हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 91 ☆ फाँस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘फाँस’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 91 ☆

☆ लघुकथा – फाँस ☆ 

अर्चना बालकनी में खड़ी बिजली के तार पर बैठी गौरैया को देख रही थी जिसने बच्चों के उड़ जाने के बाद अभी – अभी घोंसला छोड़ दिया था। घोंसला सूना पड़ा था। कुछ दिन पहले ही चूँ –चूँ  की आवाजों से लॉन गूँजा करता था।  जैसे बच्चों के रहने से घर में रौनक बनी रहती है। घोंसले का सूनापन घर के सन्नाटे को और बढ़ा रहा था। फ्लैशबैक की तरह पति की  एक- एक बात उसके दिमाग में गूँज रही थी –  ‘टू बेडरूम हॉल किचन के फ्लैट से क्या होगा ? कम से कम थ्री बेडरूम हॉल किचन का फ्लैट होना चाहिए। एक  बेटे – बहू का, दूसरा बेटी- दामाद या कोई मेहमान आए तो उसके लिए और तीसरा बेडरूम हमारा। ऐश करेंगे यार, पैसे कमाए किस दिन के लिए जाते हैं।‘  बड़े चाव से खरीदे तीन बेडरूम के फ्लैट में आज सन्नाटा पसरा था। बेटी की शादी हो गई,  कभी – कभार आ जाती हैं सुख – दुख में। बेटे को एम.एस करने विदेश भेजा था,  वह वहीं रम गया।  तीसरे में अकेली रह गई वह। क्यों ???  शादी के बीस साल बाद उसके पतिदेव को समझ में आया कि वे दोनों अब साथ नहीं रह सकते। उसने पति के फोन पर कई बार उसके ऑफिस की एक महिला की चैट पढ़ी  थी। इस पर उसने सवाल भी किए थे पर पति ने उसे तो यही जताया कि ‘तुम हमें समझ ही नहीं सकीं। गल्ती तुम्हारी ही है जो मुझे बांधकर ना रख सकीं। यह तो औरतों का काम होता है पति और बच्चों को संभालना। मेरा क्या ? ‘जो भी राह में मिला, हम उसी के हो लिए’ गीत गुनगुना दिया उसने। दो बेडरूम  खाली रह सकते हैं यह तो उसे मालूम था लेकिन तीसरा ?

 फाँस बहुत गहरी चुभी थी। समझ ही नहीं पाई कि कहाँ,  क्या गलत हो गया? खुद को  कितना समझाती पर चुभन कम नहीं होती। फाँस कुरेद रही थी  उसे भीतर ही भीतर – ‘ इतने वर्षों का साथ, पर एक पल नहीं लगा घरौंदा बिखरने में ? पति और बच्चों के इर्द- गिर्द ही तो जीवन था उसका। मकान को घर बनाने में उसने जीवन खपा दिया। किसी बात का कोई मोल नहीं ? ‘ आँसू थम नहीं रहे थे, दिल बैचैन जोर से धड़कने लगा,  घबराकर फिर से बालकनी में जाकर घोंसले को देखने लगी। गौरैया आकाश में दूर उड़ गई। अर्चना हसरत भरी निगाहों से गौरैया को उड़ते देख रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कालजयी☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – कालजयी ??

कितना धीरे धीरे चढ़ते हैं आप..! देखो, मैं कैसे फटाफट दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ रहा हूँ..! लिफ्ट खराब होने के कारण धीमी गति से घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे दादा जी से नौ वर्षीय पोते ने कहा। दादा जी मुस्करा दिए। अनुभवी आँख के एक हिस्से में अतीत और दूसरे में भविष्य घूमने लगा।

अतीत ने याद दिलाया कि बरसों पहले, अपने दादा जी को मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ाते समय यही बात उन्होंने अपने दादा जी से कही थी। उनके दादा जी भी मुस्करा दिए थे।

