हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 269 ☆ व्यंग्य – फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 269 ☆

☆ व्यंग्य ☆ फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान

फूलचन्द भला आदमी है। उसे समाज- सेवा का ख़ब्त है। कुछ न कुछ करने में लगा रहता है। लेकिन उसकी समाज-सेवा माल-कमाऊ समाज-सेवा नहीं होती, जैसा आजकल बहुत से होशियार लोग कर रहे हैं। यानी सरकार से अनुदान लेना और समाज से ज़्यादा खुद अपना और अपने प्रिय परिवार का उत्थान करना। फूलचन्द अपना घर बिगाड़ कर समाज सेवा करता है, यानी बुद्धू और नासमझ है।

वह कभी झुग्गी-झोपड़ी वालों को परिवार-नियोजन का महत्व समझाने निकल जाता है, कभी अस्पताल जाकर मरीज़ों की सहायता में लग जाता है, कभी शहर की सफाई के लिए कोशिश में लग जाता है। सब अच्छे कामों की अगुवाई के लिए फूलचन्द हमेशा उपलब्ध है। कोई दुर्घटना होते ही फूलचन्द सबसे पहले पहुंचता है। सब पुलिस वाले, डॉक्टर, नर्सें उसे जानते हैं। संक्षेप में फूलचन्द उन लोगों में से है जिनकी नस्ल निरन्तर कम होती जा रही है।

आजकल फूलचन्द पर ख़ब्त सवार है कि लोगों को बचत के लिए समझाना चाहिए।
उसने कहीं पढ़ा है कि हमारे देश के लोग बहुत फिज़ूलखर्ची करते हैं—गहने ज़ेवर खरीदने में, फालतू संपत्ति खरीदने में, दिखावे में,अंधविश्वास में, शादी-ब्याह में, जन्म-मृत्यु में। उसका कहना है कि वह लोगों को प्रेरित करेगा कि फ़िज़ूलखर्ची रोककर अपना पैसा ऐसे कामों में लगायें जिनसे खुद उनका भी भला हो और देश का भी। उसने यह जानकारी इकट्ठी कर ली है कि किन-किन कामों में पैसा लगाना ठीक होगा।

एक दिन वह अपने अभियान पर मुझे भी पकड़ ले गया। हम जिस घर में घुसे वह दुमंजिला था। सामने ‘टी. प्रसाद’ की तख्ती लगी थी। मकान से समृद्धि की बू आती थी। वह कर्ज़- वर्ज़ लेकर मर मर कर बनाया गया मकान नहीं दिखता था। दो-तीन स्कूटर थे, झूला था, फूल थे, दीवारों पर अच्छा रंग-रोगन था।

घंटी बजाने पर सबसे पहले एक कुत्ता भौंका, जैसा कि हर समृद्ध घर में होता है। उसके बाद 50-55 की उम्र के एक सज्जन प्रकट हुए। वे हमें ससम्मान भीतर ले गये।

भीतर भी सब चाक-चौबन्द था। रंगीन टीवी, फोन, दीवारों पर पेंटिंग। पेंटिंग शान के लिए लगयी जाती है। कई बार खरीदने वाला खुद नहीं जानता है कि उसमें बना क्या है, या वह उल्टी टंगी है या सीधी। जो जानते हैं वे उन्हें खरीद नहीं पाते।

उन सज्जन ने प्रेम से हमें बैठाया। फूलचन्द ने उन्हें अपने आने का मकसद बताया तो वे प्रसन्न हुए, बोले, ‘मैं आपकी बात से पूरा इत्तफाक रखता हूं। हमें बचत करना चाहिए, फिज़ूलखर्ची रोकना चाहिए और अपने पैसे को उपयोगी कामों में लगाना चाहिए।’ फूलचन्द प्रसन्न हुए।

वृद्ध सज्जन, जो  खुद टी.प्रसाद थे, बोले, ‘मुझे आपको यह बताने में खुशी है कि मैंने इस सिद्धान्त पर जिन्दगी भर अमल किया है। आपको जानकर ताज्जुब होगा मैंने अपनी चौबीस साल की नौकरी में से बीस साल लगातार अपनी पूरी तनख्वाह बचायी है।’

सुनकर हम चौंके। फूलचन्द ने आश्चर्य से पूछा, ‘बीस साल तक पूरी तनख्वाह बचायी है?’ टी.प्रसाद गर्व से बोले, ‘हां, पूरी तनख्वाह बचायी है।’ फूलचन्द ने कहा, ‘तो आपकी आमदनी के और ज़रिये रहे होंगे।’ प्रसाद जी ने जवाब दिया, ‘नहीं जी, और ज़रिये कहां से होंगे? सवेरे दस से पांच तक दफ्तर की नौकरी के बाद ज़रिये कहां से पैदा करेंगे? फिर मैं तो संतोषी रहा हूं। ज्यादा हाथ पांव फेंकना मुझे पसन्द नहीं।’

फूलचंद ने पूछा, ‘फिर आपका खर्च कैसे चलता रहा होगा?’

प्रसाद जी बोले, ‘मेरी भी समझ में नहीं आता कि मेरा खर्च कैसे चलता रहा। सब ऊपर वाले का करिश्मा है। इसीलिए मेरी भगवान में बड़ी आस्था है।’ वे चुप होकर मुग्ध भाव से ज़मीन की तरफ देखते रहे जैसे मनन कर रहे हों। फिर बोले, ‘आपने कहानियां पढ़ी होंगी कि कैसे कोई आदमी रात को जब सोया तो गरीब था और सवेरे उठा तो अमीर हो गया। पहले मुझे ऐसी कहानियों पर यकीन नहीं होता था, बाद में जब मेरे साथ होने लगा तो यकीन हो गया। मैं सवेरे दफ्तर जाता था तो मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं होती थी। शाम को कुर्सी से उठता तो हर जेब में नोट होते थे। मेज़ की दराज़ में भी नोट। मेरी खुद समझ में नहीं आता था कि ये नोट कहां से आ जाते थे। अब भी यही होता है। नतीजा यह हुआ कि अपने आप पूरी तनख्वाह बचती रही।’

फूलचन्द बोला, ‘फिर तो आपके पास बहुत पैसा इकट्ठा हो गया होगा?’

टी. प्रसाद बोले, ‘हां जी, होना ही था। मैं क्या करता? मेरा कोई बस नहीं था।’

फूलचन्द ने फिर पूछा, ‘तो फिर आपने उस बचत का क्या किया?’

टी. प्रसाद बोले, ‘उसे अलग-अलग कामों में लगाया ताकि अपना भी फायदा हो और देश की भी तरक्की हो। देश की फिक्र करना हमारा फ़र्ज़ है, इसीलिए उसका कोई गलत इस्तेमाल नहीं किया।’

फूलचंद चक्कर में था। उसका बचत- प्रचार अभियान गड़बड़ा रहा था। बोला, ‘आपकी संतानें क्या कर रही हैं?’

टी. प्रसाद ने उत्तर दिया, ‘तीन बेटे हैं जी। दो नौकरी में हैं और दोनों होनहार हैं। दोनों मेरी तरह अपनी तनख्वाह बचा रहे हैं। मुझे उन पर फख्र है। तीसरा अभी पढ़ रहा है, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वह भी इसी तरह बचत करेगा और अपने पैसे का गलत इस्तेमाल नहीं करेगा।’

फूलचन्द परेशानी के भाव से बोला, ‘आपके दफ्तर में सभी ऐसी ही बचत करते हैं?’

