हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सिंडिकेट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सिंडिकेट ??

…बहुत कठिन है आजकल लाइक्स लेना..!

…इसलिए हमने बार्टर अपनाया है। हम उनको लाइक देते हैं, वे हमको लाइक देते हैं। क्या लिखा, कैसा लिखा, इससे क्या लेना देना। बस अपना सिंडिकेट ज़िंदाबाद।

…एक बात बताओ। तुमको लाइक्स कैसे मिलते हैं?

…शब्द मेरे सखा हैं। मेरा पाठक ही मेरा सिंडिकेट है…,सच्चे लेखक ने उत्तर दिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – युवा शक्ति ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘युवा शक्ति)

☆ लघुकथा – युवा शक्ति ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

(संदर्भ-कोरोना)

बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे। लॉकडाउन में अभी-अभी छूट मिली थी। इस समय पूरा ग्राउंड उनका क्रीड़ा स्थल बना हुआ था।

उनके चेहरों से टप टप पसीना बह रहा था। पर किसे परवाह थी, सब जोशीले खिलाड़ी बनकर अपने अपने करतब दिखा रहे थे।

कोई इधर से चिल्लाता – मार छोटे।

कोई उधर से चिल्लाता – मार मोटे।

मार लंगड़े – मार कुबड़े…

युवा शक्ति पूरे खेल के मैदान को मथे डाल रही थी। जीत की चिंता सभी के सामने थी और कोई किसी भी तरह किसी से हारना नहीं चाहता था। ऐसे में सबकी मास्क अपनी अपनी जगह पर कहां टिकती भला?

किसी की मास्क गले में लटकी थी तो किसी के कान में उलझी थी।

खिलाड़ी दौड़ रहे थे, गोल पर गोल कर रहे थे। ग्राउंड के आसपास दर्शक भी तालियां बजाकर खिलाड़ियों का भरपूर उत्साहवर्धन कर रहे थे। उनके मास्क भी यथावत नहीं थे। वे मास्क अपने हाथ में लेकर गोल-गोल घुमा कर चिल्ला रहे थे

– मार छोटे – मार मोटे – मार् कुबड़े – मार लंगडे –

युवा शक्ति ने कोरोना को ललकार दिया था। कोरोना के भय को उन्होंने फुटवाल सा उछाल दिया था। वहां किसी भी चेहरे पर नाम मात्र का भी कोरोना का भय शेष नहीं रह गया था।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – जो डर गया सो मर गया ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘जो डर गया सो मर गया)

☆ लघुकथा – जो डर गया सो मर गया ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

(संदर्भ-कोरोना)

एकाएक मेरी नींद उचट गई। पूरा बदन पसीना पसीना हो गया, ऐसा लगा जैसे मुख्य दरवाजे पर एक साहीनुमा कटीला सा खतरनाक जीव दरवाजा फलांगने की असफल कोशिश कर रहा था।

पूरे परिसर में उसकी सरसराहट गूंज रही थी। उसकी शक्ल टीवी में दिखाए गए कोरोना वायरस से हुबहू मेल खा रही थी।

मैंने चीख मार दी थी। मेरे साथ पूरा घर चीखें मारने लगा।

तभी एक आदमी बगल से निकल कर उसे लाठी लेकर खदेड़ने लगा। वह जीव फिर पार्क की दीवार फांद गया। वहां पहले से ही कुछ एक आदमी खड़े थे। उन से डर कर वह खतरनाक जीव पेड़ों पर चढ़ गया। पेड़ों पर पहले से ही और भी खतरनाक जीव चढ गए थे।

मोहल्ले के बहुतेरे लोग इकट्ठे होकर चिल्ला रहे थे—मारो–

मारो सालों को—डरो मत–

ये डरने से और डराएंगे।

जो डर गया सो मर गया—अरे जो डर गया सो मर गया।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 111 ☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ?। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 111 ☆

☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रविवार के दिन उसने साइकिल निकाली और चल पड़ा स्टेडियम की ओर। फुरसत की सुबह उसे अच्छी लगती है, हर दिन से कुछ अलहदा। ‘आज मनीष को भी साथ ले चलता हूँ’- उसने सोचा। वह तो अब तक बिस्तर में ही अलसाया पड़ा होगा। उसने आवाज लगाई – मनीष! जल्दी आ नीचे, स्टेडियम चलते हैं।

‘अरे नहीं यार! संडे की सुबह कोई ऐसे खराब करता है क्या?‘ मनीष ने बालकनी में आकर अलसाए स्वर में कहा।

तू नीचे आ जल्दी, आज तुझे लेकर ही मैं जाऊँगा। रुका हूँ तेरे लिए।

आता हूँ यार! तू कहाँ पीछा छोड़ने वाला है।

‘अरे! यहाँ तो  बहुत लोग आते हैं’ – स्टेडियम  में जॉगिंग करने और टहलने वालों की भीड़ देखकर मनीष बोला।

सब तेरी तरह आलसी थोड़े ही ना हैं। हर उम्र के लोग दिखाई देंगे तुझे यहाँ। बहुत अच्छा लगता है मुझे यहाँ आकर। ऐसा लगता है कि सब कुछ जीवंत हो गया है। लडकों को क्रिकेट खेलते देखकर अपना समय याद आ  जाता है। मजे थे यार! उस उम्र के,  साइकिल उठाई और चल दिए स्टेडियम में या कभी घर के पास वाले मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए – वह तेज गति से चलता हुआ बोलता जा रहा था।

मनीष मानों कहीं और खोया था, उसकी नजर स्टेडियम की भीड़ को नाप – जोख रही थी। कहीं लड़के क्रिकेट खेल रहे थे तो कहीं फुटबॉल। उन्हें देखकर वह कुछ गंभीर स्वर में बोला – ‘कितने लड़के  खेल रहे हैं ना यहाँ?‘

‘हाँ, हमेशा ही खेलते हैं, इसमें कौन सी नई बात है?’ 

‘हाँ, पर लड़कियां खेलती हुई क्यों नहीं दिखाई दे रहीं? रविवार की सुबह है फिर भी?’

उसकी नजर पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर खाली हाथ लौट आई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्रष्टा- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – स्रष्टा-  ??

“विचित्र अवस्था हो गई है मेरी। हर कोई दिगम्बर दिखाई देने लगा है। हरेक अपनी प्राकृतिक अवस्था में। किसी तरह का कोई आवरण नहीं”, साधक ने अपनी समस्या और जिज्ञासा एकसाथ रखीं।

…” जो आवरण तक रहा, उसे हरि कब दिखा? अब इस निरावरण प्रकृति को यों देख, जैसे माँ, संतान को देखती है। अपलक निहार ममता से। स्थूल में सूक्ष्म देखने लगा है तू।..सृष्टि से स्रष्टा होने की यात्रा पर है तू…” कहकर गुरुजी ने शिष्य को गले से लगा लिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – झाड़ू झाड़ू मारूंगी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘झाड़ू झाड़ू मारूंगी )

☆ लघुकथा – झाड़ू झाड़ू मारूंगी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

(संदर्भ-कोरोना)

‘बचाओ-बचाओ, मुझे कोरोना से बचाओ अर्ध रात्रि में सोनू डर से भयभीत होकर बुरी तरह चीख रहा था।

दादी अम्मा अपने पलंग से गिरती पड़ती सोनू के कमरे की ओर दौड़ पड़ी। कोरोना के डर से सोनू काफी डरा सहमा सा था। वह  सपने में डर से जोर-जोर से चिल्ला रहा था।

– मुझे कोरोना डायनासोर बनकर अपने पंजों में जकड़ कर पहाड़ी की ओर उड़ रहा है।

उधर सोनू के दादाजी हांफते हुए कहते हैं – भाग्यवान, लड़का बहू के आने तक मेरा राम नाम सत्य हो गया तो!

