हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 123 ☆ “लोक-लुभावन बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य ।“लोक-लुभावन बजट”।)  

☆ व्यंग्य # 123 ☆ “लोक-लुभावन बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

“लोक-लुभावन बजट”

जनता का बजट है, जनता के लिए बजट है,पर सरकार कह रही है कि ये फलांने साब का लोकलुभावन बजट है।खूब सारे चेहरों को बजट के बहाने साब की चमचागिरी करने का चैनल मौका दे रहे हैं। विपक्ष विरोध कर रहा है या विपक्ष अपना धर्म निभा रहा है ये तो पता नहीं, पर जनता को कुछ लोग बता रहे हैैं कि विपक्ष भी होता है,जो बजट के समय बोलता है।

छकौड़ी दो दिन से खाद लेने की लाइन में लगा रहा खाद नहीं मिल पायी तो भूखा प्यासा टीवी पर बजट देखने लगा। उसने देखा एक  चमचमाते माॅल में बजट बाजार  ।इस बजट में खाद मिलने की उम्मीद। उसने देखा बेरोजगार बेटे के लिए 60लाख रोजगार का सपना। उसने देखा माल के दुकानदार निकल निकल कर हंस रहे हैं, एक सजी धजी लिपिस्टिक लगी एंकर चिल्ला रही है,बजट में गांव की आत्मा दिख रही है, माॅल के कुछ लोग तालियां बजाने लगे।

छकौड़ी का भूखा पेट गुड़गुड़ाहट पैदा कर रहा है, गैस बन रही है, माॅल में जो दिख रहा उसे देखना मजबूरी है। एकदम से चैनल पलटी मार कर इधर लंच के दौरान बजट पर चर्चा पर आकर रुकता है, पार्टी के बड़े पेट वाले और कुछ बिगड़े बिकाऊ पत्रकार भी बैठे हैं, लाल परिधान में लाल लाल ओंठ वाली बजट के बारे में बता रही है, सबके सामने थालियां सज गयीं हैं, थाली में बारह तेरह कटोरियों में पानी वाली सब्जियां डालीं जा रहीं हैं, दो दुबले-पतले खाना परोसने वाले मास्क लगाकर खाना परोस रहे हैं, इतने सारे बड़े पेट वाले बिना मास्क लगाए, स्वादिष्ट व्यंजन सूंघ रहे हैं, बजट पर चर्चा चल रही है, कुछ लोग खाने के साथ बजट खाने पर उतारू हैं। कोरोना दूर खड़ा हंस रहा है। 

भूखा प्यासा छकौड़ी जीभ चाटते हुए सब देख रहा है। साब बार बार प्रगट होकर कहते हैं  बजट की आत्मा में गांव है और गांव के किसान के लिए ही बजट है। बजट तुम्हें बधाई। बजट तुम्हें सुनने में खूब मजा आया, अंग अंग रोम रोम रोमांचित हो गया, अंग अंग कान बन गए, सपनों के गांव में  उम्मीद के झूले झूलने का अलग सुख है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #126 ☆ व्यंग्य – गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 126 ☆

☆ व्यंग्य – गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का

हुज़ूर! मेरा बचाव यही है कि इस मामले में मैं बेकसूर हूँ। यह इत्ता बड़ा प्लॉट जो आप देख रहे हैं, मेरे वालिद साहब ने खरीदा था।पच्चीस-  तीस साल पहले ज़मीन चवन्नी फुट के भाव मिलती थी और ज़मीनों के मालिक ग्राहकों से चिरौरी करते फिरते थे कि भाई ले लो,पैसे धीरे धीरे दे देना।मगर पिछले पन्द्रह-बीस साल में आबादी ने ऐसे पाँव पसारे और ज़मीन की कीमतों में ऐसे खेल हुए कि अब एक आदमी अपनी कब्र के लायक ज़मीन पा जाए तो ऐसे खुश होता है जैसे जंग जीत लिया हो।हर रोज़ कोई मुझे सूचना देता है, ‘भाईजान, आपकी कृपा से सरस्सुती नगर में मकान बनाया है।कभी चरन-धूल दीजिए न।’

सब अपना अपना ताजमहल बना कर मगन हैं, भले ही ताजमहल बनाने में उनकी मुमताज के गहने-जे़वर नींव में दफन हो गए हों। मैं ताजमहल बनने की सूचना पाकर खुश नहीं होता क्योंकि अभी करोड़ों लोगों का ताजमहल फुटपाथ पर और खूब हवादार बना है और उनकी मुमताज (वह अभी ज़िन्दा है) जब सोती है तो उसके आधे पाँव ताजमहल से बाहर सड़क पर होते हैं।

पिताजी ने पुराने ज़माने के हिसाब से सामने काफी खाली ज़मीन छोड़कर मकान बनवाया। अब सामने ज़मीन छोड़ने का चलन रहा नहीं, इसलिए सामने छूटी लम्बी चौड़ी ज़मीन के मुकाबले हमारा मकान बेतुका और पिद्दी लगता है। दाहिने बाएँ वाले उस ज़़मीन में धीरे से पाँव पसार लेने की फिराक में रहते हैं। इसलिए हमने एक लम्बी चौड़ी चारदीवारी ज़रूर बनवा दी है।

मैं इतने बड़े प्लॉट को खाली रखकर हमेशा बहुत शर्मिन्दा रहता हूँ क्योंकि मेरे शुभचिन्तक हमेशा पहली नज़र उस ज़मीन पर और दूसरी मेरे चेहरे पर डालते हैं कि मेरा दिमाग ठीक-ठाक है या नहीं। जो पूछ सकते हैं वे पूछते रहते हैं, ‘कहो भई, क्या सोचा इस ज़मीन के बारे में?’ दरअसल आसपास के घने मकानों के बीच यह ज़मीन ऐसे ही पड़ी है जैसे ठेठ शहरियों की महफिल के बीच में कोई देहाती अपनी पगड़ी सिरहाने रख कर पसर जाए।

एक दिन मैं उस ज़मीन के फालतू पौधे उखाड़ रहा था कि देखा कमीज़ पायजामा धारी एक अधेड़, ठिगने सज्जन मेरे पास खड़े हैं। मैं उन्हें शक्ल से जानता था क्योंकि वे बेहद बदरंग स्कूटर पर कई बार सड़क से आते जाते थे। परिचय का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था।

वे नमस्कार के भाव से हाथ उठाकर बोले, ‘जी, मैं भोगीलाल। जमीन मकान का धंधा करता हूँ। यह सारी जमीन आपकी है?’

मैंने कहा, ‘हां जी, अपनी है। आपकी दुआ है।’

वह बोले, ‘वह तो ठीक है साब, लेकिन यह इतनी लम्बी चौड़ी जमीन खाली क्यों पड़ी है?’