भविष्य की पुतली दर्शा रही थी कि लगभग छह दशक बाद उनके पोते का पोता या पोती भी उससे यही कहेंगे। दादा जी दोबारा मुस्करा दिए।

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:34 बजे, 18.4.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 105 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 16 – पुन्न पुरानौ घृत नयौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 105 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 16 – पुन्न पुरानौ घृत नयौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (16)  

पुन्न पुरानौ घृत नयौ, उर कुलवंती नार।

जे तीनों तबहीं मिलै, जब प्रसन्न करतार ॥

शाब्दिक अर्थ :- पुरखों द्वारा कमाया पुण्य, ताजे घी से युक्त स्वादिष्ट भोजन और कुल का मान बढ़ाने वाली चरित्रवान पत्नी हर किसी के भाग्य में नहीं होती और यह तीनों तभी प्राप्त होते हैं जब ईश्वर की कृपा होती है।

हिरदेपुर में हुई पंचायत की खबर आसपास के गाँवों में और दमोह तक जंगल में आग की तरह फैल गई। दुपरिया होते होते आसपास के गाँवों से लोग बाग शिव मंदिर में और ठाकुर साहब की बखरी पर जुटना चालू हो गए। कुछ तो सजीवन के समर्थन में थे पर ठाकुर साहब के दर से खुल कर कुछ न कह पाते। अनेक तमाशबीन भी थे जो चुपचाप तमाशा देख मजे लेने वाले भी थे तो कुछ चुखरयाई करबे में माहिर  इधर की बात उधर करने में लग गए। कुछ बुजुर्ग जो समझाइश देने को अपना पुश्तैनी दायित्व  समझते थे दोनों पक्षों को समझाने में लग गए। लेकिन बात जितनी बनती उतनी ही बिगड़ जाती। ठाकुर साहब को धर्म की चिंता थी, पुरखों का यशोगान और धर्म के लिए क्षत्रियों द्वारा किया गया बलिदान रह रहकर याद आ रहा था तो सजीवन के कान में महात्मा जी के शब्द गूँज रहे थे, हिन्दुस्तान में जो सबसे सबसे अधिक दुःख में पड़े हुए हैं, उन्हें हरिजन कहना यथार्थ है| हरिजन का अर्थ है, ईश्वर का भक्त, ईश्वर का प्यारा, गरीबा बसोर की कातर आँखे बार बार उनके सामने आ जाती मानो कह रही हों कि ‘महराज एक बार शंकर जी की बटैया मोहे भी छू लेन देओ।

शाम होते होते खबर आई कि दमोह से कांग्रेसियों का एक दल कल सुबह हिरदेपुर आयेगा और समस्या का  समाधान खोजने में मदद करेगा। इस खबर से बड़े बुजुर्गों ने राहत की साँस ली और ठाकुर साहब भी गाँव के लोगों की बात मानकर चर्चा के लिए तैयार हो गए। सब अपने अपने घर चल दिये पर लोगों को अनिष्ट की आशंका सता रही थी ऐसे में  भला नींद किसे आती। ठंड से गाँव के कुत्ते भी रोने लग जाते तो कहीं छींक की आवाज आती और लोग बाग भयभीत हो जाते। खैर रात कटी मुर्गे की बांग और चिड़ियों के चहचहाने ने सुबह की घोषणा कर दी। सारा गाँव फिर से ठाकुर साहब की बखरी पर आ डटा तो अनेक लोग मंदिर में बैठ सजीवन के साथ भजन गाने लगे। सूरज चढ़ते ही दमोह से कांग्रेसियों के दल आने शुरू हो गए। कुछ ही देर में ढगटजी, वर्माजी, मोदीजी, पलन्दीजी, मेहताजी, श्रीवास्तवजी   आदि नेता भी हिरदेपुर पहुँच गए। बातचीत शुरू हो इसके पहले ही ठाकुर साहब ने अपने कारिंदों को भेजकर नेताओं को अपनी बखरी में ही बुला लिया। कांग्रेस के नेता काफी देर तक ठाकुर साहब से चर्चा करते रहे और जलपान आदि ग्रहण कर ठाकुर साहब को ले कर मंदिर आ पहुँचे, जहाँ सजीवन अपनी मण्डली के साथ गांधीजी का प्रिय भजन जो उन्होने परसों ही दमोह की सभा में सुना था गा रहे थे।

रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम

सीताराम सीताराम, भज प्यारे तू सीताराम

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सन्मति दे भगवान

सबको अपनी ओर आता देख सजीवन ने भजन गाना बन्द कर दिया पर रणछोड़ शंकर ढगट ने सजीवन से भजन को गाना जारी रखने को कहा और खुद भी उसे दुहराने लगे।

भजन समाप्ति पर पलन्दीजी ने चर्चा शुरू की’ ठाकुर साहब और गाँव की जनता हम सब जानते हैं की दो दिन पहले जब महात्माजी दमोह पधारे थे तब आपके गाँव के लोगों ने यहाँ उनका भारी स्वागत किया था।‘

ठाकुर साहब बोले हाँ भैया जा सही बात हे और ई कार्यक्रम की सफलता को पुरो यश सजीवन पंडित जी खों हेंगो। गाँव के अन्य लोगों ने भी ठाकुर साहब की हाँ में हाँ मिलाई।

‘ठाकुर साहब कल आपके गाँव की पंचायत के बारे में सुना और हम सब दमोह से इस विषय पर चर्चा करने आए हैं कि एक समाधान जो सबके हिट में हो निकाल सकें।‘ वर्माजी की गंभीर वाणी गूँजी।

‘भाइयो यह मंदिर हमारे पुरखों ने धर्म की रक्षा के लिए बनवाया था।‘  ठाकुर सहाब बोले।

‘लेकिन ठाकुर साहब महात्मा गांधी कहते हैं कि हरिजनों को अधिकारों से वंचित रखना अधर्म है।‘ दमोह से आए श्रीवास्तव जी बोले।

धनीराम बनिया से रहा न गया वह बोला कि ‘भइया गोस्वामी जी कह गए हैं कि ढ़ोल ग्वार शूद्र पशु नारी सकल तारणा के अधिकारी।‘

‘कल की बातें छोड़ो बाबू ,जमाना बदल रहा है।‘ धनीराम बनिया का शहर में पढ़ने वाला लड़का बोला।

‘तुम बीच में मत बोलो अभी कल के लड़के हो वेद पुराण मनु स्मृति सब कहते हैं कि केवल द्विज को शिक्षा ग्रहण करने का पात्रता है। शूद्र तो पैदा ही इसलिए होते हैं कि वे सवर्णों की सेवा करें, यह मंदिर उनके लिए खोलना घोर पाप का काम है।‘ बटेसर यादव बोले । 

अब सजीवन से रहा न गया वे बोले ‘भाइयो मैंने अपने पिताजी से वेद आदि शास्त्र पढ़े हैं। मनु स्मृति में भी शूद्र को शिक्षा न दिए जाने को कहीं भी स्पष्ट रूप से मनाही  नहीं  है। वैदिक काल में एतरैय, एलुष आदि दासी पुत्रों, सत्यवान जाबाल गणिका पुत्र व मातंग चांडाल पुत्र का उल्लेख है जो उच्च शिक्षित होने पर ब्राह्मण बन समाज में प्रतिष्ठित हुए। महर्षि बालमिकी भी शूद्र थे, विदुर दासी पुत्र थे तो निषादराज आदिवासी। यदि वैदिक काल में व मनु स्मृति में शूद्रों के पठन पाठन पर रोक लगाई गई होती तो उपरोक्त व्यक्ति ऋषि न बनते।‘

