हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – सह अस्तित्व की भावना ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “सह अस्तित्व की भावना“.)

☆ लघुकथा – सह अस्तित्व की भावना ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

वे दोनों ही कई दिनों से अस्पताल में भर्ती थे। दोनों के बिस्तर भी आमने-सामने थे। उनकी समस्याएं भी तकरीबन एक जैसी थीं। उनके इलाज डॉक्टरों के वश में थे और नहीं भी थे।

दरअसल, एक की दोनों किडनी खराब थीं। एक किडनी मिल जाती तो स्थापित कर दी जाती। किडनी डोनेशन का विज्ञापन अखबारों में एक अर्से से दिया जा रहा था। दूसरे की दोनों आंखें रोशनी के लिए तरस रही थीं। एक आंख मिल जाती तो जीवन सुधर जाता। उसने भी नेत्रदान की अपील अखबारों के माध्यम से की थी।

‘किंतु संभावना शून्य ही है’ – एक दिन एक निराश होकर बोला।

‘इस तरह कब तक अस्पताल का बिल बढ़ाते रहेंगे’।

दूसरा बोला- ‘तो’

‘तो क्या?’

‘मुझे जल्दी ही प्रस्थान करना पड़ेगा। कोई दो-चार महीने में ही।’

‘और  मैं कौन सा ज्यादा टिकूंगा, सड़क पर गया और किसी ने मार दी टक्कर।’

‘कोई रास्ता’

‘अच्छा बताओ, तुमने किसी की मदद की है’।

‘इसी में तो इन आंखों की यह दुर्गति हुई है’।

‘मैं तुम्हें एक आंख दान कर दूं तो’!

‘मैं भी तुम्हें एक किडनी देने से नहीं चूकूंगा’।

दूसरे दिन दोनों खुश थे। तरो ताजा भी दिख रहे थे। सह अस्तित्व की भावना से उनके जीवन में बहार जो आ गई थी।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अकल बड़ी कि भैंस ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “अकल बड़ी कि भैंस “.)

☆ लघुकथा – अकल बड़ी कि भैंस ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘अकल बड़ी कि भैंस’? – मास्टर जी ने पूछा तो किशोर का जवाब था – भैंस बड़ी.

‘यह क्या उल्टा-पुल्टा जवाब दे रहे हो किशोर? मैंने क्या यही अर्थ बताया था तुम्हें.’ मास्टर जी गरम होते हुए बोले.

‘सर  हकीकत तो यही है, अब भैंस बड़ी है अकल से, यह स्वीकार कर लेना चाहिए.’

‘कैसे’?

‘मेरे पिताजी बी ए  पास थे. नौकरी मांगने चले तो मुंह की खानी पड़ी. चारों कोने चित् गिरे.’

‘अच्छा फिर!’

‘फिर क्या? भैंस के तबेले से जुड़ गए. अब पूरी एक दर्जन भैंसे हैं हमारे तबेले में.’

‘भाई वाह!’.

‘जी हां, भैंसें बाकायदा अकल को मुंह चिढ़ाती  रहीं. हम लोग आगे बढ़ते रहे.’

‘बड़ी दिलचस्प कहानी है–आगे बढ़ो.’

‘अब हमारे पास एम ए पास तबेले का मैनेजर है. वह बेचारा एक पाव दूध भी मुश्किल से खरीद पाता था. काली चाय पीकर गुजारा करता था. अब उसके पास दो मुर्रा भैंसें हैं और वह पिताजी का पार्टनर बन गया है.’

‘गोया- लब्बोलुबाब यह है कि भैंसें उसकी जिंदगी बना रही हैं.’ मास्टर जी ने पूछा?

‘जी सर. इसलिए तो मैं कह रहा हूं की भैंस बड़ी है अकल से, पुरानी कहावत बदली जानी चाहिए गुरुवर.’

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “लीडरी“.)

☆ लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

दृश्य वही था। लोमड़ी नदी में पानी पी रही थी। उसके ऊपर की ओर भेड़िया था।

भेड़िया गुर्राया – ‘गंदा पानी इधर भेज रही है–ऐं। फिर तेरा झूठा पानी भी पीना पड़ेगा-ऐं।’

‘गंदा और झूठा तो आप कर रहे हैं महाराज। पानी का बहाव तो उधर से इधर की ओर है।’

भेड़िया गुर्र्रा कर बोला – ‘चोप्प।’

‘चोप्प क्यों महाराज। इसमें मेरी गलती कहां है महाराज।’

‘चोप्प, मुंह लडाती है, चोटटी कहीं की।’