प्रसाद जी बोले, ‘हां जी, ज्यादातर ऐसा ही करते हैं। नये लोग ज़रूर नासमझ होते हैं। उन्हें बचत के तरीके समझने में टाइम लगता है। एक दो ऐसे नासमझ भी होते हैं जो अपने कपड़ों में जेब ही नहीं रखते, मेज़ का दराज़ बन्द रखते हैं। अब उन पर प्रभु की कृपा कहां से होगी? जब लक्ष्मी के लिए दरवाजा नहीं रखोगे तो लक्ष्मी कहां से आएगी? ऐसे लोग बचत नहीं कर पाते। ऐसे लोगों से देश का कोई भला नहीं होता। सीनियर होने के नाते मैं सबको समझा ही सकता हूं, ज़बरदस्ती नहीं कर सकता। मैं तो चाहता हूं कि सब बचत करें।’

हम बदहवास से वहां से उठे। टी. प्रसाद बोले, ‘आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं जी। लोगों को बचत के लिए समझा रहे हैं। आप कहें तो दफ्तर के बाद मैं भी आपके साथ चलकर लोगों को समझा सकता हूं। मुझे बड़ी खुशी होगी। समाज- सेवा करना चाहिए।’

फूलचन्द घबरा कर बोला, ‘नहीं नहीं। आपको कष्ट करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आप दफ्तर में ही काफी बचत करवा रहे हैं, बाहर का काम हम कर लेंगे।’

प्रसाद जी हाथ जोड़कर बोले, ‘जैसी आपकी मर्जी। वैसे मेरी कभी ज़रूरत पड़े तो बताइएगा। देश के काम के लिए मैं हमेशा तैयार हूं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 557 ⇒ बादाम के दाम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बादाम के दाम।)

?अभी अभी # 557 ⇒ बादाम के दाम ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, यह आम का नहीं, बादाम का मौसम है, और बादाम का जन्म आम आदमी के लिए नहीं हुआ है। जब से यह आम भी कुछ खास हुआ है, बादाम भी थोड़ा थोड़ा आम हुआ है। आम आदमी भी आजकल, कम से कम, मैंगो शेक और बादाम शेक तो पीने लायक हो ही गया है।

आम अगर फलों का राजा है, तो बादाम सिर्फ़ एक ड्राई फ्रूट यानी सूखा मेवा! ड्राई फ्रूट मतलब रस हीन फल! जिनका जीवन वैसे ही नीरस है, उनका काम ड्राई फ्रूट अथवा सूखे मेवे से नहीं चलता, और जिन्हें अपना गला तर करना होता है, वहाँ देश, काल और परिस्थिति नहीं देखी जाती और अंगूर की बेटी का हाथ थाम लिया जाता है। एक बार जब गला तर होता है, तो कुछ चखना भी पड़ता है। जिन्होंने कभी चखी ही नहीं, वे क्या जानें चखना का स्वाद! हां, जहां माले मुफ़्त बेरहम होता है वहां भुने हुए काजू बादाम भी चखना का ही काम करते हैं।।

लेकिन जो रसिक और शौकीन चखने में विश्वास नहीं रखते, उनके लिए अगर ठंड में बादाम के जलवे हैं, तो गर्मी में हमारे आम के भी ठाठ निराले हैं। गर्मी में अगर आमरस पूड़ी, तो ठंड में बादाम का हलवा। लेकिन बस आम आदमी बादाम के दाम सुनकर ही बिदक जाता है।

आम के आम और गुठलियों के दाम! लेकिन आम आदमी गुठलियों के दाम की चिंता नहीं करता, आम चूसता है और छिलका और गुठली फेंक देता है। बेचारी बादाम, क्या नहाए और क्या निचोड़े! उसका तो छिलका क्या निकला, वह सिर्फ बादाम की गिरी बनकर रह गई। लेकिन उसके दाम के कारण ही उसे समाज में वह इज्जत और सम्मान प्राप्त है जो फलों के राजा को भी नहीं।।

बादाम के दाम चुकाने के बाद भी अगर हम बादाम के गुणों की तारीफ नहीं करें, तो हम उसके साथ न्याय नहीं कर रहे। पांच वर्ष की उम्र से हम सुनते आ रहे हैं कि रोज सुबह पांच भीगी हुई बादाम खाना चाहिए उससे सेहत और मस्तिष्क दोनों स्वस्थ रहते हैं। आम आपको एक आम इंसान ही बनाए रखता है जब कि बादाम आपको बुद्धिमान भी बनाती है।।

जब हमारे बादाम खाने के दिन थे, तब हम भुने हुए चने और मूंगफली खाकर ही अपनी सेहत बनाते थे। जब सर पर बाल ना हों, और मुंह में दांत, और याददाश्त भी जवाब दे गई हो, तब बादाम की याद आ ही जाती है। देर आयद दुरुस्त आयद।

क्या आप जानते हैं, बादाम का भी तेल निकलता है। कैसा लगता होगा इतनी महंगी बादाम को, जब उसका भी तेल निकलता होगा। हम तो यह सोचकर ही हैरान हैं कि जो बादाम ही इतनी महंगी है, उसका तेल कितना महंगा होगा।

यहां तो सरसों, मूंगफली और सोयाबीन के तेल के भाव ही आसमान छू रहे हैं। लेकिन अगर कॉस्मेटिक्स के विज्ञापन देखें तो वहां ककड़ी, आंवला, मेंहदी, क्रीम और बादाम साथ साथ नजर आयेंगे। कहीं फेसवॉश तो कहीं मॉइश्चराइजर। पूरा समाजवाद है सौंदर्य जगत के उत्पादों में।।

भले ही इंसान का तेल निकल जाए फिर भी कुछ लोग नियमित रूप से बादाम का तेल सर में लगाते हैं और उसी तेल से बदन की मालिश भी करते हैं। जान है तो जहान है। यह जनम ना मिलेगा दोबारा। पैसे को हाथ का मैल यूं ही नहीं कहा गया है। अगर आप अफोर्ड कर सकते हैं तो हम कोई आपको फोर्ड खरीदने का नहीं कह रहे, सिर्फ एक चम्मच बादाम का तेल गर्मागर्म दूध में लेकर देखें। बादाम में दम है ..! !

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 32 – बिल्ली का गाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बिल्ली का गाना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 32 – बिल्ली का गाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

यह कहानी है एक ऐसे गांव की, जहां की हर चीज़ अनोखी थी। गांव का नाम था “गायबपुर”, जहां लोग अजीबोगरीब शौक रखते थे। इस गांव में एक बिल्ली थी, जिसका नाम था “म्याऊं-सर”। म्याऊं-सर का एक खास शौक था – वह हर सुबह बांग्ला गाने गाने का शौक रखती थी। अब सवाल यह था कि एक बिल्ली गाने गा सकती है? लेकिन गायबपुर के लोग तो अपने मजेदार शौक के लिए जाने जाते थे, इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से ले लिया।

गांव के लोग म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए हर सुबह एकत्र होते। पहले तो गांव के लोग समझ नहीं पाए कि यह क्या हो रहा है, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत हो गई। म्याऊं-सर जब गाना शुरू करती, तो गांव में हलचल मच जाती। अब यह तो तय था कि गाना किसी इंसान का नहीं था, लेकिन लोग इसे सुनने के लिए बेताब रहते थे।

गांव के कुछ लोग इस स्थिति पर चिंता कर रहे थे। “क्या यह बिल्ली सच में गाना गा रही है?” एक बुजुर्ग ने कहा। “क्या हमें इसे गायक का दर्जा देना चाहिए?” दूसरे ने कहा। सब लोग एक-दूसरे की तरफ देखते रहे। अंततः गांव के प्रधान ने यह तय किया कि म्याऊं-सर को एक पुरस्कार देना चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि म्याऊं-सर को “सर्वश्रेष्ठ गायिका” का खिताब दिया जाएगा।

गांव के लोग इस फैसले से खुश थे, लेकिन कुछ लोग इसके खिलाफ थे। उन्होंने कहा, “यह सब बेतुकी बात है! एक बिल्ली को कैसे गायिका माना जा सकता है?” लेकिन प्रधान ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने म्याऊं-सर के लिए एक विशेष समारोह आयोजित किया, जिसमें गांव के सभी लोग शामिल हुए।

समारोह में म्याऊं-सर को एक स्वर्ण पदक और एक बड़ी सी मछली का तोहफा दिया गया। म्याऊं-सर ने गाने का काम जारी रखा और गांव के लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। लेकिन इसके साथ ही, गांव में कुछ नई समस्याएं भी आ गईं। अब गांव के लोग रोज म्याऊं-सर के गाने के लिए पैसे देने लगे थे। कुछ लोग तो म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए अपनी जमीन तक बेचने लगे।

