हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘कबड्डी खेलता डालर)  

☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।

एक रुपए के नोट की चिंता जायज है, क्योंकि उसको कोई पूछता नहीं। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको जानकर यह आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा, और डालर इस तरह से रुपए के साथ कबड्डी खेलने लगेगा। पहले रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी की बीमारी हो जाती।

पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था। तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ।ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना चौड़ा हो गया, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर पिछले सात दशक का जिक्र आया,  भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटकनी दे देता है। जो लोग ‘डालर’ पहन के भाषण सुनने जाते हैं उनकी अंडरवियर गीली हो जाती है और एलास्टिक जकड़ जाती है।

हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर  जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है, इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।

और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #104 ☆ व्यंग्य – नये स्कूल की तालीम….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘नये स्कूल की तालीम…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 104 ☆

☆ व्यंग्य –  नये स्कूल की तालीम

दफ्तर में अचानक हंगामा मच गया। दफ्तर का रंगरूट क्लर्क सत्यप्रकाश,ठेकेदार समरथ सिंह को बाँह पकड़कर, करीब करीब घसीटते हुए, साहब के कैबिन में ले गया। आजू बाजू बैठे क्लर्कों के मुँह यह दृश्य देखकर खुले के खुले रह गये। बड़े बाबू का मुँह ऐसा खुला कि बड़ी मुश्किल से बन्द हुआ।
सत्यप्रकाश समरथ सिंह को साहब के सामने धकेलते हुए बोला, ‘सर, ये मुझे रिश्वत दे रहे हैं। अभी पाँच सौ का नोट मेरी फाइल में खोंस दिया। मुझे बेईमान समझते हैं। हमारे माँ-बाप ने हमें भ्रष्टाचार करना नहीं सिखाया।’

समरथ सिंह परेशान था। जिस दफ्तर में उसके प्रवेश करते ही सबके मुँह पर मुस्कान फैल जाती हो और जहाँ कोई उससे ऊँचे स्वर में बात न करता हो, वहाँ ऐसी फजीहत उसके लिए कल्पनातीत थी। वह साहब से बोला, ‘अरे सर, ये फालतू का हल्ला कर रहे हैं। पाँच सौ रुपये की कोई रिश्वत होती है क्या?ये हमारा पुराना दफ्तर है। ये नये आये हैं इसलिए हमने खुशी में सोचा मिठाई खाने के लिए छोटी सी भेंट दे दें। इसमें रिश्वत देने वाली बात कहाँ से आ गयी?’

सत्यप्रकाश बिफर कर ठेकेदार से बोला, ‘क्यों!आप हमें मिठाई क्यों खिलायेंगे? आप हमारे रिश्तेदार लगते हैं क्या?’

साहब उसकी बात सुनकर बगलें झाँकने लगे। फिर उससे बोले, ‘तुम अपनी सीट पर जाओ। मैं इनसे बात करता हूँ।’

पाँच मिनट बाद समरथ सिंह साहब के कैबिन से निकलकर, बिना दाहिने बायें देखे, निकल गया।

थोड़ी देर में साहब के कैबिन की कॉल-बैल बजी। बड़े बाबू का बुलावा हुआ। बड़े बाबू पहुँचे तो साहब के माथे पर बल थे। बोले, ‘यह क्या तमाशा है, बड़े बाबू? पुराने आदमियों के साथ कैसा सलूक हो रहा है?’

बड़े बाबू दुखी स्वर में बोले, ‘मेरी खुद समझ में नहीं आया, सर। लड़का अभी नया है, दफ्तर के ‘वर्क कल्चर’ को अभी समझ नहीं पाया है। टाइम लगेगा।’

साहब बोले, ‘उसे समझाइए। इस तरह बिना बात के तमाशा खड़ा करेगा तो काम करना मुश्किल हो जाएगा।’

बड़े बाबू बोले, ‘सर, मैं तो पहले से ही कह रहा हूँ कि नये आदमी को फाइलें सौंपने से पहले उसे दस पन्द्रह दिन तक सिर्फ दफ्तर के नियम-कायदे समझाना चाहिए। साथ ही देखना चाहिए कि समझाने का कितना असर होता है। जब दफ्तर के सिस्टम को समझ ले तभी फाइलें सौंपना चाहिए। आप परेशान न हों। मैं उसको समझाता हूँ।’

बड़े बाबू उठते उठते फिर बैठ गये। बोले, ‘सर, मेरे दिमाग में यह भी आता है कि जैसे कुछ स्कूलों में भर्ती के समय बच्चे के माँ-बाप का इंटरव्यू लिया जाता है, उसी तरह नयी भर्ती को ज्वाइन कराते समय उसके बाप को बुलाना चाहिए। पता चल जाएगा कि बाप ने बेटे के दिमाग में ऐसा कूड़ा-करकट तो नहीं भर दिया है जिससे दफ्तर में काम करने में दिक्कत हो। बहुत से माँ- बाप लड़के को ऐसी बातें सिखा देते हैं कि वह हर छः महीने में सस्पेंड होता है या ट्रांसफर भोगता है। यह लड़का भी ऐसे ही माँ-बाप का सिखाया लगता है। फिर भी मैं उसे लाइन पर लाने की पूरी कोशिश करूँगा।’

अपनी सीट पर आकर बड़े बाबू ने सत्यप्रकाश को बुलाया, बगल में बैठाकर मुलायम स्वर में बोले, ‘भैया, आज समरथ सिंह पर तुम्हारा गुस्सा देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। ऐसा है कि आदमी को अपनी जिन्दगी में कई स्कूलों में पढ़ना पड़ता है। पहला स्कूल आदमी की फेमिली होती है और दूसरा वह स्कूल या कॉलेज जहाँ वह पढ़ता है। काम की जगह या दफ्तर तीसरा स्कूल होता है जहाँ जिन्दगी बसर करने की तालीम मिलती है। दफ्तर में आकर कई बार फेमिली और स्कूल की पढ़ाई को भुलाना पड़ता है क्योंकि आजकल वह शिक्षा आगे की जिन्दगी में अड़चन पैदा करती है। इसलिए तुमको हमारी सयानों वाली सलाह है कि घर-स्कूल की तालीम को भुलाकर यहाँ के तौर-तरीके सीखो ताकि जिन्दगी सुखी और सुरक्षित रहे।

‘दूसरी बात यह कि ये जो ठेकेदार हैं ये हमारे संकटमोचन हैं। आगे इन पर नाराज होने की गलती मत करना। अभी तो तुम इन पर बमकते हो, जिस दिन बहन या बेटी की शादी करनी होगी उस दिन ये ही काम आएँगे। बड़े बड़े संकटों से निकाल कर ले जाएँगे। इसलिए दुनियादार हो कर चलोगे तो तुम्हारे हाथ-पाँव बचे रहेंगे, वर्ना भारी कष्ट उठाओगे। हमारी बात पर ठंडे दिमाग से विचार करना, बाकी हम सिखाने के लिए हमेशा तैयार बैठे हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को  हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ी सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की प्रथम कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

मित्रों, अपनी बात आरम्भ करने के पूर्व हरिशंकर परसाई के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा – ‘‘अपनी कैफ़ियत दूँ, हँसना, हँसाना, विनोद करना, अच्छी बातें होते हुए मैंने केवल मनोरंजन के लिये कभी नहीं लिखा, मेरी रचनाएँ पढ़कर हँसी आना स्वाभाविक है – यह मेरा यथेष्ठ नहीं, और चित्रों की तरह व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गम्भीर चित्र मानता हूँ।’’