रणछोड़ शंकर ढगट की दमोह और आस पास के गाँवों में धर्म प्रेमी विद्वान ब्राह्मण के रूप में  बड़ी प्रतिष्ठा थी उन्होने ने भी सजीवन की बात का समर्थन करते हुये कहा कि शास्त्रों में  वर्ण परिवर्तन को मान्यता  है व शिक्षा प्राप्त कर शूद्र भी उच्च वर्ण में जा सकता है। अशिक्षित ब्राह्मण शूद्र समान है। ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह सब वर्णों को उनकी जीविकोपार्जन के उपाय बताए व स्वंय भी अपने कर्तव्यों को जाने इस प्रकार सजीवन की बात सही है और हमे उनकी बात मानते हुये यह मंदिर हरिजनों के लिए खोल देना चाहिए।

‘सही बात है राजा गरीबा बसोर और पुनिया चमार अपने साथियों के साथ मंदिर आएँगे, हम सब लोगों के बीच उठेंगे बैठेंगे तो उनका ज्ञान बढ़ेगा।‘ परम लाल काछी बोला।

यह सब बातें सुनते सुनते हरिजनों में भी कुछ जाग्रति का भाव आया और पुनिया व गरीबा एक साथ बोल उठे ‘राजा हम ओरन पर क्रिपा करो मंदिर में दर्शन कर लें देओ।‘

‘भाइयो गांधीजी खाते हैं कि हरिजनों को साथ लाने से अंग्रेजों को देश की एकता समझ में आएगी देश जल्दी आजाद हो जाएगा। उनकी हरिजन यात्रा से अंग्रेज डर गए हैं।‘ प्रेम शंकर धगट बोले।

ठाकुर साहब पर इन सब बातों का कोई असर न हुआ और उन्होने अपनी अंतिम घोषणा कर दी कि ‘ ‘हमारा मंदिर शूद्रों के लिए नहीं खोला जाएगा।‘

सभा ख़त्म होने की घोषणा होती उसके पहले ही सहसा सजीवन की कोठरी का द्वार खुला और पंडिताइन एक पोटली लेकर मंदिर के चबूतरे पर पहुँच अपनी धीमी किन्तु मधुर आवाज़ में बोली ‘ राजा अब तुमने हुकुम सुआ दओ हेगों कि हम जा मंदिर छांड देबें तो ठीक है जा गहनों की पुटलिया आय, भोला के बब्बा और दद्दा ने मंदिर के खेत जौन आमदनी बची उसे हमाए लाने बनवाए हते अब जब हम मंदिर छोड़ राय हें तो इन पर भी हमाओ कौनों अधिकार नई रह जात।‘

इतना कह कर पंडिताइन मुडी और वापस अपनी कोठरी की ओर चल दी.  

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रतिमा ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ कथा-कहानी ☆ प्रतिमा ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

‘साहबजी…’

‘बोल…’

‘सरकार की हर योजना, हर निर्णय की आलोचना करना, यही हमारी पक्षीय नीति है नं?’

‘हुँ… तो फिर…’

‘तो उस दिन आप ने मुख्यमंत्रीजी की नई घोषणा का स्वागत कैसे किया?’

‘मैं ने किया? कौनसी  घोषणा? कैसा स्वागत?’

‘वही … नगर के बीचोंबीच उस नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा… उस दिन आप ने कहा था, ‘सरकार के विधायक कार्य में हमारा पक्ष सहयोग देगा।‘ आप की दृष्टी से सरकार का कोई भी कार्य विधायक हो ही नही सकता। फिर इस बार सहयोग की भाषा कैसी?

‘अरे, मूरख, प्रतिमा बनानी है, तो चंदा इकठ्ठा करना ही पडेगा…’

‘हां! सो तो है। ‘

‘इस काम में हम उनकी की मदद करेंगे।‘

‘क्यौं?’

‘तभी तो चंदे का कुछ हिस्सा अपनी तिजोरी में भी आ जाएगा।‘

‘उँ…’

‘प्रतिमा की स्थापना के बाद कभी-न-कभी, कोई-न-कोई उस की विटंबना करेगा। शायद उस की तोड –फोड भी हो सकती है।‘

‘उस से क्या साध्य होगा?’