गायबपुर में यह स्थिति धीरे-धीरे बढ़ती गई। अब तो गांव के बच्चे भी म्याऊं-सर के गाने के दीवाने हो गए थे। वे उसके गाने को सुनने के लिए स्कूल नहीं जाते थे। लेकिन फिर एक दिन, म्याऊं-सर अचानक गायब हो गई। गांव में हड़कंप मच गया। सब लोग म्याऊं-सर की तलाश में निकल पड़े। कुछ लोगों ने कहा, “शायद म्याऊं-सर किसी बड़े संगीत कार्यक्रम में भाग लेने गई होगी!” जबकि दूसरों ने कहा, “शायद वह अब गाना नहीं गाना चाहती।”

गांव के लोगों ने बहुत कोशिश की, लेकिन म्याऊं-सर का कोई सुराग नहीं मिला। लोगों ने कई दिन तक उसके लिए पूजा-पाठ किया, लेकिन वह वापस नहीं आई। अंत में, गांव के लोग इस बात को मानने लगे कि शायद म्याऊं-सर गाने का शौक छोड़ चुकी है। उन्होंने अपने-अपने काम में लगना शुरू किया।

कुछ महीने बाद, एक नया शख्स गांव में आया। उसका नाम था “गायकीपुर”, और वह खुद एक गायक था। उसने गांव वालों को बताया कि वह म्याऊं-सर की गायकी के बारे में सुन चुका है और उसे जानने के लिए आया है। गांव वालों ने उसे म्याऊं-सर की कहानी सुनाई और बताया कि कैसे उसने उन्हें अपनी गायकी से प्रभावित किया।

गायकीपुर ने कहा, “यह तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि असली गायकी क्या होती है?” गांव वालों ने चौंकते हुए कहा, “क्या मतलब?” गायकीपुर ने उन्हें समझाया, “गायकी तो इंसानों का काम है। बिल्ली का गाना तो एक मजाक है।”

गांव के लोगों ने इस पर गंभीरता से विचार किया। उन्होंने महसूस किया कि वे एक बिल्ली की वजह से अपने जीवन की अहमियत को भूल गए थे। म्याऊं-सर की गायकी एक मजाक बनकर रह गई थी, जबकि असली गायकी और संगीत की महत्वता को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया था।

इस घटना के बाद, गांव के लोग म्याऊं-सर को भूल गए और अपने असली सपनों की ओर बढ़ने लगे। गायबपुर ने फिर से अपने असली रंगों में लौटने की कोशिश की। और इस बार, कोई भी बिल्ली के गाने की बात नहीं करता। म्याऊं-सर अब केवल एक याद बन गई थी, एक हास्यास्पद लेकिन महत्वपूर्ण कहानी, जो इस बात की याद दिलाती थी कि कभी-कभी हम बेतुके शौक और हास्यास्पद चीज़ों में अपने असली लक्ष्यों को भूल जाते हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 268 ☆ व्यंग्य – तलाश बकरों की ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘तलाश बकरों की’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 268 ☆

☆ व्यंग्य ☆ तलाश बकरों की

सरकार के सब विभागों ने ज़ोर-शोर से विज्ञापन निकाले हैं। विज्ञापन बकरों के लिए है, ऐसे लोगों के लिए जो हर विभाग में किसी बड़े लफड़े के लिए ज़िम्मेदारी लेंगे। दे विल टेक द ब्लेम फ़ाॅर एवरी बिग स्कैम ऑर मिसडूइंग।

दरअसल कई दिनों से विभागों में यह चर्चा चल रही थी कि सरकारी विभागों में कोई न कोई लफड़ा, कोई न कोई भ्रष्टाचार होता ही रहता है, जिससे बच पाना बहुत मुश्किल है। कौटिल्य के शब्द अक्सर दुहराए जाते रहे कि ‘जैसे जीभ पर रखा रस इच्छा हो या न हो, चखने में आ ही जाता है, इसी प्रकार राज्य के आर्थिक कार्यों में नियुक्त अधिकारी, इच्छा हो या न हो, राजकोष का कुछ न कुछ तो अपहरण करते ही हैं।’ आर्थिक भ्रष्टाचार के अलावा रेल दुर्घटनाएं, पुलों का ध्वस्त होना, परीक्षा- पेपर लीकेज जैसी घटनाएं होती हैं जिससे मंत्री-अफसर संकट में पड़ते हैं और ज़िम्मेदारी थोपने के लिए बकरे की तलाश की जाती है।

यह बात भी चलती थी कि जब लफड़ा  उजागर होता है तो आखिरी छोर पर बैठे सबसे जूनियर और सबसे निर्बल कर्मचारी के ऊपर ठीकरा फोड़ दिया जाता है और ऊपर के लोग चैन की सांस लेते हैं। कारण यह है कि नेताओं-मंत्रियों पर तो हाथ डाला नहीं जा सकता क्योंकि पार्टी की छवि खराब होगी और वोट खतरे में पड़ेंगे। अफसरों को पकड़ेंगे तो शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए जूनियरमोस्ट को बलि का बकरा बना देना ही सबसे सुरक्षित होता है। इसी झंझट से मुक्ति पाने के लिए बकरों की सीधी भर्ती का निर्णय लिया गया।

अंग्रेज़ी में बलि के बकरे के लिए ‘स्केपगोट’ शब्द है जिसमें ‘गोट’ यानी ‘बकरा’ शब्द निहित है। ‘स्केपगोट’ शब्द की उत्पत्ति प्राचीन इज़राइल में हुई जहां पवित्र दिन पर एक बकरे के सिर पर समाज के सारे पाप आरोपित कर दिये जाते थे और फिर उसे जंगल में छोड़ दिया जाता था। इस तरह समाज साल भर के लिए पापमुक्त हो जाता था। यानी, ‘स्केपगोट’ वहां वही काम करता था जो हमारे यहां गंगाजी करती हैं।

गरीब, निर्बल लोग हमेशा रसूखदारों की गर्दन बचाने के लिए ‘स्केपगोट’ बनते रहे हैं। जैसे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दी जाती थी, ऐसे ही किसी दुर्घटना के बाद जनता के गुस्से को शान्त करने के लिए किसी मरे- गिरे बकरे को सूली पर चढ़ा दिया जाता है। कहीं पढ़ा था कि रसूखदार लोग मजबूर लोगों को अपनी जगह जेल में सज़ा काटने के लिए स्थापित करवा देते हैं।

अंग्रेज़ी में एक और दिलचस्प शब्द ‘व्हिपिंग बाॅय’ आता है जो कई देशों में उन लड़कों के लिए प्रयोग होता था जो राजकुमारों और रसूखदार लोगों के बालकों के साथ स्कूल भेजे जाते थे और जिन्हें रसूखदार बच्चों की गलतियों की सज़ा दी जाती थी। कारण यह था कि मास्टर साहब की हैसियत रसूखदारों के बच्चों को सज़ा देने की नहीं होती थी।

विज्ञापन में लिखा गया कि बकरा सिर्फ बारहवीं पास हो ताकि दस्तखत  वस्तखत कर सके। उसे दफ्तर के बाबू के बराबर तनख्वाह मिलेगी। उसे दफ्तर आने-जाने से छूट मिलेगी, दो-चार दिन में कभी भी आकर हाज़िरी रजिस्टर में दस्तखत कर सकेगा।

उसकी ड्यूटी सिर्फ इतनी होगी कि जब विभाग में कोई बड़ा लफड़ा हो जिसमें अफसर और दूसरे कर्मचारियों के फंसने का डर हो तो वह बहादुरी से अपनी गर्दन आगे बढ़ाये और कहे, ‘सर, आई एम द कलप्रिट। आई टेक द ब्लेम।’

विज्ञापन में यह ज़िक्र किया गया कि नियुक्ति से पहले बकरे की मनोवैज्ञानिक जांच होगी ताकि वह ऐन मौके पर डर कर ज़िम्मेदारी लेने से पीछे न हट जाए।

विज्ञापन में यह भी बयान किया गया कि बकरे के सस्पेंड होने पर उसकी पगार में कोई कटौती नहीं की जाएगी और जेल जाने की नौबत आने पर पूरी तनख्वाह उसकी फेमिली को पहुंचायी जाएगी। इसके अलावा उसके फंसने पर उसे बचाने के लिए महकमे की तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी।

