हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक सटीक  व्यंग्य   “कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से  अपनी  मौलिक शैली में  रच डालते हैं। हम और आप  उस पात्र को  मात्र परिहास का पात्र समझ कर भूल जाते  हैं। फिर मालवी भाषा की मिठास को तो श्री शांतिलाल जी  की कलम से पढ़ने का  आनंद ही कुछ और है। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई

ये पहलीबार नहीं है जब किसी घटना के लिये उन्होंने कलयुग को जिम्मेदार माना हो. उनकी नज़र में मृत्युलोक में जितने कष्ट, तकलीफें, बुराइयाँ और परेशानियाँ हैं उसकी एक मात्र वजह कलयुग का होना है. यहाँ तक कि बवासीर की अपनी कष्टसाध्य होती जा रही बीमारी के लिये भी वे यही कहते सुने जाते हैं – ‘कलजुग है तो भुगतना तो पड़ेगाई’.

आज खास बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा है कि – ‘कलयुग में वायरस से हम लड़ नहीं सकते हैं.’ अपनी मान्यता को एक ऊंची आसंदी से समर्थन मिल जाने से वे इस समय सातवें आसमान पर हैं. ‘मैं तो सुरू दिन से बता रा हूँ’. सुबह से सैंतीस लोगों से कह चुके हैं. इस समय, अड़तीसवाँ मैं उनकी ग्रिप हूँ और कलयुग को शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ.

वे नागवार गुजरनेवाली हर घटना को कलयुग से जोड़ लेते हैं. बोले – ‘सांतिबाबू, कलजुग में कोरी के छोरे कलेट्टर बन रये हैं, बाम्भनों को चपरासी की नौकरी नई मिल रई’. अक्सर, हमने उन्हें दूधवाले से उलझते देखा है. कहते हैं – ‘जमानों कैसो आ गओ, कोकाकोला सुद्ध मिल रई, मगर दूध एकदम असुद्ध. जे कलजुग के ग्वालन यदुवंस को बदनाम कर रये’. एक बार वे अतिसार के शिकार हुये. बोले – ‘खानपान की चीजें असुद्ध मिल रई कलजुग में. दस्त तो लगेंगे ही. तुमने सुनी है कब्बी, के सतजुग में किसी को दस्त लगे हों? नई ना’.

उनके अनुसार हमारे पूर्वजों ने चार हज़ार सात सौ बारह वर्ष पूर्व घोषणा कर दी थी कि कलयुग में आर्यावर्त के उत्तर में स्थित एक देश कोरोना नामक विषाणु उत्पन्न करेगा जिससे समूची मानवता के लिये खतरा बनेगा. वे भूत के ज्ञाता हैं, वर्तमान बताते ही हैं और भविष्य बताने में तो मास्टरी है ही उनकी. बोले – ‘नगर में महामारी हमरी गलियन से ही फैलेगी, नालियाँ इतनी गन्दीभरी पड़ी हैं’. उनका ये अदम्य विश्वास है कि सतयुग में यहीं इन्हीं गलियों में दूध की धाराएँ बहा करतीं थीं जो कालांतर में गन्दी नालियों में परिवर्तित हो गई हैं. जैसे जैसे कलयुग बढ़ेगा नालियाँ और ज्यादा चोक होने लगेंगी. मुन्सीपाल्टी कछु ना कर पायगी. कुछ दिनों पूर्व, मोहल्ले में हुए एक विजातीय विवाह पर उनकी प्रतिक्रिया थी – ‘उच्चकुल की कन्यायें निम्नकुल में ब्याह रहीं हैं. समझ लो भैया के घोर कलजुग आवे वारो है’. ए जर्नी फ्रॉम सिंपल कलयुग टू घोर कलयुग!

कभी-कभी वे आकाश की ओर देखकर बुदबुदाते हैं – ‘हे प्रभु, अब कलजुग की और लीलाएं देखने से पेलेई उठा ले’. हालाँकि, वे आना नहीं चाहते. जब भी थोड़ा सा बीमार होते हैं तब घरवालों के पीछे पड़ जाते कि उनको आईसीयू में ही भर्ती कराया जाये. यमदूत को जनरल वार्ड से आत्मा ले जाने में ज्यादा आसानी रहती है, आईसीयू में सिक्युरिटी गार्ड घुसने नहीं देता, शायद तो इसीलिये.

