☆ लघुकथा – “ऑनलाइन…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆
“मित्र सुदेश! यह लॉकडाउन तो गज़ब का रहा? क्या अब फिर से लॉकडाउन नहीं लगेगा।” सरकारी स्कूल के टीचर आनंद ने अपने मित्र से कहा।
“क्या मतलब? “सुदेश ने उत्सुकता दिखाई।
“वह यह सुदेश ! कि पहले तो कई दिन स्कूल बंद रहे तो पढ़ाने से मुक्ति रही,और फिर बाद में मोबाइल से ऑनलाइन पढ़ाने का आदेश मिला,तो बस खानापूर्ति ही कर देता रहा।न सब बच्चों के घर मोबाइल है,न ही डाटा रहता था, तो कभी मैं इंटरनेट चालू न होने का बहाना कर देता रहा। बहुत मज़े रहे भाई ! “आनंद ने बड़ी बेशर्मी से कहा।
“पर इससे तो बच्चों की पढ़ाई का बहुत नुक़सान हुआ। ” सुदेश ने कमेंट किया।
“अरे छोड़ो यार! फालतू बात। फिर से लॉकडाउन लग जाए तो मज़ा आ जाए।” आनंद ने निर्लज्जता दोहराई।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “दरियादिली “.)
☆ लघुकथा – दरियादिली☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
एक महिला प्रतिदिन बिना नागा पार्क में प्रवेश करती। वहां मुंदी अधमुंदी आंखों से लेटे हुए कुत्तों में जाग पड़ जाती।
उस महिला के पीछे कम से कम एक दर्जन कुत्तों की फौज होती। वह रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े फेंकती जाती और कुत्ता समूह उनको चट करता जाता।
एक छोटा सा पिल्ला तो उस महिला की टांगों के बीच फंसा फंसा चलता। बड़े कुत्तों के कारण उसे रोटी मिल ही नहीं पाती थी। जब कभी महिला का ध्यान उस तरफ जाता तो वह झुक कर उसके मुंह में एक दो टुकड़े डाल देती।
कुत्ता समूह खुश था। बैठे ठाले रोज उनकी दीवाली थी। दर्शक महिला की दरियादिली की डटकर प्रशंसा करते।
एक दिन उस महिला की पड़ोसन यह दृश्य देखकर बोली -‘देखो तो इस धन्ना सेठी को, खुद के सास ससुर तो वृद्ध आश्रम में पल रहे हैं और यह कुत्तों को रोटी खिलाकर पुण्य लूट रही है।’
वह महिला इन सब बातों से बेपरवाह थी। उल्टे उसने कुत्तों की रोटी की व्यवस्था के लिए एक रोटी बनाने वाली बाई भी रख ली थी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह
वह बहती रही, वह कहता रहा।
…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।
…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।
… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय “सुलगती कहानी”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 165 ☆
☆ लघुकथा – 📒सुलगती कहानी 📒 ☆
दरवाजे की घंटी बजी। महिमा ने दरवाजा खोलो। देखा वयोवृद्ध लगभग अस्सी वर्ष के एक वरिष्ठ सज्जन सामने खड़े दिखाई दिए। उसने कहा… “आप कौन?” तत्काल कंपन लिए परंतु जोरदार आवाज में बोले “क्या कहा? … आने के लिए नहीं कहोगी।” महिमा ने दरवाजे से एक ओर हट कर कहा… “आइए बैठिए, मैंने आपको पहचाना नहीं।” “तुम पहचान भी नहीं सकती परंतु मैं तुम्हें पहचान रहा हूँ। अभी तुम्हारी कलम लिखाई कर रही है। यह देखो मेरे लिखे गीत, कहानियाँ।” करीब 10-12 किताबें उन्होंने टेबिल पर लगा दी। एक फटी पुरानी फाइल से निकालते उन्होंने ने दिखाया -“मेरी कहानियां कभी बोलती थी। सभी जगह से मैं सम्मानित होता था। आज मौन हो एक बस्ते में पड़ी हैं। क्या करूं?? समय ने ऐसा दिन दिखाया कि मुझे अब कहानियों से लगाव तो है परंतु यह पेट नहीं भर पा रहा है। मेरे पाँच बेटे हैं परंतु किसी काम के नहीं।
आज सोशल मीडिया पर मेरे स्वयं के बच्चे दिन भर छोटी छोटी बातें कहानियां दूसरों की सीख देखते हैं और मेरी किताब को रद्दी के भाव में बेंच रहे।”
आँखों से टपकते आँसुओं ने उसकी कमीज की बाजू भिगो दिया। “क्या कहूं तुम्हें कुछ समझ नहीं आ रहा।” महिमा आवाक देखती रही।