इस नीति के बारे में पूछे जाने पर आला अफसर भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक ‘अंधेर नगरी’ का हवाला देते हैं जिसमें फांसी का फन्दा उसी के गले में डाला जाता था जिसके गले में वह अंट सकता था।

ताज़ा ख़बर यह है कि सिंधुदुर्ग में शिवाजी की 35 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित होने के एक साल के भीतर ज़मींदोज़ हो गयी है और उसके लिए मूर्तिकार की गिरफ्तारी हो गयी है। अब मूर्ति का प्रसाद पाने वाले ऊपर बैठे लोग निश्चिन्त हो सकते हैं। अब 60 फीट ऊंची नयी मूर्ति का टेंडर ज़ारी हो गया है। टेंडर में यह शर्त है कि मूर्ति 100 साल खड़ी रहनी चाहिए। उम्मीद है कि नये मूर्तिकार इस शर्त को खुशी-खुशी मान लेंगे क्योंकि 100 साल में वे खुद मूर्ति बनने लायक हो जाएंगे। बकौल  ‘ग़ालिब’, ‘ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक।’

उधर बिहार में पुल जितनी तेज़ी से बन रहे हैं उससे ज़्यादा तेज़ी से गिर रहे हैं। नतीजतन छोटे-मोटे बकरों को पकड़ कर लाज बचायी जा रही है, और जनता मजबूरी में नावों पर सवार होकर उनके पलटने से मर रही है। जब तक ज़िम्मेदारी ओढ़ने के लिए बकरे उपलब्ध हैं तब तक कोई चिन्ता की बात नहीं है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ “पुलिस अपने बाप की भी नहीं…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य-व्यंग्य  पुलिस अपने बाप की भी नहीं…)

☆ हास्य – व्यंग्य ☆ “पुलिस अपने बाप की भी नहीं…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

मैं सुबह अपने कम्पाउंड में पेड़ों को पानी दे रहा था । “भाई साहब कुछ पढ़ा आपने”, कहते हुए वर्माजी ने मेरे घर में प्रवेश किया ।

मैंने कहा – भाई जी आप तो हमेशा “कुछ सुना आपने” कहते हुए आया करते थे । आज “कुछ पढ़ा आपने” कहते हुए आ रहे हैं ? उन्होंने कोशिश करके हँसते हुए कहा- भाई साहब आपने तो बात ही पकड़ ली ।

मैंने कहा- प्यारे भाई इस समय तो मैं पानी का पाइप पकड़े हूँ और आप कह रहे हैं कि बात पकड़ ली !

उन्होंने कुछ रूठने के अंदाज में कहा- “भाई साहब आप भी”, मैंने कहा बस बस…इसके आगे “बड़े वो हैं” मत कहना ।

वर्मा जी ने खुलकर ठहाका लगाया । इसी समय मेरी श्रीमती जी चाय लेकर आ गईं । वर्मा जी ने सुर्र.. की लंबी आवाज के साथ चाय की पहली चुस्की मारी फिर कहा- भाई जी कुछ पढ़ा आपने ।

मैंने कहा- हाँ भाई, अभी अभी फेसबुक पर आदरणीय कुंदनसिंह परिहार जी का एक शानदार व्यंग्य पढ़ा है । एक बलात्कार पर चल रही राजनीति की ख़बरें भी पढ़ी हैं।

वे बोले- लेकिन आपने वो नहीं पढ़ा जिस पर मैं आपसे चर्चा करने आया हूँ ।

मैंने कहा- आप ही बता दें श्रीमान । वे बोले- एक अख़बार में छपे समाचार के अनुसार एक नेता जी ने कहा है कि “पुलिस की सुस्ती के कारण देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं । उन्होंने पत्रकारों से कहा कि “पुलिस वालों की नैतिकता ही ख़त्म हो गई है ।” पुलिस वाले खुद ही कहते हैं कि-“पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते ।” भाई साहब बताएं कि- पुलिस वालों की नैतिकता ख़त्म क्यों हो जाती है ? वे अपने बाप के भी क्यों नहीं होते ?

मैंने कहा- भाई जी लगता है आप मेरे हितैषी नहीं हैं इसलिए मुझसे ऐसे टेढ़े सवाल का जवाब चाहते हैं । लेकिन आपने पूछा है तो बताना ही पड़ेगा । मेरी बात सुनने वर्मा जी ने अपनी कुर्सी मेरे पास सरका ली । मैंने कहा- भाई जी आज सत्य-अहिंसा, धर्म-अधर्म, नैतिकता- अनैतिकता की सर्वमान्य परिभाषाएं नहीं रह गईं, लोगों ने इन्हें अपने अपने हिसाब से तैयार कर लिया है । इसलिए हो सकता है कि नेता जी और पुलिस की नैतिकता की परिभाषा में अंतर हो । नेता जी अपनी सोच के अनुसार सही हों और पुलिस अपनी सोच के अनुसार । वो आपने सुना नहीं- “फूलहिं फलहिं न बेत” का अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वान भिन्न-भिन्न बताते हैं । कुछ लोग कहते हैं बेत अर्थात बांस फूलता तो है, किन्तु फलता नहीं जबकि कुछ लोग कहते हैं कि बांस न फूलता है न फलता है । “फूलहिं फलहिं न”, अब आप किसे सच कहेंगे किसे झूठ ! दूसरी बात यह है वर्मा जी कि साधू और शैतान की संगत के अलग-अलग प्रभाव होते हैं । पुलिस की संगत में तो ज्यादातर अपराधी और नेता ही रहते हैं । अब आप ही सोचें कि पुलिस कैसी होगी ।

वर्मा जी बोले- भाई साहब आपने पुलिस के नैतिकता संबंधी सवाल को तो बढ़ी सफाई से निपटा दिया, किन्तु यह तो बताएं की ऐसा क्यों कहा जाता है कि “पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते?”

मैंने कहा- भाईजी आज कितने प्रतिशत बच्चे अपने बाप के होते हैं ? गलत न समझें, मेरा मतलब है अपने बाप के लिए समर्पित होते हैं । हम कितनी ख़बरें पढ़ते रहते हैं कि शराब के लिए, मकान-जमीन के लिए अथवा बुढ़ापे में देखरेख से बचने के लिए बेटे ने बाप को छोड़ दिया, उसे वृद्धाश्रम के हवाले कर दिया या उसकी हत्या कर दी । पुलिस वाले भी तो हमारे ही समाज के अंग हैं । बाप हो या भाई, उन पर तो निष्पक्ष रहने की शपथ भी चढ़ी रहती है । अब शपथ का कितना पालन होता है यह मत पूछना । “सत्यमेव जयते” के ठिकानों पर क्या क्या होता है सब जानते हैं । आप बताएं कि लोग “मजबूरी में गधे को बाप बनाते हैं कि नहीं?”

वर्मा जी बोले- भाई साहब, कहावत तो है ।

मैंने कहा- भाई जी कहावतों के पीछे वर्षों का अध्ययन और सच्चाई होती है । आखिर पुलिस वाले भी सरकारी कर्मचारी हैं और यदि उन्हें बिना परेशानी नौकरी करना है, प्रशंसा और प्रमोशन पाना है, मलाईदार थाने में बने रहना है, लाइन अटैच नहीं होना है तो अधिकारी रूपी या नेता रूपी गधों को बाप बनाना ही पड़ता है । इसीलिये ज्यादातर कलयुगी लोग पैदा करने वाले बाप से ज्यादा मान सम्मान उस बाप को देते हैं जिससे उन्हें तात्कालिक लाभ मिलता है । लाभ मिलना बंद हुआ तो ये बाप बदलने में देर नहीं लगाते । कल तक जो कल के नेता को सेल्यूट करके उनकी ड्यूटी बजाते थे आज किसी और के इशारे पर काम कर रहे हैं । सिर्फ पुलिस वाले नहीं वरन बहुत से अन्य विभागीय अधिकारी-कर्मचारी भी ऐसा ही करते हैं । यही सब कारण हैं जिनके आधार पर कहा जाता है कि “पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते।”

वर्मा जी ने आश्चर्य के भाव लिए मुझसे विदा मांगी जिसे मैंने तत्काल स्वीकृत कर लिया ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 31 – मतलबी पड़ोसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना मतलबी पड़ोसी।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 31 – मतलबी पड़ोसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