‘ तो आंदोलन होगा। निषेध मोर्चे निकाले जाएंगे। लूट मार होगी। दंगा – फसाद होगा। तब तो समझो अपनी चाँदी ही चाँदी…’

‘मगर ऐसा नहीं हुआ तो?’

‘तो इस की व्यवस्था भी हम करेंगे।

 

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

मो. 9403310170,   e-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – मसीहा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी  एक विचारणीय लघुकथा मसीहा ।)

☆ लघुकथा – मसीहा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

पीढ़ियों से प्रजा मसीहाओं के भरोसे रहती आई थी। हर राजा में प्रजा ने मसीहा देखा और हर बार छली गई। प्रजा अकर्मण्य नहीं थी ,पर ‘कर्म करो और फल की चिन्ता मत करो’ के सिद्धांत में उसकी गहरी आस्था थी। प्रजा कर्म करती, फल राजा या दरबारी भोग लेते। अब हालत यह थी कि भूख थी, खेत बंजर हो गये थे। प्यास थी, नदियों में पानी नहीं था। हाथ थे, हाथों के लिए कोई काम नहीं था। लोग बिना किसी पवित्र उद्देश्य के मर रहे थे। प्रजा सदा की तरह मसीहे की प्रतीक्षा कर रही थी।

ऐसी निराशा के बीच प्रजा ने अपने नये राजा में भी मसीहे को देखा। प्रजा का दृढ़ विश्वास था कि यह सचमुच का मसीहा साबित होगा। उसकी वाणी में ओज था, चेहरे पर आत्मविश्वास। वह शेर की तरह चलता था, बाज़ की तरह देखता था, कृष्ण की तरह वस्त्र धारण करता था। प्रजा नये मसीहे की पूजा करने लगी। मसीहे का हर झूठ प्रजा को सच से भी ज़्यादा विश्वसनीय तथा मोहक लगता। हर मसीहे की तरह नया मसीहा भी जानता था (बल्कि औरों से कहीं बेहतर जानता था) कि जैसे प्यार हर व्यक्ति के भीतर सहज ही उपस्थित रहता है, ठीक वैसे ही प्यार से कई गुणा अधिक घृणा भी सहज ही उपस्थित रहती है। उसने पहले प्रजा के भीतर गौरव जगाया कि उसकी प्रजा सर्वश्रेष्ठ है। प्रजा को अपनी क़ीमत समझ में आई। फिर मसीहे ने उनके भीतर की घृणा को कुरेदकर उसमें आग लगा दी। चूँकि घृणा सृष्टि की सर्वाधिक विस्फोटक सामग्री है, सो जल्दी ही आग पूरी रियासत में फैल गई। अब प्रजा रक्त से फाग खेलती है। उसे न रोटी चाहिए, न पानी, न काम। प्रजा ख़ून देखकर अट्टहास करती है और मसीहे की जय-जयकार करती है। उसका दृढ़ विश्वास है कि रक्त की नींव पर जल्दी ही उसके स्वर्णिम भविष्य की भव्य इमारत बनने वाली है।

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#127 ☆ लघुकथा – सम्मान – सुरक्षा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “कोई बात नहीं…”)

☆  तन्मय साहित्य  #127 ☆

☆ लघुकथा –  सम्मान – सुरक्षा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

“हम जरा बाहर जा रहे हैं, पिताजी!”

बहु के साथ दरवाजे से निकलते हुए बेटे ने कहा।

“ठीक है बेटे।”

“कुछ लाना तो नहीं है आपके लिए?”

“नहीं।”

“लौटने में हमें कुछ देर हो सकती है”

“कोई बात नहीं”

भले ही बच्चे पूछते नहीं है अब मुझसे, पर बता के तो बाहर जाते हैं, सोचते हुए बुजुर्ग सुखलाल इसी में संतुष्ट थे।

यह अलग बात है कि, घर से निकलते  समय उनके लिए यह बताना भी कितना जरूरी रहता है कि,

“पिताजी! दरवाजा ठीक से बंद कर लेना”

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – डर के आगे जीत है- (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – डर के आगे जीत है- (2) ??

