(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है “लघुकथा – काहे की चिंता”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 85 ☆
☆ लघुकथा – काहे की चिंता ☆
पति सुबह 5:00 बजे उठा। पानी भरा। कमरा साफ किया। पानी गर्म किया। चाय बनाई। पत्नी को उठाया।बिस्तर व्यवस्थित रखा। झाड़ू निकाल कर कंप्यूटर पर कहानी संशोधन करने बैठ गया।
तभी पत्नी ने आवाज दी, ” हरी मिर्ची नहीं है।”
“अभी मंगाता हूं,” कहकर पति ने किसी को फोन किया, ” अब प्लीज 30-35 मिनट मुझे डिस्टर्ब मत करना।”
“जी,” कहकर पत्नी काम करने लगी। उसने मोबाइल पर गाना लगा दिया था, ” बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूं।”
“इसकी आवाज थोड़ी कम कर दो।”
“जी”, पत्नी तुनक कर आवाज कम करते हुए बोली, ” इस सौतन के पीछे मुझे कुछ करने और सुनने भी नहीं देते हैं । फिर 10 बजते ही कहेंगे- भूख लग रही है।”
” क्या कहा भाग्यवान?”
” कुछ नहीं, ” पत्नी बड़बड़ाई, ” मैं घरबाहर दोनों जगह खटती रहती हूं। यूं नहीं कि घर के काम में मेरी सहायता कर दें। बस इस बैरी कंप्यूटर से चिपके रहेंगे।”
यह सुनकर पति का हाथ कंप्यूटर के कीबोर्ड से उठकर माथे पर चला गया।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – निश्चय
उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।
जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं दर्शक यहीं पर मैदान मानो निष्प्राण है।
एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।
दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की लघुकथा “बच्चे।)
☆ लघुकथा – बच्चे ☆
ऑफिस के सामने खाली पड़े प्लाट में एक कुतिया ने बच्चे दिए हुए थे। अब कॉलोनी का कोई भी व्यक्ति वहां से गुजरता तो वह उस पर भौंकने लगती और काटने को दौड़ती थी। यहाँ तक कि गली से गुजरने वाले कई बाहरी व्यक्तियों को तो वह घायल भी कर चुकी थी। इसीलिए उस गली से लोगों का गुजरना भी कम हो गया था।
एक दिन मैं सुबह ऑफिस पहुंचा तो देखा कि वह कुतिया ऑफिस के सामने खड़ी थी। ऑफिस के सामने वाली नाली को ऊपर से सीमेंट की शेल्फ बना कर कवर किया हुआ था और वह कुतिया वहीं ताक रही थी। मैंने गौर किया तो पाया कि उसके नीचे से उसके बच्चों की आवाजें आ रही थीं। मैं समझ गया कि इसके बच्चे उस कवर किए हुए हिस्से में चले गए थे और अब कीचड़ होने की वजह से निकल नहीं पा रहे थे।
मैंने ऑफिस के अपने एक सहायक को साथ लिया और उन बच्चों को बचाने में लग गया। कीचड़ ज्यादा होने की वजह से उन बच्चों को निकालना मुश्किल हो रहा था। हम उस कुतिया पर भी नज़र रखे हुए थे कि कहीं वह हमें काट न ले, परन्तु वह बिलकुल शांत हमें बच्चों को निकालते हुए देख रही थी। जब काफी देर तक बच्चे नहीं निकले तो हमने खूब सारा पानी डालना शुरू किया और कुछ कीचड़ कम होने पर पुन: डंडे से बच्चों को निकालना शुरू कर दिया। अब एक एक करके बच्चों का निकलना शुरू हो गया था। जैसे जैसे हम बच्चों को निकाल रहे थे, उनकी मां उन्हें वैसे वैसे ही एक एक करके सुरक्षित जगह पर पहुंचाती जा रही थी। काफी मशक्कत के बाद उसके सारे बच्चों को हम सही सलामत बाहर निकालने में सफल हो गए।
मैंने देखा कि जो कुतिया किसी को अपने आसपास भी फटकने नहीं देती थी, आज उसने हमें एक बार भी कुछ नहीं कहा था, बल्कि हमारी तरफ याचना भरी नज़रों से देख रही थी। अब उसकी आँखों में एक अनोखी चमक और हमारे लिए कृतज्ञता का भाव था। मैं सोच रहा था, “इंसान हो या जानवर, बच्चे सभी को एक समान ही प्यारे और अमूल्य होते हैं…।”
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा – कहानी ☆ कुछ कुछ होता है – तीन लघुकथाएं ☆ श्री कमलेश भारतीय☆
[1]
बहुत दिनों बाद
