हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 45 ☆ लघुकथा – किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी….. ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी……   स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद भावुकता से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को मानवीय रिश्तों और दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 45 ☆

☆  लघुकथा – किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी…..

सौम्या हर बार की तरह इस बार भी गर्मी की छुट्टियों में बच्चों को लेकर मायके चली गयी थी। जैसे-जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे  मायके से उसकी दूरियां बढ़ती जा रही थीं। कारण वह समझती थी। जिन बातों को वह आज तक नजरअंदाज करने की कोशिश करती थी वे बातें अब खुलकर बच्चों के सामने आने लगी थी। बच्चे नासमझ नहीं रह गए थे और वह भी किन-किन बातों पर पर्दा डालती। उसने भी जैसा चल रहा है चलने दो ,का भाव अपना लिया था।

उस दिन तो सौम्या भी सकते में आ गयी जब भाई ने घर के सामान के लिए दिए पैसों का हिसाब माँगते हुए कहा- सौम्या ! मुझे दो ना पैसों का हिसाब। पापा का इन्तजार क्यों कर रही हो। मैं और पापा एक ही तो हैं। मयंक मासूमियत से बोला- मतलब…..? और मेरी मम्मी ? वो भी तो नाना-नानी की बेटी हैं ?

सौम्या ने बच्चों के सामने बात बढ़ाना उचित नहीं समझा। बच्चों के मन में रिश्तों को लेकर कड़वाहट नहीं घुलनी चाहिए। सच, जब रिश्ते पूरी गरमाहट के साथ रजाई की तरह बच्चों को अपने में लपेट लेते हैं तो बच्चों की दुनिया ही बदल जाती है। और ऐसा ना होने पर अपनों के प्रति ही अविश्वास का भाव………।

सौम्या ने उस समय तो बात टाल दी लेकिन भाई का वाक्य उसे कचोटता रहा। उसे याद आया वह दिन जब शादी के बाद उसने भावुकतावश एक सादे लिफाफे में मुँह दिखाई में मिले रुपए रखकर भाई को भेज दिए थे। भाई के मोह में वह उस दिन यह भी नहीं सोच पाई कि सादे लिफाफे में रखकर रुपए नहीं भेजने चाहिए, मनीआर्डर करना चाहिए था। ऐसा एक लिफाफा तो मिल गया। दूसरा नहीं पहुँचा ,शायद किसी ने रुपए निकाल लिए होंगे। आज वही भाई उसे यह एहसास करा रहा है कि तुम अब इस परिवार से अलग हो। सौम्या ने उस दिन ही यह तय कर लिया था कि वह माता-पिता के लिए ही मायके जाएगी। हाँ इतना जरूर था कि अब वह मायके अकेले जाने लगी थी। पति और बच्चों के सामने मायके में अपमान सहना जरा कठिन होता है।

समय किसी के लिए रुकता नहीं। माँ-पापा की मृत्यु के बाद मायके जाना लगभग खत्म हो गया। जब रिश्तों में तरावट नहीं रही तो दीवारों का मोह क्या करना। धीरे-धीरे घर, शहर सब छूट गया। जब पलटकर देखती तो आश्चर्य होता कि जीवन के इतने साल जिस घर में बिताए वहीँ आज कदम रखना मुश्किल है। उसे फिराक गोरखपुरी का शेर याद आया-

किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी।

ये हुस्नो-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 64 – हाइबन – तोरणद्वार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “तोरणद्वार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 64 ☆

☆ तोरणद्वार ☆

खोर ग्राम स्थित बिरला सीमेंट फैक्ट्री तहसील-जावद, जिला- नीमच के पास0 ग्रेनाइट पत्थर पर नक्काशीदार यह तोरणद्वार का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसका महत्व देखते हुए इसे पुरातत्व महत्व का स्थान घोषित किया गया है । मगर इस तरुणद्वार पर स्थापित शिलालेख पर 11वीं शताब्दी के संग्रहणीय इमारत का उल्लेख मिलता है।