अब लोमड़ी ने अपना रूप दिखाया – ‘चोटटा होगा तू—तेरी सात पीढ़ी—तू मुझसे ही खेल रहा है सांप सीढ़ी।’

अब भेड़िया घबराया। यह तो तो उलटी गंगा बहने लगी थी। लोमड़ी भेड़िए को आंखें दिखाने लगी थी। तब तक लोमड़ी ने भेड़िए को फिर हवा भरी। अपनी आंखें तरेरते हुए बोली –

‘यहां की मादा यूनियन की सेक्रेटरी हूं मैं। किसी भी मादा से अशिष्टता की सजा जानता है तू।’

‘घेराव, जुलूस, पुलिस, अदालत फिर सजा। जंगल से बहिष्कार मादाओं की भी इज्जत होती है आखिरकार।’

भेड़िया घबराया। यह कहां का बबाल उसने बना डाला। किस मुसीबत से पड़ गया है पाला। अपना गिरगिट जैसा रंग बदलकर बोला – ‘माफी दें लोमड़ी बहन, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी।’ लोमड़ी की बन आई थी इसलिए रौब झाड़ कर बोली- ‘चल फूट नासपीटे—पानी पीने का मजा ही किरकिरा कर दिया।’

भेड़िए के दुम दबाकर भागने पर वह अकड़ती हुई जंगल में घुसती चली गई।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 125 ☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 125 ☆

☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मेरी नजर उसके पैरों पर थी। तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही सबसे पहले बाहर निकल जाता। 

‘पैसेवाले घरों की लड़कियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं।‘ एक दिन वह सामने पड़ा तो मैंने उससे कुछ पूछे बिना चप्पल खरीदने के लिए पैसे दे दिए। उसने चुपचाप जेब में रख लिए। दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। ‘अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे? चप्पल क्यों नहीं खरीदी?’ मैंने पूछा। बहुत धीरे से उसने कहा – ‘पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम!’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 168 – बहुरूपिया – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा “बहुरूपिया ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 168 ☆

☆ लघुकथा – 🥳 बहुरूपिया 🥳

पुराने समय से चला रहा है। वेष बदलकर, वेशभूषा धारण कर, कोई भगवान, कोई महापुरुष, कोई वीर सिपाही, कोई जीव जानवर, तो कोई सपेरा, भील का रूप बनाकर भीख मांगते गांव, शहर, सिटी, और महानगरों में देखे जाते हैं। विदेशों में भी इसका प्रचलन होता है, परंतु थोड़ा बनाव श्रृंगार तरीका कुछ अच्छा होता है। पर यह होता सिर्फ पेट भरने और जरूरत का सामान एकत्रित करने के लिए या मनोरंजन के लिए।

जीविका का साधन बन चुका है। जो सदियों से बराबर चल आ रहा है। ऐसे ही आज एक महानगर में बहुत बड़े सभागृह में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर पांच वर्ष से कम के बच्चों का फैशन शो  चल रहा था। जिसमें श्री कृष्ण और राधा रानी बनाकर, सभी मम्मी – पापा अपने-अपने बच्चों को ले जा रहे थे। बिटिया है तो राधा रानी और बालक है तो श्री कृष्ण।

सभी एकत्रित हो रहे थे। वहीं पास में एक बहुरूपिया खंजर परिवार डेरा डाले हुए था। उसमें एक महिला जिसके पास एक छोटा बच्चा था। लगभग पांच वर्ष का, जो देखने में अद्भुत सुंदरता लिए था।

महिला थोड़ी बहुत जानकारी रखती थी और थोड़ी पढ़ी लिखी थी उसने अपने बेटे को कौड़ियों और जो भी सामान उसके पास था, मोर पंख, रंगीन कागज स्याही रंग और बाँस की बाँसुरी रंगीन, कपड़े के टुकड़े से सिला हुआ छोटा सा कुर्ता – धोती और सिर  पर साफा बांधकर बैठा कर देख रही थी।

जो भी वहां से निकलता उसे पलट कर जरूर देखते और अपने बच्चों की ओर देखा कहते… यह तो बहुरुपिया है। इसका काम ही ऐसा होता है।

महिला कई सभ्य लोगों से सुन सुन कर खिन्न हो चुकी थी। एक आने वाले सज्जन के सामने जाकर खड़ी हो गई। जो चमचमाती कार से निकाल कर खड़े हुए थे। 🙏उसने हाथ जोड़कर सीधे बोली… साहब जी क्या?? यह जो बच्चे सजे धजे ले जा रहे हैं। इनके बच्चे और मेरे बच्चे में कोई अंतर है। आखिर ये सब भी तो बहुरुपिया ही कहलाए।

