(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खिसका धूप – छाँव का आँचल…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 168 ☆
☆ खिसका धूप – छाँव का आँचल… ☆
अगर परिवर्तन की इच्छा है, तो जीवन में आने वाले उतार – चढ़ावों से विचलित नहीं होना चाहिए, जो आज है, वो कल नहीं रहेगा ये सर्वमान्य सत्य है, इसलिए आपको जो भी दायित्व मिले उसे ऐसे निर्वाह करें जैसे ये आपका पहला व अन्तिम प्रोजेक्ट है। इसमें पूरी ताकत लगा दें क्योंकि बिना योग्यता को सिद्ध किये कोई आप पर भरोसा नहीं कर सकता।
इस संदर्भ में एक बात ध्यान देने योग्य है कि यदि सोच सच्ची है तो राह और राही दोनों आपको उम्मीद से बढ़कर सहयोग करेंगे। बस दिव्य शक्ति पर विश्वास होना जरूरी है क्योंकि यही विश्वास आपको मंजिल तक ले जाने में श्री कृष्ण की तरह सारथी बनकर, डगमगाने पर गीता का उपदेश देकर सम्बल बढ़ाते हुए विजयी बनाएगा।
आते-जाते हुए लोग विपक्षी दल की भूमिका निर्वाह करते हुए भले ही लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला दें किन्तु अच्छे कार्यों को करते हुए सत्ता पक्ष की तरह सशक्त दूरगामी निर्णय लेना चाहिए। जीवन कब करवट बदल ले इसे कोई नहीं बता सकता लेकिन जो सच्चे मन से परिश्रम करता है उसके लिए देव स्वयं धरती पर आकर नेकी का मार्ग प्रशस्त्र करते हैं। दूषित भावों से जोड़े गए पत्थर कभी मजबूत इमारत खड़ी नहीं कर पाते, जब तक बुनियाद के खम्बे निष्पक्ष नहीं होंगे तब तक दिवास्वप्न देखते रहिए, शेखचिल्ली बनकर सबका मनोरंजन करने का हुनर कोई आसान कार्य नहीं है।
अतः पूर्ण मनोयोग से अपने कार्यों को करें सफलता स्वागत के लिए तैयार है। भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाकर ही हम विश्व को नयी राह दिखायेंगे इसलिए निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर रहें।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – चूं चूं की खोज…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 231 ☆
व्यंग्य – चूं चूं की खोज…
हम अनुभवी बुद्धिजीवी हैं। ये और बात है कि खुद हमारे बच्चे भी हमारी बुद्धि से ज्यादा गूगल के ज्ञान पर पर भरोसा करते हैं। हमारी अपनी एक पुरानी अनुत्तरित समस्या है, जो हमें अपने स्वयं को पूर्ण ज्ञानी समझने से बरसों से रोके हुये हैं। हमारा यक्ष प्रश्न है, कक्षा आठ के हिन्दी के पाठ में पढ़े मुहावरे ” चूं चूं का मुरब्बा ” में, आखिर चूं चूं क्या है ? चूं चूं की खोज में हमने जीव विज्ञान की किताबें पढ़ी। जू के भ्रमण पर गये तो उत्सुकता से चूं चूं की खोज में दृष्टि दौड़ाई। फिर हमने सोचा कि जिस तरह आंवले का मुरब्बा होता है, हो सकता है चूं चूं भी किसी बिरले फल का नाम हो। तो वनस्पति शास्त्र की पुस्तकें खंगाल डाली बाग बगीचे जंगल घूमे। चूंकि चूं चूं का मुरब्बा हिन्दी मुहावरे में मिला था, और उससे कुछ कुछ व्यंग्य की बू आ रही थी सो हमने जोशी रचनावली, त्यागी समग्र और परसाई साहित्य में भी चूं चूं को ढूंढ़ने की कोशिश की, किन्तु हाथ लगे वही ढाक के तीन पात। चूं चूं का राज, राज ही बना हुआ है।
फिर हमारा विवाह हो गया। हर मुद्दे पर “मैं तो जानती थी कि यही होगा” कहने वाली हमें भी मिल गई। मुरब्बे बनाने में निपुण पत्नी से भी हमने चूं चूं के मुरब्बे की रहस्यमय रेसिपी के संदर्भ में पूछा। पत्नी ने बिना देर किये मुस्कराते हुए पूरी व्यंजन विधि ही बता दी। उसने कहा कि सबसे पहले चूं चूं को धोकर एक सार टुकड़ो में काटना होता है, स्वाद के अनुसार नमक लगाकर चांदनी रात में देर तक सुखाना पड़ता है। चीनी की एक तार चाशनी तैयार कर उसमें चांदनी में सूखे चूं चूं डाल कर उस पर काली मिर्च और जीरा पाउडर भुरक कर नीबू का रस मिला दें और अगली आठ रातों तक कांच के मर्तबान में आठ आठ घंटे चांदनी में रखना होता है, तब कहीं आठवें दिन चूंचूं का मुरब्बा खाने लायक तैयार हो पाता है। इस रेसिपी के इतने कांफिडेंट और आसानी से मिल जाने से मेरी नजर में पत्नी का कद बहुत बढ़ गया। मुझे भरोसा है कि वे सारे लोग पूरे के पूरे झूठे हैं जो सोचते हैं की चूं चूं का मुरब्बा वास्तविकता न होकर, सिर्फ एक मुहावरा है।