एक अकेली दादी और उनके हिस्से में हलाकान करने वाले दादा पोता, वह स्वयं बुरे बुरे सपनों से भयभीत है। उन्हें लाशें ही लाशें दिखाई देती हैं। कुत्ते, गिद्ध लाशें नोच कर खाते दिखाई देते हैं। घर-घर में लाशें बिछी है, उन्हें मरघट तक ले जाने वाले नहीं हैं।

दरवाजे खुले पड़े हैं, पर उन्हें ताले लगाने वाली नहीं है। सुबह-सुबह आने वाले यह सपने सच हो गए तो!

लड़का बहू किसी दूसरे शहर में फंसे हुए हैं, उनके आने तक दोनों वृद्ध कोरोना से चल बसे तो! तो के आगे दादी सोच नहीं पाती है।

सोनू अभी बच्चा ही है, गहरे सदमे का शिकार हो गया तो!

यह ‘तो’ दादी माँ के दिमाग की खिड़की पर हथौड़ी से ठकठकाता रहता है। इस भीषण त्रासदी में उन्हें दूर-दूर तक मदद करने वाला कोई भी दिखाई नहीं देता है। कैसा समय है यह?

पूरी दुनिया मौत के बढ़ते आंकड़े से भयभीत है। इसका कोई तोड़ नहीं है रे। ससुरा कोरोना मुझे मिल जाए तो झाड़ू झाड़ू मारूंगी।

दस मारूंगी फिर एक गिनूंगी। नासपीटा कहीं का, मुंह जला कहीं का।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ वेलेन्टाइन डे विशेष – लघुकथा – तेरी-मेरी कहानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ वेलेन्टाइन डे विशेष – लघुकथा – तेरी-मेरी कहानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(बीते कल के वेलेंटाइन डे की अप्रतिम लघुकथा)  

“हैप्पी वेलेन्टाइन डे, माय डियर,एंड आय लव यू।” कहते हुए सुनील ने एक रेडरोज अपनी पत्नी रत्ना के हाथ में दे दिया। 

“आय लव यू टू, माय लाइफ।” कहते हुए रत्ना ने अपनी खुशी व्यक्त की। 

 इस पर दोनों ठीक चार दशक पहले की कॉलेज की यादों में खो गए। 

“सुनील जी! क्या आपके पास यूरोपियन हिस्ट्री की बुक है?”

“हां! जी है।”

“मुझे कुछ दिन को देंगे, क्या?”

“जी ज़रूर।”

और सुनील ने यूरोपियन हिस्ट्री की किताब एम ए प्रीवियस की उसकी क्लास में आई नवप्रवेशित सुंदर,आकर्षक और शालीन लड़की रत्ना को दे दी।

फिर रत्ना ने नोट्स बनाने में सुनील की मदद की। सहपाठी तो वे थे ही,आपस में दोनों का मेलजोल बढ़ता गया। 

कक्षा में दोनों ही सबसे होशियार थे, इसलिए दोनों के बीच स्पर्धा भी थी, पर पूरी तरह स्वस्थ। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे के दिल में समाते गए। रिजल्ट आया तो दोनों के ही नाम यूनीवर्सिटी की मेरिट लिस्ट में थे। 

और आज दोनों एक-दूसरे के जीवन की मेरिट लिस्ट में भी हैं।

अचानक उनकी तंद्रा टूटी, वे वर्तमान में वापस लौट आये, और एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कराने लगे। सुनील ने कहा, “तुम्हारी-मेरी कहानी भी ख़ूब है, डियर।”

“हां! है तो माय हार्ट।” रत्ना ने शरारती अंदाज़ में कहा।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “कायर” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

श्री कमलेश भारतीय जी की लघुकथा “कायर” को सुप्रसिद्ध अभिनेता आदरणीय श्री राजेंद्र  गुप्ता जी के प्रभावशाली एवं ओजस्वी स्वर में सुनने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिये 👇🏻

  ☆ कथा–कहानी ☆ लघुकथा – “कायर” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

