पड़ोस के घर में दूर-दूर से जो परिचित आए उनमें से एक से घनिष्ठता बढ़ गई। बड़े इतने प्यार से दीदी दीदी करते रहे। मैंने सोचा कि अच्छे लोगों से हमेशा परिचय और जान पहचान होनी चाहिए। फोन पर बातचीत के द्वारा पूरे घर परिवार से एक आत्मीयता बंध गई। शादी का कार्ड मिला फोन पर मुझसे कहा गया, नहीं तुम्हें तो बड़ी बहन का दर्जा निभाना है।
मैं भी स्नेह की डोर से बँधी कड़ी गर्मी में राजस्थान जैसी जगह पर सभी के लिए बेशकीमती तोहफ़े और सामानों से लदी फदी पहुंची। आने जाने की टिकट, शादी की तैयारी का खर्च तो अलग था ही। वापस आते समय ₹1 भी मेरे हाथ पर नहीं रखा गया। कहा अरे आप तो बड़ी हैं, हम आपको क्या दें, यकायक मुझे महसूस हुआ कि वहां मेरे जैसी ही और भी बड़ी बहने मौजूद थी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #89 अभिमान ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक राजा को यह अभिमान था कि – मैं ही राजा हूँ और सब जगत् का पालक हूँ, मनु आदि शास्त्रकारों के व्यर्थ विष्णु को गत् पालक कहकर शास्त्रों में घुसेड़ दिया है। एक बार एक संन्यासी शहर के बाहर एक पेड़ के नीचे जा बैठे। लोग उनकी शान्तिप्रद मीठी-मीठी बातें सुनने के लिए वहाँ जाने लगे। एक दिन राजा भी वहाँ गया और कहने लगा कि मैं ही सब लोगों का पालक हूँ।
यह सुनकर सन्त ने पूछा- तेरे राज्य में कितने कौए, कुत्ते और कीड़े हैं? राजा चुप हो गया। सन्त ने कहा- ’जब तू यही नहीं जानता तो उनको भोजन कैसे भेजता होगा? राजा ने लज्जित होकर कहा- ’तो क्या तेरे भगवान कीड़े-मकोड़े को भी भोजन देते हैं? यदि ऐसा है तो मैं एक कीड़े को डिबिया में बंद करके रखता हूं, कल देखूँगा भगवान इसे कैसे भोजन देते हैं?
दूसरे दिन राजा ने सन्त के पास आकर डिबिया खोली तो वह कीड़ा चावल का एक टुकड़ा बड़े प्रेम से खा रहा था। यह चावल डिबिया बन्द करते समय राजा के मस्तक से गिर पड़ा था। तब उस अभिमानी ने माना कि भगवान ही सबका पालक है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा शत्रु।)
☆ लघुकथा – शत्रु ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
(कविता के ऐसे तमाम शत्रुओं से क्षमा सहित)
– एक कवि आपसे मिलने के लिए द्वार पर हाथ बाँधे खड़ा है, आज्ञा हो तो उसे दरबार में आने दिया जाए ।
– कवि!! हमसे मिलने के लिए आया है, आश्चर्य! ये कवि कहे जाने वाले प्राणी तो जैसे पैदा ही राजाओं की निंदा के लिए हुए हैं ।
– पर यह कवि वैसा नहीं है ।
– कवि तो है न! तुम क्या नहीं जानते कि हम कवियों से और कवि हमसे कितना चिढ़ते हैं । कितने कवि हमारे कारागार में बंद हैं, कितनों पर मुकद्दमें चल रहे हैं, कितनों से हमारे दरबारी अपने स्तर पर लड़ रहे हैं ।
– जानता हूँ महाराज, पर इस कवि ने आपकी प्रशस्ति में कई चालीसे लिखे हैं, अब महाकाव्य लिखने की तैयारी में है । इस कवि ने प्रजा के बीच आपको अवतार के रूप में स्थापित करने का प्रण किया है ।
– अच्छा, उसका हमसे मिलने का प्रयोजन क्या है?
– वह आपको अपनी लिखी कविता की किताबें भेंट करना चाहता है ।
– किताबें! हा…हा…हा…हमने कभी कोई किताब पढ़ी है आज तक? और कविता के तो हम घोषित शत्रु हैं ।
– कविता का शत्रु तो वह भी है महाराज, अघोषित ही सही ।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय लघुकथा “समय की धार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 130 – साहित्य निकुंज ☆
☆ लघुकथा – समय की धार ☆
इंदु की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.
हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.