सीमेंट फैक्ट्री के नजदीक स्थित्व यह खूबसूरत स्थान नक्काशीदार नंदी और तोरणस्तंभ की बारीक कारीगरी देखने लायक है । अरावली श्रंखला के नजदीक बसे इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहां से चित्तौड़गढ़ किले तक जमीन में एक गुप्त रास्ता जाता था । इस रास्ते  से होकर राजा महाराजा, जासूस और उनकी सेनाएं गुप्त रूप से आतीजाती थी।

नीमच से चित्तौड़ या उदयपुर रास्ते में जाते समय राजस्थान सीमा से 8 किलोमीटर उत्तर में स्थित यह स्थान और बिरला फैक्ट्री के नजदीक स्थित है।  जहां पर यत्रतत्र नक्काशीदार पत्थर बिखरे पड़े हैं जो किसी विशेष कहानी को अपनी भाषा में बयान करते नजर आते हैं।

तोरणद्वार~

सेल्फी लेते फिसली

नवब्याहता।

~~~~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 64 – तुरपाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “ तुरपाई ।  निःस्वार्थ  सेवा /सहयोग का फल ईश्वर आपको कब देंगे आप नहीं जानते। एक भावप्रवण एवं सुखान्त लघुकथा । इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 64 ☆

☆ लघुकथा – तुरपाई

गांव में एक अनाथ बच्चा ‘तरुण’। घूम – घूम कर माँग कर खाता था। पता नहीं कब और कहाँ से आया। छोटा सा था और सब की बातें सुनता रहता था।

बस्ती में एक एक घर उसे पहचानने लगे थे। धीरे-धीरे बड़ा होने लगा।  अब वह कभी-कभी किसी का काम कर देता था और जो मिल जाता था खाकर अपना गुजारा करता। जहां नींद लगता एक पट्टी डाल सो जाया करता था।

गांव में एक दर्जी जिनके पास अपना कहने को कोई नहीं और संपत्ति के नाम पर कहने को कुछ भी नहीं था। एक सिलाई मशीन और टूटी फूटी झोपड़ी जो उन्होंने एक पेड़ और खंभे की आड़ से बना रखा था। जिसमें मशीन रखकर हर समय फटा पुराना सीते हुए दिखाई देते थे।

कभी-कभी तरुण वहीं पर आकर बैठता और कहता… बाबा मुझे कुछ बनना है कुछ काम सिखा दो। यहाँ पर कोई मुझे काम देना नहीं चाहता। दर्जी के मन में रोज सुनते सुनते दया की भावना उमड़ उठी। उन्होंने कहा.. चल मेरे भी कोई नहीं है और तू भी अनाथ है।

आज से तू और मैं एक नया काम करते हैं “रिश्तो की तुरपाई” तेरा भी कोई नहीं और मुझे भी एक सहारा चाहिए। फटे पुराने कपड़ों पर तरुण धीरे-धीरे तुरपाई का काम करने लगा।

मन में स्कूल जाने की चाहत हुई उसने कहा बाबा मुझे स्कूल जाना है। उन्होंने कहा.. चला जा और पढ़ाई कर धीरे-धीरे वह पढ़ाई से आगे बढ़ने लगा। गरीब जान सरकारी स्कूल से फीस माफ हो गई। उसे पढ़ने के लिए बाहर जाना पड़ा।

दर्जी ने सोचा चला गया। चलो अच्छा है जीवन सुधर जाएगा उसका। उसकी अपनी जिंदगी है।

कुछ वर्षों में सब भूल जाएगा।

वर्षों बाद एक दिन अचानक एक बार गाँव में अतिक्रमण हटाओ के अंतर्गत सभी झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा जा रहा था। सयाने हो चुके दर्जी परेशान हो इधर उधर भागने लगे और गिड़गिड़ा कर कहने लगे.. अब इस उमर में मैं कहाँ जाऊँगा। मुझे यहीं रहने दो मेरी जिंदगी कितनी बची है। परंतु उसमें से कुछ आदमी निकलकर सारा सामान गाड़ी में भरने लगे और कहने लगे अब तुम्हें यहाँ नहीं रहना है साहब का आदेश है। डरकर दर्जी एक किनारे खड़ा हो गया। तुम्हें जहां छोड़ना है चलो गाड़ी में बैठो।

