हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 1 ☆ डिझाईनर टोंटियों के दौर में ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

श्री शांतिलाल जैन जी  ने हमारे आग्रह पर ई- अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  लिखना स्वीकार किया है जिसके लिए हम  आपके ह्रदय से आभारी हैं।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है उनका एक सार्थक व्यंग्य “डिझाईनर टोंटियों के दौर में ।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #1 ☆

☆ डिझाईनर टोंटियों के दौर में

एक विनम्र सलाह है श्रीमान, जब कभी किसी नये बाथरूम में जाना पड़े तो टोंटियों के साथ थोडा संभलकर बर्ताव कीजियेगा. एक छोटी सी भूल आपका करियर बर्बाद कर सकती है. उस दिन, एक बड़े होटल के कन्वेन्शन सेन्टर में ऑफिस की एक इम्पोर्टेन्ट मीटिंग  में चल रही थी.  बाथरूम जाना पड़ा.  हाथ धोने के लिये नल चलाया तो सर के ऊपर फव्वारा चल पड़ा. बंद करने के लिये नॉब दबाया तो साईड का मिस्टिक शॉवर चल पड़ा. तेजी से बंद करने की कोशिश में फव्वारा एक ओर से बंद होता तो दूसरी ओर खुल जाता. जो नॉब लेफ्ट में खुलती वो राईट में पानी फेंकती. जो राईट में खुलती वो सेंटर भिगो देती. आड़े, तिरछे, गोल, ऊपर, सामने से लहराते से फव्वारे को जब तक अपन पूरी तरह बंद कर पाते तब तक देर हो चुकी थी. अपन की जगह किसी हिंदी सिनेमा की नायिका होती तो जबरदस्त हिट सीन होता. अपन की फिलिम तो पिट चुकी थी. नेपथ्य से सुनायी दिया – भीगे कपड़े मीटिंग अटेंड करने नहीं देंगे और एमडी साब तुम्हें घर जाने नहीं देंगे शांतिबाबू. मुगलेआज़म की सलीम अनारकली टाईप मामला था. बहरहाल, मौका मुआईना कर बॉस ने ऐसी जगह ट्रान्सफर करने का मन बना लिया जहाँ डिब्बा लेकर दिशा मैदान जाना पड़ेगा और बाल्टी से पानी खेंच के कुएं की पाल पर नहाना पड़ेगा. नो टोंटी नो झंझट. उनका अभिमत स्पष्ट था, जो आदमी पानी की टोंटी सही से नहीं खोल सकता हो वो कम्पनी के परफोर्मेंस की टोंटी क्या खोल पायेगा.

ये खूबसूरत, आकर्षक, डिझाईनर मगर उलझनभरी टोंटियों का दौर है श्रीमान. टोंटियों के नये निज़ाम में जरूरत न केवल सही टोंटी पहचानने की है बल्कि उसे किस दिशा में खोलना है यह जानना भी जरूरी है. अपन तो अक्सर लेफ्ट में खोलकर खौलते पानी में हाथ जला बैठते हैं, अनुकूल पानी तो इन दिनों राईट साईड में बह रहा है. कैसे खोलना है – ये भी लाख टके सवाल का है. कभी अपन नॉब पुश करते हैं, कभी ऊपर करके देखते हैं, कभी लिफ्ट करके साईड में घुमाकर ट्राय करते हैं तो कभी टोंटी के अगले हिस्से को घुमाकर देखते हैं. तरह तरह के जतन करना पड़ते हैं तब जाकर खुल पाती है टोंटी. कभी कभी तो समझ ही नहीं पड़ता कि बाथरूम की दीवार में जो ठुकी है वो टोंटी है कि खूंटी. भूत सूनी हवेलियों में ही नहीं रहा करते हैं, नलों में भी रहते हैं. हाथ टोंटी के नीचे ले जाते हैं तो पानी चालू हो जाता,  हटाओ तो बंद. फिर चालू फिर बंद. टोंटी नहीं हुई पहेली हो गई श्रीमान. एअरपोर्ट के वाटरकूलर की टोंटी तो ऐसी उजबक् कि पानी पीने के लिये आपको गर्दन ऊँट से उधार लेनी पड़े. नल जहां से मुड़ता है वहां न मुंडी फंसा पाते हैं न अंजुरी ठीक से भर पाती है. टोंटी खुलेगी कहाँ से – जानने के लिये कूलर की परकम्मा करनी पड़ती है.

अपन तो जिंदगी में सही टोंटी पहली बार में कभी खोल ही नहीं पाये. हमारे दफ्तर में हैं कुछ सफल सहकर्मी. वे सही टोंटी पहचानते है, उसे किस दिशा में, कैसे और कितना खोलना है यह भी जानते हैं. जितने वे टोंटी खोलने की कला में पारंगत हैं उतने ही बंद करने में निपुण हैं. कौनसी टोंटी कब और कहाँ से बंद करना है, उनसे सीखे कोई.  वे जो टोंटी खोलते हैं उसमें से माल ही माल टपकता है. वे गीले नहीं होते, गच्च होते हैं. कभी कभी वे अपनी बचाने के फेर में दूसरों की टोंटी उखाड़ फैंकते है.  साले राजनीति में होते तो मोटी धार की टोंटियों से खेल कर रहे होते. जब तक खेलते तब तक खेलते, फिर   उखाड़ कर ले जाते.

बहरहाल, किस्से की नैतिक शिक्षा ये श्रीमान कि टोंटियों के साथ थोडा संभलकर बर्ताव कीजियेगा वरना वे ऐसा बर्ताव करेंगी कि आप न सूखे रह पायेंगे न सुखी.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 48 ☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा’।  मल्लूभाई जैसे बहुत सारे चरित्र आपके आस पड़ोस में मिल जायेंगे, किन्तु ऐसे  सजीव चरित्र को हूबहू किसी रचना में उतारने क्षमता तो डॉ परिहार जी की  लेखनी में ही है। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 48 ☆

☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा ☆

लॉकडाउन लगने पर मल्लूभाई दफ्तर से घर में ऐसे गिरे हैं जैसे पानी में से खींची गयी कोई मछली ज़मीन पर गिरती है। जिस दफ्तर में दिन के दस घंटे गुज़रते थे और जो घर से भी बड़ा घर बन गया था, उसके दर्शन को आँखें तरस गयीं। रोज़ शाम साढ़े पाँच बजे घर आते थे, फिर चाय वाय पीकर सात बजे दफ्तर के क्लब के लिए भागते थे। वहाँ दो घंटे दोस्तों के साथ मस्ती होती थी। कैरम, शतरंज के साथ चाय-पकौड़े के दौर चलते थे। इतवार को भी दो तीन घंटे के लिए दोस्त वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। दफ्तर में रोज़ हज़ार-पाँच सौ ऊपर के मिल जाते थे, जिसकी बदौलत बीवी-बच्चों पर रुतबा बना रहता था। अब वह रुतबा छीज रहा था।

अब मल्लूभाई बनयाइन-लुंगी पहने घर में मंडराते रहते हैं। हर खिड़की पर रुककर झाँकते हैं, फिर लंबी साँस खींचते हैं। इसके बाद आगे बढ़ जाते हैं। बाहर सड़कों पर सन्नाटा और वीरानी है। इधर उधर डंडाधारी पुलिसवालों के सिवा कोई नहीं दिखता।

मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘देखो, हर खराबी में कुछ अच्छाई होती है। अब हम फुरसत हैं तो घर के काम में आपकी मदद करेंगे। अभी आपका काम बढ़ गया है, हम मदद करेंगे तो आपको कुछ राहत मिलेगी। ‘

पत्नी उन्हें जानती है। जवाब देती है, ‘देखते हैं कितनी मदद करते हो।’

मल्लूभाई पहले साढ़े सात बजे उठ जाते थे, अब दस बजे तक नाक बजाते, मनहूसियत फैलाते, सोते रहते हैं। उनके आसपास  पत्नी काम करती रहती है, लेकिन उन्हें  कोई फर्क नहीं पड़ता।

उठ कर नहा धो कर दो घंटे पूजा में बैठते हैं। पत्नी कहती है, ‘पहले तो आधे घंटे में पूजा हो जाती थी, अब दो घंटे तक क्या करते हो?’

मल्लूभाई जवाब देते हैं, ‘पहले सिर्फ अपने परिवार के लिए प्रार्थना करता था, अब इस मुसीबत में पूरी दुनिया के लिए प्रार्थना करता हूँ। एक एक देश का नाम लेता हूँ। फिर अपने देश पर आकर एक एक राज्य का नाम लेता हूँ। इसके बाद अपने राज्य के एक एक ज़िले का नाम लेता हूँ। फिर अपने शहर में आकर एक एक मुहल्ले का नाम लेता हूँ, और फिर अपनी कॉलोनी के एक एक घर का नाम लेता हूँ। फिर अपने परिवार और आपके मायकेवालों के नाम लेता हूँ। मैंने सब की लिस्टें बना ली हैं। अब इतनी लम्बी पूजा में दो घंटे से कम क्या लगेंगे?’

पत्नी चुप हो जाती है। भोजन करते करते मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘आप से कहा था कि कुछ काम मेरे लिए छोड़ दिया करो। आप छोड़ोगी नहीं तो हम क्या करेंगे?’

