हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – ऐसे थे तुम ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा – कहानी ☆ लघुकथा – ऐसे थे तुम ☆ श्री कमलेश भारतीय  

बरसों बीत गये इस बात को । जैसे कभी सपना आया हो । अब ऐसा लगता था । बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी । उससे हुआ परिचय धीरे धीरे उस बिंदु पर पहुंच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं ।

फिर वही होने लगा । लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता । दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूंजने लगता, पक्षी चहचहाने लगते ।

फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम कथाओं का अंत होता है । पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी । साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी।

लड़का शादी में गया । पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब खूब रोया पर…. झरने की तरह समय बहने लगा …. बहता रहा । इस तरह बरसों बीत गये …. इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूंढी, शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए । कभी कभी उसे वह प्रेम कथा याद आती । आंखें नम होतीं पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता ।

आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया । बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा । उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा कैसा लगेगा ? आकुल व्याकुल था पर….कब उसका शहर निकल गया….बिना हलचल किए, बिना किसी विशेष याद के ….क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था …. जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था ।

वह मुस्कुराया । मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था, अब एक गृहस्थी । जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे । उसे किसी की फिजूल सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ?

इस तरह बहुत पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे प्यारे लोग….उनकी मीठी मीठी बातें….आती रहती हैं ….धुंधली धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी -अच्छा । ऐसे थे तुम । अच्छा ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी ?

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- गोटेदार लहंगा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा- गोटेदार लहंगा ?

..सुनो।

…हूँ।

…एक गोटेदार लहँगा सिलवाना है.., कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते हुए उसके बच्चों की माँ बोली।

….हूँ……हाँ…फिर सन्नाटा।

…अरे हम तो मजाक कर रहीं थीं। अब तो बच्चों के लिए करेंगे, जो करेंगे।…तुम तो यूँ ही मन छोटा करते हो…।

प्राइवेट फर्म में क्लर्की, बच्चों का जन्म, उनकी परवरिश, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बीमारियाँ, सब संभालते-संभालते उसका जीवन बीत गया। दोनों बेटियाँ अपने-अपने ससुराल की हो चलीं। बेटे ने अपनी शादी में ज़िद कर बहू के लिए जरीवाला लहंगा बनवा लिया था। फिर जैसा अमूमन होता है, बेटा, बहू का हो गया। आगे बेटा-बहू अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने लगे।

बगैर पेंशन की ज़िंदगी कुछ ही सालों में उसे मौत के दरवाज़े ले आई। डॉक्टर भी घर पर ही सेवा करने की कहकर संकेत दे चुका था।

उस शाम पत्नी सूनी आँखों से छत तक रही थी।

….डागदर-वागदर छोड़ो। देवी मईया तुम्हें ठीक रखेंगी। तुम तो कोई जरूरी इच्छा हो तो बताओ.., सच को समझते हुए धीमे-से बोली।

अपने टूटे पलंग की एक फटी बल्ली में बरसों से वह कुछ नोट खोंसकर जमा करता था। इशारे से निकलवाए।

….बोलो क्या मंगवाएँ? पत्नी ने पूछा।

….तुम गोटेदार लहंगा सिलवा लो..! वह क्षीण आवाज़ में बोला।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – कोरोना की रोटी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा कोरोना की रोटी। )

☆ लघुकथा – कोरोना की रोटी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

रिपोर्ट पॉज़िटिव निकली। घर भर में सन्नाटा फैल गया । बूढे को अटैच -बाथरूम वाले छोटे से कमरे में 14 दिनों के लिए क्वारनटाइन कर दिया गया । बच्चों को उस कमरे से दूर रहने की हिदायत दे दी गई।  बहू सुबह-शाम डरते-डरते चाय और दो वक्त का खाना दहलीज़ पर रख आती। फिर हाथों को सेनीटाइज कर लेती।

बूढे ने आज तीन में से दो ही रोटी खाई। बची हुई तीसरी रोटी का क्या करें ? जिसकी  थाली तक नहीं छूते उसकी थाली की रोटी भला कौन खायेगा? कमरे में खिड़की नहीं थी वरना वह रोटी फेंक देता। क्या करे इस रोटी का?  जी में आया बाहर जाकर गाय या किसी भिखारी को दे दूँ । पर पॉज़िटिवों के लिए तो घर की दहलीज़ 14 दिनों के लिए लक्षमण रेखा बन जाती है। 14 दिनों तक तो रोटी पड़े-पड़े सड़ जायेगी । आखिर उसने रोटी को कमरे के बाहर रख सबको सुनाते हुए कहा- ” ज्यादा की बची रोटी बाहर रखी है, तुम लोग तो खाओगे नहीँ । बाहर किसी को दे दो।  रोटी बेकार नहीँ जानी चाहिए ।” और दरवाजा बंद कर दिया । 