बस शर्त यह है हम अपना पेट पालन करते हैं। इस काम से रोजी-रोटी चलती है। और आप लोग इसे फैशन शो कहते हैं। सज्जन ने सिर से पांव तक महिला को देखा और उसके बच्चे को देखा… पूर्ण कृष्ण के रुप  से सजा वह बच्चा वास्तव में बालकृष्ण की वेशभूषा पर अद्भुत सुंदर दिख रहा था। थोड़ी ही देर बाद लाल कारपेट से चलता हुआ बच्चा उस सज्जन की उंगली पकड़े सभागृह में पहुंच गया।

निर्णायक मंडल का निष्पक्ष निर्णय बहुरुपिया कान्हा प्रथम विजेता।🎁🎁

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – जज्बा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा जज्बा“.)

☆ लघुकथा – जज्बा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

(१६ दिसंबर से पहले)

शहर के पार्क में कुछ महिलाएं, कुछ युवतियां, सुबह-सुबह इकट्ठे होकर योगाभ्यास किया करतीं.

सब कुछ ठीक-ठाक होता पर ‘सिंह आसन’ में जीभ बाहर निकालकर हुंकार करने के प्रयत्न में कमजोर पड़ जातीं. मैं अक्सर सोचता ‘सिंह आसन’ में आखिर ये सब शेरनी जैसा दमखम कहां से लाएंगीं भला. मुंह से करारी आवाज निकलेगी तब न, महिलाएं पुरुषों जैसा साहस कहां से लाएंगीं आखिर आखिर.

(16 दिसंबर के बाद)

कुछ दिनों बाहर रहने के बाद पुन: शहर लौटा, तब तक दिल्ली में निर्भया के साथ वह भीषण वहशी कांड हो चुका था. उस रूह कंपकंपाने वाली दास्तान से पूरा देश उबल रहा था. महिलाओं-युवतियों ने एकजुट होकर अपनी ताकत दिखा दी थी.

मैं फिर एक दिन उसी पार्क में था. महिलाओं का सिंह आसन चल रहा था. पहले की अपेक्षा इस बार का दृश्य पूरी तरह बदला हुआ था. अपनी लंबी जीभ निकाले यह वामा दल शेरनियों में तब्दील हो चुका था. मानो, किसी ने इन्हें छेड़ने की हिमाकत की तो यह सब चीर फाड़ कर रख देंगीं. निर्भया के बलिदान ने इन्हें इतना निर्भय तो कर ही दिया था.

– और तब मेरा हाथ इन्हें सलाम करने की मुद्रा में अपने आप ऊपर उठ गया था.

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गोटेदार लहंगा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – गोटेदार लहंगा ??

..सुनो।

…हूँ।

…एक गोटेदार लहँगा सिलवाना है.., कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते हुए उसके बच्चों की माँ बोली।

 ….हूँ……हाँ…फिर सन्नाटा।

…अरे हम तो मज़ाक कर रहीं थीं। अब तो बच्चों के लिए करेंगे, जो करेंगे।…तुम तो यूँ ही मन छोटा करते हो…।

प्राइवेट फर्म में क्लर्की, बच्चों का जन्म, उनकी परवरिश, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बीमारियाँ, सब संभालते-संभालते उसका जीवन बीत गया। दोनों बेटियाँ अपने-अपने ससुराल की हो चलीं। बेटे ने अपनी शादी में ज़िद कर बहू के लिए जरीवाला लहंगा बनवा लिया था। फिर जैसा अमूमन होता है, बेटा, बहू का हो गया। आगे बेटा-बहू अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने लगे।

बगैर पेंशन की ज़िंदगी कुछ ही सालों में उसे मौत के दरवाज़े ले आई। डॉक्टर भी  घर पर ही सेवा करने की कहकर संकेत दे चुका था।

उस शाम पत्नी सूनी आँखों से छत तक रही थी।

….डागदर-वागदर छोड़ो। देवी मईया तुम्हें ठीक रखेंगी। तुम तो कोई अधूरी इच्छा हो तो बताओ.., सच को समझते हुए धीमे-से बोली।

अपने टूटे पलंग की एक फटी बल्ली में बरसों से वह कुछ नोट खोंसकर जमा करता था। इशारे से निकलवाए।

….बोलो क्या मंगवाएँ? पत्नी ने पूछा।

….तुम गोटेदार लहंगा सिलवा लो..! वह क्षीण आवाज़ में बोला।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा –  पागल ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

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☆ लघुकथा –  पागल ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

