हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – नाम – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “–नाम –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — नाम — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

राजा अपनी मनःस्थिति अपनी प्रजा से मिला कर सोचता था कल वह न रहे तो यह प्रजा उसका नाम नहीं लेगी। उसे अपना नाम रह जाने की उत्कंठा पागलपन की हद तक बनी रहती थी। उसने अपने देश के सर्वोच्च शिला खंड पर अपना नाम लिखवा कर कहा, “मेरा नाम रह जाएगा।” शिला खंड को उसके लिए बड़ी व्यथा हुई। प्रकृति ने तो उसे इस सूचना से शिला खंड बनाया था वह कभी भी पिघल सकता है।

***
© श्री रामदेव धुरंधर

31 – 08 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएँ – (1) पत्नी के गुजर जाने के बाद (2) पानी कठौता भर लेई आवा ☆ स्व. डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

स्व.डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी, विगत 50 वर्षों से अधिक समय से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लेखन। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। 500 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका प्रकाशित और संपादित । लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में सम्मिलित। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत हैआपकी दो विचारणीय लघुकथाएँ – (1) पत्नी के गुजर जाने के बाद (2) पानी कठौता भर लेई आवा )

☆ लघुकथाएँ – (1) पत्नी के गुजर जाने के बाद (2) पानी कठौता भर लेई आवा ☆ स्व.डॉ कुंवर प्रेमिल 

(डॉ कुँवर प्रेमिल जी द्वारा उनकी स्वर्गीय धर्मपत्नी जी को समर्पित लघुकथाएं। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि🙏) 

☆ पत्नी के गुजर जाने के बाद

उसकी पत्नी क्या गुजर गयी, उसका सब कुछ छीन ले गयी। उसकी कलम की स्याही सूख गयी। उसके विचार भोंथरे हो गये।

उसके सगे संबंधी मुंह चुराने लगे। वह भूखा-प्यासा पड़ा रहता। नहाना धोना सब भूल गया वह।

जिनकी पत्नियां जीवित थीं, वे सोच रहे थे, क्या पत्नी इतनी जरूरी होती है? उसके वगैर क्या दुनिया रुक जाती है? वह घर की हीरोइन है क्या?

यह क्या, क्या है,जो पत्नियों के वश में रहता है और उनकी हर आज्ञा का पालन करता है।

* * * *

पानी कठौता भर लेई आवा ☆

एक थे राम।

एक था केवट।

रामजी को अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ सरिता पार करनी थी। वह केवट को बुला रहे थे परंतु केवट संज्ञान नहीं ले रहा था।

उसे भय था कहीं लकड़ी की नाव पत्थर की शिला बन गई तो!

‘तो उसकी रोजी रोटी पर संकट गहरा जाएगा’ – वह मन ही मन गुन्तारा बैठा रहा था।

उधर रामजी को नदी पार करने की जल्दी थी। कुछ वजह उन्हें समझ में नहीं आ रही थी।

एकाएक केवट में स्फूर्ति जागी। वह जैसे नींद से जागा – यह तो अच्छा ही होगा कि श्री राम उसकी नौका को सुंदर स्त्री बना देंगे। सुंदर स्त्री समाज परिवार में सम्मान पाती है। साथ ही साथ उसका पति भी सम्मान पाता है।

घर परिवार के लोग भी सम्मान पाते हैं। ऐसा मौका उसे कतई नहीं छोड़ना चाहिए।

नौका तो वह फिर भी बना लेगा। वह इस मधुर कल्पना लेकर कठौता में पानी भरकर ले आया।

♥ ♥ 

अद्भुत दृश्य था। वह श्रीराम जी के श्री चरणों को धोता हुआ मंद मंद मुस्कुरा रहा था। राम जी भी मुस्कुरा रहे थे। सीता मैया मुस्कुरा रही थी। लक्ष्मण भैया मुस्कुरा रहे थे।

कठौता में प्रभु राम की मुस्कुराती छवि केवट को आश्वस्त कर रही थी।

* * * *

स्व. डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 144 ☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा माँ दूसरी तो बाप तीसरा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 144 ☆

☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘करती क्या हो तुम दिन भर घर में? सोती रहती हो क्या ?‘ पति की इस बात ने मानों आग में घी का काम किया। सविता दिन भर की थकी थी, गुस्से में कह गई – ‘हाँ ठीक कह रहे हो तुम, मैं कुछ नहीं करती घर में। बिना मेरे किए ही होते हैं तुम्हारे और बच्चों के सब काम इस परिवार में। मैं तो सोती रहती हूँ ऐसे ही बच्चे पल रहे हैं, बड़े हो जाते हैं और रिश्तेदार भी —–?’