पड़ोसियों का जिक्र आते ही हमारे मन में तरह-तरह की छवियां बनने लगती हैं। कुछ पड़ोसी आपके जीवन के प्यारे साथी होते हैं, जबकि कुछ ऐसे होते हैं, जिन्हें देखकर ही हमें खौफ सा महसूस होता है।

मिलिए हमारे “महान” पड़ोसी से

गली के अंतिम घर में रहने वाले मिस्टर शर्मा को तो हर कोई जानता है। उनका पूरा नाम शायद “दूरदर्शी समाजसेवी” होना चाहिए था, क्योंकि उनकी निगाहें हमेशा आपके घर की हर गतिविधि पर होती हैं। सुबह-सुबह, जब आप दूधवाले से बात कर रहे होते हैं, तो शर्मा जी अपनी बालकनी से आपको ऐसे देखते हैं जैसे कोई अपराधी है। और जैसे ही आप अपने दूध के पैसों की गिनती करने लगते हैं, वो तुरंत नोट करते हैं कि आज आपने कितना दूध लिया।

“गेट-टुगेदर” का अनोखा अनुभव

अब बात करें मिसेज शर्मा की। उनकी रसोई से आने वाली खुशबू तो सभी को भाती है, लेकिन उनकी विशेषता यह है कि वो कभी भी अपने खाने की तारीफ सुनना नहीं भूलतीं। जब भी कोई गेट-टुगेदर होता है, मिसेज शर्मा को यह सुनिश्चित करना होता है कि वह अपने पकवानों का प्रचार-प्रसार करें। “अरे भाभी, क्या बनाया है?” जब आप पूछते हैं, तो उनका जवाब होता है, “अरे, वो तो एक साधारण डिश है, पर मैंने इसमें थोड़ा सा विशेष मसाला डाला है।” फिर वो आपको अपनी भतीजी के खाने की कला की कहानियां सुनाने लगती हैं।

मम्मी-पापा के सलाहकार

शर्मा जी का सबसे बड़ा टैलेंट यह है कि वो हर बात में विशेषज्ञता रखते हैं। अपने बच्चों की पढ़ाई से लेकर आपके पालतू कुत्ते की आदतों तक, शर्मा जी को हर चीज़ पर सलाह देने का शौक है। “बेटा, तुम्हारे बेटे को गणित में दिक्कत हो रही है? मैंने सुना है कि मेरी दीदी के बेटे ने ट्यूशन ली थी, तो तुम भी उसे भेज दो।”

आपकी भाभी कभी-कभी थक जाती हैं, लेकिन शर्मा जी का ज्ञान कभी खत्म नहीं होता। एक दिन तो उन्होंने आपके घर के सामने खड़े होकर इतनी सलाह दे दी कि आपको लगा, जैसे वो आपकी ज़िंदगी के कोच हैं।

चाय पर “विशेषज्ञता”

अब आते हैं चाय पर। आपके घर में जब भी कोई मेहमान आता है, शर्मा जी वहीं खड़े होते हैं। “अरे, चाय तो बनानी पड़ेगी,” वो अपने ज्ञान के साथ कहते हैं। चाय बनाते समय वो अपने “विशेष नुस्खे” को बखूबी बताते हैं। “देखो, चाय में थोड़ा अदरक डालने से उसका स्वाद और भी बढ़ जाता है।” जैसे ही आप अदरक डालते हैं, शर्मा जी की आंखों में चमक आ जाती है, जैसे उन्होंने कोई बड़ा रहस्य उजागर कर दिया हो।

तड़के की सैर का साजिश

हर सुबह की सैर में भी शर्मा जी का कोई मुकाबला नहीं। सुबह-सुबह पार्क में घूमते हुए, वो हमेशा आपको यह बताने की कोशिश करते हैं कि आप कितने आलसी हैं। “तुम्हें रोज़ सुबह सैर पर आना चाहिए, नहीं तो तुम्हारी सेहत बिगड़ जाएगी।” और अगर आप कभी सोते रह गए, तो शर्मा जी की आवाज़ गूंजती है, “अरे भाई, सैर पर क्यों नहीं आए?”

“सहायता” का ढोंग

जब भी आपके घर में कोई समस्या होती है, जैसे की बिजली चली जाना या कोई टूट-फूट हो जाना, तो शर्मा जी की मदद का ऑफर तुरंत आ जाता है। “अरे, अगर तुम्हें किसी चीज़ की जरूरत हो तो मुझे बता देना।” जबकि असल में, वो हमेशा अपनी मदद का फायदा उठाने की कोशिश में होते हैं। आपको अपने छोटे-मोटे कामों के लिए उनके पास जाना पड़ता है, और फिर वो आपको अपने काम का “सही” तरीका सिखाने लगते हैं।

पड़ोसी का “खास कनेक्शन”

एक बार तो शर्मा जी ने आपको बताया कि वो आपकी बीवी के साथ “खास कनेक्शन” में हैं। जब भी आपकी बीवी कोई नई डिश बनाती हैं, शर्मा जी वहाँ चुपके से खड़े होते हैं, जैसे वो खुद ही सास बन गए हों। “क्या खाना बना रही हो, भाभी?” और फिर उनकी प्रतिक्रिया, “अरे, तुम्हें इसे इस तरह से बनाना चाहिए।”

तो इस तरह, हमारे मतलबी पड़ोसी मिस्टर और मिसेज शर्मा हमेशा हमारी ज़िंदगी में कुछ नया और मजेदार लाने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी हम सोचते हैं कि इनसे बचकर रहना चाहिए, लेकिन फिर भी, ये हमारी ज़िंदगी का एक अटूट हिस्सा हैं। उनका ज्ञान, उनकी सलाह, और कभी-कभी उनकी दखलअंदाजी हमें हंसने पर मजबूर करती है। आखिरकार, जीवन में थोड़ी हास्य और मस्ती जरूरी होती है, और हमारे पड़ोसी इस बात का बेहतरीन उदाहरण हैं।

जब भी हम उनकी बातों को सुनते हैं, हमें याद आता है कि यही तो है पड़ोसी होने का असली मज़ा। तो अगली बार जब आप अपने पड़ोसी को देखें, तो मुस्कराइए, क्योंकि शायद वो भी आपके जीवन का एक मजेदार हिस्सा हैं!

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 30 – इमोशनल आईसीयू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना इमोशनल आईसीयू)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 30 – इमोशनल आईसीयू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

यह कहानी उस दिन की है जब पीताम्बर चौबे अपनी आखिरी सांस लेने के लिए जिले के सबसे ‘प्रसिद्ध’ सरकारी अस्पताल, भैंसा अस्पताल में भर्ती हुए। डॉक्टरों ने कहा था, “बस कुछ और दिनों की बात है, इलाज जरूरी है।” चौबे जी ने सोचा था, चलो सरकारी अस्पताल में जाकर इलाज करवा लेते हैं, पैसे भी बचेंगे और सरकारी व्यवस्था का लाभ भी मिलेगा। मगर क्या पता था कि यहाँ ‘एक्सपायर्ड’ का भी सरकारी प्रोटोकॉल है!