असहाय दर्जी अपने टूटे फूटे सामान और एक सिलाई मशीन की लालच में गाड़ी में बैठ गया।

गाड़ी एक दुकान के पास जाकर रुक गई। दर्जी ने सोचा यहाँ पर क्यों रुक गए? चश्मे से देखा दुकान के बोर्ड पर लिखा हुआ था “तुरपाई घर”। उसे समझते देर नहीं लगी। हाँफते हुए इधर – उधर देख अपने तरुण की खोज करने लगा। तरुण भी वहाँ बाहें फैला अपने रिश्ते को समेटने के लिए बेताब खड़ा था। आज सचमुच तुरपाई से भरपाई हो गई। दोनों ने गले लग जी भर कर रोया। सभी कर्मचारी कभी फटे हाल दर्जी और कभी अपने साहब को देख रहे थे। उनका आदेश था एक-एक सामान को संभाल कर दुकान पर लगा दिया जाए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बेघर☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक विचारणीय लघुकथा  बेघर।  

☆ लघुकथा – बेघर ☆

“पिताजी मेरा नाम क्यों नहीं लिखवाया?”

नन्ही सी नम्रता ने अपने नए घर की नेम प्लेट पर पिता और छोटे भाई का नाम लिखा देखकर पूछा।

“बेटियां तो पराई होती हैं तुम्हारा घर तो तुम्हारे पति का घर होगा” पिताजी ने कहा

बेटियां पराई होती हैं, जिम्मेदारी होती हैं सुनते सुनते नम्रता 18 साल में ही ब्याह दी गई। ससुराल आकर  लगातार एक पैर पर  चकरघिन्नी जैसे घूमते घूमते सास-ससुर की सेवा और बच्चों को पालने में लग गई।   साथ साथ अपना घर… और घर पर लिखा अपना नाम के सपनों को जीती हुई उसे पूरा करने में जुट गई।  पति की कम आय में गुजारा करना शुरू के दिया।

कामवाली भी नहीं लगवाई और बच्चों को ट्यूशन खुद ही सब निपटा लेती। फिर स्कूल में नौकरी और शाम को ट्यूशन के साथ आखिरकार लोन लेकर घर बनवाया।

बरसो के अथक प्रयासों के बाद नेमप्लेट पर केवल पति का और बेटे का नाम लिखा देख बचपन से पाला हुआ अरमान एक पल में ही धराशाई हो गया।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 44 ☆ लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा मैडम ! कुछ करो ना।  भ्रूण /कन्या हत्या और  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद भावुकता से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 44 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना  

अस्पताल में विक्षिप्त अवस्था में पड़ी वह बार-बार चिल्ला उठती थी- मत फेंकों, मत फेंकों मेरी बच्चियों को नदी में। मैं….. मैं पाल लूँगी किसी तरह उन्हें। मजूरी करुँगी, भीख माँगूगी पर तुमसे पैसे नहीं माँगूगी। कहीं चली जाउँगी इन्हें लेकर, तुन्हें अपनी शक्ल भी नहीं दिखाउँगी| छोड़ दो इन्हें, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। इन बेचारी बच्चियों का क्या दोष? ………. और फिर मानों उसकी आवाज दूर होती चली गयी।

बेहोशी की हालत में वह बीच-बीच में कभी चिल्लाती, कभी गिड़गिड़ाती और कभी फूट-फूटकर रोने लगती। नर्स ने आकर नींद का इंजेक्शन दिया और वह औरत निढ़ाल होकर बिस्तर पर गिर गयी। दर्द उसके चेहरे पर अब भी पसरा था।