रज्जूबाबू उनके सुपुत्र हैं. बहुत सम्मान बहुत करते हैं पिता का, इतना कि वे आगे बैठे हों तो रज्जूबाबू पीछे के दुआर से निकल जाते हैं. आज असावधानी से सामने पड़ गये. उन्होंने बैट-मेन के पीले प्रिंट वाली काली टी-शर्ट पहन रखी थी. वे बोले – ‘काए रज्जूबाबू, सीधे चीन से चले आ रये का? देख रये हो सांतिबाबू, कलजुग में इनकी अक्कल मारी जा रई. दुनिया चमगादड़ से भाग रई है और जे हैं के उसी की कमीज़ पेन के निकल रये. अब इने कौन समझाये कि ये कलजुग है, कोरोना चमगादड़ खाने से ही नहीं होत, पहनने से भी हो जात है’.

मौका मुनसिब जानकार मैं धीरे से सटकने लगा. वे ऊँची आवाज़ में बोले – ‘मूं पे कपड़ा लपेट के जईयो सांतिबाबू, कलजुग चलरा है. कब कौनों असुरी सक्ति कोरोना के जीव पकड़ के आपकी नाक में घुसेड़ देहैं, कौन जाने’.

निकल गया हूँ और कन्फ्यूज्ड हूँ – कलयुग पीछे की ओर छोड़ आया हूँ या उसी की तरफ भाग रहा हूँ.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 43 ☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘बुद्ध और केशवदास’  निश्चित ही  युवावस्था की अगली अवस्था में  पदार्पण कर रहे या पदार्पण कर चुके /चुकी पीढ़ी  को बार बार आइना देखने को मजबूर कर देगा। मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  कई लोगों की दुखती राग पर हाथ धर दिया है।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 43 ☆

☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆

यह ‘जुबावस्था’ जो होती है, महाठगिनी होती है। भगवान बुद्ध ने इसी बात को समझ लिया था, इसलिए उन्होंने घर छोड़कर सन्यास ले लिया। लेकिन जो लोग बुद्ध की तरह कुछ सीखते नहीं, वे युवावस्था को ही पकड़ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। जवानी बरजोर घोड़ी की तरह उन्हें छोड़कर भागी जाती है और वे उसे पकड़ रखने के चक्कर में उसके साथ घसिटते जाते हैं। बाल सफेद हो जाते हैं, दाँत झड़ जाते हैं, खाल ढीली हो जाती है, लेकिन सींग कटाकर बछड़ों में नाम लिखाने की ललक कम नहीं होती।

कुछ लोग जवानी को सलामत रखने के लिए बाल रंग लेते हैं। कल तक मामला खिचड़ी था, आज कृष्ण-क्रांति हो गयी। लेकिन राज़ छिपता नहीं। रंगे बाल अपना राज़ खुद ही खोल देते हैं। कभी कोई खूँटी सफेद रह जाती है, कभी मेंहदी का सा लाल लाल रंग दिखने लगता है। और फिर बाल एकदम काले हो भी गये तो बाकी चेहरे मोहरे का क्या करोगे? चेहरे पर ये जो झुर्रियां हैं, या आँखों के नीचे की झाईं, या गड्ढों में घुसती अँखियाँ। किसे किसे सँभालोगे? कहाँ कहाँ हाथ लगाओगे?

