हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 17 ☆ व्यंग्य ☆ ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 17 ☆

☆ व्यंग्य – ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆

आर्यावर्त का नागरिक श्रीमान, रिश्वत देकर दुखी नहीं है – रिश्वत देकर भी काम नहीं होने से दुखी है. उस दिन दादू मुझे भी अपने साथ ले गया, दफ्तर में सीन कुछ इस तरह था.

“गज्जूबाबू, आपने ही थर्टी थाउजन्ड की कही थी. अब पाँच और किस बात के ? पहली बार में आपने जित्ते की कही उत्ते पूरे अडवांस में गिन दिये हैं हम.”

“अरे तो तो कौन सा एहसान कर दिया यार ? काम के बदले में ही तो दिये हो ना. लाइसेन्स फिरी में बनते हैं क्या ? सत्तर टका तो साहब को ही शेयर करना पड़ता है. बाँटने-चुटने के बाद हमारे पास बचेगा क्या..” – वे ‘बाबाजी का कुछ’ जैसा बोलना चाह रहे थे मगर रुक गये.

“हमने आपसे मोल-भाव तो करा नहीं, कि आदरणीय गजेंद्र भाई साब दो हजार कम ले लीजिये, प्लीज……जो अपने कही सोई तो हमने करी, अब आप आँखे तरेर रहे हो ?”

“अरे तो दफ्तर में जिस काम का जो कायदा बना है सो ही तो लिया है. रेट उपरवालों ने बढ़ा दिये तो क्या मैं अपनी जेब से भुगतूंगा?”

सारी हील-हुज्जत दफ्तर में, वर्किंग-डे में, गज्जूबाबू की डेस्क पर ही चल रही थी. ब्रॉड-डे लाईट में ब्लैक डील. मीटर भर के रेडियस में बैठे सहकर्मी और कुछ आगंतुक सुन तो पा रहे थे मगर असंपृक्त थे, मानों कि आसपास कुछ भी असामान्य नहीं घट रहा है. नियम कायदे से गज्जूबाबू सही हैं और नैतिक रूप से दादू. ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा.

“पर जुबान की भी कोई वेलू होती है गज्जूबाबू.”

“तुम कुँवर गजेंद्रप्रताप सिंह की जुबान को चैलेंज करोई मती” – तमतमा गये वे – “जो गज्जूबाबू ने ठेकेदारों की कुंडलियाँ बांचनी शुरू की ना तो सबकी जुबान को फ़ालिज मार जायेगा.”

“नाराज़ मत होईये आप. इस बार थर्टी में कर दीजिए, अगली बार बढ़ाकर ले लेना.”

“यार तुम ऐसा करो, वापस ले जाओ एडवांस, हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. यहाँ दस लोग लाईन लगाकर पैसे देने को तैयार खड़े हैं, और तुमसे ज्यादा देने को तैयार हैं.”

मैंने धीरे से समझाया – “दादू, देश में पूरे एक सौ तीस करोड़ लोग रिश्वत दे कर काम कराने का मन बना चुके हैं. कॉम्पटीशन लगी पड़ी है, कौन ज्यादा देकर काम करा ले जाता है. इसी काम के कैलाश मानके चालीस देने को तैयार है, कह रहा था एक बार एंट्री मिल जाये बस.”

“ठीक है गज्जूबाबू. नाराज़ मत होईये, पाँच और दिये देते हैं, आप तो लायसेंस निकलवा दीजिये.”

“नहीं, अब हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. वो तो तुम ठहरे मनख हमारे गाँव-दुआर के, सो तुम्हें लिफ्ट दे दी…….वरना कमी है क्या काम करानेवालों की. तुम तो अपना एडवांस वापस ले जाओ.” – कहकर वे जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने की एक्शन करने लगे, मानो कि लौटा ही देंगे एडवांस.

“गुस्सा मत करिये भाई साब, गाँव-दुआर के लानेई रिक्वेस्ट करी आपसे.” – दादू ने मानिकचंद का पाउच खोलकर ऑफर किया जो स्वीकार कर लिया गया. भरे मुँह से कुछ देर और ज़ोर करवाया गज्जू बाबू ने, फिर डेस्क के नीचे की डस्टबिन में गुटका और गुस्सा दोनों थूक कर पूरे पाँच जेब के हवाले किये. टेबल के नीचे से नहीं, न ही बाहर चाय के ठेले पर कोडवर्ड के साथ. ग्राउंड जीरो पर ही.

हम इस सुकून के साथ बाहर निकले कि रिश्वत के एरियर भुगतान भी कर दिया है, अब तो शायद काम हो ही जाये. निकलते निकलते मैंने कहा – “दादू आप लक्की हो, बक़ौल ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के ‘द इंडिया करप्शन सर्वे 2019’ के आप देश के उन 51 फीसदी लोगों में शुमार हो जो जिन्होने बीते एक बरस में रिश्वत देने का काम किया है. अब ये जो बचे 49 फीसदी लोग हैं ना, ये भी देना तो चाहते थे बस गज्जू बाबूओं तक पहुँच नहीं पाये.”

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और सीसीटीवी ? कमाल करते हैं आप – देश और दफ्तर दोनों के खराब पड़े हैं.

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शांतिलाल जैन.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79 ☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य “कोहरे की करामत“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79

☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत☆

मत कहो आकाश में कोहरा घना है…. क्यों न कहें भाई। कोहरे ने दिक्कत दे कर रखी है। ऐसा कोहरा तो कभी नहीं देखा।

गांव की सर्द कोहरे वाली सुबह में बाबू फूंक फूंक कर चाय पी रहा था और उधर गांव भर में हल्ला मच गया कि कोहरे के चक्कर में गंगू की बहू बदल गई। पांच-छै दिन पहले शादी के बाद बिदा हुई थी।शादी के नेंग- ढेंग निपटने के बाद बाबू को थोड़ा चैन आया था। कड़ाके की ठंड में अभी चार रात बीती थी, और पांचवें दिन सुबह सुबह शर्माते हुए गंगू ने ये बात बतायी कि बहू गैर जात की है, बाबू सुनके दंग रह गया ….. बाबू को याद आया कोहरे के चक्कर में सब गाड़ियां बीस – बाईस घंटे लेट चल रहीं थीं और कई तो रद्द हो गई थीं। स्टेशन पर धकापेल भीड़ और आठ – दस बरातों के बराती थे उस दिन…….

