हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #6 – न -नारियल का ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा न -नारियल का। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #6 – न – नारियल का ☆

बच्चे का पेट चल गया था। माँ  उसे न – नारियल का पढ़ा रही थी।

बेटे का मन पढ़ाई में कैसे लगता भला?

बोला – ‘वैदय जी ने नारियल पीनी पिलाने के लिए बोला था और तू मुझे न – नारियल का पढ़ा रही है। तू बिल्कुल अच्छी माँ नहीं  है।’

माँ क्या बताती कि उसका शराबी पिता उसके सारे पैसे छीन ले गया है। उसके पास न – नारियल का पढ़ाने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया है।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 66 ☆ आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  एक विचारणीय लघुकथा आग।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 66 ☆

☆ आग ☆

तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही  सबसे पहले बाहर निकल जाता। मेरी नजर उसके नंगे पैरों पर थी। पैसेवाले घरों की लडकियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं। एक दिन वह सामने पडा तो मैंने बिना उससे कुछ पूछे चप्पल खरीदने के लिए पैसे दिए। उसने चुपचाप जेब में  रख लिए।

दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे ?  चप्पल क्यों नहीं खरीदी ? मैंने पूछा।  बहुत धीरे से उसने कहा  – पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #5 – ये तो नारियल है ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  ये तो नारियल है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #5 – ये तो नारियल है ☆

गंगा घाट पर श्रद्धालुओं की भीड़ जयकारे लगा रही थी – जय गंगा मैया, जय हो पाप नासनी।

भीड़ गंगा में साबुत नारियल फेंक रही थी।

खूब नारियल बिक रहे थे।दूकानदार मौज में गा रहा था- ‘ये तो नारियल है रे__ये तो नारियल है ये।’

श्रद्धालु साबूत नारियल गंगा में फेंक रहे थे।

लोग बहती गंगा से बटोरकर दूकानदार को आधे में नारियल बेच रहे थे।

दुकानदार उन्हें फिर पूरी कीमत में बेच रहा था। मुनाफा ही मुनाफा।

उसका दो मंजिला मकान नारियलों ने बनवा दिया था।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 83 – लघुकथा – नियति ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – नियति।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 83 ☆

☆ लघुकथा – नियति ☆ 

“सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,”  बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।

“हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?  यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथपैर सही हो जाए।”

बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में…..”

“हां हां, जानता हूं अंकल,”  कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा!  तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”

यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”

“वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,”  कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-05-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #4 – घूसखोर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

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आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  घूसखोर। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #4 – घूसखोर ☆

‘भगवान जी यदि मैं पास हो गया तो पूरे ग्यारह नारियल चढ़ाऊंगा।’

एक लड़का भगवान को प्रलोभन दे रहा था।

दूसरा कोई- ‘प्रभु तुम अंतर्यामी हो, मेरी उस लड़की से दोस्ती करा दो, पूरे इंकयावन नारियल चढ़ाऊंगा।’

एक तीसरा भी आ गया- ‘नौकरी लग गयी तो भगवान जी आपकी बल्ले बल्ले हो जाएगी, पूरे एक सो एक नारियल का जुगाड़ है मेरे पास।’

भगवान तो भगवान है, हँसकर भक्तों की भेंट कबूल करते हैं। वे क्या जाने कि आदमी ने उन्हें भी घूसखोर बना दिया है।’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #3 – निषेध ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

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☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #3 – निषेध 

‘किसी लड़के को तो बुलाना बेटी, नारियल फोड़ना है।’

लड़की बोली – ‘ऐसा क्या मुश्किल भरा काम है। ला मैं तोड़ देती हूँ तेरा नारियल।’

‘नहीं ये नारियल फोड़ना लड़कियों के लिए निषेध है। दोष बताया गया है।’

लड़की विहंसकर बोली- ‘अरी मेरी भोली अम्मा, तबकी लड़कियां नाजुक कलाई वाली होती थीं, मोच खाने का डर होता था।’