उसे लगता इस समय बाहर मृत्यु खड़ी है। दरवाज़ा खुला कि उसका वरण हुआ। सो घंटों वह दरवाज़ा बंद रखती। स्नान करने जाती तो कई बार दो घंटे भीतर ही दुबकी रहती। वॉशरूम में रुके रहना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। मन जब प्रतीक्षारत मृत्यु के चले जाने की गवाही देता, वह चुपके से दरवाज़ा खोलकर बाहर आती।

आज फिर वह बाथरूम में थर-थर काँप रही थी। मौत मानो दरवाज़ा तोड़कर भीतर प्रवेश कर ही लेगी। एकाएक सारा साहस बटोरकर उसने दरवाज़ा खोल दिया और निकल आई मौत का सामने करने!

आश्चर्य..! दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसका भय काल के गाल में समा चुका था।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – एक पंथ कई काज ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “एक पंथ कई काज)

☆ लघुकथा – एक पंथ कई काज ☆

“क्या बात, आजकल कार से काम पर आ-जा रहे हो। मजे ही मजे, आराम ही आराम, शान ही शान और मान ही मान है अब तो।” दोस्त आशुतोष ने कटाक्ष करते हुए कहा।

नसीब समझ गया। आशुतोष को फिजूलखर्ची से चिढ़ थी। शायद उसका कार में आना-जाना उसे फिजूलखर्ची लग रहा था। नसीब ने हंसकर कहा, “बेशक कार से आने जाने में मजा और आराम तो है ही, लोग इसे शान की सवारी कहते हैं, तो आदर-मान भी पूरा देते हैं। परंतु इसके साथ-साथ मेरे लिए और भी कई कारण हैं कार से आने-जाने के। हालांकि तुम जानते हो कि जब तक जरूरी ना हो मैं ऐसी चीजों पर खर्चा नहीं कर सकता।”

“और क्या कारण हैं भई, हम भी तो सुने?” आशुतोष थोड़ी-सी गंभीर मुद्रा में बोला।

“तुम तो जानते हो कि जब से मेरा बायाँ पैर दुर्घटनाग्रस्त हुआ है, मैं ठीक से पैर नीचे नहीं लगा पाता हूँ। तो स्कूटर-मोटरसाइकिल से कहीं आते-जाते समय परेशानी रहती है। इसलिए मैंने कार से आने जाने का निर्णय लिया है।” नसीब ने स्पष्ट किया।

“बात तो तुम्हारी सही है यार, एक-डेढ़ लाख के नीचे तो तुम पहले भी आ गए थे जब तुम्हारे साथ यह दुर्घटना हुई थी।” आशुतोष बात का समर्थन करते हुए बोला।

“इसके इलावा जैसा कि तुम जानते ही हो कि मैं कई सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ा हुआ हूं, और मुझे सामाजिक और कल्याणकारी कार्य करने का भी शौक है। तो मुझे बहुत सा साजो-सामान अपने साथ रखना पड़ता है, जो मैं अब गाड़ी में ही अपने साथ रखता हूं। मुझे सुविधा रहती है और जरूरत पड़ने पर सामान की तुरंत पूर्ति भी हो जाती है।”

“यह भी सही है। कई लोग तो केवल दिखावे के लिए ही यह सब करते रहते हैं, तुम तो फिर भी…।” आशुतोष प्रभावित होता हुआ बोला।