नर्स ने पास खड़ी समाज सेविका को बताया कि पिछले एक महीने से इस औरत का यही हाल है। नदी के पुल पर बेहोश पड़ी मिली थी| कोई अनजान आदमी अस्पताल में भर्ती करा गया था। पता चला है कि इसके पति ने इसकी पाँच, तीन और एक वर्ष की तीनों बच्चियों को इसके सामने पुल से नदी में फेंक दिया। जब इसने देखा कि पति ने दो बेटियों को नदी में फेंक दिया तो एक वर्ष की बच्ची जो इसकी गोद में थी उसे लेकर यह भागने लगी। उस हैवान ने उसे भी इसके हाथों से छीनकर नदी में फेंक दिया। तब से ही इसका यह हाल है। बहुत गहरा सदमा लगा है इसे।

मैडम ! क्यों करते हैं लोग ऐसा? फूल-सी बच्चियों को मौत की नींद सुलाते इनका दिल नहीं काँपता? नर्स गिड़गिड़ाती हुई बोली- मैडम ! कुछ करिए ना। आप तो समाज सेविका हैं, बहुत कुछ कर सकती हैं। समाज सेविका पथरायी आँखों से बिस्तर पर बेसुध पड़ी औरत को एकटक देख रही थी। पत्थर दिल समाज से टकरा-टकराकर उसके आँसू भी सूख गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 63 – हाइबन – बादल महल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “बादल महल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 63 ☆

☆ बादल महल ☆

बादल महल कुंभलगढ़ किले के शीर्ष पर स्थित एक खूबसूरत महल है । यह संपूर्ण महल दो खंडों में विभाजित हैं । किन्तु आपस में जुड़ा हुआ है। इस महल के एक और मर्दाना महल है।  दूसरी ओर जनाना महल निर्मित है। इसी माहौल में वातानुकूलित लाल पत्थर की जालिया लगी है। लाल पत्थर की जालियों की विशिष्ट बनावट के कारण गर्म हवा ठंडी होकर अंदर की ओर बहती है।

बादल महल बहुत ही ऊँचाई पर बना हुआ महल है । इस महल से जमीन बहुत गहराई में नजर आती है । ऐसा दिखता है मानो आप बादलों के बीच उड़ते हुए उड़न खटोले से जमीन को देख रहे हैं । इसी ऊंचाई और दृश्यता की वजह से इसका नाम बादल महल पड़ा है।

लाल झरोखा~

फर्श पर देखते

सूर्य के बिंब।

~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 63 – श्राद्ध से मुक्ति ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “श्राद्ध से मुक्ति।  वर्तमान पीढ़ी न तो जानती है और न ही जानना चाहती है कि  श्राद्ध क्या और क्यों किये जाते  हैं। उन्हें जीते जी किया भी जाता है या नहीं ? पितृ पक्ष में इस सार्थक  एवं  समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 63 ☆

☆ लघुकथा – श्राद्ध से मुक्ति

रामदयाल जी पेशे से अध्यापक थे। गांव में बहुत मान सम्मान था। बेटे को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया। उसकी इच्छानुसार काफी खर्च कर विदेश भेज दिया पढ़ने और अपने मन से सर्विस करने के लिए।

बरसों हो गए बेटे अभिमन्यु को विदेश गए हुए। सेवानिवृत्ति के बाद पति पत्नी अकेले हो गए। बीच के वर्षों में एक बार या दो बार बेटा आ गया था। परंतु उसके बाद केवल मोबाइल का सहारा। गांव में होने के कारण अभिमन्यु कहता था…. नेटवर्क की समस्या रहती है जब बहुत जरूरी हो तभी फोन किया करें। बेटे ने वहाँ अपनी पसंद से विवाह कर लिया। माँ पिताजी को बताना भी उचित नहीं समझा। बस फोन पर कह दिया कि उसने अपनी लाइफ पार्टनर ढूंढ लिया है।

