हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – संवाद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – संवाद ☆

…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।

.. क्यों भला?

…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।

… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।

… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।

…सबको यही धमकी देता है?

…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बिठा रखा है।

… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?

… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!

…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है?

…किसान फसल काट रहा है।

…कौनसी फसल है?

…गेहूँ की।

…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?

…कमाल है। इतना भी नहीं जानते! उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट यहा है। जो बोयेगा, वही तो काटेगा।

…यही तुम्हारे सवाल का जवाब भी है।

संवाद समाप्त हो चुका था।

©  संजय भारद्वाज

(दोपहर 3:05, 14.2.2021)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –अक्षर ☆

उद्भूत भावनाएँ,

अबोध संभावनाएँ,

परिस्थितिवश

थम जाती हैं,

कुछ देर के लिए

जम जाती हैं,

दुख, आक्रोश

अपने दाह से तपते हैं,

मन की भट्टी में

अपनी आँच पर पकते हैं,

लोहे-सा पिघलते हैं,

लावे-सा उफनते हैं,

आकार, कहन लिए

कागज़ पर उतरते हैं,

भावनाओं का संभूता

चक्र पूरा होता है,

साझा किए बिना

उत्कर्ष अधूरा होता है,

सुनो मित्र!

अभिव्यक्ति का कभी

मरण नहीं होता,

अक्षर का कभी

क्षरण नहीं होता।

©  संजय भारद्वाज

(24.12.18, रात्रि 11:07बजे )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(यह लघुकथा कुछ वर्ष तक पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में शामिल रही)

– भाई साहब , ज़रा रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए कोई शाॅर्टकट,,,

– शॉर्टकट तो है पर ,,,

-पर क्या ? जल्दी बताइए न ।

-आप उस रास्ते से नाक पर रूमाल रख कर और दीवारों का सहारा लेकर पांव रखकर ही जा सकोगे । आपको लगेगा कि अब गिरे ,,,अब कीचड़ में फंसे ,,,कब जाने ,,,क्या हो जाए ,,,

– शॉर्टकट की ऐसी हालत क्यों ?

– क्योंकि आपकी तरह हर कोई शॉर्टकट ही इस्तेमाल करता है । बड़े रास्ते से होकर , चक्कर काट कर कोई जाना नहीं चाहता । पर ठहरिए ,,,

-हां , कहिए ।

– बुरा तो नहीं मानेंगे ?

– अरे भाई जल्दी कहो न । मुझे गाड़ी पकड़नी है । छूट जाएगी ।

-यही बात ज़िंदगी पर लागू नहीं होती ?

– सो कैसे ?

– अब देखो न । सफलता की गाड़ी हर कोई पकड़ना चाहता है और इसके लिए हर आदमी शॉर्टकट अपना रहा है । चाहे शॉर्टकट कितना ही ,,,

– बस । बस । अपने उपदेश अपने पास रखो । जनाब मुझे भी सफलता चाहिए ।

-तो चलते चलते इतना तो सुनते जाइए कि मेहनत का कोई शॉर्टकट इस दुनिया में नहीं है ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#45 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#5 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार☆

भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।

सत्य है !  बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?

नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?

शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।

मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?

प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।

इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 62 ☆ ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल। ये ऐतिहासिक लघुकथाएं अविस्मरणीय विरासत हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 62 ☆

☆ ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल ☆

निहायत खूबसूरत और नाजुक सी दिखनेवाली एक लडकी को उसके  घरवाले अपनी गरीबी से परेशान हो नवाब वाजिद अली शाह के महल में छोड गए। गरीबी झेलकर आई यह लडकी महल के ठाठ–बाट आँखें फाडे देख रही थी। उसे दासी का काम दिया गया था, नवाब की बेगमों की सेवा करना। वह अपना काम कर तो रही थी लेकिन वह इसके लिए बनी ही नहीं थी। तभी  तो अपनी बला की खूबसूरती और  बुद्धिमानी से बहुत जल्दी  नवाब वाजिद अली शाह  की नजरों में खास बन गई। यही लडकी आगे चलकर  अवध की बेगम हजरत महल कहलाई।  बेगम जितनी सुंदर थीं उतनी ही बहादुर, खुद नवाब इनकी वीरता के कायल थे।  देशभक्ति का  जज़्बा तो मानों इनमें कूट- कूटकर भरा था। नवाब के सामने भी शासन के अधिकतर निर्णय बेगम  ही किया करती थीं, नवाब भी उनका सम्मान करते थे। अपनी समझदारी से वे अंग्रेज़ों की कूटनीति से नवाब को बचाना चाहती थीं परंतु सन् 1856 में अंग्रेज़ों ने धोखे से नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज ही दिया। बेग़म  इस घटना से जरा भी विचलित नहीं हुई, वह जानती थी कि इस समय उसके कमजोर पडने से शासन बिखर जाएगा। उसने दृढता से  लखनऊ पर अपनी सत्त्ता कायम रखी।