मैंने जवाब दिया, ‘बात यह है भोगीलाल जी, कि यह ज़मीन मेरे मरहूम पिताजी ने खरीदी थी। उन्होंने यह मकान बनवाया। अब हमारे पास इतना पैसा नहीं कि सामने मकान बना सकें और हमारी माता जी ज़मीन को बेचना नहीं चाहतीं।’

भोगीलाल जी कुछ आहत स्वर में बोले, ‘क्यों नहीं बेचना चाहतीं जी?’

मैंने कहा, ‘यों ही। बस इस ज़मीन से उनका जज़्बाती लगाव है। कहती हैं कि जब तक वे ज़िन्दा हैं, जमीन नहीं बिकना चाहिए।’

भोगीलाल जी मेरी बात सुनकर दुखी भाव से हाथ मलने लगे।बोले, ‘यह तो अंधेर है भाई साब। सोने के मोल वाली जमीन मिट्टी बनी पड़ी है और आप जज्बात की बात कर रहे हो। यह जज्बात क्या होता है साब? सुना तो कई बार है।’

मैंने कहा, ‘उसे आप नहीं समझेंगे। आप तो इतना ही समझिए कि हमें अभी यह ज़मीन नहीं बेचनी है।’

वे बड़े परेशान से चले गये।

दो तीन दिन बाद ही वे फिर आ धमके। मुझे घर से बाहर बुलाकर एक तरफ ले गये, फिर बोले, ‘तो क्या सोचा जी आपने?’

मैंने पूछा, ‘किस बारे में?’

वह आश्चर्य से बोले, ‘क्यों! वही जमीन के बारे में।’

मैंने कुछ झुँझलाकर कहा, ‘मैंने आपसे कहा था न कि माता जी अभी ज़मीन नहीं बेचना चाहतीं।’

सुनकर भोगीलाल जी ऐसे दुखी हुए कि मुझे उनकी हालत पर दया आ गयी। मेरा हाथ पकड़ कर बोले, ‘नादानी की बातें मत करो बाउजी। इतनी कीमती जमीन यों फालतू पड़ी देखकर मेरा तो दिल डूब डूब जाता है। आप अपनी माता जी को समझाओ न बाउजी। यह ‘प्राइम लैंड’ है, ‘प्राइम लैंड’।’

मैंने कहा, ‘मालूम है भोगीलाल जी, लेकिन मेरी माता जी इस बारे में कुछ नहीं सुनना चाहतीं और मैं उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता।’

भोगीलाल जी कुछ क्षण मातमी मुद्रा में शान्त खड़े रहे, फिर बोले, ‘देखो साब, मेरी बात का बुरा मत मानना। आप तो बालिग हैं, खुद फैसला कर सकते हैं। आज के जमाने में इस तरह सरवन कुमार बन जाना ठीक नहीं। माफ करना बाउजी, माता जी तो स्वर्गलोक चली जाएँगीं, जमीन यहीं रहेगी और आप यहीं रहोगे। जिनको चले जाना है उनकी बात का इतना ख्याल करना ठीक नहीं। थोड़ा प्रैक्टिकल बनो, बाउजी। मैं यहाँ फ्लैट बनवा दूँगा। एक दो फ्लैट आप ले लेना। मिनटों में लाखों के वारे न्यारे हो जाएँगे।’

मैंने चिढ़कर कहा, ‘मैंने कहा न, भोगीलाल जी, मुझे ज़मीन नहीं बेचना है। आप बार-बार इस बात को मत उठाइए।’

उन्होंने एक लम्बी आह भरकर धीरे से कहा, ‘जैसी आपकी मरजी।’ फिर उस खाली ज़मीन को ऐसी हसरत से देखा जैसे युद्ध में घायल कोई सैनिक अपने आखिरी क्षणों में अपनी बिछुड़ती हुई मातृभूमि को देखता है। इसके बाद वे भारी कदमों से विदा हुए।

इस मुलाकात के बाद मैंने कई बार उन्हें अपनी ज़मीन के सामने खड़े देखा। वे वहाँ खड़े खड़े ज़मीन के पूरे क्षेत्र की तरफ उँगली घुमाते रहते या उसकी लम्बाई और चौड़ाई की तरफ धीरे धीरे उँगली चलाकर फिर उँगलियों पर कुछ गुणा-भाग करने लगते। एक बार उन्हें कैलकुलेटर के बटन दबाकर उसमें झाँकते हुए भी देखा। लेकिन हर बार मुझे देखते ही वे स्कूटर स्टार्ट करके वहां से रवाना हो जाते।

एक दिन भोगीलाल जी की युवा कॉपी जैसा एक युवक मेरे घर आया। मुझसे पूछा, ‘जी,एम एल त्रिपाठी साहब यहीं रहते हैं?’

मैंने कहा, ‘जी, मेरा ही नाम एम एल त्रिपाठी है। कहिए।’

युवक बोला, ‘जी, मैं भोगीलाल जी का बेटा हूँ।उन्हें हार्ट अटैक आया है। अस्पताल में भर्ती हैं। आपको मिलने के लिए बुलाया है। कहा है कि तकलीफ करके थोड़ी देर के लिए जरूर मिल लें।’

मैंने अफसोस ज़ाहिर किया और मिलने का वादा किया, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि उन्होंने मुझे क्यों याद किया।अस्पताल पहुँचा तो वे बिस्तर पर लेटे हुए मिले। कमज़ोर और पीले दिख रहे थे। मैंने सहानुभूति जतायी।

वे धीमी आवाज में बोले, ‘दरअसल आप की जमीन ने मुझे मार डाला बाउजी। इसीलिए मैंने आपको तकलीफ दी। बात यह है कि मैंने बहुत दिनों से इतनी कीमती जमीन इतने दिन तक फालतू पड़ी हुई नहीं देखी। आपकी जमीन के पास से निकलते वक्त मेरा ब्लड- प्रेशर बढ़ जाता था। अकेले में बैठता था तो आप की जमीन मेरी खोपड़ी पर सवार हो जाती थी बाउजी। उस दिन आप की जमीन के बाजू से निकलते वक्त ही मुझे हार्ट की तकलीफ शुरू हुई।’

मैंने अपराधी भाव से कहा, ‘मुझे बहुत अफसोस है भोगीलाल जी। मैं क्या करूँ? मैं खुद मजबूर हूं, नहीं तो आपकी सेहत की खातिर ज़रूर उस ज़मीन का फैसला कर देता।’
भोगीलाल जी बोले, ‘हां जी, आपका भी क्या कसूर। फिर भी कोशिश करो जी। मुझे क्या लेना देना है, फायदा तो आपको ही होना है। मुझे तो बीच में दो चार पैसे मिल जाएँगे।’