आज ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ विषय पर चर्चा हो रही है। मेरे मन में दो आशय निकले हैं – पहला व्यंग्य के लिये क्या-क्या ज़रूरी है तथा दूसरा, व्यंग्य की समाज को कितनी ज़रूरत है। अतः इन दो बिन्दुओं को लेकर मिली-जुली चर्चा कर रहा हूँ।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ पर चर्चा करने के पूर्व यह जानना ज़रूरी है कि व्यंग्य की प्रकृति और प्रवृत्ति क्या है? तभी व्यंग्य की ज़रूरतों का आभास होगा। व्यंग्य कैसे अपना प्रभाव डालता है? वह प्रभाव समाज के लिये ज़रूरी कैसे हो जाता है? व्यंग्य अपने आपको कैसे रचता है? व्यंग्य का स्वभाव कैसा है…? यह सब भले पार्श्व में है, पर जानना ज़रूरी है।

आज व्यंग्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। अख़बार, पत्रिका, सोसल मीडिया में इसकी उपादेयता बढ़ गयी है। बहुत से अख़बारो और पत्रिकाओं से तो कहानी, निबंध तिरोहित हो गये हैं, पर व्यंग्य अंगद की भाँति पैर जमाए खड़ा है। कई अख़बारों ने व्यंग्य के पैर हिलाए, पर बाद में यथा स्थान उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। नये-नये लेखक अपनी-अपनी कलम घिस रहे हैं। नये विषय तलाशे जा रहे हैं, यह व्यंग्य के लिये शुभ संकेत है। इससे व्यंग्य की संभावनाओं को विस्तार मिला है। एक-दो वर्ष पूर्व तक इस पर गंभीर चर्चा नहीं होती रही, पर आज “व्यंग्य यात्रा” प्रेम जी और ललित जी के श्रम से संभव हो रही है। व्यंग्यकार अपना बेहतर दे रहा है। पाठक उसे कैसे स्वीकार कर रहा है, यह दृष्टि पटल पर स्पष्ट नहीं है। कारण इसका चेकिंग पोस्ट अर्थात् आलोचना व्यंग्य के पास नहीं है, परन्तु अब वह भी होने लगी है। बाज़ार, उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के प्रभाव को भी व्यंग्यकारों ने नोटिस में लिया है। प्रत्यक्ष में बाज़ार और वैश्वीकरण के द्वारा विकास दिख रहा है, पर प्रभाव की दिशा भी दिख रही है। इस विकास की प्रतिच्छाया में मानवीय छाया विलुप्त होती जा रही है। मानवीय संवेदनाएँ भौथरी होती जा रही हैं। मानवीयता मन से धीरे-धीर तिरोहित हो रही है और मानव एक वस्तु के रूप में बदलता जा रहा है।

यह गंभीर स्थिति है और इसी स्थिति को साहित्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ व्यंग्य ने गंभीरता से पकड़ा है। कारण यह व्यंग्य की प्रवृत्ति है कि वह समाज में घट रही घटनाओं को गंभीरता से लेता है। कोई विसंगति, विडम्बना, अत्याचार, अन्याय आदि घटनाओं पर अपनी पैनी नज़र रखता और उन्हें पकड़ता है तथा उस पर अपने ढंग से प्रतिक्रिया करता है। यही व्यंग्य की प्रकृति है। व्यंग्य की प्रकृति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जिस पर गंभीरता से विचार करना चाहिये, तभी हम व्यंग्य को भलीभाँति जान सकते हैं। यह सरल नहीं है। हमारे समक्ष हज़ारों दृश्य आते हैं और उनमें से कुछ हमारे मन को प्रभावित करते हैं तो कुछ विवश करते हैं कि हम प्रतिक्रिया त्वरित दें तो कुछ लोगों के जीवन की रोजाना की चर्या है। पर हम उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। पर वह हमारे जीवन में इतने गहरे तक रच-बस जाती है कि वह हमारे समाज या जीवन का अंग बन जाती है, पर है वह विकृति। जैसे भ्रष्टाचार, उस पर हम हज़ारों प्रतिक्रियाएँ देते हैं। उसका विरोध भी करते हैं, पर सुविधानुसार जब हमें नगर निगम, विद्युत विभाग, पुलिस से काम पड़ता है तब अपना काम निकालने के लिये श्रम और समय से बचने के लिये माध्यम ढूंढ़ कर पैसा दे कर अपना काम करवा लेते हैं। पर यह क्रिया भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली है। हम समय और श्रम बचाने के लिये थोड़ी देर के लिये उसका अंग बन जाते हैं। हम भ्रष्टाचार के विकास में अपरोक्ष रूप से सहयोग करते हैं। जब उससे अलग होते हैं तो भ्रष्टाचार के विरोध में डण्डे लेकर खड़े हो जाते हैं। जबकि यहाँ पर अपने आत्मबल के साथ हमें हर परिस्थितियों में मुठभेड़ के लिये तैयार होना चाहिये। पर हम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ पाते हैं। इसी प्रकार दहेज एक सामाजिक विकृति है। ‘दहेज’ उसका तो हम अपने-अपने ढंग से विरोध करते हैं। पर वक़्त जब आता है तो हम उसके अंग बन जाते हैं, क्योंकि हमारा उसमें स्वार्थ निहित होता है। दोनों पक्षों का क्योंकि उसमें हमारा हित और भविष्य दिखता है। इसलिये उसका अंग बनने में हम कोताही नहीं करते। यह ‘बनना’ व्यंग्य बन कर बाहर आता है। यही मानवीय प्रकृति और सामाजिक विकृति है। हम चीज़ों का विरोध करते हैं और संग खड़े होकर विसंगति को बढ़ावा देने में सहयोग भी देते हैं। यह प्रवृत्तियाँ ही ही विचारणीय हैं।

व्यंग्य और परसाई पर कमलेश्वर की एक टिप्पणी है, जिसमें एक जगह कमलेश्वर कहते हैं, ‘परसाई ने एक नवजागरण की शुरुआत की।’ हालाँकि हिन्दी में शायद मुश्किल से मंजूर किया जाता है कि नवजागरण की हमारे पास कोई परम्परा है। मुझे लगता है, नवजागरण की जो भारतीय परम्परा है, अलग वैचारिक परम्परा है, जो अंधवादिता, धर्मान्धता, आध्यात्मिकता से अलग रचनाकारों की पूरी परम्परा दिखाई देती है, जिसमें नवजागरण के रचनाकार शामिल हैं।

आज़ादी के बाद के महास्वप्न को हमारे पूर्वजों ने खण्डित होते देखा है। उस दौर को देखना उससे बाहर निकल आना और निरन्तर रचनारत रहना मामूली काम नहीं है, पर यह काम परसाई जी ने किया। एक बैशाखी है साहित्य की, जिसकी ज़रूरत सब को है और वो बैशाखी आलोचक की होती है। केवल परसाई ऐसा लेखक है पूरे हिन्दी समाज में और अन्य भाषाओं में भी, जिसे आलोचक की ज़रूरत नहीं पड़ती। परसाई ने कहा कि ‘‘मैं लेखक छोटा हूँ और संकट बड़ा हूँ। संकट पहचान कर भी परसाई ने संकट पैदा किये हैं। एक संकट उन्होंने वैचारिक जागरूकता फैलाकर स्वयं के लिये पैदा किया। अपने समय की तमाम व्यंग्यात्मक स्थितियों, विद्रूपताओं और विडम्बनाओं से वे आहत होते रहे। तब उनकी चिंता बढ़ जाती है।

