हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 161 – विनम्रता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय  एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “विनम्रता”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 161 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 विनम्रता 🙏

सरला के जीवन भर की कमाई उसकी अपनी विनम्रता है। इसी कारण कभी-कभी वह  परेशानी में पड़ जाती थी। आज मानव सेवा आश्रम में पेड़ के नीचे लगी बेंच पर वह कुछ धार्मिक ग्रंथ पढ़ रही थी। रिमझिम बारिश की फुहार में अचानक उस घटना ने उसे सोचने को मजबूर कर दिया। जिसमें बिना कारण के वह अपने पति के गुस्से का शिकार हो गयी।

मामला यहां तक बढ़ा के पतिदेव कुणाल ने उसे घर से सदा सदा के लिए निकाल दिया। पांच वर्ष का बेटा रोता रहा परंतु पतिदेव की आत्मा न पिघली और न ही उसने माफ किया।

चलते चलते अचानक सरला गिर पड़ी। उसे कुछ याद न रहा। होश आने पर पता चला वह सुरक्षित किसी भली महिला के पास पहुंच चुकी है। जो असहाय और निराश्रित मानव की सेवा करती थी। अपने को संभालते सारा जीवन उसने मानव सेवा संस्थान में सेवा देने का मन बना लिया।

दुनिया की तरह तरह की बातों से दूर अब वह वहां आराम से रहने लगी।

सभी की सेवा करना सब का ध्यान रखना अपने हिस्से का सारा काम करके वह दूसरे का भी हाथ बटाती थी। सरला का नामों निशान मिट चुका था, अब वह विनम्रता के कारण विनू दीदी के नाम से जानी जाने लगी थी।

रिमझिम बारिश और मिट्टी की सोंधी महक तथा गरम गरम भजिए की खुशबू से वह बौखला गई।

जब भी ऐसा मौसम बनता विनू दीदी अपने आप को संभाल नहीं पाती थी। उसे देखकर लगता था कि असहनीय पीड़ा हो रही है।

यही वो समय था कुणाल के आने का इंतजार कर रही थी। हेमू बाहर खेल रहा था। सोचीं  गरम-गरम भजिए तलकर कुणाल का इंतजार करती हूं। परंतु खेलते खेलते हेमू किचन में आ गया।

मम्मी की साड़ी पकड़ कर वह झूल गया। अचानक आने से सरला के हाथ से झरिया छूट गया और हेमू के गाल पर लगा। ठीक उसी समय पर कुणाल अंदर आया और अपने बच्चे को रोता देख इससे पहले  सरला कुछ कहती। उसने तेल की गरम भरी कढ़ाई उठा सरला के सिर से पांव तक फेंक दिया।

चीख उठी सरला। देखा आसपास सभी खड़े थे क्या हुआ विनू दीदी फिर वही घटना याद आ गई। सफेद साड़ी के पल्ले से पोछते हुए सरला रोते रोते बोल पड़ी… मैंने कोई लापरवाही से चोट नहीं पहुंचाया था बस बता ना सकी। अपनी विनम्रता के कारण सब सहती रही।

तभी दौड़ते सभी कर्मचारी बाहर भागने लगे। पता चला किसी बुढ़े पिताजी को बेटे ने घर से निकाला है। और उसके शरीर पर जलने के निशान है।

पास आते ही सरला ने देखा वो और कोई नहीं कुणाल ही था।

सदा विनम्र रहने वाली सरला आज कठोर बन चुकी थी बोली.. इन्हें ले जाकर इलाज शुरू करवा दो। मुझे और भी काम निपटाना है।

कर्मचारियों ने देखा आंखों में आंसू चेहरे पर मुस्कान शायद वह वह आज भी विनम्र थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – लघुकथा ☆ “चीनी और मैंगो मैन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा ☆ चीनी और मैंगो मैन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

— ‘सुनिए!बाजार जा रहे हैं। जरा 5 किलो चीनी लेते आना !’ — महिमा ने निशान्त से कहा।

— ‘क्या चीनी चीनी लगा रखा है। गुड़ खाओ गुड़।’