सन् 1857 में बेग़म ने अपने ग्यारह साल के बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का शासक घोषित कर दिया और स्वयं उसके नाम पर अवध में दस महीने राज किया। 10 मई सन् 1857 की बात है जब  मेरठ और दिल्ली के सैनिकों  ने ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया  था। इस विद्रोह ने पूरे भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक व्यापक स्वाधीनता आंदोलन का रूप ले लिया। इस विद्रोह की आँच लखनऊ भी पहुँच गई। अवध में बेगम ने सन् 1857 की क्रांति का नेतृत्व संभाला। सन् 1857 में अंग्रेज़ों से लड़नेवाली सबसे बड़ी सेना बेग़म की ही थी और इन्होंने ही अंग्रेज़ों का सबसे लंबे समय तक मुक़ाबला किया। इनमें देश के प्रति समर्पण की भावना ऐसी थी कि जिसे देखकर अवध की जनता ने भी पूरे जोश के साथ इनका साथ दिया। लखनऊ में आलमबाग़ की लड़ाई के दौरान अपनी सेना का उत्साह बढाने के लिए बेगम हाथी पर सवार होकर आ गईं और सैनिकों के साथ युद्ध करती रहीं। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का सबसे अधिक दिन चलने वाला युद्ध लखनऊ में हुआ। अपने ही भरोसेमंद सैनिकों के अंग्रेज़ों से मिल जाने से वे लखनऊ के युद्ध में  हार गईं। बेगम ने तब भी हार नहीं मानी और अवध के बाहरी हिस्सों में जाकर जनता में स्वाधीनता की चेतना जगाती रहीं।

अंग्रेज़ बेगम के साथ समझौता करना चाहते थे लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं। उन्हें तो अपने अवध पर एकछत्र राज्य चाहिए था।  अंग्रेज़ों ने इन्हें पेंशन भी देनी चाही, लेकिन बेगम को अपनी स्वतंत्रता ही चाहिए थी और कुछ भी नहीं। वे नेपाल चली गईं, सन् 1879 में वहीं उनकी मृत्यु हो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तीन ☆

तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई। तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।

पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।

दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।

तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।

तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।

©  संजय भारद्वाज

(18.7.18, रात्रि 9.06)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 81 – लघुकथा – गंगवा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं विचारणीय लघुकथा  “गंगवा । इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 81 ☆

?लघुकथा  – गंगवा ?

गंगाराम का नाम जाने कब गंगवा बन गया। उसे नहीं मालूम?

गंगवा के ना कोई सुधि लेने वाला था और ना ही आगे पीछे कोई रिश्तेदार।

गांव में दिनकर बाबू और गंगवा लगभग सम उम्र। दिनकर जी के यहां सालों से काम करते-करते गंगवा जाने कब उनके अपने परिवार का सदस्य बन गया था।

गंगवा को बचपन से ही कम सुनाई और बात नहीं कर पाने की वजह से कोई उसे ठीक से बात भी नहीं करता था और न ही कोई उसकी बातें सुनता था।

बिना सुने, बिना बोले ही गंगवा सबके मन के भाव को पहचान लेता था परंतु किसी ने उसकी अच्छाइयों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया।

दिनकर बाबू के यहां काम करते-करते दोनों साथ-साथ बड़े होकर बुजुर्ग भी हो गए।

दिनकर बाबू का बेटा-बहू बाहर विदेश में रहते थे। दिनकर को कोरोना के कारण अस्पताल में रखा गया। अब कोरोना की लड़ाई जीत कर वे घर आ गए थे।

आज सुबह से ही गांव में टीकाकरण के लिए शहर से टीम आई थीं।

दिनकर बाबू क्योंकि सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे और सभी बातों को समझते थे। अपनी पत्नी के साथ टीका के लिए अस्पताल जाना था वे गंगवा को अपने साथ ले गए।