चौबे जी जब अस्पताल के वार्ड में पहुंचे, तो पहले ही दिन डॉक्टर साहब ने बताया, “ये सरकारी अस्पताल है, इमोशन्स का कोई स्कोप नहीं है। हम यहां इलाज करते हैं, बस।”

फिर वह दिन आया, जब पीताम्बर चौबे जी ने अस्पताल के बिस्तर पर आखिरी सांस ली। उनके बगल में खड़ी उनकी गर्भवती पत्नी, संध्या चौबे की दुनिया मानो थम सी गई। लेकिन अस्पताल में तो हर चीज़ ‘मैनेज’ होती है, और इमोशन्स का यहाँ कोई ‘कंसर्न’ नहीं होता। इधर चौबे जी का प्राणांत हुआ और उधर हेड नर्स, शांता मैडम, स्टाफ की भीड़ के साथ वार्ड में आ धमकीं। चेहरा ऐसा, मानो कोई ‘अल्टीमेट हाइजीन चेक’ करने आई हों।

“अरे संध्या देवी! ये बिस्तर साफ करो पहले। यहाँ पर्सनल लूज़ मोमेंट्स का कोई कंसेप्ट नहीं है, ओके? जल्दी क्लीनिंग करो,” नर्स ने एकदम हुक्मनामा सुना दिया। मानो चौबे जी ने सिर्फ एक बिस्तर गंदा किया हो, न कि अपनी जान गंवाई।

संध्या चौबे, जो अपने पति की मौत के गम में डूबी थीं, पर अस्पताल में संवेदनाएँ सिर्फ पब्लिक डिस्प्ले ऑफ इमोशन्स होती हैं। वह तो सरकारी दस्तावेज़ों में एक ‘इवेंट’ हैं, जिसे खत्म होते ही हटा देना होता है। नर्स ने जैसे ही अपना ‘ऑर्डर’ दिया, संध्या की आँखों से आँसू निकल पड़े। उसने बिस्तर की तरफ देखा, मानो अपने पति की आखिरी निशानी को आखिरी बार देख रही हो। लेकिन अस्पताल का स्टाफ मानो एकदम प्रोग्राम्ड मशीन हो, जिसका इमोशन्स से कोई वास्ता ही नहीं।

“मैडम, आँसू बहाने से कुछ नहीं होगा। ये सरकारी अस्पताल है, यहाँ आप ‘एमोशनल अटैचमेंट’ भूल जाइए,” हेड नर्स शांता बोलीं, मानो हर दिन किसी को उसकी भावनाएँ गिनाना उनका रोज का ‘डिपार्टमेंटल प्रोटोकॉल’ हो।

तभी डॉक्टर नंदकिशोर यादव साहब आते हैं, अपने हाथ में नोटपैड लिए हुए, और ऐलान करते हैं, “हमें यहाँ बिस्तर की क्लीनिंग चाहिए। इमोशन्स का यहाँ कोई स्कोप नहीं है। सरकारी बिस्तर पर बस पसीने और खून के दाग चलेंगे, आँसुओं का कोई प्लेस नहीं है।”

संध्या ने डॉक्टर की तरफ देखा। शायद कुछ कहने का प्रयास किया, लेकिन एक ऐसा दर्द, जो शब्दों में नहीं आ सकता। और डॉक्टर यादव ने एक और ‘प्रोफेशनल’ गाइडलाइन दी, “देखिए, यहाँ नया पेशेंट एडमिट करना है। ये अस्पताल है, आपका पर्सनल इमोशनल जोन नहीं!”

तभी सफाई कर्मी हरिचरण सिंह आते हैं, अपने कंधे पर झाड़ू और हाथ में एक पुरानी बाल्टी लिए हुए। “अरे भाभीजी! चलिए, जल्दी फिनिश करें, हमें भी अपना काम निपटाना है। यहाँ ये ‘इमोशनल ड्रामा’ का टाइम नहीं है।”

हरिचरण सिंह का डायलॉग सुनते ही नर्स शांता जोर से हंस पड़ीं, “देखो भई, हार्डवर्किंग स्टाफ है हमारा। भाभीजी, ये आँसू आपकी अपनी ‘पर्सनल केमिकल’ हैं, लेकिन यहाँ पब्लिक हाइजीन का प्रोटोकॉल है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो ये अस्पताल एक ‘इमोशनल पार्क’ बन जाएगा!”

संध्या चौबे को यह भी फरमान सुनना पड़ा कि उनके आँसू इस सरकारी बिस्तर की ‘प्योरिटी’ को खराब कर सकते हैं। मानो उनके पति की मौत और इस बिस्तर का ‘सैनिटाइजेशन’ एक ही मुद्दा हो। “ये बेड क्या मंदिर की मूर्ति है, जो उसकी पवित्रता बनाए रखनी है?” संध्या सोचने लगीं। लेकिन कौन सुने? यहाँ सबको सिर्फ काम का ‘आउटकम’ चाहिए था।

बिस्तर, जो किसी के आखिरी पल का गवाह बना, अब उसकी पहचान एक ‘डर्टी गारमेंट’ के रूप में बदल गई। चौबे जी का दुःख, उनकी मौत का दर्द, बस स्टाफ की भाषा में एक ‘मैनेजमेंट टास्क’ था, जिसका निपटारा भी उतनी ही बेरुखी से होना था। मानो बिस्तर पर कोई इंसान नहीं, बल्कि बस एक ‘ट्रॉले की एक्सपायर्ड प्रोडक्ट’ पड़ा हो।

यह समाज, यह व्यवस्था – जहाँ संवेदनाएँ सरकारी फाइल में ‘फॉर्मेलिटी’ बनकर रह जाती हैं, और लोग इस तरह की घटनाओं को मानो मनोरंजन की तरह देखते हैं। जैसे ही बिस्तर खाली हुआ, वैसे ही नए मरीज़ के लिए ‘स्पेस’ तैयार हो गया। आखिर सरकारी अस्पताल का काम चलता रहे, पीताम्बर चौबे का ‘इमोशनल केस’ यहाँ का मुद्दा नहीं था।

संवेदनाओं की ऐसी सरकारी व्यवस्था ने जैसे हर इंसान के भीतर एक ‘इमोशनल आईसीयू’ बना दिया है, जिसमें संवेदनाएँ तोड़ दी जाती हैं, लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 228 – “बैठे ठाले – एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है’” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है पितृपक्ष में एक विचारणीय व्यंग्य  – “बैठे ठाले – ‘एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है”।)

☆ व्यंग्य जैसा # 228 – “बैठे ठाले – ‘एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

एक ही शहर के तीन विधायक बैठे हैं एमएल रेस्ट हाऊस के एक बंद कमरे में। चखने के साथ कुछ पी रहे हैं, ठेकेदार दे गया है ऊंची क्वालिटी की। पीते पीते एक नेता बोला – ये अपने शहर से ये जो नया लड़का धोखे से इस बार जीत क्या गया है, बहुत नाटक कर रहा है, लोग जीतने के बाद अपनी कार के सामने बड़े से बोर्ड में लाल रंग से ‘विधायक’ लिखवाते हैं इस विधायक ने अपनी कार में ‘सेवक’ लिखा कर रखा है, अपना इम्प्रेशन जमाने के लिए हम सबकी छबि खराब कर रहा है, ठीक है कि चुनाव के समय हम सब लोग भी वोट की खातिर हाथ जोड़कर जनता के सामने कभी ‘सेवक’ कभी ‘चौकीदार’ कहते फिरते हैं पर जीतने के बाद तो हम उस क्षेत्र के शेर कहलाते हैं और रोज नये नये शिकार की तलाश में रहते हैं, रही विकास की बात तो विकास तो नेचरल प्रोसेस है होता ही रहता है, उसकी क्या बात करना, विकास के लिए जो पैसा आता है उसके बारे में सोचना पड़ता है।

दूसरे विधायक ने तैश में आकर पूरी ग्लास एक ही बार में गटक ली और बोला –  तुम बोलो तो…उसको अकेले में बुलाकर अच्छी दम दे देते हैं, जीतने के बाद ज्यादा जनसेवा का भूत सवार है उसको, हम लोग पुराने लोग हैं हम लोग जनता को अच्छे से समझते हैं जनता की कितनी भी सेवा करो वो कभी खुश नहीं होती। अरे धोखे से जीत गए हो तो चुपचाप पांच साल ऐश कर लो, कुछ खा पी लो, कुछ आगे बढ़ाकर अगले चुनाव की टिकट का जुगाड़ कर लो। मुझे देखो मैं चार साल पहले उस पार्टी से इस पार्टी में आया, मालामाल हो गया, बीस पच्चीस तरह के गंभीर केस चल रहे थे, यहां की वाशिंग मशीन में सब साफ स्वच्छ हो गए, वो पार्टी छोड़कर आया था तो यहां आकर मंत्री बनने का शौक भी पूरा हो गया, इतना कमा लिया है कि सात आठ पीढ़ी बैठे बैठे ऐश करती रहेगी, जनता से हाथ जोड़कर मुस्कुरा कर मिलता हूं, चुनाव के समय कपड़ा -लत्ता सोमरस और बहुत कुछ जनता को सप्रेम भेंट कर देता हूं, जनता जनार्दन भी खुश, अपन भी गिल्ल…. और क्या चाहिए। ये नये लड़के कुछ समझते नहीं हैं, राजनीति कुत्ती चीज है, ऊपर वाला नेता कब आपको उठाकर पटक दे कोई भरोसा नहीं रहता, कितनी भी चमचागिरी करो ऐन वक्त पर ये सीढ़ी काटकर नीचे गिरा देते हैं। अभी छोकरा नया नया है  हम लोग सात आठ बार के विधायक हैं हम लोग अनुभवी लोग हैं खूब राजनीति जानते हैं, लगता है एकाद दिन अकेले में कान उमेठ कर छोकरे को राजनीति और कूटनीति समझाना पड़ेगा।