प्रेम के दिनों में एक रंग यह भी…

सहेलियां दुल्हन को सजाने संवारने में मग्न थीं। कोई चिबुक उठा कर देखती तो कोई हथेलियों में रचाई मेंहदी निहारने लगती। कोई आंखों में काजल डालती और कोई

ठोडी उठा कर तारीफ कर गयी और एक कलाकृति को रूप दर्प देकर सभी बाहर निकल गयीं। बारात आ पहुंची थी।

तभी राजीव आ गया। थका टूटा। विवाह में जितना सहयोग उसका था, उतना सगे भाइयों का भी नहीं। वह उसके सामने बैठ गया। चुप। मानों शब्द अपने अर्थ  खो चुके हों और भाषा निरर्थक लगने लगी हो।

– अब तो जा रही हो, आनंदी ?

– हूँ।

– एक बात बताएगी?

– हूँ।

–  लोग तो  यह  समझते हैं कि हम भाई-बहन हैं।

– हूँ।

– पर तुम तो जानती हो, अच्छी  तरह समझती रही हो कि मैं तुमहें बिल्कुल ऐसी हीइसी रूप में पाने की चाह रखता हूँ?

– हूँ।

– पर क्या तुमने कभी,  किसी एक क्षण भी मुझे भी उस रूप में देखा  है?

– लाल जोडे में से लाल लाल आंखें घूरने लगीं जैसे मांद में कोई शेरनी तडप उठी हो।

– चाहा था पर तुम कायर निकले। मैं चुप रही कि तुम शुरूआत करोगे। तुम्हें भाई कह कर मैंने जानना चाहा कि तुम मुझे  किस रूप में चाहते हो पर तुमने भाई बनना ही स्वीकार कर लिया । और आज तक दूसरों को कम खुद को  अधिक धोखा देते रहे। सारी दुनिया, मेरे  मां  बाप तुम्हारी   प्रशंसा  करते  नहीं थकते पर मैं थूकती हूँ तुम्हारे  पौरुष पर जाओ कोई  और बहन ढूंढो।

वह भीगी बिल्ली बना बाहर निकल आया।

बाद में कमरा काफी देर तक सिसकता रहा।

यह लघुकथा मेरे मित्र  रमेश बत्रा को  प्रिय थी।

रमेश  ने  इसे निर्झर के  लघुकथा विशेषांक व सारिका में प्रकाशित किया। आज उसे भी याद कर लिया।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ वैलेंटाइन डे विशेष – “एक-दूजे के लिए” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा   – “एक- दूजे के लिए”)

☆ लघुकथा ☆ वैलेंटाइन डे विशेष “एक- दूजे के लिए” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

🌹 मुहब्बत ताजमहल की मोहताज नहीं होती 🌹

जब भी, जिसे भी, जैसा भी  प्यार करो, आपके लिए वही “वैलेंटाइन डे” है। भरोसा नहीं हो तो पढ़िए, ये लघुकथा…

भूख, गरीबी,  बेकारी और झोंपडपट्टी के बीच घिरी होने पर भी निसार और शब्बो की मुहब्बत  बड़ी अमीर थी। अनपढ़ निसार रोज काम की तलाश में भटकता रहता। मिला तो कुछ खा-पीकर मुहब्बत की बातें करते और सो जाते, नहीं मिला तो सिर्फ बातें करते और भूखे ही सो जाते। 

आज शब्बों की सालगिरह है, कुछ मिल जाए तो वह शब्बो के लिए मिठाई ले जाएगा। निसार यही सोचता  भटकता रहा। उसे काम तो नहीं,  पर रमदू मिल गया। पूछने पर रमदू ने बताया कि -” जब उसे काम नहीं  मिलता और पैसे की जरूरत होती है तो वह अपना  एक शीशी खून बेच देता है। अरे, कुएँ में जिस तरह पानी आता रहता है न, डाॅक्टर बोलते हैं कि आदमी के जिस्म में खून भी वैसे ही बनता रहता है। “