टेबल पर एक कृति अचानक गिरी “सुलगती कहानी”। महिमा ने तत्काल उसे उठाया और उन वरिष्ठ का सम्मान अपने तरीके से कर हाथ जोड़ खड़ी रही।
उन्होंने झोला निकाला सभी किताबों को डाल दुआओं में बस इतने बोल कह गये…” कभी लिखना मेरी कहानियाँ… मेरे जीवन को अपनी कलम में स्थान देना। लिखना मेरी सुलगती कहानी।” महिमा उसकी किताब को लिए उसे दूर जाते देखती रही।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फैसला”।)
☆ लघुकथा ☆ “फैसला”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
नम आंखों से कामेश और शिखा ने अपने बेटे और बहू को जब एक साल पहले विदा किया था तो समर ने वायदा किया था कि हर दिन वह फोन पर बात करेगा। पर साल भर बाद पंखुड़ी ने बताया कि समर इतने अधिक बिजी हो गए हैं कि थोड़ी सी बात करने का भी उन्हें समय नहीं मिलता। हताश कामेश और शिखा हर दिन समर को याद करते रहते और उसके फोन का रास्ता देखते रहते। कामेश लगातार बीमारी से टूट से गए थे, ज्यादा गंभीर होने से एक दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। समर का फोन तो आया नहीं, हारकर शिखा ने समर को फोन लगाया।
– हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ? वे तुम्हें एक नजर देखना चाहते हैं।
— मां बहुत बिजी हूं। वैसे भी इण्डिया में अभी बहुत गर्मी होगी, इण्डिया में अपने घर में एसी- वेसी भी नहीं है। समीरा से बात करता हूं कि अभी पापा को अटेंड कर ले फिर माँ के समय मैं आ जाऊँगा। तुम तो समझती हो मां… मुझे तुम से ज्यादा प्यार है।
— पर बेटा वे तो मरने के पहले सारी प्रापर्टी तुम्हारे नाम करना चाहते हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा –“कलम के सिपाही”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 145 ☆
☆ लघुकथा – “कलम के सिपाही” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
“यह पुरस्कार जाता है देश की बॉर्डर पर देश के दुश्मन आतंकवादियों से लड़ कर अपने साथियों की जान बचाने वाले देश के बहादुर सिपाही महेंद्र सिंह को.”
“इसी के साथ यह दूसरा पुरस्कार दिया जाता है देश के अन्दर दबे-छुपे भ्रष्टाचार, बुराई और काले कारनामों को उजगार कर देश की रक्षा करने वाले कर्मवीर पत्रकार अरुण सिंह को.”
यह सुनते ही अपना पुरस्कार लेने आए देश के सिपाही महेंद्र सिंह ने एक जोरदार सेल्यूट जड़ दिया. मानो कह रहा हो कि जंग कहीं भो हो लड़ते तो सिपाही ही है.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – एकाकार
‘मैं मृत्यु हूँ। तुम मेरी प्रतीक्षा का विराम हो। मैं तुम्हारी होना चाहती हूँ पर तुम्हें मरता नहीं देख सकती..,’ जीवन के प्रति मोहित मृत्यु ने कहा।
‘मैं जीवन हूँ। तुम ही मेरा अंतिम विश्राम हो। तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा क्योंकि मैं तुम्हें हारा हुआ नहीं देख सकता..’, मृत्यु के प्रति आकर्षित जीवन ने उत्तर दिया।
समय ने देखा जीवन का मृत होना, समय ने देखा मृत्यु का जी उठना, समय ने देखा एकाकार का साकार होना।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “कांवड़ यात्रा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 164 ☆
☆ श्रावण पर्व विशेष ☆ लघुकथा – 🚩 कांवड़ यात्रा 🚩☆
एक छोटा सा गाँव। बड़ी श्रद्धा से कांवड़ यात्रा निकली थी। सावन सोमवार का दिन हजारों की संख्या में लोग महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। रिमझिम बारिश की फुहार, भीड़ अपार, ऊपर से कांवड़ यात्रा।
अपने में मस्त भगवान भोलेनाथ की जय कार लगाते लोग बढ़ते चले जा रहे थे। गाँव में आने-जाने के परिवहन के साधन की कमी रहती है, और इस माहौल पर रिक्शा चालक तो पहले से ही कांवड़ यात्रा में शामिल हो चुके होते हैं।
