हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 8 ☆ व्यंग्य – कई पेंच हैं फ्लॉयड की…. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “कई पेंच हैं फ्लॉयड की….।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 8 ☆

☆ व्यंग्य – कई पेंच हैं फ्लॉयड की….

मिनिसोटा, अमेरिका से एक काल्पनिक रपट:

“गवर्नर टिम वॉल्ज ने मरहूम जार्ज फ्लॉयड के घर पर उनकी पत्नी और बेटी से मुलाकात की. उन्होंने मृतक की विधवा को पचास हजार डॉलर की सहायता, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने और फ्लॉयड पर जो क़र्ज़ था उसे माफ़ करने की घोषणा की है. उन्होंने कहा कि घटना की मजिस्ट्रियल जांच के आदेश दे दिये गये हैं. पुलिस अधिकारी डैरेक शॉविन को हिरासत में लेकर हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया है. तीन अन्य पुलिस अधिकारियों को पुलिस मुख्यालय में अटैच किया गया है. उन्होंने दोषियों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही करने का भी आश्वासन दिया है.

उधर अमेरिकी राष्ट्रपति, जो रिपब्लिकन पार्टी से आते हैं, ने बढ़ते विरोध प्रदर्शन को देखते हुये मामले की जांच एफबीआई को सौंप दी है, जिसने प्राथमिक जांच शुरू भी कर दी है. जांच दल की टीम के एक सदस्य ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा है कि फ्लॉयड के अर्बन …… होने के सबूत मिले हैं. उसकी हत्या …… की आपसी रंजिश का नतीज़ा भी हो सकती है. उसके कम्पयूटर में ……वादी साहित्य मिला है. एजेंसी अब फ्लॉयड के संपर्कों को खंगाल रही है. हम उसके तार टुकड़े टुकड़े गैंग से जुड़े होने की संभावना पर भी काम कर रहे हैं. फ्लॉयड जिस एनजीओ से जुड़ा था उसके लेनदेन की भी जांच की जा रही है. अगर इस बारे में और सबूत मिले तो फ्लॉयड की पत्नी की गिरफ्तारी संभव है.

घटना में एक नया मोड़ तब आया जब पार्टी के अन्दरखाने कुछ नेताओं ने टिम वॉल्ज को ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की.  आपको बता दें कि फ्लॉयड डेमोक्रेटिक पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता और चुनाव जीतने तक वॉल्ज का नज़दीकी था. सम्मानजनक पद नहीं मिलने के कारण कुछ समय से नाराज़ चल रहा था. राज्य के कुछ  डेमोक्रेट्स फ्लॉयड के परिवार को न्याय दिलाने की आड़ में ट्वीट्स करके टिम वॉल्ज पर निशाना साध रहे हैं.

इस बीच शॉविन के परिवार ने वीडियो की फोरेंसिक जांच की मांग की है. शॉविन के वकील ने कहा है वो वीडियो डॉक्टर्ड है जिसमें उनके मुवक्किल घुटने से फ्लॉयड की गर्दन को दबाये हुये दिखाई पड़ रहे हैं. शॉविन लम्बे समय से ‘नी-लॉक’ की बीमारी से ग्रस्त हैं, वे घुटना मोड़ नहीं सकते. उन्हें राजनीतिक कारणों से बलि का बकरा बनाया जा रहा है. शॉविन के परिवार ने पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट में छेड़छाड़ का आरोप भी लगाया है. जबकि मानवाधिकार कार्यकर्ता और फ्लॉयड के वकील बेंजामिन क्रंप ने शॉविन पर फर्स्ट डिग्री यातना का अभियोग चलाने की मांग की है. इस पर ट्रोल्स ने क्रंप को देशद्रोही कहना शुरु कर दिया है. वे कहते हैं मानवाधिकार तो पुलिस के भी होते हैं, एक्टिविस्ट उनकी बात क्यों नहीं उठाते ?

जहाँ एक ओर फ्लॉयड की हत्या पर देश में उबाल है वहीं इस पर जातिगत राजनीति भी शुरू हो गयी है. एक वर्ग विशेष फ्लॉयड को दलित बता रहा है तो कुछ लोग उसके दलित होने पर ही संदेह व्यक्त कर रहे हैं. घटना पर सोशल मीडिया में ट्रोल्स सक्रिय हो गये हैं. ट्रोल्स ने पुलिस से कहा है कि उन्हें घुटने के बल बैठकर माफ़ी मांगने की बजाये प्रदर्शनकारियों के घुटने तोड़ देने चाहिये. कुछ ने पुलिस को ऐसे मामले में सार्वजानिक रूप से हत्या करने की बजाये चुपचाप एनकाउंटर में निपटा देने के सुझाव दिये हैं. ट्रोल्स ने प्रदर्शनकारियों पर यूएपीए लगाने की मांग कर डाली है. ‘आई कांट ब्रीद’  पर एक ट्रोल ने लिखा है – ‘इनको पड़ोस के देश भेज देना चाहिये. देयर ही केन ब्रीद कार्बन-डाई-ऑक्साईड. इस देश का खाते हैं, यहाँ रहते हैं और कहते हैं यहाँ ब्रीद नहीं कर पा रहे, शेम.’ एक मीम में गब्बरसिंह की ड्रेस में शॉविन कह रहे हैं – ‘फ्लॉयड ये सांस मुझे दे दे’. हैश टैग ‘सेव शॉविन’ जमकर ट्रेंड हो रहा है.

बहरहाल, कई पेंच हैं फ्लॉयड की हत्या में, लेकिन इतना अवश्य है कि इस पूरे प्रकरण में अमेरिका की छबि खराब होती नज़र आ रही है. कहा जा रहा है कि जिनकी पुलिस से एक आम नागरिक की हत्या नहीं संभाली जाती वे काहे के लोकतान्त्रिक और काहे के विकसित देश. अमेरिकी प्रशासन को भारत आकर प्रशिक्षण लेने की जरूरत है.”