“अब इनकी जूठी रोटी को कौन हाथ लगाये ? अब फिर उस कमरे तक जाना होगा। बूढ़ा भी है न…,” ऐसा नहीं कि बहू ससुर की इज्जत नहीं करती थी। कोरोना का भय ही कुछ ऐसा था। आखिर भुनभूनाती बहू ने चिमटे के सहारे रोटी को अखबार मैं लपेटकर घर के फाटक की ओर बढ़ी। गली में सन्नाटा था। रोटी को सड़क पर फेंकने में हिचक हो रही थी। किसीने देख लिया तो…..? ‘ कचरापेटी भी घर से दूर थी। अचानक उसे एक बूढा भिखारी हाथ पसारे दिखाई पड़ा । उसने उसे रोटी दिखाते अपने पास बुलाया । लॉकडाउन की वजह से दो दिनों का भूखा भिखारी रोटी देख तेजी से उसकी ओर बढ़ा। आखिर भिखारी में भी जान होती है। कहीं इसे खाकर वो भी…,”, नहीं-नहीं ।  भिखारी जब पास आया तो वो बोली  -”  यह कोरोना पॉज़िटिव की जूठी है ।- इसे खाना मत ।  इसे नुक्कड़ के कचरापेटी में  फेंक  देना।” कहते हुए बहू ने एक पाँच का सिक्का और रोटी उसे दे दी।

कोरोना का इतना भय और चर्चा थी कि भिखारी तक कोरोना के बारे में कुछ-कुछ जानने लगे थे।  मैं अब इस रोटी को नही खाऊँगा।अब इस कोरोना रोटी को कचरापेटी में डाल कर, इन पांच रुपयों से रोटी खरीदकर खाऊँगा । इस सोच से उसकी चाल में  एक सेठपन आ गया । जिन्दगी में पहली बार रोटी खरीद कर जो खाने जा रहा था।

मगर कचरापेटी तक आते-आते उसे खयाल आया,  इस लॉकडाउन  में उसे रोटी कहाँ मिलेंगी ? सारी होटलें तो बंद होगी। उसके हाथ रोटी को फेंकते-फेंकते रुक गये। इधर उसे कोरोना का डर भी सता रहा था, और उधर रोटी को देख उसकी दो दिन की भूख चार दिन  की हो गई थी। पता नहीं कब लॉकडाउन खत्म होगा, कब उसे रोटी मिलेगी ? पेट की भूख कोरोना के डर पर भारी पड़ने लगी।

वह रोटी को बिलकुल अपनी आँख के करीब लाकर गौर से देखने लगा। फिर रोटी को पलटकर भी उसी तरह गौर से देखा।  कहीं कोई वायरस नजर नहीं आया । माना वायरस अति सूक्ष्म होते हैं, पर होते तो हैं । एकाध तो दिखाई पड़ता। फिर उसने रोटी को दो बार जोर से झटका। एकाध होगा तो गिर गया होगा। उसने फिर रोटी को देखा। अरे, जब कोरोना पाँजिटिव और निगेटिव दोनों ही रोटी खाते हैं तो फिर रोटी निगेटिव-पॉज़िटिव कैसै हो सकती  है ? रोटी सिर्फ रोटी होती है। वह खुद को समझाने लगा। फिर भिखारियों को तो कोरोना होता नहीं। उसने आज तक किसी भिखारी को कोरोन्टाइन होते नहीं  देखा। भूख ने रोटी खाने के सारे तर्क जुटा लिये थे। रोटी को वह मुँह के करीब ले आया। फिर भी मुंह खोलने की हिम्मत नहीं हो रही धी। । कहीं कोई एकाध वायरस…. ,

अचानक उनकी आँखे चमक उठी। वह रोटी को पुनः झटकते हुए इस इतमिनान के साथ रोटी खाने लगा…, ” स्साला, इसके बावजूद एकाध वायरस पेट में चला भी गया तो क्या ?   इस रोटी से इतनी इम्युनिटी तो मिल ही जायेगी,कि  वह उस वायरस को मार सके।

अब वह प्रसन्न हो, इस रोटी को ऐसे खा रहा था, जैसे वो सिर्फ कोरी रोटी नहीं, बल्कि सब्जी के साथ  रोटी खा रहा है।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 93 – लघुकथा – बिखरे मोती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक लघुकथा  “बिखरे मोती। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 93 ☆

 ? लघुकथा – बिखरे मोती ?