‘मुझे देख मैं जृडो कराटे वाली हूँ । एक बार में  तेरा नारियल चटका देती हूँ। पिछले साल ही तो मुझे ब्लेक बेल्ट मिला है।’

माँ  न-न करती रही, लड़की ने एक ही बार मे नारियल चटका दिया। माँ विश्वास और अविश्वास के बीच झूलती रह गयी।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 87 – लघुकथा – अनमोल पल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “लघुकथा – अनमोल  पल। हम सब बच्चों को पढ़ाते लिखाते हैं और हमारा स्वप्न होता है कि वे दुनिया की सारी खुशियां पाएं । उनकी स्मृतियाँ तो स्वाभाविक हैं । अनमोल पल में अनमोल भेंट सारे परिवार के लिए सुखद है। एक संवेदनशील रचना बन पड़ी है। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 87 ☆

? लघुकथा – अनमोल पल ?

सुधीर विदेश में अच्छी कंपनी पर कार्यरत था। अपने परिवार पत्नी और दो बच्चों के साथ सम्पूर्ण सुख सुविधा के साधन बना लिए थे।

माँ  पिताजी एक शहर में अपने छोटे से घर पर रहते थे। बहुत सीधे- साधे और समय के अनुसार उनका समय जैसे – तैसे पंख लगा कर निकल रहा था। पिताजी की तबियत भी खराब होने लगी। माँ चिंता से व्याकुल और परेशान हो बेटे की राह देखने लगी, परंतु बेटा भी क्या करता अपनी जिम्मेदारी के कारण जल्दी से आ ना सका।

फिर ऐसा वक्त आया कि सदा सदा के लिए पिताजी शांत हो गए।  विदेश जाने के बाद सुधीर ने कभी घर आने की कोशिश नहीं की थी।

मोहल्ले पड़ोस वाले लोगों के साथ लोग मिलकर सभी कार्यक्रम को शांति पूर्वक किया गया । बेचारी बूढ़ी माँ बस देखती रही। बेटा भी बहुत विचलित था आखिर वह अपने पापा की इकलौती संतान और अंत समय तक नहीं पहुँच सका । उसे कुछ इसकी भी और चिंता खाए जा रही थी।

कुछ समय बाद बेटा- बहू अपने बच्चों के साथ आए तब तक सब कुछ बिखर गया था। माँ को तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वर्षों के बाद आए बेटा बहू का मुँह देखें कि अपने पति के बारे में सोचें। बेटे से लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। पोता- पोती सब कुछ सामान्य भाव से देख रहे थे। समझ रहे था कि पापा के नहीं आने से चिंता के कारण दादा जी की मृत्यु समय से पहले हो गई और दादी उसी के कारण परेशान है।

शाम के समय सभी बैठे थे। दादी ने एक छोटा सा कॉटन वाला तकिया लाकर दिया अपने बेटे को। बेटे ने कहा… यह क्या है मम्मी ने बताया… बेटा तुम्हारे जाने के बाद पापा तुम्हारी तस्वीर के सामने  बैठकर घंटो  इस तकिए से बातें करते थे और अपना समय गुजारते थे।

उन्होंने कहा… था अनमोल पल है क्या हुआ जो बेटा हम से बाहर गया है उसकी यादें संजोए मैं इस पर टिका हुआ हूं। बेटे ने अचानक देखा अभी कुछ सिलाई कच्ची दिखाई दे रही थी।

उसने तुरंत सिलाई खोलना शुरू किया। कुछ पुराने कागजात और बैंक अकाउंट था। सारी जमा राशि और एक अच्छी लंबे चौड़ी लिखी हुई चिट्ठी थी।

बेटे ने उठाकर पत्र पढ़ा। उस पर लिखा था मेरे प्रिय बेटे मैं जानता हूँ तुम मेरे मरने के बाद आओगे तुम्हें हम दोनों से लगाव भी बहुत है परंतु मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद तुम्हारी मां को तुम किसी वृद्धाश्रम में डालकर मकान बेच कर यहाँ से सदा – सदा के लिए चले जाओ।