उपरोक्त टिप्पणी को ध्यान में रखकर हम व्यंग्य पर आगे की बात करते हैं। व्यंग्य की संभावना को तलाशते हुए उस पर विचार करते समय यह भी ध्यान में रखना होगा कि वह अपना आकार कैसे लेता है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जब हम व्यंग्य लिखते हैं तब हम संकेत करते हैं कि व्यंग्य किस पर लिखा जा रहा है। पाठक जब संकेतों की सूक्ष्मता को पकड़ लेता है तब उसे पढ़ने में अलग अनुभूति होती है। अन्यथा वह तटस्थ हो कर सोचने लगेगा। इसी तरह रचना का परिवेश व्यंग्य के लिये आवश्यक तत्त्व है। किसी बात को कहने के लिये इतिहास का सहारा लिया जाये या बात को सीधे-सीधे रचना के अनुरूप कहा जाय। वैसे आधुनिक व्यंग्य में परिवेश भी रचना के अनुरूप होता है। उसे किसी आवरण की आवश्यकता नहीं होती। इस अवधारणा से व्यंग्य की मारक क्षमता प्रभावशाली हो जाती है, जो व्यंग्य के उद्देश्य की प्रथम सीढ़ी होती है। किसी रचना में कथ्य या विषय के मूल को उजागर करने में, उसे प्रभावशाली बनाने में भाषा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वही रचना को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करती है। भाषा व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण अंग है, जिस पर लेखक को विशेष ध्यान देना चाहिये। यही वे तत्त्व हैं जो व्यंग्य को उच्चतम स्तर तक पहुँचा सकते हैं। अन्यथा अच्छी विषय वस्तु होने के बावजूद रचना का कचरा होने में देर नहीं लगती।

अगर हम परसाई, शरद जोशी या वर्तमान में ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल आदि की रचनाओं का अध्ययन करें तो पाते हैं कि इनकी भाषा सहज, सरल और आसानी से ग्राह्य होते हुए प्रभावी भी है। उसमें किसी तरह की लाग-लपेट और अनावश्यक जटिलता, क्लिष्टता का अभाव है। पाण्डित्यपूर्ण शब्दों की कमी हो, लेखक इस बात का ध्यान रखते हैं, उन्हें मालूम है कि उनका पाठक आम वर्ग से आता है उसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को आत्मसात करने में कठिनाई होती है। वह ऐसी भाषा की संरचना करता है जो सबके लिये सहज, सुलभ और ग्राह्य हो इससे व्यंग्य की गुणवत्ता में अत्याधिक प्रभाव बढ़ जाता है और ऐसी रचना के सौन्दर्य में भी वृद्धि होती है। रचना के विषय के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक की चिन्ता किसके पक्ष में है? अगर लेखक वंचितों या शोषितों की चिन्ता छोड़ शोषकों की चिन्ता करेगा तब यह तय है कि आम पाठक भ्रमित हो उससे दूर हो जायेगा और वह लेखक की नैतिकता पर सवाल उठा सकता है। यह लेखक का बहुत बड़ा संकट है। क्योंकि विडम्बनाएँ, विषमताएँ तो सभी वर्गों में होती हैं। यह एक मौलिक और महत्त्वपूर्ण संकट है और यह सीधे तौर पर लेखक की अस्मिता से जुड़ा होता है। अतः यह ज़रूरी है कि व्यंग्यकार अपना मत स्पष्ट रखे और उसमें किसी प्रकार का भ्रम मूलक तत्त्व न हो। इसके साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक किस बात की स्थापना कर रहा है? लेख में उसकी स्थापना ही लेख के स्तर को बनाती है। यदि वह लेख में लिजलिजापन दिखाता है तो पाठक रचना और लेखक से विरक्त हो जायेगा यदि हम किसी बात की स्थापना करते हैं तो उसका आधार तत्त्व मजबूत और स्पष्ट होना चाहिये, इससे रचना की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यह लेखक, रचना और समाज के लिये अच्छा संकेत है।

एक अच्छे व्यंग्य के लिये समकालीन संदर्भ अत्यंत महत्त्व रखता है, क्योंकि सम्पूर्ण व्यंग्य का आधार बिन्दु समकालीन संदर्भ ही होता है। यदि व्यंग्य आज की विद्रूपता, विडम्बना, विषमता, घटनाएँ, चरित्र, प्रकृति, प्रवृत्ति पात्र को विषय बनाता है तो पाठक उससे आसानी से जुड़ जाता है और वह व्यंग्य के सफ़र में हमसफ़र बन जाता है। उसे किसी भी प्रकार का अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता और वह व्यंग्य से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। उसकी सामंजस्यता ही व्यंग्य को समझने में उपयोगी होती है  जो व्यंग्य के प्रभाव का आशातीत विस्तार कर देती है। पाठक व्यंग्य के विषय के इतिहास से अनभिज्ञ है तो रचना में शुष्कता का तत्त्व बढ़ जायेगा और यह भी हो सकता है कि उस रचना से पाठक दूर हो जाये। इसी कारण पूर्व में कहा जाता रहा है कि व्यंग्य शाश्वत नहीं है। उसकी उम्र कम होती है। लेखक को अधिक दूर तक नहीं ले जा पाता। पर यह भी सही है कि कुछ प्रवृत्तियाँ, विडम्बनाएँ, विषमताएँ, भ्रष्टाचारी चरित्र शाश्वत होते हैं, जो हर समय नये-नये रूपों में मिलते हैं। तब हर समय का पाठक सहज ही उससे सामंजस्य बैठा लेता है और वह रचना शाश्वतता को प्राप्त कर जाती है। तब व्यंग्य के लिये यह ज़रूरी हो जाता है कि वह यह चुनाव करे कि समकालीन संदर्भ के साथ-साथ उपरोक्त तत्त्व उसमें निहित हों। व्यंग्य को बारीक़ी स देखा जाये तो यह आसानी से समझ में आ जाता है कि व्यंग्यकार कितना संवेदनशील है। व्यंग्य की संवेदनशीलता ही व्यंग्य के स्वास्थ्य को ठीक रखती है। संवेदना ही व्यंग्य का बीज तत्त्व है। उससे ही रचना का अंकुरण और विस्तार और प्रभाव समझ में आता है। लेखक व्यंग्य के पात्र के प्रति संवेदनहीन, निष्ठुर, कठोर, तीखे तेवर के साथ खड़ा होता है तो रचना पाठ्य तो होगी, पर प्रभावी नहीं। पर अगर उसमें भारतीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति के अनुरूप करुणा के अंश मिला दिये जायें तो व्यंग्य का आकर्षण बढ़ जाता है; क्योंकि भारतीय समाज अनेक विडम्बनाओं, मूल्यों के साथ भी करुणा के पक्ष में स्वभावतः खड़ा दिखता है। यह भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