सरला के कम पढ़े लिखे होने को लेकर लगातार ससुराल में बात होती थीं। घर में कलह का कारण बन चुका था। सभी कार्य में निपुण सरला अपनी परिस्थिति, मॉं-पिता जी की कमाई की वजह से पढ़ाई नहीं कर सकी जिसका उसे बेहद अफसोस होता था।

शादी अच्छे घर में हुई। पति मनोज अच्छी कंपनी में कार्य करते थे। परंतु पत्नी के कम पढ़े लिखे को वह अपनी कमजोरी और गिल्टी महसूस करते थे। इसी वजह से सरला ने घर से जाने का फैसला कर लिया और अपने घर आकर बुटीक का काम सीखकर एक अच्छे से मार्केट में दुकान डाल दी।

देखते-देखते दुकान चल निकली। अब उसके बुटीक पर लगभग दस महिलाएं काम करती थी। सरला सभी को बहुत प्यार से रखती थी। और सभी की मजबूरी समझती थी।

आज सुबह दुकान खुली तो एक दफ्तर से बहुत सारे डिजाइनर कुर्तों के डिमांड आए । सरला उसी को पूरा करने के लिए लग गई। देखते-देखते दिन भर में उसकी सखियों ने मिलकर सभी आर्डर के कुर्ते जो दफ्तर के थे तैयार कर दिए। रात होते-होते उसको देना था क्योंकि सुबह उस दफ्तर में कार्यक्रम होना था।

काम निपटा सभी चाय पी रहे थे। उसी समय चमचमाती कार से जो सज्जन उतरे उसको देख सरला ठिठक सी गई पर सहज होते हुए बोली:-” आइए आपका ऑर्डर सब तैयार है।” मनोज सरला का पति विश्वास नहीं कर पा रहा था कि उसकी सरला आज इस मुकाम पर है।

वह रसीद ले रुपए देकर धीरे से सरला के पास आकर कहने लगा – “सरला तुमने सुई धागा से बहुत कुछ संजो लिए हैं। मेरे घर में तो सभी मोती बिखर गए हैं। यदि मुझे माफ कर सको तो सुई धागा बन मेरे बिखरे मोती को एक बार फिर से समेट लो।”

सरला अवाक होकर उसे देखती रही। मनोज ने कहा:-” मैं इंतजार करूंगा और मुस्कुराता हुआ निकल गया। “

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – लघुकथा- आईना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा- आईना ?

आईना कभी झूठ नहीं बोलता, उसने सुन रखा था। दिन में कई बार आईना देखता। हर बार खुद को लम्बा-चौड़ा, बलिष्ठ, सिक्स पैक, स्मार्ट और हैंडसम पाता। हर बार खुश हो उठता।

आज उसने एक प्रयोग करने की ठानी। आईने की जगह, अपनी गवाही में अपने मन का आईना रख दिया। इस बार उसने खुद को वीभत्स, विकृत, स्वार्थी, लोलुप और घृणित पाया। उसे यकीन हो गया कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता।

©  संजय भारद्वाज

(बुधवार दि. 30 अगस्त 2017, अप. 12:56 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ डिश वॉशर ☆ श्रीमती अंजू खरबंदा

श्रीमती अंजू खरबंदा

☆ कथा-कहानी ☆ डिश वॉशर ☆ श्रीमती अंजू खरबंदा ☆

घर में बर्तन साफ करने की मशीन आने से सभी बेहद खुश थे। गली मोहल्ले के लोग भी उत्सुकतावश चले आते देखने । इस शहर में शायद ये पहला घर होगा जहाँ ऐसी मशीन आई होगी । सुना तो था कि विदेशों में ऐसी मशीनें होती हैं अब अपने देश में भी…!

मशीन को देखने का कौतूहल कई दिनों तक बरकरार रहा । सभी तो खुश थे एक दादी को छोड़कर! वह वैसे भी जल्दी खुश होती ही कहाँ हैं! हर चीज में कोई न कोई कमी निकाल ही देती हैं ।

अपने कमरे में बैठे सारा दिन बुड़बुड़ाती रहतीं

“बस इन मशीनों पर निर्भर हो जाओ! शर्म ही नहीं आती आजकल के बच्चों को!”