“एक बात और, आते-जाते मुझे जो भी मिलता है मैं उसे लिफ्ट भी दे देता हूं। कई बार तो कुछ बहुत ही ज्यादा जरूरतमंद लोग मिल जाते हैं, जैसे किसी ने जल्दी से ट्रेन या बस पकड़नी है, कोई बीमार है, या किसी को कहीं बहुत जरूरी काम है, वगैरह-वगैरह; तो वह भी एक अच्छा काम साथ-साथ हो जाता है। इसमें मेरा जाता भी क्या है? मैंने तो आना-जाना होता ही है। कई लोग तो अब मजाक में मुझे ‘लिफ्टमैन’ के तौर पर भी जानने लगे हैं।”

“यानी ‘एक पंथ कई काज’।” आशुतोष अब संतुष्ट था।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 121 – लघुकथा – दायरा… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है प्रेमविवाह  एवं नए परिवेश में  पुराने विचारधारा के बीच सामंजस्य पर आधारित अतिसुन्दर लघुकथा  “दायरा … ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 121 ☆

☆ लघुकथा – दायरा 

मोबाइल पर मैसेज देखकर सुधीर समझ नहीं पा रहा था कि अपनी पत्नी को क्या कहे – – – कि पिताजी ने अकेले ही घर बुलाया है। इसी बीच वैशाली आकर कहने लगी…. मुझे मायके जाना है। हालांकि मेरा वहां कोई नहीं पर, जहां पुराना घर है वहां के सभी लोग मुझे मानते हैं और मम्मी पापा की इच्छा थी कि मैं घर की देखभाल करते रहूँगी।

बस बात बनती देख सुधीर ने चुपचाप हा कह दिया।

तुम अपने घर चली जाना, मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना हैं। आज सुधीर बस में बैठ कर अपने घर  के बारे में सोच रहा था। शायद पिताजी मुझे माफ करेंगे या नहीं क्योंकि कुछ साल पहले जहां पर पढ़ाई करने गया था, वहीं एक लड़की से अपनी पसंद से शादी कर लिया था।

पिताजी अपनी जगह सही थे क्योंकि पुराने ख्यालात और घर परिवार की रजामंदी को सर्वोपरि माना जाता था। शादी के बाद पत्नि को घर लेकर गया किन्तु, पिताजी ने घर के अंदर पैर भी रखने नहीं दिया।

वैशाली ने इसका कोई विरोध नहीं किया चुपचाप रही, सुधीर उल्टे पांव उसको लेकर शहर चला गया था। समय जैसे चलता रहा, कहना चाह रहा हो… जो गलती ने सुधीर किया है वह कोई बड़ी गलती नहीं है। आजकल यह सब होने लगा है।

सुधीर के पिता जी प्राइवेट काम करते थे। आफिस में कुछ रुपये पैसों का बड़ा घोटाला हुआ। उसकी वजह से कार्यवाही हुई अपनी सफाई में सुधीर के पिताजी कुछ नहीं कह सके!!! इस कारण उनको निकाल दिया गया था। घर की स्थिति बिगड़ने लगी थी। किसी तरह वैशाली को पता चला। अपनी सादगी, सहजता और कार्यकुशलता से सास ससुर को सहायता करने लगी।

जिसका सुधीर को बिल्कुल भी एहसास नहीं था परंतु बाप बेटे के मनमुटाव को कम नहीं कर सकी।

पिताजी अपनी अड़ी पर थे.. बेटा आकर माफी मांग ले और सुधीर संदेह में रहा.. कि शायद पिताजी माफ नहीं करेंगे।

बस रुकते ही बैग उठा पगडंडी के रास्ते घर के दरवाजे पर पहुंचा। सामने पिताजी की गोद में अपनी बिटिया को देखकर कुछ देर के लिए आवाक हो गया।

आंखों पर ज़ोर देकर फिर से देखा.. हाथ में पानी का गिलास लिए वैशाली निकलकर दरवाजे पर खड़ी थी। पिताजी ने अपने अंदाज में कहा…बहू समझा दे इसको बेटा ही घर का चिराग, सहारा या बैसाखी नहीं होता.. बहू भी बन सकती है।