परसाई, शरद जोशी के यहाँ तो करुणा का संसार विस्तार से फैला पड़ा है। इसी आधार पर रचना स्मृति में देर और दूर तक बनी रहती है। वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रेम जनमेजय की जनसत्ता में प्रकाशित व्यंग्य रचना, ‘बर्फ़ का पानी’, जिसमें अंत करुणा से होता है – जिसने भी यह रचना पढ़ी होगी उसके ज़ेहन में उस रचना ने स्थायी स्थान ज़रूर बनाया लिया होगा। ऐसी रचना गाहे-बगाहे याद आती है तो मन में तरंगे दौड़ जाती हैं। व्यंग्य रचना में शिल्प का अत्यंत महत्त्व होता है। व्यंग्य का शिल्प अलग प्रकार का होता है जिसे कहानी, निबंध या किसी अन्य विधा में रख सकते हैं। व्यंग्य के तेवर अलग होते हैं। इसी बात को लेकर परसाई रचनाओं पर आलोचकों का ध्यान नहीं गया और परसाई जी ने भी इस उपेक्षा का कोई नोटिस नहीं लिया। वे अनवरत रचनारत रहे बिना किसी चिन्ता के। इसके पीछे संभवतः मूल कारण उनका अपना विशिष्ट शिल्प ही था जो आलोचकों के लिये नया संकट लेकर आया था। यह सभी बातें व्यंग्य को पाठक के बीच में विश्वसनीयता पैदा करती हैं। किसी भी चीज़ की शुद्धता बनाये रखने के लिये विश्वसनीयता का विस्तार आवश्यक है। यह रचना और लेखक दोनों के लिये ज़रूरी है। सृजन के समय इस तत्त्व का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है। इसके लिये रचना और रचनाकार का आचरण कैसा है, विचार क्या है महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह सब समाज में ज़रूरी माने जाने वाले मुख्य मुद्दे हैं। इन्हीं के अनुरूप व्यंग्य का विस्तार और विश्वसनीयता को आधार मिलता है।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ के और भी आयाम हैं, जिन पर चर्चा अभी इस आलेख में संभव नहीं है। हमारे पास जो समय है, उस पर यह चर्चा महत्त्वपूर्ण है, मगर इस बात पर भी विचार करना होगा कि व्यंग्य समाज के लिये कितना ज़रूरी है। मेरा ख्याल है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसमें पनप रही नयी-नयी प्रवृत्तियों, विडम्बनाओं, बढ़ती विषमताओं, बदलती सोच और मूल्यों का गिरता ग्राफ़, बेशर्मी का हद तक विस्तार, सामाजिक भय, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद से संचालित आर्थिक तंत्र से लोगों में बढ़ती दूरियाँ, शिक्षा का औघड़पन, स्वार्थ में बदलती मानवीयता, विस्तार पाती संवेदनशून्यता, दरकते पारिवारिक रिश्ते, सामाजिक परिवेश और आचरण को चेलेंज करता आधुनिक युवा वर्ग, तकनीकी विकास से आयी विद्रूपताओं का समझ कर उनसे सचेत करने वाली व्यंग्य ही वह विधा जो इन नकारात्मक प्रवृत्तियों से आगाह कर त्वरित और सार्थक प्रतिक्रिया भी व्यक्त करती है। और कहना ही होगा कि ऐसी प्रतिक्रियाएँ असरदार भी होंगी। इसके मूल में व्यंग्य की संरचना और उसका तीखा तेवर जो सत्ता और समाज को सोचने पर मजबूर कर देता है। मन को विचलित कर देता है।

 

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 67 ☆ संचालन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “संचालन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 67 – संचालन

इतना तीखा और कर्कश स्वर होने के बाद भी उन्हें संचालन का दायित्व दे दिया गया था। हर वाक्य में आँय  का प्रयोग भी अखर रहा था। गूगल पर गोष्ठी थी जिसका यू ट्यूब पर वीडियो देखते हुए मन बार – बार व्यथित होता परन्तु सबकी चर्चाएँ सुननी थी, सो मन मार कर न जाने कितनी बार उससे दूर जाने की सोच कर भी हो न जा पाए। 

जैसे ही एक वक्ता का पाठ पूर्ण होता तो  संचालन का अनचाहा स्वर फिर से हृदय को भेद देता।

क्या करें आजकल डिजिटल माध्यम में गाहे- बगाहे कार्यक्रमों की बरसात हो रही है। संयोजक, आयोजक, प्रायोजक, वक्ता। यदि कुछ नहीं है तो वो श्रोतागण हैं। 

अच्छे कार्यक्रमों को सुनने की चाहत के साथ इसे स्वीकार करना ही होगा ऐसा मैं नहीं कह रही ये तो जाने माने संयोजक ने कहा जैसे गुलाब के साथ कांटे।

काँटे और गुलाब की दोस्ती का इतना सुंदर प्रयोग पहली बार देखा है।

सदैव ऐसा होता है कि पौधे के सारे फूल   तोड़कर  हम  उपयोग में ले लेते हैं पर उसका रक्षक काँटा अकेला रहकर  तब तक इंतजार करता है जब तक कली पुष्प बनकर पुष्पित और पल्लवित न  होने लगे किन्तु फिर वही चक्र चलने लगता है पुष्प रूपवान बन जग की शोभा बढ़ाने हेतु डाल से अलग हो जाता है,  शूल पुनः अकेला  यही सोचता रह जाता है कि आखिर उसकी भूल क्या थी …….।

बहुत हुआ तो खेतों की बाड़ी  या राह रोकने हेतु इसका प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु  उसमें  भी  लोग  नाक  भौं  सिकोड़ते हुए  बचकर निकल जाते हैं,  साथ ही अन्य लोगों को भी सचेत करते हैं अरे भई काँटे  हैं इनसे दूर रहना। खैर ये तो डिजिटल संचालक हैं सो पसंद न आने पर आगे बढ़ जाने की पूरी छूट का फायदा यहाँ से उठा ही लेते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘लेंब्रेटा का लफड़ा)  

☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सपने में आज वो पुराना लेंब्रेटा स्कूटर क्यों आया, समझ न आया, सपने में आया तो आया पर ये क्या है कि दिन भर हर बात में याद आया।  हालांकि अपने जमाने में लेंब्रेटा स्कूटर के जलवे थे। कितनी सारी फिल्मों में हीरो हीरोइन गीत गाते लहराते,आंख मिलाते निकल जाते थे। कल्लू की शादी प्रदर्शनी की फोटो की दुकान में रखी पुराने लेंब्रेटा के ऊपर बैठकर उतरवायी फोटो को देखकर ही हो पाई थी। ऊंचे लोगों के लिए लेंब्रेटा बढ़िया ‌ स्कूटर थी, छकौड़ी बताता था कि लेंब्रेटा के कारण अभिताभ हीरो बन पाये थे। इस तरह लेंब्रेटा दिन भर कोई बहाने दिमाग में बैठी रही। पुराने लेंब्रेटा स्कूटर ने दिन भर इतना तंगाया कि मित्र को फोन करना ही पड़ा।  मित्र को वो टूटी फूटी बेकार सी लेंब्रेटा स्कूटर दहेज में मिली थी। तीस साल से वे धो -पोंछ कर उस स्कूटर को चकाचक रखते थे, ऊपर से चमकती थी अंदर से टीबी पीड़ित थी, हर बार स्टार्ट करने में दो बाल्टी पसीना बहा देती थी, कभी कभार स्टार्ट होती थी तो गन्नाके भगती थी, कभी कभी मित्र मेरे को भी पीछे बैठाकर घुमा देते थे, पर उस समय ये बात समझ नहीं आयी कि मित्र की पत्नी के बैठते ही वो अंगद का पांव बन जाती थी। मित्र की पत्नी जीवन भर उसमें बैठकर घूमने के लिए तरसती रही, पर जब वो बैठतीं तुंरत बंद हो जाती।  लाख कोशिशों के बाद भी स्टार्ट न होती। ये बात अलग है कि उसके घर में घुसते ही एक बार चिढ़ाने के लिए स्टार्ट होती फिर फुस्स हो जाती। उस पुरानी लेंब्रेटा ने पति-पत्नी के खूब झगड़े कराये, उसके कारण पति को कई दिन भूखे रहना पड़ता था।

अंत में हारकर मित्र ने औने-पौने दाम में कबाड़ के भाव एक कबाड़ी को बेच दिया था। हमने सोचा कि वो लेंब्रेटा में हम कभी कभी बैठ लेते थे इसलिए प्रेमवश सपने में धोखे से आ गयी हो,मन नहीं माना तो  मित्र को फोन लगाया।  वहां से आवाज आई, मित्र अभी पत्नी से लड़ाई चल रही है, उसने दहेज में दिये लेंब्रेटा स्कूटर को मुख्य मुद्दा बना लिया है और उसी लेंब्रेटा स्कूटर की वापसी की मांग कर रही है।अब आप बताओ कि कि इतने साल पहले कबाड़ के भाव लेकर कबाड़ी क्या उसे वापस करेगा। कबाड़ी कौन था, कहां से आया था,ये भी तो याद नहीं…… मित्र पूछ रहा है कि आप बताएं कि इस समस्या का समाधान कैसे होगा ?