रमदू के साथ जब वह डिस्पेंसरी से निकला तो उसकी जेब में तीन सौ रूपये थे। उसने पचास रुपयों की मिठाई खरीदी, खून देने की कमजोरी शब्बों की सालगिरह के उत्सव में दब गई। मिठाई का टुकड़ा शब्बो की ओर बढ़ाते हुए बोला-” सालगिरह मुबारक  हो।” दूसरे ही पल शब्बो उसकी  बाँहों में थी।

“आज का दिन कितना मुबारक है, देखो मुझे कितना काम मिल गया।”

निसार की बातें सुन शब्बो महसूस करने लगी कि इस सालगिरह पर वह एक साल छोटी हो गई। निसार की बाँहों का कसाव बढ़ने लगा। और साँसों की गर्माहट भी।

अब जब भी जरूरत होती,  निसार अपना खून बेचकर पैसे ले आता। धीरे-धीरे शब्बो महसूस करने लगी कि निसार की बाँहों में अब न पहले जैसा कसाव है और न ही साँसों में गर्माहट।  इस बार तो उसे निसार की बाँहें काफी बेजान-सी लगीं । एक लम्हे के लिए वह डर ही गई। इसके पहले कि वह सँभलती, निसार वही चक्कर खाकर गिर गया। वह जोर से चीख पड़ी। आसपास के दो- चार लोग जमा हो गए। बेहोश निसार को पास के अस्पताल ले गए। डाॅक्टर ने एक नजर निसार के पीले चेहरे पर डाल गुस्से से कहा “खून बेचते हो न ?”

निसार को अब तक कुछ होश आ चुका था। उसने स्वीकृति में अपनी गर्दन हिलाई। ” जानते हो खून कितना कीमती होता  है। खून देने के भी अपने कुछ नियम होते हैं। इस तरह खून बेचते रहोगे तो…एक दिन…”

” नहीं-नहीं- डाक्टर साब, इन्हें बचा लीजिए, ” करीब-करीब उसके पैरों पर झुकते  हुए , रूआँसी आवाज में शब्बो बोली।

” घबराओ  मत, एक महीने तक इलाज कराते रहे तो ये बिलकुल ठीक हो जाएँगे। ” नरम  स्वर में  डाॅक्टर ने कहा।

शब्बो के साथ घर लौटकर निसार फटी-फटी  आँखों से देखता रहा, फिर बोला-”  मुझे खैराती अस्पताल ले जाती। एक महीने के इलाज के लिए  कहाँ से आएगा पैसा ? और ये बता, अभी ये दवा और फीस के पैसे कहाँ से लाई ? “

” मुझे काम मिल गया था। “

” काम, कैसा काम ? “

” देखो, वो अपना ठेले वाले सिन्धी था न, जब वह नहीं  रहा तो  उसकी बीबी ठेले पर वही सामान बेचने लगी। और वो चौथी झोंपड़ी के रहीम पर जब फालिज पड़ा तो अब उसकी बीबी उसकी जगह कारखाने जाती है। अब, जब तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं,  तो क्या मैं नही जा सकती  रमदू के  साथ ? “

” तो तुम खून बेचकर पैसा लाई हो ? नहीं-नहीं, तुमने सुना नहीं डाॅक्टर क्या कह रहा था ?  खून बड़ी कीमती चीज है, उसे यूँ नहीं बेचना चाहिए। मैं मरता हूँ तो मरने दे। ” निसार कुछ तेज स्वर में बोला।

” मगर उसने ये भी तो कहा कि एक महीने में तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे । “

” हाँ,  मैं  एक महीने में अच्छा हो जाऊँगा, मगर तब तक तुम्हारा क्या होगा ? एक महीने बाद तुम्हारी क्या  हालत हो जायेगी  ? तब…? “

” तब तुम मुझे बचा लेना । अगले महीने मैं तुम्हें बचा लूँगी। “

” फिर तुम मुझे,  फिर मैं तुम्हें ….”