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 55 ☆ व्यंग्य – फिर प्रभु के दरबार में ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक समसामयिक व्यंग्य  ‘फिर प्रभु के दरबार में’ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 55 ☆

☆ व्यंग्य – फिर प्रभु के दरबार में ☆

हिम्मत भाई अखबार देखकर खुश हुए, बोले, ‘अच्छी खबर है। मन्दिर खुल गये। कल जाएंगे। ‘

पत्नी चिन्तित स्वर में बोली, ‘भीड़भाड़ में मत फँसना। ‘

हिम्मत भाई ने जवाब दिया, ‘सरकार ने नियम बना दिये हैं। छः फुट की दूरी रखना है,मास्क लगाना है, प्रसाद चढ़ाना या लेना नहीं है, घंटा नहीं बजाना है, भजन-कीर्तन मन में ही करना है। ‘

पत्नी बोली, ‘अभी बेकारी और भुखमरी फैली है। जूते चोरी करवाके मत आ जाना। ‘

हिम्मत भाई बोले, ‘अपने पुराने सिस्टम से चलेंगे, एक जूता इस छोर पर और दूसरा उस छोर पर। ढूँढ़ते रह जाओगे। ‘

दूसरे दिन हिम्मत भाई मन्दिर जाने को तैयार हुए,लेकिन तैयार होते होते रुक जाते थे,जैसे किसी दुविधा में हों। अचानक पत्नी से बोले, ‘जाने में झिझक हो रही है। ढाई महीने बाद भगवान को सूरत दिखाऊँगा। कहीं नाराज़ न हो गये हों। ज़रा सी मुसीबत आयी और हम भगवान को छोड़कर भाग खड़े हुए। ‘

पत्नी ने समझाया, ‘डर की कोई बात नहीं है। भगवान अन्तर्यामी हैं, करुणानिधान हैं। वे हमारी मजबूरी समझते हैं। ‘

हिम्मत भाई मन्दिर पहुँचे। वहाँ सब इन्तज़ाम चौकस था। बाहर दीवारों पर छिड़काव हो रहा था। भक्तों के लिए भीतर बाहर गोले बने थे। हाथ-पांव धोने के लिए इन्तज़ाम था। बार बार घोषणा हो रही थी कि एक बार में दस से ज़्यादा आदमियों का प्रवेश नहीं होगा, और भीतर पाँच मिनट से ज़्यादा नहीं रुकना है। यह भी कि पैंसठ से ऊपर के भक्त घर पर ही सुमिरन करें।

बाहर एक बुज़ुर्ग हाथ झटक झटक कर कुछ शिकायत कर रहे थे। कह रहे थे, ‘पैंसठ से ऊपर वालों को भगवान के दर्शन की रोक क्यों? भगवान के पास तो सबसे पहले उन्हीं को जाना है, फिर उन्हें रोकने से क्या फायदा? फिर यह भगवान की टैरिटरी है, यहाँ दुनिया भर की बन्दिशें लगाने का क्या मतलब? यहाँ तो भगवान की मर्जी के बिना परिन्दा भी पर नहीं मार सकता, वायरस की क्या मजाल? अभी तक भगवान आदमी की रक्षा करते थे, अब क्या हम भगवान के रक्षक बनेंगे?’

हिम्मत भाई लाइन में लग गये, लेकिन अभी भी चिन्तित थे। भगवान को कैसे मुँह दिखाएंगे? सोचते सोचते, धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे। उनकी गति देखकर मन्दिर का एक कर्मचारी चिल्लाया, ‘जल्दी आगे बढ़ो, भगत जी। कछुआ चाल मत चलो। ‘

हिम्मत भाई खिसकते खिसकते अन्दर मूर्ति के सामने पहुँच गये। थोड़ी देर आँखें झुकाये, मौन खड़े रहे, फिर हाथ जोड़कर बोले, ‘प्रभु,गलती माफ कर देना। ढाई महीने बाद हाज़िर हुआ हूँ। हम क्या करते, आपके पट ही बन्द हो गये थे। ‘

फिर बोले, ‘प्रभु, हम मनुष्य ऐसे ही हैं। वैसे तो आपको भजते थकते नहीं हैं, लेकिन संकट बड़ा होते ही हमारा भरोसा डगमगाने लगता है। फिर डाक्टर और अस्पताल की तरफ भागते हैं। अब बताइए, आपसे बड़ा डाक्टर कौन होगाऔर आपसे बेहतर दवा कहाँ मिलेगी?मुझे लगता है कि आपके मन्दिर के पट बन्द होना ठीक नहीं हुआ। ‘

हिम्मत भाई थोड़ा रुककर बोले, ‘प्रभु, मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार आपकी तरफ से होने वाले कुछ काम बन्द होने से आदमी का भटकाव बढ़ा है। पहला यह कि पहले आपके लोक से आकाशवाणी होती थी जिससे आपके ज़रूरी निर्देश मिल जाते थे। वह पूरी तरह बन्द हो जाने से आपसे संवाद नहीं होता। अब लोग रेडियो वाणी को ही आकाशवाणी मानते हैं। दूसरे, आपने हमारी धरती पर चमत्कार करना बन्द कर दिया है।  हम चमत्कार-प्रेमी लोग हैं। थोड़े बहुत चमत्कार होते रहें तो आपमें हमारी आस्था मज़बूत होती रहेगी। अभी ढोंगी लोग आपके नाम पर चमत्कार कर रहे हैं और अपनी जेबें भर रहे हैं। आकाशवाणी शुरू होने का एक फायदा यह होगा कि धरती पर जो अपने को भगवान समझते हैं वे कंट्रोल में रहेंगे। इसलिए ये दोनों काम जल्दी शुरू हो जाएं तो आदमी की बुद्धि भ्रमित नहीं होगी। ‘

इतना कह कर, एक बार फिर अपनी गलती की क्षमा माँगकर हिम्मत भाई मन्दिर से बाहर हो गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 57 ☆ व्यंग्य – न देखो टूटा हुआ लाकडाउन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर समसामयिक व्यंग्य   “न देखो टूटा हुआ लाकडाउन ।  श्री विवेक जी ने  गंभीर  प्रवृत्ति एवं अनुशासित पीढ़ी की  मानसिक पीड़ा का बयां अत्यंत सुंदरता से किये है। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 57 ☆ 

☆ व्यंग्य –  न देखो टूटा हुआ लाकडाउन ☆

स्थितियो को यथावत स्वीकार कर लेने का सुख ही अलग होता है. जिसने भी समर्पण भाव से यथा स्थिति को स्वीकार कर लिया, उसके सारे तनाव उसी पल स्वतः समाप्त हो जाते हैं . जब तक स्वीकारोक्ति नही होती तब तक संघर्ष होता है. थानेदार मार पीट कर अपराधी को स्वीकारोक्ति के लिये मजबूर करता रहता है. जैसे ही अपराधी स्वीकारोक्ति करता है, उसके सरकारी गवाह बनने के चांसेज शुरू हो जाते हैं.