मैंने उन्हें शान्त करने के लिए कहा, ‘मैं फिर कोशिश करूंगा, भोगीलाल जी। आप इत्मीनान से स्वास्थ्य लाभ कीजिए।’

वे कुछ संतोष के भाव से बोले, ‘बहुत शुक्रिया जी! आपने बहुत समझदारी की बात की। माता जी से बात करो बाउजी, नहीं तो मुझे आपकी सड़क से निकलना बन्द करना पड़ेगा। आप की जमीन को देखकर मेरे दिल को धक्का लगता है साब।’

मैं उन्हें आश्वस्त कर के चला आया। दुर्भाग्य से माता जी का फैसला नहीं बदला और भोगीलाल जी फिर मेरी सड़क से नहीं गुज़रे। एक बार मैंने उन्हें अपने मकान से कुछ दूर एक आदमी से बातें करते देखा, लेकिन वे मेरे मकान की तरफ पीठ करके खड़े थे। जल्दी ही वे गाड़ी स्टार्ट करके चलते बने, लेकिन उन्होंने मेरे मकान की तरफ नज़र नहीं डाली।

साल भर बाद ही मैंने सुना कि भोगीलाल जी को दूसरा अटैक हुआ और वे अपने लिए पहले से रिज़र्व ऊपर के फ्लैट में रहने के लिए इस दुनिया के ज़मीन-मकान छोड़कर चले गए। लगता है मेरे जैसे किसी दूसरे नासमझ की खाली ज़मीन उनके लिए जानलेवा साबित हुई।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #87 ☆ लेखा जोखा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “लेखा जोखा… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 87 ☆ लेखा जोखा… 

मोबाइल पर ही जीवन सिमटता जा रहा। एक बार जो रील देखना शुरू कर दो तो कैसे एक से दो धण्टे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता। इतने मजे से उसकी सेटिंग रहती है कि जिसको जो पसंद हो वही वीडियो लगातार मिलते जाते हैं। बीच- बीच में ज्ञानवर्द्धक बातें, किचन टिप्स, ज्योतिषी, वास्तु शास्त्र, खाने की रेसिपी, नेटवर्क मार्केटिंग से सम्बंधित ज्ञानार्जन भी होता जाता है। मन भी बड़ा चंचल ठहरा, बदल-बदल कर देखने की आदत ने इस लत को जुनून तक पहुँचा दिया है।

जब ऐसा लगता कि बहुत समय व्यर्थ कर दिया तो झट से एफ एम पर गाना लगाकर काम काज में जुट जाना और स्वयं को सुव्यवस्थित करते हुए आधे घण्टे में सारे कार्य निपटाकर पुनः तकनीकी से जुड़ जाना। अब तो पड़ोसियों की कोई जरूरत रही नहीं है, उनका सारा व्योरा स्टेटस से मिल जाता। खुद को अपडेट रखने हेतु ऐसा करना पड़ता। देश विदेश की सारी जानकारी इन्हीं रीलों के द्वारा छोटे- छोटे रूपों मिलती है। अब देश के बजट को भी समझने हेतु ऐसी ही रीलों का इंतजार है। दरसल कम में ज्यादा समझने की आदत दिनों दिन अखबार से दूर करती जा रही है। मोबाइल पर पेपर, पत्रिका सभी कुछ है। अलादीन का चिराग जैसा कार्य तो ये करता ही है। सेवा में गूगल महाराज चौबीसों घण्टे हाजिर रहते हैं।

यूट्यूब पर सचित्र बोलते हुए लोगों को देखना, सुनना, समझना कितना आसान हो चुका है। पहले टी वी पर न्यूज सुनने हेतु समय निर्धारित रहता था, अब तो जब चाहो पूरी न्यूज देख सकते हैं।सभी हाइलाइट्स जोर शोर से आकर्षण का केंद्र बनाकर बार- बार सामने आते हैं। चौराहे पर खड़े होकर बहस बाजी करने की लत दूर होकर अब सभी अपनी निगाहें मोबाइल पर टिकाए रहते हैं और पास खड़े व्यक्ति को स्क्रीन दिखाते हुए कॉपी लिंक भेज देते हैं ताकि वो भी वही देख सके जो वे देखते हैं। एक घर में चार लोग रहते हैं और चारों के फेसबुक पर अलग- अलग वीडियो व पोस्ट दिखाई देती हैं। जिसको जो पसंद होता है वो  तकनीकी एक्सपर्ट समझ जाते हैं  और उसी से मिलती हुई पोस्ट भेजना शुरू कर देते हैं।

कल्पना से परे ये तकनीकी युग दिनों दिन तरक्की कर रहा है।हर चीजें चुटकी में हासिल करने की ये आदत न जाने किस ओर ले जा रही है। बदलते वक्त के साथ सब सीखना होगा। अब तो यही लेखा- जोखा बचा था सो वो भी पूरा करना होगा।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 25 ☆ हम साथ साथ (लाए गए) हैं ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “हम साथ साथ (लाए गए) हैं” । इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ शेष कुशल # 25 ☆

☆ व्यंग्य – ‘हम साथ साथ (लाए गए) हैं’ ☆ 

हाँ तो श्रीमान, आपने कभी तराजू में मेंढक तौल कर देखे हैं ?

नहीं ना, तो ऐसा कीजिए घर में ही शादी के रिसेप्शन के अंतिम दौर में एक फेमेली फोटो खिंचवाने की ज़िम्मेदारी ले लीजिए. पहले ऐसा करें कि महोबावाली मौसी को ढूंढ लें. किते को गई हैं, मिल नई रई इत्ते बड़े गार्डन में. मोबाइल लगा लीजिए. उठा नई रई – रूम में धरो होगो. वे बैठी हैं उते अलाव के कने. लो अब वे मिलीं तो मौसाजी गायब.यार जल्दी करो हम तुमे स्टेज के पास इकट्ठा होने को कह रहे हैं तुम इधर उधर हो जाते हो. अरे कोई दद्दा को लेके आओ यार. तुमई चले जाओ उधर जमीं है महफिल बुढ़ऊओं की – वहीदा रहमान के दीवाने हैं दद्दा. ‘चौदहवीं का चाँद’ इकत्तीस बार देखी उनने. उसी की स्टोरी सुना रहे होंगे. सुनाते रहें यार हमें क्या, हम तो एक बार फोटो खिंचवा दें तो हमारी ज़िम्मेदारी खतम. कोसिस करते हैं मगर बे हमारे केने से आएंगे नई.