किन्तु वही समस्या सत्त्र बादरायण की कथा की खोज सी, जटिल हो गई। पुरच्या तो तब बने जब हूं हूं मिले। पूं हूं कहां से लाई जाने ? देश विदेश भ्रमण, भाषा विभाषा, धर्म जातियों, शास्त्रों उपसास्त्रों के अध्ययन के बाद भी कहीं यूं का कुछ पता नहीं लगा। सुपर मार्केट है कामर्स अमेजन से लेकर अली बाबा एक्सप्रेस एक और मुगल से विकी पीडीया तक सर्च के बाद भी अब तक चूं हूं नहीं मिली तो नहीं ही मिली। नौकरी में अफसरों के आदेशों मातहतों की फाइलों को पढ़ा, उनके विश्वशेन द लाइन्स निहितार्थ समझे। नेता जी के इशारे समझे डाक्टरों की घसीटा हँडराइटिंग वाले पर्थों पर लिखी दवायें डिकोड कर ली पर इस चूं चूं को मैं नासमझ कभी समझ ही नहीं पाया।
मुझे तो लगने लगा है कि चूं चूं की प्रजाति ही डायनासोर सी विलुप्त हो चुकी है। या शायद जिस तरह इन दिनों उसूलों की घरेलू गौरख्या सियासत के जंगल में गुम हो रही है शायद उसी तरह चूं चूं भी एलियन्स शी समय की भेंट चढ़ चुकी है। हो सकता है कहीं कभी इतिहास में सत्ता का स्वाद चखते के लिए राजाओं, बादशाहों, शौकीन सियासतदानों ने पौरुष शक्ति बढ़ाने के लिये कही चूं चूं के मुरब्बे का इतना इस्तेमाल तो नहीं कर डाला कि हमारे लिये चूं चूं बच्ची ही नहीं। एक आशंका यह भी है कि कहीं लोकतंत्र से में जीत की अनिश्चितता से निजात पाने राजनैतिक पार्टियों ने अपनी बपौती मानकर चुनावों से पहले ही फ्री बिज के रूप में इतना मुरब्बा मुफ्त में तो नहीं बांट दिया कि चूं चूं सदा के लिये “लापता” हो गई। संसद, विधान सभा के भव्य भवनों के रोशनदानों, संग्रहालयों, धूल खाते बंद से पुस्तकालयों, हर कहीं मेरी चूं चूं की खोज जारी है। “यह दुनियां गजब की” है कब कहां चूं चूं मिल जाये क्या पता। “दिल है कि मानता ही नहीं” सोचता हूं एक इश्तिहार छपवा दूं, ओ चूं चूं तुम जहां कहीं भी चली आओ तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। अथवा व्हाट्सअप पर यह संदेश ही डाल दिया जाये कि जिस किसी को चूं चूं मिले तो जरूर बताए, शायद “परिक्रमा” करते हुये कभी, यह मैसेज किसी चूं चूं तक पहुंच ही जाये। “यत्र तत्र सर्वत्र” खोज जारी है, शायद किसी दिन अचानक “जीप पर सवार चूं चूं ” हम तक वापस आ ही जाये “राग भोपाली” सुनने। यद्यपि मेरा दार्शनिक मन कहता है कि चूं हूं जरूर उस अदृश्य आत्मा का नाम होगा जिसकी आवाज पर नेता जनता के हित में दल बदल कर सत्ता में बने रहते हैं।
संभावना है कि चूं चूं यांत्रिक खटर पटर की तरह वह कराह है, जिससे उन्बील पुरै हाईस विरोधी मेंढ़कों ने एक पलड़े पर एकत्रित होकर चूं चूं के मुरम्बे सा कुछ तो भी बना तो दिया है। जिसके शैफ पटना, बैंगलोर, मुंबई में अपने कुकिंग क्लासेज चला रहे थे। बहरहाल आपको चूं चूं दिखें तो बताईयेगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “हिंदी डे”।)
अभी अभी # 157 ⇒ हिंदी डे… श्री प्रदीप शर्मा
पिंकी ने स्कूल से घर आते ही अपनी माँ से प्रश्न किया, माॅम, ये हिंदी डे क्या होता है ! मेम् ने हिंदी डे पर हिंदी में ऐसे essay लिखने को कहा है !
बेटा, जैसे पैरेंट्स डे होता है, वैलेंटाइन्स डे होता है, वैसे ही हिंदी डे भी होता है। इस दिन हम सबको हैप्पी हिंदी डे विश करते हैं, एक दूसरे को बुके देते हैं, और हिंदी में गुड मॉर्निंग और गुड नाईट कहते हैं।।
मॉम, यह निबंध क्या होता है ? पता नहीं बेटा ! सुना सुना सा वर्ड लगता है। उनका यह वार्तालाप मंगला, यानी उनकी काम वाली बाई सुन रही थी ! वह तुरंत बोली, निबंध को ही एस्से कहते हैं, मैंने आठवीं क्लास में हिंदी दिवस पर निबंध भी लिखा था।
पिंकी एकाएक चहक उठी !
मॉम ! हिंदी में essay तो मंगला ही लिख देगी। इसको हिंदी भी अच्छी आती है ! मंगला को तुरंत कार्यमुक्त कर दिया गया। मंगला आज तुम्हारी छुट्टी। पिंकी के लिए हिंदी में, क्या कहते हैं उसे,
हाँ, हिंदी डे पर निबंध तुम ही लिख दो न ! तुम तो वैसे भी बड़ी फ़्लूएंट हिंदी बोलती हो, प्लीज़।।
मंगला ने अपना सारा ज्ञान, अनुभव और स्मरण-शक्ति बटोरकर हिंदी पर निबंध लिखना शुरू किया। उसे एक नई कॉपी और महँगी कलम भी उपलब्ध करा दी गई थी। मुसीबत और परिस्थिति की मारी मंगला को वैसे भी मज़बूरी में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। लेकिन पढ़ाई में उसकी रुचि कम नहीं हुई थी। वह खाली समय में अखबार के अलावा गृहशोभा और मेरी सहेली के भी पन्ने पलट लिया करती थी।
और ” हिंदी दिवस ” पर मंगला ने बड़े मनोयोग से निबंध तैयार कर ही लिया। पिंकी और उसकी मॉम बहुत खुश हुई। पिंकी ने उस निबंध की सुंदर अक्षरों में नकल कर उसे असल बना स्कूल में प्रस्तुत कर दिया।।
पिंकी के हिंदी डे के essay को स्कूल में प्रथम पुरस्कार मिला और मंगला को भी पुरस्कार-स्वरूप सौ रुपए का एक कड़क नोट और एक दिन का काम से ऑफ..!!
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उर विहग सा उड़ रहा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 167 ☆
☆ उर विहग सा उड़ रहा… ☆
कोई कुछ अच्छा करना चाहे तो उसे प्रोत्साहित करना, मनोबल बढ़ाना, नए लोगों को जिम्मेदारी देना साथ ही साथ हर संभव मदद करना यही सच्चे मोटिवशनल लीडर के लक्षण हैं ।नेतृत्व भी उन्हीं लोगों के हाथों में रहता है जो सबके हित में अपना हित समझते हैं और दूसरों की खुशी को अपनी खुशी समझ कर साझा करते हैं ।
सुपथ पर चलने से शीघ्र लक्ष्य प्राप्त होता है । अतः प्रकृति की तरह केवल देना सीखें बिना स्वार्थ के ।अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करें ,लोग क्या कहेंगे इसकी परवाह न करते हुए अपने लक्ष्य को तय कर सही योजना बना कर लक्ष्य भेदी बनें ।वक्त की धारा के अनुरूप जो बदलना जानते हैं या चाहते हैं वे हमेशा प्रसन्न रहते हैं परन्तु अधिकांश लोग लकीर के फकीर बन अपनी समस्याओं का इतना रोना रोते हैं कि उनको देखते ही लोग रास्ता बदल लेते हैं ।
जब मौसम, परिवेश, रिश्ते, उम्र, स्वभाव व यहाँ तक कि अपने भी समयानुसार बदल जाते हैं, तो हमें यह समझ होनी चाहिए कि कैसे बदलाव को सहजता से अपनी दिनचर्या का अंग बनाएँ।आप किसी भी सफ़ल व्यक्ति को देखिए वो सदैव प्रसन्न चित्त दिखता है, इसका मतलब ये नहीं कि उसका जीवन फूलों की सेज है दरसल सच्चाई तो यही है कि फूलों तक पहुँचने का रास्ता काँटो से ही होकर जाता है , ये बात अलग है कि लोगों को सिर्फ फूल दिखते हैं ।
इसलिए हर परिस्थितियों को जीवन का उपहार मानते हुए अपनों के साथ उनकी तरक्क़ी में ही स्वयं का सुख ढूंढते हुए मुस्कुराते रहें क्योंकि सफलता का असली मजा अपनों के साथ ही आता है ।
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “पाठकों से भी पल्ला झाड़ लेने का दौर”।)
☆ शेष कुशल # 33 ☆
☆ व्यंग्य – “पाठकों से भी पल्ला झाड़ लेने का दौर”– शांतिलाल जैन ☆
प्रिय पाठक,
कृपया इस लेख को सावधानी से पढ़ें. हँसते हँसते आपके पेट में दर्द हो सकता है; जोर से हँसते-हँसते आपको दिल का दौरा भी पड़ सकता है, आप परलोक भी सिधार सकते हैं; संपादक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. ये भी हो सकता है कि लेख पढ़कर आप अपना सिर किसी दीवार से फोड़ लें; आप अपनी रिस्क पर पढ़ें; संपादक एवं प्रकाशक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. गोया पठन-पाठन नहीं हुआ धूम्रपान हो गया, सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. मुद्रित शब्द आपके वैचारिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं.
पाठकों के लिए जारी की जानेवाली चेतावनियाँ अब फेंटेसी नहीं है, यथार्थ है. पिछले दिनों मैंने एक अंग्रेजी अखबार में पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यासों और लघु कथाओं के ताज़ा संस्करणों को प्रकाशकों द्वारा इस चेतावनी के साथ पुनः प्रकाशित किया गया है कि रचना की भाषा, लेखकीय दृष्टिकोण और उसका सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व कुछ पाठकों को अप्रिय लग सकता है; प्रकाशक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. ‘ये लेखक के निजी विचार हैं’ – लेखकों की ओर से पल्ला पहले ही झाड़ चुके संपादक अब पाठकों के प्रति जवाबदेही से भी दूर जा रहे हैं. जो इन दिनों प्रकशित की जाती महाकवि कालिदास की ‘कुमारसंभव’ तो पहले पन्ने पर छपा होता – रचना पढ़ते समय पाठक खतरनाक ढंग से रोमांटिक हो सकता है. विक्रमादित्य प्रकाशन प्रायवेट लिमिटेड, उज्जयिनी इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे.
निज़ाम नया, दौर नया. सिनेमा भी आप अपनी रिस्क पर देखें, देशभक्ति के जोश में पासवाली कुर्सी का दर्शक आपकी धुनाई भी कर सकता है. निर्माता, निर्देशक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. कौन जाने फ्रेज़ाईल आस्थाएँ लिए घूमनेवाले भियाजी का फेंस क्लब आपका सिर इसी बात पर फोड़ दे सकता है कि आप अमुक लेख पढ़ ही क्यों रहे थे. रचना न हुई साहित्य की सवारी-मोटर हो गई, ‘यात्री अपनी जान और सामान की रक्षा स्वयं करें’. आप ई-बुक में फिट कैमरे की नज़र में हैं, पढ़ते-पढ़ते बाल नोंच ले सकते हैं. प्रकाशक इसकी सामग्री का समर्थन नहीं करते हैं. पढ़ते हुए आप अपने ही कपड़े फाड़ कर चौराहे की ओर दौड़ लगा सकते हैं, संपादक इसके लिए उत्तरदायी नहीं है. हर लेख, हर रचना अब एक ईंट है, एक पत्थर जो पाठकों की भीड़ पर उछाल दिया गया है – बचना पढ़नेवाली की जिम्मेदारी है.
‘हनुमान चालीसा’ में व्यक्त उद्गार गोस्वामी तुलसीदास के अपने निजी हैं’ प्रकाशक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है. ‘जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ’ कबीर का अपना निजी विचार है. कोई पाठक अपना घर फूँक ही ले तो प्रकाशक उत्तरदायी नहीं होंगे. संपादक ने नौकरी अपना घर चलाने के लिए की है श्रीमान, घर फुँकवाने के लिए नहीं. ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने को वे भी तैयार नहीं हैं जो मुक्तिबोध पर पीएचडी करके प्रोफेसरगिरी कर रहे हैं, संपादक के तौर पर तो बिल्कुल भी नहीं. डिसक्लेमर लगाओ और चैन की नींद पाओ. लेखक जाने और उसका काम जाने, अपन की कोई जवाबदारी नहीं. सत्यता और सटीकता के प्रति भी नहीं. ‘हम लेख में दिए गए तथ्यों की पुष्टि नहीं करते’ – आज्ञा से संपादक. उसकी साहित्यिक, वैचारिक, और तो और पत्रकारितावाली समझ भी नेपथ्य में चली गई है. पूरा टैलेंट स्किन बचाने की कवायद में चुक जाता है. वैचारिकी की स्वतंत्रता, उन्मुक्त, भयमुक्त संपादन और फक्कड़, फ़कीरी, अलमस्त, बेफ्रिक लेखन का दौर अब का दौर समाप्त हो गया है.
अगला डिस्क्लेमर ये श्रीमान कि पुस्तक की समीक्षा प्रायोजित है और किताब की बिक्री बढ़ाने के हेतु से लिखी गई है. संपादक तो क्या खुद समीक्षक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – “भोलाराम का जीव”।)
☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – भोलाराम का जीव – हरिशंकर परसाई ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्यात्मक कहानी
ऐसा कभी नहीं हुआ था…
धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान ‘अलॉट’ करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।
सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे थे। ग़लती पकड़ में ही नहीं आ रही थी। आख़िर उन्होंने खीझ कर रजिस्टर इतने ज़ोर से बंद किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले, महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा।
धर्मराज ने पूछा, और वह दूत कहाँ है?
महाराज, वह भी लापता है।
इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बदहवास वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, अरे, तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?
यमदूत हाथ जोड़ कर बोला, दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया। आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम का देह त्यागा, तब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरंभ की। नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्यों ही वह मेरी चंगुल से छूट कर न जाने कहाँ ग़ायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर उसका कहीं पता नहीं चला।”
धर्मराज क्रोध से बोला, मूर्ख! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया।”
दूत ने सिर झुका कर कहा, महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके। पर इस बार तो कोई इंद्रजाल ही हो गया।”
चित्रगुप्त ने कहा, महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं। होजरी के पार्सलों के मोज़े रेलवे अफ़सर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बंद कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद ख़राबी करने के लिए तो नहीं उड़ा दिया?
धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला भोलाराम जैसे नगण्य, दीन आदमी से किसी को क्या लेना-देना?
इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि यहाँ आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बैठे हैं? क्या नर्क में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?
धर्मराज ने कहा, वह समस्या तो कब की हल हो गई, मुनिवर! नर्क में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़िरी भर कर पैसा हड़पा जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नर्क में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक बड़ी विकट उलझन आ गई है। भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इस ने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।”
नारद ने पूछा, उस पर इनकमटैक्स तो बक़ाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो।”
चित्रगुप्त ने कहा, इनकम होती तो टैक्स होता… भुखमरा था।”
नारद बोले, मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छा मुझे उसका नाम पता तो बताओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।”
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देख कर बताया, भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर में धमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ़ कमरे टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लड़के और एक लड़की। उम्र लगभग साठ साल। सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया था। मकान का किराया उसने एक साल से नहीं दिया, इस लिए मकान मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत संभव है कि अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है तो उसने भोलाराम के मरते ही उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इस लिए आप को परिवार की तलाश में काफ़ी घूमना पड़ेगा।”
माँ-बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए।
द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, नारायण! नारायण! लड़की ने देखकर कहा- आगे जाओ महाराज।”
नारद ने कहा, मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछ-ताछ करनी है। अपनी माँ को ज़रा बाहर भेजो, बेटी!
भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी?
क्या बताऊँ? ग़रीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए, पेंशन पर बैठे। पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख़्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले में विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेच कर हम लोग खा गए। फिर बरतन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। चिंता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दी।”
नारद ने कहा, क्या करोगी माँ? उनकी इतनी ही उम्र थी।”
ऐसा तो मत कहो, महाराज! उम्र तो बहुत थी। पचास साठ रुपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं कर के गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।”
दुःख की कथा सुनने की फ़ुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, माँ, यह तो बताओ कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?
पत्नी बोली, लगाव तो महाराज, बाल बच्चों से ही होता है।”
नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, किसी स्त्री…”
स्त्री ने ग़ुर्रा कर नारद की ओर देखा। बोली, अब कुछ मत बको महाराज! तुम साधु हो, उचक्के नहीं हो। ज़िंदगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री की ओर आँख उठाकर नहीं देखा।”
नारद हँस कर बोले, हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है। यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा, माता मैं चला।”
स्त्री ने कहा, महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी हुई पेंशन मिल जाए। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए।”
नारद को दया आ गई थी। वे कहने लगे, साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं। फिर भी मैं सरकारी दफ़्तर जाऊँगा और कोशिश करूँगा।”
वहाँ से चल कर नारद सरकारी दफ़्तर पहुँचे। वहाँ पहले ही से कमरे में बैठे बाबू से उन्होंने भोलाराम के केस के बारे में बातें कीं। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, भोलाराम ने दरख़्वास्तें तो भेजी थीं, पर उन पर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड़ गई होंगी।”
नारद ने कहा, भई, ये बहुत से ‘पेपर-वेट’ तो रखे हैं। इन्हें क्यों नहीं रख दिया?
बाबू हँसा, आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरख़्वास्तें ‘पेपरवेट’ से नहीं दबतीं। ख़ैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।”
नारद उस बाबू के पास गए। उसने तीसरे के पास भेजा, तीसरे ने चौथे के पास चौथे ने पाँचवे के पास। जब नारद पच्चीस-तीस बाबुओं और अफ़सरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड़ गए। अगर आप साल भर भी यहाँ चक्कर लगाते रहे, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधे बड़े साहब से मिलिए। उन्हें ख़ुश कर दिया तो अभी काम हो जाएगा।”
नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊँघ रहा था। इसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं। बिना ‘विजिटिंग कार्ड’ के आया देख साहब बड़े नाराज़ हुए। बोले, इसे कोई मंदिर वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़धड़ाते चले आए! चिट क्यों नहीं भेजी?
नारद ने कहा, कैसे भेजता? चपरासी सो रहा है।”
क्या काम है? साहब ने रौब से पूछा।
नारद ने भोलाराम का पेंशन केस बतलाया।
साहब बोले, आप हैं बैरागी। दफ़्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। असल में भोलाराम ने ग़लती की। भई, यह भी एक मंदिर है। यहाँ भी दान पुण्य करना पड़ता है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख़्वास्तें उड़ रही हैं। उन पर वज़न रखिए।”
नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई। साहब बोले, भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ़्तर में जाता है। देर लग ही जाती है। बीसों बार एक ही बात को बीस जगह लिखना पड़ता है, तब पक्की होती है। जितनी पेंशन मिलती है उतने की स्टेशनरी लग जाती है। हाँ, जल्दी भी हो सकती है मगर…” साहब रुके।
नारद ने कहा, मगर क्या?
साहब ने कुटिल मुसकान के साथ कहा, मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आपकी यह सुंदर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना बजाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूँगा। साधु-सन्तों की वीणा से तो और अच्छे स्वर निकलते हैं।”
नारद अपनी वीणा छिनते देख जरा घबराए। पर फिर संभल कर उन्होंने वीणा टेबिल पर रख कर कहा, यह लीजिए। अब जरा जल्दी उसकी पेंशन ऑर्डर निकाल दीजिए।”
साहब ने प्रसन्न्ता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घण्टी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।
साहब ने हुक्म दिया, बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फ़ाइल लाओ।
थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की सौ-डेढ़-सौ दरख्वास्तों से भरी फ़ाइल ले कर आया। उसमें पेंशन के कागजात भी थे। साहब ने फ़ाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, क्या नाम बताया साधु जी आपने?
नारद समझे कि साहब कुछ ऊँचा सुनता है। इसलिए जोर से बोले, भोलाराम!
सहसा फ़ाइल में से आवाज आई, कौन पुकार रहा है मुझे। पोस्टमैन है? क्या पेंशन का ऑर्डर आ गया?
नारद चौंके। पर दूसरे ही क्षण बात समझ गए। बोले, भोलाराम! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?
हाँ! आवाज आई।”
नारद ने कहा, मैं नारद हूँ। तुम्हें लेने आया हूँ। चलो स्वर्ग में तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है।”
आवाज आई, मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों पर अटका हूँ। यहीं मेरा मन लगा है। मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता।”
प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुंदर व्यंग्य ‘बदनाम अगर होंगे तो क्या—‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 209 ☆
☆ व्यंग्य – बदनाम अगर होंगे तो क्या—☆
(‘एक सम्मानपूर्ण सम्मान’ का क्षेपक)
‘हलो।’
‘हलो। सिंह साहब बोल रहे हैं?’
‘जी,बोल रहा हूँ।’
‘प्रणाम। मैं बाराबंकी से मुन्नालाल वीरान। आठ दस दिन पहले मैंने आपको मुझे मिले सम्मान के बारे में बताया था।’
‘जी,याद आया।’
‘ तो आपने यह जो व्यंग्य फेसबुक पर शायर ज़ख्मी जी के बारे में डाला कि ज़ख्मी जी दस हजार देकर सम्मान करवाते हैं और आने-जाने, खाने-रहने का खर्चा खुद उठाते हैं, यह क्या आपने मेरे सम्मान के हवाले से लिखा है?’
‘जी, है तो आप पर ही। आपके सम्मान का किस्सा इतना दिलचस्प था कि मैं अपने को लिखने से रोक नहीं पाया। नाम बदलकर डाल दिया। आपको बुरा लगा क्या?’
‘अरे आप गज़ब कर रहे हैं। इसमें बुरा लगने की कौन सी बात है? दरअसल आपकी पोस्ट पढ़कर इतना अच्छा लगा कि मैंने तुरन्त उसके नीचे कमेंट कर दिया कि वह पोस्ट मेरे बारे में है। आपने शायद मेरा कमेंट देखा नहीं। फिर मेरा कमेंट पढ़कर मित्रों के करीब डेढ़ सौ लाइक और बधाइयाँ आ गयीं। कई मित्रों ने फोन से बधाई दी। बड़ा आनन्द आया। मैंने सम्मान देने वाली संस्था को वह पोस्ट अपने कमेंट के साथ भेज दी। वे भी बहुत खुश हैं।’
‘आपका फोन देखकर मुझे लगा आपको बुरा लग गया।’
‘हद कर दी सर आपने। मैं तो खुश हूं कि आप जैसे प्रतिष्ठित लेखक की बदौलत चार लोगों में मेरा ज़िक्र हुआ। इसी तरह आगे भी याद करते रहें। आपका बहुत आभारी हूँ। मैंने तो आपसे निवेदन किया था कि आप भी इसी संस्था से अपना सम्मान करवा लें, लेकिन आपने कोई जवाब नहीं दिया।’
‘जी, फिलहाल मैं अपने को किसी सम्मान के लायक नहीं समझता। जब अपने को इस लायक समझूँगा तब बताऊँगा।’
‘यह आपका बड़प्पन है। चलिए ठीक है। जैसी आपकी मर्जी। प्रणाम।’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खिसका धूप – छाँव का आँचल…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 166 ☆
☆ खिसका धूप – छाँव का आँचल… ☆
लोकलाज का आँचल जब सरकता है तो अनजाने ही बहुत से विवाद खड़े होने लगते हैं। विरोध का स्तर धीरे -धीरे गिरने लगता है। सारी मर्यादाओं को त्यागकर व्यक्ति कुछ भी बोल देता है, और मजे की बात जोड़ -तोड़ की उपज से चयनित व्यक्ति इस पर सही का साथ देने के बजाय टालमटोली करते हुए नजर आते हैं। सब कुछ देख सुनकर ऐसा लगता है मानो वैचारिक आजादी को गिरवी रखकर एकजुटता का पाठ पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। जहाँ विचार ही अलग हों वहाँ कब तक एकसुर का राग अलापते रहेंगे।
माना कि आप क्षितिज बनने का स्वप्न देख रहे हैं किंतु धरती आकाश का मिलन आपकी किस्मत में नहीं है। परिश्रमी लोग जिनमें लक्ष्य के प्रति जुझारूपन हो उसे तो सब मिल जाता है लेकिन जो केवल मंचासीन होने को ही अपनी उपलब्धियों में शामिल करना चाहते हों उनकी केवल जग हँसाई ही होती है।
माना मिक्स वेज सभी को पसंद है किंतु इसमें भी मनमानी नहीं चलती। ऐसी सब्जियों का चयन होता है जो स्वादिष्ट होने के साथ ही लोगों को रुचिकर हो। संतुलित मात्रा में संयोजन होने पर ही तारीफ होती है। साथ ही पनीर और मलाई से स्वाद दोगुना हो जाता है।
ये सही है कि धूप और छाँव आपको मजबूत बनाते हैं। पर ये तभी मिलेंगे जब सूरज की तपिश और वृक्षों की हरियाली उपलब्ध हो।
(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।
आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम व्यंग्य ‘आत्म साक्षात्कार : हम को हमीं से चुरा लो…’।)
☆ व्यंग्य ☆ आत्म साक्षात्कार : हम को हमीं से चुरा लो… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆
31 अगस्त 2022 की अर्धरात्रि को रात्रि के बारह बजते ही हमारी पुरसुकून निद्रा में भांजी मारने हमारा हम (जिसे मैं आगे ‘प्रतिच्छाया हम’ लिखूंगा) हमारे ख्वाबों में आकर खड़ा हो गया। 31 तारीख अलविदा हो चुकी थी और हमारी जन्म की तिथि एक सितम्बर का आगमन हो चुका था। उस शुभ घड़ी में मेरा हम मेरी काया की प्रतिच्छाया के रूप में मेरे सम्मुख था।
लिहाजा, हम को हमीं से चुरा लो गीत की तर्ज पर हम के द्वारा ‘हम’ से लिया इंटरव्यू प्रस्तुत किए दे रहा हूं। हम दोनों में जो तीखी तकरार हुई, उसका लुत्फ़ लीजिए है-
हम(प्रतिच्छाया)- तुम लेखक ही क्यों भए…और कुछ क्यों न?
हम- हमारा जनम गणेश चतुर्थी के दिन हुआ था, चित्रा नक्षत्र में। सो पिताश्री ने नामकरण किया गजानन। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘सा एशा गणेश विद्या’ (यह वह विद्या है जिसे गणेश जानते हैं) और वह विद्या लिपि ही है। महाभारत के लेखन के लिए व्यासजी, गणेश जी का स्मरण करते हुए कहते हैं- ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक’। हे गणनायक! आप भारत ग्रंथ के लेखक हों।
गणनायक अर्थात् गणपति …जिसने वैदिक ऋषियों के अनुग्रह पर वायु में विलीन हो रहे स्वरों और व्यंजनों को सर्वप्रथम आकृति प्रदान की और विश्व के प्रथम लेखक बने। उसी परंपरा का अनुशीलन करते हुए यह अकिंचन गजानन भी लेखकीय कर्म में अनुरत हुआ।
तुम्हारे प्रश्न दूसरा तर्कसम्मत उत्तर और देता हूं कि पिता ने गजानन नामकरण क्यों किया? हमारे थोबड़े पर पोंगड़ा सी नासिका तथा सूप सरीखे कर्ण भी गजमुखी होने का आभास कराते थे, सो ‘गज-आनन’ रखा।
हम(प्रतिच्छाया)- मगर, व्यंग्यकार ही क्यों हुए, कथाकार भी तो हो सकते थे?