— ‘देखिए ये दिखने दिखाने का जमाना है। गुड़, गंवई है। भौंडा है। चीनी कैसी सुदर्शना, गोरी गोरी, चिकनी, चमकीली और दानेदार होती है।’

— ‘फिर चीनी। अरे बाबा शक्कर नहीं तो शर्करा कहो न।’

— ‘चीनी क्या कह गई आप तो लाल बंबोड़े जैसे काट खाने को दौड़ पड़े। शब्दों का काला जादू तुम भी सीख गये। जिसने ” चीनी कम” फिल्म बनाई उसे भी कुछ कहो। अब बढ़िया केले को “चीनीचंपा”और मूँगफली को “चीनीबादाम” न कहो तो मानूं। वैसे भी “शकर” फारसी शब्द है।’

— ‘अब तुम मुझे शब्दों का जुगराफिया समझाओगी ?’

— ‘तुम तो भनक गये। मैं तो बस इतना कह रही थी कि शब्दों में क्या रखा है ?’

— ‘क्या रखा है ! चतुष्पदी कुर्सियां और चतुर्मुखी मीडिया इसी की ताकत से लोकतंत्र के जनाजे को कंधा देने की तैयारी कर रहा है।’

— ‘निशांत तुम मेरे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हो। दिन में सौ बार हाथ धोकर भी तुम्हारा जी नहीं भरा। मैं तो एक “आम इन्सान” (मैंगो मैन) हूं।’

— ‘आम आदमी ! सियासत ने उसे चूस चूसकर गुठली कूड़ेदान में फेंक दी है। हमें आम रहने देना भी उसे मंजूर नहीं।’

— ‘सच कहूं चीनी शब्द सुनते ही कलेजे में बहुत दर्द होता है महिमा ! मेरे 20फौजी जवानों के ताबूत आँखों के सामने आ जाते हैं।’ —-

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 120 ☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘क्लीअरेंस’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 120 ☆

☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘सर! इस फॉर्म पर आपके साईन चाहिए। परीक्षा है, क्लीअरेंस करवाना है‘ – विभाग प्रमुख से एक छात्रा ने कहा।

‘ठीक है। आपने विभागीय ग्रंथालय की सब पुस्तकें वापस कर दीं?’

‘सर! मैंने ग्रंथालय से एक भी पुस्तक नहीं ली थी। जरूरत ही नहीं पड़ी।‘

‘अच्छा, पिछले वर्ष पुस्तकें ली थीं आपने?‘

‘नहीं सर, कोविड था ना! ऑनलाईन परीक्षा हुई थी, तो गूगल से ही काम चल गया। सर! पाठ्यपुस्तकें भी नहीं खरीदनी पड़ीं। बी.ए. के तीन साल ऐसे ही निकल गए’ – छात्रा बड़े उत्साह से बोल रही थी।

‘सर! जल्दी साईन कर दीजिए प्लीज, ऑफिस बंद हो जाएगा।‘

हूँ —–

पास बैठे एक शिक्षक महोदय बोले – ‘सर! मैं तो कब से कह रहा हूँ, किताबें कॉलेज के ग्रंथालय को वापस कर देते हैं। विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकें तो पढ़ते नहीं हैं, ग्रंथालय से पुस्तकें लेकर क्या पढ़ेंगे?‘

‘ठीक कह रहे हैं सर आप, गूगल से ही पढ़ाई हो जाती है अब तो ‘– छात्रा यह कहती हुई क्लीअरेंस फॉर्म पर साईन लेकर तेजी से बाहर निकल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा ??

अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।

आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ पितृ दिवस विशेष – “कि, मैं जिन्दा हूंँ अभी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

☆ लघुकथा – पितृ दिवस विशेष – “कि, मैं जिन्दा हूंँ अभी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

(पिता  हर साल बूढ़े होते हैं,  पुराने नहीं ।  आज “फादर्स डे ” पर सभी के पिताओं को प्रणाम किया तो मेरी ये पुरानी लघुकथा नई हो गई और जवान भी। नहीं पढ़ी हो तो पढ़िए। पढ़ी भी हो तो पिता को प्रणाम समझ, पुनः पढ़िए।)

” एक री-टेक और “

” देखिए हीरो साब,  पहले आप इस बूढ़े एक्स्ट्रा को खींचकर एक चाँटा मारेंगे। चार सेकेण्ड तक चाँटे की गूँज सुनाई देगी। फिर आप अपना डायलॉग कहेंगे। यह चाँटेवाला सीन पूरी फिल्म की जान है। ” हीरो को शाॅट समझाते हुए डायरेक्टर ने कहा।

” ऐसी बात है,  तो हीरो आज खुद स्टंट करेगा।

सिर्फ चाँटा मारने की एक्टिंग नहीं, बल्कि सच में चाँटा मरूँगा। तभी सीन में रियलिटी आएगी।”

हीरो के इस सहयोग पर पूरी युनिट खुशी से उछल पड़ी। वह बूढ़ा एक्स्ट्रा चाँटा खाने के पहले ही अपना गाल सहलाने लगा। निर्माता ने हँसते हुए उससे कहा-” अबे, डरता क्या है ? हीरो का चाँटा खाकर तेरा भी कल्याण हो जायेगा। घबरा मत। चाँटे के हर शाॅट पर तुझे सौ रुपए एक्स्ट्रा मिलेंगे।”

शाॅट की तैयारी होने लगी। कैमरा, लाइट, साइलेंस, यस; एक्शन। होरो ने खींचकर बूढ़े के गाल पर चाँटा मारा और अपना डायलॉग बोला।

” कट ” , डायरेक्टर ने कहा-” देखिए हीरो साब, आपको चार सेकेण्ड रुककर डायलॉग बोलना है। ये सीन फिर से लेते हैं।”  इतने-से शाॅट के लिए री-टेक करवाना हीरो को अपमानजनक लगा। मगर वह मान गया। फिर से वही तैयारी और वैसा ही “कट “। ” देखिए हीरो साब, इस बार आप ज्यादा रुक गए। प्लीज, एक बार और।” डायरेक्टर ने हीरो को पुनः समझाया।

“नहीं-नहीं। बस अब पैक-अप। मेरे हाथ थक गए हैं। अब मूड नहीं है।” हीरो के इस जबाब से सारी युनिट उदास हो गई।

सभी ने हीरो को समझाना शुरू किया-” मान जाइए ना, आज यह शाॅट लेना बहुत जरूरी है। आपने शाॅट बहुत ही अच्छा दिया। बस थोड़ा टाइमिंग हो जाए तो यह एक सीन पूरी फिल्म पर छा जाएगा। बस, सिर्फ एक री-टेक और प्लीज,”

कहते हुए निर्माता हाथ-पैर जोड़ने लगा। एक असिस्टेंट हीरो के हाथ पर आयोडेक्स मलने लगा। ना-नुकुर कर आखिर हीरो मान ही गया।एक नए जोश के साथ शाॅट की तैयारी शुरू हो गई।

” देखिए, अब कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए।”

ओके,  यस रेडी…एक्शन. ..और “कट” ! इस बार बूढ़े एक्स्ट्रा ने शाॅट बिगाड़ दिया था। सारी युनिट उस पर टूट पड़ी ” कौन है ये एक्स्ट्रा ? कौन लाया इसे ? इतना–सा सीन ठीक से नहीं कर सका।

निकाल दो इसे। कल से दूसरा एक्स्ट्रा आयेगा।

“बड़ी मुश्किल से तो हीरोजी राजी हुए थे। अब कौन मनायेगा उन्हें।”

आखिर रोता हुआ बूढ़ा, हीरो के पैरों पर गिर पड़ा। ” साब, प्लीज एक शाॅट और दे दीजिए।मेरी नौकरी का सवाल है। अब गलती नहीं होगी।” आँखों के आँसू चाँटे खाए लाल-लाल  गाल पर लुढ़कने लगे। हीरो को दया आ गई। आखिर वे मान ही गए। हीरो के मानते ही युनिट का गुस्सा बूढ़े के प्रति जाता रहा।और इस बार शाॅट ओके हो गया। हीरो को अच्छा शाॅट देने पर सभी बधाइयाँ  देने लगे।चाँटा मारनेवाले हाथ को सहलाने लगे।पूरी युनिट खुश थी कि चलो आज का काम निपट गया।