हम सबके ऊपर छोड़ रहें हैं कुछ बढ़िया सा लिखकर बताएं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #103 ☆ व्यंग्य – बड़े साहब, छोटे साहब….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘बड़े साहब, छोटे साहब…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 103 ☆

व्यंग्य –  बड़े साहब, छोटे साहब

बड़े साहब अपने कमरे में चीख रहे थे और उनकी चीखें कमरे को पार करके पूरे दफ्तर में गूँज रही थीं। सुनकर दूसरे साहब लोग एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्करा रहे थे और बाबू लोग फाइल में नज़र गड़ाये मुस्कान दबा रहे थे।

बात यह थी कि एक नासमझ आदमी अपने काम को लेकर साहब के कमरे में घुस गया था और उसने दफ्तर की परंपरा के अनुसार नोटों का एक बंडल साहब की सेवा में प्रस्तुत कर दिया था। साहब इसी बात पर भड़क कर चीख रहे थे। कह रहे थे, ‘मुझे रिश्वत देता है? मुझे भ्रष्ट समझता है? अभी पुलिस को बुलाता हूँ। जेल में सड़ जाएगा। मुझे समझता क्या है?’

आदमी पसीना पोंछता हुआ बाहर निकला। उसे शायद अपना कसूर समझ नहीं आ रहा था। पसीना पोंछते वह बाहर के दरवाजे की तरफ बढ़ गया। तभी छोटे साहब के कमरे से निकलकर चपरासी उसकी तरफ लपका। पास जाकर आदमी से मीठे स्वर में बोला, ‘परेशान मत होइए। सब ठीक हो जाएगा। आपको छोटे साहब बुलाते हैं।’
छोटे साहब ने आदमी को प्रेमपूर्वक कुर्सी पर बैठाया। चपरासी ने ठंडा पानी पेश किया। छोटे साहब बोले, ‘शान्त हो जाइए। आराम से बैठिए। हम तो बड़े साहब का बिहेवियर देखकर बहुत दुखी हैं।जनता के साथ यह कैसा बिहेवियर है? जनता बड़ी उम्मीद लेकर आती है, उसकी उम्मीद पर पानी नहीं फेरना चाहिए। आपने कुछ पैसे- वैसे का ऑफर दे दिया तो भड़कने की कौन सी बात है? उनको नहीं चाहिए तो भलमनसाहत से मना कर देना चाहिए। इसमें चिल्लाने की क्या जरूरत है?’

छोटे साहब आगे बोले, ‘यह साहब अभी पन्द्रह दिन पहले ही आये हैं, इसीलिए आप धोखा खा गये। साहब अपने को ईमानदार समझते हैं। इसी ईमानदारी के चक्कर में तीस साल की नौकरी में पैंतीस ट्रांसफर झेल चुके हैं। शटलकॉक बने हुए हैं। यहां भी छः महीने से ज्यादा नहीं टिकेंगे। हम कब तक ऐसे अफसर को झेलेंगे? पूरे दफ्तर का वातावरण बिगड़ जाता है। वर्क कल्चर पर असर पड़ता है।’

साहब थोड़ा रुककर फिर बोले, ‘वो हरयाना में एक आईएएस खेमका जी हैं। उनके भी चौबीस साल की सर्विस में इक्यावन ट्रांसफर हो चुके हैं, यानी एक जगह औसतन छः महीने भी नहीं टिक पाये। हर सरकार उनसे छड़कती है। उन्हें भी ईमानदारी की बीमारी है। हमारे साहब को उन्हीं का भाई समझो। यह लोग अपने को राजा हरिश्चंद्र समझते हैं। अब राजा हरिश्चंद्र बनोगे तो राजा हरिश्चंद्र की तरह फजीहत भी भोगोगे।’

साहब फिर बोले, ‘ऐसे ही लोगों के लिए गोस्वामी जी ने लिखा है— सकल पदारथ हैं जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं। इनके सामने मौके ही मौके हैं, लेकिन इनके हाथ खाली के खाली हैं। मुट्ठी बाँधे आये थे और हाथ पसारे चले जाएँगे। बाल-बच्चे कोसेंगे कि इतने बड़े पद पर रहते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं किया। नाते- रिश्तेदार भी भकुरे रहते हैं क्योंकि उनका कुछ भला नहीं होता। दफ्तर वाले दिन गिनते रहते हैं कि कब उनका ट्रांसफर या रिटायरमेंट हो। अब बताइए, ऐसी ईमानदारी से क्या फायदा?’
साहब आगे बोले, ‘भैया, आईएएस, आईपीएस का पद बड़े भाग्य से मिलता है। इसे ईमानदारी के चक्कर में ‘वेस्ट’ नहीं कर देना चाहिए। अपना उसूल है सेवा करो और मेवा खाओ। अपने देश की धरती रत्नगर्भा है। यहां रत्न भरे पड़े हैं, लेकिन रत्नों को पाने के लिए जमीन को खुरचना पड़ता है। सही ढंग से खुरचोगे तो झोली हमेशा भरी रहेगी।’
अन्त में साहब बोले, ‘आप निश्चिंत होकर जाइए। आपका काम कराने की गारंटी मैं लेता हूँ। जो नोट आप बड़े साहब को दे रहे थे वे इस तरफ सरका दें। हम दस बीस कागजों के बीच आपका कागज रखकर बड़े साहब के दस्तखत करा लेंगे। उन्हें भनक भी नहीं लगेगी। हमारा चपरासी इस काम में एक्सपर्ट है। और जो खर्चा लगेगा, आपको बता देंगे। पैसे का ज्यादा मोह मत रखिएगा। पैसे को हाथ का मैल समझिए। त्याग की भावना हो तो कोई काम रुकता नहीं। इस बात को सब लोग समझ लें तो कोई दिक्कत न हो। आप अब यहाँ मत आइएगा, आर्डर आपके घर पहुँच जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ बड़ा साहित्यकार ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ व्यंग्य ☆ बड़ा साहित्यकार ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

कल श्री घोंघा प्रसाद “कालपुरी” जी का फोन आया . बोले – घर पर गोष्ठी है . मैंने अभिवादन किया मगर गोष्ठी की बात पर कुछ नहीं कहा . मेरी उदासीनता ने उन्हें गोष्ठी के बारे में कुछ अधिक बताने को प्रेरित किया . वे गला ठीक करते हुए बोले-  सभी बड़े साहित्यकार गोष्ठी में आ रहे हैं . गोष्ठी का आयोजन अमुक के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में रखा गया है l आप आएँगीं तो अच्छा होगा . मैं सोचने लगी इस शहर में बड़े साहित्यकार कौन हैं? व्यक्तिगत मेल- मिलाप में  तो कालपुरी जी सभी को छोटा बता चुके हैं – फलां की भाषा क्लिष्ट है, अमुक की व्याकरण ठीक नहीं या इनको तो सिवाय लफ्फाजी के कुछ सूझता नहीं . फिर ये बड़े साहित्य कार  हैं कौन  !  मुझे संकोच हुआ- इतने बड़े साहित्यकारों के सामने मैं क्या मुँह खोलूँगी भला  !