‘बस भी करो, अब अपना वही रोना धोना मत शुरू करो’- पति ने झिड़कते हुए कहा।

बचपन से यह वाक्य दिल में फाँस- सा गढ़ा था, जब दिन भर घर के कामों में खटती माँ और दादी को घर के पुरुषों से कहते सुनती – ‘दिन भर घर में रहती हो, कौन सा पहाड़ उठा रही हो? करती क्या हो घर में सारा दिन ?’ वे नहीं दे पातीं थीं हिसाब घर के उन छोटे – मोटे हजार कामों का जिनमें सारा दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता| इन कामों का कोई मोल नहीं, कहीं गिनती नहीं। हाँ, उनका शरीर जरूर लेखा-जोखा रखता उनके दिन भर के कामों का। पिंडलियों में दर्द बना ही रहता और कमर दोहरी हो जाती काम करते -करते।

पति तो अपनी बात कह कर चला गया लेकिन सोचते – सोचते अजीब – सी कड़वाहट घुल गई उसके मन में, आँखें पनीली हो आई| उभरी कई तस्वीरें, गड्ड–मड्ड होते थके, कुम्हलाए चेहरे- माँ, दादी और———-| ‘उनके मन में भी न जाने कितनी बातें खौलती रहती होंगी भीतर ही भीतर पर–?’

ऐसा नहीं कि इससे पहले उसने यह वाक्य न सुना हो पर आज पति के ‘इस’ वाक्य ने दिल-दिमाग में विचारों का उबाल – सा ला दिया, लावा बह निकला था – ‘पूछते हैं कि सारा दिन क्या करती हो घर में, पर पत्नी की असमय मृत्यु हो जाने पर जल्दी ही लाई जाती है एक नई नवेली दुल्हन, घर में कुछ ना करने के लिए ???’ पति द्वारा बच्चों की देखभाल के नाम पर की गई दूसरी शादी के बारे में कहा जाता है ‘माँ दूसरी तो बाप तीसरा हो जाता है?’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #185 – बाल कहानी – बांट कर खाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- बांट कर खाएं

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 185 ☆

बाल कहानी – बांट कर खाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

संगीता कोई भी चीज किसी को नहीं देती थी. वह अकेली खाती थी. यह बात उस की दोस्त अनीता जानती थी. जब कि अनीता कोई चीज लाती वह संगीता सहित अपनी दोस्त को भी देती थी.

आज जब अनीता ने देखा कि संगीता नई तरह की चॉकलेट लाई है तो उसे का मन ललचा गया. काश! आज वह संगीता से नई तरह की चॉकलेट ले कर खा पाती. मगर क्या करें? संगीता किसी को चॉकलेट नहीं देगी. यह बात वह जानती थी.

अनीता ने अपने बस्ते से लंबी वाली चॉकलेट (पर्क) निकाली. धीरे से संस्कृति को देते हुए बोली, “यह लो बड़ी वाली चॉकलेट.”

संस्कृति को चॉकलेट खाने का शौक था. वह अपनी मनपसंद चॉकलेट देख कर बोली, “अरे वाह! मजा आ गया.”

 फिर अपने बस्ते से टिफिन निकाल कर अनीता को दो गुलाब जामुन दे दिए, “तुम मीठे गुलाब जामुन खाओ.”

यह देख कर संगीता के मुंह में पानी आ गया. वह उन दोनों की ओर देखने लगी. शायद वे उसे अपनी चीज दे दे.

मगर हमेशा की तरह उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे आपस में मिल-बाँट कर चीजें खाने लगी. तब संगीता समझ गई जब तक वह उन्हें खाने की चीजें नहीं देगी तब तक वे उसे चीजें नहीं देगी.

‘मगर क्यों?’ संगीता के मन ने कहा, ‘वे हमेशा मुझे अपनी खाने की चीजें देती है.’

इस पर उसके मन में से दूसरी आवाज आई, ‘मगर तू उसे अपनी खाने की चीजें नहीं देती है तब वे क्यों देगी?’

“अगर मैं उन्हें अपनी खाने की चीजें दे दूं तो,” अचानक वह बड़बड़ा कर बोली. तब अनीता ने कहा, “अरे संगीता! तुमने कुछ कहा है?”