लो अब पप्पू कहाँ चला गया. जहीं तो खड़ा हूँ जब से फेविकोल लगा के. खड़ा मत रह पिंकी बुआ को बुला, जल्दी, केना कि खाना बाद में खा लियो. खाना नई खा रईं बे पाँचवें दौर की पानी पतासी खा रई हैं. जब तक पेट ना पिराने लगेगा तब तक इनिंग्स चलती रहेगी बुआ की. आर्गुमेंट मतकर यार, तेनगुरिया फेमेली की जेई वीकनेस है – काम कम बहस ज्यादा. बड़ी मुस्किल से पूरी फेमेली इकट्ठी हुई है, तुम बतकही में टेम खराब कर दे रहे हो.

चलिये, जो जो आ सकते थे स्टेज के पास आ चुके, मगर दो जन हो कर भी नहीं हैं. कक्का ने फोटो खिंचवाने से मना कर दिया. कहने लगे तुमने हमें पहले क्यों नहीं बताया, अब हमने टाई खोल दी है और बिना उसके हम फोटो खिंचवाएंगे नहीं. आप चिंता न करो कक्का ट्रिक-फोटोग्राफी आती है हमें, टाई बाद में अलग से जोड़ देंगे. कक्का यूं भी मन भाए मुंडी हिलाए के मूड में थे सो आसानी मान गए, मगर गुनेवाली नई बहू मंच के सामनेवाली कुर्सियों पर अब तक जमीं हुई थी. इसरार किए जाने पर बोलीं – हमें पसंद नई फोटो खिंचाना, हमारे फोटो अच्छे नई आते. ‘नखरे देखो इसके अब्बी से’ – मौसी ने बड़ी माँ के कान में फुसफुसा के इस तरह कहा कि सबको सुनाई भी दे जाए और लगे कि वे सिर्फ बड़ी माँ को कहना चाहती हैं. बिट्टू भैया ने समझाया – कौन तुमे मॉडलिंग के ट्रायल में भेजनी है जे फोटो. फेमेली साथ में है तो खिंचा लेव.

सबको इकट्ठा करने की कवायद पूरी हुई तो अब सेट जमा लीजिए. चलो लेडीज़ सब उस तरफ, जेन्ट्स सब इस तरफ. पिंटू यार तुम पीछे खड़े रहो – बिजली के खंबे से लंबे हो और आगे घुसे चले आ रए. बच्चे सब नीचे बैठेंगे. पप्पू तुम सामने आओ ना. नई हम पीछे ही खड़े रहेंगे – मुंडी दिख जाये फेमेली में इतनी ही हैसियत है हमारी. पप्पू के पापा ने उसे घूर कर देखा और मौके की नज़ाकत को भाँपते हुवे मन मसोस कर रह गए वरना अब तक बापवाली दिखा दिए होते. सेंटर में सरवैया परिवार की कैटरीना कैफ और तेनगुरिया परिवार के विक्की कौशल, तीन घंटे से खड़े खड़े आशीर्वाद के लिफाफों से अभिसिंचित हो रहे थे मगर थकान तो छू तक नहीं गई थी. शांत, स्थितप्रज्ञ, धैर्यवान कोई था तो बस कैमेरामेन – दोनों छोर से सिकुड़ने की चिरौरी और कैमरे के लेंस की ओर देखने का सतत आग्रह करता हुआ. बहरहाल, पोज खिंचा ही चाहता था कि अचानक, रुको रुको – दद्दा आप सोफ़े पे बीच में बैठो और विक्की और कैटरीना ऊकड़ूँ, पैर छूते हुवे, कैमरे की ओर देखो. दद्दा हाथ रखो दोऊ के सिर पे.

ओके, रेडी, क्लिक, डन, बाय.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #125 ☆ व्यंग्य – काम की चीज़ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘काम की चीज़ ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 125 ☆

☆ व्यंग्य – काम की चीज़

नेताजी फिर से थैला भर लॉलीपॉप लेकर जनता के बीच पहुँचे।लॉलीपॉप के बल पर दो चुनाव जीत चुके थे, अब तीसरे की तैयारी थी। ‘जिन्दाबाद, जिन्दाबाद’ के नारे लगाने वाले समर्थकों और चमचों की फौज थी।चमचे दिन भर मेहनत करके सौ डेढ़-सौ आदमियों को हाँक लाये थे।नेताजी के लिए यह मुश्किल समय था।एक बार चुनाव फतह हो जाए, फिर पाँच साल आनन्द ही आनन्द है।फिर पाँच साल तक जनता की शक्ल देखने की ज़रूरत नहीं।

नेताजी धड़ाधड़ श्रोताओं की तरफ लॉलीपॉप उछाल रहे थे कि भीड़ में से कोई काली चीज़ उछली और नेताजी के कान के पास से गुज़रती हुई पीछे खड़े उनके एक चमचे शेरसिंह की छाती से टकरायी।नेताजी ने घूम कर देखा तो एक पुराना सा काला जूता शेरसिंह के पैरों के पास पड़ा था और शेरसिंह आँखें फाड़े उसे देख रहा था।देख कर नेताजी का मुँह उतर गया, लेकिन दूसरे ही क्षण वे सँभल गये।शेरसिंह को बुलाया, जूता जनता को दिखाने के लिए कहा, बोले, ‘देखिए भाइयो, ये मेरी बातों के लिए विरोधियों का जवाब है।यही तर्क है उनके पास और यही है उनकी सभ्यता।लेकिन मैं उनको इस भाषा में जवाब नहीं दूँगा।छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।इसका जवाब जनता देगी, आप देंगे।इस चुनाव में इन उपद्रवियों को भरपूर जवाब मिलेगा।मैं इसे आप पर छोड़ता हूँ।’

नेताजी भाषण समाप्त करके चले तो तो शेरसिंह गुस्से से कसमसाता हुआ बोला, ‘मैं जूते वाले को ढूँढ़ कर उसके सिर पर यही जूता दस बार बजाऊँगा,तभी मेरा कलेजा ठंडा होगा।’

नेताजी गुस्से से उसकी तरफ देखकर बोले, ‘नासमझ मत बनो।यह जूता हमारे बड़े काम आएगा।इसे सँभाल कर रखना।यह हमारे हजार दो हजार वोट बढ़ाएगा।हमारे देश के लोग बड़े जज़्बाती होते हैं।’

इसके बाद हर चुनाव-सभा के लिए चलते वक्त नेताजी शेरसिंह से पूछते, ‘वह रख लिया?’ और शेरसिंह द्वारा उन्हें आश्वस्त करने के बाद ही आगे बढ़ते।