पत्नी व्यंग्य से कहती हैं, ‘आपसे क्या कहें?आपके पास काम के लिए टाइम ही कहाँ होता है।’

मल्लूभाई शर्मीली हँसी हँस कर मौन साध लेते हैं।

शाम को पत्नी मल्लूभाई से कहती है, ‘ज़रा बाहर निकलकर देखो, कोई सब्ज़ीवाला दिखे तो सब्ज़ी ले आओ। आज कोई ठेलेवाला नहीं आया।’

मल्लूभाई आज्ञाकारी भाव से कपड़े बदलते हैं और थैला उठाकर बाहर निकल जाते हैं।

डेढ़ घंटा गुज़र जाता है, लेकिन सब्ज़ी लेने गये मल्लूभाई लौट कर नहीं आते। पत्नी घबरा जाती है। मन में कई दुश्चिंताएं उठती हैं। कहीं पुलिस ने तो नहीं बैठा लिया।

परेशान होकर फोन लगाती है। उधर से जवाब मिलता है, ‘अरे, सड़क पर कोई पुलिसवाला नहीं दिखा, सो टहलते हुए खरे साहब के यहाँ आ गया। कई दिनों से मिल नहीं पाया था। बस आई रहा हूँ।’

नौ बजे मल्लूभाई खाली थैला हिलाते हुए आ जाते हैं। सफाई देते हैं, ‘सब सब्ज़ी वाले इतनी जल्दी गायब हो गये। तुम चिन्ता न करो। सबेरे ठेले वाले आएंगे, नहीं तो मैं कल पक्का ला दूँगा। कल सबेरे जल्दी उठ जाऊँगा तो सब्ज़ी भी देख लूँगा और घर के कुछ काम भी निपटा दूँगा।’

सबेरे नौ बजे तक ठेले नहीं आये तो पत्नी ने मल्लूभाई को हिलाया,कहा, ‘अभी तक कोई ठेला नहीं आया। ज़रा उठकर बाहर देख लो।’

मल्लूभाई नींद में हाथ उठाकर बुदबुदाते हैं, ‘चिन्ता मत करो। मैं अब्भी उठ कर सब देख लूँगा। सब हो जाएगा। बस अब्भी उठता हूँ।’

इतना बोलकर वे करवट लेकर फिर अपनी सुख-निद्रा में डूब जाते हैं।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 45 ☆ व्यंग्य – अप्रत्यक्ष दानी शराबी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “अप्रत्यक्ष दानी शराबी।  श्री विवेक जी  का यह व्यंग्य सत्य के धरातल पर बिलकुल खरा उतरता है। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 45 ☆ 

☆ अप्रत्यक्ष दानी शराबी 

देश ही नही, दुनियां घनघोर कोविड संकट से ग्रस्त है.सरकारो के पास धन की कमी आ गई है. पाकिस्तान तो दुनिया से खुले आम मदद मांग रहा है,” दे कोविड के नाम तुझको करोना बख्शे”. अनुमान लगाये जा रहे हैं कि शायद करोना काल के बाद केवल चीन और भारत की इकानामी कुछ बचेंगी, बाकी सारे देशो की अर्थव्यवस्था तो कंगाल हो रही है. महाशक्ति अमेरिका तक की जी डी पी ग्रोथ माईनस में जाती दिख रही है. ऐसे संकट काल में हमारे देश में भी सरकार ने जनता से पी एम केयर फंड में मदद के लिये आव्हान किया है. दानं वीरस्य भूषणम्. अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुये सांसदो, विधायको ने अपने वेतन में कटौती कर ली है. सरकारी कर्मचारियो ने अपना एक दिन का वेतन स्वेच्छा से दान दे दिया है. सरकार ने कर्मचारियों के मंहगाई भत्ते की वृद्धि पर रोक लगाकर उसे अगले वर्ष जुलाई तक फ्रीज कर दिया है. अनेक सामाजिक संस्थाओ,  मंदिरों, गुरुद्वारो के द्वारा लंगर चलाये जा रहे हैं. सहयोग से ही इस अप्रत्याशित विपदा का मुकाबला किया जा सकता है. जन मानस के मन में घरों में बंद रहते करुणा के भाव जाग रहे हैं. अच्छा है.

मीडिया प्रेमी ऐसे दान वीर भी सामने आये जिनने  किलो भर चावल दिया और भीड़ एकत्रित कर अपने चमचों सहित हर एंगिल से  पूरा फोटो सेशन ही करवा डाला. दूसरे ही दिन नगर समाचार के पन्नो पर प्रत्येक अखबार में ये दान वीर सचित्र विराजमान रहे. फेसबुक और व्हाट्सअप पर उनकी विज्ञप्तियां अलग प्रसारित होती रहीं. दरअसल ऐसे लोगों के लिये संकट की इस घड़ी में मदद का यह प्रयास भी उनके कैरियर के लिये निवेश मात्र था. जो भी हो मुझे तो इसी बात की प्रसन्नता है कि किसी बहाने ही सही जरूरतमंदो तक छोटी बड़ी कुछ मदद पहुंची तो. एक सज्जन रात दो बजे एक गरीब बस्ती में गाड़ी लेकर पहुंचे, एनाउंस किया गया कि जरूरत मंदो को प्रति व्यक्ति एक किलो आटे का पैकेट दिया जावेगा, जिन्हें चाहिये आकर ले जावें. अब स्वाभाविक था रात दो बजे अधनींद में वही व्यंक्ति एक किलो आटा लेने जावेगा, जिसे सचमुच आवश्यकता होगी, कुछ लोग जाकर आटे के पैकेट ले आये. सुबह जब उन्होने उपयोग के लिये आटा खोला तो हर पैकेट में १५ हजार रु नगद भी थे. गरीबों ने देने वाले को आषीश दिये. सच है गुप्त दान महादान. बायें हाथ को भी दाहिने हाथ से किये दान का पता न चले वही तो सच्चा दान कहा गया है.

एक बुजुर्ग कोविड की बीमारी से ठीक होकर अस्पताल से बिदा हो रहे थे, डाक्टर्स, नर्सेज उन्हें चियर अप कर रहे थे. तभी उन्हें लगाये गये आक्सीजन का बिल दिया गया, उनके उपचार में उन्हें एक दिन  सिलेंडर से आक्सीजन दी गई थी. पांच हजार का बिल देखकर वे भावुक हो रोने लगे, अस्पताल के स्टाफ ने कारण जानना चाहा तो उन्होने कहा कि जब एक दिन की मेरी सांसो का बिल पांच हजार होता है तो मैं भला उस प्रकृति को बिल कैसे चुका सकता हूं जिसके स्वच्छ वातावरण में  मैं बरसों से सांसे ले रहा हूं. हम सब प्रकृति से अप्रत्यक्ष रूप से जाने कब से जाने कितना ले रहे हैं.

मेरा मानना है कि सबसे बड़ा दान अप्रत्यक्ष दान ही होता है. और टैक्स के द्वारा हम सबसे सरकारें भरपूर अप्रत्यक्ष दान लेती हैं . टैक्सेशन का आदर्श सिद्धांत ही है कि जनता से वसूली इस तरह की जावे जैसे सूरज जलाशयों से भाप सोख लेता है, और फिर सरकारो का आदर्श काम होता है कि बादल की तरह उस सोखे गये जल को सबमें बराबरी से बरसा दे. मेरे आपके जैसे लोग भले ही  केवल ठेठ जरूरत के सामान खरीदते हैं, पर अप्रत्यक्ष दान के मामले में हमारे शराबी भाई हम सबसे कहीं बड़े दानी होते हैं.शराब पर, सिगरेट पर सामान्य वस्तुओ की अपेक्षा टैक्स की दरें कही बहुत अधिक होती ही हैं. फिर दो चार पैग लगाते ही शराबी वैसे भी दिलेर बन जाता है. परिचित, अपरिचित हर किसी की मदद को तैयार रहता है. वह खुद से ऊपर उठकर खुदा के निकट पहुंच जाता है. इसलिये मेरा मानना है कि सबसे बड़े अप्रत्यक्ष दानी शराबी ही होते हैं. उनका दान गुप्त होता है. और इस तर्क के आधार पर मेरी सरकार से मांग है कि लाकडाउन में बंद शराब की दुकानों को तुरंत खोला जावे जिससे हमारे शराबी मित्र राष्ट्रीय विपदा की इस घड़ी में अपना गुप्त दान खुले मन से दे सकें.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 16 ☆ जागते रहो ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर समसामयिक रचना “जागते रहो।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 16 ☆

☆ जागते रहो

जागते रहो , जागते रहो कहने- सुनने का दौर तो न जाने कब का चला गया । अब तो लॉक अप को खारिज कर लॉक डाउन का वक्त आ गया है । बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि हमेशा उन्नति करो पर ये क्या हमको तो बचने हेतु डाउन होने का सहारा ही एक मात्र उपाय दिख रहा है ।

एक दूसरे को डाउन करने की होड़  तो सदियों से चली आ रही थी ।  पीकर डाउन , शटर डाउन ,अप डाउन तो जानते थे  पर चीनी कृपा से लॉक डाउन  कैसा होता है ये जानने व  समझने का सौभाग्य आखिरकार मिल ही गया ।