तीसरा मूंछें ऐंठते हुए बोला – यंग छोकरा है  ज्यादा होशियार बनने की कोशिश कर रहा है अपन वरिष्ठों की इज्जत नहीं कर रहा है सबकी इच्छा हो तो विरोधी पार्टी की यंग नेत्री (जो अपनी खासमखास है) को भिजवा देते हैं एकाद दिन… पीछे से कोई वीडियो बना ही लेगा, फिर देखना मजा आ जायेगा। पहला वाला बोला – होश में आओ अपनी ही पार्टी से जीता है, गठबंधन सरकार में एक एक विधायक का बहुत महत्व होता है। अकेले में समझा देना नहीं तो नाराज़ होकर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लेगा, सुना है आजकल एक विधायक की कीमत पचीस से चालीस करोड़ की चल रही है। नया खून है, जल्दी गरम हो जाता है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य व्यंग्य  “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…”)

☆ हास्य – व्यंग्य ☆ “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

मैं मुम्बई से जबलपुर लौट रहा था, रात्रि में ट्रेन पूरी गति से दौड़ रही थी।

अचानक मेरी नजर अपने बाजू वाली बर्थ पर लेटे व्यक्ति की चमकदार गोल आंखों पर पड़ी। मुझे थोड़ा अजीब लगा फिर सोचा दुनिया में तरह तरह की आंखों वाले लोग हैं। नीली, लाल, भूरी, काली आंखों वाले लोग। मछली, हिरनी, उल्लू, सांप जैसी आंखों वाले लोग। होगा कोई, मुझे क्या। तभी अचानक गोल चमकदार आंखों वाला वह व्यक्ति मुझसे बोला श्रीवास्तव जी आपका शक सही है। मैंने कहा भाई आप मुझे कैसे जानते हैं और कौन से शक की बात कर रहे हैं? वह बोला भाई परेशान न हों मैं सब को पहचान लेता हूं। मैं इच्छाधारी नाग हूं, मुझे कुछ विशिष्ट शक्तियां प्राप्त हैं। रात के समय ट्रेन की बत्तियां बंद थीं उसकी चमकती आंखें देखकर और बातें सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया। उसने कहा श्रीवास्तव जी घबराएं नहीं आपका धर्म भी फुफकारना और डसना है और मेरा भी यही धर्म है, इसीलिए मैंने आपको अपना परिचय दिया। मैंने कहा यह कैसे हो सकता है, मैं सांप नहीं आदमी हूं। आदमी के वेश में ट्रेन की सीट पर लेटे इच्छाधारी सांप ने पहले मेरी ओर जहरीली मुस्कुराहट फेंकी फिर हंसा और कहा आदमी तो हो लेकिन व्यंग्यकार हो न इसीलिए तो कहा कि हम दोनों का फुफकारने और डसने का धर्म एक ही है। इच्छाधारी अचानक कुछ उदास हो गया।

मैंने कहा भाई क्या बात है? इतने शक्ति सम्पन्न होने के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर उदासी? वह बोला सही बात है, जब भी किसी व्यंग्यकार को देखता हूं तो उदास हो जाता हूं क्योंकि आप लोग मुझसे ज्यादा शक्तिशाली हैं। मैंने कहा – इच्छाधारी जी क्यों मजाक कर रहे हो! वह बोला – व्यंग्यकारों की नजर और सूंघने की शक्ति मुझसे बहुत तेज होती है उन्हें न जाने कहां से लोगों के बारे में सब जानकारी हो जाती है और वे लिखकर फुफकार भी मारते रहते हैं और डस भी लेते हैं। भाई जी हम तो जिसे डसते हैं वह मात्र कुछ क्षण छटपटा कर मर जाता है, लेकिन जब आप अपनी कलम से किसी को डसते हैं तो उसे आजीवन अपमान का मृत्यु तुल्य दर्द झेलना पड़ता है। अब बताइए आप बड़े की मैं? मैंने कहा – इच्छाधारी जी जब आप सब जानते हैं तो यह भी जानते होंगे कि मैं सिर्फ व्यंग्यकार हूं बड़ा नहीं। इच्छाधारी मुस्कुराया और बोला श्रीवास्तव जी आज लेखन की हर विधा में दो प्रकार के लोग हैं, एक वे जो वास्तव में जानकार और विद्वान हैं, जिनके पास प्रशंसक तो हैं पर चापलूस नहीं  दूसरे वे जो स्वयं को बड़ा समझते हैं और अपने बड़े होने का निरंतर प्रचार प्रसार कराते रहते हैं इनके पास प्रशंसक तो नहीं होते,चापलूस होते हैं। ये सृजन से अधिक जुगाड़ की शक्ति पर भरोसा करते हैं और सरकारी गैर- सरकारी सम्मान, पुरस्कार लेकर स्वयं पर श्रेष्ठ होने का ठप्पा लगवा लेते हैं। इच्छाधारी जी आगे बोले – श्रीवास्तव जी रामधारी सिंह “दिनकर”, मन्नू भंडारी, परसाई जी आदि की बात अलग थी उन्हें छोड़िए और बताइए की आज जितने भी कथाकार, कवि, नाटककार अथवा व्यंग्यकार हैं अथवा जो भी राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए छटपटा रहे हैं उनमें से कितने लोगों का लिखा हुआ आपकी समझ में आता है?

इच्छाधारी के प्रश्न पर मैंने मौन रहना उचित समझा। सोचा कोई टिप्पणी करके क्यों आज के बड़े तथाकथित रचनाकारों से बुराई लूं, वे सब लोग ही तो पुरस्कार और सम्मान समितियों के चयनकर्ता बने बैठे हैं। हो सकता है किसी के दिमाग में अगले बड़े सम्मान के लिए मेरा नाम चल रहा हो।

मेरी चुप्पी से इच्छाधारी ने मेरा मन पढ़ लिया वह मुस्कुराते हुए बोला – व्यर्थ उम्मीद न लगाएं आपको सम्मान दिलाने में किसी की रुचि नहीं है। मैंने कहा क्यों भाई मुझमें क्या कमी है? उसने कहा – क्योंकि आप सिर्फ व्यंग्यकार हैं, सम्मान प्राप्त करने के लिए व्यंग्य बाणों के साथ – साथ “चापलूसी का हथियार” चलाना भी आना चाहिए। मैंने प्रश्न किया इच्छाधारी जी कृपया बताएं मुझे चापलूसी नामक हथियार चलाना कौन सिखा सकता है? वह जोर से हंसा फिर सांसों पर नियंत्रण करके बोला – यह जन्मजात गुण है प्यारे भाई, इसे सिखाया नहीं जा सकता। इच्छाधारी ने आगे कहा आप तो अपने साथियों को रचनाएं सुना – सुना कर प्रसन्न रहें।

मैंने चौंकते हुए कहा – अरे आप मेरे साथियों के बारे में भी जानते हैं! वह बोला, भाई जी मैं सबको जनता हूं, आप कहें तो नाम गिना दूं। आखिर आप सब फुफकारने – डसने वाले मेरे ही धर्म के लोग हैं। मैंने कहा भाई जी जब आप सबको जानते हैं तो इतना बता दें कि हमारे साथियों में से कौन भाग्यशाली बड़ा सम्मान पाने की योग्यता रखता है? इच्छाधारी हंसा फिर बोला – अच्छे रचनाकार तो सभी हैं लेकिन सभी नर्मदा का पानी पीकर अक्खड़ हो गए हैं, चापलूसी का हथियार चलाना कोई नहीं जानता अतः आप सब बड़े सम्मान की उम्मीद न करें और निःस्वार्थ नगर के बाहर के रचनाकारों का सम्मान करके उन्हें बड़ा बनाने की संस्कारधानी की परम्परा निभाएं।