माँ को बहुत झटका लगा। लगातार चिंता और दुखी रहने के कारण उम्र के इस पड़ाव पर वह जल्द ही बीमार हो चली। फिर एक दिन सब कुछ छोड़ रामदयाल को अकेले कर वह चल बसी। बेटे को फोन किया गया।  वह बोला… अभी कंपनी के हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं। मुझे अभी आने में वक्त लग सकता है। मैं जल्द ही आऊंगा आप अपना ध्यान रखना।

कहते-कहते बरस बीत गए। माता जी के श्राद्ध का दिन आने वाला था। पिताजी ने फोन से कहा… बेटे जीव की मुक्ति के लिए श्राद्ध का होना जरूरी होता है तुम्हारा आना आवश्यक है। झल्ला कर अभिमन्यु ने कहा… ठीक है मैं आ जाऊंगा। बहू को भी ले आना… ठीक है ठीक है ले आऊंगा… सारी तैयारी करके रखियेगा। मुझे ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए।

पिताजी खुश हो गए कि बेटा बहू आ रहे हैं। रामदयाल जी पत्नी के श्राद्ध को भूल कर बेटे के आने की खुशी में घर को सजा संवार कर खुश हो रहे थे कि बेटा बहू आ रहे हैं।

निश्चित समय पर बेटा बहू आ गए। पूजा पाठ के बाद घर के नौकर के साथ मिलकर पास पड़ोस में सभी को खाना खिलाया गया। रामदयाल जी बहुत खुश थे कि अपनी माँ का श्राद्ध कर रहा है। इसी बीच जाने कब बेटे ने पिता जी से एक कोरे कागज पर दस्तखत करवा लिया कि उसे विदेश में एक छोटा सा घर लेना है। जिसमें आपके पहचान की आवश्यकता है।

पिताजी ने खुशी से वह काम कर दिया। सभी काम निपटने के बाद रात को सभी चले गए। नौकर भी रामदयाल के पास सो रहा था। देर रात खटर-पटर की आवाज से वह उठ गया। देखा अभिमन्यु और बहू घर का सारा सामान भर चुके थे। सामने दो गाडियाँ खड़ी थी। उसे समझते देर न लगी। उनमें एक गाड़ी अनाथ आश्रम की गाड़ी थी। उसने तत्काल रामदयाल जी को उठाया। अभिमन्यु ने कहा… पिताजी मुझे बार-बार आना अब नहीं होगा। मैंने यह मकान बेच दिया है और आपकी व्यवस्था आपके जीते जी रहने के लिए अच्छे से अनाथ आश्रम में करवा दिया है।

नौकर का भी हिसाब कर पैसा और गांव में रहने की व्यवस्था कर दिया है। कल सुबह वह चला जाएगा।

और हां एक बात और मैंने… पंडित जी से कहकर आपका भी “श्राद्ध” करवा दिया है। अब किसी प्रकार के डरने की आवश्यकता नहीं है। आपकी मुक्ति हो जाएगी।

रामदयाल चश्मे को निकाल आँसू पोछते नौकर से बोले… चलो अच्छा हुआ जीते जी बेटे ने श्राद्ध कर मुझे मुक्ति दे दी।

अनाथ आश्रम के आदमी रामदयाल जी को बड़े आदर के साथ पकड़ कर अपनी गाड़ी की ओर ले चले। गरीब नौकर हैरान था ये कैसी “श्राद्ध से मुक्ति” ।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 43 ☆ लघुकथा – माँ  आज भी गाती है ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा माँ  आज भी गाती है।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 43 ☆

☆  लघुकथा – माँ  आज भी गाती है  

माँ बहुत अच्छा गाती है, अपने समय की रेडियो कलाकार भी रही है।  | पुरानी फिल्मों के गाने तो  उसे बहुत पसंद हैं | भावुक होने के कारण हर गाने को इतना दिल से गाती कि कई बार गाते-गाते गला भर आता और आवाज भर्राने लगती। तब आँसुओं और लाल हुई नाक को धोती के पल्लू से पोंछकर हँसती हुई कहती- अब नहीं गाया जाएगा बेटा ! दिल को छू जाते हैं गाने के कुछ बोल !