अच्छे दिनों की उम्मीद को थामें हम सभी मन ही मन प्रसन्न थे पर अनुभव यही है  कि जब भी कुछ अच्छा होता दिखता है ; तो लोगों की नजर लगते देर नहीं लगती । वैसा ही कुछ सबके साथ हुआ,  जाने कहाँ से कोरोना महाराज चीनी चादर ओढ़कर पधार गए और रंग में भंग हो गया। अरे भाई अपना सारा व्यापार तो वे यहीं पर करते थे । होली के रंग से दीवाली की झालर व क्रिसमस  ट्री सब आपके बनाये सामानों से ही निखर रहा था ।  और तो और आपने कृत्रिम नींबू मिर्च भी बना कर सबके घरों और दुकानों तक पहुँचा दिए । लॉफिंग बुद्धा तो वैसे ही ड्राइंग रूम में बैठकर हँसता है कि अपनी सनातनी परंपरा को निभाने के बजाए हम पर विश्वास करते हो ।  नकली सिक्को की पोटली, कछुआ, बैम्बू , पिरामिड, क्रिस्टल में उन्नति ढूंढ रहे हो , अब भुगतो ।

जब भी कोई समस्या आती है तो साथ में समाधान अवश्य लाती है । ऐसे संकट के दौर में हम लोगों को याद आयी योग व आयुर्वेद की । ॐ मंत्र ने सबको मानसिक संबल दिया । इसी के साथ  अपने धर्म ग्रथों का पारायण करते हुए  भारतीय संस्कृति से बच्चों को जोड़ने का प्रयास भी इन दिनों लगभग हर घर में चल रहा है ।  नीम, तुलसी, गिलोय , एलोवेरा, आँवला आदि का सेवन भी  प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने हेतु किया जा रहा है ।

अभी तो शुरुआत है समय रहते जागो अपने पूर्वजों की थाती पर गर्व करो ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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ई- अभिव्यक्ति का अभिनव प्रयोग ☆ प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था “व्यंग्यम” की प्रथम ऑनलाइन गोष्ठी ☆ तकनीकी संयोजन – हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर 

☆ ई- अभिव्यक्ति का अभिनव प्रयोग – प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था “व्यंग्यम” की प्रथम ऑनलाइन गोष्ठी ☆

संस्कारधानी जबलपुर से लगभग बयालीस वर्ष पूर्व व्यंग्य की पहली और  प्रतिष्ठित पत्रिका “व्यंग्यम”  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी के निर्देशन में प्रकाशित  होती थी। इसके सम्पादक मंडल में  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री निशिकर जी,  श्री महेश शुक्ल जी तथा श्री श्रीराम आयंगर जी थे। इसका अपना इतिहास रहा है और यह पत्रिका काफी लम्बे समय तक प्रकाशित होती रही, जिसमें देश के प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की रचनाएं छपतीं थीं।

“व्यंग्यम” पत्रिका की स्मृति में विगत 34 माह से जबलपुर में  मासिक व्यंग्यम गोष्ठी का आयोजन होता रहा है । व्यंग्यम को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से “व्यंग्यम गोष्ठी”  की श्रृंखला का आयोजन सतत जारी है और भविष्य में व्यंग्यम पत्रिका की योजना भी विचाराधीन है।

विगत 34 माह पूर्व जबलपुर में मासिक व्यंग्यम गोष्ठी की श्रंखला चल रही है जिसमें व्यंग्यकार हर माह अपनी ताजी रचनाओं का पाठ करते हैं।  34 महीने पहले इस आयोजन  को प्रारम्भ करने का श्रेय जबलपुर के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ कुंदन सिंह परिहार, श्री रमेश सैनी, श्री जय प्रकाश पाण्डेय, श्री द्वारका गुप्त आदि व्यंग्यकारों को जाता है। इस गोष्ठी की विशेषता यह है अपने नए व्यंग्य का पाठ इस गोष्टी में करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तीसरे माह किसी प्रतिष्ठित अथवा मित्र व्यंग्यकारों के व्यंग्य संग्रह की समीक्षा भी की जाती है।

कोरोना समय और लाॅक डाऊन के नियमों के तहत सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए और घर की देहरी के अंदर रहते हुए अप्रैल माह की व्यंग्यम गोष्ठी इस बार इंटरनेट पर  सोशल मीडिया के माध्यम से सूचना एवं संचार तकनीक का प्रयोग करते हुए  आयोजित करने का यह एक छोटा सा प्रयास है। इस गोष्ठी के लिए सूचना तकनीक के कई प्रयोगों के बारे में विचार किया गया जैसे कि व्हाट्सएप्प और वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग। किन्तु, प्रत्येक की अपनी सीमायें हैं साथ ही हमारे वरिष्ठतम एवं कई  साहित्यकार इन तकनीक के प्रयोग सहजतापूर्वक नहीं कर पाते।
इस सन्दर्भ में ई- अभिव्यक्ति ने एक अभिनव प्रयोग किया है ।  इस तकनीक में हमने पहले सम्मानित व्यंग्यकारों से मोबाईल पर उनकी स्वरांकित व्यंग्य पाठ की फाइलें मंगवाई और उनको उनके चित्रों के साथ संयोजित कर स्थिर-चित्रित वीडियो बनाकर यूट्यूब पर प्रकाशित किया। इस तकनीक का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आप उनके वीडियो को लाइक कर सकते हैं और अपने कमैंट्स दे सकते हैं। जहाँ तक आपस में संवाद करने का प्रश्न है तो आप इस पोस्ट के अंत में आपस में वैसे ही चर्चा कर सकते हैं जैसे कि फेसबुक या व्हाट्सएप्प पर करते हैं। इसके अतिरिक्त इस लिंक को आप सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफॉर्म पर शेयर कर सकते हैं।

इस गोष्ठी में हमने सम्मानीय व्यंग्यकारों के नाम अंग्रेजी वर्णमाला के क्रम से रखा है। आप किसी भी व्यंग्यकार के नाम पर क्लिक कर सीधे यूट्यूब पर उनकी रचना का पाठ उनके स्थिर चित्र पर सुन सकते हैं।

हमें आपसे यह साझा करते हुए अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि इस गोष्ठी में प्रतिष्ठित व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी ने मुख्य अतिथि व्यंग्यकार के रूप में हमारे आग्रह को स्वीकार कर अपनी रचना प्रेषित की है। इस गोष्ठी का प्रारम्भ हम हमारे सम्माननीय अतिथि व्यंग्यकार अग्रज श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य से कर रहे हैं । उनके व्यंग्य लेखन से आपको परिचित कराना मेरा कर्तव्य है।

श्री शांतिलाल जैन, भोपाल  – सधुक्‍कड़ी प्रवृत्ति का ‘सुपर-सिद्ध’ व्‍यंग्‍यकार  

नियमित व्यंग्य लेखन करना किसी भी सामान्य व्यंग्यकार के लिये सहज नहीं होता, किन्तु श्री जैन लगभग तीन दशकों से एकल विधा के रूप में सतत व्यंग्य साधना कर रहे हैं। लगभग प्रति सप्ताह उनकी ओर से किसी पत्र-पत्रिका में एक नये विषय के साथ उनकी उपस्थिति दर्ज होती है। अपनी व्यस्त कार्यालयीन दिनचर्या के बीच गहन गंभीर चिन्तन कर व्यंग्य रचना सृजित करना उन्हें अग्रिम पंक्ति के लेखकों की श्रेणी में रखता है। उन्होंने अपने व्यंग्यों को प्रवृत्तियों तक सीमित रखने का प्रयास किया है। इसलिये वे व्यक्तिगत आलोचना से प्रायः दूरी बनाकर रखते हैं। राजनीतिक परिस्थितियों से नाराज तथा नीति निर्धारकों से असहमत होने के बाद भी उनका लेखन अपने आप में बेहद संतुलित, ईमानदार तथा निष्पक्ष व्याख्या करता दीखता है।

देखा देखी लेखन में उतर पड़ने, किसी निजी लक्ष्‍य लेकर लेखन की खेती करने या प्राकृतिक रूप से लेखक के रूप में उपजे होने का दावा करने वाली बेशुमार जमात के बीच शांतिलाल जैन जैसे थोड़े से लेखक सामाजिक सरोकारों के प्रति संचेतना के कारण ही वैचारिक अभिव्‍यक्ति का निष्‍पादन पूरी जिम्‍मैदारी से करते हैं। किसी भी प्रतियोगिता से बेपरवाह और व्‍यंग्‍य के क्षेत्र में घुस रहे छिछलांदे छल छिद्रों से दूर रहकर अपनी साहित्‍य साधना में लीन रहने वाले मस्‍तमौला लेखक हैं वे।

विसंगतियों की परत को भेदकर निकाली विसंगतियों को सलीकेदार हास्‍य से रोशन करने में इन्‍हें विशेष योग्‍यता प्राप्त है। वे आधुनिक संदर्भों पर पैनी नजर रखने वाले व्यंग्यकार हैं। अन्तर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय महत्‍व के गूढ़ विषयों पर  गहन अध्ययन से हासिल तथ्य सामने लाने के लिए वे बहुत सहज-सुलभ कथानक रचते हैं। रोचक कहन शैली में जन सामान्‍य से सूत्र जोड़ते हुए वे अपने संदेश को सफलता के साथ सम्‍प्रेषित कर देते हैं। स्वयं बैंकर होने के कारण ये अर्थव्यवस्था और उससे जुड़ी ऐसी विसंगतियों पर भी मार कर देते हैं जो सामान्य व्यंग्यकार की जद से दूर होता है। कहना न होगा कि शांतिलाल जैन, की उपस्थिति समकालीन व्‍यंग्‍य को समृद्ध बना रही है।