पत्नी से तर्क करके भी कोई जीता है ? पत्नी को स्वीकार कर लीजीये फिर देखिये गृहस्थी की गाड़ी कितनी सुगमता से चलती है.

भगवान के सम्मुख भक्त की स्वीकारोक्ति और समर्पण के बाद भक्त और भगवान के बीच शरणागति का सिद्धांत लागू हो जाता है. भगवान कभी भी शरणागत को निराश नही करते. शरणागत वत्सल भगवान समर्पित भक्त की रक्षा के लिये सदैव तत्पर रहते हैं. विभीषण ने स्वयं को  भगवान राम की शरण में समर्पित कर दिया  तो श्री राम ने न केवल उसकी रक्षा की वरन उसे लंका का अधिपति ही बना दिया.

नेता जी हर अच्छी बुरी घटना को यथावत न केवल स्वीकार कर लेते हैं बल्कि उसमें से कुछ अच्छा ढ़ूंढ़ निकालने के गुण जानते हैं.टूटा हुआ लाकडाउन हम जैसे उन विमूढ़ लोगों को ही दिखता है, जो केवल टी वी देखते हैं. हमें लगता है कि लाकडाउन वन में ही कोरोना का निवारण हो गया होता यदि सबने हमारी ही तरह पूरे प्राणपन से लाकडाउन का पालन किया होता. किन्तु नेता जी लाकडाउन पांच के बाद भी जनता की प्रशंसा करते नही अघाते. उन्हें स्थितियो को स्वीकार करने की कला आती है. उन्होने आंकड़े ढ़ूंढ़ निकाले हैं, जिनके जरिये वे देश को दुनियां से बेहतर सिद्ध कर देते हैं. वे जनता की प्रशंसा करते हुये कहते हैं कि जनता ने लाकडाउन का पूरी तन्मयता से परिपालन किया. नेता जी की इस स्वीकारोक्ति से जनता खुश हो जाती है, नेता जी को तनाव नही होता. आज नही तो कल इस तरह या उस तरह कोरोना तो निपट ही जायेगा. गलतियां गिनाने से क्या होगा ? जब जिसे जो बेस्ट लगा उसने वह किया, जिसके लिये नेता जी सबकी पीठ थपथपा कर लोगों का मन जीत लेते हैं. उन्हें आगे की लड़ाई का हौसला देते हैं. जिसे वैक्सीन बनाने में रुचि हो वह अपनी कोशिश करे. जिसे जन सेवा करती तस्वीरें खिंचवानी हो वह वैसा कुछ करता रहे. जिसे घपले में रुचि हो वह ठेलम ठेल के इस माहौल में अपनी रुचि के अनुरूप काम कर डाले.

व्यर्थ ही अपना ज्ञान बांटकर, तर्क वितर्क कर, कुढ़ने वाले मुट्ठी भर लोगों की परवाह छोड़ दें तो बहुमत कोरोना से भी समझौता करने वालो का ही है. जब परिस्थिति अपने वश में ही न हो तो उससे जूझ कर तनाव लेने की अपेक्षा उस स्थिति के मजे लेने में ही भलाई है. तो इस कोरोना काल में सकारात्मकता ढ़ूंढ़कर स्थिति को स्वीकार कर लीजीये, योग कीजीये कोरोना से बचिये और प्रसन्न रहिये.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 23 ☆ बहानेबाजी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बहानेबाजी ।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 23 ☆

☆ बहानेबाजी  

बहाना बनाने का गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बड़ी कुशलता के साथ हस्तांतरित होता चला आ रहा । झूठ व मक्कारी दोनों ही  इसके परममित्र हैं । पर कोरोना ने इस पर भी वार कर इसे चारो खाने चित्त कर दिया है । अब आप सोच रहे होंगे कि ये भी भला कोई चिंतन का मुद्दा है , सो जाग जाइये साहब आज की सबसे बड़ी समस्या यही है । जो भी लोग  या कार्य हमें पसन्द नहीं आता था वहाँ हम बड़े चातुर्य के साथ सफेद झूठ बोल देते थे । पर अब क्या करेंगे….?

कोरोना के चलते एक  बड़ा नुकसान हुआ है कि अब पुराने झूठ नहीं चल पा रहे हैं । पहले अक्सर ही लोग कह देते थे , घर पर नहीं  हैं , अब तो सभी को घर पर ही रहना है। साहब कहाँ गए हैं ,इसका उत्तर भी सोच समझकर ही दिया जा सकता है क्योंकि बहुत से कन्टेनमेंट एरिया हैं जहाँ जाना प्रतिबंधित है ।

बच्चों की भी ऑन लाइन पढ़ाई शुरू हो चुकी है सो उन्हें भी अब समय पर उठना होगा । पहले तो पेटदर्द का बहाना चल जाता था पर अब कोई सुनवाई नहीं । नींद पूरी हो या न हो , तबियत ठीक हो या न हो पढ़ना तो पड़ेगा , ऐसा आदेश माताश्री ने पास कर दिया है ।