और फिर इस सब छद्म में कितनी मेहनत लगती है, कितना छिपाव-दुराव करना पड़ता है? कोई कुँवारी कन्या या कुँवारे सुपुत्र यह सब करें तो समझ में आता है, लेकिन यहाँ तो वे भी रंगे-चंगे नज़र आते हैं जिनके बेटों के बाल खिचड़ी हो गए।

‘आहत’ जी लेखक हैं और मेरे परिचित हैं। उनके लेख अखबारों, पत्रिकाओं में छपते हैं, लेकिन जब लेख के साथ उनका चित्र छपता है तो पहचानना मुश्किल हो जाता है। ‘आहत’ जी के केश सफेद हैं, घनत्व कम हो चुका है। यहाँ वहाँ से चाँद झाँकती है। चेहरा भी उसी के हिसाब से है, लेकिन जो तस्वीर छपी है वह किसी जवान पट्ठे की है, जिसका चेहरा जवान और बाल काले हैं। पहचानने में देर लगती है, लेकिन चेहरे के कुछ सुपरिचित निशानों से पहचान लेता हूँ। आँखें वही हैं, नाक का घुमाव भी वही है। ज़ाहिर है तस्वीर कम से कम दस साल पुरानी है। बुढ़ापे की तस्वीर छपाने में शर्म आती है।

एक और परिचित की तस्वीर अखबार में देखता हूँ। उन्हें विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली है। उपाधि के लिए काम करते करते नौकरी के पन्द्रह-बीस साल गुज़र गये। बुढ़ापा दस्तक देने लगा। लेकिन उपलब्धि हुई तो फोटो तो छपाना ही है। इसलिए फोटो उस वक्त की छपा ली जब एम.ए. पास किया था। मित्र-परिचित हँसें तो हँसें, जो लोग नहीं जानते वे तो कम से कम उन्हें पट्ठा समझें।

एक परिचित का बालों से विछोह हो चुका है।खोपड़ी का आकार-प्रकार दिन की तरह साफ हो गया है। लेकिन जब भी फोटो छपता है, सिर पर काले घुंघराले बाल होते हैं। ज़ाहिर है, यह भी पुराने एलबम का योगदान है।

बुढ़ापे में यह सब करने की ललक क्यों होती है? क्या जवानी का भ्रम पैदा करके किसी कन्या को रिझाना है? यदि भ्रमवश कोई कन्या अनुरक्त होकर आपके दरवाज़े पर आ ही गयी तो आपका असली रूप देखकर उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? इसके अलावा, जवानी का भ्रम फैलाते वक्त उस महिला का खयाल कर लेना भी उचित होगा जो आपकी संतानों की अम्माँ कहलाती है। आपकी फोटो को ही आपका असली रूप मान लिया जाए तो उस सयानी महिला का परिचय आप किस रूप में देंगे?

मेरे खयाल में ये सब कवि केशवदास के चेले-चाँटे हैं। उम्र निकल गयी, लेकिन उसे मानने को तैयार नहीं। रंगाई-पुताई में लगे हैं, जैसे कि पोतने से खस्ताहाल इमारत नयी हो जाएगी। अरे भई, शालीनता से बुढ़ापे को स्वीकार कर लो। हर उम्र की कुछ अच्छाइयाँ होती हैं। लेकिन जवानी के लिए ही हाहाकार करते रहोगे तो न इधर के रहोगे, न उधर के। बुड्ढों से तुम बिदकोगे और जवान तुमसे बिदकेंगे। अंगरेज़ कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग समझदार था। उसने कहा था, ‘आओ, मेरे साथ बूढ़े हो। ज़िन्दगी का सबसे अच्छा वक्त अभी आने को है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 39 ☆ जिसकी चिंता है, वह जनता कहां है ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  विचारणीय समसामयिक व्यंग्य   “ जिसकी  चिंता है, वह जनता कहाँ है !”।  यह वास्तव में  लोकतंत्र के ठगे हुए  ‘मतदाता ‘के पर्यायवाची  ‘जनता ‘ पर व्यंग्य है।  सुना है कोई दल बदल नाम का कानून भी होता है ! श्री विवेक रंजन जी  को इस  सार्थक एवं विचारणीय  व्यंग्य के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 39 ☆ 