एक्स्ट्राओं का पेमेण्ट होने लगा।बूढ़े को चार बार चाँटा खाने के चार सौ अतिरिक्त मिले।एक कोने में खड़े बूढ़े से लाइनमैन ने पूछा-” तुम्हें तो तीस साल हो गए एक्स्ट्रा का रोल करते हुए,  फिर आज तुमसे गलती कैसे हुई ? “

” दरअसल मैं लालच में आ गया था। प्रोड्यूसर ने हर री–टेक पर सौ रुपए ज्यादा देने को कहा था। जब दो बार हीरो की गलती से री-टेक हुआ तो मैंने सोचा एक री-टेक मैं भी जान-बूझकर कर दूँ तो चौथा शाॅट तो लेना ही पड़ेगा मुझे आज लड़की की परीक्षा-फीस  चार सौ जो भरनी थी।”

यह कहकर वह खुशी-खुशी अपने लाल हुए गालों को थपथपाने लगा। इस री-टेक में उसने अपनी जिन्दगी का बेहतरीन शाॅट जो दिया था।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – धराशायी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – धराशायी ??

उसे जीतने की आदत थी, सो जीतता रहा सदा।

फिर अपनों ने घेरा, रिश्तों ने उसे कमज़ोर कर दिया।

इस बार उसके बच्चे हथियार लेकर सामने खड़े थे। उसने आत्मसमर्पण कर दिया।

कुछ समय बाद वह धराशायी था।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 160 – सभी का आदर करें ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं बालसुलभता  पर आधारित एक विचारणीय  एवं शिक्षाप्रद बाल लघुकथा “सभी का आदर करें ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 160 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 सभी का आदर करें 🙏

 

हमारी भारतीय परंपरा और बड़े बुजुर्गों का कथन – सदैव हमें जीवन में लाभ पहुँचाता है। ऐसा ही एक कथन “सभी का आदर करें” हमें बचपन से सिखाया जाता है।

कृति का आज दसवां जन्मोत्सव है सुबह से ही घर में तैयारियाँ हो रही थी। मेहमानों का आना जाना लगा था। मम्मी- पापा से लेकर नौकर चाकर सभी प्रसन्न होकर अपना – अपना काम कर रहे थे।

शानदार टेबल सजा हुआ था। मेहमान एक के बाद एक करके उपहार देते जा रहे थे। कृति भी बहुत खुश नजर आ रही थी। मम्मी पापा दोनों सर्विस वाले थे। घर पर आया एक मालिश वाली बाई थी। जो कभी दादी कभी मम्मी और कभी-कभी कृति के बालों, हाथ पैरों पर मालिश कर उसके दिन भर की थकान को दूर कर देती थी।

कृति की दादी पुरानी कहानियों के साथ-साथ वह सभी बातें सिखाती थी। जो अक्सर हम दादी नानी के मुँह से सुना करते हैं। दादी कहती अपने से बड़ों का और सभी का सदैव सम्मान आदर करना चाहिए, क्योंकि सभी के आशीर्वाद में ईश्वर की बात छुपी होती है।

कृति के मन पर भी यह बात बैठ गई थी। वह भी बहुत ही मिलनसार थी। परंतु मम्मी की थोड़ी नाराजगी रहती इस वजह से चुप हो जाया करती थी। मम्मी कहती छोटों को मुंह नहीं लगाना चाहिए।

कृति ने देखा मालिश वाली अम्मा अपने पुराने से झोले में कुछ निकालती फिर रख लेती। उसे वह दे नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था इतने सारे सुन्दर गिफ्ट में बेबी मेरा छोटा सा बाजा का क्या करेगी।