बस अब कोई बचा सकता है तो वो है नेटवर्क न मिलने का बहाना, पढ़ाई वाला नया एप ठीक से कार्य नहीं कर रहा या क्लास अटेंड कर फिर गोल मार देना । ये सब बहाने जोर -शोर से चल रहे हैं । मोबाइल या लैपटॉप तो हाथ में है ही,  बस जो जी आये देखिए । न कोई चुगली करेगा , न टीचर कॉपी चेक करेगी । बस मम्मी का ही डर है ,जो धड़धड़ाते हुए किसी भी समय चेकिंग करने आ धमकती हैं ।

इस समय एक समस्या और जोर पकड़ रही है कि पहले अक्सर ही बीबी से कह देता था कि आज ऑफिस में ज्यादा काम है देर से आऊँगा पर अब तो समय से पहले ही घर आना पड़ता है क्योंकि नियत समय के बाद कर्फ़्यू लग जाता है । पहले  दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाते रहो कोई रोकने -टोकने वाला नहीं था पर अब तो कोरोना के डर से वे भी कोई न कोई बहानेबाजी कर देते हैं ।

सदैव की तरह सिर दर्द है , मूड ठीक नहीं है , डिप्रेशन है, काम में मन नहीं लग रहा, ये बहाने आज भी उपयोगी बने हुए हैं । खैर वो कहते हैं न कि एक रास्ता बंद हो तो हजारों रास्ते खुलते हैं । इसलिए चिंता की कोई बात नहीं मनुष्य बहुत चिंतनशील प्राणी है ; अवश्य ही कोई न कोई नए झूठों का अविष्कार कर लेगा । कहा भी गया है आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 56 ☆ व्यंग्य – नया भारत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “ नया भारत ।  यह बिलकुल सच है कि मार्केटिंग ने न केवल फ़ास्ट मूविंग कंस्यूमर गुड्स  अपितु हमारे जीवन में भी अहम् भूमिका निभा रहे हैं। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 56 ☆ 

☆ व्यंग्य –  नया भारत ☆

मार्केटिंग का फंडा है जब किसी ब्रांड नेम की वैल्यू कुछ कम लगने लगे तो उसका नया अवतार प्रस्तुत करके लोकप्रियता बरकरार रखी जाती है. इसके लिये स्पार्कलिंग कलर्स में पैकेजिंग बदली जाती है, नये स्लोगन और टैग लाईन दी जाती है. हिन्दी में पढ़े उपसर्ग व प्रत्यय का भी समुचित उपयोग करके ब्रांड वैल्यू की रक्षा की जाती है.  नाम के आगे “नया ” उपसर्ग लगा देने से सब कुछ नया नया सा हो जाता है. लोग पुराने की कमियां भूल जाते हैं, और नये के स्वप्न में खो जाते हैं. इस तरह लकड़ी की हांडी बारम्बार चढ़ाई जा सकती  है. निजी क्षेत्र में तो एम बी ए पास युवा अपने इसी हुनर की मोटी तनख्वाहें पाते हैं. पूरे विश्वास से प्रोडक्ट बिना बदले ” भरोसा वही, पैकिंग नई ” का स्लोगन प्राईम टाईम पर विज्ञापन बाला बोलती है और सेल्स के आंकड़े बढ़ने लगते हैं, क्योकि जो दिखता है वही तो बिकता है. एक संस्थान का नाम उसके लोगो पर केपिटल लैटर्स में लिखा जाता था, फंड मैनेजर की  नीयत में कुछ खोट आ गई, घोटाले का क्या है,हो गया. जांच वगैरह बिठा दी गईं, पर संस्थान तो नहीं बिठाया जा सकता था, लोगो बदल दिया गया, कैपिटल लैटर्स की जगह स्माल लैटर्स में संस्था का नया नाम लिख दिया गया. फंड फिर चल निकला. आखिर हर साल इस देश में करोड़ो की आबादी बढ़  रही है, पुरानो को न सही नयो को तो नये से परिचित करवाया ही जा सकता है. फ़ास्ट मूविंग कंस्यूमर गुड्स  में एक नही अनेक प्रोडक्ट हैं,जो कभी गुणवत्ता में कम ज्यादा निकल आते हैं, कभी किसी मिलावट  के शिकार हो जाते हैं, कभी कोई कीटाणु निकल आता है पैक्ड बोटल में पर मजाल है कि सेल्स के फिगर गिर जायें, लोगो की स्मृति कमजोर होती है, विज्ञापन की ताकत और नाम के आगे “न्यू” का प्रिफिक्स बेड़ा पार करवा ही देता है. एक टुथपेस्ट के सेल्स फिगर गिरे तो उसने प्रोडक्ट में नमक, तुलसी, बबूल, जाने क्या क्या मिलाकर एक के अनेक उत्पाद ही परोस दिये. खरीदो जो पसंद आये पर खरीदो हमसे ही.

देश के मामले भी तकनीकी मनोविज्ञान के सहारे मैनेज किये जाते हैं. अभी तक गरीबी हटाओ के नारो को, अच्छे दिनों के सपनो को, सुनहरे कल के सफर के तिलिस्म को, बेहतरी के लिये बदलाव को अखबारो के फुल पेज विज्ञापनो के सहारे वोटो में तब्दील करने के ढ़ेरो प्रयोग कईयो ने कई कई बार किये हैं. पर अब कुछ बेहतर की जरूरत लग रही है. इसलिये नामुमकिन से ना हटा दिया गया है. वहां से न लेकर या में मिलाकर,  “नया” उपसर्ग जुड़ा ताकतवर  रत पूरे भरोसे और श्रद्धा  के साथ प्रस्तुत है. मेरी कामना है कि सचमुच ही मेरा भारत  दिखने में स्मार्ट, व्यवहार में गंभीर, ताकत में फौलादी  नया भारत हो जावे, तो फिर किसी को विज्ञापन में बोलना न पड़े काम खुद ही बोले आरोप लगाने से पहले आरोप लगाने वाला सौ दफा सोचे..