☆ जिसकी चिंता है, वह जनता कहां है ! ☆

विधायक दर दर भटक रहे हैं, इस प्रदेश से उस प्रदेश पांच सितारा रिसार्ट में, घर परिवार से दूर मारे मारे फिर रहे हैं. सब कुछ बस जनता की चिंता में है. मान मनौअल चल रहा है. कोई भी मानने को तैयार ही नही है, न राज्यपाल, न विधानसभा के अध्यक्ष, न मुख्यमंत्री, न ही विपक्ष. सब अड़े हुये हैं. सबको बस जनता की चिंता है. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहा है. विशेष वायुयानों से मंत्री संत्री एड्वोकेटस भागमभाग में लगे हुये हैं. पत्रकार अलग परेशान हैं एक साथ कई कई जगहों से लाईव कवरेज करना पड़ता है जनता के लिये. कोई भी सहिष्णुता का वह पाठ सुनने को तैयार ही नही है, जिसकी बदौलत महात्मा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस को थोड़ी आंख क्या दिखाई वे पंडित नेहरू के पक्ष में जीत कर भी अध्यक्षता छोड़ चुप लगा कर बैठ गये थे. या सरदार पटेल ने सबके उनके पक्ष में होते हुये भी महात्मा गांधी की बात मानकर प्रधान मंत्री पद से अपनी उम्मीदवारी ही वापस ले ली थी. हमारे माननीय तो जिन्हा और नेहरू की तरह अड़े खड़े हैं. किसी को भी मानता न देख, जनता के जनता के द्वारा जनता के लिए सरकार के मूलाधार वोटर रामभरोसे ने सोचा क्यों न उस जनता को ही मना लिया जाये जिसकी चिंता में सारी आफत आई हुई है.

जनता की खोज में सबसे पहले रामभरोसे सीधे राजधानी जा पहुंचा. उसने अपनी समस्या टी वी चैनल “जनता की आवाज” के  एक खोजी संवाददाता को बताई.   रामभरोसे ने पूछा, भाई साहब मैं हमेशा आपका चैनल देखता रहता हूं मुझे बतलायें जनता कहां है ? उसने रामभरोसे को ऊपर से नीचे तक घूरा,उसकी अनुभवी नजरो ने  उसमें टी आर पी तलाश की, जब उसे  ज्यादा टीआरपी नजर नही आई तो वह मुंह बिचका कर चलता बना. जनता मिल ही नहीं रही थी. ढ़ूंढ़ते भटकते हलाकान होते रामभरोसे को भूख लग आई थी, उसकी नजर सामने  होटल पर पड़ी, देखा ऊपर बोर्ड लगा था “जनता होटल”. खुशी से वह गदगद हो गया, उसने सोचा चलो वहीं भोजन करेंगे और जनता से मिलकर उसे मना लेंगे. जनता जरूर एडजस्ट कर लेगी और माननीयो का मान रह जायेगा, खतरे में पड़ा संविधान भी बच जावेगा. रामभरोसे होटल के भीतर लपका, बाहर ही भट्टी थी, जिस पर पूरी पारदर्शिता से तंदूरी रोटी पकाई जा रही थी,सब्जी फ्राई हो रही थी, और  दाल में तड़का लगाया जा रहा था. बाजू में  जनता होटल का पहलवाननुमा मालिक अपने कैश बाक्स को संभाले जमा हुआ था. टेबल पर आसीन होते ही कंधे पर गमछा डाले छोटू पानी के गिलास लिये प्रगट हुआ. रामभरोसे ने तंदूरी रोटी और दाल फ्राई का आर्डर दिया.पेट पूजा कर बिल देते हुये, होटल के मालिक से अपनी व्यथा बतलाई और पूछा भाई साहब जनता है कहां, जिसकी चिंता में सरकार ही अस्थिर हो गई है. पहलवान ने  दो सौ के नोट से भोजन का बिल काटा और बचे हुये बीस रुपये लौटाते हुये रामभरोसे को अजीबोगरीब तरीके से देखा, फिर पूछा मतलब ?  अपनी बात दोहराते हुये उसने जनता को मनाने के लिये फिर से  जनता का पता पूछा. पहलवान हंसा. तभी एक अखबार का पत्रकार वहां आ पहुंचा, जनता होटल के मालिक ने अपनी जान छुड़ाते हुये रामभरोसे को उस पत्रकार के हवाले किया और कहा कि ये “हर खबर जनता की ”  दैनिक समाचार पत्र के संपादक हैं, आप इनसे जनता का पता पूछ लीजिये. रामभरोसे ने भगवान को धन्यवाद दिया कि अब जब हर खबर जनता की के संपादक ही मिल गये हैं तब तो निश्चित ही जनता मिल ही जावेगी. किंतु संपादक जी ने गोल मोल बातें की, चाय पी और ” शेष अगले अंक में ” की तरह उठकर चलते बने.