     मैं नियत दिन व समय पर गोष्ठी में सम्मिलित होने घर से निकली लेकिन जाम में फंसने के कारण विलम्ब से पहुंची. मैंने देखा काव्य पाठ चल रहा है. अभिवादन करके बैठ गई. मेरा नाम बाद में था, जान कर सुकून मिला. मेरी आँखें वहाँ बड़े साहित्यकार को तलाश रहीं थी. सभी पहचाने चेहरे थे.

गोष्ठी शबाब पर पहुँचने के साथ ही वाह वाही जोर पकड़ती जा रही थी. मेरा मन खोज में ही लगा था. निदान होते न देख मैंने पूछ ही लिया , “आप में से बड़े साहित्यकार कौन हैं  ?”  कहते हुए मेरी नजर जिन पर टिकी थी वे तनिक लजा गए और बोले-   मैं तो छोटा सा कलम का सिपाही हूँ.

  मेरी नज़र दूसरे पर शिफ्ट हो गई. वे बोले-  जी मैं तो वाणी का मामूली सा साधक हूँ.

तीसरे- मैं तो बस थोड़ा बहुत ही…आप सबके आशीर्वाद से… हें हें हें.

इसी प्रकार सभी ने अपने आप को छोटा बताया. मैं हैरान. जब सभी छोटे हैं तो बड़ा साहित्यकार कौन है! मेरी हालत भांप कर कालपुरी जी खड़े हुए और अपने ठीक सामने विराजित कवि से बोले-  जब कोई पूछे कि बड़ा साहित्य कार कौन है तो आपको अपने बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए. आपको अपने बगल में बैठे साहित्यकार को बड़ा बताना चाहिए, भले ही आपका मन साथ न दे. बदले में वह भी आपको बड़ा बताएगा. साहित्यकार इसी तरह बड़ा बनता है. मेरा नादान मन प्रफुल्लित हो उठा.  मैं तत्काल समझ गई बड़ा साहित्यकार कौन होता है. जैसा मेरी शंका का समाधान हुआ, ठाकुर जी करें, सबका हो.

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

मऊचुंगी टीकमगढ़ म प्र

मो-  7879474230

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 66 ☆ नजरअंदाज ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “नजरअंदाज”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 66 – नजरअंदाज

अंदाज अपने- अपने हो सकते हैं। पर नज़र आने के बाद भी जिसे अनदेखा किया जाए उसे क्या कहेंगे ? खैर ये तो आम बात है, जब भी किसी को अपने से दूर करना हो तो सबसे पहले उसे उपेक्षित किया जाता है उसके बाद धीरे- धीरे इसकी मात्रा बढ़ने लगती है। अगला चरण गुटबाजी का होता है, फिर बिना बताए कहीं भी चल देना। हमेशा ये अहसास दिलाना कि तुम अनुपयोगी हो। शब्दों के तीर तो आखिरी अस्त्र होते हैं जो व्यक्ति अंतिम चरण में ब्रह्मास्त्र की तरह प्रयोग करता है। इसका असर दूरगामी होता है। शायद इसे ही जवान फिसलना कहते हैं।

किसी भी रिश्तों से चाहें वो कार्यालयीन हो, व्यक्तिगत हो, या कोई अन्य हो। हर से व्यक्ति बहुत जल्द ऊब जाता है। नवीनता न होना, निरंतर स्वयं को इम्प्रूव न करना, ठहरे हुए जल की भाँति होना या केवल नीरसता का जामा ओढ़े, नदी की तरह लगातार चलते हुए सागर में समाहित होकर अपना अस्तित्व खो देना। 

ऐसा हमेशा से होता चला आ रहा है। कोई किसी को उपेक्षित क्यों करता है, इसके क्या कारण हो सकते हैं। ऐसे में दोनों पक्षों को क्या करना चाहिए। कैसे स्वयं को फिट रखकर श्रेष्ठ व उत्तम बनें इस ओर चिंतन बहुत जरूरी होता है। क्या कारण है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी कोई प्रतिरोध नहीं करता। एक लगातार मनमानी करता हो दूसरा अच्छाई की राह पर चलते हुए हमेशा सत्य व सहजता से जी रहा हो ये भी एक बिंदु है कि सत्य ही जीतेगा। जिसे नजरअंदाज किया जाता है,वो आत्मनिर्भर बनने लगता है। वो अपनी छुपी प्रतिभा को निखारता है। स्वयं के ऊपर कार्य करता है। यदि व्यक्ति लगनशील हुआ तो सफल होकर दिखाता है।

वहीं कमजोर विचार वाले लोग हताश होकर दूसरों पर दोषारोपण करते हैं। या तो अपनी राह बदल लेते हैं या अवसाद के शिकार होते हैं।

नजरअंदाज करने की शुरुआत से ही हटाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ऐसी चीजें जो किसी के  सम्मान को ठेस पहुँचाती हो वो करना शुरू कर दें, अपने आप दूरी बनने लगेगी। इसी बात से एक किस्सा याद आता है कि एक महिला हमेशा तीन राखी भेजती एक उसकी दो उसकी लड़कियों की, भाई और भतीजे के लिए। भाभी उसे पसंद नहीं थी सो नजरअंदाज करने के लिए उसने यही तरीका ज्यादा उचित समझा। तीन तिकड़ा अपशकुन होता है या नहीं ये तो पता नहीं किन्तु उसकी भाभी के मन को आहत जरूर करता जाता रहा है।

ऐसे ही बहुत से दृष्टांत हमारे आसपास रोज घटित होते हैं जिन्हें नजरअंदाज करना ही पड़ता है। जब तक बात खुलकर सामने नहीं आती तब तक लोग अपना कार्य इसी तरह चलाते रहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 111 ☆ दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन…. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य  दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 111 ☆

? दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन  ?

प्रोफेसर दार्शनिक,चिंतक,विचारक,हिन्दी के ज्ञाता,दर्शन शास्त्र के विद्वान हैं. कोरोना जनित लम्बे लाकडाउन में सपरिवार अपने ही घर में स्वयं की ही नजरबंदी से तंग बच्चों के अनलाक प्रस्ताव को स्वीकार कर वे शहर के बाहरी छोर पर बने चिडियाघर के भ्रमण हेतु आये हुये थे. प्रवेश की टिकिट कटवाते हुये वे सोच रहे थे कि जब यहाँ विभिन्न प्रजातियों के अनेकानेक जानवर हैं तो इसे चिडियाघर ही क्यों कहा जाता है, उन्हें “जू” ज्यादा तर्क संगत लग रहा था. वे जू के लिये चिड़ियाघर से बेहतर हिन्दी समानार्थी शब्द ढ़ूढ़ने के विषय में चिंतन करते भीतर जा पहुंचे.