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 52 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – व्यंग्य का सौदागर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 52

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – – – – व्यंग्य का सौदागर  ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

बहुत पहले आपने कहीं कहा था कि ” मैं व्यंग्य का सौदागर हूं”  यह बात आपने किस संदर्भ में एवं किस आशय से कही थी ?
हरिशंकर परसाई-
यह निर्विवाद था, मैंने सरकारी नौकरी छोड़ी और पूरी तरह से अपना समय लेखन को दिया और स्वतंत्र लेखक हो गया।मेरी जीविका लेखन से चलती थी, मैं लिखता रहा हूं व्यंग्य।तब तो और भी लिखता था इसलिए मैंने कहा कि व्यंग्य जो है मेरा रोज़गार है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
अनेक महत्वपूर्ण आलोचकों के मतानुसार व्यंग्य किसी भी भाषा, समाज या समय के श्रेष्ठ लेखन का अनिवार्य गुण है जबकि एक वर्ग ऐसे लोगों का भी है जिनका मानना है कि चूंकि व्यंग्य लेखन में जीवन की संपूर्णता में चित्रित करने की क्षमता नहीं होती अत: श्रेष्ठतम व्यंग्य लेखन भी महान साहित्य की श्रेणी में परिगणित नहीं हो सकता। इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे ?
हरिशंकर परसाई –
सम्पूर्ण जीवन से क्या अर्थ है, सम्पूर्ण सामाजिक जीवन तो किसी महाकाव्य या किसी एक उपन्यास तक में भी नहीं आ सकता है। कई उपन्यास हों तो शायद आ भी जावे या भी पूरा न आ पाये। जीवनी उपन्यास हो तो किसी एक व्यक्ति के जीवन, नायक के जीवन का सम्पूर्ण चित्र आ जाता है। मैंने जो व्यंग्य लिखे हैं सिलसिलेवार नहीं, खण्ड खण्ड लिखा है, निबंध, कहानी, लघु उपन्यास, कालम इत्यादि और इन सब में समाज का एक तरह से सर्वेक्षण हो गया है, एक पूरे समाज का सर्वेक्षण कर लेना भी मेरा ख्याल है कि उस समाज को एक टोटलिटी में संपूर्णता से व्यंग्य के द्वारा चित्रित करना ही है, जैसे रवीन्द्रनाथ ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा लेकिन उनकी फुटकर कविताओं में लगभग वह सभी आ गया जो किसी एक महाकाव्य में आता है, ऐसा मेरा ख्याल है और ऐसा ही मेरे लेखन में है। तो ये दावा तो नहीं कर सकता, दास्ताएवस्की कर सकते हैं न बालजाक कर सकते हैं कि उनकी रचना में संपूर्ण जीवन आ गया है पर बहुत अधिक अंशों तक आ गया है। ये हम मान लेते हैं। मैंने सम्पूर्ण जीवन में लिखने के लिए कोई उपन्यास दो-चार – छह नहीं लिखे। मैंने खण्ड – खण्ड में जीवन को जहां जैसा देखा, उसको वैसा चित्रित किया,उस पर वैसा व्यंग्य किया। अब कालम के द्वारा समसामयिक घटनाओं पर वैसा कर रहा हूं। इस प्रकार समाज का पूरा सर्वेक्षण मेरे लेखन में आ जाता है, लेकिन मैं ये दावा नहीं कर सकता हूं कि जीवन की सम्पूर्णता या सामाजिक जीवन की सम्पूर्णता मेरे लेखन में आ गई है, वो नहीं आई है, और इतना पर्याप्त नहीं है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 7 ☆ सजन रे झूठ ही बोलो” ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “सजन रे झूठ ही बोलो”।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 7 ☆

☆ सजन रे झूठ ही बोलो”

‘सजन रे झूठ मत बोलो…..वहाँ पैदल ही जाना है.’

अपन तो इससे असहमत हैं.

सजन झूठ क्यों नहीं बोले, बताईये भला ? सजन राजनीति में है. झूठ बोले बिना वहाँ उसका काम चल पाया है कभी. कुर्सी, पद, पोजीशन, पॉवर उसका एक मात्र ख़ुदा है और पैदल चलकर तो उस तक पहुँचा नहीं जा सकता ना. गीतकार ने बिना कुछ देखे ही लिख दिया – न हाथी है न घोड़ा है. श्रीमान ज़रा आकर देखिये तो, हाथी घोड़े अब उसकी रैलियों में निकलते हैं. पैदल तो वो तब था जब उसने राजनीति में अपना पहला कदम रखा था. उधार की बाईक पर झूठ का सहारा लेकर चढ़ा, फिर एम्बेसेडर, मारुती एट-हंड्रेड से बोलेरो और वातानुकूलित रेल से होता हुआ, चार्टर्ड प्लेन से वो तो अपने ख़ुदा तक कब का पहुँच चुका, और आप हैं कि गाना गाते ही रह गये. जो उसने 1966 में शैलेन्द्र के लिखे इस गीत पर भरोसा किया होता तो या तो गुलफाम की तरह मारा गया होता या अभी भी हीरामन की तरह कहीं बैलगाड़ी हांक रहा होता. इसीलिये वो गीतों, कविताओं, रचनाओं, बुद्धिजीवियों के झांसे में नहीं पड़ता. अलबत्ता, उन कलाकारों को जरूर साधकर रखता है जो उसके झूठ को भी सच बना कर गानों के एल्बम जारी कर सकें.

झूठ भी कितने मासूम!! रोजगार बढ़ायेगा. महंगाई कम करेगा. सबको बिजली, पानी, सड़क मिलेगी. सबके लिये सुलभ शिक्षा, स्वास्थ्य और लोक परिवहन. भ्रष्टाचार ढूंढे नहीं मिलेगा. मिनिमम गवर्नमेंट, मेक्सीमम गवर्नेंस की गारंटी. जितने मासूम झूठ हैं उससे ज्यादा मासूम उस पर भरोसा करने वाले. वो विकास का चाँद लाकर सजनिया के जूड़े में सजाने का वादा करता है. इन झूठों पर पैदल उसे नहीं जाना पड़ता, जो यकीन करते हैं – पैदल तो उनको जाना पड़ता है. वो जितनी नफ़ासत से झूठ बोलता है, ‘वी सपोर्ट अवर सजन’ उसके लिये उतना ही अधिक ट्रेंड करता है. गौर से देखिये श्रीमान, ‘सत्य के प्रयोग’ जैसी आत्मकथा के लेखक की समाधि पर, हाथों में श्रद्धा के पुष्प लेकर, वो परिक्रमा लगा रहा है. इस मासूमियत पर कौन ना मर जाये, या ख़ुदा !