फिर हर सभा में वे बीच में रुककर कहते, ‘एक ज़रूरी बात आपको बताना है जो विरोधियों के संस्कार और उनके अस्तर (नेताजी ‘स्तर’ को ‘अस्तर’ कहते थे)को दिखाता है।’ फिर वे शेरसिंह से हाथ ऊँचा कर जूता दिखाने को कहते। आगे कहते, ‘देखिए, पिछले महीने श्यामगंज की सभा में मुझ पर यह जूता फेंका गया।यह मेरे खिलाफ विरोधियों का तर्क है।लेकिन मुझे इसके बारे में उन्हें कोई जवाब नहीं देना है।अपना सिद्धान्त है, जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू फूल। मेरे बोये हुए फूल आपके हाथों में पहुँचकर विरोधियों के लिए तिरशूल बन जाएंगे।मैं इस घटिया हरकत का फैसला आप पर छोड़ता हूँ।मुझे कुछ नहीं करना है।’

वह जूता जतन से शेरसिंह के पास बना रहा और नेताजी की हर चुनाव-सभा में प्रस्तुत होता रहा।जूते के कारण नेताजी को भाषण लंबा करने की ज़रूरत नहीं होती थी।लोगों के जज़्बात को उकसाने का काम जूता कर देता था।जब कभी शेरसिंह उसे लेकर भुनभुनाने लगता तो नेताजी समझाते, ‘भैया, ज़रा जूते का मिजाज़ समझो।यह इज़्ज़त उतारता भी है और बढ़ाता भी है।यह आदमी के ऊपर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है।पालिटिक्स में हर चीज़ के इस्तेमाल का गुर आना चाहिए।कुछ समझदार लोग तो अपनी सभा में खुद ही जूता फिंकवाते हैं।राजनीति में अपमान छिपाया नहीं, दिखाया और भुनाया जाता है।’

एक दिन नेताजी के मित्र और समर्थक त्यागी जी उनसे बोले, ‘भैया, पिछली मीटिंग में मुझे लगा कि आप जो जूता दिखा रहे थे वह पहले जैसा नहीं था।’

नेताजी हँसे, बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं।दरअसल वह ओरिजनल जूता एक सभा में शेरसिंह से खो गया था, तो मैंने अपने ड्राइवर का जूता मँगा लिया।उसे दूसरा खरिदवा दिया।यह जूता भी काले रंग का है।जनता को कहाँ समझ में आता है कि असली है या नकली।दिखाने के लिए जूता होना चाहिए,काम रुकना नहीं चाहिए।‘

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 142 ☆ व्यंग्य – जस्ट फारवर्ड ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य कविता  ‘जस्ट फारवर्ड!’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 142☆

? व्यंग्य  – जस्ट फारवर्ड! ?

सुपर फास्ट इंटरनेट वाला युग है, रचना भेजो तो फटाफट पोर्टल का लिंक चला आता है, कि ये लीजीये छप गई आपकी रचना. हां, अधिकांश अखबार अब प्रकाशित प्रति नही भेजते,उनके पास कथित बुद्धिजीवी लेखक के लिये प्रतियां नही होती ।

मतलब ई मेल से रचना भेजो,vफिर खुद ही छपने का इंतजार करो और रोज अखबार पढ़ते हुये अपनी रचना तलाशते रहो. छप जाये तो फट उसकी इमेज फाईल, अपने फेसबुक और व्हाट्सअप पर चिपका दो, और जमाने को सोशल मीडीया नाद से जता दो कि लो हम भी छप गये.

अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटाक, ट्वीटर और व्हाट्सअप में सुर्खियो में बने रहने का अलग ही नशा है.  इसके लिये लोग गलत सही कुछ भी पोस्ट करने को उद्यत हैं. आत्म अनुशासन की कमी फेक न्यूज की जन्मदाता है. हडबडी में गडबड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडीया में वैसे ही फैल जाते हैं, जैसे कोरोना का वायरस फारवर्ड होता है. सस्ता डाटा फेकन्यूज प्रसारण के लिये रक्तबीज है. लिंक  फारवर्ड, रिपोस्ट ढ़ूंढ़ते हुये सर्च एंजिन को भी पसीने आ जाते हैं. हर हाथ में मोबाईल के चक्कर में फेकन्यूज देश विदेश, समुंदर पार का सफर भी मिनटों में कर लेती है, वह भी बिल्कुल हाथों हाथ, मोबाईल पर सवार.

धर्म पर कोई अच्छी बुरी टिप्पणी कहीं मिल भर जाये, सोते हुये लोग जाग जाते हैं, जो धर्म का मर्म  नहीं समझते, वे सबसे बड़े धार्मिक अनुयायी बन कर अपने संवैधानिक अधिकारो तक पहुंच जाते हैं.

आज धर्म, चंद कट्टरपंथी लोगो के पास कैद दिखता है. वह जमाना और था जब ” हमें भी प्यार हुआ अल्ला मियां ” गाने बने जो अब तक बज रहे हैं.

इन महान कट्टर लोगों को लगता है कि इस तरह के फेक न्यूज को भी फारवर्ड कर के वे कोई महान पूजा कर रहे हैं. उन्हें प्रतीत होता है कि यदि उन्होंने इसे फारवर्ड नही किया तो उसके परिचित को शायद वह पुण्य लाभ नहीं मिल पायेगा जो उन्हें मिल रहा है. जबकि सचाई यह होती है कि जिसके पास यह फारवर्डेड  न्यूज पहुंचता  है वह बहुत पहले ही उसे फारवर्ड कर अपना कर्तव्य निभा चुका होता है. सचाई यह होती है कि यदि आप का मित्र थोड़ा भी सोशल है तो उसके मोबाईल की मेमोरी चार छै अन्य ग्रुप्स से भी वह फेक न्यूज पाकर धन्य हो चुकी होती है, और डिलीट का आप्शन ही आपके फारवर्डेड मैसेज का हश्र होता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #86 ☆ उम्मीद कायम है…  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उम्मीद कायम है… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 86 ☆ उम्मीद कायम है… 

कहते हैं हम ही उम्मीद का दामन छोड़ देते हैं, वो हमें कभी भी छोड़कर नहीं जाती। इसके वशीभूत होकर न जाने कितने उम्मीदवार टिकट मिलने के बाद ही अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता तय करते देखे जा सकते हैं। कौन किस दल का घोषणा पत्र पढ़ेगा ये भी सीट निर्धारण के बाद तय होता है। इन सबमें सुखी वे पत्रकार हैं, जो पुराने वीडियो क्लिप दिखा -दिखा कर शो की टी आर पी बढ़ा देते हैं। उन्हें प्रश्नों के लिए भी ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। वही सवाल सबसे पूछते हुए पूरा चुनाव निपटा देते हैं।