“हां हां,” संगीता बोली, “मैं मीठी वाली चॉकलेट लाई हूं. एक-एक तुम दोनों भी खा कर देखो,” यह कहते हुए उसने दोनों को एक-एक चॉकलेट दे दी.

अनीता और संस्कृति वैसे भी बांटचूट कर खाती थी. उन्होंने झट से अपने-अपने टिफिन से लंबी वाली चॉकलेट और गुलाब जामुन निकाल कर उसे दे दिए.

संगीता ने जब गुलाब जामुन खाए तो उसे बहुत स्वादिष्ट लगे. वैसे भी उसे गुलाब जामुन बहुत अच्छे लगते थे. इस कारण उसने कहा, “संस्कृति, गुलाब जामुन बहुत स्वादिष्ट हैं. ये कहां से लाई हो?”

इस पर संस्कृति ने जवाब दिया, “ये मेरी मम्मी ने बनाए हैं.”

“और यह लंबी वाली चॉकलेट?” संगीता ने पूछा तो अनीता ने जवाब दिया, “तेरी तरह मैं भी बाजार से खरीद कर लाई हूं.”

“अरे वाह! आज तो मजा आ गया,” संगीता ने कहा, “हम एकएक चीज घर से लाई हैं और तीन-तीन चीज खाने को मिल गई है.”

इस पर अनीता ने जवाब दिया, “यह तो बांटचूट कर खाने का मजा है।” कह कर तीनों खिलखिला कर हंस दी.

आज उन्हें बांटने का मजा मिल गया था.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-05-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – बीज ? ?

वह धँसता चला जा रहा था। जितना हाथ-पाँव मारता, उतना दलदल गहराता। समस्या से बाहर आने का जितना प्रयास करता, उतना भीतर डूबता जाता। किसी तरह से बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, बुद्धि कुंद हो चली थी।

अब नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

एकाएक उसे स्मरण आया कि जिसके विरुद्ध क्राँति होनी होती है, क्राँति का बीज उसीके खेत में गड़ा होता है।

अंतिम उपाय के रूप में उसने समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आरम्भ किया। आद्योपांत निरीक्षण के बाद अंतत: समस्या के पेट में मिला उसे समाधान का बीज।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 117 – नौकरी फुटबाल नहीं है ! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  नौकरी फुटबाल नहीं है!“

☆ कथा-कहानी # 117 –  नौकरी फुटबाल नहीं है!  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नौकरी और इससे जुड़े परिवार की निर्भरता के प्रति हम सभी संवेदनशील होते हैं तो जब दुर्भावना रहित हुई गलतियों के प्रकरण हमारे सामने आते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण सोच ही रखते हैं और भरसक अपनी ओर से पूरी मदद करने की कोशिश करते हैं, शायद यही इंसानियत है. ईश्वर ऐसे मौके प्रायः सभी को देता है जिसमें वे भी कुछ अंश तक मदद कर सकते हैं.

एक शाखा में जहां लगभग हर दो महीने में RBI से केश रेमीटेंस ट्रेन द्वारा आता रहता था. रिजर्व बैंक एक साथ रूट की कई शाखाओं के रेमीटेंस भेजा करता था और हरेक के साथ एक रिजर्व बैंक का कर्मचारी रहता था जिसका काम उस शाखा तक रेमीटेंस के साथ जाना, अपने सामने ब्रांच में उसे रखवाना और फाइनली 8-10 दिन अपने सामने काउंटिग करवाकर शाखा प्रबंधक से प्रमाण पत्र प्राप्तकर वापस लौटना होता था. आ रहे खजाने को रिसीव करने के लिये पुलिस सुरक्षा बल के साथ रेल्वे स्टेशन पर वह ब्रांच अपने अधिकारी को भेजती थी. एक पोतदार का ससुराल बीच के किसी स्टेशन पर पड़ता था तो वे अपने साथी को जो कि उनकी यूनियन का लीडर भी था, अपनी जिम्मेदारी सौंपकर एक दिन पहले निकल लिये. दूसरे दिन उनको वही ट्रेन पकड़ लेनी थी जो रेमीटेंस लेकर जा रही थी. पर ससुराल में खातिरदारी करवाने के चक्कर में ट्रेन आगे निकल गई और उस स्टेशन में दोनों शाखाओं का रेमीटेंस, रिजर्व बैंक के उन यूनियन लीडर महाशय ने उतरवा लिया. अगली ट्रेन से दामाद जी दौड़ते भागते पहुंचे. मामला तो पक्का नौकरी लेने वाला बन गया था पर उस शाखा के स्टॉफ के हृदय में दया और मानवीयता ने वरीयता ली और उनके लिये बाकायदा ट्रक और गार्ड की व्यवस्था कर उनके साथ उनका रेमीटेंस उस शाखा में भेजा गया जहाँ के लिये आया था. इस तरह उनकी नौकरी भी बची और शायद जीवन भर के लिये सबक भी मिला कि नौकरी फुटबाल नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 38 – मित्रता…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 38 – मित्रता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जय और अनुराग मित्र दोनों खेलते खेलते थक गए और कुछ बातें करने लगे, बातें करते-करते वे लोग आगे निकल गये।