अस्पताल लाइन में लगे दोनों पति-पत्नी को गांव वाले अच्छी तरह से पहचानते थे और आदर सत्कार भी करते थे। दोनों ने अपना नाम आगे कर पर्ची बढ़ाया, लगभग सभी लोग लाइन से खड़े थे परंतु मेडिकल टीम ने गंगवा को पीछे करते-करते लगभग बाहर ही कर दिया।

दिनकर जी और उनकी पत्नी एक दूसरे को देखते रह गए उसके नही बोलने और नहीं सुनने की गलतफहमी हो गई थी।

तभी दिनकर बाबू ने कहां आज मुझे गांव में टीकाकरण का सबसे पहला मौका आप लोगों ने दिया है। मेरा अपना तो कोई पूछने आज तक नहीं आया और जब मुझे कोई अपना कहने वाला नहीं था गंगवा ने उस समय ‘कोरोना योद्धा’ बनकर मेरा साथ दिया।

मुझसे पहले मेरे गंगवा को टीका लगना है। यह मेरा अपना है… कह कर दिनकर बाबू की आंखों से आंसू बहने लगे।

आज मैं सभी को बताता हूं.. मेरा जो कुछ भी है मेरे मरने के बाद में सारी संपत्ति और मेरी सारी जिम्मेदारी मैं आज गंगवा को सौंप रहा हूं।

गंगवा भाव विभोर हो सब बातों को समझ रहा था।

आज वह अपने आप को रोक नहीं सका दोनों बाँहें फैलाकर दौड़ कर दिनकर जी को गले लगा लिया।

अस्पताल के कर्मचारियों ने तालियों से स्वागत किया। गंगवा आज दोनों हाथ उठा कर ऊपर ईश्वर को शायद शुक्रिया अदाकर रहा था। इस सब बातों को सुनने के लिए वह कब से तरस रहा था।

वह अब अकेला नहीं उसका अपना परिवार है। और सबसे पहले टीका ‘गंगवा बाबू’ को लगा।

दिनकर जी की बातों को बिना सुने भी गंगवा की आंखों से अश्रुं धारा बहने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ युक्ति ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “युक्ति”)

☆ लघुकथा – युक्ति ☆

प्रमोद के आगे चलने वाली कार के चालक ने अपनी कार को सड़क पर एक तरफ करके रोक दिया था, परन्तु फिर भी उसकी कार का इतना हिस्सा सड़क पर ही था कि प्रमोद बड़ी मुश्किल से अपनी बाइक को बचा पाया।

पीछे बैठे उसके दोस्त ने एकदम गुस्से से प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “…अभी इसकी ऐसी की तैसी करता हूँ और गाड़ी हटवाता हूँ सड़क पर से…।”

दोस्त गया और कार वाले से बहस करने लगा, “भाई साहब, क्या आपने बीच सड़क में कार खड़ी कर दी है, अभी हमारी टक्कर हो जाती और चोट लग जाती…। गाड़ी एक तरफ नहीं कर सकते क्या, इतनी जगह पड़ी है..?”

कार वाला भी शायद लड़ने की मनोदशा में था, गुस्से से बोला, “तुम देख कर नहीं चल सकते क्या? नहीं करता एक तरफ क्या कर लोगे?”

दोस्त को एकदम से कुछ न सूझा। वह आवेश में कुछ बोलने ही वाला था कि प्रमोद ने दोस्त के कंधे को दबा कर उसे चुप रहने का संकेत देते हुए कार वाले को कहा, “बात वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं भाई साहब. दरअसल यह चलती सड़क है, कहीं ऐसा न हो कि कोई दूसरा कार या ट्रक वाला आपकी गाड़ी को ठोक कर चला जाए और आपका खामखाह का नुकसान हो जाए। हम तो बस इसलिए…।”

सुन कर कार वाले ने अपनी कार एक तरफ लगा दी।

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार☆

दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।

पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।

वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।

पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।

किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ”आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।”

दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?

बड़ा भाई बोला- “मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।” संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।” सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?

बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?

संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।

पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।

संत बोले ‘देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।”

अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।

उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – कठपुतली ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – कठपुतली ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

“मम्मी, काल आमच्या शाळेत कठपुतलीचा खेळ दाखवला,” जमिनीवर बसून वहीत ड्रॉइंग काढत असलेली पारंबी म्हणाली.