मैंने निराश होते हुए कहा – क्या हममें से किसी को राष्ट्रीय स्तर का कोई सम्मान नहीं मिल सकता? इच्छाधारी कुछ सोचता हुआ बोला – मिल सकता है, यदि पुरस्कार चयन समिति के सदस्यों को कोई यह ज्ञान दे दे कि इनमें से किसी को सम्मान के लिए चुन लेने पर चयन समिति पर लगा यह धब्बा मिट जायेगा कि समिति के सदस्य सिर्फ चमचों को ही पुरस्कृत करते हैं। मैंने कहा – इच्छाधारी जी चयन समिति के सदस्यों के दिमाग में इस बात को आप ही प्रविष्ट करा सकते हैं कृपया मदद करें।

वह बोला, मुझे आप लोगों से हमदर्दी है किंतु क्या करूं पहले नाग वेश में ट्रेन में घुसकर मुफ्त यात्रा कर लेता था किंतु विगत दिवस आपके मित्रों ने मेरे गरीबरथ में यात्रा करने का इतना हल्ला मचा दिया कि अब मुझे आदमी के वेश में टिकट लेकर रेल यात्रा करना पड़ रही है। आप लोगों के काम से न जाने कहां कहां जाना पड़ेगा, न जाने कितना पैसा खर्च होगा? बातों बातों में रास्ता काट गया, जबलपुर आने वाला था। मैंने मनुष्य रूपी उस इच्छाधारी नाग से प्रार्थना करते हुए कहा कि भाई आप ही ने तो कहा था कि हम लोग फुफकारने – डसने वाले एक ही धर्म के लोग हैं। वह मुस्कुराया, हाथ मिलाकर विदा लेता हुआ बोला कि ठीक है प्रयत्न करूंगा।

वह नाग रूप धारण कर पटरियों के बीच गायब हो गया।

अब मुझे घर पहुंचने की जल्दी थी अतः मैंने आटो रिक्शा पकड़ने प्लेटफार्म से बाहर का रुख किया।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 29 – सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 29 – सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

किसी ने सही कहा है, “नेताओं का सबसे बड़ा काम यह है कि वे जनता की आँखें जनता के द्वारा फुड़वाते हैं।” और यह काम हमारे सच्चे नायक, श्रीमान रामानंद जी ने बखूबी किया। वह एक राजनेता नहीं, बल्कि एक ‘मसीहा’ थे। उनके पास हर समस्या का समाधान था—बस उसे किसी न किसी तरीके से ‘घुमा-फिरा’ कर पेश करना होता था।

रामानंद जी का कार्यक्षेत्र बड़ा था, हालांकि यह कार्यक्षेत्र केवल उन्हीं के घर तक सीमित था। उनका बड़ा आदर्श वाक्य था, “हम जो कहें, वही सच है। और सच को समझने के लिए हमें हमेशा थोड़ी देर रुककर उसका पुनः मूल्यांकन करना चाहिए।” इस वाक्य को सुनकर तो लोग चकरा जाते थे, लेकिन इसका मतलब बहुत गहरा था, यह वही बानी थी, जिससे लोग उन्हीं को समझते थे, बिना समझे।

एक दिन रामानंद जी अपने कार्यलय में व्यस्त थे। उनके पास कुछ बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे थे—मसलन, सड़क के गड्ढे भरवाने का निर्णय और नल के पानी को इतना साफ करने का ऐतिहासिक निर्णय, जिससे लोग उसका रंग देख सकें। इन मुद्दों के साथ वे एक बेहद अहम बैठक करने वाले थे। पर एक अजीब घटना हुई, जो ना तो रामानंद जी की योजना का हिस्सा थी, और ना ही किसी के लिए सहज रूप से समझी जा सकती थी।

दरअसल, रामानंद जी के पास एक फाइल आई थी, जो एक नई सड़क के निर्माण से संबंधित थी। सड़क की डिजाइन इतनी अद्भुत थी कि किसी को समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह सड़क किसे जोड़ी जाए—क्या यह स्कूल के बच्चों के लिए थी, या फिर वो रास्ता था, जिस पर राजनेताओं के काफिले को तेजी से गुजरना था। जैसे ही फाइल पर एक नजर डाली, रामानंद जी ने कहा, “ये सड़क तो हमें खुद बनाने की जरूरत नहीं है, ये तो खुद बनाई जाएगी।”

और फिर, जैसे ही बैठक खत्म हुई, एक नया फॉर्मूला सामने आया: “जनता के मुद्दे पर इतना विचार करने की कोई जरूरत नहीं, अगर उनके पास सड़क नहीं है, तो चलने का क्या फायदा।” इस महान विचार को सुनकर उनके सभी कर्मचारी भौंचक्के रह गए, लेकिन वे जानते थे कि यह एक गहरी राजनीति का हिस्सा था।

इसी बीच, रामानंद जी की टीम ने एक नया विकास कार्यक्रम प्रस्तुत किया—”भारत स्मार्ट बनेगा, अगर हम इसे थोड़ा और स्मार्ट बना लें।” यह विचार उन्होंने खुद ही खड़ा किया था, और अब इसे लागू करने का वक्त था। इसका पहला कदम था ‘स्मार्ट वॉटर सप्लाई’। स्मार्ट वॉटर सप्लाई का मतलब था कि पानी में कुछ न कुछ ऐसी सामग्री मिलाई जाएगी, जिसे पीकर लोग खुद को स्मार्ट महसूस करेंगे, और उनकी अज्ञानता भी घट जाएगी। पानी में कुछ जड़ी-बूटियों का मिश्रण करने के लिए एक वैज्ञानिक को नियुक्त किया गया, जो इस उपक्रम में सफलता पाने के लिए न जाने कितनी रातें जागता रहा। अंततः, जब पानी का टेस्ट हुआ, तो लोग इसको पीने के बाद, स्मार्ट तो क्या, अपनी नाक से ही परेशान हो गए।

रामानंद जी के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ चुका था। अब उन्होंने एक नया कदम उठाया—’जनता की शिकायतें दूर करना’। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने एक विशाल कंट्रोल रूम स्थापित किया, जहां सभी शिकायतें दर्ज की जाती थीं। यह कंट्रोल रूम इतना बड़ा था कि किसी भी शिकायत को पंजीकरण से पहले, उन पर सिर्फ एक लकीर खींची जाती थी। रामानंद जी ने इसका नाम दिया “लकीरी व्यवस्था”। इसके बाद, किसी भी शिकायत के समाधान से पहले, वे शिकायतकर्ताओं को बुलाकर एक प्रेरक भाषण देते थे, ताकि वे समझ सकें कि आखिर क्यों उनकी समस्या इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। यह तरीका बड़ा कारगर साबित हुआ, क्योंकि अब शिकायतें आई ही नहीं।

एक दिन रामानंद जी के सामने एक और समस्या आई—विकास कार्यों के लिए धन की कमी। पर वे निराश नहीं हुए। “धन की कमी से कोई फर्क नहीं पड़ता,” उन्होंने कहा, “हमारे पास हर समस्या का समाधान है, बशर्ते उसे सही तरीके से घुमाया जाए।” और फिर, उन्होंने ‘विकास की गति’ को धीमा कर दिया। यह तरीका इतना सटीक था कि अब सब कुछ स्थिर था—न कोई सड़क बन रही थी, न कोई पानी साफ हो रहा था, लेकिन सब लोग बहुत खुश थे।

आखिरकार, रामानंद जी ने एक और बेमिसाल घोषणा की: “हम विकास के नाम पर किसी भी उन्नति की जरूरत नहीं समझते। हम जो हैं, उसी में खुश हैं।” यह घोषणा सुनकर जनता भी खुश हो गई। अब वे विकास के बारे में चिंता नहीं करते थे, क्योंकि रामानंद जी का भरोसा था—”जिसे जो चाहिए, वो यही कर सकता है।”

और इस तरह, रामानंद जी ने अपने कार्यकाल को सफलतापूर्वक पूरा किया, बिना किसी परिणाम के। यह कहानी एक सच्चे नेता की है, जो सच में जानता था कि कैसे झूठ को इतने सफाई से पेश किया जाए कि वह सच जैसा लगे।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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