सर्फ़ एक्सेल में दाग और राजनीति में झूठ अच्छे हैं. दोनों मुनाफ़ा दिलाते हैं. वो एक झूठा नारा सा गढ़ता है और करोड़ों सजनियाँ उसकी छाप का बटन दबा कर उसे उसके ख़ुदा तक पहुंचा देती हैं. वो मुफलिस सजनियों से सपोर्ट पाता है, रईसों की दौलत में इज़ाफा करने वाली पॉलिसी बनाता है. सजनियों को पता होता है कि वे छली जा रहीं हैं, मगर तब भी अभिभूत रहती हैं.  ‘सजनवा बैरी हो गये हमार’. अब बैरी हो गये हैं तो क्या सपोर्ट करना बंद दें ? कभी कभी कांस्टीट्यूएन्सी में वे गाती हुई निकल पड़ती हैं – साजन साजन पुकारूँ गलियों में. मगर क्या करें, सजन बेवफ़ा बिजी है भोपाल, जयपुर, लखनऊ, पटना या दिल्ली में. पाँच साल बाद ही आ सकेंगे. वहाँ भी वे अकेले नहीं हैं. उनके साथ झूठे खबरची हैं, झूठी ख़बरें हैं, झूठे वीडियो हैं, डॉक्टर्ड फोटो हैं, मनगढ़ंत कहानियाँ हैं, झूठ का एक पूरा सेल है, झूठे हलफ़नामे हैं, घुमावदार बयान हैं, झांसेदार आंकड़े हैं, झूठ की आकाशगंगा में विचरते बेहया सितारे हैं.

वैसे इतना आसान भी नहीं है झूठ बोल पाना. कलर चेंज करना पड़ता है, झूठ सफ़ेद कर लिया जाये तो गले उतारने में आसानी रहती है. ये ऐरे-खैरों के बस का काम नहीं है. प्रजातंत्र के मंदिर के फ्लोर पर मेज ठोक-ठोक के बोलना पड़ता है. ली हुई शपथ भूलनी पड़ती है तब जाकर हिम्मत जुटा पता है बेवफा सजन.

बहरहाल, अब कब वापस आ रहे हैं सजन ? बताया ना अभी, पांच साल बाद, कुछ नये नारे, लुभावने जुमले, मीठे झूठ, फ़रेबी वादों के साथ आपका वोट चुराने आयेंगे वे. डेमोक्रेसी इतनी आसाँ नहीं है श्रीमान, इक झूठ का दरिया है. जो जितने गहरे में डूबा वो उतना ही शीर्ष पर पहुंचा है. तो झूठ क्यों नहीं बोले, बताईये भला ?

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 54 ☆ व्यंग्य – हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक बेहतरीन व्यंग्य  ‘हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट’। यह  व्यंग्य विनम्रतापूर्वक  उन सब की  ओर से है जो दर्शनीय स्थल वाले शहरों में रहते हैं। अब इसे लिख दिया तो लिख दिया – ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आये। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 54 ☆

☆ व्यंग्य – हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट ☆

शुरू शुरू में भेड़ाघाट देखा तो तबियत बाग-बाग हो गयी। बड़ा रमणीक स्थान लगा। दो चार बार और देखा। फिर हुआ यह कि हमारी शादी हो गयी और हम जबलपुर में सद्गृहस्थ के रूप में स्थापित हो गये। फिर जबलपुर के बाहर से हमारे परिचित भेड़ाघाट देखने आने लगे और हमारे पास रुकने लगे। तब हमें महसूस हुआ कि वस्तुतः भेड़ाघाट उतना सुन्दर नहीं है जितना हम समझते थे। भेड़ाघाट के दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ने के साथ उसका सौन्दर्य हमारी नज़र में निरन्तर गिरता रहा है। और अब तो यह हाल है कि कभी भेड़ाघाट जाते हैं तो ताज्जुब होता है कि इस ऊबड़खाबड़ जगह में लोगों को भला क्या सौन्दर्य नज़र आता है। मेरे खयाल से यह अनुभूति उन सभी लोगों को होती होगी जो दर्शनीय स्थानों में रहते हैं।

घर में जब कोई अतिथि आते हैं तो नाश्ते के बाद वे मुँह पोंछकर पूछते हैं, ‘हाँ भाई, जबलपुर में कौन कौन सी दर्शनीय जगहें हैं?’और मेरा कलेजा नीचे को सरक जाता है। यह भेड़ाघाट इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि अगर मैं दाँत निकालकर कहूँ, ‘अरे भाई, जबलपुर में दर्शनीय स्थल कहाँ?’ तो पक्का लबाड़िया साबित हो जाऊँगा।

और फिर मुहल्ले के कुछ महानुभाव मेरी  चलने भी कहाँ देते हैं। मुहल्ले के दुबे जी, पांडे जी या चौबे जी मेरे अतिथि को सड़क पर रोक कर परिचय प्राप्त करते हैं। फिर कहते हैं, ‘यहाँ तक आये हैं तो भेड़ाघाट ज़रूर देखिएगा, नहीं तो घर जाकर क्या बतलाइएगा?’ मेरा मन होता है कि पांडे जी से कहूँ कि महाराज,वे घर जाकर जो कुछ भी बतायें, लेकिन मैं उनके जाने के बाद आपको ज़रूर कुछ बताऊँगा। और मैंने कई बार ऐसे उत्साही लोगों की खबर भी ली है, लेकिन सवाल यह है कि संसार में किस किस मुँह पर ढक्कन लगाऊँ?