बचपन के संगी – साथी तो कोई मिले नहीं – मिले ये दो पेड़। एक जामुन का दूसरा बेल का, इन दोनों के, फलने पर मैं इन पर कई कई बार चढ़ता – उतरता रहा हूं। दिनभर इन के इर्द-गिर्द घूमता रहता। चढ़ने – उतरने में अक्सर हाथ – पैर की चमड़ी छिल जाया करती।

दादी गुस्सा कर गालियां देती – ‘नासपीटे तू तो इन पेड़ों पर ही खटिया डाल ले, वही सो जाया कर – तुझे सोने के लिए घर तो नहीं आना पड़ेगा। वहीं ऊपर ही ऊपर टंगे रहियो। ‘

दादा हंसकर चिढ़ाते – ‘ठीक ही तो कहती है तेरी दादी। साफ-सुथरी हवा में नींद भी खूब आएगी। पेड़ होना अपने आप में एक अच्छी बात है। तिस पर उस पर सोना, सोने में सुहागा। ‘

मैं शर्मा कर रह जाता। शहर पढ़ने जाने लगा तो मैंने दादा जी से एक दिन कहा – ‘दादा, मेरे साथ इन पेड़ों को भी भेज दो ना। ‘ हा हा हा दादा जोर से हंसे। अपने पोपले मुंह से दादी भी क्या कम हंसी थी।

सेवानिवृत्ति के बाद पहली बार घर आया तो टूटे – बिखरे घर को देखकर रोना आ गया। घर की जगह – जगह से आसमान दिखने लगा था। गांव भर के गाय – बैलों का रेस्ट हाउस बन गया था यह। ट्रकों से गोबर भरा पड़ा था।

घर से घोर निराशा हुई तो खलिहान पहुंच गया। जहां दोनों पेड़ सही सलामत दिखे। भावावेश में, मैं इन पर चढ़ने उतरने की कोशिश करने लगा। हाथ पैर छिल गए, दूर कहीं गालियां बकती दादी का चेहरा दिखाई दे रहा था। …. नासपीटे पेड़ों पर ही खटिया डाल ले… वहीं ऊपर ही ऊपर टंगे रहियो…. हा हा हा ठठाकर दादा भी हंसते दिखाई दिए…. मैं भी ठठाकर हंसने लगा, हा हा हा गांव वाले मेरी इस हरकत पर मुझे पागल समझ रहे थे।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – “दरार” और “वर्चस्व” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं “दरार” और “वर्चस्व”.)

☆ दो लघुकथाएं – “दरार” और “वर्चस्व” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

ये दो लघुकथाएं ‘दरार’ और ‘वर्चस्व’ बंगला भाषा में अनुवाद कर संपादक बेबी कारफोरमा ने अपनी संपादित कृति ‘निर्वाचित हिंदी अनुगल्प’ में प्रकाशित किया है। मूल लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए उपहार स्वरूप सादर प्रस्तुत हैं

कुंवर प्रेमिल

☆ लघुकथा एक – दरार ☆

एक मां ने अपनी बच्ची को रंग बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर

हरे भरे दरख़्त, एक हरी भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से उगता सूरज और एक प्यारी सी झोपड़ी। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियां बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई।

‘ममा देखिए न मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’

चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का  मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।

थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई-

‘ममा गजब हो गया, दादा दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’

ममा की आवाज आई-

‘आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो, दादा दादी वहीं रह लेंगे’।

मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। झोपड़ी के बीचों बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है। ‌

☆ लघुकथा दो – “वर्चस्व” ☆

न जाने कितने कितने वर्षों से एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है।

अब तक मात्र छै महिलाएं ही तो बनी हैं।

इनकी गिनती सातवीं है।

हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते।

महिला मंडल में एक विचार विमर्श जोर पकड़ता जा रहा था। तब एक समझौतावादी महिला चुप न रह सकी।

‘बहनों जरा विराम लो, जो कुछ है, पुरुषों के बल पर ही तो हैं।

वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाइयां प्रदान करते हैं। इसे नकारना मिथ्यावादी है। भाई, पिता, पति के बिना क्या हम एक कदम  भी बढ़ने में समर्थ हो सकेंगे।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – बुनियाद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – बुनियाद ??

…मेरी राय में यह ब्याह नहीं करना चाहिए.., दादा ने अपनी पोती के बाप से कहा।

…बाऊ जी, पार्टी बहुत ऊँची है। इसलिए ऊँचा खर्चा कह रहे हैं। बड़े लोग हैं। बहुत पैसा है। उनका भी स्टेटस है। दो-चार चीज़ें मांग ली तो क्या हुआ?

…इसीलिए तो कह रहा हूँ कि यहाँ सम्बंध मत कर। लालच की बुनियाद पर खड़ा रिश्ता कभी नहीं टिकता।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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