“अब भला इसमें शर्म की क्या बात! ये तो गर्व की बात है कि पहली मशीन हमारे घर आई ।”

सभी दादी की बातें सुन खूब हँसते ।

एक दिन छोटे ने पूछ ही लिया

“दादी! मशीन आने से सभी तो खुश हैं! सिर्फ तुम्हीं क्यों परेशान हो?”

“कभी सोचा ! मशीन आने से बर्तन साफ करने आने वाली महरी शांति के दिल पर क्या बीतती होगी ! उस्का घर कैसे चलता होगा और..!”

“और..!”

“और शांति के न आने पर मेरा अकेलापन कैसे कट..!”

आगे के शब्द दादी के गले में ही घुट कर रह गए ।

 

© श्रीमती अंजू खरबंदा

दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 70 ☆ एक औरत के मन की मौत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय एवं अतिसंवेदनशील लघुकथा एक औरत के मन की मौत । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 70 ☆

☆ एक औरत के मन की मौत ☆

उसने परिवार में सबको बार – बार बताने की कोशिश की कि वह मर रही है धीरे – धीरे। शरीर से नहीं, वह  तो अपने सारे काम कर रहा है। रोजमर्रा की जिंदगी चल रही है। बाहर किसी को कुछ खबर ही नहीं है। कैसे हो? जब घर में ही उसे कोई नहीं समझ रहा है तो बाहरवालों से क्या कहे? उसका मन मर रहा है बेमौत। अकेलापन धीमे जहर की तरह असर दिखा रहा है। घर में बिखरा सन्नाटा अजगर की तरह उसे लील रहा है। बचा सको तो बचा लो, उसने कई बार पुकारा था पर सब दूर से हाथ दिखाते रहे, दिलासा देते रहे। ठीक हो ना? हाँ ऐसी ही रहो और चल देते अपने – अपने रास्ते। खुलकर समझाना भी चाहा उसने, हाथ पकडकर रोका, सुन लो मेरी बात, पर हर बार उसे ही दोष देकर निकल लिए – तुम तो ऐसी ही हो। उसका मन बैचैन रहा।  

बच्चे अपनी जिंदगी में व्यस्त और उसके पतिदेव फोन पर आदर्शवादी मैसेज फॉरवर्ड कर दुनिया को संभालने में लगे थे। वह डूबती जा रही थी गहरे और गहरे। दम घुट रहा था मानों, पानी में डूबनेवाले की तरह तेजी से हाथ ऊपर उठाकर ध्यान दिलाने की कोशिश की लेकिन नहीं, कोई नहीं पलटा उसकी ओर। पता नहीं अपने मन की बात बताने लायक रहेगी भी कि नहीं? वह धीरे- धीरे गहरे पानी के तल में पत्थरों, सीपियों पर जा गिरी। गहरे हरे रंग की काई सब तरफ बिछी हुई थी, उलझ गई उसमें। रंग बिरंगी मछ्लियां उसके ऊपर से तैर कर इधर – उधर जा रही थीं। एक्वेरियम में अपनी लाश उसे साफ दिखाई दे रही थी।

परिवारवाले उसकी मानसिक मौत के कारण तलाश रहे थे।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – अभिनेता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अभिनेता ?

सुबह जल्दी घर से निकला था वह। ऑफिस के एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी की शादी थी। दक्षिण भारत में ब्रह्म मुहूर्त में विवाह की परंपरा है। इतनी सुबह तो पहुँचना संभव नहीं था। दस बजे के लगभग पहुँचा। ऑफिस के सारे दोस्त मौज़ूद थे। जमकर थिरका वह।

समारोह में भोजन के बाद मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल पहुँचा। पड़ोस के सिन्हा जी की पत्नी आई सी यू में हैं। किसी असाध्य रोग से जूझ रही हैं। अपनी चिंता जताता रहा वह जबकि उसे बीमारी का नाम भी समझ में नहीं आया था। आधा किलो सेब ले गया था। सेब का थैला पकड़ाकर इधर उधर की बातें की। दवा नियमित लेने और ध्यान रखने की रटी-रटाई बिनमांगी सलाह देकर वहाँ से निकला।

घर लौटने की इच्छा थी पर सुबह अख़बार में अपने दूर के रिश्तेदार के तीये की बैठक की ख़बर पढ़ चुका था। आधा घंटा बाकी था। सीधे बैठक के लिए निकला। ग़मगीन, लटकाया चेहरा बनाये आधा घंटा बैठा वहाँ।