§ § § § §
प्रत्येक सम्मानित व्यंग्यकारों का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय इस निवेदन के अंत में दिया जा रहा है।  आप सम्मानित व्यंग्यकारों के चित्र अथवा नाम पर क्लिक कर उनकी रचना आत्मसात कर सकते हैं ।
आज के अंक  में प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक स्तम्भ के सभी सम्माननीय साहित्यकारों से अनुरोध है कि उनकी रचनाएँ अगले सप्ताह से यथावत प्रकाशित होती रहेंगी।

इस प्रकार संस्कारधानी जबलपुर के स्थानीय सम्मानित व्यंग्यकारों की संस्था ” व्यंग्यम” की अप्रैल 2020 की गोष्ठी का मुख्य आतिथ्य भोपाल से श्री शांतिलाल जैन एवं तकनीकी संयोजन ई – अभिव्यक्ति की और से मैं हेमन्त बावनकर, पुणे  वर्तमान में बेंगलुरु से  कर रहा हूँ।

इस परिकल्पना के आधार स्तम्भ हैं अग्रज  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी एवं मैं इसे  तकनीकी स्वरुप देने का निमित्त मात्र हूँ। समस्त ऑडियो फाइलों को  बना संजो कर मुझ तक पहुँचाने के लिए उनका ह्रदय से आभार।

कृपया इस यज्ञ को अपने मित्रों और सोशल मीडिया में अधिक से अधिक साझा करें। इस पोस्ट के अंत में आपस में चर्चा करें।

हमें पूर्ण आशा एवं विश्वास है कि  ई – अभिव्यक्ति के इस अभिनव प्रयोग के लिए आप सबका स्नेह एवं प्रतिसाद मिलेगा।

आप सब का पुनः हृदय से आभार।  नमसकर।

अपने घरों में रहें, स्वस्थ रहें। आज का दिन शुभ हो।   

– हेमन्त बावनकर,  सम्पादक ई-अभिव्यक्ति, पुणे

 

श्री शांतिलाल जैन 

परिचय :

श्री शांतिलाल जैन,

जन्म: 19 फरवरी, 1960, उज्जैन, म.प्र

शिक्षा:  विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से वाणिज्य में स्नातकोत्तर तथा विधि में स्नातक उपाधि.

प्रकाशन:

  • पहला व्यंग्य संग्रह ‘कबीर और अफसर’ -म.प्र. साहित्य परिषद के सहयोग से सन 2003 में प्रकाशित.
  • दूसरा व्यंग्य संग्रह ‘ना आना इस देश’- शिल्पायन, दिल्ली से 2015 में प्रकाशित.
  • तीसरा व्यंग्य संग्रह-मार्जिन में पिटता आदमी, ‘क’ प्रकाशन, नईदिल्ली से प्रकाशित

राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन:

जनसत्ता, शुक्रवार, नईदुनिया, धर्मयुग, सुबहसवेरे, दैनिक भास्कर, समावर्तन, अट्टहास आदि देश की अन्य अनेक पत्र-पत्रिकाओं में।

भारतीय स्टेट बैंक में सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी के प्रयोग हेतु सक्रिय सहयोग।

सम्प्रत्ति : भारतीय स्टेट बैंक, स्थानीय प्रधान कार्यालय, भोपाल से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत।

पुरस्कार/सम्मान-

  • म.प्र. साहित्य परिषद का वर्ष 2015 के लिये ‘राजेन्द्र अनुरागी सम्मान’.
  • अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान-2016.
  • श्री हरीकृष्ण तैलंग स्मृति सम्मान –2014.
  • व्‍यंग्‍य लेखक समिति द्वारा स्‍थापित ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्‍कार- वर्ष 2018

 

श्री अभिमन्यु  जैन

 

जन्म : 15/ 02/1952,जबलपुर.

प्रकाशन /प्रसारण :

देश की विभिन्न  पत्र  पत्रिकाओं में व्यंग प्रकाशित. आकाशवाणी, दूरदर्शन से प्रसारित, व्यंग संग्रह  “राग शमशानी”  प्रकाशित. अनेक संस्थाओं से अभिनंदित  एवम सम्मानित.

संप्रति : सेवा निवृत्त अधिकारी वाणिज्य कर

संपर्क:  abhimanyuakjain@ gmail.Com

मोबाईल:  9425885294.

 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जन्म:  02.01.1957

शिक्षा: एम. एस. सी. , डी सी ए

प्रकाशन /पुरस्कार:

  • देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं के अलावा आकाशवाणी में कहानी, व्यंग्य लेखों का 30 वर्षों से प्रकाशन /प्रसारण।
  • कबीर सम्मान, अभिव्यक्ति सम्मान के अलावा अनेक पुरस्कार /सम्मान।
  • परसाई स्मारिका सम्पादित, ई-अभिव्यक्ति पत्रिका का महात्मा गाँधी विशेषांक एवं परसाई विशेषांक में अतिथि सम्पादक।
  • व्यंग्य संकलन “डांस इण्डिया डांस” प्रकाशित ।  कुछ साझा संकलन भी प्रकाशित। एक व्यंग्य संग्रह और एक कहानी संकलन प्रकाशनाधीन

सम्पर्क:  416-एच, जय नगर जबलपुर-482002

ईमेल : [email protected]

मोबाईल:  9977318765

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

जन्म:  मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के ग्राम अलीपुरा में वर्ष 1939 में।

शिक्षा: एम.ए.(अंग्रेजी साहित्य), एम.ए.(अर्थशास्त्र), पी.एच.डी, एल. एल.बी.।चालीस वर्ष तक महाविद्यालयीन अध्यापन के बाद 2001 में जबलपुर के गोविन्दराम सेकसरिया अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त।

साहित्य:  पिछले पाँच दशक से निरन्तर कहानी और व्यंग्य लेखन। 200 से अधिक कहानियां और इतने ही व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।अब तक पाँच कथा-संग्रह (तीसरा बेटा, हासिल, वह दुनिया, शहर में आदमी और काँटा ) तथा दो व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित।

सम्मान: 1994 में म.प्र. हिन्दी  साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार,2004 में राजस्थान पत्रिका का सृजनशीलता सम्मान।

संपर्क: 59,नव आदर्श कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर–482002 (म.प्र)

मोबाइल:  9926660392, 7999694788

डॉ प्रदीप शशांक

नाम :   ठाकुर प्रदीप कुमार सिंह

साहित्यिक नाम :   डॉ. प्रदीप शशांक

जन्मतिथि :   27 जून 1955

शैक्षणिक योग्यता  बी .कॉम.

सम्प्रति :  म.प्र .शासन कृषि विभाग जबलपुर में सहायक सांख्यकीय अधिकारी के पद से वर्ष 2015 जून में सेवा निवृत्त।

साहित्यिक उपलब्धियां :  वर्ष 1975 से छुटपुट लेखन प्रारम्भ किया । प्रथम हास्य व्यंग्य दिल्ली प्रेस की पाक्षिक पत्रिका “मुक्ता” में दिसम्बर 1976 में “कालोनी क्रिकेट मैच” शीर्षक से प्रकाशित हुआ । इसके बाद प्रकाशन का जो सिलसिला प्रारम्भ हुआ तो देश भर की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य, लघुकथायें, लेख, कवितायेँ आदि निरन्तर प्रकाशित होते रहे हैं ।

सम्पादन :  जबलपुर से प्रकाशित लघुकथा विधा की पत्रिका ‘ लघुकथा अभिव्यक्ति ‘ में प्रबन्ध सम्पादक, तथा ‘प्रतिनिधि लघुकथायें ‘ में उप सम्पादक के रूप में अवैतनिक सेवायें प्रदान कीं ।

सम्मान /पुरस्कार :  देश भर की प्रमुख साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न सम्मानों /पुरस्कारों से सम्मानित किया गया ।

प्रकाशित कृतियाँ : वर्ष 1986 में दिनिशा प्रकाशन जबलपुर द्वारा प्रकाशित  व्यंग्य संग्रह ‘ एक बटे ग्यारह ‘  तथा वर्ष 2009 में अयन प्रकाशन दिल्ली द्वारा मेरा प्रथम लघुकथा संग्रह ‘ वह अजनबी ‘ शीर्षक से प्रकाशित किया गया । इसके साथ ही अनेकों लघुकथा संकलनों में मेरी लघुकथा शामिल की गई हैं ।

सम्पर्क :  श्रीकृष्णम इको सिटी , श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास , कटंगी रोड , माढ़ोताल , जबलपुर , म . प्र . 482002