पहला ही कटघरा मोरों का था, कुछ मोर पंख फैलाकर जैसे उनका स्वागत कर रहे थे. चेहरे पर लगे मास्क भी बच्चो की प्रसन्नता ढ़ंक नही पा रहे थे. दार्शनिक जी ने श्रीमती जी से कहा, जानती हैं यह जो मोर अपने सुंदर पंखो को फैलाकर हमारा स्वागत कर रहा है, यह नर मोर है, और वह मोरनी है जो बदसूरत सी दुमकटी दिखती है. मतलब मोर हमेशा से मोरनी को रिझाने में लगा रहा है. वे साठ डिग्री के कोण में पत्नी की ओर झुकते हुये मुस्करा पड़े.भगवान कृष्ण ने मोर पंख को अपने मुकुट पर धारण कर संभवतः नारी के प्रति इसी सम्मान को प्रतिपादित करना चाहा रहा होगा. नारी विमर्श की इस आध्यात्मिक, दार्शनिक अभिव्यक्ति पर उनकी पत्नी ने भी प्रत्युत्तर में भीनी सी मुस्कराहट के साथ उनका लटकता हुआ मास्क ठीक कर दिया.उन्हें “जंगल में मोर नाचा किसने देखा”, वाले मुहावरे की याद आई, वे खुश थे कि यहां नाचते हुये मोरों के साथ सेल्फी लेने वाले कई लोग थे.

अगले ही दड़बे में लाल आखों वाले प्यारे से कई सफेद खरगोश बंद थे. दार्शनिक जी को कछुये और खरगोश की नीति कथा की याद आ गई. उस कथा में तो खरगोश अपने आलस्य व अति आत्मविश्वास के कारण कछुये की लगन और निरंतरता के सामने हार गया था, पर आज तो खरगोश जैसे जानबूझ कर पीछे बने रहना चाहते हैं. पिछड़े बने रहने के आज अनेकानेक लाभ दिखते हैं, आरक्षण मिलता है. पिछड़ो का विकास सरकार की जबाबदारी लगती है. पिछड़ेपन की दौड़ में आगे आने के लिये अपनी समूची जाति को ही पिछड़ा घोषित करवाने के लिये कुछ समुदाय आंदोलन करते हैं.

दार्शनिक जी के मन में चल रही उहापोह से अनभिज्ञ बच्चे खुशी से खिलखिलाते आगे बढ़ गये थे. वे जिस कांच से घिरे कटघरे के चारों ओर खड़े थे उसमें अनेक प्रजातियो के सांप दिख रहे थे. दार्शनिक जी को एक साथ ही कई मुहावरे याद हो आये. अजगर को देख वे सोचने लगे ” अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम दास मलूका कह गये सबके दाता राम. “संत मलूकदास के नास्तिक से रामभक्त बनने की कहानी उन्हें स्मरण हो आई. वे अनायास हुये लाकडाउन से उपजी घटनायें याद कर सोचने लगे कि जरूरत मंदो के लिये श्री राम कभी सोनू सूद बनकर आते हैं, कभी सरकारी अधिकारी बनकर. कितना अच्छा हो कि हम सब अपने भीतर छिपे, छोटे या बड़े सोनू सूद को थोड़ा सा पनपने के अवसर देते रहें. कभी किसी की आस्तीन के सांप न बने. और न ही किसी आफिस में कोई किसी फाईल पर कुंडली मारकर बैठ जाये. दूसरों की उन्नति देखकर कभी किसी की छाती पर सांप न लोटे, तो दुनियां कितनी बेहतर हो.

पास ही जाली के घेरे में ऊंची ऊंची घास के मैदान में कई नील गायें चर रहीं थीं. बेटे ने पूछा पापा नीलगाय दूध नहीं देतीं क्या, श्रीमती जी ने जबाब दिया नहीं बेटा, इसीलिये ये इंसानो के लिये जानवरो की एक प्रजाति मात्र हैं,कभी जभी इनका इस्तेमाल पर्यावरण वादी एक्टिविस्ट पशु अधिकारो के प्रति चेतना जगाने के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने के लिये कर लेते हैं. वैसे इंसान को दुधारू गाय की दुलत्तियां भी बुरी नहीं लगतीं. सफेद मोजे से पहने दिखते वन भैंसों का एक झुण्ड भी पास ही घास चरते हुये दिख रहा था, उन्हें इंगित करते हुये दार्शनिक जी ने बच्चो को बतलाया कि ये बायसन हैं, शेर से भी अधिक बलशाली. ये शाकाहार की शक्ति के प्रतीक हैं. उन्होने बच्चो का ज्ञानवर्धन किया कि घास की रोटियां खाकर भी महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को लोहे के चने चबवा दिये थे. शाकाहार की बात से दार्शनिक जी को मन ही मन सड़को पर बेखौफ घूमते शाकाहारी सांड़ो के चित्र दिखने लगे. वे समाज के भांति भांति के साड़ों के विषय में चिंतन मग्न हो गये, इंसानी शक्ल में ये सांड़ उन्हें अलग अलग झंडो तले मनमर्जी की करते दिखे.

मैदान में पानी के एक छोटे से कुंड के पास ध्यान लगाये एक सफेद बगुला बैठा दिख रहा था. दार्शनिक जी को सचिवालय की कैंटीन याद हो आई, जहां जब कभी वे चाय पीने जाते उन्हें बगुले नुमा सफेद पोश दलाल मिल ही जाते, जो मछली नुमा आम आदमियो को अपनी गिरफ्त में लेने के लिये ऐसे ही घात लगाये बेवजह से बैठे दिख जाते हैं.

बड़ें बड़े कांच के एक्वेरियम में मगरमच्छ, घड़ियाल,कछुये, और तरह तरह की रंग बिरंगी मछलियों की अलग ही वीथीका थी. यहां टहलते हुये दार्शनिक जी का दर्शन यह था कि एक मछली भी पूरे तालाब को गंदा कर सकती है. आज तो हर नेता आम आदमी की चिंता में घड़ियाली आंसू रोता ही मिलता है. किसी भी तरह सब अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में जुटे हैं. राजनीति की में हर शाख पे उल्लू बैठे दिखते हैं, ऐसे में अंजामें गुलिस्तां की चिंता हर नागरिक के लिये बहुत जरूरी हो गई है.

चलते चलते बच्चे थकने लगे थे, श्रीमती दार्शनिक ने पेट पूजा का प्रस्ताव रखा जिसे सबने एक मत से उसी तरह स्वीकार कर लिया जैसे सांसद बिना पक्ष विपक्ष के भेदभाव, स्वयं की वेतन वृद्धि के प्रस्ताव को बिना बहस, मेजें थपथपाकर अंगीकार कर लेते हैं. पराठे, सब्जी के साथ अचार खाते हुये दार्शनिक जी विचार कर रहे थे. वे जो सरकारी अनुदान के रुपये खा जाते हैं, बड़ी बड़ी योजनायें डकार जाते हैं, चारा तक नहीं छोड़ते वे भी आखिर भूख लगने पर खाना ही तो खाते हैं. अपने खयाली पुलाव में दार्शनिक जी इंसानी हवस का कारण तलाश रहे थे, पर उन्हें वह इंसानी वजूद में ही केसर के रंग सी पैबस्त समझ आती है.

चिड़ियाघर की चिड़ियों की वीथीका घूमनी शेष थी, तो भोजनोपरांत वे उस दिशा में बढ़ चले. चलते चलते उन्होने बिटिया से पूछा “घर की मुर्गी दाल बराबर” का क्या अर्थ होता है. जेंडर इक्वेलिटी की घनघोर प्रवर्तक बेटी ने उनसे ही प्रतिप्रश्न कर दिया क्यों ! घर का मुर्गा दाल बराबर क्यों नहीं ? बहस में न पड़ वे चुपचाप जालीदार पिंजड़े नुमा बड़े से घेरे में बन्द विदेशी तोतों को देखने लगे. रंग बिरंगी तरह तरह की छोटी बड़ी आकर्षक चिड़ियों के कलरव में बच्चो का मन रम गया,पर उनकी चहचहाहट के स्वर को समझते हुये वे पत्नी को उन्मुक्त गगन में विचरण करते पंछियों की आजादी की कीमत समझाने लगे.