मैं कई लोगों को भेड़ाघाट के प्रभाव के विरुद्ध संघर्ष करते और हारते देखता हूँ। एक मित्र के घर पहुँचता हूँ तो वहाँ अतिथि देवता विराजमान हैं। स्वल्पाहार के बाद वे मित्र से पूछते हैं, ‘हाँ,तो आज दिन का क्या प्रोग्राम है?’ मित्र महोदय दाँत भींचकर उत्तर देते हैं, ‘आज तो भोजन के बाद छः घंटे निद्रा ली जाए। ‘ अतिथि देव सिर हिलाकर हँसते हैं, कहते हैं, ‘उड़ो मत। मैं भेड़ाघाट देखे बिना नहीं मानूँगा। ‘ मित्र भी हँसता है, लेकिन उसकी हँसी देखकर मुझे रोना आता है।

भेड़ाघाट ने जबलपुर वालों की खटिया वैसे ही खड़ी कर रखी है जैसे ताजमहल ने आगरा वालों की खाट खड़ी कर रखी है। नगर निगम वालों ने हमारी मुसीबत लंबी करने के लिए भेड़ाघाट में नौका-विहार की व्यवस्था कर दी है। उस दिन राय साहब रोने लगे। बोले, ‘भैया, कल मेहमानों को भेड़ाघाट ले गया था। डेढ़ हजार रुपया समझो नर्मदा जी में डूब गया। अब खजुराहो देखने की जिद कर रहे हैं। बहकाने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन सफलता की आशा कम है। ‘ उन्होंने ऐसी निश्वास छोड़ी कि मेरी कमीज़ थरथरा गयी।

अब पछताता हूँ कि कहाँ दर्शनीय स्थल वाली नगरी में फँस गया। मैं तो भारत सरकार से गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि भेड़ाघाट को कहीं दिल्ली के पास स्थानांतरित कर दिया जाए ताकि जबलपुर वालों का यह ‘तीरे नीमकश’ निकल जाए  और शहर को राहत का अहसास हो। हम सरकार बहादुर के बेहद मशकूर होंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 15 ☆ मी तुझ्याच साठी आली ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण कविता “मी तुझ्याच साठी आली“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 15 ☆

☆ मी तुझ्याच साठी आली

गाली खळी तुझ्या ती, हसुनी मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

क्षितिजावरील लाली, केशरसुगंध ल्याली

गुलबक्षी पाकळ्यातुनी, गालावरी निमाली

स्पर्शातली मखमाली, लाजुन मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

त्या अथांग सागरातील, जणू स्निग्ध तरल लहरी

तू सुकेशिनी अशी गं, निशिगंधयुक्त कस्तुरी

केसात माळलेली, वेणी मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

ते अधर विलग होती, जणू पाकळ्या कळीच्या

तो गंध चंदनाचा, शब्दात सावलीच्या

काळी विशाल नयने, लाजून मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 55 ☆ व्यंग्य – पादुकाओ की आत्म कथा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “पादुकाओ की आत्म कथा।  यह बिलकुल सच है कि पादुका का स्थान पैर ही है यदि गलती से  या जान बूझ कर  वे हाथ में आ गई तो क्या हो सकता है, आप स्वयं ही पढ़ लीजिये। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 55 ☆ 

☆ व्यंग्य – पादुकाओ की आत्म कथा ☆

मैं पादुका हूं. वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणो से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था. इस तरह मुझे वर्षो राज काज  चलाने का विशद  अनुभव है. सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूं, क्योकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है, वह बाकी सब को जूती की नोक पर ही रखता है. आवाज उठाने वाले को  को जूती तले मसल दिया जाता है. मेरे भीतर सुखतला होता है, जिसका कोमल, मृदुल स्पर्श पादुका पहनने वाले को यह अहसास करवाता रहता है कि वह मेरे रचे सुख संसार का मालिक है.   मंदिरो में पत्थर के भगवान पूजने , कीर्तन, भजन, धार्मिक आयोजनो में दुनियादारी से अलग बातो के मायावी जाल में उलझे, मुझे उपेक्षित लावारिस छोड़ जाने वालों को जब तब मैं भी छोड़ उनके साथ हो लेती हूं, जो मुझे प्यार से चुरा लेते हैं. फिर ऐसे लोग मुझे बस ढ़ूढ़ते ही रह जाते हैं. मुझे स्वयं पर बड़ा गर्व होता है जब विवाह में दूल्हे की जूतियां चुराकर जीजा जी और सालियो के बीच जो नेह का बंधन बनता है, उसमें मेरे मूल्य से कहीं बड़ी कीमत चुकाकर भी हर जीजा जी प्रसन्न होते हैं. जीवन पर्यंत उस जूता चुराई की नोंक झोंक के किस्से संबंधो में आत्मीयता के तस्में बांधते रहते हैं. कुछ होशियार सालियां वधू की जूतियां कपड़े में लपेटकर कहबर में भगवान का रूप दे देतीं हैं और भोले भाले जीजा जी एक सोने की सींक के एवज में मेरी पूजा भी कर देते हैं. यदि पत्नी ठिगनी हो तो ऊंची हील वाली जूतियां ही होती हैं जो बेमेल जोड़ी को भी साथ साथ खड़े होने लायक बना देती हैं. अपने लखनवी अवतार में मैं बड़ी मखमली होती हूं पर चोट बड़ी गहरी करती हूं.दरअसल भाषा के वर्चुएल अवतार के जरिये बिना जूता चलाये ही, शब्द बाण से ही इस तरह प्रहार किये जाते हैं, कि जिस पानीदार को दिल पर चोट लगती है, उसका चेहरा ऐसा हो जाता है, मानो सौ जूते पड़े हों. इस तरह मेरा इस्तेमाल मान मर्दन के मापदण्ड की यूनिट के रूप में भी किया जाता है. सच तो यह है कि जिंदगी में जिन्हें कभी जूते खाने का अवसर नही मिला समझिये उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव नही है. बचपन में शैतानियो पर मां या पिताजी से जूते से पिटाई, जवानी में छेड़छाड़ के आरोप में किसी सुंदर यौवना से जूते से पिटाई या कम से कम ऐसी पिटाई की धमकी का आनंद ही अलग है.