गाँव में अचानक एक गरीब परिवार दीपा और सोहन लाल की एक वर्ष की बच्ची की तबीयत खराब हो गई। देखते देखते वह गंभीर अवस्था में पहुँच गई । उसके पास साइकिल था। साइकिल पर बच्चे को ले दीपा बैठ गई, और जाने लगे ।
कांवड़ यात्रा के बीच में पुलिस वालों का सख्त आदेश था… ‘बीच में अन्य कोई भी ना आए।’ अब सोहन और दीपा के लिए बहुत मुश्किल मार्ग हो गया, क्योंकि अस्पताल और मंदिर दोनों गाँव से बाहर ही बने थे और दूर भी बहुत थे।
किनारे-किनारे साइकिल पर चलते जा रहा था। बारिश का मौसम फिर कोई उसे रोक देता, गरीब कुछ कह नहीं पाता। उसकी अपनी मजबूरी बताते हुए किसी तरह आगे बढ़ रहा था। थोड़ी दूर पर स्वागत के लिए टेबल लगाया गया था। जहाँ पर फूल माला और फल, शरबत, ठंडा पानी का इंतजाम था। दीपा सोची हम यहां से जल्दी निकल जाए।
परंतु धक्का-मुक्की में सोहन की साइकिल दस कदम दूर पीछे चली गई। अचानक शरबत बाँटते संतोष की नजर उस पर पड़ी। वह भी कांवड़ लिए चल रहे थे।
वे कई वर्षों से लगातार कावड़ यात्रा में शामिल होते थे, गाँव के एक अच्छे इंसान थे। एक गगरी में जल और दूसरी गगरी में दूध भरा रहता था। सोहन और उसकी पत्नी साथ में बच्चे को देख कर समझ गए कि मामला कुछ ठीक नहीं है, मुसीबत में फंसा है।
उसने आगे बढ़ कर एक दुकानदार से उसकी दो पहिया गाड़ी को मांग लिया। पहचान होने के कारण उसे दे दिया। सोहन की साइकिल वहाँ लगा। सोहन और उसकी पत्नी को पीछे बिठा अस्पताल की ओर चल पड़ा।
अस्पताल पहुँचकर संतोष ने सबसे पहले बच्ची का इलाज शुरू करवा दिया। कांवड़ एक किनारे रखा हुआ था। वहाँ सभी एक दूसरे को देख रहे थे। आज अस्पताल में कांवर कैसे आ गया है। संतोष थोड़ी देर बाद निकल कर एकदम शांत दिखाई दे रहे थे और जितने बाहर बैठे थे उनसे कहा.. “जिसको दूध लेना है और जल लेना है अपना गिलास ले आए।”
देखते-देखते अस्पताल परिसर में भीड़ लग गई। आज संतोष ने गगरी का दूध और जल सभी जरूरतमंद को बांट दिए।
मन में धैर्य और श्रद्धा से भरे हुए कांवड़ को लेकर गाड़ी में बैठ अपने घर की ओर बढ़ चले। आज की कांवड़ यात्रा अब तक की कांवड़ यात्रा से बहुत अद्भुत थी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – ज़मीर –।)
☆ लघुकथा ☆ ज़मीर ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
धर्मपाल चौधरी गाँव के बड़े किसान थे। वे हर साल अपना खेत चौथे या पाँचवें हिस्से पर जोतने के लिए देते थे। इस बार रबी की फ़सल आई ही थी कि घर के उस हिस्से में आग लग गई, जिसमें अनाज रखा हुआ था। सारा अनाज जल गया। ज़ाहिर है कि चौधरी धर्मपाल बहुत दुखी थे। पूरे गाँव के लोग उनके घर सहानुभूति में जमा हो गए थे। इन्हीं में सुरजा राम भी था, जिसने बारह साल तक चौधरी की ज़मीन जोती थी। यह हालत देखकर उसका मन रो रहा था। सारी गेहूँ जल गई, अब घर में रोटी कैसे बनेगी? सुरजा राम ने कुछ दिन पहले ही सुना था कि चौधरी के पल्ले पैसा नहीं है। एक मुक़द्दमे में वह न केवल सारी पूँजी खो चुका है, बल्कि उस पर लाखों रुपये का कर्ज़ चढ़ा हुआ है।
जब वहाँ आठ-दस लोग रह गए तो सुरजा राम ने चौधरी को थोड़ा अलग ले जाकर कहा,” चौधरी साहब, होनी के आगे किसका बस चलता है। हुई तो बहुत बुरी, पर आप घबराओ मत। मेरे पास साठ सत्तर हज़ार रुपये हैं। आप ले लो, अगली फ़सल पर या उससे अगली फ़सल पर दे देना।” इतना सुनते ही धर्मपाल चौधरी के भीतर का सामंत जाग गया। वे वहाँ मौजूद लोगों को सुनाते हुए बोले, “देखो रे, अब यह चौथिया जलायेगा हमारे घर का चूल्हा! बड़ा आया धन्ना सेठ। लड़के सड़कों पर मज़दूरी करते फिरते हैं और यह मेरी फ़िक्र कर रहा है। वाह, तू जा, अपना घर सम्भाल।” सुरजा राम के पाँव जैसे पत्थर हो गए थे। उसे वहीं खड़ा देख चौधरी गरजा, “अब तू जायेगा या पहले तेरे पैर पकड़ कर शुक्रिया अदा करूँ?” सुरजा राम धीरे-धीरे क़दम उठाता चौधरी के घर से बाहर निकल आया। उसका मन हुआ कि वह चौधरी को बद्दुआ दे कि ऐसी आग तेरे घर रोज़ लगती रहे, पर तुरंत उसे पश्चाताप होने लगा कि उसने यह सोच भी कैसे लिया। बेशक वह बेज़मीन है, बेज़मीर तो नहीं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल कहानी –“स्वच्छता के महत्व”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 144 ☆