अनुराग हम कहाँ आ गए यह तो कुछ अलग सी जगह लग रही है?

अब घर कैसे पहुंचेंगे ?

ये सब तुम्हारे कारण हुआ, और दोनों के बीच झगड़ा हो गया । जय ने अनुराग को जोर से थप्पड़ मार दिया फिर इस बात को सड़क के किनारे फूल तोड़ कर के अनुराग ने फूलों से जय का नाम लिख दिया।

थोड़ा आगे निकलने के बाद उन दोनों को बहुत जोर से प्यास लगी, आगे चलने के बाद एक नदी दिखाई दी दोनों ने पानी पिया और अनुराग ने कहा चलो?

हम लोग स्नान करते हैं?

जय को तैरना नहीं आता था वह किनारे नहाने लगा फिसल गया और डूबने लगा अनुराग ने उसे बचा लिया । तभी वहां पर एक पुलिस वाला दिखाई दिया।

उसने कहा- “अरे लड़कों तुम लोग कहां भटक रहे हो?

उन्होंने कहा बताया कि हम रास्ता भूल गए हैं।

उसने उन्हें उनके घर में अपनी गाड़ी में बिठा कर छोड़ दिया।

दोनों ने कहा थैंक यू अंकल

पुलिस वालों ने कहा – ऐसे कहीं अकेले मत घूमना।

दोनों के घर आमने-सामने थे। पुलिस वाले ने उनके माता-पिता को पूरी घटना बताई।

वे दोनों अपने घर जाते एक दूसरे को ध्यान से देखते रहे, सच्ची मित्रता आंखों में दिख रही थी…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 203 – हवेली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “हवेली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 203 ☆

🌻लघु कथा🌻 हवेली 🌻

बहुत पुरानी हवेली। हवेली का नाम लेते ही मन में उठने लगता है, शानदार बड़े-बड़े झरोखे, बड़े-बड़े लकड़ी के कशीदाकारी दरवाजे, यहाँ से वहाँ तक का फैला हुआ दालान, बीचों बीच बड़ा सा आँगन, चारों तरफ किनारों में तरह-तरह के पुष्प लता के सुंदर-सुंदर पेड़ पौधे।

परंतु जिस हवेली की बात हम कह रहे हैं वह तो सिर्फ एक खंडहर दीवाल सी शेष रह गई थी। बंद दरवाजे और दरवाजे की छोटी-छोटी खिड़की नुमा झरोखे से झांकती दो आँखें। कुछ अपनों का बिछोह और कुछ प्राकृतिक कहर। जो पास है वह आना नहीं चाहते।

हवेली मानो कह रही हो काश वह पल लौट आए और यह फिर से हरा भरा हो जाए। कोई भी आना-जाना पसंद नहीं करता था। सिर्फ एक नौकर का आना-जाना था। जो बाहर से सामान आदि लाते जाते दिखता। पता नहीं रहने वाले कैसे रह लेते होंगे?

जय गणेश, जय गणेश बच्चे ठेले के साथ धक्का मुक्की करते चले जा रहे थे और ठेले में गणपति बप्पा विराजमान थे। बारिश ने कहर मचाया। छाँव की खोज करते भगवान को पन्नी तालपतरी से ढकते बच्चे बड़े सभी इस हवेली के पास पहुंचे थे।

अचानक दो हाथ झरोखे से इशारे से लगातार बुला रही थी। बच्चों ने देखा, बस उन्हें किसी से और कोई मतलब नहीं। अपने बप्पा को ठेले सहित हवेली के अंदर ले गए।

बारिश से राहत मिली लगातार हो रही बारिश से सभी परेशान थे। कांपते हाथों से बड़ी सी थाली में थोड़ा सा खाने का सामान और साथ में दो लोटे जल के साथ एक सयानी बुढ़ी दादी निकल कर आई।