मो . 9425860540 , 9131485948

श्री रमाकांत ताम्रकार

जन्म:  23-6-1960 जबलपुर

प्रकाशन: अनेक पत्र पत्रिकाओं में कहानी, व्यंग्य, समीक्षा, आलेख, साक्षात्कार आदि

प्रसारण कहानियां,व्यंग्य, आलेख, परिचर्चाएं आदि

प्रकाशन: दो कहानी संग्रह प्रकाशित। एक व्यंग्य संग्रह प्रकाशनाधीन।

पुरस्कार : अनेकों राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार

सम्पादन :  विभिन्न स्मारिकाओं का सम्पादन, कहानी पत्रिका का संयोजन एवम सम्पादन, त्रैमासिक पत्रिका अमृत दर्पण, भोपाल में संपादक

फ़िल्म एवं डॉक्यूमेंट्री: 

  • लव यू कैनेडा कहानी एवं स्क्रिप्ट लेखन
  • कहानी मंच जबलपुर -20  डॉक्यूमेंट्री
  • कवि श्री गंगाचरण मिश्र जबलपुर की कविताओं पर कविता वीडियो

सम्प्रति:  म. गांधी राज्य ग्रामीण विकास संस्थान, जबलपुर में कार्यरत ।

मोबाईल: 9926660150

ईमेल:  [email protected]

 

श्री रमेश सैनी

जन्म : 3 जून 1949, महाराजपुर (मंडला) म.प्र.।
शिक्षा :  विज्ञान स्नातक, स्नातकोत्तर (अर्थ शास्त्र, मनोविज्ञान) 1982, कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में डिप्लोमा
प्रकाशन : विगत 40 वर्षों से धर्मयुग, सारिका, माधुरी, इंडिया टुडे, कादम्बिनी, नवनीत, वागर्थ, कथादेश, कादम्बरी, साक्षात्कार, मायापुरी, नई गुदगुदी, व्यंग्य यात्रा, आसपास, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, भास्कर, युगधर्म, स्वतंत्र मत, नवीन दुनिया, जनपक्ष आज, ब्लिट्ज, रविवार, आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन।
प्रसारण : जबलपुर, भोपाल, छतरपुर, लखनऊ, दिल्ली आदि आकाषवाणी, दूरदर्षन केन्द्रों से विभिन्न रचनाओं का प्रसारण तथा व्यंग्य और कहानी पर विमर्ष का प्रसारण।
अनुवाद : अनेक रचनाओं का बंगला, पंजाबी, अंग्रेजी और नार्वेरियन भाषा में अनुवाद।
सम्पादन : अंतर्राष्ट्रीय संस्था सर्विस सिविल इन्टरनेशनल (स्विट्जरलेण्ड) की भारत शाखा द्वारा प्रकाषित मासिक पत्रिका ‘प्रयास’ तथा जाबालि सैनी बंधु अख़बार का सम्पादन।
कृतियाँ : मेरे आसपास, बिन सेटिंग सब सून, पाँच व्यंग्यकार (व्यंग्य संग्रह), अंतहीन वापिसी (कहानी संग्रह), सब कुछ चलता है, बक्से में कुछ तो है (व्यंग्य उपन्यास) शीघ्र प्रकाश्य

पुरस्कार : कादम्बिनी (मासिक पत्रिका) द्वारा कादम्बिनी सम्मान – 1994, म.प्र. युवा रचनाकार सम्मान, मध्यप्रदेश  साहित्यकार मंच सम्मान , म.प्र. लघु कथा परिषद द्वारा लघुकथा सम्मान, पाथेय द्वारा सृजन सम्मान, हीरालाल गुप्त स्मृति सम्मान, मध्यप्रदेश  लघु कथाकार परिषद द्वारा अखिल भारतीय स्व. रासबिहारी पाण्डेय स्मृति सम्मान, यश अर्चन सम्मान, व्यंग्य यात्रा (पत्रिका) द्वारा व्यंग्य यात्रा सम्मान।
संस्था : एस सी आई (भारत शाखा) शाहदरा दिल्ली में कुष्ठ रोगियों की दो वर्षों तक सेवा सुश्रुषा तथा उनके लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन।
1972 उदयपुर (राजस्थान) के आसपास के गाँवों में जल-समस्या तथा समस्याओं पर गहन कार्य।
साहित्यिक संस्था:  मिलन, मित्र संघ, हिन्दी साहित्य सम्मेलन (जबलपुर शाखा), म.प्र. लेखक संघ (जबलपुर इकाई), साहित्य संघ, पहल गोष्ठी आदि संस्थाओं में अनेक पदों पर सक्रियता से सहभागिता। कहानी मंच में ‘अध्यक्ष’ तथा अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों का संयोजन। अनेक संस्थाओं के आमंत्रण पर अध्यक्षता, निर्णायक, रचना-पाठ, विचार-विमर्श आदि की भूमिका का निर्वाह।
खेल : टेबिल टेनिस में जिला तथा प्रादेशिक स्तर पर प्रतिनिधित्व, विजेता, उपविजेता।
विदेश : सर्विस सिविल इन्टरनेशनल  द्वारा 1972 में पश्चिम जर्मनी आमंत्रित, पर पारिवारिक कारणों से गमन स्थगित।
सम्प्रति : रक्षा लेखा विभाग से वरिष्ठ अंकेक्षक पद से सेवा निवृत्त।
सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर (म.प्र.) 482 002
दूरभाष:  0761-2645588, 94258 66402, 8989 499299
ईमेल : [email protected]

 

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

जन्म तिथि : 7 जुलाई 1958

सृजन कार्य क्षेत्र  : साहित्य

प्रिय विधा : मुझे काव्य लेखन सबसे अच्छा लगता है।

परिचय : साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हूँ। मेरी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है।

कृतियाँ/अलंकरण/उपलब्धियाँ :

काव्य संग्रह – किसलय के काव्य सुमन , नई दुनिया का श्रेष्ठ अलंकरण – “जबलपुर साहित्य अलंकरण”, कौन बनेगा साहित्यपति प्रतियोगिता विजेता, ओंकार तिवारी अलंकरण, गुंजन का सरस्वती सम्मान, हिन्दी परिषद का कथा सम्मान, विधानसभाध्यक्ष स्व. कुंजीलाल दुबे स्मृति निबंध प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार।
वर्तिका प्रतिभा अलंकरण, बेटी बचाओ अभियान के सुचारू कार्यान्वयन हेतु मांडू में प्रदेश स्तरीय कार्यशाला में सहभागिता।, पूरे विश्व के 135 से अधिक देशों के “पीस ऑफ  माइंड” टी वी चैनल एक साथ प्रसारित  माउंट आबू में आयोजित ‘राष्ट्रीय कवि सम्मेलन’ में सहभागिता।

अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियां :

  • समाचार पत्रों, आकाशवाणी एवं विभिन्न चैनलों से प्रकाशन/ प्रसारण।
  • मेरे काव्य संग्रह “किसलय के काव्य सुमन” सहित अनेक सामूहिक संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित।
  • वेबसाईट: hindisahityasangam.com ब्लॉग : hindisahityasangam.blogspot.com
  • व्हाट्सएप्प ग्रुप : “हिन्दी साहित्य संगम” के माध्यम से निरंतर सृजन जारी है।
  • संस्कारधानी जबलपुर के ‘जबलपुर साहित्य रत्न”
  • गुंजन के “सरस्वती अलंकरण”, वर्तिका के ‘प्रतिभा अलंकरण”, ओंकार तिवारी सम्मान सहित
  • शताधिक सम्मान/अलंकरण/ पुरस्कार प्राप्त।
  • लगभग सौ गद्य-पद्य पुस्तस्कों की समीक्षाओं / भूमिकाओं का लेखन।
  • पुस्तकों, पत्रिकाओं का सम्पादन। मंच संचालन।
  • समाचार पत्रों में आलेख तथा स्तंभ लेखन।
  • हिन्दी भाषा के प्रसार, प्रचार तथा विकास हेतु निरंतर सक्रिय।
  • विभिन्न संस्थाओं में सक्रिय सहभागिता। कहानी मंच, म. प्र. लेखक संघ जबलपुर, लघु कथाकर
  • परिषद, वर्तिका के विकास में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहते हुये विशिष्ट कार्यों का सम्पादन। वर्तमान में वर्तिका जबलपुर के अध्यक्ष।
  • स्वरचित संगीतबद्ध नर्मदाष्टक “नित नमन माँ नर्मदे” की जबलपुर नर्मदा महोत्सव 2012 में 16 लड़कियों द्वारा नृत्य प्रस्तुति।
  • एक दोहा संग्रह एवं एक काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

जन्म : २८.०७.१९५९, मंडला म.प्र.

शिक्षा: सिविल इंजी. में  स्नातक, फाउंडेशन इंजीनियरिंग में भोपाल से स्नातकोत्तर उपाधि, इग्नउ से मैनेजमेंट मे डिप्लोमा, सर्टीफाइड इनर्जी मैनेजर.