लौटते हुये जब वे कार तक पहुंचे तो दार्शनिक जी की नजर एक भागते हुये गिरगिटान पर पड़ी. एक छोटा सा छिपकली नुमा जीव जो वक्त जरुरत, अपने परिवेश के अनुरूप अपना रंग बदल लेता है. वे खुद बखुद ठठा कर हंस पड़े.पत्नी ने आश्चर्य से उन्हें देखा. वे कहने लगे सारी दुनियां ही तो एक चिड़ियाघर है. हर शख्स समय के अनुसार अपना रंग ही नही, रूप भी बदल लेता है. जो इस कला में जितना दक्ष है, वह समाज में उतना सफल समझा जाता है. पीछे की सीट पर बैठी बेटी मोबाईल पर फ्लैश खबर बता रही थी कि कोरोना वायरस नये नये स्ट्रेन बदल बदल कर फैल रहा है. दार्शनिक जी बैक व्यू मिरर में खुद का चेहरा देख उसे पढ़ने का यत्न कर रहे थे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #102 ☆ व्यंग्य – जाति पाति पूछै नहिं….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘जाति पाति पूछै नहिं…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 102 ☆

☆ व्यंग्य – जाति पाति पूछै नहिं…..

बाज़ार में अफरातफरी थी। हिम्मतलाल एण्ड संस के प्रतिष्ठान पर टैक्स वालों का छापा पड़ा था। कौन से टैक्स वाले थे यह ठीक से पता नहीं चला। दल के पाँच छः कर्मचारी दूकान के खातों को खंगालने और माल को उलटने पलटने में लगे थे और उनके इंस्पेक्टर साहब गंभीर मुदा बनाये कुर्सी पर जमे थे। प्रतिष्ठान के मालिक हिम्मतलाल हड़बड़ाये इधर उधर घूम रहे थे। बीच बीच में दूकान के दरवाज़े पर आकर लम्बी साँस खींचते थे जैसे मछली पानी की सतह पर आकर ऑक्सीजन लेती है, फिर वापस दूकान में घुस जाते थे। उन्होंने उम्मीद की थी कि आसपास की दूकानों वाले उनसे हमदर्दी दिखाने आयेंगे, लेकिन सब तरफ सन्नाटा था। लगता था सबको अपनी अपनी पड़ी थी, कि अगला नंबर किसका होगा?

थोड़ी देर में हिम्मतलाल जी के निर्देश पर दो लड़के नाश्ते का सामान टेबिल पर सजा गये। हिम्मतलाल इंस्पेक्टर साहब से विनम्रता से बोले, ‘थोड़ा मुँह जुठार लिया जाए। इस बाजार के समोसे पूरे शहर में मशहूर हैं। सबेरे से लाइन लगती है।’

इंस्पेक्टर साहब भारी, मनहूस मुद्रा से बोले, ‘हम नाश्ता करके आये हैं। हमें अपना काम करने दीजिए। डिस्टर्ब मत कीजिए।’

हिम्मतलाल सिकुड़ गये। समझ गये कि आदमी टेढ़ा है,मामला आसानी से नहीं निपटेगा।

हिम्मतलाल बीच बीच में शुभचिन्तकों को फोन कर रहे थे, शायद कहीं से कोई मदद मिल जाए। एक फोन सुनते सुनते उनके चेहरे पर प्रसन्नता का भाव आ गया। बात करने वाले से खुश होकर बोले, ‘वाह,यह बढ़िया जानकारी दी। हमें मालूम नहीं था। थैंक यू।’

हिम्मतलाल इंस्पेक्टर के सामने पहुँचे और ताली मारकर हँसते हँसते दुहरे हो गये। इंस्पेक्टर साहब ताज्जुब से उनकी तरफ देखने लगे। हिम्मतलाल हँसी रोककर बोले, ‘लीजिए, हमें पता ही नहीं था कि आप हमारी बिरादरी के हैं। अभी अभी पता चला तो हमें बहुत खुशी हुई। अपनी बिरादरी का आदमी बड़ी पोस्ट पर बैठे तो पूरी बिरादरी का सर ऊँचा हो जाता है। हम अपनी बिरादरी की तरफ से आपका सम्मान करेंगे।’

इंस्पेक्टर साहब का चेहरा थोड़ा ढीला हुआ और फिर पहले जैसा भावशून्य हो गया। बुदबुदा कर बोले, ‘ठीक है। हम यहाँ बिरादरी और रिश्तेदारी ढूँढ़ने नहीं आये हैं। आपके खातों में बहुत गड़बड़ी निकल रही है। हमें अपना काम करने दीजिए।’

हिम्मतलाल का मुँह उतर गया। समझ गये कि मुसीबत इतनी आसानी  से नहीं टलेगी। मायूस से एक तरफ बैठ गये। थोड़ी देर में उठे, अलमारी से कुछ नोट गिन कर खीसे में रखे और जाँच में लगे एक कर्मचारी के पास पहुँचे जो बार बार काम रोककर रहस्यमय ढंग से उनकी तरफ देख रहा था। खीसे से नोट निकालकर बोले, ‘भैया, ये हमारी तरफ से साहब तक पहुँचा दो। उनका चेहरा देख कर हमारी तो हिम्मत नहीं पड़ रही है।’

कर्मचारी ने धीरे से पूछा, ‘कितने हैं?’

हिम्मतलाल बोले, ‘दस हैं, दस हजार।’

कर्मचारी मुँह बनाकर बोला, ‘इतने तो अकेले साहब को लग जाएंगे। फिर हम लोगों का क्या होगा?साहब दस से कम को उठा कर फेंक देते हैं। राजा तबियत के आदमी हैं।’

सुनकर हिम्मतलाल का चेहरा लटक गया। पूछा, ‘तो कितना कर दें?’

जवाब मिला, ‘बीस और कर दीजिए। इससे कम में काम नहीं होगा।’

हिम्मतलाल ने माँगी गयी रकम अर्पित की और फिर निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गये।

कर्मचारी ने इंस्पेक्टर साहब को कुछ इशारा किया और तत्काल साहब का रुख बदल गया। वे कुर्सी पर पाँव फैलाकर,ढीले होकर बैठ गये और उनके मुख पर दिव्य मुस्कान खेलने लगी। वे एकदम खुशदिल, मानवीय और कृपालु दिखने लगे।

एकाएक उन्होंने हिम्मतलाल को आवाज़ लगायी, ‘हिम्मतलाल जी, आपने नाश्ता मँगवाया था?कहाँ है?कुछ भूख लग रही है।’

हिम्मतलाल जैसे सोते से जागे। तुरन्त नाश्ता पेश किया।

नाश्ता करके साहब प्रेमपूर्ण स्वर में हिम्मतलाल से बोले, ‘आप कुछ बिरादरी की बात कर रहे थे। आप हमारी बिरादरी के हैं क्या?’

हिम्मतलाल उखड़े उखड़े से बोले, ‘हाँ सर, मेरे एक जान पहचान वाले ने बताया था। उसके बारे में कभी आपके पास आकर बात करूँगा। अभी तबियत कुछ गड़बड़ लग रही है। आपकी जाँच पूरी हो गयी हो तो घर जाकर आराम करूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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