भड़भड़ा के गाड़ी आ गई थी तो जनरल बोगी में रेलमपेल भीड़ के रेले में घूंघट काढ़े तीन चार बहूएं भीड़ में फंस गई और गाड़ी चल दी…दौड़ कर गंगू बहू को पकड़ के शौचालय के पास बैठा दिया और खुद शर्माते हुए बाबू के पास बैठ गया । गांव की बारात और गांव की बहू। चार पांच स्टेशन के बाद गंगू की बारात उतर गई। क्या करे कोई यात्रियों और बारातियों की बेहिसाब भीड़ थी उस दिन…………

बाबू के काटो तो खून नहीं अपने आप को समझाया । खैर, अब क्या किया जा सकता है भगवान तो जोड़ी बनाकर भेजता है। अग्नि को साक्षी मानकर फैरे हुए थे 14 वचन हुए थे , हाय रे निर्लज्ज कोहरा तुमने ये क्या कर दिया….। अब क्या हो सकता है चार रात भी गुजर गईं…. हार कर बाबू घूंघट और कोहरे की कलाबाजी को कोसता रहा। गांव वालों ने कहा बेचारा गंगू भोला भाला है शादी के पहले गंगू को लड़की दिखाई नहीं गई, नाऊ और पंडित ने देखी रही अच्छा घर देख के जल्दबाजी में शादी हो गई गंगू की गलती नहीं है गंगू की हंसी नहीं उड़ाई जानी चाहिए। गंगू निर्दोष है।

थोड़ा सा कुहरा छटा तो सबने सलाह दी कि शहर के थाने में सारी बातें बता देनी उचित रहेगी…. सो बाबू गंगू को लेकर शहर तरफ चल दिए। थाने पहुंच कर सब हालचाल बताए तो पुलिस वाले ने गंगू को बहू चोरी के जुर्म में बंद कर दिया। बाबू ने ईमानदारी से बहुत सफाई दी कि कोहरे के कारण और सब ट्रेनों के लेट होने से ऐसा धोखा अनजाने में हुआ,  उस समय कोहरा और ठंड इतनी अधिक थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। पुलिस वाला एक न माना कई धाराएं लगा दीं। बाबू बड़बड़ाया ईमानदारी का जमाना नहीं रह गया जे कोहरे ने अच्छी दिक्कत दे दी और नये लफड़ेबाजी में फंस गए, ऊपर से कई लाख के सोना चांदी पहने असली बहू भी न जाने कहाँ चली गई।

कोहरे के कुहासे में एक सिपाही बाबू को एक किनारे ले जाकर जेब के सब पैसे छुड़ा लिये। बाबू को फिर से पूछताछ के लिए इस बार थानेदार ने अपने चेम्बर में बुलाया।

इस तरफ अंगीठी में आग तापते कई सिपाही बतखाव लगाए थे कोहरा और ठंड के साथ सरकार को गालियां बक रहे थे। कोहरे की मार से सैकड़ों ट्रेनों के लेट होने की चर्चा चल रही थी रेल वाले सुपर फास्ट का पैसा लेकर गाड़ी पैदल जैसी चला रहे हैं हजारों बेरोजगार लड़के-लड़कियां इन्टरव्यू देने से चूक रहे थे, शादी विवाह के मुहूर्त निकल रहे थे, कोहरे से हजारों एक्सीडेंट से बहुत मर रहे थे और थाने में ज्यादा केस आने से काम बढ़ रहा था…. बाबू चुपचाप खड़ा सुन रहा था और गंगू अंगीठी की आग देखकर सुहागरात और रजाई की याद कर रहा था। बाबू से नहीं रहा गया तो दहाड़ मार के रोने लगा…… एक सिपाही ने उठकर बाबू को दो डण्डे लगाए और चिल्ला कर बोला – कोहरे की मार से सूरज तक नहीं बच पा रहा है और तुम कोहरे का बहाना करके अपराध से बचना चाहते हो, अपराधी और निर्दोष का अभी सवाल नहीं है फंसता वही है जो मौके पर हाथ आ जाए और ठंड में बड़े साहब का खुश होना जरूरी है हमें तुम्हारी परेशानी से मतलब नहीं है हमें तो साहब की खुशी से मतलब है। बाबू कुकर के चुपचाप बैठ गया।

शाम हो चुकी थी कोहरा और गहरा गया था, थानेदार मूंछों में ताव देकर खुश हो रहा था।  थानेदार ने सिपाही को आदेश दिया – भले रात को कितना कुहरा फैल जाए पर बहू को बयान देने के लिए बंगले में उपस्थित कराया जाय………..

कोहरा सिर्फ कोहरा नहीं होता, कोहरा जब किल्लत बन जाता है तो बहुत कुछ हो जाता है। बाबू कोहरे को लगातार कोसे जा रहा है और बड़बड़ाते हुए कह रहा है ये साला कोहरा तो हमारे लिए थानेदार बन गया। और थानेदार कोहरे और ठंड में रजाई के सपने देख रहा था बहू को बंगले में कोहरा और ठंड के साथ बुलवाने का बहाना कर रहा है। बयान देने के बहाने बहू को थानेदार के बंगले पहुंचाया गया। बाबू चुपचाप देखता रहा, गंगू मार खाने के डर से कुछ नहीं बोला …. बहुत देर बाद एक सिपाही से बाबू बोला – गरीबों का भगवान भी साथ नहीं देता, ऊपर वाला दुखियों की नहीं सुनता रे………..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 82 ☆ व्यंग्य – चला-चली का खेला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘चला-चली का खेला ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 82 ☆

☆ व्यंग्य – चला-चली का खेला

नगर की जानी-मानी सांस्कृतिक संस्था ‘हंगामा’ ने सुराचार्य का संगीत कार्यक्रम आयोजित किया। ‘सांस्कृतिक’ शब्द बड़ा व्यापक है। उसमें घटिया से लेकर बढ़िया तक सब कार्यक्रम खप जाते हैं। ‘हंगामा’ सचमुच हंगामा ही था। उसके सदस्य बड़े उत्सव-प्रेमी थे। हास्य व्यंग्य के कवि-सम्मेलन से लेकर जादू प्रदर्शन, संगीत, सब चलता था। कुछ हो जाए,पोस्टर लग जाएं, अखबारों में सदस्यों के नाम और फोटो -वोटो छप जाएं तो सदस्यों को लगता था कि जीवन सार्थक हो गया।

सुराचार्य जी के पोस्टर नगर में जगह जगह लगे। टिकिट रखे गए सौ रुपये, दो सौ रुपये और पाँच सौ रुपये। फटेहाल संगीत-प्रेमियों ने रेट देखा तो ठंडी साँस भरी। वैसे भी ज्यादातर टिकिट बिक गये क्योंकि संगीत-प्रेमियों की कमी भले ही हो,मालदारों की कमी नहीं है। पाँच सौ रुपये का टिकिट खरीद कर ठप्पे से कार्यक्रम में जाने का मज़ा ही और है। मंहगा टिकिट खरीदने से कल्चर्ड होने का प्रमाणपत्र मिलता है, फिर भले ही कुर्सी पर बैठे ऊँघते रहो और मालकौस को भैरवी समझते रहो। पाँच सौ रुपये वाली सीट से दो सौ और सौ रुपये वाली सीटों पर बैठे लोग अधम लगते हैं। उनसे भी अधम वे होते हैं जिनकी ऐसे कार्यक्रम में घुसने की हिम्मत ही नहीं पड़ती।

तो धन इकट्ठा हो गया और सुराचार्य जी पधार गये। रात को कार्यक्रम हुआ। टिकिटों के खरीदार ऐसे सजे-धजे आये जैसे किसी बरात में जा रहे हों। मैं भी अपनी हैसियत के खिलाफ पाँच सौ रुपये वाली सीट पर डटा था। वजह यह थी कि पत्रकार होने के नाते आयोजकों ने ससम्मान बुलाया था, इस उम्मीद पर कि फोकट में  पाँच सौ रुपये की सीट का आनंद लेकर अखबार में कार्यक्रम की जयजयकार करूँगा।

सुराचार्य जी रेशमी कुर्ते-पायजामे में थे। ऊपर से शाल। भव्य लग रहे थे। हारमोनियम के सुर छेड़कर उन्होंने दो तीन हल्की फुल्की गज़लें सुनायीं। उसके बाद शुरू किया ‘दो दिन का जग में मेला, सब चला चली का खेला। ‘

थोड़ी देर में वातावरण विषादमय हो गया। लोग भावविभोर हो रहे थे। सबके सिर दाहिने-बायें ऐसे घूम रहे थे जैसे चाबी वाले बबुओं के घूमते हैं। सुराचार्य जी सबमें श्मशान-वैराग्य जगा रहे थे।

मेरे बगल में बैठे एक अधेड़ सज्जन आँखें मूँदे इस तरह सिर हिला रहे थे जैसे उन पर हाल आने वाला हो। थोड़ी देर बाद वे आँखें खोलकर मेरी तरफ देखकर बड़े दुखी भाव से बोले,’सच है जी। संसार सब झूठा है। आदमी की जिंदगी पानी का बुलबुला है। पल में फूट जायेगा जी। सब बेकार है। ‘

फिर वे और दुखी भाव से बोले,’मैंने भी बोत गल्त तरीके से पैसा कमाया जी। आतमा को बेच दिया। बोतों को रिश्वत खिलायी। बोतों को धोखा दिया। बोत झूठ बोला। आज बड़ा पछतावा हो रहा है। ‘

उन्होंने कानों को हाथ लगाया। मैं घबराया कि अब वे जीवन भर का संचित तत्व ज्ञान मुझे देंगे। कहीं भाग भी नहीं सकता था क्योंकि आसपास कोई सीट खाली नहीं दिखी। सौभाग्य से वे फिर आँखें मूँद कर पश्चाताप में डूब गये।

सुराचार्य जी अब भी ‘चला चली का खेला’ की रट लगाये थे ओर वातावरण ऐसा भारी हो रहा था कि हर एक के ऊपर मनों और टनों के हिसाब से बैठ रहा था। सब श्रोता आँखें बंद किये ठंडी सांसें भर रहे थे। मुझे लग रहा था कि आज इनमें से आधे खुदकुशी कर लेंगे और बाकी कल सबेरे कमंडल लेकर हिमालय की तरफ निकल जायेंगे। मेरी समझ में इतने लोग समाज से खारिज हो गये थे।

थोड़ी देर में ‘चला चली का खेला’ खत्म हुआ और सुराचार्य जी ने एक खासी रोमांटिक गज़ल छेड़ दी,जिसमें नायिका से कहा गया था कि उसका चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल हैं इसलिए वही एकमात्र धनवान है, बाकी सब कंगाल हैं। मुझे याद नहीं कि चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल बताये गये थे या सोने जैसा रंग और चाँदी जैसे बाल। बहरहाल अब उसाँसें बंद हो गयीं थीं और लोग फिर से चैतन्य होकर दिमाग से श्मशान की भस्म झाड़ रहे थे।

मेरी बगल वाले सज्जन उठकर खड़े हो गये। अब वे एकदम प्रफुल्लित, चतुर और चौकस दिख रहे थे।

मैंने पूछा,’कहाँ चले जी?’

वे बोले, ‘दुकान पर छोटे लड़के को बैठा आया हूँ जी। थोड़ा चालू है। मौका मिल जाता है तो चालीस पचास रुपये दबा लेता है। आधा प्रोग्राम देख लिया तो समझिए ढाई सौ रुपये तो वसूल हो गये। बाकी आधे धंधे के नुकसान खाते में डाल देंगे। ‘

थोड़ी देर बाद कार्यक्रम खत्म हुआ। मैं स्टेज के भीतर गया तो वहाँ आयोजक करम पर हाथ धरे बैठे थे। मैंने उनकी मिजाज़पुरसी की तो एक बिफरकर बोला, ‘सुराचार्य पूरे चालीस हजार की माँग कर रहा है। टस से मस नहीं हो रहा है। बात ज़रूर चालीस की हुई थी लेकिन इतना पैसा इकट्ठा नहीं हुआ। पैंतीस हजार दे दिये। घंटे भर से हाथ जोड़ रहे हैं लेकिन दो हजार भी छोड़ने को तैयार नहीं है। ‘

दूसरा आयोजक दाँत पीस कर बोला, ‘हमको चला चली का खेला सुनाता है और खुद चालीस हजार पर अड़ा हुआ है। चला चली का खेला है तो पैसे क्या छाती पर रख कर ले जायेगा?’

मेरे पास उनके लिए सांत्वना के शब्द नहीं थे। सुराचार्य जी अब भी तख्त पर जमे आग्नेय दृष्टि से आयोजकों को भस्म कर रहे थे।

इतने में कुछ और खलबली मची। पता चला, एक्साइज वाले आ गये हैं और आयोजकों की धरपकड़ हो रही है। मामला मनोरंजन-कर की चोरी का बन गया था। अब आयोजक गश खाने की हालत में आ गये थे और सुराचार्य जी पहलू बदलकर भागते भूत की लंगोटी स्वीकार करने की मुद्रा में आयोजकों को बुलावे पर बुलावे भेज रहे थे। लेकिन अब आयोजकों के पास उनकी बात पर कान देने का वक्त नहीं था।

कुल मिलाकर वातावरण खासा दुनियादारी का हो गया था और ‘चला चली का खेला’ वाले मूड की चिन्दी भी अब वहाँ ढूँढ़े नहीं मिल सकती थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 50 ☆ अक्ल से पैदल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अक्ल से पैदल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 50 – अक्ल से पैदल ☆

क्या किया जाए जब सारे अल्पज्ञानी मिलकर अपने -अपने ज्ञान  के अंश को संयोजित कर कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हों ?

कभी- कभी तो लगता है, कि इसमें बुराई ही क्या है  ?

ये सच है, कार्य किसी के लिए नहीं रुकता, चाहे वो कोई भी क्यों न हो । यही तो खूबी है मनुष्य की, वो जहाँ चाह वहाँ राह की उक्ति को चरितार्थ करते हुए चरैवेति – चरैवेति के पथ पर अग्रसर हो अपने कार्यों को निरन्तर अंजाम देता जा रहा है । इसी कड़ी में यदि मौके पर चौका लगाते हुए लोग भी, गंगा नहा लें तो क्या उन्हें कोई रोक सकता है ? अरे ,रोकें भी क्यों? आखिर जनतंत्र है । भीड़ का जमाना है । जितने हाथ उतने साथ; सभी मिलकर सभाओं की रौनक बनाते हैं । कोई भी सभा हो, वहाँ गाँवों से ट्रालियों में भरकर लोग लाए जाते हैं । उन्हें जिस दल का गमछा मिला उसे लपेटा और बैठ गए; पंडालों में बिछी दरी पर । समय पर चाय नाश्ता व भोजन, बस अब क्या चाहिए ? पूरा परिवार जन बच्चे से ऐसे ही सभी आंदोलनों में शामिल होता रहता है । मजे की बात तो ये की है कि पहले सड़क पर आना खराब समझा जाता था परंतु अब तो सत्याग्रह के नाम पर सड़कों को घेर कर ही आंदोलनकारी अपने आप को गांधी समर्थक मानते हैं ।

धीरे – धीरे ही सही लोग सड़कों पर उतरने को अपना गौरव मानने लगे हैं । चकाजाम तो पहले भी किया जाता रहा है किंतु इक्कीसवीं सदी के सोपान पर चढ़ते हुए हम सड़कों को ही जाम करने लगे हैं । ठीक भी है जब चंद्रमा और मंगलग्रह के वासी होने की इच्छा युवा दिलों में हो तो ऐसा होना लाजमी ही है ।  अब हम लोग हर चीज का उपयोग करते हैं, तो सड़कों का भी ऐसा ही उपयोग करेंगे । भले ही हमारा बसेरा आसमान में हो किन्तु हड़ताल धरती पर ही करेंगे क्योंकि वो तो हमारी माता है और माँ का साथ कोई कैसे छोड़ सकता है ? कभी- कभी तो लगता है ; ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि सच्चा लोकतंत्र तो गाँवों में बसता है । राजनैतिक या धार्मिक कोई भी आयोजन हो सुनने वाले वही लोग होते हैं, जो एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की खूबी रखते हों । ये सब देखते हुए वास्तव में लगता है कि लोकतंत्र कैसे भीड़तंत्र में बदल जाता है और हम लोग असहाय होकर देखते रह जाते हैं ।  लोग बस इधर से उधर तफरी करते हुए घूमते रहते हैं , जहाँ कुछ नया दिखा वहीं की राह पकड़ कर चल देते हैं ।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।

दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।

बस इसी दोहे को अपना गुरु मानकर घर से निकल पड़ो और जहाँ आंदोलन हो रहा हो वहाँ जमकर बैठ जाओ । याद रखो कि पहला  कार्य सभी लोग नोटिस करते हैं अतः उसे विशेष रूप से ध्यानपूर्वक करें । जब आपका नाम ऐसे आयोजनों में लिख जाए तो चैन की बंशी बजाते हुए अपनी धूनी रमा लीजिए । यदि उद्बोधनों से आपका नाम छूटने लगे तो समझ लीजिए की आपको अपने ऊपर कार्य करने की जरूरत है । तब पुनः जोर- शोर से कैमरे के सामने आकर हमारी माँगें पूरी करो… का नारा लगाने लगें, भले ही माँग क्या है इसकी जानकारी आपको न हो । क्योंकि प्रश्न पूछने वाले भी प्रायोजित ही होते हैं , ऐसे आयोजनों में उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो अक्ल से पैदल होकर वैसे ही प्रश्नों को पूछें जैसे आयोजक चाहता हो ।

सड़क और ग्यारह नंबर की बस का रिश्ता बहुत गहरा होता है । इनके लिए विशेष रूप से फुटपाथ का निर्माण किया जाता है जहाँ ये आराम से अपना एकछत्र राज्य मानते हुए विचरण कर सकते हैं तो बस ; आंनद लीजिए और दूसरों को भी दीजिए । जो हो रहा है होने दीजिए ।

जबलपुर (म.प्र.)©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 81 ☆ व्यंग्य – बेख़ुदी के लमहे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘बेख़ुदी के लमहे। चित्रकार, कलाकार और ऐसे ही मिलते जुलते पेशे के लोगों की बेखुदी के लमहों के भी क्या कहने? डॉ परिहार सर के लेखनी के जादू ने तो ऐसे पात्र का सजीव शब्दचित्र ही खींच कर रख दिया। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 81 ☆

☆ व्यंग्य – बेख़ुदी के लमहे

तुफ़ैल भाई हमारे शहर के एकमात्र बाकायदा मान्यता-प्राप्त चित्रकार हैं। बाथरूम पेन्टर तो बहुत से होंगे, उनसे हमें क्या लेना-देना।  बाथरूम में मोर नाचा,किसने देखा?

तुफ़ैल भाई अपनी हरकतों की वजह से अक्सर चर्चा में रहते हैं। उनके पास एक छोटी सी कार है जिसे उन्होंने चलता-फिरता कैन्वास बना रखा है। कार पर सब तरफ पेन्टिंग बनी है,जिसमें से कहीं आदमी की आँख, कहीं घोड़े का थूथन, कहीं बैल के सींग नज़र आते हैं। कार में कैन्वास, ब्रश और पेन्ट लादे वे पूरे शहर में घूमते रहते हैं और जहाँ मन होता है वहाँ ब्रश पेन्ट निकालकर शुरू हो जाते हैं। चौराहों पर खड़ी कई गायों की चमड़ी को वे समृद्ध, सुन्दर और मूल्यवान बना चुके हैं। कभी शास्त्री पुल पर कैन्वास टिकाकर पेन्टिंग शुरू कर देते हैं और ट्रैफिक गड़बड़ा जाता है।

तुफ़ैल भाई पक्के कलाकार हैं। जूते वे पहनते नहीं, क्योंकि जूते पहनने से काम बढ़ता है और ध्यान बँटता है। इतना क्या कम है कि कपड़े पहने रहते हैं। एक बार उसमें भी गड़बड़ हो गया। एक पान की दूकान पर पान खाने उतरे तो पता चला कुर्ता तो पहन आये, पायजामा घर में ही छूट गया। लोगों ने वापस उन्हें कार में बन्द कर दिया और एक आदमी को दौड़ा कर घर से पायजामा मंगवाया। अपने शहर के भद्र समाज को वे ऐसे ही संकट में डालते रहते थे।

तुफ़ैल भाई धूम्रपान को रचनाशीलता का ज़रूरी हिस्सा मानते हैं लेकिन वे सिगरेट की बजाय बीड़ी पसन्द करते हैं। उनका मत है कि बीड़ी ज़मीन की चीज़ है, जनता के पास पहुँचने में मददगार होती है।

एक बार वे भारी लफड़े में पड़ गये थे।  अपना कैन्वास-कूची लेकर वे एक भद्र परिवार की विवाहित युवती के पीछे पड़ गये थे। उनका कहना था कि उक्त नारी का सौन्दर्य ‘परफेक्ट’ है और इसलिए कलाकार होने के नाते इच्छानुसार उससे बातचीत करने और उसका चित्र बनाने का उन्हें हक है। मुश्किल यह है कि अभी हमारा समाज कलाकारों की अभीष्ट कद्रदानी नहीं जानता। युवती के परिवार के कुछ मूर्ख युवकों ने तुफ़ैल भाई पर हमला बोल दिया। लड़ाई में उनके चार कैन्वास, छः ब्रश और बायें हाथ की हड्डी काम आयी। वह तो अच्छा हुआ कि उनका दाहिना हाथ बच गया, अन्यथा कला जगत की भारी क्षति हो जाती।

कुछ दिन बाद मैंने अपने घर की मरम्मत कराके उसकी रंगाई-पुताई करायी। घर की सूरत निखर आयी तो घर के लोगों का मन बना कि उसमें एक दो पेन्टिंग टाँगी जाएं। जब आदमी का धन -पक्ष मज़बूत हो जाता है तो उसका ध्यान कला-पक्ष की तरफ जाता है ताकि दुनिया को लगे कि उसके पास माल के अलावा तहज़ीब और नफ़ासत भी है।

हुसेन और रज़ा को टाँगने की अपनी हैसियत नहीं थी, इसलिए तय हुआ कि फ़िलहाल तुफ़ैल भाई को टाँगकर काम चलाया जाए। ‘तुफ़ैल’ नाम भी कुछ ऐसा था कि कमज़ोर नज़र वाला उसे ‘हुसैन’ समझ सकता था। ज़्यादातर लोग पेन्टर का नाम देखकर ही यह निर्णय ले पाते हैं कि पेन्टिंग महत्वपूर्ण है या नहीं।

तुफ़ैल भाई के घर पहुँचा तो पाया कि गेट से लेकर दीवारें तक उनकी कला के नमूनों से सजी हैं। बरामदे में उनका एक चेला गन्दा कुर्ता पहने बेतरह दाढ़ी खुजा रहा था। लगता था किसी भी क्षण उसकी दाढ़ी से पाँच दस जूँ टपक पड़ेंगे।

मैंने उससे कहा कि मैं तुफ़ैल भाई से मिलना चाहता हूँ तो वह दाढ़ी खुजाने के आनन्दातिरेक में आँखें बन्द करके बोला, ‘नामुमकिन’।

मैंने वजह पूछी तो वह हाथ को विराम देकर बोला, ‘उस्ताद आजकल एक महान पेन्टिंग की तैयारी में डूबे हैं। दिन रात उसी के बारे मे सोचते रहते हैं। हर पेन्टिंग के पहले यही हालत हो जाती है। न खाते-पीते हैं, न सोते हैं। एकदम बेख़ुदी की हालत है। दीन-दुनिया का होश नहीं है। जब तक पेन्टिंग पूरी नहीं हो जाती, ऐसा ही जुनून सवार रहेगा। ‘

फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर बोला, ‘इस बार जो पेन्टिंग बनेगी वह पिकासो की ‘गुएर्निका’ को पीछे छोड़ देगी। आप देखना, दुनिया भर के पेन्टर उस्ताद को सलाम करने दौड़े आएंगे। ‘

मैंने प्रभावित होकर कहा, ‘मुझे उस्ताद की एक दो पेन्टिंग खरीदनी हैं। ‘

वह ज़ोर से सिर हिलाकर बोला, ‘अभी तो भूल जाइए। उस्ताद की इजाज़त के बिना पेन्टिंग मिलेगी नहीं, और उस्ताद को अभी इस दुनिया में वापस लौटा लाना बहुत मुश्किल है। ‘

फिर वह मुझसे बोला, ‘आइए, आपको उस्ताद की हालत दिखाते हैं। ‘

मैं उसके पीछे हो लिया। एक खिड़की के पास रुककर इशारा करते हुए वह बोला, ‘देखिए। ‘

मैंने खिड़की से झाँका।  अन्दर कमरे में तख्त पर तुफ़ैल भाई ऐसे चित्त पड़े थे जैसे दीन-दुनिया से पूरा रिश्ता ही टूट गया हो। मैंने घबराकर चेले से पूछा, ‘तबियत तो ठीक है?’

वह फिर दाढ़ी खुजाते हुए हँस कर बोला, ‘फिकर की बात नहीं है। ऐसा तो होता ही रहता है। लेकिन परेशानी बहुत होती है। अभी कल उस्ताद के लिए चाय लाकर रखी। थोड़ी देर में देखा कि चाय ज्यों की त्यों रखी है और कूची धोने वाला कप खाली हो गया है। क्या कीजिएगा। कलाकारों के साथ यही मुश्किल सामने आती है। ‘

मैंने मायूस होकर कहा, ‘ठीक है। बाद में आ जाऊँगा। ‘

इतने में तख्त से एक कमज़ोर आवाज़ आयी, ‘कौन है, शेख़ू?’

चेला चमत्कृत होकर बोला, ‘ये सिंह साहब आये हैं, उस्ताद। पेन्टिंग देखना चाहते हैं। ‘

तुफ़ैल भाई उसी तरह आँखें बन्द किये बोले, ‘चाबियाँ लेकर दिखा दे। ‘

चेला एक कील से चाबियाँ उतारकर मुझे एक कमरे में ले गया। वहाँ सैकड़ों पेन्टिंग अलग अलग दीवारों से टिकी थीं। वह इशारा करके बोला, ‘देख लीजिए। ‘

मैंने पेन्टिंग उलट पलट कर देखीं। कुछ समझ में नहीं आया। चेला एक हाथ कमर पर रखे दाढ़ी खुजाता खड़ा था। शर्मिन्दगी से बचने के लिए मैंने ढेर में से दो पेन्टिंग निकाल लीं। चेले से कहा, ‘ये दोनों मुझे पसन्द हैं। ‘

चेला निर्विकार भाव से बोला, ‘उस्ताद से पूछना पड़ेगा। ‘

हम फिर झरोखे पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई उसी तरह बेजान पड़े थे। चेला बोला, ‘वो आदिवासियों वाली दो पेन्टिंग लेना चाहते हैं।

तुफ़ैल भाई के ओठों में जुम्बिश हुई। आवाज़ आयी, ‘बीस हज़ार ले ले। ‘

मैंने कुछ शर्मिन्दगी के भाव से कहा, ‘तुफ़ैल भाई, मुझे पाँच छः हज़ार से ज़्यादा की गुंजाइश नहीं है। ‘

लाश में से आवाज़ आयी, ‘मुरमुरा ख़रीदने निकले हैं क्या?’

मैं लज्जित होकर चुप हो गया। तख्त से फिर आवाज़ आयी, ‘पन्द्रह हज़ार दे जाइए। ‘

मैंने कहा, ‘चलता हूँ तुफ़ैल भाई। ख़ामख़ाँ आपको तक़लीफ़ दी। ‘

मैं दरवाज़े से बाहर निकला ही था कि चेले ने पीछे से आवाज़ दी। हम फिर खिड़की पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई के शरीर से फिर आवाज़ आयी, ‘दस हज़ार से कम नहीं होगा। वैसे बाज़ार में पचास पचास रुपये वाली भी मिलती हैं। ‘

चेला अपने गुरू को सुनाकर बोला, ‘आपको ये मिट्टी मोल पड़ रही हैं। आर्ट का मोल करना सीखिए, जनाब। एक दिन यही दो पेन्टिंग आपको करोड़पति बना देंगीं। ‘

मैंने कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। अभी इजाज़त चाहता हूँ। ‘

तुफ़ैल भाई के मुर्दा जिस्म से फिर आवाज़ आयी, ‘नगद ले ले। ‘

चेले ने छः हज़ार लेकर मुझे दोनों पेन्टिंग एक अखबार में लपेट कर दे दीं।

चलते वक्त मैंने खिड़की के सामने रुककर तुफ़ैल भाई के शरीर को संबोधन करके कहा, ‘चलता हूँ , तुफ़ैल भाई। बहुत बहुत शुक्रिया। ‘

जिस्म से कोई आवाज़ नहीं आयी। पीछे से चेला बोला, ‘किससे बात कर रहे हैं?’

मैंने कहा, ‘तुफ़ैल भाई से। ‘

वह बोला, ‘अब तुफ़ैल भाई कहाँ हैं? वे तो वापस बेख़ुदी की हालत में चले गये हैं। इस वक्त वे इस रोज़गारी दुनिया से ऊपर कला की दुनिया में हैं। आपसे अब उनकी बात नयी पेन्टिंग पूरी होने के बाद ही हो पाएगी। आप ख़ामख़ाँ अपना वक्त ज़ाया कर रहे हैं। ‘

मैं कला की उन दोनों अमूल्य कृतियों को बगल में दबाकर बाहर आ गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #87 ☆ व्यंग्य – द सेल इज आन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  व्यंग्य  ‘द सेल इज आनइस सार्थक, मौलिक एवं अतिसुन्दर समसामयिक विषय पर रचितकालजयी व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 87 ☆

☆ व्यंग्य – द सेल इज आन ☆

द सेल इज आन. सब कुछ  बिकाऊ है. आन लाइन वेबसाइट्स पर भी और बेशुमार माल्स में,  माल बिकाऊ है,उपलब्ध है, होम डिलीवरी सुलभ  है.

पार्टी की टिकिट,  लुभावने नारे, बैनर रुपहले, झंडे और डंडे, जीतने के फंडे,एवरी थिंग इज अवेलेबल. वोट की कीमत सपने बस, बड़ी बात नेता का चरित्र पूरा का पूरा सोल्ड आउट है. विधायको के रेट बड़े तगड़े हैं. हार्स ट्रेडिंग में घोड़ो के दाम, दम वाले ही लगा सकते हैं. जनता की फिकर है, जिगर हथेली पर लेकर सौदे होते हैं.

चटपटी खबरें, चाय के साथ, सुबह के अखबार, मिड डे न्यूज, सांध्य समाचार, चैनल की बहस, इंटरव्यू के प्रश्न, प्रवक्ता का प्रतिकार, सजी संवरी न्यूज एंकर बाला, खबर नवीस टाई सूट वाला, हर कुछ सुलभ है. बड़ी बात टी आर पी  भी बिकाऊ है.

कार्यालय कल्चर, फाईलो के पच्चर, छोटे बाबू के बड़े काम, सरकारी खरीद, झूठी रसीद. होते हैं ठेके मिलने के भी ठेके. बिल पासिंग के तौर तरीके.  दो परसेंट के कमाल, सरकारी दलाल, मिली भगत से सब मालामाल.  गरीब के लिये सिंगल विंडो है. आनलाइन के बहाने, आश्वासन सुहाने. मंत्री की फटकार, नोटशीट जोरदार, क्या नही हैं ?  बड़ी बात अफसर की आत्मा पूरी बिक चुकी है.

स्कूल कालेज के एडमीशन, आनलाइन पढ़ाई, किताब, कम्प्यूटर, डिग्री, जानकारी तो बेहिसाब है, बस ज्ञान का थोड़ा टोटा है.  नौकरी  लेखको के लिये किताबों का प्रकाशन, समीक्षा, पुरस्कार, शाल, श्रीफल, सम्मान के पैकेज हैं, हर तरह के रेंज हैं.

अस्पताल का बैड ही नही, किस ब्लड ग्रुप का खून चाहिये,  है. माँ की कोख, गरीब की किडनी, मरना डिले करना हो तो वेंटीलेटर, आक्सीजन सिलेंडर, ग्लूकोज की बोतल सब कुछ है. मर भी जाओ और अंतिम संस्कार डिले करना हो तो डीप फ्रीजर भी है. बस डाक्टर का संवेदनशील मन आउट आफ स्टाक हो चुका है. बड़ी बात अब ऐसे सहृदय डाक्टर्स का प्रोडक्शन ही बंद हो चुका है. पसीजने वाला दिल लिये कुछ ही नर्सेज बची हैं, मिल जायें तो किस्मत. मूर्तियां खूब हैं बाजार में, इंसानो की कमी है।

आई पी एल में खिलाड़ी क्रिकेट के होते हैं नीलाम सरे आाम. वो तो अच्छा ही है कि अब सब कुछ पारदर्शी है. वरना बिकते तो अजहर और जडेजा के समय भी थे पर सटोरियों के हाथों ब्लैक में.

यूं सारे खिलाड़ी, और फिल्मी सितारे विज्ञापनो में बेचने के काम हैं आते पोटेटो चिप्स, साबुन और टिप्स.

पोलिस केस, कोने में कैश. कोर्ट में न्याय, काले कोट के दांव,  एफेडेविट का वेट, एग्रीमेंट से सब सैट, मुश्किल मगर, केस बेशुमार हैं जज साहब बीमार हैं.

मन की शांति के योग, संगीत के सुर, लेक व्यू, सी व्यू, हिल व्यू वाले हाई टेक सूइट, स्विमिंग पूल, एरोमा मसाज कूल.  पांच सितारा फूड, एग व्हाईट आमलेट, ब्रेड और कटलेट, सब एंपल में है.  सन्यासी के प्रवचन, रामधुन, कीर्तन भी मिलते हैं. धर्म की गिरफ्त है, भीड़ अंधी मुफ्त है.

गरीब का दर्द और किसान का कर्ज वोटो में तब्दील करने की टेक्नीक नेता जी जानते हैं. तभी तो सब उनको मानते हैं.

शुक्र है कि ऐसे मार्केटिंग और सेल के माहौल में बीबी का प्यार और मेरी कलम दोनो अनमोल हैं. एक्सक्लूजिव आनली फार मी सोल हैं.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 49 ☆ वायरल पोस्ट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “किस्म किस्म के ढक्कन”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 49 – किस्म किस्म के ढक्कन ☆

भावनाओं में बह कर व्यक्ति अक्सर गलतियाँ कर जाता है। परंतु जो पूर्वाग्रह से मुक्त होकर केवल सकारात्मक ही सोचता है, वो अंधकार में भी प्रकाश की किरण ढूँढ़ ही लेता है। ऐसे लोग न केवल दूरदर्शी होते हैं वरन अपनी उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। उम्मीद का दामन थामें उम्मीदवार बस भगवान को मनाते रहते हैं कि सब कुछ उनके पक्ष में हो पर होगा कैसे ?  ये तो आपका पक्षकार ही बता सकता है।

इसी तरह तत्काल जो निर्णय किए जाते हैं, वे भावनाओं से प्रभावित होते हैं किंतु कुछ समय के बाद जब हम कोई फैसला करते हैं तो वो दोनों पक्षों को ध्यान में रखकर किया जाता है। ये सही है कि उपेक्षा और अपेक्षा दोनों ही हमारे लिए घातक साबित होते हैं किंतु हम सब इनके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते हैं। सच कहूँ तो इनके बिना तरक्क़ी ही नहीं हो सकती है। जब तक लोभ मोह की छाया हमारे चारों ओर नहीं होगी तब तक कोई कार्य किए ही नहीं जायेंगे। लोग हाथों में हाथ धरे बैठे हुए जीवन व्यतीत कर देंगे।

अब बात आती है ऐसे अजूबों की जो समझाने पर भी कुछ नहीं समझते ,समझ में नहीं आता या अनजान बनने का ढोंग करते हैं, या वास्तव में ही नासमझ होते हैं, भगवान ही जाने। खैर ये सब तो चलता  रहेगा।  दुनिया ऐसे ही भेड़चाल चलते हुए अपना विकास करती जा रही है। मजे की बात ये है कि बोतल कोई भी हो ढक्कन तो बस एक ही कार्य करते हैं। अपना बचाव करते हुए उल्लू सीधा करना। हद तो तब हो जाती है जब चमचों की बड़ी फौज बस सिर हिलाकर अपनी सहमति  देने में ही अपना सौभाग्य समझती है।

बिना ढक्कनों के डिब्बों की पूछ परख भी नहीं होती है। उन्हीं में समान रखा जा सकता है जो इनके साथ हों। सफाई करते समय डिब्बों को भले ही बाहर से साफ कर दिया जाए किन्तु ढक्कनों को धो पोंछ कर ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि यही तो हैं जो वस्तुओं के असली रक्षक होते हैं। डिब्बे का समान तभी सही रह सकता है जब एयरटाइट डिब्बा हो और इस एयर को टाइट करने का कार्य ये ढक्कन ही करते हैं सो ऐसे लोगों को नमन जो इसको आदर्श बना कर जीवन एक गति से जिए जा रहे हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 77 ☆ व्यंग्य – अलबेले एडमिन सरकार ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य  “अलबेले एडमिन सरकार“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 77

☆ व्यंग्य – अलबेले एडमिन सरकार ☆

एडमिन तो एडमिन है। एडमिन नहीं रहेंगे तो व्यंग्य विधा का बंटाधार हो जाएगा, इसलिए ग्रुप में रहना है तो एडमिन से खुचड़ नहीं करना लल्लू। एडमिन जो कहे मान लेना, क्योंकि एडमिन सोशल मीडिया का सर्वशक्तिमान राजा होता है उसके तरकस में तरह-तरह के विषेले तीर रहते हैं,वह जब एडमिन बनता है तो अचानक उसके चमचे पैदा हो जाते हैं।उसका मोबाइल बिजी हो जाता है, उसे हर बात में सर सर कहना जरूरी है, कोई भरोसा नहीं वो किस बात से नाराज हो जाए और आपको ग्रुप से निकाल दे, इसलिए एडमिन जो कहे उसे सच  मान लो भले हर सदस्य को लगे कि ये सरासर झूठ है।अहंकारी एडमिन की आदत होती है वो किसी की नहीं सुनता। अनुशासन बनाए रखने की अपील करते करते किसी को भी निकाल देता है और किसी को भी जोड़ लेता है,वो सौंदर्य प्रेमी होता है इसलिए सुंदरता का सम्मान करता है और उनके सब खून माफ कर देता है।

दुर्भाग्यवश एडमिन को उसके अपने घर में मजाक झेलना पड़ता है और उसकी बीबी उसका मोबाइल तोड़ने की धमकी देती रहती है। बीबी बात बात में उसको डांटती है कि कैसा झक्की आदमी हैं कि दिनों रात मोबाइल में ऊंगली घिसता रहता है, घर के कोई काम नहीं करता और तिरछी ऊंगली करके घी चुरा लेता है। बाहर वालों से तो मक्खन लगी चिकनी चुपड़ी बात करता है और घर वालों के प्रति चिड़चिड़ा रहता है। इन दिनों व्यंग्य के ग्रुप बनाने का फैशन चला, एक व्यक्ति यदि दस बारह जगह एडमिन नहीं है तो कचरा व्यंंग्यकार कहलाता है।

एक व्यंग्य का घूमने वाला समूह बना था जिसमें सब अपने आपको नामी-गिरामी व्यंंग्यकार समझते थे, एक नेता टाइप का मेम्बर किसी बात पर बहस करने लगा तो उस ग्रुप के मठाधीश ने अपने तुंदियल एडमिन को आर्डर दिया कि इस नेता टाइप को तुरंत उठा कर फेंक दो ग्रुप से।‌ तुंदियल एडमिन ने उसे अर्श से फर्श पर पटक दिया। घायल नेता टाइप के उस आदमी ने विरोधियों के साथ मिलकर एक नया ग्रुप बना लिया जिसमें पुराने ग्रुप के सब मेम्बर को जोड़ लिया और सात आठ नामी-गिरामी हस्तियों को एडमिन बना दिया। ग्रुप चल निकला। लोग जुड़ते गए… अच्छा विचार विमर्श होता। जीवन में अनुशासन और मर्यादा की खूब बातें होती, फिर नेता जी टाइप का वो मुख्य एडमिन अन्य दंद- फंद के कामों में बिजी हो गया तो उसने दो बहुरुपिए एडमिन बना लिए ।वे प्रवचन देने में होशियार निकले। बढ़िया चलने लगा, समूह में नये नये प्रयोग होने लगे, और ढेर सारे लोग जुड़ते गए । अनुशासन बनाए रखने की तालीम होती रहती,नये नये विषयों पर शानदार प्रवचनों से व्यंंग्यकारों को नयी दृष्टि मिलने लगी, विसंगतियों और विद्रूपताओं पर ध्यान जाने लगा।

इसी दौरान एक महत्वाकांक्षी व्यंंग्यकारा का ग्रुप में प्रवेश हुआ। उनकी आदत थी कि वो हर बड़े व्यंंग्यकार के मेसेन्जर में घुस कर खुसुर फुसुर करती, तो बड़े नामी गिरामी ब्रांडेड व्यंंग्यकार गिल्ल हो जाते। सबको खूब मज़ा आने लगा, मुख्य एडमिन का ध्यान भंग हो गया, मुख्य एडमिन अचानक संभावनाएं तलाशने लगे। हर समूह में ऐसा देखा गया है कि मुख्य एडमिन को जो लोग पटा कर रखते हैं उन्हें ग्रुप में मलाई खाने की सुविधा रहती है। पता नहीं क्या बात हुई कि ऐन मौके पर अनुशासन सामने खड़ा हो गया और अनुशासन के चक्कर में धोखे से एक बहुरुपिए एडमिन ने उन व्यंग्यकारा को हल्की सजा सुना दी और कुछ दिन के लिए समूह से निकाल दिया, मुख्य एडमिन ने जब ये बात सुनी तो वो आगबबूला हो गया, रात को ढाई बजे सब एडमिनों को ग्रुप के बाहर का रास्ता दिखा दिया। दोनों बहुरुपिए एडमिनों ने रातों-रात एक नया ग्रुप बनाया, भगदड़ मच गई, सारे यहां से वहां हो गये। जब अकेले मुख्य एडमिन बचे तो उन्होंने बचे सदस्यों को भी बाहर कर अपने समूह का विसर्जन कर दिया। नये बने ग्रुप में धीरे धीरे मनमानी होने लगी, एडमिनों का अंहकार फूलने लगा, तो फिर यहां से कुछ लोग भागकर दूसरे ग्रुप में चले गए और कुछ ने अपने नये ग्रुप बनाकर एडमिन का सुख भोगने लगे, ऐसा क्रम चल रहा है और चलता रहेगा जब तक वाट्स अप बाबा के दरबार में एडमिनों को अपना नया दरबार लगाने की छूट मिलेगी।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 80 ☆ व्यंग्य – मरम्मत वाली सड़क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद सार्थक व्यंग्य  ‘मरम्मत वाली सड़क। सर, जब मैंने आपकी मरम्मत वाली सड़क की कल्पना की तो उसके पास ही तालाब भी नहीं मिला जिसका जिक्र है किन्तु, पता चला है उसमें मछली पालन भी हो रहा है और उससे सिंचाई भी ?इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 80 ☆

☆ व्यंग्य – मरम्मत वाली सड़क

छोटा इंजीनियर और ठेकेदार सरपंच की पौर में दो खटियों पर धरे हैं। कागज पर गाँव तक एक सड़क बनी है, उसी की मरम्मत के सिलसिले में आये हैं। सबेरे से तीन चार घंटे भटकते रहे, लेकिन सड़क कहीं हो तो मिले। आजकल गाँवों में भी ढाबे खुल गये हैं जहाँ अंडा-मुर्गी से लेकर अंग्रेजी दारू तक सब मिल जाता है, सो सुस्वादु भोजन करके सरपंच की खटिया पर झपकी ले रहे हैं। गाँव की सेवा के लिए आये हैं तो और कहाँ जाएं? कहने की ज़रूरत नहीं कि ढाबे का बिल ठेकेदार साहब ने चुकाया।

सरपंच जी पधारे तो इंजीनियर साहब ने उबासी लेते हुए अपना दुखड़ा रोया—‘सबेरे से ढूँढ़ते ढूँढ़ते पाँव टूट गये। इन ससुरी सड़कों के साथ यही मुश्किल है। बन तो जाती हैं लेकिन मिलती नहीं। हमारे कागजों में साफ लिखा है कि सड़क सन चार में बनी थी। तीन साल पहले मरम्मत हुई थी, तब भी नहीं मिली थी। इंजीनियर सत्संगी साहब आये थे, ढूँढ़ ढूँढ़ कर परेशान हो गये। आखिरकार, बिना मिले ही मरम्मत करनी पड़ी।’

इंजीनियर साहब ठेकेदार साहब का परिचय कराते हैं, कहते हैं, ‘ये हमारे ठेकेदार साहब हैं। इन्हीं को मरम्मत का ठेका मिला है। ये हमारे लिए ठेकेदार नहीं, भगवान हैं, गरीबपरवर हैं, करुणानिधान हैं। कितने कर्मचारियों की बेटियों की शादी इन्होंने करायी, कितने कर्मचारियों को जेल जाने से बचाया। बड़े बड़े लोगों के ड्राइंगरूम में इनकी पैठ है। बड़े बड़े अफसरों के दफ्तर में बिना घंटी बजाये घुस जाते हैं। संकट में सब इन्हीं को याद करते हैं। डिपार्टमेंट में इनकी इज्जत बड़े साहब से ज्यादा है। बड़े साहब से क्या मिलने वाला है?

‘एक अफसर दत्ता साहब आये थे। अपने को बड़ा ईमानदार समझते थे। इनको धमकी दे दी कि ब्लैकलिस्ट कर देंगे। इनके पक्ष में पूरे डिपार्टमेंट ने हड़ताल कर दी। कहा कि दत्ता साहब भ्रष्ट हैं। उनका ट्रांसफर हो गया। फेयरवेल तक नहीं हुई। हमारे ठेकेदार साहब को कोई हिला नहीं सकता। ऐसा प्रताप है इनका। देश के विकास का तो हमें ठीक से पता नहीं, लेकिन कर्मचारियों का विकास ठेकेदारों की कृपा से ही हो रहा है।’

सरपंच जी ने श्रद्धाभाव से ठेकेदार साहब को देखा। ठेकेदार साहब ने गद्गद होकर हाथ जोड़े।

इंजीनियर साहब बोले, ‘बड़ी परेशानी होती है। यहाँ से साठ सत्तर किलोमीटर पर एक तालाब है। दो तीन साल पहले उसे गहरा करने और घाट बनाने का काम निकला था। हमारे एक साथी दो दिन तक उसे ढूँढ़ते रहे, लेकिन उसे नहीं मिलना था सो नहीं मिला। लाचार ऐसे ही काम पूरा करना पड़ा।’

सरपंच जी आश्चर्य से बोले, ‘बिना मिले ही काम हो गया? ‘

इंजीनियर साहब दुखी भाव से बोले, ‘क्या करें? एलाटमेंट हो गया तो क्या उसे ‘लैप्स’ हो जाने दें? कितनी मुश्किल से एलाटमेंट होता है। पूरे डिपार्टमेंट के पेट का सवाल है। नीचे से लेकर ऊपर तक सब एलाटमेंट का इंतजार करते हैं। तो अब सड़क न मिले तो क्या सब के पेट पर लात मार दें? ये हमारे ठेकेदार साहब कैसे पलेंगे, और ये नहीं पलेंगे तो हम कैसे पलेंगे? इसलिए मरम्मत तो होगी, सड़क को जब मिलना हो मिलती रहे।’

शाम को इंजीनियर साहब और ठेकेदार साहब गाँव का निरीक्षण करने निकले। देखा, सड़कें, तालाब और बिल्डिंग बनाने की बहुत गुंजाइश है। विकास बहुत कम हुआ है इसलिए बहुत से कामों को अंजाम दिया जा सकता है। सर्वे करके रिपोर्ट बना ली जाए, बाकी काम डिपार्टमेंट में हो जाएगा। ठेकेदार साहब सहमत हैं। दफ्तर में बैठे बैठे सब काम हो जाएगा। यहाँ पैसा खर्च करने की ज़रूरत नहीं है। लौट कर साहब लोगों से बात करनी पड़ेगी।

लौट कर इंजीनियर साहब सरपंच से बोले, ‘यहाँ तो काम की बहुत गुंजाइश है। एक बार काम हो जाए तो मरम्मत चलती रहेगी। सब पलते रहेंगे।’

फिर बोले, ‘पाँच सात मजदूरों को बुला लें। कागजों पर अँगूठा लगवा लेते हैं। सड़क की मरम्मत का काम पुख्ता करना पड़ेगा। लोकल लोगों के सहयोग के बिना काम नहीं चलेगा। लेकिन हम किसी के साथ अन्याय नहीं करेंगे। अँगूठा लगाने के बदले सभी को एक दिन की मजूरी दी जाएगी। किसी का हक छीना नहीं जाएगा। जैसे हमारा पेट, वैसेइ उनका।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 48 ☆ वायरल पोस्ट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “वायरल पोस्ट”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 48 – वायरल पोस्ट ☆

आजकल के बच्चे सेल्फी लेने में चैंपियन होते हैं। बस स्टाइल से खड़े होने की देर है , फोटो फेसबुक से लेकर इंस्टा व ट्विटर पर छा जाती है। सब कुछ योजनाबद्ध चरण में होता है। पहले से ही तय रहता है कि किस लोकेशन पर कैसे क्लिक करना है। एक प्रेरक कैप्शन के साथ पोस्ट की गई फोटो पर धड़ाधड़ लाइक और कमेंट आने लगते हैं। जितनी सुंदर फोटो उतनी ही मात्रा में शेयर भी होता है।

ये सब कुछ इतनी तेजी से होता है कि आई टी एक्सपर्ट भी हैरान हो जाते हैं कि हम लोग तो इतनी मशक्कत के बाद भी अपने ब्रांड की वैल्यू नहीं बढ़ा पाते हैं। जीत हासिल करने हेतु न जाने कितने स्लोगन गढ़ते हैं तब जाकर कुछ हासिल होता है। पर ये नवोदित युवा तो एक ही फ़ोटो से रंग बिखेर देते हैं।

ये सब कुछ तो आज की जीवनशैली का हिस्सा बन चुका है। मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में हर दूसरी पोस्ट सोशल मीडिया में घूमती हुई दिखती है। जिसमें मोटिवेशन हो या न हो अलंकरण भरपूर रहता है। जोर शोर से अपनी बात को तर्क सहित रखने की खूबी ही आदर्श बन कर उभरती है। खुद भले ही दूसरों को फॉलो करते हों पर अपनी पोस्ट पर किसी की नज़र न पड़े ये उन्हें मंजूर नहीं होता। जबरदस्त फैन फॉलोइंग ही उनके जीवन का मुख्य सूत्र होता है। नो निगेटिवेव न्यूज को ही आदर्श मान कर पूरा अखबार प्रेरणादायक व्यक्तवों से भरा हुआ रहता है। अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी पोस्ट करने की छूट किस हद तक जायज रहती है इस पर चिंतन होना ही चाहिए।

हम लोग कोई बच्चे तो हैं नहीं कि जो मन आया पोस्ट करें, अधूरी जानकारी को फॉरवर्ड करते हुए किसी को भी वायरल करना तो मीडिया के साथ भी सरासर अन्याय है। इस सबसे तो वायरल फीवर की याद आ जाती है , कि कैसे एक दूसरे के सम्पर्क में आते ही ये बीमारी जोर पकड़ लेती है। दोनों में इतनी साम्यता है कि सोच कर ही मन घबरा जाता है। बीमारी कोई भी हो घातक होती है। पर क्या किया जाए तकनीकी ने ऐसे – ऐसे विकास किए हैं कि सब कुछ एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध हो गया है।

खैर ये सब तो चलता ही रहेगा , बस अच्छी और सच्ची खबरें ही वायरल हों इनका ध्यान हम सबको रखना होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