संप्रति: अतिरिक्त मुख्य  इंजीनियर म.प्र.राज्य विद्युत मंडल, जबलपुर

प्रकाशित किताबें:

कविता-संग्रह: आक्रोश

व्यंग-संग्रह: रामभरोसे, कौआ कान ले गया, मेरे प्रिय व्यंग्य लेख

नाटक-संग्रह: जादू शिक्षा का (प्रथम पुरस्कृत नाटक),हिंदोस्ता हमारा, विज्ञान, जल जंगल और जमीन, बिजली का बदलता परिदृश्य

फोल्डर:  रानी दुर्गावती व मण्डला परिचय, कान्हा अभयारण्य परिचायिका

प्रसारण: आकाशवाणी व दूरदर्शन से अनेक प्रसारण, रेडियो रूपक लेखन

विशेष : 

  • विभिन्न सामूहिक संग्रहों में रचनायें प्रकाशित
  • अनेक नाटक निर्देशित, पत्र पत्रिकाओ में नियमित लेखन
  • अनेक साहित्यिक संस्थाओ में सक्रिय पदेन संबद्धता, अध्यक्ष – “वर्तिका ” जबलपुरसंयोजक – “पाठक मंच “जबलपुर

उपलब्धियाँ:

  • रेड एण्ड व्हाइट राष्टीय पुरुस्कार सामाजिक लेखन हेतु.
  • जादू शिक्षा का – म.प्र.शासन द्वारा  प्रथम पुरस्कृत नाटक
  • रामभरोसे व्यंग संग्रह को राष्टीय पुरुस्कार दिव्य अलंकरण
  • सुरभि टीवी सीरियल में मण्डला के जीवाश्मो पर फिल्म का प्रसारण
  • २००५ से हिन्दी ब्लागिंग
  • हिन्दी ब्लागिंग के प्रारंभिक वर्षो से ही ब्लाग पर सतत रचनात्मक लेखन
  • कार्यशालायें आयोजित कर  रुचि रखने वाले रचनाकारो को यूनीकोड टायपिंग तथा नेट पर हिन्दी में ब्लागिंग तथा फेसबुक, व्हाट्सअप लेखन सिखाया.
  • डेली हँट मोबाईल  एप पर मेरी अनेक पुस्तकें सुलभ.

अंतरजाल (इंटरनेट) पर विशेष 

  • साहित्यिक हिन्दी वेब पत्रिका “दिव्य नर्मदा” का संस्थापक संचालक.
  • वेब दुनिया, अमर उजाला, जागरण, नवभारत टाईम्स हिन्दी, स्वर्ग विभा, अनुभूति, रचनाकार, साहित्य शिल्पी जैसी अनेकानेक लोकप्रिय साहित्यिक पृष्ठो पर

कुछ ब्लाग्स व फेसबुक पेज के लिंक इस तरह हैं :

ब्लागस 

फेसबुक 

रचनाकार (http://www.rachanakar.org/2013/05/blog-post_9985.html) पर मेरी तकनीकी किताब बिजली का बदलता परिदृश्य निशुल्क

संपर्क: विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १ , शिला कुंज , नयागांव , जबलपुर ४८२००८

ईमेल: [email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

मेरे परिचय के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें  >>>> हेमन्त बावनकर 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 44 ☆ व्यंग्य – संशय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  सामजिक एवं प्रशासनिक प्रणाली पर काफी कुछ कहता एक  व्यंग्य   “संशय” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 44

☆ व्यंग्य – संशय ☆ 

सुंदरपुर अब बड़े कस्बे से छोटे शहर में तब्दील हो गया था। सुंदरपुर के सबसे बड़े अमीर सेठ मानिक लाल के यहां चोरी हो गई।  स्थानीय अखबार ने इस बड़ी चोरी में पुलिस के आदमी का हाथ होना बताया। रामदीन ने अखबार में सुबह-सुबह पढ़ा। पुलिस वालों में उत्सुकता हो गई कि बड़े सेठ के यहां किस पुलिस वाले ने लम्बा हाथ मार दिया। रामदीन की एक साल पहले ही पुलिस में नौकरी लगी थी, ईमानदार टाइप का भी था और डरपोंक, सीधा सादा। हालांकि रामदीन पोस्ट ग्रेजुएट था पर गरीबी रेखा के नीचे का आदमी था इसलिए सुंदरपुर थाने में उसे कुत्ता संभालने की ड्यूटी दी गई। जब कहीं चोरी होती तो रामदीन कुत्ते की चैन पकड़ कर कुत्ते के साथ भागता, दौड़ता, रुकता, कुत्ते के नखरे के अनुसार वह इमानदारी से ड्यूटी करता।

सेठ मानिक लाल के यहां की चोरी में लोग पुलिस वाले पर शक कर रहे थे तो वह थाने से कुत्ते को लेकर निकला। पीछे पीछे उसके बड़े साहब लोग जीप से चल रहे थे। दौड़ते – दौड़ते एक जगह वह पुलिस का काला कुत्ता रुक जाता है। रामदीन चारों ओर देखता है दूर दूर तक कहीं कोई नहीं दिखता पीछे से आते पुलिस के साहबों का कुनबा जरुर दिखता है। रामदीन चौकन्ना हो जाता है पास में एक कुतिया कूं कूं करती खड़ी दिखती है। कुत्ता सोचता है – क्या कमसिन कुतिया है? कुत्ते को देखकर कुतिया भी सोचती है – कितना बांका कुत्ता है।

रामदीन सचेत होकर कुत्ते को घसीटते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करता है परन्तु कुत्ता ड्यूटी के नियमों को ताक पर रखकर रामदीन को पीछे घसीटने लगता है और गुस्से में रामदीन के चक्कर लगा लगाकर भौंकने लगता है। रामदीन डर जाता है सोचता है बड़ी मुश्किल से तो नौकरी लगी थी और ये कुत्ता नाराज होकर अपनी ड्यूटी भूल गया है। कहां से बीच में ये कुतिया आ गई। रुक कर रामदीन को लगातार भोंकते कुत्ते को देखकर साहबों ने रामदीन को पकड़ कर हथकड़ी डाल दी। रामदीन बहुत रोया, गिड़गिड़ाता रहा कि सर चोरी नहीं की, ये कुत्ता आवेश में आकर मुझसे बदला ले रहा है। थोड़ी देर के लिए इसका दिमाग भटक गया था, ये चाहता था कि थोड़ी देर के लिए उसे छोड़ दिया जाय पर मैंने देशभक्ति और जनसेवा को आदर्श मानकर इसको अनुशासन का पाठ सिखाया इसीलिए ये नाराज होकर मुझ पर भौंकने लगा।

साहब ने एक न माना बोला –  कुत्ते ने आपको पकड़ा, आपके चारों ओर चक्कर लगा लगा कर भौंका, इसलिए “अवर डिसीजन इज फाइनल।”

दूसरे दिन अखबार में चोरी के इल्ज़ाम में रामदीन की कुत्ता पकडे़ शानदार तस्वीर छपी थी। अखबार की भविष्यवाणी सही थी….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 47 ☆ व्यंग्य – प्रेम और अर्थशास्त्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘प्रेम और अर्थशास्त्र’।  फ़िल्में देख कर  पैदा हुए सपनों का घर बनाने के लिए घर से भाग कर विवाह करने वाले युवक युवतियों  को जब प्रेम के पीछे छुपे अर्थशास्त्र से रूबरू होना पड़ता है ,तो  उनको डॉ परिहार जी का यह व्यंग्य अर्थशास्त्र के सारे सिद्धांत समझा देता है। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 47 ☆

☆ व्यंग्य – प्रेम और अर्थशास्त्र ☆

हेमलता का प्रेम उस स्टेज में था जिसमें चाँदनी, बरसात की फुहार, नदी का किनारा ही संपूर्ण ज़िन्दगी होते हैं। रोमांस की चूलें हिलना तब शुरू होती हैं जब उसमें राशन-पानी, बनिये का उधार, बच्चों की पढ़ाई प्रवेश करती है। तब तक सब हरा-हरा होता है।

हेमलता बार बार सुधीर से कहती थी, ‘तुम मेरे साथ शादी क्यों नहीं करते?अब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। हम मिलकर सुनहरी जिन्दगी की नींव डालेंगे।’

सुधीर के पाँव ज़मीन पर थे। वह कहता, ‘बाई, तू ठीक कहती है। मैं भी तेरे बिना नहीं रह सकता। लेकिन ज़िन्दगी सुनहरी सोने से होती है।  मैं अभी बेरोज़गार हूँ और बिना रोज़गार के तेरे पिता तेरा हाथ मेरे हाथ में देंगे नहीं। अभी शादी करके मैं तुझे खिलाऊँगा क्या?खाली प्रेम से तो पेट भरने वाला नहीं।’

हेमलता रूठ जाती, कहती, ‘तुम प्रेम के बीच में यह राशन-पानी लाकर सब मज़ा किरकिरा कर देते हो। मेरा प्रेम भूखे पेट ज़िन्दा रह सकता है। तुमने ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म देखी है?उसमें हीरो ने मज़दूरी करके अपने प्रेम को ज़िन्दा रखा था।’

सुधीर माथा ठोककर कहता, ‘बाई, फिल्मों की बातें झूठी होती हैं। उस हीरो ने फिल्मों से बाहर गरीबी देखी भी नहीं होगी। इसके अलावा आजकल जितनी मज़दूरी मिलती है उतने पर प्यार को ज़िन्दा नहीं रखा जा सकता।’

हेमलता शिकायत के स्वर में कहती, ‘तुम बहानेबाज़ हो। शादी न करने के बहाने ढूँढ़ते हो। मुझे प्यार नहीं करते।’

अन्त में प्रेमी ने हथियार फेंक दिये और दोनों ने चुपचाप शादी कर ली।

सुधीर ने एक दोस्त से बीस हज़ार रुपये उधार लिये और एक कमरा किराये पर ले लिया। दोनों के परिवारों ने उनका बायकाट कर दिया।

कुछ दिन खूब रंगीन हवा में तैरते बीते।  घूमना-घामना, सिनेमा देखना, होटल में खाना खाना। फिर ज्यों ज्यों पैसा समाप्ति की तरफ बढ़ने लगा, सुधीर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह दिन भर नौकरी के चक्कर में घूमता।

सिनेमा कम हुआ, सैर-सपाटे सिमट गये,होटल का खाना घट कर नाश्ते पर आ गया, फिर चाय से संतोष होने लगा।

फिर एक दिन घर में दूध आना बन्द हो गया। कारण पता चला तो हेमलता की हालत खराब हो गयी। रुआंसी होकर बोली, ‘चाय के बिना तो मैं मर जाऊँगी।’

सुधीर फिर कहीं से दस हज़ार रुपये लाया। फिर गाड़ी मंथर गति से चली।

एक दिन सुधीर की अनुपस्थिति में मकान-मालिक का कलूटा मुंशी घर में आ गया। तोंद खुजाते हुए बोला, ‘बाई, दो महीने का किराया चढ़ गया है। चुका दो। सेठ बहुत खराब आदमी है, सामान फिंकवा देगा।’

हेमलता की साँस ऊपर चढ़ गयी।

धीरे धीरे घर में कलह शुरू हुई। सुधीर नौकरी के चक्कर में शहर की ख़ाक छानकर आता और अपनी खीझ हेमलता पर उतारता। हेमलता उसे दोष देती। रोना धोना होता। फिर मान-मनौव्वल के बाद सुलह हो जाती। दूसरे दिन फिर वही नोंक-झोंक।

अब सुधीर की हालत देखकर हेमलता को लगता कि नौकरी से पहले शादी करना गलत हो गया। अर्थशास्त्र प्रेम का कचूमर निकालने पर तुल गया था।

इसी तरह रस सूखता रहा। ज़िन्दगी चारदीवारी तक सीमित रह गयी। अकेलापन, सुधीर का इंतज़ार, नमक-दाल की फिक्र। रोमांस पंख लगा कर उड़ गया।

फिर एक दिन सुधीर एक लिफाफा लेकर लौटा। खुशी से बोला, ‘मेरी नौकरी लग गयी। अभी पच्चीस हज़ार मिलेंगे।’

हेमलता खुश होकर बोली, ‘अब तो हमें दिक्कत नहीं रहेगी?’

‘न।’

‘हम सिनेमा देखने जा सकेंगे?’

‘ज़रूर।’

‘घूमने जा सकेंगे?’

‘बिलकुल।’

‘अब मकान-मालिक तो हमें तंग नहीं करेगा?’

‘नहीं।’

‘अब तुम मुझसे लड़ोगे तो नहीं?’

‘नहीं लड़ूँगा।’

खुशी से हेमलता की आँखों में आँसू आ गये। लेकिन लगा कि अर्थशास्त्र उनके रोमांस का कुछ हिस्सा काट ले गया है, जो अब वापस नहीं लौटेगा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 44 ☆ व्यंग्य – बे सिर पैर की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  व्यंग्य  बे सिर पैर की।  श्री विवेक जी ने  इस व्यंग्य का शीर्षक बे सिर पैर की  रखा है किन्तु, इसमें सर भी है और पैर भी है। हाँ , ढूंढना तो आपको ही पड़ेगा। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 44 ☆ 

☆ बे सिर पैर की

बे सिर पैर की बातें मतलब फिजूल बातें, बेमतलब की, निरर्थक बातें. बे सिर पैर की बातें करना भी कोई सरल कार्य नहीं होता. अक्सर शराब के नशे में धुत वे लोग जो दीन दुनियां, घर वार भूल जाते हैं, और जिन्हें केवल बार याद रह जाता है, कुछ पैग लगाकर, बड़े सलीके से  तार्किक बेसिर पैर की बातें करने में निपुण माने जाते हैं. उनके ग्रामोफोन की  सुई जहां अटक जाती है, मजाल है कि नशा उतरते तक कोई उनसे कोई तरीके की बात कर सके.  नेता जी लोगों में  भी बे सिर पैर की बाते करने का यह गुण थोड़ा बहुत पाया ही जाता है. अपनी बे सिर पैर की बातों में उलझाकर वे आपसे अपना मतलब सिद्ध करवा ही लेते हैं. यूं कई कहानीकार भी बे सिर पैर का कथानक बुनने के महारथी होते हैं. टी वी सीरियल्स में सास बहू की ज्यादातर स्क्रिप्ट विज्ञापनों और टी आर पी के बीच इस चकाचौंध और योग्यता से दिखाई जाती हैं कि उस बे सिर पैर की कहानी को एपीसोड दर एपीसोड जितना चाहो उतना बढ़ाया जा सकता है. बे सिर पैर का थाट लेकर ही इन दिनो लोकप्रिय हास्य रियल्टी शो ऐसा मशहूर हो रहा है कि लोग वीक एण्ड की और कपिल की सारे हफ्ते प्रतीक्षा करते हैं.

लेकिन इन दिनो जिस एक बे सिर पैर के वायरस ने सारी दुनियां को कारागार में बदल कर रख दिया है वह है करोना. दुनियां भर में हर कोई अपने घर पर लाकडाउन में रहने को मजबूर है. इस बे सिर पैर के, बेजान, प्रोटीन की खाल में लपटे डी एन ए से सुपर पावर्स तक डरी हुई हैं, पर जिनके दिमागो में धर्मांधता के नशे का खुमार हो वे चाहे मरकज में हो, पाकिस्तान में हों या दुनियां के किसी कोने में हों उन्हें इस करोना से कोई डर नही लग रहा. जिन्हें मानव जीवन के इस संघर्ष काल में भी इकानामी का ग्रोथ रेट दिखता हो, ऐसे सुपर पावर्स के बड़े बड़े हुक्मरान भी इस बेसिर पैर के करोना से  बिना डर इस समय को दुनियां में अपने प्रभुत्व जमाने के मौके के रूप में देख रहे हैं. मेरे जैसे  जो सिरे से, दिमाग से सोचते समझते हैं वे अपने ही बायें हाथ से दाहिने हाथ में सामान लेते हुये डर रहे हैं, और साबुन से हाथ धो रहे हैं. हर व्हाटसएप ऐसे पढ़ रहे हैं,मानो उसमें ही करोना के अंत का ज्ञान छिपा है. आप भी ऐसा ही एक व्हाट्सेपी मैसेज पढ़िये.

मार्च की आखिरी तारीख को एक तांत्रिक एक होटल में गया और  मैनेजर के पास जाकर बोला क्या रूम नंबर १३ खाली है?

मैनेजर ने उत्तर दिया हां, खाली है, आप वो रूम ले सकते हैं.तांत्रिक ने कमरा ले लिया और कमरे में जाते हुये मैनेजर से बोला  मुझे एक चाकू, एक काले  धागे की रील और एक पका हुआ संतरा कमरे में भिजवा दो. मैनेजर ने उत्तर दिया ठीक है, और कहा कि हां, मेरा कमरा आपके कमरे के ठीक सामने ही है,अगर आपको कोई दिक्कत हो तो आप मुझे आवाज दे सकते हैं. तांत्रिक बोला ठीक है,और वह कमरे में चला गया.आधी रात को तांत्रिक के कमरे से तेज चीखने चिल्लाने की और प्लेटो के टूटने की आवाज आने लगती है, इन आवाजों के कारण मैनेजर सो भी नही पाता और वो रात भर इस ख्याल से बैचेन रहता है कि आखिर उस कमरे में हो क्या रहा है? अगली सुबह जैसे ही मैनेजर तांत्रिक के कमरे में गया  उसे पता चला कि तांत्रिक होटल से चला गया है और कमरे में सब कुछ ठीक है, टेबल पर चाकू रखा हुआ है, मैनेजर ने सोचा कि जो उसने रात में सुना कहीं उसका मात्र वहम तो नही था. बात कहते एक साल बीत गया..एक साल बाद..मार्च की आखिरी तारीख को वही तांत्रिक फिर से उसी होटल में आया और रूम नंबर १३ के बारे में पूछा ? मैनेजर:- हां, रूम नम्बर १३ खाली है आप उसे ले सकते हैं,तांत्रिक :- ठीक है, मुझे एक चाकू, एक काले  धागे की रील और एक पका हुआ संतरा चाहिए होगा. मैनेजर:- जी, ठीक है.उस रात  मैनेजर सोया नही, वो जानना चाहता था कि आखिर रात में उस कमरे में होता क्या है? ज्यादा रात नही हुई थी तभी वही आवाजें फिर से आनी चालू हो गई और मैनेजर तेजी से तांत्रिक के कमरे के पास गया, चूंकि उसका और तांत्रिक का कमरा आमने-सामने था, इस लिए वहाँ पहुचने में उसे ज्यादा समय नही लगा. लेकिन दरवाजा लॉक था, यहाँ तक कि मैनेजर की वो मास्टर चाबी जिससे हर रूम खुल जाता था, वो भी उस रूम १३ में काम नही कर रही थी.