आज से पहले वह इतनी खुश कभी नहीं दिखी थीं। आकर कहने लगी तुम सब यह खाओं।

बच्चों ने आँखों – आँखों में निर्णय लिया। इससे अच्छी जगह गणेश पंडाल नहीं बनेगा। बस फिर क्या था तैयारी शुरू।

शाम के आते- आते, जगमग रोशन हवेली ताम-झाम और बप्पा की जय, जय गणेश, हवेली जिंदाबाद के नारे लगने लगे।

दीपों की थाल लिए आज हवेली से सोलह श्रृंगार कर दादा- दादी उतरकर आने लगे। एक बार फिर से हवेली गुलजार हो गई।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – महाभारत – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “महाभारत –”।) 

श्री रामदेव धुरंधर जी की गद्य क्षणिकाओं के संदर्भ में डॉ. रामबहादुर मिसिर जी की टिप्पणी सार्थक एवं विचारणीय है >> “आप गद्य क्षणिका के प्रवर्तक हैं। पौराणिक और मिथकीय संदर्भों के जरिए सामाजिक विसंगतियों और सुसंगतियों पर बहुत ही प्रभावशाली ढंग से “गागर में सागर” उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। एक बात और ये क्षणिकाएं कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं। अनंत मंगलकामनाएं” – डॉ. रामबहादुर मिसिर

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — महाभारत — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

महाभारत के योद्धा ने हथियार छोड़ कर कहा, “मुझे अपने परिवार में लौट जाने दो। मेरा भाई उस सेना में है। मैं नहीं जानता वह जीवित है कि नहीं। मेरे बारे में भी वह अनभिज्ञ होगा। हमें घर से निकाला ही इस तरह से गया है कि हम दोनों भाई दो पक्षों से लड़ें।” पर इस योद्धा की हत्या कर दी गई। अर्जुन और दुर्योधन दोनों हत्यारे हो सकते थे। वे नहीं चाहते इसके कारण महाभारत अवरुद्ध हो।

***

© श्री रामदेव धुरंधर

26 – 08 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 37 – ग्लानि… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ग्लानि।)

☆ लघुकथा # 37 – ग्लानि ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

अवंतिका आंटी मेरे पड़ोस में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहा करते हैं, वह लोग सारा दिन पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, पहली रोटी गाय को कुत्ते की रोटी आदि बातों का बहुत ध्यान रखते हैं।  मोहल्ले के सारे बच्चे उन्हें दादा-दादी कहते हैं, एक दिन अचानक अवंतिका आंटी के रोने की आवाज आ रही थी।  मुझे लगा क्या हो गया है मेरे पतिदेव अभिनव ऑफिस चले गए घर पर बच्चे और मैं अकेली थे। बाहर महामारी चल रही है मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं बाहर निकलना ठीक है या नहीं परंतु मुझसे रहा नहीं गया। अपने गेट से बाहर निकली और मुंह पर दुपट्टा बांधकर। दिखी तो क्या गाय के मुंह पर कांच लगा था। मुंह से खून निकल रहा है, और आंटी रो रही थी। थोड़ी थोड़ी दूर पर सभी पड़ोसी लोग भी खड़े थे। मेरे पड़ोसी राम भैया गाय के मुंह से कांच निकाले और उसके मुंह पर भाभी हल्दी लगा रही थी। सभी पूछ रहे थे। यह कैसे हो गया।

आंटी रो रही थी। अंकल बोले कचरे वाली गाड़ी की आवाज सुनकर ये भागी भागी कचरा और गाय की रोटी भी ली थी । गाय को रोटी दी, गाय ने कचरे की थैली पर सींग मारी तुम्हारी आंटी कचरा छोड़कर भागी।

आज सुबह-सुबह बर्तन धोते समय कांच का गिलास टूट गया था, कचरे में डाल दिया और गाय सब्जियों के छिलकों के साथ और उसके मुंह पर चुभ गया, और घायल हो गई। अंकल ने कहा राम बेटा तुम भगवान बन के आए।

गाय के मुंह से खून निकल रहा था। और अंकल कहे जा रहे थे, परोपकार करो, गाय के अलावा भी सब जानवरों को खाना दिया करो। आंटी की आंख के आंसू थम ही नहीं रहे थे। 

आंटी को ग्लानि हो रही थी। और हम सब भी स्तब्ध थे…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares