हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #142 ☆ व्यंग्य – एक धार्मिक जुलूस ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘एक धार्मिक जुलूस’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 142 ☆

☆ व्यंग्य – एक धार्मिक जुलूस

धार्मिक जुलूस निकलने को है। सूचनाएँ स्थानीय अखबारों में निकल चुकी हैं। जुलूस के नेताओं की अपीलें भी निकल चुकी हैं कि सब लोग सहयोग देकर धर्म को पुख़्ता करें और शांति बनाए रखें। धार्मिक जुलूसों के वक्त शांति बनाए रखने की अपील ज़रूरी होती है क्योंकि धर्म की शांति से पटरी बैठती नहीं। हमेशा शांति-भंग का ख़तरा रहता है। जुलूस के नेताओं में भी ज़्यादातर वे हैं जिन्हें जुलूसों और और तेज़-तर्रार वक्तव्यों को छोड़कर सच्चे अर्थों में धर्म से कुछ लेना-देना कम ही होता है। अब लोग धार्मिक कम हैं, धर्म के ठेकेदार ज्यादा हैं।

जुलूस को लेकर पूरे प्रशासन की जान हलक में है। महीना भर पहले से बैठकें हो रही हैं। धर्म के ठेकेदारों को बुलाकर मशवरा लिया जा रहा है कि भैया, ऐसा करो कि काम शांति से निपट जाए। धार्मिक नेताओं के भाव ऊँचे हैं। जुलूस किस रास्ते से जाए, इसे लेकर मान- मनौव्वल हो रहा है। ठेकेदार और उनके छुटभैये ज़िद करते हैं, ‘नहीं साहब, जुलूस तो उसी रास्ते से निकलेगा,चाहे कुछ भी हो जाए।’ बात यह है कि जुलूस निकालने वालों का काम जुलूस निकालना है। अमन बनाये रखने का ठेका प्रशासन का है। जुलूस तो ज़रूर निकलेगा, लेकिन अगर कोई गड़बड़ी हो जाए तो उचक कर प्रशासन की गर्दन थाम लो। फिर इंक्वायरी हो और फिर अंत में कोई बेचारा गरीब कांस्टेबल बलि का बकरा बना कर लाइन अटैच कर दिया जाए।

प्रशासन सब काम छोड़कर जुलूस की फिक्र में लगा है। बाकी सब काम बन्द। कोई आला अफसर अभी नहीं मिलेगा क्योंकि साहब अभी जुलूस वाली मीटिंग में हैं। जिसको कोई काम कराना हो वह जुलूस निकल जाने तक रुके,  चाहे काम जीवन-मरण का ही क्यों ना हो। जुलूस निकलने तक ज़िंदा रह सकते हो तो ठीक है, नहीं तो हरि इच्छा।
            ज़िले के सब हिस्सों से पुलिस की टुकड़ियाँ  बुलायी जा रही हैं क्योंकि धार्मिक जुलूस निकलना है। जहाँ पुलिस कम हो गयी है वहाँ तथाकथित असामाजिक तत्वों के हौसले कुछ ऊँचे हुए हैं और शांतिप्रिय भद्र लोगों के हौसले गिरे हैं, क्योंकि भद्र लोगों की भद्रता पुलिस के भरोसे ही कायम है।

शहर में असामाजिक तत्वों की धरपकड़ हो रही है ताकि जुलूस शांति से निकल जाए। जो  समझदार असामाजिक तत्व हैं वे पहले ही रिश्तेदारों के यहाँ चले गये हैं क्योंकि हर धार्मिक जुलूस के समय उन्हें सरकार की मेहमानदारी कबूल करनी पड़ती है। वैसे असामाजिक तत्वों में सिर्फ ऐरे-ग़ैरे-नत्थू-ख़ैरे ही आते हैं जिनका कोई माई-बाप नहीं होता। जिनके पास माल है या जिनका कोई धर्मपिता होता है वे असामाजिक तत्वों की फ़ेहरिस्त में नहीं आते।

पुलिस और प्रशासन जुलूस के पूरे रास्ते का निरीक्षण करते हैं। कहाँ-कहाँ फोर्स लगायी जाए, कहां निरीक्षण-मीनारें बनें, कहां एस.पी. साहब बैठें और कहाँ डी.आई.जी. साहब। रिज़र्व फोर्स कहाँ रहे, जो गड़बड़ी होते ही दौड़ पड़े। अश्रुगैस का पर्याप्त प्रबंध रहे।

जुलूस निकल रहा है। पुलिस अफसर जैसे उन्माद में हैं। कोई भी इधर-उधर दौड़ता- भागता दिखता है कि लाठी भाँजते दौड़ते हैं। जनता उत्सव के मूड में है, लेकिन प्रशासन के प्राण चोटी में हैं।

जुलूस एक-एक इंच  सरक रहा है और प्रशासन को एक-एक इंच सफलता मिल रही है। तनाव एक-एक इंच घट रहा है। कंट्रोल रूम को एक-एक क्षण की सूचना मिल रही है। जुलूस के लोग धर्मोन्माद में झूम रहे हैं, गा रहे हैं और प्रशासन असली धर्मपरायण की तरह राम और ख़ुदा को याद कर रहा है।

अंततः जुलूस ख़त्म हो गया है। लोग आखिरी जय-जयकारों के बाद बिखरने लगे हैं। जुलूस के नेताओं के चेहरे गौरवमंडित हैं। जब आखिरी जत्था भी चला जाता है तो प्रशासन ईश्वर को धन्यवाद देता है।

फिर प्रशासन के लोग एक दूसरे को बधाइयाँ देते हैं। ‘बधाई सर, सब ठीक-ठाक निपट गया।’ प्रदेश की राजधानी को प्रसन्नता भरे संदेश जाते हैं कि जुलूस शांतिपूर्वक निपट गया। राजधानी में भी बड़े लोग ठंडी साँस लेते हैं। अफसर घर लौट कर यूनिफॉर्म उतारते हुए तनावग्रस्त पत्नी को सूचना देते हैं कि सब काम ठीक से निपट गया,और पत्नी छत की तरफ आँखें उठाकर साड़ी का पल्लू आँखों से लगाती है।कारण यह है कि जुलूस अफसर को लाइन अटैच से लेकर सस्पेंड तक करा सकता है। इसलिए सही- सलामत घर लौटना भारी सुखकर होता है।

जुलूस ख़त्म हो गया है। अब बेचारे छोटे असामाजिक तत्व इस प्रतीक्षा में हैं कि हुकुम जारी हो तो वे सरकारी मेहमानख़ाने से बाहर आयें  और अगले जुलूस तक खुली हवा का सेवन करें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 101 ☆ अवसरवादी व्यवस्था ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “अवसरवादी व्यवस्था…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 101 ☆

☆ अवसरवादी व्यवस्था… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

दूसरे के परिश्रम को छीन कर जब हम आगे बढ़ते हैं तभी से सीखने की प्रक्रिया रुकने लगती है। हमारा सारा ध्यान चोरी की मानसिकता व सत्य को झुठलाने की ओर मुड़ जाता है। देर सबेर जब आँख खुलती है तो पता चलता है कि हमारी कुर्सी खतरे में है। उपेक्षित होकर रहने से बेहतर है कि दूसरी जगह जाकर उनकी जी हुजूरी में अपना समय लगाएँ। हो सकता है वहाँ कोई नया अवसर मिले अवसरवादी बनने का।

हर जगह फोटो में छाए रहने वाले रौनक लाल जी  इस बार अपनी जगह सुनिश्चित न पाकर सोर्स लगाते हुए उपलब्धियों की सूची गिनाने लगे। तभी एक ने कहा हर बार यही विवरण देने से बात नहीं बनेगी। कुछ नया हो तो बताइए। उन्होंने झट से अखबार की कटिंग सामने रख दी। मजे की बात उसमें भी उनका नाम तो था पर सामान्य सदस्य के रूप में। अब बेचारे फोन उठा कर सम्बंधित व्यक्ति को उसकी भूल बतलाने लगे। तभी उनके सलाहकार ने कहा कोई बात नहीं अब आप दूसरी संस्था की ओर मुड़ जाइये यहाँ न सही वहाँ अध्यक्षीय कुर्सी पर विराजित होकर पेपर में नाम छपवाएँ।

उदास स्वर से रौनक लाल जी कहने लगे,” समय इतनी तेजी से बदलता जा रहा है। पहले जो लोग मेरी आँखों के इशारे से रास्ते बदल देते थे वे भी मुझे सलाह देते हुए कहते हैं कि ज्यादा लालच मत कीजिए। किसी एक संस्था के वफ़ादार बनें। हर जगह अध्यक्ष बनने की कोशिश में आपकी सदस्यता भी भंग हो जाएगी। सम्मान कमाना पड़ता है। कोई प्रेम से बोल दे तो इसका ये मतलब नहीं कि आप हर चीजों का निर्धारण करेंगे।

ऐसा अक्सर देखने में आता है किंतु अब ठहरा डिजिटल युग सो ऑनलाइन ही कार्यक्रम होने लगे हैं। जहाँ कुर्सी का किस्सा कुछ हद तक कमजोर होने लगा है। बस पोस्टर में फोटो हो फिर कोई शिकायत नहीं रहती। अपनी फोटो को देखने में जो आंनद है वो अन्य कहीं नहीं मिलता। सब कुछ मेरे अनुसार हो बस यही समस्या की जड़ है। जड़ उपयोगी है किंतु जड़बुद्धि की मानसिकता रखने वाला व्यक्ति घातक होता है।

मानव जीवन में बहुत से ऐसे पल आते हैं जब ये लगने लगता है कि चेहरे की मासूमियत व मुस्कान अब वापस नहीं आने वाली किन्तु दृढ़ इच्छाशक्ति व संकल्प से  सब कुछ जल्दी ही सामान्य होकर पुनः जीवन में नव उत्साह का संचार हो पूर्ववत स्थिति आ जाती है।

मुस्कुराहट से न केवल हम सभी वरन जीव – जंतु भी आकर्षित होते हैं। जब चेहरे में प्रसन्नता झलकती है तो आसपास का परिवेश भी मानो खुशहाली के गीत गुनगुनाने लगता है। अनजाने व्यक्ति से भी  एक क्षण में ही लगाव मुस्कुराहट द्वारा ही संभव हो सकता है।

तो आइये देरी किस बात की ईश्वर प्रदत्त इस उपहार को  मुक्त हस्त से बाँट कर परिवेश में खुशहाली फैलायें। अवसरवादी बनने हेतु अवसरों की भरमार है बस मुस्कुराते हुए कार्य करने की कला आनी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 158 ☆ व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 158 ☆

? व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने  ?

निज़ाम-ए-मय-कदा साक़ी बदलने की ज़रूरत है

हज़ारों हैं सफ़े जिन में न मय आई न जाम आया

रफ कापी मतलब पीरियड किसी भी विषय का हो, नोट्स जिस कापी में लिखे जाते थे, वह महत्वपूर्ण दस्तावेज एक अदद रफ कापी हुआ करती थी जैसे गरीब की लुगाई गांव की भौजाई होती है. फिर भी रफ कापी अधिकृत नोटबुक नही मानी जाती.

छुट्टी के लिये आवेदन लिखना हो तो रफ कापी से ही बीच के पृष्ठ सहजता से निकाल लिये जाते थे, मानो सरकारी सार्वजनिक संपत्ति हो. रफ कापी के पेज फाड़कर ही राकेट, नाव और कागज के फ्लावर्स बनाकर ओरोगामी सीखी जाती थी.  यह रफ कापी ही होती थी, जिसके अंतिम पृष्ठ में नोटिस बोर्ड की महत्वपूर्ण सूचनायें एक टांग पर खड़े होकर लिखी जाती थीं.

रफ कापी में ही कई कई बार लाइफ रिजोल्यूशन्स लिखे जाते थे, परीक्षायें पास आने लगती तो डेली रूटीन लिख लिख कर हर बीतते दिन के साथ बार बार सुधारे जाते थे. टीचर के व्याख्यान उबाऊ लग रहे होते  तो रफ कापी ही क्लास में दूर दूर बैठे मित्रो के बीच लिखित संदेश वाहिका बन जाती थी, उस जमाने में न तो हर हाथ में मोबाइल थे और न एस एम एस, व्हाट्स एप की चैटिंग.

उम्र के किशोर पड़ाव पर रफ कापी के पृष्ठ पर ही पहला लव लेटर भी लिखा था, यदि ताजमहल भगवान शिव का पवित्र मंदिर नही, प्रेम मंदिर ही है तो  चिंधी में तब्दील वह सफा, हमारे ताज बनाने की दास्तां से पूर्व उसकी स्वयम की गई भ्रूण हत्या थी. कुल मिलाकर रफ कापी हमारी पीढ़ी  का बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज रहा है. शायद जिंदगी का पहला  व्यंग्य भी रफ कापी पर ही लिखा था  मैंने.

नोट्स रि राइट करने की अपेक्षा  रफ कापी के वे पन्ने जो सचमुच रफ वर्क के होते उन्हें स्टेपल कर रफ वर्क को दबा कर फेयर कापी में तब्दील करने की कला हम समय के साथ सीख गये थे. जब रफ कापी के कवर की दशा दुर्दशा में बदल जाती और कापी सबमिट करनी विवशता हो तो नया साफ सु्थरा ब्राउन कवर चढ़ा कर निजात मिल जाती. नये कवर में पुराना माल ढ़ंका, मुंदा बन्द बना रहता. बन्द सफों और ढ़ंके कवर को खोलने की जहमत कोई क्यों उठाता.

इस ढ़ांकने, मूंदने, अपनी गलतियों को छुपा देने,  के मनोविज्ञान को नेताओ ने भली भांति समझा है, रफ कापी में टाइम पास के लिए हाशिये पर गोदे गये चित्र  इतिहास और मनोविज्ञान के समर्थ अन्वेषी साधन हैं.

बरसों से सचाई की खोज महज शोधकर्ताओ की थीसिस या किसी फिल्म का मटेरियल मात्र मानी जाती रही है.

तभी तो आजाद भारत में भी किसी को ताजमहल के तलघर के बन्द कमरों, या स्वामी पद्मनाभ मंदिर के गुप्त खजाने के महत्वपूर्ण इतिहास को खोजने में किसी की गंभीर रुचि नही रही. मीनार पर मीनार, गुम्बद पर गुम्बद की सचाई को ढ़ांके, नये नये कवर चढ़े हुये हैं.

लम्बी अदालती कार्यवाहियों के स्टेपल, जांच कमेटियों की गोंद, कमीशन रिपोर्ट्स के फेवीकाल, कानून के उलझे दायरों के मुडे सिले क्लोज्ड पन्नो में  बहमत के सारे मनोभाव, कौम की  सचाई छिपी है. वोट दाता नाराज न हो जाएं सो उनके तुष्टीकरण के लिये देश की रफ कापी के ढेरों पन्ने चिपका कर यथार्थ छिपाई जाती रही है. शुतुरमुर्ग की तरह सच को न देखने से सच बदल तो नही सकता, पर यह सच बोलना भी मना है.

पर आज  नोटबुक के सारे जबरदस्ती  बन्द रखे गए पन्ने फडफड़ा रहे हैं  उन्हें सिलसिलेवार समझना होगा क्योंकि अब मैं समझ रहा हूं कि रफ कापी के वे स्टेपल्ड बन्द पन्ने केवल रफ वर्क नहीं सच की फेयर डायरी है । जिनमें  दर्ज है पीढ़ी की जिजिविषा, तपस्या, निष्ठा और तत्कालीन बेबसी की दर्दनाक पीड़ा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #141 ☆ व्यंग्य – बड़े घर की बेटी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘बड़े घर की बेटी’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 141 ☆

☆ व्यंग्य – बड़े घर की बेटी

(प्रेमचन्द से क्षमायाचना सहित)

बब्बू भाई सयाने आदमी हैं। जहाँ चार पैसे मिलने की उम्मीद नहीं होती वहाँ हाथ नहीं डालते। परोपकार, दान वगैरः को बेवकूफी मानते हैं। भावुकता में कभी नहीं पड़ते। मन्दिर में पाँच रुपये  चढ़ाते हैं तो हाथ जोड़कर कहते हैं, ‘प्रभु, चौगुना करके देना।’

बब्बू भाई के पुण्य उदय हुए हैं। बड़ा बेटा पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी पा गया है। अब उसके लिए शादी वाले आने लगे हैं। बब्बू भाई को लक्ष्मी की पदचाप सुनाई दे रही है। लड़की वालों से मुँह ऊपर उठाकर महानता के भाव से कहते हैं, ‘हमें कुछ नहीं चाहिए, भगवान का दिया हमारे पास सब कुछ है। फिर भी आप अपना संकल्प बता दें तो हमें सुविधा होगी। शादी हमारे ‘स्टेटस’ के हिसाब से नहीं हुई तो नाते-रिश्तेदारों के बीच हमारी नाक कटेगी।’

लड़की वाले का संकल्प बब्बू भाई के  मन माफिक न हुआ तो कह देते हैं, ‘हम फ़ेमिली में विचार करके बताएँगे। इस बीच आपके संकल्प में कुछ संशोधन हो तो बताइएगा।’

कोई लड़की वाला लड़की के गुण गिनाने लगे तो हाथ उठा कर कहते हैं, ‘अजी लड़कियाँ तो सभी अच्छी होती हैं। आप तो अपना संकल्प बताइए।’

अन्ततः बब्बू भाई को एक ऊँची हैसियत और ऊँचे संकल्प वाला घर मिल गया। लड़की भी पढ़ी लिखी। शादी भी हो गयी। लड़की के साथ बारह लाख की कार, गहने-ज़ेवर और बहुत सा सामान आ गया। बहुत सा सामान सिर्फ देने वाले की हैसियत बताने के लिए। बब्बू भाई ने कार घर के दरवाज़े पर खड़ी कर दी ताकि आने जाने वाले देखें और उनके सौभाग्य पर जलें भुनें।

बहू के आने से बब्बू भाई गद्गद हो गये। बहू निकली बड़ी संस्कारवान। सबेरे जल्दी उठकर नहा-धो कर तुलसी को और सूरज को जल चढ़ाती, फिर सिर ढँक कर धरती पर माथा टेक कर सास ससुर को प्रणाम करती। दिन भर उनकी सेवा में लगी रहती। बब्बू भाई मगन होकर आने जाने वालों से कहते, ‘बड़ी संस्कारी बहू है। बड़े घर की बेटी है। समधी से भी फोन पर कहते हैं, ‘बड़ी संस्कारी बेटी दी है आपने। हम बड़े भाग्यशाली हैं।’

कुछ दिनों बाद समझ में आने लगा कि बहू बड़े घर की ही नहीं, बड़े दिल वाली भी है। अब घर में जो भी काम करने वाली बाइयाँ आतीं उनसे बहू कहती, ‘नाश्ता करके जाना’, या ‘पहले नाश्ता कर लो, फिर काम करना।’ घर में जो भी काम करने आता, उसका ऐसा ही स्वागत-सत्कार होने लगा। बब्बू भाई को दिन भर घर के आँगन में कोई न कोई भोजन करता और बहू को दुआएँ देता दिख जाता। देखकर उनका दिल बैठने लगता। वह बहू की दरियादिली के कारण नाश्ते पर होने वाले खर्च का गुणा-भाग लगाते रहते।

अब दरवाज़े पर कोई बाबा-बैरागी या अधिकारी आवाज़ लगाता तो बहू दौड़ी जाती। कभी भोजन-सामग्री लेकर तो कभी दस का नोट लेकर। दरवाज़े से कोई खाली हाथ लौटकर न जाता। बब्बू भाई देख कर मन ही मन कुढ़ते रहते। उन्होंने कभी बाबाओं या भिखारियों को दरवाज़े पर रुकने नहीं दिया था, लेकिन अब वे भगाते तो सुनने को मिलता, ‘आप जाइए, बहूरानी को भेजिए।’ बब्बू भाई को डर था कि अगर वे बहू से कुछ कहेंगे तो वह भी प्रेमचन्द की ‘बड़े घर की बेटी’ की तरह कह देगी, ‘वहाँ (मायके में) इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।’

बहू की कृपा अब आदमियों के अलावा पशु-पक्षियों पर भी बरसने लगी। सामने सड़क पर गायों के रँभाते ही बहू रोटियाँ लेकर दौड़ती। दो आवारा कुत्ते घर के सामने पड़े रहते थे। उन्हें नियम से घी की चुपड़ी रोटी मिलने लगी। एक बिल्ली लहट गयी थी। बिना दूध पिये जाने का नाम न लेती। भगाओ तो बहू के पैरों के पास और पसर जाती। बहू खुशी से सबको खिलाती- पिलाती रहती। एक बब्बू भाई थे जो देख देख कर आधे हुए जा रहे थे।

घर में कोई रिश्तेदार आता तो उसके बच्चों को बहू झट से पाँच सौ का नोट निकाल कर दे देती। बब्बू भाई ने कभी सौ से ज़्यादा का नोट नहीं निकाला, वह भी बड़े बेमन से। बहू दस बीस हज़ार का ज़ेवर भी आराम से दान कर देती। घर के पुराने कपड़े जूते ज़रूरतमन्दों को दान में चले जाते। बब्बू भाई अब अपने पुराने कपड़ों जूतों को छिपा कर रखने लगे थे। पता नहीं कब गायब हो जाएँ।

बब्बू भाई के दोस्तों की अब मौज हो गयी थी। जब भी आते, भीतर से नाश्ते की प्लेट आ जाती। दो तीन दोस्त इसी चक्कर में जल्दी जल्दी आने लगे। खाते और बहू की तारीफ करते। बब्बू भाई चुप बैठे उनका मुँह देखते रहते। एक दोस्त लखनलाल दरवाज़े पर पहुँचते हैं तो ज़ोर से आवाज़ देते हैं, ‘कहाँ हो भैया?’ सुनकर बब्बू भाई का खून जल जाता है क्योंकि वे समझ जाते हैं कि यह पुकार उनके लिए नहीं, बहू के लिए है।

अगली बार लखनलाल आये तो हाथ में नाश्ते की प्लेट आने पर प्रेमचन्द की कहानी के बेनीमाधव सिंह के सुर में बोले, ‘बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।’

सुनकर बब्बू भाई जल-भुन कर बोले, ‘नाश्ता हाथ में आते ही तुम्हारा सुर खुल गया। तुमने भी तो दो बेटों की शादी की है। एकाध बड़े घर की बेटी ले आते तो आटे दाल का भाव पता चल जाता।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 100 ☆ शांति और सहयोग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “शांति और सहयोग…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 100 ☆

☆ शांति और सहयोग… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

मैंने कुछ कहा और बुद्धिजीवियों ने उसे संशोधित किया बस यहीं से अहंकार जन्म लेता है कि आखिर मुझे टोका क्यों गया। सीखने की प्रक्रिया में लगातार उतार- चढ़ाव आते हैं। जब हम सुनना, गुनना और सीखना बंद कर देते हैं तो वहीं से हमारी बुद्धि तिरोहित होना शुरू कर देती है। क्या सही है क्या गलत है ये सोचने समझने की क्षमता जब इसके घेरे में आती है तो वाद- विवाद होने में देर नहीं लगती है। कदम दर कदम बढ़ाते हुए व्यक्ति बस एक दूसरे से बदला लेने की होड़ में क्या- क्या नहीं कर गुजरता।  होना ये चाहिए कि आप अपनी रेखा निर्मित करें और उसे बढ़ाने की ओर अग्रसर हों। सबको जोड़ते हुए चलने में जो आंनद है वो अन्य कहाँ देखने को मिलेगा।

आजकल यूट्यूब और इंस्टाग्राम में पोस्ट करने का चलन इस कदर बढ़ गया है कि हर पल को शेयर करने के कारण व्यक्ति कोई भी थीम तलाश लेता है। उसका उद्देश्य मनोरंजन के साथ ही लाइक व सब्सक्राइब करना ही होता है। यू टयूब के बटन को पाने की होड़ ने कुछ भी पोस्ट करने की विचारधारा को बलवती  किया है। तकनीकी ने एक से एक अवसर दिए हैं बस रोजगार की तलाश में भटकते युवा उसका प्रयोग कैसे करते हैं ये उन पर निर्भर करता है।

एप का निर्माण और उसे  अपडेट करते रहने के दौरान अनायास ही संदेश मिलता है कि समय के साथ सामंजस्य करने का हुनर आना चाहिए। कदम दर कदम बस चलते रहना है। एक राह पर चलते रहें, मनोरंजन के अवसर मिलने के साथ ही रोजगार परक व्यवसाय की पाइप लाइन बनाना भी आना चाहिए। सभी बुद्धिजीवी वर्ग को इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि सबके विकास को, सबके प्रयास से जोड़ते हुए बढ़ना है। एक और एक ग्यारह होते हैं इसे समझते हुए एकता की शक्ति को भी पहचानना होगा। संख्या बल केवल चुनावों में नहीं वरन जीवन हर क्षेत्र में प्रभावी होता है। कैसे ये बल हमारी उन्नति की ओर बढ़े इस ओर चिन्तन मनन होना चाहिए।

आजकल जाति वर्ग के आधार पर निर्णयों को प्रमुखता दी जाती है। इसे एकजुटता का संकेत माने या अलगाव की पहल ये तो वक्त तय करेगा।किन्तु प्रभावी मुद्दे मीडिया व जनमानस की बहस का हिस्सा बन कर सबका टाइम पास बखूबी कररहे हैं। आक्रोश फैलाने वाली बातों पर चर्चा किस हद तक सही कही जा सकती है। इन पर रोक होनी चाहिए। कार्यों का होना एक बात है किन्तु बिनाबात के हल्ला बोल या ताल ठोक जैसे कार्यक्रम किसी भी हद तक सही नहीं कहे जा सकते हैं। इन सबका असर जन मानस  पर पड़ता है सो सभी को एकजुटता का परिचय देते हुए सहयोगी भाव से  सही तथ्यों को स्वीकार करना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #140 ☆ व्यंग्य – मर्ज़ लाइलाज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

 

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘मर्ज़ लाइलाज’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 140 ☆

☆ व्यंग्य – मर्ज़ लाइलाज

नगर के स्वघोषित महाकवि अच्छेलाल ‘वीरान’ की हालत निरंतर चिंताजनक हो रही है। पहले वे रोज़ शाम को छड़ी फटकारते पास के पार्क तक घूमने निकल जाते थे। वहाँ तीन-चार साहित्यकार मित्र मिल जाते थे। उनके साथ घंटों गोष्ठी जमी रहती थी।

अब यह सिलसिला बन्द है। घर में ही पलंग पर लेटे सीलिंग की तरफ टुकुर-टुकुर निहारते रहते हैं। कभी धीरे-धीरे गेट पर आकर खड़े होते हैं, लेकिन किसी परिचित को देखते ही जल्दी से घर में बन्द हो जाते हैं। घर में कोई तबियत का हाल-चाल पूछे तो ‘हूँ’ ‘हाँ’ में टरका देते हैं। कोई ज़्यादा पूछे तो उसे खाने को दौड़ते हैं। लेटे लेटे कुछ बुदबुदाते रहते हैं। घरवालों ने कान देकर सुना तो पता चला ग़ालिब का शेर बोलते हैं— ‘कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता।’ भोजन में रुचि निरंतर कम होती जा रही है। भोजन देखकर मुँह फेर लेते हैं। घर वाले परेशान हैं।

महाकवि की चेला-मंडली विशाल है, लेकिन अभी उनकी हिम्मत गुरूजी का सामना करने की नहीं होती। शिष्यों के सामने आते ही महाकवि के मुख से ‘नाकिस,नाकारा, नालायक’ जैसे सुभाषित फूटते हैं। इसीलिए चेले गुरू जी के गेट पर तो मंडराते रहते हैं, लेकिन भीतर घुसने से कतराते हैं।

फ़ेमिली डॉक्टर को बुला कर महाकवि की जाँच पड़ताल करायी गयी है। डॉक्टर के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। कह गये, ‘शारीरिक रोग तो कोई समझ में नहीं आता। किसी दिमाग के डॉक्टर को दिखा लो।’

चेलों को गुरूजी का रोग पता है। मर्ज़  की जड़ यह है कि एक साल से महाकवि का कहीं सम्मान नहीं हुआ। नगर के दूसरे कवियों के कई सम्मान-अभिनंदन हो गये, लेकिन महाकवि साल भर से सूखे हैं। न गले में माला पड़ी, न कंधे पर दुशाला। इसके पहले कोई साल सम्मान-विहीन नहीं गुज़रा। किसी चेले के सामने आते ही महाकवि किसी सुखद समाचार की उम्मीद में उसके चेहरे की तरफ देखते हैं, लेकिन वहाँ बैठी मायूसी पढ़ कर बुदबुदाते हैं— ‘डूब मरो चुल्लू भर पानी में।’

अंततः गुरुपत्नी ने चेलों को अल्टीमेटम दे दिया कि अगर महाकवि को कुछ हो गया तो उन्हें गुरुहत्या का पाप लगेगा और उन्हें नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।

घबराकर चेलों ने जुगाड़ जमाया। एक शाम गुरूजी को सूचित किया कि अगले सवेरे घर पर ही नगर की जानी-मानी संस्था ‘साहित्य संहार’ द्वारा उन्हें सम्मानित किया जाएगा। सुनकर महाकवि के चेहरे पर रक्त लौटा। चेलों को भरे गले से आशीर्वाद दिया। चेलों ने चन्दा करके सम्मान का खर्चा संस्था को सौंप दिया।

दूसरे सवेरे महाकवि जल्दी उठकर, कपड़े बदल कर, पलंग पर अधलेटे हो सम्मान टीम का इंतज़ार करने लगे। थोड़ी देर में संस्था के अध्यक्ष और सचिव और चेलों का हुजूम आ गया। महाकवि के कंठ में माला, हाथ में श्रीफल और कंधों पर शॉल अर्पित की गयी। फिर सम्मान-पत्र पढ़ा गया। संस्था के अध्यक्ष हँस कर बोले, ‘आपके सम्मान-पत्र के लिए हमारे सचिव ने तीन दिन तक शब्दकोश छान कर आला दर्जे के विशेषण निकाले।’ महाकवि ने सचिव को धन्यवाद दिया।

आज बहुत दिनों के बाद सम्मान- दल के साथ महाकवि ने ठीक से जलपान किया। परिवार ने राहत की साँस ली।

महाकवि ने शरीर में नये बल के संचार का अनुभव किया। सम्मान-टीम विदा होने लगी तो उठकर गेट तक उन्हें छोड़ने आये। फिर लौटकर पत्नी से बोले, ‘बहुत दिनों से टहलने नहीं गया। मित्रों से भी नहीं मिला। आज शाम को जाऊँगा। अब तबियत बिलकुल ठीक लग रही है।’

शिष्य-मंडली भी एक साल की मोहलत पाकर खुशी खुशी विदा हुई।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 99 ☆ मोती,  धागा और माला ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “मोती,  धागा और माला …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 99 ☆

☆ मोती,  धागा और माला… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

कितना सहज होता है,  किसी के परिश्रम पर अपना हक जमाना। जमाना बदल रहा है किंतु मानवीय सोच आज भी लूट- खसोट के साए से बाहर आना नहीं चाहती है या आने की जद्दोजहद करती हुई दिखाई देती है। धागे ने माला पर हक जताते हुए कहा,  मेरे कारण ही तुम हो। तभी बीच में बात काटते हुए मोती ने कहा तारीफ तो मेरी हो रही है कि कितने सुंदर मोती हैं। सच्चे मोती लग रहे हैं।

माला ने कहा सही बात है तुम्हारी सुंदरता से मेरी कीमत और बढ़ जाती है।

धागा मन ही मन सोचने लगा कि ये दोनों मिलकर अपने गुणगान में लगे हैं कोई बात नहीं अबकी बार ठीक समय पर टूट कर दिखाऊंगा जिससे माला और मोती दोनों अपनी सही जगह पर दिखाई देंगे।

ऐसा किसी एक क्षेत्र में नहीं,  जीवन के सभी क्षेत्रों पर इसका असर साफ दिखाई देता है। नींव की उपेक्षा करके विशाल इमारतें खड़े करने के दौर में जीते हुए लोग अक्सर ये भूल जाते हैं कि समय- समय पर उनके प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त करनी चाहिए। स्वयं आगे बढ़ना और सबको साथ लेकर चलना जिसे आ गया उसकी तरक्की को कोई नहीं रोक सकता है। योजना बनाना और उसे अमलीजामा पहनाने के मध्य लोगों का विश्वास हासिल करना सबसे बड़ी चुनौती होती है जिसे  सच्ची सोच से ही पाया जा सकता है। श्रेय लेने से श्रेस्कर है कि कर्म करते चलें, वक्त सारे हिसाब- किताब रखता है। समय आने पर उनका लाभ ब्याज सहित मिलेगा। 

थोथा चना बाजे घना,  आखिर कब तक चलेगा,  मूल्यांकन तो सबकी निगाहें करती रहती हैं। धागे को सोचना होगा कि वो भी अपने सौंदर्य को बढ़ाए,  सोने के तार में पिरोए गए मोती को देखने से पहले लोग तार को देखते हैं उसके वजन का अंदाजा लगाते हुए अनायास ही कह उठते हैं; मजबूत है। यही हाल रेशम के धागे का होता है। करीने से चमकीले धागों के साथ जब उसकी गुथ बनाई जाती है तो मोतियों की चमक से पहले रेशमी, चमकीले धागों की प्रशंसा होती है। सार यही है कि आप भले ही धागे हों किन्तु स्वयं की गुणवत्ता को मत भूलिए उसे निखारने, तराशने,  कीमती बनाने की ओर जुटे रहिए। अमेरिकी उद्यमी जिम रॉन ने ठीक ही कहा है – “आप अपने काम पर जितनी ज्यादा मेहनत करते हैं,  उससे कहीं ज्यादा मेहनत खुद पर करें।”

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #139 ☆ व्यंग्य – लाउडस्पीकर और हम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘लाउडस्पीकर और हम’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 139 ☆

☆ व्यंग्य – लाउडस्पीकर और हम  

लाउडस्पीकर की ईजाद इसलिए हुई थी कि दूर बैठा कोई आदमी यदि बात को सुनना चाहे जो वंचित न रहे। लेकिन अब लाउडस्पीकर का प्रयोग ऐसी बातों को हमारे कान में ठूँसने के लिए होता है जिन्हें हम सुनना नहीं चाहते।

दिन के कोलाहल में तो हम इस ज़ुल्म से बच लेते हैं, लेकिन रात को बचने का कोई रास्ता नहीं रहता। रात को शहर सन्नाटे में होता है। दो मील दूर की आवाज़ भी साफ सुनाई देती है। हम आधे नींद की आगोश में होते हैं। तभी वह शुरू होता है— ‘ठक ठक’ ‘हेलो माइक टेस्टिंग, वन टू थ्री फोर।’

और इसके बाद,  ‘हाज़रीन, अब मैं आपके सामने शहर के मशहूर गायक तानसेन को पेश करता हूं, जिनकी आवाज़ में मुकेश की खनक, रफी की लोच और तलत का सोज़ है। तो सुनिए हाज़रीन, मशहूर गायक तानसेन को।’

मशहूर गायक तानसेन आते हैं और खाँसने खूँसने के बाद मुकेश, रफी और तलत की सामूहिक कब्र खोदना शुरू कर देते हैं। हम अपनी खटिया पर छटपटाते हैं क्योंकि बच निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। मेरे जैसे लोग जिन्हें थोड़ा सुर ताल का ज्ञान है और भी ज्यादा कष्ट भोगते हैं।

उद्घोषक महोदय ऐसे उतार-चढ़ाव और ऐंठी ज़ुबान में घोषणा करते हैं जैसे अमीन सायानी के असली वारिस वे ही हों।

किसी रात को पुरुष स्वरों में कोई सोहर शुरू हो जाता है। खासे बेसुरे कंठ हैं लेकिन शुरू हो जाते हैं तो खत्म ही नहीं होते। जच्चा-बच्चा को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ, लेकिन सोचता हूँ भगवान ने कान दिये तो कान के ढक्कन क्यों न दिये? कान को दुनिया का कचरादान बना दिया।

रात को गाने वाला बड़े फायदे में रहता है। दिन को तो शायद उसे आठ श्रोता भी न मिलें, लेकिन रात को उसे अपनी-अपनी खटिया पर अवश पड़े आठ दस लाख श्रोता मिलते हैं। मैं कल्पना करता हूँ कि इस गायक के सामने कितने श्रोता होंगे? दो चार होंगे? या फिर वह हमीं खटिया वालों को लक्ष्य करके अँधेरे में तीर मार रहा है?

कहीं से ‘हेलो हेलो’ के बाद कोई पाँच छः साल के चिरंजीव गाने लगते हैं—‘ऐं ऐं मेरे अंगने में। ऐं मेरे अंगने में।’ फिर माइक पर कुछ झगड़ा सुनाई पड़ता है— ‘अब हम गायेंगे।’ ‘नहीं, अभी हम गायेंगे।’ फिर कोई दस बारह साल वाली कुछ मोटी आवाज़ शुरू हो जाती है।

कभी किसी लड़की की शरमाती, झिझकती आवाज़। कल्पना कर सकते हैं कि कैसे नाखून से ज़मीन को खुरचते हुए, सिर झुकाये गा रही होगी। ठीक है भई, पिताजी ने लाउडस्पीकर के पैसे दिए होंगे। गाओ, खूब गाओ। सुनने के लिए हम तो हैं ही।

कहीं किसी विदुषी का प्रवचन चल रहा है— ‘ईश्वर में बिलीव किए बिना मुक्ति नहीं मिलेगी। यह माया सब यूज़लेस है। इससे अपने को मुक्त होना है, फ्री होना है। ईश्वर की शरण में आये बिना पीस और हैपीनेस नहीं मिलने वाली। यह बच्चे क्यों डिस्टर्ब कर रहे हैं? बिल्कुल साइलेंट हो जाइए।’

किसी कोने में कोई नेता गरजते हैं। सब वही बातें जिन्हें सुनते सुनते हम बौरा गये। उन शब्दों के अर्थ घिस गये, लेकिन उन्हीं सिक्कों को चला रहे हैं। विपक्ष की खिंचाई कर रहे हैं, चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं।

यह सारे भयानक स्वर हमारे कानों से टकरा रहे हैं, नींद हराम कर रहे हैं, चैन हराम कर रहे हैं। समझना मुश्किल है कि ये स्वर शहर के किस कोने से आते हैं।

इस अत्याचार से यह साबित होता है कि लाउडस्पीकर सिर्फ चोंगा ही नहीं है, वह एक हथियार भी है। जिस को परेशान करना हो उसके घर की तरफ लाउडस्पीकर का चोंगा घुमा दो और दो दिन तक चौबीस घंटे चालू रखो। यंत्रणा देने का यह नायाब तरीका है। चोंगे का शिकार बचकर जा भी कहाँ सकता है? ‘हम हाले दिल सुनाएंगे, सुनिए कि न सुनिए।’

हमारी कोई खुशी लाउडस्पीकर बजाये बिना पूरी नहीं होती। भाषण के लिए लाउडस्पीकर अनिवार्य है, भले ही कमरा इतना छोटा हो कि श्रोताओं से फुसफुसा कर भी बात की जा सके। दूसरी तरफ ऐसे शूरवीर हैं जो आठवीं संतान के जन्म पर भी भोंगा लगा लेते हैं।

इसलिए लाउडस्पीकर के अत्याचार से निजात पाना आसान नहीं लगता। सुनते रहो और दाँत पीसते रहो। पीसते पीसते दाँत टूट जाएंगे। इटली में पीसा की झुकती हुई मीनार के आसपास मोटर के हॉर्न बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था ताकि शोर के दबाव से मीनार और न झुक जाए। लेकिन यहाँ आवाज़ें मीनार से ज्यादा कीमती आदमी की दुर्गति कर रही हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 98 ☆ लाइम लाइट की हाइट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “लाइम लाइट की हाइट …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 98 ☆

लाइम लाइट की हाइट … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

लाइम और लाइट दोनों की ही शॉर्टेज चल रही है। इसके फेर में पड़ा हुआ व्यक्ति हमेशा कुछ न कुछ अलग करने के चक्कर में घनचक्कर बना हुआ दिखाई देता है। अपनी अलग पहचान बनाना कौन नहीं चाहता, बस यहीं से असली खेल शुरू हो जाता है। समाज के बने हुए नियमों को ताक पर रखकर,एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए व्यक्ति आगे के रास्ते पर चल देता है।

दो सफल सहेलियाँ एक अवसर पर एक दूसरे से मिलने के लिए आतुर दिखीं लेकिन दोनों के भावों में अंतर था। पहली सहेली नेह भाव को लेकर मिल रही थी तो दूसरी अपने सफल होने की चादर को लपेटे हुए मंद- मंद मुस्कुराते हुए केवल औपचारिक भेंट हेतु आयी थी। दरसल दोनों ही इस प्रतिक्रिया से निराश हुईं। पहली को लगा कि उसने व्यर्थ ही यहाँ आकर समय नष्ट किया क्योंकि यहाँ तो एक संस्था की पदाधिकारी आयी है तो वहीं दूसरी ने सोचा ये तो अभी तक उन्हीं यादों को सीने से लगाकर आयी है। मैं तो इसके पद से जुड़कर अपना गौरव और बढ़ाना चाह रही थी किन्तु ये बेचारी बहनजी टाइप ही रह गयी। ऐसी सफलता की क्या कदर करूँ जो लाइमलाइट से दूर भाग रही हो।

जो हम सोचते हैं; वही बनते जाते हैं क्योंकि कल्पना से ही विचार बनते हैं और वही अनायास  हमारे कार्यों द्वारा प्रदर्शित होते हैं। इसीलिए अच्छे लोगों का सानिध्य, अच्छे संस्कार, अच्छी पुस्तकें सदैव पढ़ें।

एक बहुत पुरानी कहानी जो लगभग सभी ने पढ़ी या सुनी होगी। दो तोते एक साथ जन्म लेते हैं किंतु उनकी परवरिश अलग- अलग माहौल में  होती है। एक महात्मा जी के आश्रम में लगे पेड़ पर पलता है तो दूसरा एक ऐसे पेड़ पर रहता है जिसके आश्रय तले चोर बैठ कर आपस में योजना बनाते व चोरी के सामान का हिस्सा बाँट करते हैं।

जाहिर है वातावरण के अनरूप उनके स्वभाव भी निर्मित  हुए जहाँ आश्रम का तोता मन्त्र जाप करता व राहगीरों को राह बताता वहीं  दूसरा तोता राहगीरों को अपशब्द कहता व उनको गलत मार्ग बताता जिससे वे रास्ता भटक जाते।

ये सब घटनाक्रम दर्शाते हैं कि यदि अंतरात्मा को शुद्ध रखना है तो सत्संगत के महत्व को पहचाने। अब पुनः लाइम लाइट की ओर  आते हैं, और एक प्रश्न सभी के लिए है कि क्या रिश्तों और संबंधों में इसकी उपस्थित इतनी जरूरी हो जाती है कि हम सब कुछ खोकर भी बस सफलता की नयी परिभाषा गढ़ने में ही पूरा जीवन जाया करते जा रहे हैं?