रामभरोसे जनता के न मिलने से परेशान हो गया. उसे एक टेंट में चल रहे प्रवचन सुनाई दिये, गुरू जी भजन करवा रहे थे और लोग भक्ति भाव से झूम रहे थे. रामभरोसे को लगा गुरू जी बहुत ज्ञानी हैं वे अवश्य ही जनता को जानते होंगे. अतः वह वहां जा पहुंचा. कीर्तन खत्म हुआ, गुरूजी अपनी भगवा कार में रवाना होने को ही थे कि रामभरोसे सामने आ पहुंचा, और उसने गुरू जी को अपनी समस्या बताई, गुरूजी ने कार में बैठते हुये जबाब दिया “बेटा तू ही तो जनता है”. गुरूजी तो निकल लिये पर रामभरोसे सोच में पड़ा हुआ है, यदि मैं जनता हूं तो मुझे तो संविधान से कोई शिकायत नही है, अरे मैं तो वह चौपाई गुनगुनाता ही रहता हूं ” कोई नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ न होईहें रानी “, कर्ज माफी हो न हो, कौन थानेदार हो, कौन कलेक्टर हो, मुआवजा मिले न मिले, मैं तो सब कुछ एडजस्ट कर ही रहा हूं फिर मेरे नाम पर यह फसाद  क्यों ? रामभरोसे ने एक फिल्म देखी थी जिसमें हीरो का डबल रोल था एक गरीब, सहनशील तो दूसरा मक्कार, धोखेबाज, फरेबी.रामभरोसे को कुछ कुछ समझ आ रहा है कि जरूर यह कोई और ही जनता है जिसके लिए सारे डबल रोल का खेल चल रहा है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 10 ☆ ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे।  इस समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 10 ☆