कृति दौड़कर आया बाई के पास आई और पैर छू लिए और बोली अम्मा मेरे लिए कुछ नहीं लाई हो। बस फिर क्या था आया अम्मा की आँखों से आँसू बह निकले और अपने झोले से निकालकर वह  मुड़े टुडे कागजों से बंधा खिलौना कृति के हाथों में दे दिया।

कृति ने झट उस खिलौने को निकाल कर मुँह से बजाने लगी और पूरे दालान में लगे सजावट के साथ-साथ भागने लगी। एक बच्चा, दूसरा बच्चा और पीठ पीछे बच्चों की लाइन लगती गई। बच्चों की रेलगाड़ी बन चुकी थी। आगे-आगे कृति उस बाजे को बजाते हुए और बच्चे एक दूसरे को पकड़े पकड़े दौड़ लगा रहे थे।

सभी लोग ताली बजा रहे थे। फोटोग्राफर ने खूब तस्वीरें निकाली। दादी ने खुश होकर कहा.. “अब मुझे चिंता नहीं है मेरी कृति अनमोल कृति है उसने सभी का आदर करना सीख लिया है।”

मालिश वाली बाई मम्मी से कह रही थी.. “खेलने दीजिए मेम साहब मैं अच्छे से मालिश कर उसकी थकान उतार दूंगी”, परंतु वह जानती थी। कृति तो आज उसको आदर दें उसे खुश कर रही है। दिल से दुआ निकली जुग जुग जिये बिटिया रानी ।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – पुराने ज़माने के लोग )

☆ लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

जिन दिनों बसों की अनिश्चितकालीन हड़ताल चल रही थी, उन्हीं दिनों में एक दिन अविनाश ने पिता से कहा, “पापा, गाँव से तीन‌‌-चार बार दादी का फ़ोन आ चुका है कि आकर मिल जाओ। कल चलें हम? परसों संडे को वापस आ जाएँगे।”

“क्यों नहीं? कौन-कौन जाएगा?”

“आप, मम्मी, मैं और सुनीता चारों चलेंगे।”

“क्यों न जनक को भी साथ ले लें, उसे भी गाँव जाना है, बसों की हड़ताल की वजह से नहीं जा पा रहा है। गाड़ी में सीट तो है ही।” जनक उनका बचपन का दोस्त था, उन्हीं के गाँव का और अब इसी शहर में रह रहा था। वे दोनों अक्सर एक साथ ही गाँव जाया करते थे।

“नहीं पापा, गाड़ी में चार आदमी ही आसानी से बैठ सकते हैं। और फिर प्राइवेसी भी तो कुछ होती है। कोई पराया साथ हो तो इन्जाॅय कैसे कर सकते हैं। मैं तो अकेला भी होऊँ तो किसी बाहर वाले को बैठाना पसंद नहीं करता।”

“यह तुम्हारी सोच है बेटा! मैं तो सोचता हूँ कि ख़ुद थोड़ी तकलीफ़ भी सहनी पड़े तो भी दूसरे को सुख देने की कोशिश की जानी चाहिए और हमें तो कोई तकलीफ़ सहनी ही नहीं है। गाड़ी में सीट है, सिर्फ़ पौन घंटे का रास्ता है।” नंदकिशोर को ‘पराया’ शब्द हथौड़े की तरह लगा था।

“पुराने ज़माने के लोग! हमेशा औरों के लिए सोचते रहे, तभी तो कभी ज़िंदगी को इन्जाॅय नहीं कर पाए। कभी अपने लिए जी कर देखिये पापा!”

नंदकिशोर कहना चाहते थे – किसी और के लिए जी कर देखो बेटा, असली आनंद उसी में है। यह आनंद का अभाव ही तुम में इन्जाॅय की तृष्णा पैदा करता है। तृष्णा कभी मरती नहीं है, इसीलिये लगातार इन्जाॅय करते हुए भी तुम कभी संतोष का अनुभव नहीं करते- पर प्रकटत: उन्होंने पूछा, “कल पक्का वापस आना है?”