हम- अय…मेरे हमसाए! अब, इसका उत्तर भी सुन। पंडितजी ने जब जन्मकुंडली हेतु मत्था मारा तो नाम निकला- प्रेमचंद। मुझे लगता है कि कदाचित पिताजी उस नाम पर बिचक गए थे। शायद उन्होंने प्रेमचंदजी की फटे जूते वाली तस्वीर देख ली होगी सो घबरा कर, कन्या राशिषन्तर्गत संशोधित नाम रखा-प्रभाशंकर। इस प्रकार हम कहानीकार होते होते रह गए।
हम(प्रतिच्छाया)- वाह गुरू! प्रेमचंद नाम होने से ही हर कोई कथाकार हो जाता है और प्रभाशंकर होने से व्यंग्यकार? बात हजम नहीं हुई।
हम- तुमने गुरू ही बोल दिया है तो तर्क-ए-हाजमा भी हम ही देते हैं। ध्यान देकर सुनो। हम हैं, प्रभाशंकर। संधि विच्छेद हुआ प्रभा$शंकर। भगवान शिव के पास तीन नेत्र हैं बोलो…हैं कि नहीं? और जब जगत में भय, विद्रुपताएं, अनाचार आदि बढ जाते हैं तो उनका तीसरा नेत्र खुल जाता है। हम भी त्रिलोचन की वही ‘प्रभा’ हैं। सांसारिक दो नेत्रों से विसंगतियों, विषमताओं, अत्याचारों और टुच्चेपन को निरखते हैं तथा अपनी ‘प्रभा’ से उन पर प्रहार करते हैं। बोलो सांचे दरबार की जय…।
हम(प्रतिच्छाया)- तुम कुतर्क कर रहे हो दोस्त! पर हमारे पास तुम्हारे इस कुतर्क को मानने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं। खैर, यह बताओ कि व्यंग्य लेखन में तुमने कोई बड़ा तीर मारा या अभी तक सिर्फ भांजी ही मार रहे हो?
हम- भांजी मारना सबसे आसान काम है, प्यारे! आजकल, अधिकांश व्यंग्य लेखक यही कर रहे हैं और यह खाकसार भी इसी में रत है। देखो डियर, ये प्रभाशंकर इस मुगालते में कतई नहीं हैं कि वह हरिशंकर, शरद, त्यागी या शुक्ल बन जाएगा। अरे, यह कलमघिस्सू तो ज्ञान और प्रेम भी नहीं बन सका। अलबत्ता, क्रोध स्वरूप दुर्वासा अवश्य बन सकता था किन्तु आज कल के महात्मनों के पास श्राप-पॉवर नहीं है सो कलमकार बन कर अपना क्रोध कागजों पर उतारने लगा। कुछ संपादक दया के सागर होकर छाप देते हैं सो अपुन दुकान चल निकली है।
हम(प्रतिच्छाया)- यूं ही यत्र-तत्र छपते रहे या कोई किताब-शिताब भी लिखी?
हम- तुमने हमारी दुखती रग पर दोहत्थड़ मार दिया है, दोस्त! कहने को तीन पुस्तकें हैं किन्तु कोई पढता नहीं उन्हें। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने सूपड़ा साफ कर दिया है। किताबें जो हैं, मरी मरी सी जी रही हैं सोचती होंगी कि यह जीना भी कोई जीना है लल्लू?
हम(प्रतिच्छाया)- जैसी भी हैं, उनके नाम तो बता दीजिए?
हम- ए..लो..तुमसे भी कोई बात छिपी है, ब्रदर! यूं भी हिन्दी लेखक के पास छिपाने को अपना कुछ होता नहीं है। कुछ अरसा पहले लेखकों की चाहने वालियां हुआ करती थीं। उनके खतो-खतूत की खुश्बू में लेखक महीनों डूबता-उतराता रहता था पर अब तो वह भी नहीं। अब मामला खुली किताब सा है। फिर भी तुमने नाम पूछे हैं तो बताए देते हैं- ‘नाश्ता मंत्री का गरीब के घर’(1997), ‘काग के भाग बड़े’(2009), ‘बेहतरीन व्यंग्य’(2019)।
हम(प्रतिच्छाया)- मान गए गुरू, तीसरे संकलन का टाइटल ही बेहतरीन व्यंग्य है। इसमें सब बेहतर ही बेहतर होगा?
हम- मां बदौलत, किताब का टाइटल ही बेहतर है, वह भी प्रकाशक की बदौलत बाकी सब खैर सल्ला…।
हम(प्रतिच्छाया)- तुम्हें व्यंग्य में तलवार भांजते हुए तीन दशक से ऊपर हो गए और सिर्फ तीन पुस्तकें। तीसरी में भी अधिसंख्य पूर्व के दो संग्रहों से छांटे हुए हैं। बहुत बेइंसाफी है, यह। लोग तो एक साल में ही 25-25 निकाले दे रहे हैं। अब, तुम चुक गए हो उस्ताद!