मजे की बात इन सबमें नए – नए क्षेत्रीय गायकों ने भी अपनी भूमिका सुनिश्चित कर ली है। विकास का लेखा – जोखा अब गानों के द्वारा सुना और समझा जा रहा है। धुन और बोल लुभावने होने के कारण आसानी से जुबान पर चढ़ जाते हैं। मुद्दे से भटकते लोग मनोरंजन में ही सच्चा सुख ढूंढ कर पाँच वर्ष किसी को भी आसानी से देने को तैयार देते हुए दिखाई देते हैं। होगा क्या ये तो परिवार व समाज के लोग तय करते हैं पर मीडिया जरूर भ्रमित हो जाता है। जिसको देखो वही माइक और कैमरा लेकर छोटे – छोटे वीडियो बनाकर पोस्ट करता जा रहा है। 

इन सबसे बेखबर कुर्सी, अपने आगंतुकों के इंतजार में पलक पाँवड़े बिछाए हुए नेता जी को ढूंढ रही है। वो भी ये चाहती है कि जो भी आए वो स्थायी हो, मेरा मान रखे। गठबंधन को निभाने की क्षमता रखता हो। उसकी अपील जनमानस से यही है कि सोच समझ कर ही ये गद्दी किसी को सौंपना। यही नीतियों के निर्धारक हैं; यही तुम्हारे दुःख दर्द के हर्ता हैं; यही राष्ट्रभक्त हैं जो भारत माता के सच्चे सपूत बनकर अमृत महोत्सव को साकार कर सकते हैं।

कुर्सी के मौन स्वरों को जनमानस को ही सुनना व समझना होगा क्योंकि आम जनता सब कुछ समझने का माद्दा रखती है। किसे आगे बढ़ाना है, किसे वापस बुलाना है, ये जिम्मेदारी संविधान ने उन्हें  दी है। जाति धर्म का क्या है ? ये कुर्सी तो सबसे ऊपर केवल राष्ट्र की है, जो देश का, वही जनता का और वही सच्चा हकदार इस पर विराजित होकर जन सेवा करने का।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #124 ☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त— ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘देर आयद, दुरुस्त—  ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 124 ☆

☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त—   

सबेरे सबेरे शीतल भाई का फोन बजा। देखा तो कोई नंबर था। पूछा, ‘हलो, कौन बोल रहा है?’

उधर कोई रो रहा था। शीतल भाई घबराये, पूछा, ‘कौन हो भाई? क्या बात है?’

रोने के बीच में जवाब मिला, ‘हम जबलपुर से प्रीतम लाल जी के बेटे बोल रहे हैं। पिताजी आज सबेरे शान्त हो गये। आपको बहुत याद करते थे। बताते थे कि आप उनके साथ पढ़े हैं। उनके मोबाइल में आपका नंबर मिला।’

शीतल भाई दुखी हुए। बेटे को सांत्वना दी। बोले, ‘बहुत अफसोस हुआ। हम स्कूल में साथ पढ़े थे। महीने दो महीने में उनका फोन आ जाता था। भले आदमी थे। मैं जल्दी आकर आप लोगों से मिलूँगा।’

शीतल भाई इन्दौर के रहने वाले। हिसाबी-किताबी आदमी थे, पक्के व्यापारी। भावुकता में पड़कर कहाँ जबलपुर जाएँ? दो चार हजार खर्च हो जाएँगे। बात आयी गयी हो गयी।

पाँच छः माह बाद संयोग से शीतल भाई का जबलपुर जाने का मुहूर्त बन गया। एक पार्टी के पास पैसा फँसा था, उसे निकालना था। सोचा, अच्छा है, गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट हो जाए।

एक सबेरे जबलपुर में प्रीतम लाल जी के परिवार के लोगों को दुआरे पर किसी के ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनायी पड़ी। परिवार के सदस्य घबरा गये। देखा तो एक आदमी हाथ में पकड़े फोटो पर नज़र जमाये ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर रहा था। पूछने पर पता चला कि ये स्वर्गीय प्रीतम लाल जी के सहपाठी शीतल भाई थे जो, देर से ही सही, मित्र के लिए अपना दुख प्रकट करने आये थे।

शीतल बाबू सादर घर में ले जाए गये। नाश्ता हुआ। फिर वे अपने हाथ का ग्रुप फोटो दिखा दिखा कर अपने और अपने दोस्त के किस्से सुनाते रहे।

नाश्ता करने के बाद बोले, ‘भैया, आप लोगों से मिल कर दिल को बड़ी शान्ति मिली। जब से प्रीतम के स्वर्गवास का सुना तभी से जी कलप रहा था। उनकी याद बराबर आती है। आप लोग मिले तो लगा प्रीतम मिल गये। अब आज आप लोगों के साथ ही रहूँगा। आपसे मिलने के लिए ही आया था।’

शीतल भाई मातमी मुद्रा में वहाँ बैठे रहे। दोपहर को वहीं भोजन किया, फिर वहीं चैन की नींद सो गये। शाम को उस पार्टी की खोज में निकल गये जिससे वसूली करनी थी। वहाँ से लौट कर रात को फिर दोस्त के बेटों के साथ बैठकर प्रीतम लाल जी के साथ अपनी यादों के पिटारे की तहें खोलने में लग गये। बेटे भी शिष्टतावश उनकी भावुकतापूर्ण बातों में रुचि दिखाते रहे।

दूसरे दिन सबेरे शीतल भाई ने अपने दिवंगत मित्र के बेटों को छाती से लगाया, फिर मित्र की पत्नी के सामने तौलिए से आँखें पोंछीं। रुँधे स्वर से बोले, ‘आज यहाँ आकर मन को कितनी शान्ति मिली, बता नहीं सकता। प्रीतम तो चौबीस घंटे यादों में बसे रहते हैं। कभी बिसरते नहीं। कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद कीजिएगा। आधी रात को दौड़ा आऊँगा।’

दिवंगत दोस्त के प्रति मातमपुर्सी की औपचारिकता पूरी करके शीतल भाई,संतुष्ट, अपने शहर के लिए रवाना हो गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #85 ☆ टीमों का गठन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “टीमों का गठन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 85 ☆ टीमों का गठन 

किसी भी आयोजन में दो टीमें गठित होती हैं, एक तो जी जान से आयोजन की सफलता हेतु परिश्रम करती है, और दूसरी उसे कैसे असफल किया जावे इसमें अपना दिन-रात लगा देती है। तरह-तरह की तैयारियों के बीच वाद-विवाद का दौर भी आता है, जो मुखिया के बीच बचाव के बाद ही रुकता है।