“आना तो होगा ही, परसों ऑफ़िस भी तो जाना है।”

“तो फिर तुम हो आओ बेटा! मैं तो तीन-चार दिन रुकूँगा। एक दिन में मेरा मन नहीं भरता।”

अविनाश अपनी माँ और पत्नी के साथ गाँव के लिए रवाना हो गया। उसके जाने के पंद्रह-बीस मिनट के बाद नंदकिशोर ने स्कूटी उठाई और जनक को साथ लेकर गाँव की ओर चल दिए।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह लिखता रहा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – वह लिखता रहा ??

‘सुनो, रेकॉर्डतोड़ लाइक्स मिलें, इसके लिए क्या लिखा जाना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘अश्लील और विवादास्पद लिखकर चर्चित होने का फॉर्मूला कॉमन हो चुका। रातोंरात (बद)नाम होने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘अमां क्लासिक और स्तरीय लेखन से किसीका पेट भरा है आज तक? तुम तो यह बताओ कि पुरस्कार पाने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘चलो छोड़ो, पुरस्कार न सही, यही बता दो कि कोई सूखा सम्मान पाने की जुगत के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

वह लिखता रहा हर साँस के साथ, वह लिखता रहा हर उच्छवास के साथ। उसने न लाइक्स के लिए लिखा, न चर्चित होने के लिए लिखा। कलम न पुरस्कार के लिए उठी, न सम्मान की जुगत में झुकी। उसने न धर्म के लिए लिखा, न अर्थ के लिए, न काम के लिए, न मोक्ष के लिए।

उसका लिखना, उसका जीना था। उसका जीना, उसका लिखना था। वह जीता रहा, वह लिखता रहा..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 119 ☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सच से दो- दो हाथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 119 ☆

☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सूरज की किरणें उसके कमरे की खिड़की से छनकर भीतर आ रही हैं। उसने लेटे- लेटे ही गहरी साँस ली – ‘ सवेरा हो गया फिर एक नया दिन,पर मन इजाजत ही नहीं दे रहा बिस्तर से उठने की। करे भी क्या उठकर? उसके जीवन में कुछ बदलने वाला थोड़े – ही है? वही-वही बातें, उसके शरीर को स्कैन करती निगाहें, मन में काई-सी जमी घुटन, जो न चुप रहने देती है, न चीखने। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों को दिखता सच! दो पाटों के बीच वह घुन -सा पिस रहा है। कैसे समझाए उन्हें कि आँखों देखा हमेशा सच नहीं होता। ओफ्! —-‘

तब तो अपना सच उसकी समझ से भी परे था। छोटा ही था, स्कूल – रेस में भाग लिया था। उसने दौड़ना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – ‘अरे! महेश को देखो, कैसे लड़की की तरह दौड़ रहा है।‘ गति पकड़े कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो। वह वहीं खड़ा हो गया, बड़ी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे-धीरे चलता हुआ सब के बीच वापस आ खड़ा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक ‘लड़की-लड़की‘ कहकर चिढ़ाते रहे। तब से वह कभी दौड़ ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से कानों में आवाज गूँजती – ‘लड़की है, लड़की।‘ वह ठिठक जाता।

 ‘महेश! उठ कब तक सोता रहेगा?‘ – माँ ने आवाज लगाई। ‘ कॉलोनी के सब लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं, तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ? कितनी बार कहा है लड़कों के साथ खेला कर। घर में घुसकर बैठा रहता है लड़कियों की तरह।‘

‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना‘ – उसने गुस्से से कहा।

माँ के ज्यादा कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पड़ा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में घूमता रहा बेवजह इधर – उधर। साईकिल के पैडल के साथ ही विचार भी बेकाबू थे – ‘ बचपन से लेकर बड़ा होने तक लोगों के ताने ही तो सुनता आया है। आखिर कब तक चलेगा यह लुका छिपी का खेल ? ‘

घर पहुँचकर उसने साईकिल खड़ी की, कमरे में जाकर अपनी पसंद का शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढ़कर सबके बीच में आकर बैठ गया।

सूरज की किरणों ने आकाश पर अधिकार जमा लिया था।  

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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