डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित उनकी लघुकथा चिट्ठी लिखना बेटी ! डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 49 ☆
☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆
बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी नहीं आई बेटी ! हाँ,जानती हूँ गृहस्थी में उलझ गई हो,समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी भी,सब समझती हूँ, फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो खोलकर इत्मीनान से पढ लो, जितनी बार पढो, अच्छा ही लगता है। पुरानी चिट्ठियों की तो बात ही क्या, पढते समय बीता कल मानों फिर से जी उठता है। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।
तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी भेजे बहुत दिन हो गये? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए? तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए तुम्हारे बच्चे को देखे हुए। हमारे पास कब आ पाओगी – स्वर मानों उदास होता चला गया।
और ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। चिट्ठी में भावों में बहकर मन की सारी बातें उडेलना, जगह कम पडे तो अंतर्देशीय पत्र के कोने – कोने में छोटे अक्षरों में लिखना, उसका अलग ही सुख था। जगह कम पड जाती लेकिन मन की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। लिखनेवाला भी अपनी लिखी हुई चिट्ठी को कई बार पढ लेता था, चाहे तो चुपके – चुपके रो भी लेता और फिर चिट्ठी चिपका दी जाती। फिर कुछ याद आता – ओह! अब तो चिपका दी चिट्ठी।
कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, ( माँ की याद्दाश्त खत्म होने लगी थी ) चलो कोई बात नहीं आजकल लडकी – लडके में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लडके कौन सा सुख दे देते हैं? बीबी आई नहीं कि मुँह फेरकर चल देते हैं। तुम चिट्ठी लिखो हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना, तुम्हारे बच्चों को देखा ही नहीं हमने ( बार – बार वही बातें दोहराती है )। फोन पर बात करते समय हर बार वह यही कहती – बेटी ! फोन से दिल नहीं भरता, चिट्ठी लिखा करो।
कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी सुध नहीं है, सबके बीच रहकर भी वह मानों सबसे अन्जान, आँखों में सूनापन लिए जैसे कुछ तलाश रही हो। उसके हँसते –मुस्कुराते चेहरे पर अब आशंका और असुरक्षा के भावों ने घर कर लिया है। फोन पर अब वह मुझे नहीं पहचानती लेकिन जताती नहीं और बार –बार कहती ऐसा करो चिट्ठी में सब बात लिख देना – कहाँ रहती हो, बच्चे क्या करते हैं? चिट्ठी लिखना जरूर और यह कहकर फोन रख देती। मैं सोचती हूँ कि क्या वह अनुमान लगाती है कि मेरा कोई अपना है फोन पर? या चिट्ठियों से लगाव उससे यह बुलवाता है? पता नहीं —-उसके मन में क्या चल रहा है क्या पता, उसके चेहरे पर तो सिर्फ अपनों को खोजती आँखें, बेचारगी और झुंझलाहट है।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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