वैसे जब तक कोई झगड़ा न हो तो कार्यक्रम कुछ अधूरा सा लगता है। आरोप-प्रत्यारोप के बाद ही नए-नए मुद्दे सामने आते हैं, जो आगे बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं। ऐसा ही कुछ एक कार्यक्रम में दिखाई दे रहा है। जो भी सही बात समझाने की कोशिश करता उसे फूफा की उपाधि देकर किनारे बैठा दिया जाता। अब समझाइश लाल जी भी इस सबसे दूरी बनाए हुए हैं। एक तरफा झुकाव लोगों के सोचने समझने की शक्ति को मिटा देता है। पहले से ही हवा का रुख समझकर वे आगे बढ़ चले थे। दरसल कोई भी मौका चूकने से बचने हेतु सजगता बहुत जरूरी होती है। अपना उल्लू सीधा करते ही साथ छोड़कर नजरें चुराने की कला के सभी कायल होते हैं। जिसे देखिए वही अपना दमखम दिखाने की होड़ में मूल विचारधारा से दूर होता जा रहा है। बस रैलियों की भीड़ से ही कोई परिणाम निकलना भी तो जायज नहीं है।

पहले ओपिनियन पोल निष्पक्ष होते थे किंतु आजकल वो भी गोदी मीडिया की भेंट चढ़ चुके हैं। मीडिया के बढ़ते प्रभाव व वर्चुअल रैली ने सबकी बैण्ड बजाकर रख दी है। सब कुछ प्रायोजित होने लगा है, लोगों के मनोमस्तिष्क को पढ़कर उसे अपने अनुसार ढालने में हर कोई जी जान से जुटा है। विकास का मुद्दा केवल घोषणा पत्र की शोभा बन कर रह गया है। असली जंग तो जाति, धर्म, अल्पसंख्यक वर्ग पर सिमट रही है। मानवता तो कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आती है।

लोगों को सारी जानकारी वायरल वीडियो द्वारा होती है। इसमें कितना सच है इसकी गारंटी लेने वाला कोई नहीं है। सभी सुरक्षित सीट से लड़कर ही अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। अचानक से किस सीट पर कौन खड़ा होगा पता चलता है, लोग अपना बोरिया बिस्तर समेट के दूसरे खेमे  के द्वारे पर पहुँच जाते हैं। वास्तव में अनिश्चितता का सही उदाहरण तो राजनीति में ही दिखाई देता है। यहाँ आखिरी समय तक अपने दल का पता नहीं चलता है। खैर कुछ भी हो टिकट टीम गठन का हिस्सा बनकर उसका किस्सा वाचना सचमुच दिलचस्प ही रहा है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #123 ☆ व्यंग्य – प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 123 ☆

☆ व्यंग्य – प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क 

प्रोफेसर बृहस्पति, एम.ए.,डी.लिट.,की चरन धूल फिर शहर में पड़ने वाली है। प्रोफेसर गुनीराम,एम. ए.,पीएच.डी. ने फिर उन्हें बुलाया है। यह खेल ऐसे ही चलता रहता है। प्रोफेसर बृहस्पति प्रोफेसर गुनीराम को अपनी यूनिवर्सिटी में बुलाते रहते हैं और प्रोफेसर गुनीराम प्रोफेसर बृहस्पति को। अवसरों की कमी नहीं है। कभी रिसर्च कमिटी की मीटिंग में, कभी ‘वाइवा’ के लिए। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होता है। एक बार क्लर्क ने दो उम्मीदवारों का ‘वाइवा’ एक साथ रख दिया तो प्रोफेसर बृहस्पति कुपित हो गये थे। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होना चाहिए, अन्यथा टी.ए.,डी.ए. का नुकसान होता है।

‘वाइवा’ का सबसे ज़रूरी हिस्सा यह होता है कि उम्मीदवार जल्दी से जल्दी टी.ए. बिल पास कराके मुद्रा गुरूजी के चरणों में समर्पित करे। इसमें विलम्ब होने पर छात्र की प्रतिभा और उसके शोध की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। विश्वविद्यालय तो नियमानुसार फूल-पत्र भेंट करता है, बाकी रुकना-टिकना, स्वागत-सत्कार, पीना-खाना, घूमना-फिरना और वातानुकूलित दर्जे का आने-जाने का नकद किराया उम्मीदवार को विनम्रतापूर्वक वहन और सहन करना पड़ता है। गुरूजी अक्सर सपत्नीक आते हैं। ऐसी स्थिति में स्वभावतः ए.सी. का किराया दुगना हो जाता है। यह भी ज़रूरी है कि विदा होते वक्त उम्मीदवार गुरू-गुरुआइन के चरन-स्पर्श कर प्रसन्न भाव से विदा करे। व्यय का भार कितना भी पड़े, मुख पर सन्ताप न लावे।

हस्बमामूल ‘वाइवा’ के बाद शाम को उम्मीदवार की सफलता की खुशी में पार्टी होती है जिसमें बाहर वाले गुरूजी और उनके मित्र-परिचित, स्थानीय गुरूजी और उनके मित्र-परिचित और चार-छः ऐसे ठलुए शामिल होते हैं जो ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं। स्थानीय गुरूजी को उन्हें शामिल करने में एतराज़ नहीं होता क्योंकि द्रव्य उम्मीदवार की जेब से जाता है। जो लोग भोजन से पूर्व क्षुधावर्धक पेय में रुचि रखते हैं वे पार्टी से एकाध घंटा पूर्व एकत्रित होकर उम्मीदवार की सेहत का जाम उठाते हैं।
इस बार बलि का बकरा शोषित कुमार है जो पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त कर प्रोफेसर गुनीराम की अनुकंपा से विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने की उम्मीद रखता है। उसने अपने शिक्षण काल में किताब की जगह गुरूजी को ही पढ़ा है और उनके श्रीचरणों में अपना जीवन समर्पित किया है। पूरे विश्वविद्यालय में वह प्रोफेसर गुनीराम के चमचे के रूप में विख्यात है और वह इस उपाधि पर पर्याप्त गर्व का अनुभव करता है। शोषित कुमार के बाप एक प्राइमरी स्कूल में मास्टर हैं, लेकिन उन्होंने प्रोफेसर बृहस्पति के स्वागत-सत्कार के लिए बीस हजार रुपये का जुगाड़ कर लिया है।

प्रोफेसर बृहस्पति पधारे। साथ में पत्नी भी आयीं। उन्होंने बहुत दिनों से भेड़ाघाट नहीं देखा था। बेटा शोषित कुमार दिखा देगा। अच्छे होटल में ठहरने का इंतज़ाम है। आदेश दे दिया गया है कि गुरूजी जब जो माँगें, प्रस्तुत किया जाए। गेट के पास टैक्सी तैनात है, गुरूजी जहाँ जाना चाहें ले जाए।

गुरूजी टैक्सी में विश्वविद्यालय पहुँचे। शोषित कुमार ड्राइवर की बगल में डटा है। प्रोफेसर गुनीराम विश्वविद्यालय में इन्तज़ार कर रहे हैं। पहुँचते ही प्रोफेसर बृहस्पति टी.ए. बिल भरकर शोषित कुमार को थमाते हैं—- ‘लो बेटा, इसे पास कराओ और सफलता की ओर कदम बढ़ाओ।’

शोषित कुमार बिल लेकर उड़ता है।  ‘च्यूइंग गम’ चबाते हुए उसे निश्चिंतता से संबंधित क्लर्क के सामने धर देता है। क्लर्क उसे उठाकर पढ़ता है, फिर वापस शोषित की तरफ धकेल देता है। कहता है, ‘टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’

शोषित कुमार आसमान से धम से ज़मीन पर गिरता है। बेसुरी आवाज़ में पूछता है, ‘क्या?’

क्लर्क दुहराता है, ‘सेकंड ए.सी. का क्लेम है। टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’

शोषित कुमार पाँव घसीटता लौटता है। प्रोफेसर गुनीराम के कान के पास मिनमिनाता है, ‘सर, क्लर्क टिकट नंबर माँगता है।’

प्रोफेसर गुनीराम की भवें चढ़ जाती हैं। यह कौन गुस्ताख़ लिपिक है? रोब से उठकर लेखा विभाग की ओर अग्रसर होते हैं। क्रोधित स्वर में क्लर्क से पूछते हैं, ‘यह टिकट नंबर की क्या बात है भई?’

क्लर्क निर्विकार भाव से कहता है, ‘रजिस्ट्रार साहब का आदेश है।’

प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘अभी तक तो कभी टिकट नंबर नहीं माँगा गया।’

क्लर्क फाइल का पन्ना पलटते हुए जवाब देता है, ‘नया आदेश है।’

प्रोफेसर गुनीराम रोब मारते हैं, ‘तो रजिस्ट्रार साहब से पास करा लायें?’

क्लर्क मुँह फाड़कर जम्हाई लेता है, कहता है, ‘करा लाइए।’

प्रोफेसर गुनीराम ढीले पड़ जाते हैं। रजिस्ट्रार कायदे कानून वाले आदमी हैं। वहाँ जाना बेकार है।

वे तरकश से खुशामद-अस्त्र निकालते हैं। ताम्बूल-रचित दन्त-पंक्ति दिखा कर कहते हैं, ‘क्या बात है, पटेल जी, घर से झगड़ा करके आये हो क्या?’

क्लर्क किंचित मुस्कराता है, ‘नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है।’

उसकी मुस्कान से प्रोत्साहित होकर प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘निपटा दो,भैया। बाहर के प्रोफेसर हैं। बिल पास नहीं होगा तो बाहर से ‘वाइवा’ लेने कौन आएगा?’

क्लर्क फिर लक्ष्मण-रेखा में लौट जाता है, कहता है, ‘हम क्या करें? रजिस्ट्रार साहब से कहिए।’

प्रोफेसर गुनीराम समझ जाते हैं कि इन तिलों से तेल नहीं निकलेगा। लेकिन अब प्रोफेसर बृहस्पति को क्या मुँह दिखायें?इस पिद्दी से क्लर्क ने इज्जत का फलूदा बना दिया।
लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति के सामने हाज़िर होते हैं। पस्त आवाज़ में कहते हैं, ‘डाक साब, यहाँ के क्लर्क बड़े बदतमीज़ हो गये हैं। कहते हैं ए.सी. का नंबर लेकर आइए।’

प्रोफेसर बृहस्पति का मुख-कमल क्रोध से लाल हो जाता है।  ऐसी अनुशासनहीनता!प्रोफेसर गुनीराम के हाथ से बिल लेकर उस पर लिख देते हैं, ‘टिकट सरेंडर्ड एट द गेट’, यानी टिकट रेलवे स्टेशन के गेट पर सौंप दिया।

प्रोफेसर गुनीराम फिर क्लर्क के पास उपस्थित होते हैं। क्लर्क प्रोफेसर बृहस्पति के कर कमलों से लिखी बहुमूल्य टीप को पढ़ता है और पुनः बिल प्रोफेसर गुनीराम की तरफ सरका देता है। कहता है, ‘हमें नंबर चाहिए। टिकट सौंपने से पहले नंबर क्यों नोट नहीं किया?अब तो मोबाइल पर टिकट आता है।’

प्रोफेसर गुनीराम को रोना आता है। इस दो कौड़ी के आदमी ने उनकी इज़्ज़त के भव्य भवन को कचरे का ढेर बना दिया।

लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति से कहते हैं, ‘आप फिक्र न करें, डाक साब। मैं चेक बनवा कर भेज दूँगा।’

प्रोफेसर बृहस्पति का मूड बिगड़ जाता है। चेक बनने और मिलने में पता नहीं कितना समय लगेगा। इसके अलावा चेक का पैसा आयकर की पकड़ में आने का भय होता है।

‘वाइवा’ के कार्यक्रम का सारा मज़ा किरकिरा हो गया।

शाम को प्रोफेसर बृहस्पति सपत्नीक शोषित कुमार के द्वारा प्रस्तुत टैक्सी में बैठकर भेड़ाघाट की सैर के लिए रवाना होते हैं। प्रोफेसर बृहस्पति बेमन से जाते हैं। उनका सारा सौन्दर्यबोध और उत्साह लेखा विभाग के उस क्लर्क ने हर लिया है। उन्हें अब कहीं कोई सुन्दरता नज़र नहीं आती। पूरा शहर मनहूस लगता है।

भेड़ाघाट में पति-पत्नी नाव में बैठकर संगमरमरी चट्टानों को देखने जाते हैं। श्रीमती बृहस्पति मुग्धभाव से श्वेत धवल चट्टानों को निहारती हैं। एकाएक कहती हैं—‘कितनी खबसूरत चट्टानें हैं।’

प्रोफेसर बृहस्पति के भीतर खदबदाता गुस्सा फूट पड़ता है। मुँह बिगाड़ कर कहते हैं—‘खबसूरत नहीं, खूबसूरत। कितनी बार कहा कि शब्दों का सत्यानाश मत किया करो।’

श्रीमती बृहस्पति गुस्से में मुँह फेरकर बैठ जाती हैं और प्रोफेसर बृहस्पति लौटने पर होने वाली कलह की संभावना से भयभीत होकर बिल की बात भूलकर कातर नेत्रों से पत्नी का मुखमंडल निहारने लगते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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