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #138 ☆ व्यंग्य – फत्तेभाई का स्वर्ग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘फत्तेभाई का स्वर्ग’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 138 ☆

☆ व्यंग्य – फत्तेभाई का स्वर्ग  

फत्तेभाई नगर में एक धर्मयोद्धा के रूप में विख्यात रहे। जहाँ भी धर्म के नाम पर कहीं फ़साद की खबर मिलती, वहाँ उड़ कर पहुँच जाते। दृश्य पर उनके अवतरित होते ही वातावरण का पारा ऊपर चढ़ जाता। फिर कोई तर्क, कोई समझाइश, कोई प्रार्थना कारगर न होती। होता वही जो फत्तेभाई चाहते। पुलिस-प्रशासन उन पर हाथ डालने में डरते थे क्योंकि उन्होंने शिष्यों की एक बड़ी फौज तैयार कर ली थी,जो उनके इशारे पर कहीं भी जूझने को तैयार रहती थी।

ऐसे ही फ़साद की एक जगह पर एक दिन फत्तेभाई पहुँचे थे और वहाँ जनता को प्रभावित करने के लिए अपने बाहुबल का प्रदर्शन कर रहे थे। वे चीख चीख कर दूसरे पक्ष के लोगों को ललकार रहे थे कि अचानक उनके दिमाग़ की नस जवाब दे गयी और वे ‘कोमा’ में चले गये। शिष्य तत्काल उन्हें लाद कर अस्पताल ले गये जहाँ दो दिन ‘कोमा’ में रहने के बाद उनके गौरवशाली जीवन पर ‘फुलस्टॉप’ लग गया।

फत्तेभाई की आत्मा सीधी उड़कर परलोक चली गयी। (आत्मा बिना गाइडेंस के इतनी दूर परलोक कैसे पहुँच जाती है यह मुझे नहीं मालूम।) वहाँ पहुँची तो देखा सामने एक लंबी पर्णकुटी है और सब तरफ वैसी ही कुटियाँ फैली हैं। सब तरफ अजीब सा सन्नाटा था। सामने वाली कुटी में तीन चार लोग ख़ामोश बैठे थे और आठ दस लोग इधर-उधर डोल रहे थे।

फत्तेभाई की आत्मा अकड़ती हुई कुटिया में घुसी। सामने बैठे लोगों से बोली, ‘हम भोपाल के फत्तेभाई की आत्मा हैं। शायद आपने हमारा नाम सुना होगा। हमारे शहर में तो बच्चा बच्चा हमें जानता है। हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए बहुत काम किया है और आज धर्म की राह में ही अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है। हमारा नाम स्वर्ग की लिस्ट में होगा। बताइए, हमारे ठहरने का इंतज़ाम कहाँ है?हमने तो सोचा था कि यहाँ गाजे-बाजे के साथ हमारी अगवानी होगी, लेकिन यहाँ तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता। लगता है यहाँ का हाल भी धरती जैसा ही है।’

वहाँ बैठे लोगों में से जो प्रमुख दिखता था वह बोला, ‘पता नहीं लोगों को यह क्या रोग हो गया है। जो आता है वह स्वर्ग स्वर्ग रटता हुआ आता है। भैया, यहाँ स्वर्ग वर्ग कुछ नहीं है। यहाँ पर आत्माओं के अन्तरण का काम होता है। आपकी जाँच की जाएगी कि आपको जिस योनि में भेजा गया था उसके अनुरूप आपने काम किया या नहीं। जैसे कि आपको इंसान बनाकर भेजा गया था तो अगर आपने इंसान के अनुरूप जीवन यापन नहीं किया तो आपको किसी दूसरी योनि में भेजा जा सकता है। और अगर इंसान जैसे रहे तो दुबारा इंसान बनने का मौका मिल सकता है। इसी को स्वर्ग नरक कह सकते हो। बाकी स्वर्ग नरक कुछ नहीं है।

‘और आप यह जो बार बार धर्म की बात करते हो यह हमारी समझ से बाहर है। हम कोई धर्म वर्म नहीं समझते। इंसान का धर्म इंसानियत है, बाकी बातें हमारी समझ से परे हैं।’

फत्तेभाई सुनकर चक्कर में पड़ गये। बोले, ‘भैया, यह इंसानियत का धर्म क्या है?जरा समझाइए।’

प्रमुख बोला, ‘इंसानियत का धर्म यही है कि दूसरे इंसानों और सभी जीवों से प्रेम करो, उनकी मदद करो, अपनी दुनिया और अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए जो कर सको, करो। खुद शान्ति से रहो और दूसरों को चैन से रहने दो।’

फत्तेभाई बोले, ‘और यह जो हम अपने धर्म के लिए जान हथेली पर लिये रहते हैं, उसके लिए कोई क्रेडिट नहीं है?’

प्रमुख बोला, ‘हमें न बताओ। हमें सब पता है कि तुम्हारे लोक में धर्म के नाम पर क्या क्या होता है। जो तुम्हारा धर्म निश्चित किया गया है उसे छोड़कर तुम सब करते हो। न खुद चैन से बैठते हो, न दूसरों को बैठने देते हो।’

फत्तेभाई बोले, ‘वहाँ लोग स्वर्ग के लालच में शरीर और मन पर भयंकर कंट्रोल लगा रहे हैं, शरीर को पत्ते जैसा सुखा रहे हैं, धर्म के नाम पर सिरफुटौव्वल कर रहे हैं, और आप कहते हो कि स्वर्ग जैसी कोई चीज़ ही नहीं। यह बात नीचे तक पहुँच जाए  तो पूरे भूलोक में हाहाकार मच जाएगा।’

प्रमुख हँसकर बोला, ‘बताने के लिए लौट कर कौन जाएगा?’ फिर बोला, ‘अब आप कुटिया नंबर 173 में जाओ। वहाँ आपकी गहन जाँच होगी। आपके किये कर्मों की जाँच-पड़ताल होगी। फिर तय होगा कि आपको अब कौन सी योनि ‘एलॉट’ की जाए।’

फत्तेभाई दुखी मन और भारी कदमों से कुटिया नंबर 173 की तरफ अग्रसर हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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