सुधीर पिता जी के इस बदले रुप को समझ नहीं पाया।

गिलास ले कर एक ही सांस में पानी पी डाला। उसकी समझ में अब आने लगा कि जब भी बाहर होता था वैशाली अपने ही मायके जाने की जिद करती थी। आज समझ में आया वह मायके नहीं उसके घर आती थीं।

पिताजी और मां का सहारा बन चुकी वैशाली विश्वास, दया, ममता और मां पिता जी की बेटी बन चुकी थी।

सिर झुकाए वह वैशाली के प्रति कृतज्ञ था कितना विशाल दायरा है। वह झूठ बोल कर उसे क्या समझाना चाह रहा था?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – खुद को देख लो ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “खुद को देख लो)

☆ लघुकथा – खुद को देख लो ☆

आज कई सालों के बाद मैं उस खेल के मैदान में था, जहां बचपन से लेकर जवानी तक, दोस्तों के संग खेला करता था। मैंने इधर उधर नजर दौड़ाई, कि कहीं कोई परिचित मिल सके। इसी खोज में मेरी नजर अपने ही एक दोस्त पर पड़ी, जो कुछ लोगों के बीच खड़ा बातचीत में व्यस्त था।

मैंने उसके कंधे को थपथपाया, “राहुल, मैं दीपक।” उसने एकदम चौंक पर मुझे देखा और ख़ुशी से चिल्लाया, “अरे दीपक, कैसे हो यार? आज इतने सालों बाद अचानक?”

“हां, बस याद खींच लाई तुम सब दोस्तों की। पुराने दिन ताजा करने आया हूं”, मैंने हर्षातिरेक से कहा, “और तुम सुनाओ, कैसे हो? घर परिवार में क्या चल रहा है?…” और हमारी बातें शुरू हो गईं। वह सबको छोड़ कर मेरे साथ मैदान में घूमने लगा। बातों का सिलसिला जारी था।

बैडमिंटन कोर्ट के पास पहुंचकर अचानक मुझे ख्याल आया, “यार, यहां दो मोटे-मोटे भाई आया करते थे खेलने सुबह-सुबह, याद है?”

“हां बिल्कुल, वही जो इतने भारी थे कि उनसे हिला भी नहीं जाता था, और हम सभी मिलकर उनका खूब मजाक उड़ाते थे।” राहुल ने कहा।

“पर कमाल के थे वो यार, उन पर कभी कोई असर नहीं होता था। मैं और राकेश तो कई बार सीधा-सीधा मुंह पर ही बोल देते थे। पर वाकई, लाजवाब था भई उनका संयम और हौंसला। न तो उन्होंने आना छोड़ा, और न हमारा ताना सुन कर कभी कुछ कहा”, मैंने मजाक भरे लहजे में कहा, “वैसे हैं कहां वह दोनों आजकल? कुछ अता-पता भी है उनका या नहीं? मिल जाते तो देखता, कितने ग्राम वजन कम हुआ है उनका।”

“हां, हैं ना”, राहुल भी हंस पड़ा, “वह देखो, वह जो दो सफेद टी-शर्ट में खड़े हैं।”

“वे पतले-पतले से”, मैंने कहा, “क्यों मजाक कर रहे हो यार, हाथी जैसे वह दोनों घोड़े जैसे कैसे हो गए? यह दोनों तो बड़े चुस्त और फुर्तीले लग रहे हैं।” मेरे लिए यह अविश्वसनीय था।

“वही हैं। दोनों ने मिलकर एक फिटनेस सेंटर खोला हुआ है, जो शहर में सबसे बढ़िया है”, राहुल बता रहा था, “अपनी मेहनत, लगन, सहनशीलता और आत्मविश्वास से उन्होंने यह मुकाम हासिल किया है। वह आज यहाँ के युवाओं के आदर्श हैं।”

 मैं सुन रहा था, और मेरा बाहर निकलता जा रहा पेट मेरा मजाक उड़ा रहा था, जैसे कह रहा हो, ‘लो, अब खुद को देख लो…।‘

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print