☆ बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
एक बार की बात है, लिली नाम की एक छोटी लड़की थी जिसे साफ-सुथरा रहना पसंद नहीं था। वह अक्सर नहाना छोड़ देती थी और दिन में केवल एक बार अपने दाँत ब्रश करती थी। उसकी माँ उसे हमेशा बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथ धोने के लिए याद दिलाती थी, लेकिन लिली आमतौर पर भूल जाती थी।
एक दिन, लिली पार्क में खेल रही थी जब वह गिर गई और उसके घुटने में खरोंच आ गई। वह बैंडेड लेने के लिए घर गई, लेकिन उसकी माँ ने देखा कि उसके हाथ गंदे थे।
“लिली,” उसकी माँ ने कहा, “तुम्हें अपने घुटने पर बैंडेड लगाने से पहले अपने हाथ धोने होंगे। रोगाणु कट में प्रवेश कर सकते हैं और इसे बदतर बना सकते हैं।”
“लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती,” लिली ने रोते हुए कहा। “मेरे हाथ साफ़ हैं।”
“नहीं, वे नहीं हैं,” उसकी माँ ने कहा। “आप अपने नाखूनों के नीचे सारी गंदगी देख सकते हैं।”
लिली अनिच्छा से बाथरूम में गई और अपने हाथ धोए। जब वह वापस आई तो उसकी मां ने उसके घुटने पर पट्टी बांध दी।
“देखो,” उसकी माँ ने कहा। “वह इतना बुरा नहीं था, है ना?”
“नहीं,” लिली ने स्वीकार किया। “लेकिन मुझे अभी भी हाथ धोना पसंद नहीं है।”
“मुझे पता है,” उसकी माँ ने कहा। “लेकिन साफ़ रहना ज़रूरी है। रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं, और आप बीमार नहीं होना चाहते हैं, है ना?”
लिली ने सिर हिलाया. “नहीं,” उसने कहा। “मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता।”
“तो फिर तुम्हें अपने हाथ धोने होंगे,” उसकी माँ ने कहा। “हर बार जब आप बाथरूम का उपयोग करते हैं, खाने से पहले और बाहर खेलने के बाद।”
लिली ने आह भरी। “ठीक है,” उसने कहा. “मेँ कोशिश करुंगा।”
और उसने किया. उस दिन से, लिली ने अपने हाथ अधिक बार धोने का प्रयास किया। यहां तक कि वह दिन में दो बार अपने दांतों को ब्रश करना भी शुरू कर दिया। और क्या? वह बार-बार बीमार नहीं पड़ती थी।
एक दिन लिली अपनी सहेली के घर पर खेल रही थी तभी उसने अपनी सहेली के छोटे भाई को गंदे हाथों से कुकी खाते हुए देखा। लिली को याद आया कि कैसे उसकी माँ ने उससे कहा था कि रोगाणु तुम्हें बीमार कर सकते हैं, और वह जानती थी कि उसे कुछ करना होगा।
“अरे,” उसने अपनी सहेली के भाई से कहा। “आपको उस कुकी को खाने से पहले अपने हाथ धोने चाहिए।”
छोटे लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। “क्यों?” उसने पूछा।
“क्योंकि तुम्हारे हाथों पर कीटाणु हैं,” लिली ने कहा। “और रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं।”
छोटे लड़के की आँखें चौड़ी हो गईं। “वास्तव में?” उसने पूछा।
“हाँ,” लिली ने कहा। “तो जाओ अपने हाथ धो लो।”
छोटा लड़का बाथरूम में भाग गया और अपने हाथ धोये। जब वह वापस आया, तो उसने बिना किसी समस्या के अपनी कुकी खा ली।
लिली को ख़ुशी थी कि वह अपने दोस्त के भाई की मदद करने में सक्षम थी। वह जानती थी कि स्वच्छ रहना महत्वपूर्ण है, और वह खुश थी कि वह दूसरों को भी स्वच्छता के महत्व के बारे में सिखा सकती है।