बहुत दिनों बाद अपने छोटे से शहर गया था । छोटे भाई के परिवार में खुशी का आयोजन था । बीते सालों में यह पहला ऐसा मौका था जब मैं वहां पूरी फुर्सत में रूका था । मैं अपने शहर घूमने निकला या शायद बरसों पुरानी अपनी पहचान ढूंढने निकल पडा । अपना चेहरा खोजने निकल पडा ।
पांव उसी छोटी सी गली की ओर चल पडे जहां रोज शाम जाया करता था । वही जिसे पा सकता नहीं था लेकिन देख आता था । कुछ हंसी , कुछ मजाक और कुछ पल । क्या वह आज भी वहीं ,,,? कितना भोलापन ? कैसे वह वहां हो सकती है ? घर तक पहुंच गया । मेरे सपनों का घर । उजडा सा मोहल्ला । वीरान सा सब कुछ । खंडहर मकान । उखडी ईंटें ।
क्या बरसों बाद प्यार का यही असली रूप हो जाता है ? क्या प्रेमिका का चेहरा किसी खंडहर में खोजना पडता है ? क्या प्रेम बरसों में कहीं खो जाता है ?
नहीं । खंडहरों के बीच बारिशों के चलते कोई अंकुर फूट रहा था । शायद प्रेम यही है जो फूटता और खिलता ही रहता है ,,,खंडहरों के बीच भी ,,,मैं कभी यहां से कहीं गया ही नहीं ,,,सदा यहीं था ,,,तुम्हारे पास ,,,
[2]
ऐसे थे तुम
बरसों बीत गये इस बात को । जैसे कभी सपना आया हो । अब ऐसा लगता था । बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी । उससे हुआ परिचय धीरे धीरे उस बिंदु पर पहुंच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं ।
फिर वही होने लगा । लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता । दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूंजने लगता , पक्षी चहचहाने लगते ।
फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम कथाओं का अंत होता है । पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी । साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी ।
लड़का शादी में गया । पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब खूब रोया पर ,,,झरने की तरह समय बहने लगा ,,,बहता रहा । इस तरह बरसों बीत गये ,,इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूंढी , शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए । कभी कभी उसे वह प्रेम कथा याद आती । आंखें नम होतीं पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता ।
आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया । बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा । उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा कैसा लगेगा ? आकुल व्याकुल था पर,,,कब उसका शहर निकल गया,,, बिना हलचल किए , बिना किसी विशेष याद के ,,,क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था ,,,जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था ।
वह मुस्कुराया । मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था , अब एक गृहस्थी । जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे । उसे किसी की फिजूल सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ?
इस तरह बहुत पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे प्यारे लोग , ,उनकी मीठी मीठी बातें,,,,आती रहती हैं ,,,धुंधली धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी -अच्छा । ऐसे थे तुम । अच्छा ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी
[3]
आज का रांझा
उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे । करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली । लड़का पीछे पीछे चलने लगा ।
लड़के ने कहा -तुम्हारी आंखें झील सी गहरी हैं ।
-हूं ।
लड़की ने तेज तेज कदम रखते इतना ही कहा ।
-तुम्हारे बाल काले बादल हैं ।
-हूं ।
लड़की तेज चलती गयी ।
बाद में लड़का उसकी गर्दन , उंगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएं देता रहा । लड़की ने हूं भी नहीं की ।
क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा -तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?
चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है , दूसरा वह बनाये । लड़के ने हां कह दी । लड़की चाय चली गयी औ, लड़का सपने बुनने लगा । दोनों नौकरी करते हैं । एक दूसरे को चाहते हैं । बस । ज़िंदगी कटेगी ।
पर्दा हटा और ,,,,
लड़का सोफे में धंस गया । उसे लगा जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो , जिसकी नली उसकी तरफ हो । जो अभी गोली उगल देगी ।
-चाय नहीं लोगे ?
लड़का चुप बैठा रहा ।
लड़की से, बोली -मेरा चेहरा देखते हो ? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया । तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी । सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई ।
लड़के ने कुछ नहीं कहा । उठा और दरवाजे तक पहुंच गया ।
-चाय नहीं लोगे ?
लड़की ने पूछा ।
-फिर कब आओगे?
– अब नहीं आऊंगा ।
-क्यों? मैं सुंदर नहीं रही ?
और वह खिलखिला कर हंस दी ।
लड़के ने पलट कर देखा,,,
लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी ।
लड़का मुस्कुरा कर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुंह पर फेंकते कहा -मुझे मुंह मत दिखाओ ।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52 समय का सदुपयोग श्री आशीष कुमार☆
किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।
एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।
उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।
अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।
तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।
उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।
आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।
साधु ने कहा – तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।
शिक्षा:- जो व्यक्ति काम को टालता रहता है, समय का सदुपयोग नहीं करता और केवल भाग्य भरोसे रहता है वह हमेशा दुःखी रहता है।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक विचारणीय एवं प्रेरक लघुकथा जख्म। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 67 ☆
☆ जख्म ☆
दोस्तों से आगे निकलने की होड़ में वह पिता की हिदायत भूल गया – उस बदनाम गली से कभी मत जाना। कंधे पर स्कूल का बैग लिए वह दौड़ रहा था और आँखों की कोरों से देख रहा था अजीब मंजर, तरह – तरह के इशारे करती लड़कियां, जवान औरतें, प्रौढा भी। होठों पर गहरी लाली, मुँह में पान – तंबाकू भरा हुआ। चेहरे पर अजीब से हाव – भाव। अब तो आ गया था इस गली में? दोस्तों से रेस जीत गया था लेकिन आँखों की कोरों से दिखे नजारे उसे बेचैन कर रहे थे, कौन थीं वो औरतें?
दूसरे दिन वह फिर निकला उस गली से, अनजाने में नहीं। वह दौड़ रहा था पर थोडा धीरे, सामने थे फिर वही दृश्य, वही हाव – भाव। यहाँ हर दिन सब कुछ एक सा क्यों है? पिता की सख्त नाराजगी और उस गली की औरतों के ताने सुनने के बाद भी वह रोज उस गली से गुजरने लगा। अब दौड़ता नहीं था। दौड़ना है ही नहीं, ये ट्रेन की खिडकी से दिखते चित्र थोडे ही हैं जो ट्रेन की रफ्तार के साथ तेजी से गायब होते जाते हैं। बदनाम गली का एक चित्र उभरा – माँ ने सात आठ साल के लडके को पैसे दिये – जा बाजार से कुछ खा लेना और कमरे में चली गई किसी के साथ। किसी प्रौढा स्त्री के लिए एक समय का खाना ही काफी था कमरे में बंद होने के लिए। आँचल में बच्ची को समेटे नाबालिग लड़की को कलपते सुना – दीमक लग गई हमारे जीवन में तो, बच्ची का क्या होगा।
जख्म गहरा था, बदनाम गली कह देने से क्या होगा? ‘तिरे जे बूडे सब अंग’। वह फिर गया उस गली में और रुक गया उस बिलखती माँ के सामने – बहन, ठीक समझो तो दे दो अपने बच्चों को, मैं पालूंगा। फिर एक नहीं, दो नहीं ना जाने कितने बच्चे उन बदनाम गलियों से उसके पीछे चल दिए। स्नेहालय बन रहा था —-
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है “लघुकथा – कारण”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 ☆
☆ लघुकथा – कारण ☆
“लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।”
इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर! वहाँ चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”
“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद है !” अनीता ने कहा, ” यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”
“दुखसुख की बातें करेंगे। और क्या ?” सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे। मोबाइल पर कुछ देखेंगे।”
“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,” अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है। मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकूँगी।”
अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, ” तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ? जब कि तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।
उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आंख से आंसू निकल गए, ” घर जा कर सास की जलीकटी बातें सुनने से अच्छा है यहां सुकून के दो-चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – रामबाण
( 5 जून से आरम्भ पर्यावरण विमर्श की रचनाओं में आज पाँचवी रचना।)
बावड़ी को जाने वाले रास्ते पर खड़े विशाल पीपल में भूत बसता है। गाँव के लोग दोपहर के समय और शाम के बाद उस तरफ जाते ही नहीं। उसकी डालियाँ तोड़ना तो दूर, पत्तियाँ तक छूना वर्जित था। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में भय समान रूप से व्याप्त था। पीपल सदा हरा रहा, पत्तियों से सदा भरा रहा।…यह पिछली सदी की बात है।
सदी ने करवट बदली। मनुष्य ने अनुसंधान किया कि पीपल सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देता है। फिर भौतिकता की आंधी चली। पेड़, पौधे, पर्यावरण, परंपरा सब उखड़ने लगे। बावड़ियाँ पाट दी गईं, पीपल काट दिये गए। ऑक्सीजन की हत्या कर साँस लेने का सपना पालनेवाला नया शेखचिल्ली पैदा हो चुका था।..शेखचिल्ली जिस डाली पर बैठता, उसे ही काट देता। शनैः- शनैः न जंगल बचे, न पीपल। शेखचिल्ली की देह भी लगभग मुरझा चली।
एकाएक पता चला कि सुदूर आदिवासी क्षेत्र में पीपल-वन है। पीपल ही पीपल। सघन पीपल, हरे पीपल, भरे पीपल। अनुसंधानकर्ता ने एक आदिवासी से पूछा- वहाँ ले चलोगे? आदिवासी ने साफ मना कर दिया। अधिक कुरेदने पर बोला- जाना तो दूर हम उस तरफ देखते भी नहीं।….क्यों?….वो भूतों की नगरी है। हर पीपल पर कई- कई भूत बसते हैं।
अनुसंधानकर्ता ने अनुसंधानपत्र में लिखा, ‘रामबाण टोटके कालजयी होते हैं।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है। एक विषय पर अनेक लघुकथाएं लिखकर। इस श्रृंखला में नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की लघुकथा न -नारियल का। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )
☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #6 – न – नारियल का ☆
बच्चे का पेट चल गया था। माँ उसे न – नारियल का पढ़ा रही थी।
बेटे का मन पढ़ाई में कैसे लगता भला?
बोला – ‘वैदय जी ने नारियल पीनी पिलाने के लिए बोला था और तू मुझे न – नारियल का पढ़ा रही है। तू बिल्कुल अच्छी माँ नहीं है।’
माँ क्या बताती कि उसका शराबी पिता उसके सारे पैसे छीन ले गया है। उसके पास न – नारियल का पढ़ाने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया है।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा आग। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 66 ☆
☆ आग ☆
तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही सबसे पहले बाहर निकल जाता। मेरी नजर उसके नंगे पैरों पर थी। पैसेवाले घरों की लडकियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं। एक दिन वह सामने पडा तो मैंने बिना उससे कुछ पूछे चप्पल खरीदने के लिए पैसे दिए। उसने चुपचाप जेब में रख लिए।
दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे ? चप्पल क्यों नहीं खरीदी ? मैंने पूछा। बहुत धीरे से उसने कहा – पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम।