूसरे दिन शहर के सारे अखबारों में मुख पृष्ठ पर छापा गया था।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 207 ☆ लघुकथा – “डमी कैमरा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – डमी कैमरा)

☆ लघुकथा – ‘डमी कैमरा’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

दीपावली में सब लोग मिलने मिलाने एक दूसरे के घर आया- जाया करते हैं, जो घर आता है उसे लोग अपनी हैसियत से खिलाते पिलाते भी हैं।  

दीवाली के दूसरे दिन मैं अपने एक मित्र के यहां गया, उसने ड्राइफ्रुट से भरी एक ट्रे लाकर मेरे सामने रख दी। थोड़ी देर बातचीत हुई, हैप्पी दिवाली, बधाई, शुभकामनाएं आदि की औपचारिकता के बाद वो चाय लेने अंदर चला गया तभी मैंने मुठ्ठा भरकर पिस्ते खाने के लिए उठाया ही था कि मेरी नजर सामने लगे CCTV कैमरे पर गई और फिर मैंने कैमरे को गाली देते हुए एक ही पिस्ता खाया।

जब चाय लेकर मित्र आया तो उससे पूछा कि ये कैमरे कितने में लगाए हो तो उसने हंसते हुए बताया कि ये तो डमी कैमरा है, हर साल दिपावली पर इस ड्राइंग रूम में लगा देता हूँ… आप तो जानते ही हैं कि दुनिया में तरह तरह के लोग होते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – शाही विनम्रता ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “शाही विनम्रता“.)

☆ लघुकथा – शाही विनम्रता ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘हाय! मैं दिल्ली के तख्ते ताऊस का मालिक, शहंशाहों का शहंशाह, आज बेताज का बादशाह होकर ताजमहल के अंधेरे प्रकोष्ठ में कैद कर दिया गया हूं।’

शाहजहां ने ताजमहल के अंदर कैद होने पर उपरोक्त कथन बड़ी असहाय अवस्था में कहा था – ‘नहीं अब्बा हुजूर– यह कैद थोड़े ही है। मैंने तो आपके जज्बातों की कद्र की है। क्या यह सच नहीं है कि आपके दिल में अम्मा हुजूर के लिए  बेइंतेहा प्यार था — और यह कि आप अपने आपको जरा भी दूर नहीं रख सकते इस खूबसूरत संगमरमरी इमारत से’।

‘यहां बेगम हुजूर अपनी तमाम यादगारों के कीमती दस्तावेज लेकर खामोश लेटी हैं — आपकी  बेपनाह मोहब्बत प्यार की निशानी इस ताजमहल के प्रकोष्ठ में आपको खुश होना चाहिए शहंशाह आलम।’

शाहजहां के पुत्र ने पिता से विनम्रतापूर्वक  वार्तालाप किया और बाहर पहरेदार को कैदी के पैरों में भारी बेड़ियां डालकर सख्त पहरे की हिदायत देकर स्वयं इमारत से बाहर चला गया।

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – डर ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य। माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक भावप्रवण लघुकथा “डर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।) 

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – डर ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

राज्य की राजधानी की पुलिस लाइन में ”रा” साहब के बंगले पर आज काफी चहल-पहल है। स्टाफ के काफी लोग आज बंगले में विभिन्न काम करते हुये दिखाई दे रहे थे।

पहले आप को इन ”रा” साहब से पहचान करा दें। यह ”रा” यानि राव का लघु रूप है। राव साहब यानि श्री वी के आर सी राव, प्रांत के डी आई जी, नक्सल अभियान। पूरा नाम जानना चाहेंगे- वेमुला कृष्णप्पा रामचंद्र राव!! सारा स्टाफ राव राव बोलता तो जल्दी जल्दी में वह रा साहब सुनाई देने लगा। युवा आई पी एस अधिकारी और इस खतरनाक नक्सली इलाके में विशेष सक्षम अधिकारी के रूप में राजधानी की पोस्टिंग। काम में बहुत तेज तर्रार एवं अनुशासन में कठोरतम। उनके बोलने में बास्टर्ड, फूल, रास्कल, ब्लडी आदि शब्दों का सर्वाधिक उपयोग होता था। बात-बात में नक्सली इलाके में फिंकवाने की धमकी का प्रयोग सामान्य बात थी। अब तक कई सफल मुठभेडों का नेतृत्व भी कर चुके थे। कुल मिलाकर रौबीले और दबंग व्यक्तित्व के स्वामी थे ये ”रा” साहब। बहुत आवश्यक न हो तो सामान्यतः उनके सामने आने से सब कतराते थे।