उसने कहा..”माँ बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए. पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते।”
हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ।”
“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द, मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी माँ जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी।”
“माँ बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये।”
“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो।”
“दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा।”
“इंदु अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो।”
“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती, मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया, इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”
“इंदु एक बात ध्यान रखना माता-पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है।”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय
बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी। दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।
वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “ठहरी बिदाई… ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 123 ☆
☆ लघुकथा – ठहरी बिदाई…☆
सुधीर आज अपनी बिटिया का विवाह कर रहा था। सारा परिवार खुश था परंतु रिश्तेदारों में चर्चा का विषय था कि सुधीर इस शुभ अवसर पर अपनी बहन को माफ कर सकेगा कि नहीं।
बहन रुपा ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। घर परिवार के विरोध के बाद भी। स्वभाव से थोड़ा सख्त और अच्छी कंपनी पर कार्यरत सुधीर के परिवार की जीवन शैली बहुत अच्छी हो चुकी थी।
बहुत सुंदर और खर्चीली शादी लग रही थी। सुधीर की धर्मपत्नी नीरा बहुत ही विचारों से सुलझी और संस्कारों में ढली महिला थी।
द्वारचार का समय और बारात आगमन होने ही वाला था। सुधीर के स्वभाव के कारण कोई भी अपने मन से आगे बढ़कर काम नहीं कर रहा था। परंतु पत्नी की व्यवहारिकता सभी को आकर्षित कर रही थी। द्वारचार पर दरवाजे पर कलश उठाकर स्वागत करने के लिए बुआ का इंतजार किया जा रहा था।
सुधीर मन ही मन अपनी बहन रुपा को याद कर रहा था परंतु बोल किसी से नहीं पा रहा था। अपने स्टेटस और माता-पिता की इच्छा के कारण वह सामान्य बना हुआ था।
धीरे से परेशान हो वह अपनी पत्नी से बोला…. “रूपा होती तो कलश उठाकर द्वार पर स्वागत करती।” बस इतना ही तो कहना था सुधीर को!!!!!
पत्नी ने धीरे से कहीं – “आप चिंता ना करें यह रही आपकी बहन रूपा।” कमरे से सोलह श्रृंगार किए बहन रूपा सिर पर कलश लिए बाहर निकली। और कहने लगी – “चलिए भैया मैं स्वागत करने के लिए आ गई हूं।”
सुधीर की आंखों से अश्रुधार बह निकली परंतु अपने आप को संभालते हुए ‘जल्दी चलो जल्दी चलो’ कहते हुए…. बाहर निकल गया।
विवाह संपन्न हुआ। बिदाई होने के बाद रूपा भी जाने के लिए तैयार होने लगी और बोली… “अच्छा भाभी मैं चलती हूं।”
भाभी अपनी समझ से खाने पीने का सामान और बिदाई दे, गले लगा कर बोली – “आपका आना सभी को अच्छा लगा। कुछ दिन ठहर जातीं।”
परंतु वह भैया को देख सहमी खड़ी रही। समान उठा द्वार के बाहर निकली! परंतु यह क्या चमचमाती कार जो फूलों से सजी हुई थी। गाड़ी के सामने अपने श्रीमान को देख चौंक गई। अंग्रेजी बाजा बजने लगा।
सुधीर ने बहन को गले लगाते हुए कहा…. “जब तुम सरप्राइज़ दे सकती हो, तो हम तो तुम्हारे भैया हैं। तुम्हारी बिदाई आज कर रहे हैं। चलो अपनी गाड़ी से अपने ससुराल जाओ और आते जाते रहना।” विदा हो रुपा चली गई।
अब पत्नी ने धीरे से कहा… “पतिदेव आप समझ से परे हैं। बहन की विदाई नहीं कर सके थे। आज आपने ठहरी विदाई कर सबके मन का बोझ हल्का कर दिया।”
यह कह कर वह चरणों पर झुक गई। माता-पिता भी प्रसन्न हो बिटिया की विदाई देख रहे थे।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #88 यह संसार क्या है? ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?
इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।
‘एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।
कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।
उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना। वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।’
कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा..
‘संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।
जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता…..।’
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा हम।)
☆ लघुकथा – हम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
बचपन में मैं इस जंगल में कई बार आया था। तब यह जंगल सघन था, इतना कि धूप की पहुँच धरती तक बमुश्किल ही हो पाती थी; और आज पेड़ इतने विरल कि जंगल को जंगल कहते डर लगता है। मैंने एक पेड़ से पूछा, “जंगल का यह हश्र कैसे हुआ?”
“पेड़ों का क़त्ल कौन कर सकता है- बारिश, बिजली, तूफ़ान, बाढ़, भूकंप या तुम?” पेड़ के पत्ते ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे थे। लगा, जैसे तमाम गुज़रे हादसों को याद कर उनकी चेतना काँप रही हो।
“तुमने बताया नहीं?” पेड़ ने मेरी ख़ामोशी को झिंझोड़ा।
“पेड़ों का क़त्ल हम ही कर सकते हैं।” मैंने कहा।
“और पेड़ों को बचा कौन सकता है?”