” फिर तुम, फिर मैं….”

”  फिर …” निसार और शब्बो की आँखें भीग गई। वहीं किसी झोंपड़ी में गीत बज रहा था, ‘ हम बने,  तुम बने एक-दूजे के लिए ….’

और शब्बो अपनी भीगी आँखों से फक् से हँसती हुई निसार की बाँहों में समा गई। शब्बो महसूस करने लगी कि निसार की बाँहों का कसाव बढ़ता जा रहा है। साँसों की गर्माहट भी।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 151 – वेलेंटाइन तोहफा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय एवं स्त्री विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण लघुकथा वेलेंटाइन तोहफा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 151 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 वेलेंटाइन डे विशेष – वेलेंटाइन तोहफा ❤️

मालती इस दिन को कैसे भूल सकती है। आज वह अपना 25वां जन्मदिन मना रही है। आज ही के दिन किसी ने गुलाब से भरी टोकरी में मालती को लिटा कर अनाथ आश्रम के द्वार पर रख कर चला गया था।

धीरे-धीरे मालती बड़ी हुई। अपने रूप गुण और सरल स्वभाव के कारण सभी की आंखों का तारा बन चुकी थी। अनाथ आश्रम में कई कर्मचारी काम करते थे। सभी मालती को बहुत पसंद करते थे क्योंकि वह बाकी अन्य बच्चों से बिल्कुल अलग थी।

दिन बीतते गए। मालती पढ़ने लिखने में भी बहुत होशियार थी। वहां के एक कर्मचारी को वह बिटिया भा गई थी क्योंकि उसका अपना बेटा भी बहुत ही शांत स्वभाव और होनहार था। पवन मालती के सपने देख रहा था। जब भी उसका आना होता, उसकी सुंदरता उसे आकर्षित करती थी।

उसकी इच्छा को समझ पापा ने कहा… पहले थोड़ा पढ़ लिख जाओ, उसे भी पढ़ने दो और फिर उसकी इच्छा का मान रखो।

मालती इन सब बातों से अनभिज्ञ थी। वहीं पर उसने पढ़ाई कर प्राइवेट कंपनी में जॉब करना शुरू कर दिया। आज जब वह अपने जन्मदिन की खुशियां मना रही थी। दुल्हन की तरह सजी हुई थी। उसने देखा आश्रम गुलाब के फूलों से सजा हुआ है और पास में ही बहुत बड़ी डलिया फूलों से भरी रखी है।

उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा। वह अपने जन्मदिन को लेकर मंत्रमुग्ध हुए जा रही थी। उसी समय वह कर्मचारी अपने बेटे और पत्नी परिवार के साथ आया। शहनाई की धुन बजने लगी। मालती ने सोचा हैप्पी बर्थडे की जगह शहनाई क्यों बजाई जा रही है। तभी सुपरवाइजर मैडम ने मालती को हाथों से पकड़ लिया और डलिया पर बिठा दिया। कर्मचारी और उसकी पत्नी और उनके बेटे पवन को देखकर मालती सारा मामला समझ चुकी थी और शर्म से लाल हो गई।

मैडम ने कहा… आज वैलेंटाइन डे पर तुम फूलों के साथ आई थी आज तुम्हें फूलों सहित विदा कर रहे हैं अपने नए जीवन और नए घर पर बड़े प्यार से रहना। यही वैलेंटाइन उपहार है। सभी की आंखें खुशी से नम हो रही थी। आज मालती को अपना घर मिल गया।

कुछ लोग उसे उठा कर चलने लगे मैडम ने कहा… ये तुम्हारा अपना घर है। आते जाते रहना। उसका हाथ पवन के हाथों में देते हुए बोली… आज से इसका ख्याल रखना। सुपरवाइजर मैडम की आंखों में आंसू थे। मालती दोनों अंजलि से फूलों की पंखुड़ियां उछाल रही थी। फूलों की डलिया में बैठ मालती धीरे-धीरे विदा हो रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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