आज उनके बंगले पर इस चहल-पहल का विशेष कारण  है। पिछली रात उनकी मां आंध्र प्रदेश के उनके पैतृक गांव से अपने बेटे के पास आई थी। अभी तक अविवाहित रहे पुत्र से शायद विवाह की बात करने आई थी। अतः खानसामा से लेकर आफिस स्टाफ तक सब बंगले पर मदद हेतु उपस्थित थे।

बंगले के बैठकखाने में राव साहब अपनी माताजी के साथ बैठे थे। दक्षिणी रंगरूप से हटकर गौरवर्ण, तेजस्वी चेहरे पर चष्मा, इस आयु में भी श्याम केशों में करीने से सजी वेणी, ऐसी माता के साथ तेलुगु में संवाद चल रहा था। अंतर यह था कि इस संवाद में मां सतत बोल रही थी एवं पुत्र बस अम्मा, अम्मा, अम्मा इसी से उत्तर दे रहा था। साहब के चेहरे पर सदा दिखने वाला रौद्र भाव न होकर आज एक सौम्यता दिख रही थी।

इससे निवृत्त होकर माताजी अचानक आसपास के कर्मचारियों की ओर देखकर दक्षिणी उच्चारण के साथ बोलीं – सब तोडा इदर आओ। कैसा है तुम लोग? इदर सब टीक लगता ना जी ? अम रामा की अम्मा, इदर पैली बार आया। ये रामा…. बहुत कड़क ना जी ? बहुत गुस्सा करता ??

फिर साहब के निज सचिव अग्रवाल जी को इशारे से पास बुलाया और बहुत प्रेम से उनके सिर हाथ फेरते हुये बोलीं – ये तुमको कुच डांटता तो अमको बोलने का, अम उसकू डांटेगा। ये रामा ना, दिल से बहुत अच्चा है। अमे मालूम, तुम उसका बहुत ध्यान रखता, क्यों रामा, टीक बोला ना ? राव साहब बस मुस्कुरा दिये।

अग्रवाल साहब का कंठ भर आया, उन्हें लगा ज्यों उनकी स्वर्गवासी मां उनके सिर पर हाथ फेर रही हैं, उन्होंने अचानक झुक कर उनके चरण छू लिये।

सारा स्टाफ मौन खड़ा था, उन्हें लगा जिन ”रा” साहब से सारा विभाग डरता है, वे भी किसी से डरते हैं, पर यह डर, प्रेम का डर था।

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©  सदानंद आंबेकर

म नं सी 149, सी सेक्टर, शाहपुरा भोपाल मप्र 462039

मो – 8755 756 163 E-mail : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – सह अस्तित्व की भावना ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “सह अस्तित्व की भावना“.)

☆ लघुकथा – सह अस्तित्व की भावना ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

वे दोनों ही कई दिनों से अस्पताल में भर्ती थे। दोनों के बिस्तर भी आमने-सामने थे। उनकी समस्याएं भी तकरीबन एक जैसी थीं। उनके इलाज डॉक्टरों के वश में थे और नहीं भी थे।

दरअसल, एक की दोनों किडनी खराब थीं। एक किडनी मिल जाती तो स्थापित कर दी जाती। किडनी डोनेशन का विज्ञापन अखबारों में एक अर्से से दिया जा रहा था। दूसरे की दोनों आंखें रोशनी के लिए तरस रही थीं। एक आंख मिल जाती तो जीवन सुधर जाता। उसने भी नेत्रदान की अपील अखबारों के माध्यम से की थी।

‘किंतु संभावना शून्य ही है’ – एक दिन एक निराश होकर बोला।

‘इस तरह कब तक अस्पताल का बिल बढ़ाते रहेंगे’।

दूसरा बोला- ‘तो’

‘तो क्या?’

‘मुझे जल्दी ही प्रस्थान करना पड़ेगा। कोई दो-चार महीने में ही।’

‘और  मैं कौन सा ज्यादा टिकूंगा, सड़क पर गया और किसी ने मार दी टक्कर।’

‘कोई रास्ता’

‘अच्छा बताओ, तुमने किसी की मदद की है’।

‘इसी में तो इन आंखों की यह दुर्गति हुई है’।

‘मैं तुम्हें एक आंख दान कर दूं तो’!

‘मैं भी तुम्हें एक किडनी देने से नहीं चूकूंगा’।

दूसरे दिन दोनों खुश थे। तरो ताजा भी दिख रहे थे। सह अस्तित्व की भावना से उनके जीवन में बहार जो आ गई थी।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अकल बड़ी कि भैंस ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

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☆ लघुकथा – अकल बड़ी कि भैंस ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘अकल बड़ी कि भैंस’? – मास्टर जी ने पूछा तो किशोर का जवाब था – भैंस बड़ी.

‘यह क्या उल्टा-पुल्टा जवाब दे रहे हो किशोर? मैंने क्या यही अर्थ बताया था तुम्हें.’ मास्टर जी गरम होते हुए बोले.