☆ ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे

ऊँट किस करवट बैठेगा ये कोई नहीं जानता पर तुक्का लगाने में सभी उस्ताद होते हैं। आखिर बैठने के लिए उचित धरातल भी होना चाहिए अन्यथा गिरने का भय रहता है। जैसे -जैसे हम बुद्धिजीवी होते जा रहे हैं वैसे- वैसे हमें अपनी जमीन मजबूत करने की फिक्र कुछ ज्यादा ही बढ़ रही है। आखिर  बैठना कौन नहीं चाहता पर हम ऊँट थोड़ी ही हैं जो हमें रेतीली माटी नसीब हो और अलटते – पलटते रहें। हमें तो बस कुर्सी रख सकें इतनी ही जगह चाहिए। और हाँ कुछ ऐसे लोग भी चाहिए जो इस कुर्सी की रक्षा कर सकें भले ही साम दाम दंड भेद क्यों न अपनाना पड़ जाए। कुर्सी की एक विशेषता ये भी है कि ये समय – समय पर अपना भार बदलती रहती है। इस पर गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी लगता है। ग्रहों के बदलते ही इसका भार बदल जाता है। वैसे तो बदलाव हमेशा ही सुखद मौसम लाता है। देखिए न पतझड़ के मौसम में  भी बासंती रंग, तरह- के फूल, सेमल, टेसू, पलाश सभी अपने जोर पर जाते हैं। आम्र बौर  की छटा व सुगंध तो मनभावन होती ही है । बस यही बदलाव तो कोयल को चाहिए, इसी मौसम में तो वो अपना राग गुनगुनाने लगती है। अरे ऊँट की चिंता करते- करते  कहा कोयल पर अटक गये। बस ये अपने धरातल की खोज जो न करवाये वो थोड़ा है। पुराने समय से ही ऊँट पर कई मुहावरे चर्चा में हैं। जहाँ  मात्रा या संख्या बल घटा,  बस समझ लो ऊँट के मुख में जीरा जैसे ही अल्पसंख्यक समस्या जोर पकड़ने लगती है। अरे ये संख्याबल की इतनी  हिमाकत केवल लोकतंत्र की वजह से ही है क्योंकि यहाँ गुणवत्ता नहीं संख्या पर जोर दिया जाता है। जैसे ही जोड़- तोड़ का गणित अनुभवी गणितज्ञ के पास पहुँचा बस गुणा भाग भी दौड़ पड़ते हैं पाठशाला की ओर। मौज मस्ती आखिर कितने दिनों तक चलेगी  परीक्षार्थियों को परीक्षा तो देनी ही होगी। रिजल्ट चाहें कुछ भी हो पुनर्जीवन तो मेहनत करने वाले को मिलेगा ही। सबको पता है कि अंत काल में केवल सत्कर्म ही साथ जाते हैं फिर भी जर, जोरू, जमीन की खोज में मन भटकता ही रहता है। मजे की बात इतना बड़ा प्राणी जो रेगिस्तान का जहाज कहलाता है उसकी चोरी भी लोग चोरी छुपे करने की हिमाकत करते हैं। इसी को बघेली में कहा जाता है ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे  अर्थात झुक – झुक कर। खैर देखते हैं कि क्या – क्या नहीं होता ; आखिरकार मार्च का महीना तो सदैव से ही परीक्षा का समय रहा है। इस समय हिन्दू नववर्ष का आगमन होता है, साल भर जो लेखा – जोखा व अध्ययन किया है उसका परीक्षण भी होता है। उसके बाद देवी-  देवताओं  से मान मनौती की जाती है ताकि परिणाम सुखद हो।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ व्यंग्य / कविता ☆ एक मिनट की देरी से / एक सर्द रात की रेल यात्रा ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध।  आज प्रस्तुत है  एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य  / कविता  ” एक मिनट की देरी से  / कविता “. इस रचना के माध्यम से   डॉ गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर ‘ जी  ने  रेलानुभव व्यंग्य एवं कविता के साथ अपनी मौलिक शैली में बड़ी बेबाकी से  किया है। ) 

 ☆ व्यंग्य / कविता – एक मिनट की देरी से / एक सर्द रात की रेल यात्रा ☆

अभी-अभी वर्तमान में बहुमूल्य शिक्षा की काशी कहे जाने वाले (केवल शिक्षा के कारोबारियों/ माफियाओं द्वारा) कोटा जंक्शन के प्रतीक्षालय में बैठा हुआ सुखद आश्चर्य से भर उठा हूँ। एक उद्घोषणा हुई है कि एक ट्रेन( इन्दौर जोधपुर एक्सप्रेस )पूरे एक मिनट की देरी से चल रही है और उसके लिए उद्घोषिका को खेद भी है।अभी कान चौकन्ने हैं कि कहीं घंटे को मिनट तो नहीं बोला गया है या फिर मैंने ही गलत तो नहीं सुन लिया है।

जिस दिन की प्रतीक्षा थी आखिर वह दिन आ ही गया कि जब रेलवे ने भी समय की कीमत पहचानी।यह लिखते-लिखते वही स्वर पुन:कानों तक आंशिक परिवर्तन के साथ पहुँच रहा है कि वही ट्रेन पूरे सात मिनट लेट हो चुकी है।दूसरी उद्घोषणा से मिनट और घंटे में भ्रम की गुंजाइश भी खत्म हो चुकी है।

अब आश्वस्त हूँ कि विद्याबालन वाली यह बात कि ‘जहाँ सोच वहाँ शौचालय’ के बाद से आए सोच में परिवर्तन के कारण जैसे हर ग्रामीण के घर में शौचालय हो गया है और वे घर में ही उत्पादन और निष्पादन सब कुछ कर पाने में सक्षम हुए हैं।बस जुत्ताई-बुआई केलिए  ही बाहर जाना पड़ता है।अब सोच बदला है वह भी किसी खूबसूरत अदाकारा के  कहने से  तो क्या नहीं  संभव  है!कल को रोबोट और रिमोट से फसल बो भी   जाएगी और कट के घर भी  आ जाएगी।वैसे ही बिना ड्राइवर के हर ट्रेन समय पर चलेगी।