आवाजो से मैनेजर का सिर फटा जा रहा था, आखिर दरवाजा खुलने के इंतजार में वो दरवाजे के पास ही सो गया.अगली सुबह जब मैनेजर उठा तो उसने देखा कि कमरा खुला पड़ा है लेकिन तांत्रिक वहां नही है. वो जल्दी से मेन गेट की तरफ भागा, लेकिन दरबान ने बताया कि उसके आने से चंद मिनट पहले ही तांत्रिक जा चुका था. मैनेजर कसमसा कर रह गया, उसने निश्चय कर लिया कि  वो पता करके ही रहेगा कि आखिर ये तांत्रिक और रूम १३ का राज क्या है. मैनेजर हमेशा चौकस रहने लगा,जहां चाह वहां राह, आखिर एक दिन बाजार में मैनेजर को तांत्रिक दिख ही गया, वह भागता हुआ उसके पास पहुंचा. उसने तांत्रक से पूछा कि आखिर तुम रात को काले धागे, संतरे और चाकू से करते क्या हो?  चीखने की आवाजें कहां से आती हैं ? बताओ.?तांत्रिक ने कहा मैं तुम्हे ये राज बता दूंगा लेकिन अगले साल और शर्त यह है कि तुम ये राज किसी और को नही बताओगे. मैनेजर मान गया. पर इस साल लॉक डाउन के कारण तांत्रिक आ ही नही सका. अब मैनेजर को अगले मार्च की आखिरी तारीख का इंतजार है. लगता है तब तक इस बे सिर पैर की कहानी के राज  सुनने के लिए हम सबको सजग रहना होगा, सुरक्षित रहना होगा. परमात्मा करे कि हमारे वैज्ञानिक उससे बहुत पहले ही  बे सिर पैर के इस करोना वायरस का अंत कर दें वैक्सीन बनाकर.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ चप्पल का आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक समसामयिक सटीक  व्यंग्य  “चप्पल का आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से अपनी  मौलिक शैली में  न  रच डालते हों ।  इस व्यंग्य  पर मैं कुछ लिखूं यह मेरी क्षमता के बाहर है, किन्तु आपसे अवश्य अनुरोध है कि यदि आपने यह नहीं पढ़ा और इस पर लिखने को बाध्य नहीं हुए तो यह अवश्य ही विडम्बना होगी। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – चप्पल का आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ

नातिन को कहानी सुना रहा हूँ.

एक थी सिंड्रेला. अपनी सौतेली माँ की ज्यादतियों से दुखी रहती थी. एक दिन एक परी आई. उसने जादू से सिंड्रेला को सजा-धजा कर तैयार कर दिया और जादुई रथ से उसे राजमहल की दावत में भेज दिया. लौटते में सिंड्रेला का एक सेंडल महल में ही छूट गया. राजकुमार ने छूटे हुवे सेंडल के सहारे उसे ढूंढवाया. सैनिकों ने उसे ढूंढ कर राजकुमार के सामने हाज़िर किया. राजकुमार ने उससे शादी करके उसे रानी बना लिया.

‘लेकिन नानू, पाँव में सेंडल के बिना वो चली कैसे?’ जिन घरों में होती हैं बाथरूम, किचन और लॉन में जाने के अलग अलग चप्पलें, उन घरों के अबोध बच्चे पूछ ही लेते हैं ऐसे परेशान करनेवाले सवाल. पूछते पूछते नींद लग गयी है उसकी. न्यूज चैनल अब भी दिखा रहा है नंगे पाँव, पैदल घर-गाँव को जाती हुई अभागी लड़की. कहें कि अपन के देश की सिंड्रेला. सिस्टम के सौतेलेपन की मार हर तरफ से झेलती हुई. लॉकडाउन के शिकार, बेबस, लाचार बाबा के साथ निकली है.

फटी फटी सी फ्रॉक, रूखे-सूखे बिखरे बाल, जूओं की काट से सिर खुजाती, मैल की परत सी जमी है हाथ पाँव पर, गीजे आँखों में, पपड़ियाये होंठ, आंसुओं की धार से बनी लकीर गालों पर पढ़ी जा सकती है. सुबह से दो बार पिट चुकी है. वो रोटी जो सूख कर टोस्टनुमा कड़क हो चुकी है वही मांग रही है. बाबा कह रहे हैं कि ख़त्म हो गयी है तो भी जिद पाले बैठी है. सिस्टम ने चहेती संतानों को बाय-एयर एवेक्युएट करा लिया है. और, सौतेली सिंड्रेला ? तीन दिन से चल ही रही है. कभी किसी ट्रक वाले ने बैठा लिया तो कभी किसी टैंकर के उपर. थोड़ी-थोड़ी देर बाबा के कंधे पर, ज्यादातर तो बस पैदल ही. रबर की चप्पल थी पाँव में, टूट गयी है. अब सड़क और पगतलियों के बीच फूटे छालों से एक परत सी बन गई है. दर्द आदत बनता जा रहा है. छाले में घुस आता है कंकर, चीख निकल आती है. बाबा हाथ खींच खींच कर चलाते ही जा रहे हैं. पैर के छालों पर भारी जिजीविषा. मोटर दिखती है तो दौड़ा के ले जाते हैं बाबा उस ओर. मोटर है कि रुकती नहीं. दौड़ते दौड़ते गिर जाता है बाबा के सर से गिरस्ती का पोटला.

ओ परी, क्या तुम भूल गयी हो अपनी सिंड्रेला को ? तुम आज उतरतीं आकाश से और पूछतीं – ‘सिंड्रेला, मेरी बच्ची, क्या चाहिए तुम्हें?’ कहती – ‘टूटी चप्पल में दो बिरंजी ठोक दे कोई या टांका भर लगा दे’. न डिझाईनर गाउन, न ओरिओ विद फ्रूटपंच केक, न लूडो किंग या सब-वे सर्फ़र खेलने के लिये स्मार्टफोन, न मोटू पतलू से निंजा हथौड़ी के कार्टून तक का किड्स पैक. उसे न राजकुमार चाहिये न भूला हुआ वो सैंडल जिसने राजशाही के दौर में तकदीर बदल कर रख दी थी. तकदीर में पहनने लायक चप्पल हो जाये बस इतना पर्याप्त है. छोटी छोटी आँखें, उससे भी छोटे सपने.

ओ परी, तुम एक बार आ क्यों नहीं जाती मदद को. देखो सिंड्रेला चलते चलते बीच सड़क में आ जाती है. ऑडी-शेवरले के मालिकों की गालियां खाकर फिर सड़क के बांयीं ओर हो जाती है. मौत चुनना न उसके हाथ में है न उसके बाबा के. वो कैसे भी मर सकते हैं एक्सीडेंट से, भूख से, या यूं ही लगातार चलते चलते. मरने से पहले तक घर-गाँव में कम से कम नमक रोटी तो मिल जायेगी, सो चल रहे हैं बाप-बेटी. सिस्टम उन्हें कोरोना से मरने नहीं देगा. कोरोना से मरेंगे तो कहेंगे मरने को मर गये, दस को और इन्फेक्ट कर गये. सो चल रहे हैं बांयी तरफ, लेफ्ट राईट की बहस से असम्पृक्त, किसी तरह जिन्दा रहने के अलावा किसी और आईडियोलॉजी के बारे में जानते भी नहीं.

चलते चलते अब बाबा भी थक कर बैठ गये हैं जमीन पर. आकाश की ओर तक रही है सिंड्रेला. चप्पल आकाश कुसुम और सिंड्रेला के नन्हें हाथ. कितनी परियां विचर रही हैं आकाश में. परियां पीडीएस की, नरेगा की, जन-धन की, डीबीटी की, नीति आयोग की, एनजीओ की, यूनिसेफ की, डब्ल्यूएचओ की, लिबरलाइजेशन की, ग्लोबलाइजेशन की. कितनी सारी परियां मगर सिंड्रेला के लिये कोई नीचे उतर नहीं रहीं. उतरेगी भी तो सिंड्रेला तक पहुंचेगी ? पता नहीं.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43 ☆माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  एक समसामयिक और काफी कुछ कहती एक माइक्रो व्यंग्य   “आ गले लग जा” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43

☆ माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ 

विनीत टाकीज में ‘आ गले लग जा’ फिल्म देखकर बाहर निकले थे तो दस पैसे में “आ गले लग जा” के गाने लिए थे। गाने का गुटका बेचने वाला चिल्ला चिल्ला कर परेशान हो रहा था कि ‘दस पैसे में आ गले लग जा “पर कोई इतने सस्ते में गले लगने तैयार नहीं हुआ था। पर हाय री दुनिया…….. गजब हो गया एक जमाने में गले लग जाने से करोड़ों के वारे न्यारे हो जाते हैं। संसद हाल में एक क्लीनसेव एक दाढ़ी वाले से तपाक से गले मिले थे तो सबको खूब मज़ा आया था। अब देखो कोरोना की कारस्तानी कि इंसान को इंसान से गले मिलने पर जान लेने पर उतारू हो जाता है। इस प्रकार हाथ मिलाने और गले मिलने की परम्परा खतम कर दी इस निर्जीव वायरस ने।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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