‘सर  हकीकत तो यही है, अब भैंस बड़ी है अकल से, यह स्वीकार कर लेना चाहिए.’

‘कैसे’?

‘मेरे पिताजी बी ए  पास थे. नौकरी मांगने चले तो मुंह की खानी पड़ी. चारों कोने चित् गिरे.’

‘अच्छा फिर!’

‘फिर क्या? भैंस के तबेले से जुड़ गए. अब पूरी एक दर्जन भैंसे हैं हमारे तबेले में.’

‘भाई वाह!’.

‘जी हां, भैंसें बाकायदा अकल को मुंह चिढ़ाती  रहीं. हम लोग आगे बढ़ते रहे.’

‘बड़ी दिलचस्प कहानी है–आगे बढ़ो.’

‘अब हमारे पास एम ए पास तबेले का मैनेजर है. वह बेचारा एक पाव दूध भी मुश्किल से खरीद पाता था. काली चाय पीकर गुजारा करता था. अब उसके पास दो मुर्रा भैंसें हैं और वह पिताजी का पार्टनर बन गया है.’

‘गोया- लब्बोलुबाब यह है कि भैंसें उसकी जिंदगी बना रही हैं.’ मास्टर जी ने पूछा?

‘जी सर. इसलिए तो मैं कह रहा हूं की भैंस बड़ी है अकल से, पुरानी कहावत बदली जानी चाहिए गुरुवर.’

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

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☆ लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

दृश्य वही था। लोमड़ी नदी में पानी पी रही थी। उसके ऊपर की ओर भेड़िया था।

भेड़िया गुर्राया – ‘गंदा पानी इधर भेज रही है–ऐं। फिर तेरा झूठा पानी भी पीना पड़ेगा-ऐं।’

‘गंदा और झूठा तो आप कर रहे हैं महाराज। पानी का बहाव तो उधर से इधर की ओर है।’

भेड़िया गुर्र्रा कर बोला – ‘चोप्प।’

‘चोप्प क्यों महाराज। इसमें मेरी गलती कहां है महाराज।’

‘चोप्प, मुंह लडाती है, चोटटी कहीं की।’

अब लोमड़ी ने अपना रूप दिखाया – ‘चोटटा होगा तू—तेरी सात पीढ़ी—तू मुझसे ही खेल रहा है सांप सीढ़ी।’

अब भेड़िया घबराया। यह तो तो उलटी गंगा बहने लगी थी। लोमड़ी भेड़िए को आंखें दिखाने लगी थी। तब तक लोमड़ी ने भेड़िए को फिर हवा भरी। अपनी आंखें तरेरते हुए बोली –

‘यहां की मादा यूनियन की सेक्रेटरी हूं मैं। किसी भी मादा से अशिष्टता की सजा जानता है तू।’

‘घेराव, जुलूस, पुलिस, अदालत फिर सजा। जंगल से बहिष्कार मादाओं की भी इज्जत होती है आखिरकार।’

भेड़िया घबराया। यह कहां का बबाल उसने बना डाला। किस मुसीबत से पड़ गया है पाला। अपना गिरगिट जैसा रंग बदलकर बोला – ‘माफी दें लोमड़ी बहन, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी।’ लोमड़ी की बन आई थी इसलिए रौब झाड़ कर बोली- ‘चल फूट नासपीटे—पानी पीने का मजा ही किरकिरा कर दिया।’

भेड़िए के दुम दबाकर भागने पर वह अकड़ती हुई जंगल में घुसती चली गई।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 125 ☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 125 ☆

☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मेरी नजर उसके पैरों पर थी। तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही सबसे पहले बाहर निकल जाता। 

‘पैसेवाले घरों की लड़कियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं।‘ एक दिन वह सामने पड़ा तो मैंने उससे कुछ पूछे बिना चप्पल खरीदने के लिए पैसे दे दिए। उसने चुपचाप जेब में रख लिए। दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। ‘अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे? चप्पल क्यों नहीं खरीदी?’ मैंने पूछा। बहुत धीरे से उसने कहा – ‘पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम!’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 168 – बहुरूपिया – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा “बहुरूपिया ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 168 ☆

☆ लघुकथा – 🥳 बहुरूपिया 🥳

पुराने समय से चला रहा है। वेष बदलकर, वेशभूषा धारण कर, कोई भगवान, कोई महापुरुष, कोई वीर सिपाही, कोई जीव जानवर, तो कोई सपेरा, भील का रूप बनाकर भीख मांगते गांव, शहर, सिटी, और महानगरों में देखे जाते हैं। विदेशों में भी इसका प्रचलन होता है, परंतु थोड़ा बनाव श्रृंगार तरीका कुछ अच्छा होता है। पर यह होता सिर्फ पेट भरने और जरूरत का सामान एकत्रित करने के लिए या मनोरंजन के लिए।