तेनाली राम जैसे चतुर तो राजा को भी मुझसे पिटवा देते हैं. किस्सा है कि एक बार राजा कृष्णदेव और तेनालीराम में बातें हो रही थीं. बात ही बात में तेनालीराम ने कहा कि लोग किसी की भी बातों में बड़ी सहजता से आ जाते हैं, बस कहने वाले में बात कहने का हुनर और तरीका होना चाहिये. राजा इससे सहमत नहीं थे, और उनमें शर्त लग गई. तेनालीराम ने अपनी बात सिद्ध करने के लिये समय मांग लिया. कुछ दिनो बाद कृष्णदेव का विवाह एक पहाड़ी सरदार की सुंदर बेटी से होने को था. तेनाली राम सरदार के पास विवाह की अनेक रस्मो की सूची लेकर पहुंच गये, सरदार ने तेनालीराम की बड़ी आवभगत की तथा हर रस्म बड़े ध्यान से समझी. तेनालीराम चतुर थे, उन्हें राजा के सम्मुख अपनी शर्त की बात सिद्ध करनी ही थी, उन्होने मखमल की जूतियां निकालते हुये सरदार को दी व बताया कि राजघराने की वैवाहिक रस्मो के अनुसार, डोली में बैठकर नववधू को अपनी जूतियां राजा पर फेंकनी पड़ती हैं, इसलिये मैं ये मखमली जूतियां लेते आया हूं, सरदार असमंजस में पड़ गया, तो तेनाली राम ने कहा कि यदि उन्हें भरोसा नही हो रहा तो वे उन्हें जूतियां वापस कर दें, सरदार ने तेनाली राम के चेहरे के विश्वास को पढ़ते हुये कहा, नहीं ऐसी बात नही है जब रस्म है तो उसे निभाया जायेगा. विवाह संपन्न हुआ, डोली में बैठने से पहले नव विवाहिता ने वही मखमली जूतियां निकालीं और राजा पर फेंक दीं, सारे लोग सन्न रह गये. तब तेनाली राम ने राजा के कान में शर्त की बात याद दिलाते हुये सारा दोष स्वयं पर ले लिया. और राजा कृष्णदेव को हंसते हुये मानना पड़ा कि लोगो से कुछ भी करवाया जा सकता है, बस करवाने वाले में कान्फिडेंस होना चाहिये.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय  के निर्माण के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय धन एकत्रित कर रहे थे,अपनी इसी मुहिम में  वे  हैदराबाद पहुंचे. वहां के निजाम से भी उन्होंने चंदे का आग्रह किया तो वह निजाम ने कहा की मैं हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए पैसे क्यों दूं ? इसमें हमारे लोगों को क्या फायदा होगा. मालवीय जी ने कहा कि मैं तो आपको धनवान मानकर आपसे चंदा मांगने आया था, पर यदि आप नहीं भी देना चाहते तो कम से कम  मानवता की दृष्टि से जो कुछ भी छोटी रकम या वस्तु दे सकते हैं वही दे दें. निजाम ने मालवीय जी का अपमान करने की भावना से  अपना एक जूता उन्हें दे दिया. कुशाग्र बुद्धि के मालवीय जी ने उस जूते की बीच चौराहे पर नीलामी शुरू कर दी. निजाम का जूता होने के कारण उस जूते की बोली हजारो में लगने लगी. जब ये बात निजाम को पता चली तो उन्हें अपनी गलती का आभास हो गया और उन्होंने अपना ही जूता  ऊंचे दाम पर मालवीय जी से खरीद लिया. इस प्रकार मालवीय जी को चंदा भी मिल गया और उन्होने निजाम को अपनी विद्वता का अहसास भी करवा दिया. शायद मियाँ की जूती मियां के सर कहावत की शुरुआत यहीं से हुयी. भरी सभा में आक्रोश व्यक्त करने के लिये नेता जी पर या हूट करने के लिये किसी बेसुरी कविता पर कविराज पर भी लोग चप्पलें फेंक देते हैं. यद्यपि यह अशिष्टता मुझे बिल्कुल भी पसंद नही. मैं तो सदा साथ साथ जोडी में ही रहना पसंद करती हूं. पर जब मेरा इस्तेमाल हाथो से होता है तो मैं अकेली ही काफी  होती हूं किसी को भी पीटने के लिये या मसल डालने के लिये. हाल ही नेता जी ने भरी महफिल में अपने ही साथी पर जूते से पिटाई कर मुझे एक बार फिर महिमा मण्डित कर दिया है.

वैसे जब से ब्रांडेड कम्पनियो ने लाइट वेट स्पोर्ट्स शू बनाने शुरू किये हैं, मैं अमीरो में स्टेटस सिंबल भी बन गई हूं, किस ब्रांड के कितने मंहगे जूते हैं, उनका कम्फर्ट लेवल क्या है, यह पार्टियो में चर्चा का विषय बन गया है.एथलीट्स के और खिलाड़ियों के जूते टी वी एड के हिस्से बन चुके हैं. उन पर एक छोटा सा लोगो दिखाने के लिये करोड़ो के करार हो रहे हैं. नेचर्स की एक जोड़ी चप्पलें इतने में बड़े गर्व से खरीदी जा रहीं हैं, जितने में पूरे खानदान के जूते आ जायें. ऐसे समय में मेरा संदेश यही है कि  दुनियां को सीधा रखना हो तो उसे जूती की नोक पर रखो. जूते तो अपने आविष्कार के बाद से निरंतर चल रहे हैं, कदम दर कदम प्रगति पथ पर बढ़ रहे हैं,  जूतो की टैग लाइन ही है,चरैवेति चरैवेति. पैरो में नही तो हाथो से चलेंगे पर चलेंगे जरूर. मै तो देश बक्ति में यही गुनगुनाती प्रसन्न रहती हूं, “मेरा जूता है जापानी, सर पर लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी “.तो जूता कोई भी पहने पर दिल हिन्दुस्तानी बनाये रखें. इति मम आत्मकथा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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