हम- तुमने उस्ताद कहा है तो यह मान भी लो कि उस्ताद चुक कर भी नहीं चुकता। वह इंटरव्यू देता है जैसे हम तुम्हें दे रहे हैं। उस्ताद पुरस्कार हथियाता है। उस्ताद मठ बनाता है।
हम(प्रतिच्छाया)- वाह! भाईजान! इंशाअल्ला, तुमने भी पुरस्कार हड़पे और मठ बनाए होंगे….बोलो हां।
हम- नो कमेंट।
इतना सुनते ही हमारी प्रेतछाया विलीन होकर अपने ठौर पर जा टिकी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “ड ऽऽ र और भय “।)
अभी अभी # 147 ⇒ ड ऽऽ र और भय… श्री प्रदीप शर्मा
कैसी कैसी जोड़ी बनाई है भगवान ने, राम और श्याम और जय वीरू की जोड़ी तो ठीक, डर और भय की भी जोड़ी। दोनों बिलकुल जुड़वा लगते हैं, हूबहू डिट्टो एक जैसे, शक्ल सूरत से रंगा बिल्ला माफिक, डरावने और भयंकर।
अजी साहब छोड़िए, सब आपका मन का वहम है, डर और भय की तो कोई शक्ल ही नहीं होती। जंगल मे
अकेले जाओ तो डर लगता है, चिड़ियाघर में कितना मजा आता है। जब तक हम सुरक्षित हैं, निडर और निर्भय हैं, जहां किसी ने सिर्फ बोला सांप, बस हो गया कबाड़ा। भय का सांप अथवा सांप का भय तो हमारे अंदर बैठा है।
कहीं डंडे का डर तो कहीं बंदूक का डर, बेचारे बेजुबान जानवर को भी हम चाबुक से डराते हैं।
वाह रे सर्कस के शेर।।
इतना बड़ा शब्दकोश आखिर बना कैसे ! क्या कम से कम शब्दों से काम नहीं लिया जा सकता, प्यार मोहब्बत, लाड़ प्यार ! बच्चे को लाड़ मत करो प्यार ही कर लो। हटो जी, ऐसा भी कभी होता है। क्या एक भगवान शब्द से आपका काम चल जाता है। इतने देवी देवता, एक दो से ही क्यों नहीं काम चला लेते।
हर शब्द के पीछे एक अर्थ छुपा होता है। आपको डरावने सपने आते हैं, आपकी नींद खुल जाती है, अरे यह तो सपना था, कोई डर की बात नहीं ! आपके अवचेतन में भय के संस्कार है, इसीलिए तो डरावने सपने आते हैं। छोटे छोटे बच्चे नींद में चमक जाते हैं, एकदम रोना शुरू कर देते हैं, उनके सिरहाने चाकू रखा जाता है। चाकू सुरक्षा कवच है और गंडा तावीज भी। मानो या ना मानो।।
डर से ही डरावना शब्द बना है, और भय से भयंकर ! जगह जगह भयंकर सड़क दुर्घटना की खबरें मन को व्यथित कर देती हैं। कुछ लोग इतनी तेज गाड़ी चलाते हैं भाई साहब, कि उनके साथ तो बैठने में भी डर लगता है।
खतरों से खेलना कोई समझदारी नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
हमें बचपन से ही डराया गया है, कभी भूत से तो कभी बाबा से ! आजकल के बच्चे भूत से नहीं डरते, क्योंकि वे ब्ल्यू व्हेल जैसे खेल खेलते हैं। अब हम बाबाओं से डरते नहीं, उनसे ज्ञान प्राप्त करने जाते हैं। वे भी हमें ज्ञान बांटते हैं, भगवान से डरो।।
पढ़ने से कैसा डरना, लेकिन सबक याद नहीं होने पर मास्टरजी की छड़ी से तो डर लगता ही था। कहीं परीक्षा का डर तो कहीं साइंस मैथ्स का डर। हमारे गणित का डर तो अभ्यंकर सर भी दूर नहीं कर पाए।
कोई अमर नहीं, हमारा शरीर नश्वर है, फिर भी कोई मरना नहीं चाहता। शुभ शुभ बोलो। मरने की बात अपनी जुबान पर ही मत लाओ, क्योंकि हम सबको मृत्यु का भय है। हम नचिकेता नहीं जो यम की छाती पर जाकर खड़े हो जाएं।।
क्या आपको नहीं लगता, ये डर और भय और कोई नहीं, जय विजय ही हैं। मैं आपको जय विजय की कथा नहीं सुनाऊंगा, लेकिन ये कभी वैकुंठ के द्वारपाल थे, बेचारे शापग्रस्त हो गए और आसुरी शक्ति बने भगवान विष्णु को फिर भी नहीं छोड़ रहे। कभी रावण कुंभकर्ण तो कभी कंस शिशुपाल। आज के हिटलर स्टालिन भी शायद ये ही हों।
डर और भय ही कलयुग के जय विजय हैं। अगर आपने इन पर काबू पा लिया तो समझो आपका स्वर्ग का नहीं, वैकुंठ का टिकिट कट गया, यानी आप जन्म मृत्यु के चक्कर से बाहर निकल गए।।
ये सब कहने की बातें हैं। क्या आपको आज के हालात से डर नहीं लगता। क्या आप नहीं चाहते, लोग निडर होकर चैन की नींद सोएं। इसलिए हमें हमेशा जागरूक रहना होगा, खतरा देश के बाहर से भी है और अंदर भी। हमें देश की, संविधान की और लोकतंत्र की रक्षा करनी है।
हम पहले लोगों को भयमुक्त वातावरण देंगे और बाद में अपने अंदर के जय विजय यानी डर और भय को भी देख लेंगे। आखिर इतनी जल्दी भी क्या है। सुना है नेटफ्लेक्स पर कोई बढ़िया हॉरर मूवी लगी है, मजेदार है।।