जीविका का साधन बन चुका है। जो सदियों से बराबर चल आ रहा है। ऐसे ही आज एक महानगर में बहुत बड़े सभागृह में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर पांच वर्ष से कम के बच्चों का फैशन शो  चल रहा था। जिसमें श्री कृष्ण और राधा रानी बनाकर, सभी मम्मी – पापा अपने-अपने बच्चों को ले जा रहे थे। बिटिया है तो राधा रानी और बालक है तो श्री कृष्ण।

सभी एकत्रित हो रहे थे। वहीं पास में एक बहुरूपिया खंजर परिवार डेरा डाले हुए था। उसमें एक महिला जिसके पास एक छोटा बच्चा था। लगभग पांच वर्ष का, जो देखने में अद्भुत सुंदरता लिए था।

महिला थोड़ी बहुत जानकारी रखती थी और थोड़ी पढ़ी लिखी थी उसने अपने बेटे को कौड़ियों और जो भी सामान उसके पास था, मोर पंख, रंगीन कागज स्याही रंग और बाँस की बाँसुरी रंगीन, कपड़े के टुकड़े से सिला हुआ छोटा सा कुर्ता – धोती और सिर  पर साफा बांधकर बैठा कर देख रही थी।

जो भी वहां से निकलता उसे पलट कर जरूर देखते और अपने बच्चों की ओर देखा कहते… यह तो बहुरुपिया है। इसका काम ही ऐसा होता है।

महिला कई सभ्य लोगों से सुन सुन कर खिन्न हो चुकी थी। एक आने वाले सज्जन के सामने जाकर खड़ी हो गई। जो चमचमाती कार से निकाल कर खड़े हुए थे। 🙏उसने हाथ जोड़कर सीधे बोली… साहब जी क्या?? यह जो बच्चे सजे धजे ले जा रहे हैं। इनके बच्चे और मेरे बच्चे में कोई अंतर है। आखिर ये सब भी तो बहुरुपिया ही कहलाए।

बस शर्त यह है हम अपना पेट पालन करते हैं। इस काम से रोजी-रोटी चलती है। और आप लोग इसे फैशन शो कहते हैं। सज्जन ने सिर से पांव तक महिला को देखा और उसके बच्चे को देखा… पूर्ण कृष्ण के रुप  से सजा वह बच्चा वास्तव में बालकृष्ण की वेशभूषा पर अद्भुत सुंदर दिख रहा था। थोड़ी ही देर बाद लाल कारपेट से चलता हुआ बच्चा उस सज्जन की उंगली पकड़े सभागृह में पहुंच गया।

निर्णायक मंडल का निष्पक्ष निर्णय बहुरुपिया कान्हा प्रथम विजेता।🎁🎁

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – जज्बा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा जज्बा“.)

☆ लघुकथा – जज्बा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

(१६ दिसंबर से पहले)

शहर के पार्क में कुछ महिलाएं, कुछ युवतियां, सुबह-सुबह इकट्ठे होकर योगाभ्यास किया करतीं.

सब कुछ ठीक-ठाक होता पर ‘सिंह आसन’ में जीभ बाहर निकालकर हुंकार करने के प्रयत्न में कमजोर पड़ जातीं. मैं अक्सर सोचता ‘सिंह आसन’ में आखिर ये सब शेरनी जैसा दमखम कहां से लाएंगीं भला. मुंह से करारी आवाज निकलेगी तब न, महिलाएं पुरुषों जैसा साहस कहां से लाएंगीं आखिर आखिर.

(16 दिसंबर के बाद)

कुछ दिनों बाहर रहने के बाद पुन: शहर लौटा, तब तक दिल्ली में निर्भया के साथ वह भीषण वहशी कांड हो चुका था. उस रूह कंपकंपाने वाली दास्तान से पूरा देश उबल रहा था. महिलाओं-युवतियों ने एकजुट होकर अपनी ताकत दिखा दी थी.

मैं फिर एक दिन उसी पार्क में था. महिलाओं का सिंह आसन चल रहा था. पहले की अपेक्षा इस बार का दृश्य पूरी तरह बदला हुआ था. अपनी लंबी जीभ निकाले यह वामा दल शेरनियों में तब्दील हो चुका था. मानो, किसी ने इन्हें छेड़ने की हिमाकत की तो यह सब चीर फाड़ कर रख देंगीं. निर्भया के बलिदान ने इन्हें इतना निर्भय तो कर ही दिया था.

– और तब मेरा हाथ इन्हें सलाम करने की मुद्रा में अपने आप ऊपर उठ गया था.

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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