मुख्य सड़क से घर की ओर मुड़ा ही था कि हरीश मिल गया। पिछली कंपनी में दोनों ने चार साल साथ काम किया था। ख़ूब हँसी-मज़ाक हुआ। खाना साथ में खाया।

रात ग्यारह बजे घर आकर सोफा पर पसर गया। टेबल पर क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग का पत्र पड़ा था। खोलकर देखा तो लिखा था, ‘बधाई। गत माह क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग द्वारा आयोजित एकल अभिनय प्रतियोगिता के आप विजेता रहे। आपको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता घोषित किया जाता है।’

वह मुस्करा दिया।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – राजनीति ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा – कहानी ☆ लघुकथा – राजनीति ☆ श्री कमलेश भारतीय  

एक आदमी की दूसरे आदमी से लड़ाई हो गयी । बढ़ते बढ़ते बात हाथापाई तक आ गयी । पहले आदमी के हाथ लाठी लग गयी । जिससे उसने दूसरे आदमी पर भरपूर वार किए । दूसरा आदमी घायल हो गया । छटपटाने लगा । पहला भाग निकला ।

दूसरे ने हाय तौबा मचाई । आने-जाने वालों से मदद की गुहार की । आदमी और आदमियत के तौर पर वास्ते दिए । रहम खाने की दुआ की । किसी ने कान नहीं धरे ।

आखिर वह पूरे जोर से चिल्लाया -मैं दलित हूं । बस , फिर क्या था ? उसकी मदद के लिए अनेक राजनैतिक पार्टियां आ गयीं । और इससे पहले कि कोई घायल आदमी की दवा-दारू का प्रबंध करती कि सभी ने उसकी सुरक्षा का भार खुद लेना चाहा । सभी पार्टियां एक से एक दावे करने लगीं । बहस बढ़ती गयी कि कौन दलितों की असली हमदर्द है कि इसी दौरान घायल ने दम तोड़ दिया ।

राजनीतिक पार्टियों ने श्रद्धांजलि के पुष्प अर्पित किए और चलती बनीं । बाद में आदमियों ने उस आदमी का संस्कार किया । फिर सरकार ने इस घटना की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए ।

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 92 – लघुकथा – जन्माष्टमी की खुशियाँ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “जन्माष्टमी की खुशियाँ। इस सार्थक लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 92 ☆

 ? लघुकथा – जन्माष्टमी की खुशियाँ ?

प्रतिदिन पूजन को जाती पूनम अपने लिए कुछ नहीं मांगती। बस कहती – “हे ईश्वर जिन्होंने मुझे सहारा दिया है उनका घर खुशियों से हमेशा भरा रहे।” उसके मन की बात को रोज उसकी मैडम जहाँ वह काम करती थी। अक्सर सुनती और कहती- “आज तुमने भगवान से क्या मांगा?” पूनम मुस्कुरा कर कहती- “मैडम जी वही एक बात जिन्होंने मुझे सहारा दिया उनका घर खुशियों से भरा रहे। “

आज जन्माष्टमी की खूब जोरों से तैयारियां चल रही थी। सभी जगह लाइट की झालर और फूलों से घर को सजाया जा रहा था। और खुशी भी ज्यादा हो रही थी क्योंकि आज उसका बेटा कान्हा हॉस्टल से पढ़ाई खत्म करके घर आ रहा था। पूनम भी खुशी-खुशी सारी तैयारी कर रही थी। जैसे ही शाम हुई दरवाजे पर सामान के साथ कान्हा आ गया।

सभी खुश हो गए। पूजा के समय बहुत ही सुंदर ढंग से पूजन हुआ। दीपक की थाली ले पूनम आरती कर रही थी। आज मैडम ने अपने बेटे कान्हा से कहा – “पूनम की खुशियों और दुआओं में हम सब हमेशा शामिल रहते हैं। मैं चाहती हूं आज और अभी पूनम भी हमारे परिवार का एक हिस्सा बन जाए। क्या आप सभी इस बात का अर्थ समझते हैं?”

कान्हा और कान्हा के पापा एक साथ हाँ में सिर हिला रहे थे। और कान्हा मन ही मन खुश हो रहा था क्योंकि उसे तो पूनम जीवनसंगिनी के रूप में पहले से ही पसंद थी। आज उनके घर खुशियां खिलखिलाने लगी। पूनम अब अपने साथ अपने परिवार के लिए दुआएं करने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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