“हम।” अचानक पेड़ की छाल में मेरे हाथों ने गीलापन महसूस किया और फिर वह गीलापन मेरे वजूद में उतरने लगा। तभी काँपती पत्तियों में से एक बहुत ताज़ा पत्ती मेरे कंधे पर आ गिरी।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “गहराई… ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 122 ☆
☆ लघुकथा – गहराई…☆
कुएं रहट से लगी रस्सी से बंधी बाल्टी पर गहराई से पानी निकालते अहिल्या नीचे देख सोचने लगी??? कब तक जिंदगी इन गहराई से निकलती जल की बाल्टी की तरह बनी रहेगी। ऐसा क्या हुआ जो उसका जीवन उसके लिए अभिशाप बन चुका था।
गांव में शादी होकर अहिल्या आई बहुत ही सुखद जीवन था पतिदेव और देवर। दोनों साथ साथ खेती का कार्य करते थे। साधारण परिवार में सभी कुशल मंगल था। परिवार के नाम में और कोई नहीं था कुछ दिनों बाद नन्हा बालक आया और सभी कुछ बहुत अच्छा था।
खेत में काम करते करते दोनों भाई खुशी से रहते। देवर के हसीन सपने दिनों दिन बढ़ते जा रहे और होता भी क्यों नहीं इतना प्यार करने वाले भैया भाभी और भतीजे को देख उसका मन तो अपनी जीवनसंगिनी को ढूंढ रहा था। उसी के सपने देखता और हंसता मुस्कुराता रहता।
एक सुबह जब वह भाई के लिए रोटी लेकर खेत पहुंचा देखा भैया बेसुध पड़े हैं। घर लाया गया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अहिल्या की तो जैसे दुनिया ही उजड़ चुकी।
पत्थर सी बन गई। दिन बीतने पर गांव में तरह-तरह की बातें बनने लगी। देवर भी परेशान रहने लगा भाभी के दर्द को और नन्हे बच्चे की परवरिश को लेकर वह सोचने लगा।
इस आग उगलती दुनिया में भाभी का अपना कोई नहीं है। क्या ऐसे में वह भाभी को अपनाकर अपने घर को फिर से बचा सकता है?
एक समझौता कर उसने अपने सपनों की दुनिया को खो दिया और ठान चुका कि किसी भी प्रकार से वह अपने भाभी को कष्ट नहीं होने देगा। चाहे उसे जमाना कुछ भी कहे।
खेत से काम करते हुए घर की तरफ आ रहा था। भाभी मटके से पानी भरकर अपने रास्ते आ रही थी। दो रास्ते जहां पर एक होते हैं वहां पर देवर ने गिरने का बहाना किया और बेसुध होकर लेट गया।
आसपास के लोगों ने चिल्लाना शुरु कर दिए… अहिल्या ने घबराकर मटके का पानी देवर के ऊपर डाल मटका फेंका और लिपट कर रोने लगी… मैं आपको खोना नहीं चाहती.. रोते-रोते वह शुन्य हो गई।
देवर भी तो यही चाहता था कि भाभी के मन की गहरी बात को सबके सामने रख सके और बाहर निकाल सके। किसी तरह रिश्तो में जकड़ी भाभी अपने मन से सबके सामने रिश्तो को अपना सके। रिश्तो को मान सके और नई जीवन शुरू कर सके। यही तो वह चाहता था जो वह कभी भी बोल नहीं पा रही थी।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय लघुकथा “निर्णय”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 128 – साहित्य निकुंज ☆
☆ लघुकथा – निर्णय ☆
“बाबूजी यह मैं क्या सुन रहा हूँ.. कि नीता कहीं और शादी करना चाहती है और वह लड़का अपनी जात बिरादरी का नहीं है।”
हाँ तुमने सही सुना है ..कोई बात नहीं जब उसकी यही मर्जी है तो उसे करने दो।”
” बाबू जी आपका दिमाग खराब हो गया है कोई ब्राह्मण पंजाबी लड़के से शादी करेगा क्या? मैं तो हरगिज भी उसकी शादी नहीं करूंगा।”
नीता के आते ही सुदीप ने कहा..” एक बात कान खोल कर सुन लो जहां हम चाहेंगे वही तुम्हारी शादी होगी घर से बाहर कदम निकाला तो टांग तोड़ देंगे।”
नीता भाई के डर के मारे उस वक्त कुछ कह न पाई और एक दिन उसने फैसला किया कि मैं अपनी जिंदगी इस घर में नहीं गुजार सकती और वह घर से निकल गई।” भाई को जैसे ही पता चला भाई ने माता-पिता से कहा कि खबरदार आपने जो इससे रिश्ता रखा तो आप मेरा मरा हुआ मुंह देखेंगे या मैं समझ लूंगा कि आप हमारे लिए मर गए।”
माता पिता डर के मारे उससे मिलने नहीं जाते थे। कुछ दिन बाद नीता ने एक बेटे को जन्म दिया।नीता माता पिता के दर्द और तड़प के कारण उसको बीमारी ने घेर लिया और एक दिन वह इस दुनिया को छोड़ कर चली गई।
अब सुदीप भैया के बेटी की शादी है भैया बहुत उत्साह के साथ अपनी बिटिया का विवाह कर रहे हैं क्योंकि बिटिया ने अपनी मनपसंद बंगाली लड़के को चुना है।
पिताजी यह सब देखकर अपने आपको रोक नहीं पाए और वक्त उनके मुंह से निकला “अगर तुमने यही सही निर्णय उस वक्त लिया होता तो आज शायद मेरी बेटी जिंदा होती।”