‘तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा’, ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ए मेरे उजड़े चमन’ जैसे गाने माँ हमेशा गुनगुनाती रहती थी। वह ब्रजप्रदेश की है इसलिए वहाँ के लोकगीत तो बहुत ही मीठे और जोशीले स्वर में गाती है। लंगुरिया, होरी और गाली(गीत) गाते समय उसका चेहरा देखने लायक होता था। माँ गोरी है और सुंदर भी , गाते समय चेहरा लाल हो जाता। लोकगीतों के साथ-साथ थोड़ी हँसी-ठिठोली तो ब्रजप्रदेश की पहचान है, वह भला उसे कैसे छोड़ती? जैसा लोकगीत हो, वैसे भाव उसके चेहरे पर दिखाई देने लगते।

हम अपने समधी को गारी न दैबे,

हमरे समधी का  मुखड़ा छोटा,

मिर्जापुर का जैसा लोटा….

लोटा कहते-कहते तो माँ हँस- हँसकर लोटपोट हो जाती। ढ़ोलक की थाप इस गारी (गीत) में और रस भर देती थी।

उम्र के साथ माँ धीरे-धीरे कमजोर होने लगी है। कुछ कम दिखाई देने लगा है, थोड़ा भूलने लगी है लेकिन अब भी गाने का उतना ही शौक और आवाज में उतनी ही मिठास। हाँ पहले जैसा जोश अब नहीं दिखता। अक्सर माँ फोन पर मुझसे कहती – ‘बेटा ! संगीत मन को बडी तसल्ली देता है। कभी-कभार अपने को बहलाने के लिए भी गाना चाहिए। जीना तो है ही, तो  खुश रहकर क्यों ना जिया जाए। इस जिंदादिल माँ की आवाज में उदासी मुझे फोन पर अब महसूस होने लगी थी

वह अपने दोनों बेटों के पास है। बहुएँ भी आ गयी हैं , अपने-अपने स्वभाव की। पिता जब तक जिंदा थे माँ अपना सुख-दुख उनसे बाँट लेती थी। उनकी मृत्यु के बाद वह बिल्कुल अकेली पड़ गयी। ‘नाम करेगा रौशन जग में मेरा राज-दुलारा’ गा-गाकर जिन बेटों को पाल-पोसकर बड़ा किया, उनकी बुराई करे भी तो कैसे ? पर वह यह समझने लगी कि अब बेटों को उसकी जरूरत नहीं रही।

माँ उदास होती है तो छत पर बैठकर पुराने गाने गाती है। एक दिन माँ छत पर अकेली बैठी बड़ी तन्मयता से गा रही थी- ‘भगवान ! दो घड़ी जरा इन्सान बन के देख, धरती पर चार दिन मेरा मेहमान बन के देख तुझको नहीं पता कोई कितना……..’

‘निराश शब्द आँसुओं में डूब गया। गीत के बोल टूटकर बिखर रहे थे या माँ का दिल, पता नहीं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 62 – हाइबन – अफीम ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “अफीम । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 62 ☆

☆ अफीम ☆

अफीम को काला सोना भी कहते हैं । भारत में राजस्थान और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिले चित्तौड़गढ़ व  नीमच में इसकी भरपूर पैदावार होती है। समस्त प्रकार की दवाएं इसी से बनती है । इसे ड्रग का मूल स्रोत भी कह सकते हैं । इस के फल पर चीरा लगाकर इसे निकाला जाता है। जिसे अफीम लूना कहते हैं । इस फल से पोस्तादाना मिलता हैं । फल का खोल नशे में उपयोग लिया जाता हैं ।

एक फल डोड़े में 4 से 5 चीरे लगाए जाते हैं। एक बार के चीरे में 4 से 5 चीरे लगते हैं। दूसरे दिन सुबह इसी अफीम के दूध को एक विशेष प्रकार के चम्मच से एकत्रित किया जाता है।