इसलिए मैंने जितना तुम्हारे हिस्से की साझेदारी है। सब इस पर है और हाँ मैं जो सुंदर पल तुम्हारे लिए इस तकिए के साथ बिताया हूँ वह तुम्हारा है। बाकी सभी तुम्हारी मम्मी का है।

उसे किसी प्रकार से कोई कष्ट न हो इसलिए मुझे ये करना पड़ा।

चिट्ठी को पोता भी साथ साथ पढ रहा था।  अपने पापा से बोला क्या??? सभी पापा को ऐसा करना पड़ता है।

भय और भविष्य की घटना को सोच सुधीर ने झटके से अपने बेटे को गले से लगा लिया

लैपटाप खोल  कुछ टाईप करने बैठ गया माँ ने पूछा कुछ लिख रहा है??? सुधीर ने  कहा हाँ बताता हूँ। उसने अपने ऑफिस पर एक पत्र टाईप कर अपने कार्यभार से  इस्तीफा लिखा और माँ से कहा… मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा सब यहीं पर आपके पास रहेंगे।

तुम्हारा पोता भी यहाँ रह कर पढ़ाई करेगा। मान जो अब तक जोरो से रही थी हंसते हुए बोली… मैं नाहक कि उनसे लड़ती थी इस तकिए के लिए। तकिए ने कमाल कर दिया मुझे मेरा बेटा सूद समेत लौटा दिया।

उनका अनमोल पल मुझे अब समझ आया। वे कहा… करते थे देखना यह अनमोल पल बहुत सुखद होगा। हँसते हुए माँ ने.. अपने पोते और बहू को गले से लगा लिया। बेटे के आंखों से अश्रुधार बह निकली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #2 – चमत्कार ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  चमत्कार। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #2 – चमत्कार 

उस भाई ने अपनी सफलता के लिए खूब नारियल, फल देवी -देवताओं को चढ़ाए। दूकानें खाली हो गयीं। हल रहा शून्य।

किसी ने पूछा – ‘कोई चमत्कार हुआ?’

‘अजी कहाँ ! उल्टी जेब खाली हो गयी।’

‘अरे!  फिर।’

‘दूकानदारों की बल्ले-बल्ले हो गयी — पाँचों अंगुलियाँ घी में दूकानदारों की और मेरा सिर कढ़ाई में वाली कहावत भी तो चरितार्थ हो गयी ।’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #1 – छाँह ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

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आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  छाँहहमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #1 – छाँह 

एक आदमी नारियल के पेड़ के नीचे बैठकर नारियल फल खा रहा था। तभी पेड़ से एक नारियल फल गिरा और उसका सिर लहूलुहान हो गया। वह कुछ देर के लिए संज्ञा शून्य हो गया।

स्वस्थ होने पर आदमी बोला – मै भी कैसा मूर्ख हूँ यार – नारियल के पेड़ के नीचे बैठकर नारियल खा रहा था। पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर—-कैसे भूल गया।

ऐसे में फल खाने की चेष्टा कितनी बेहूदी थी।

अरे फल ही सब कुछ नहीं होता, छाँह भी कोई मायने रखती है। छाँह का अपना महत्व है। फल के लालच में छाँह को कैसे इग्नोर किया जा सकता है।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – औरत #4 – नया मुद्दा ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  औरत विषय पर हम प्रतिदिन आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथाएं  नया मुद्दा।  हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – औरत #4 – नया मुद्दा 

‘बहू तेरे मायके वाले बहुत आते हैं। आए दिन कोई न कोई चला आता है । कोई काम -धाम नहीं है क्या उनके पास?’

‘मांजी, आपके मायके वाले भी कोई कम खुदा नहीं हैं। सुबहोशाम दस्तकें देते रहते हैं। पता नहीं उनके पैर घर में क्यों नही टिकते?’

यूँ तो सास बहू के झगड़े हरि अनंत हरि कथा अनंता हैं। उनके तू तू मैं मैं के कई मुद्दे हैं।

अब यह एक और मुद्दा इसमें शामिल हो गया समझें।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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