“अरे वा, काय काय दाखवलं?” गाईला चारा घालून परत घरात येता येता मम्मीने विचारलं.

“अगं ए, गाईला चारा-पाणी देऊन झालं असेल तर जरा इकडे ये, आणि माझे पाय दाबून दे,” कॉटवर आरामात लोळत पडलेल्या नवऱ्याने हुकूम फर्मावल्यासारख सांगितलं.

“सगळं दाखवलं मम्मी— त्या बाहुल्यांनी विहिरीतून पाणी काढून घरात आणून ठेवणं, चुलीवर स्वैंपाक करणं, मुलांना आंघोळी घालणं, कपडे धुणे, इस्त्री करणं — सगळं सगळं दाखवलं—” काढलेलं चित्र रंगवता रंगवता पारंबीने सांगितलं.

“कसा वाटला तुला तो कठपुतलीचा खेळ?”— नवऱ्याच्या पायापाशी बसून आता ती बायको त्याचे पाय चेपायला लागली होती.

“खूपच छान”, पारम्बी उत्साहाने सांगायला लागली.

“दोऱ्यांचे एक एक टोक खेळ दाखवणाऱ्या त्या माणसाच्या बोटांना बांधलेले होते, आणि दुसरी टोके त्या बाहुल्यांच्या अंगावर बांधलेली होती. तो माणूस त्या बाहुल्यान्ना इशारा केल्यासारखा बोटं हलवतो, आणि मग त्या बाहुल्यांचे अंग हलायला लागते. मग तुम्ही तुम्हाला जे पाहिजे ते त्यांच्याकडून करून घ्या. उड्या मारायच्या, खाली पडायचं, नाचायचं, गाणं- बजावण करायचं, भांडणं करायची—- हे सगळंही करत होत्या त्या. खूप खूप मज्जा आली मम्मी मला.”

” थांब– पुरे झालं पाय चेपन”

” थांब— पुरे झालं आता. एक तरी काम व्यवस्थित करायला कधी शिकणार आहेस कोण जाणे”— नवरा रागावून म्हणाला. बायको कॉटवरून खाली उतरताच तो पुन्हा गुरगुरला— “चाललीस कुठे लगेच? जरा तेल लावून डोक्याला मालीश करून दे– आणि सावकाश कर– मान तोडायची नाहीये माझी,” त्याच्या आवाजात कडवटपणा होता.

“बाळा तू रिमोटवर चालणाऱ्या कठपुतळ्या पाहिल्या आहेस का?”– आता नवऱ्याच्या डोक्यापाशी बसून, त्याच्या डोक्याला तेलाने मालिश करणाऱ्या बायकोने विचारलं.

“रिमोटवर चालणारी म्हणजे?”– खोडरबराने चित्र खोडता खोडता पारंबीने विचारलं.

“म्हणजे– म्हणजे फक्त आवाज ऐकून सगळं काही करते ती — कठपुतली– जसे की– तुम्ही हुकूम द्या– जा, गाईला चारा घालून ये– की ती जाऊन गाईला चारा घालून येईल. मग तुम्ही सांगा, की इकडे येऊन पाय चेपून दे– मग ती पट्कन येऊन पाय चेपत बसेल. — मग तुम्ही तिला दम देत सांगायचं, की आता डोक्याला तेल —“.

एखादे झुरळ झटदिशी उडावे, तसे पारंबीचे लक्ष त्या चित्रावरून उडाले आणि ती मम्मीकडे बघायला लागली. खरं तर तिच्या लक्षात आलं होतं की, तिच्या मम्मीचा आत्ताचा आवाज हा आवाज नाही, तर बरसण्यासाठी व्याकूळ झालेले – गच्च दाटून आलेले काळे ढग होते. हातातलं खोडरबर तिथेच टाकून ती उठली, आणि जाऊन कॉटवर तिच्या मम्मीला चिकटून बसली — आणि तिच्या गळ्यात हात टाकत म्हणाली — “मम्मी मी कठपुतली होणार नाही– मुळीच नाही– कधी म्हणजे कधीच होणार नाही मी कठ पुतली — तू मला स्वतःसारखी कठपुतली बनवू नकोस मम्मी—-

मूळ हिंदी कथा : श्री भगवान वैद्य “प्रखर”

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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