अफीम के खेत में सामान्य व्यक्ति आधे घंटे से ज्यादा खड़ा नहीं हो सकता है। अफीम के द्रव की सुगंध से उसे चक्कर आने लगते हैं और वह बेहोश होकर गिर जाता है। मगर इस कार्य में संलग्न व्यक्ति आराम से बिना थकावट के कार्य करते रहते हैं।

अधिकांश बड़े स्मगलर इसी की तस्करी करते हैं । यह सरकारी लाइसेंस के तहत  ₹1500 से लेकर ₹2500 किलो में खरीद कर संग्रहित की जाती है, जबकि तस्कर इसी मात्रा के एक से डेढ़ लाख रुपए तक देते हैं।

खेत में डोड़ें~

अफीम लू रही हैं

दक्ष बालिका ।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ शिक्षक दिवस विशेष – लघुकथा – स्टेटस ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा शिक्षक दिवस पर रचित विशेष लघुकथा  ‘स्टेटस’  हमें वर्तमान जीवन में मानवीय दृष्टिकोण के कटु सत्य से रूबरू कराती है । बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह लघुकथा पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

शिक्षक दिवस विशेष – लघुकथा– स्टेटस


” भाईयों और बहिनों, शिक्षक तो भगवान से भी बड़ा होता है, भगवान जन्म देता है पर शिक्षक तो मनुष्य को गढ़ता है। आज शिक्षक दिवस पर  जिन रामस्वरूप जी के सम्मान हेतु हम सब एकत्रित हैं उन्हीं ने मुझ अनगढ़ को बनाया है जिसके कारण आज मैं सफलता की इस चोटी पर हूं। यदि ये न होते तो मेरा जीवन क्या और कहां होता, इसलिये धन्य हैं ये हमारे शिक्षक । काश  मेरे घर में भी इन जैसा कोई शिक्षक होता तो मेरा जीवन सफल हो जाता।”

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच शहर के सराफा संघ, स्टाॅक एक्सचेंज और अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष, नगर सेठ मनोहर लाल का भाषण  पूरा हुआ।

आज शिक्षक दिवस के अवसर पर सम्मान समारोह की अध्यक्षता कर रहे सेठ मनोहरलाल ने हाथ जोडते हुये समारोह से बिदाई ली और कार की ओर बढने लगे। पंडाल से निकलते हुये उन्होंने देखा कि  रामस्वरूप जी पीछे चल रहे उनके सचिव दीक्षित से कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे हैं।

सबके कार में बैठते ही कार चल पडी तो मनोहरलाल जी ने आगे बैठे दीक्षित से पूछा- अरे दीक्षित, वो मास्टर तुमसे क्या बात कर रहा था भाई ?

दीक्षित ने पीछे मुड कर कहा – अरे सर, आपकी बातों से प्रभावित होकर मास्टर रामस्वरूप जी ने मुझे कहा कि उनका एक बेटा है जो बाहर शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक है और यदि हम चाहें तो आपकी बिटिया से उसके विवाह के लिये बात कर सकते हैं। उन्हें बडा अच्छा लगेगा।

एक रहस्यमय मुस्कुराहट के साथ मनोहरलाल ने कहा- पर हमें अच्छा नहीं लगेगा दीक्षित ! अरे भाई शहर के अरबपति सेठ मनोहरलाल का दामाद एक मास्टर का छोरा, वो खुद भी मास्टर !! जितने कमरे उनके घर में हैं उससे ज्यादा तो मेरे यहां बाथरूम हैं दीक्षित !! ठीक है, उन्होंने मुझे स्कूल में पढाया है पर पैसा तो मैंने अपनी मेहनत से कमाया है। भाषण देना अलग बात है, फिर सोचो लोग क्या कहेंगे मुझे, अरे आखिर हमारा भी तो कोई स्टेटस है ।

दीक्षित चेहरे पर असमंजस के भाव लिये उन्हें देखता रह गया।

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print