इस संदर्भ में की गई हिंदी व अंग्रेजी की उद्घोषणा को मिला लें तो कुल छह उद् घोषणाएँ हो चुकी हैं और सभी में हमें हुई असुविधा के लिए खेद व्यक्त किया गया है।

लगे हाथ एक और सुखद सूचना कि हमारी देहरादून से कोटा वाली ट्रेन बिफोर टाइम (पूरा आधा घन्टा पहले) ही कोटा जंक्शन पर लग गई थी।मैंने एहतियातन दो टिकट कर रखे थे(भारतीय रेल संबंधी अपनीभ्रांत धारणा वश)एक एसी और एक स्लीपर(बस कुछ समय कमी और कुछ  आलस बस  सामान्य टिकट लेना ही शेष था।) और दोनों कन्फर्म होकर हमारे संदेश पिटक से झाँक-झाँक कर हमें मुँह चिढ़ा रहे हैं।मैं उनके अंतर्निहित अर्थ भी समझ रहा हूँ कि,’और न कर भरोसा भारतीय रेल पर।अगर यही पाप करता रहा तो आगे भी भोगेगा।’

अभी-अभी उसी ट्रेन 12465 इन्दौर-जोधपुर एक्सप्रेस की उद् घोषणा हुई है कि वह अब भी सात मिनट की ही देरी से चल रही है और इस विश्वास के साथ हुई है कि कुछ कसर रहेगी तो शर्म के मारे शेष दूरी हांफ – हूँफ कर   दौड़ के कवर कर लेगी।

अब वह यानी12465 संयान(ट्रेन)ठीक12:39 पर )अपने स्थानक(प्लेटफॉर्म)क्रमांक1पर लग चुकी है।अब तो पूरा भरोसा हो चला है कि जैसे-जैसे स्टेशनों की पटरियों के अंतराल से मल दूर हो रहा है वैसे-वैसे हमारा रेल की स्वच्छता के प्रति विश्वास भी बढ़ रहा है।यही समय के लिए भी लागू होगा।लेकिन मुझे चिंता इस बात की है कि यदि कहीं भारतीय रेल जनरल बोगियों के प्रति भी जाग गई तो मेरी उस कविता का क्या होगा जो किसी सर्द रात के जनरल डिब्बे की यात्रा- सहचरी रही है।

अब मैं इस रेल कथा काअपनी उसी रेलानुभव वाली कविता के साथ यह कहते हुए उद्यापन करना चाहूँगा कि जैसे रेल के ‘दिन बहुरे’ सब विभागों के बहुरें।अब बिना किसी देरी और खेद व्यक्त किए वह कविता (इस घोषणा के बाद जिसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है) बेज़रूरत आप पर लाद रहा हूँ-

 ☆  एक सर्द रात की रेल यात्रा   

एक सर्द रात की रेलयात्रा

करते हुए

भीड़ का सुख भोगा

परस्पर सटे तन

सुख दे रहे थे

मेरी तरह और भी दस-पांच

(बैठने की जगह

पाए लोग)

स्वर्ग में थे

बाकी टेढ़ी-मेढ़ी मुंडियों के साथ

लार की कर्मनाशा बहाते

स्वर्ग-नर्क के बीच

झूला झूल रहे थे

अचानक लगा कि

लोग अपने स्वभाव के प्रतिकूल

जागरूक हो गए हैं

और

मारकाट में फँसकर

जैसे भाग रहे हों बदहवास

नींद ऐसे टूटी कि जैसे

अभी-अभी हमारी नींद पर से ही

गुज़री हो

मालगाड़ी धड़धड़ाते हुए

हम सुपरफास्ट में बैठे-बैठे

उबासी ले रहे हैं

आखिरकार

झाँक ही लेते हैं मुण्डी लटकाकर

उत्सुकतावश

लोग बताते हैं

‘मालगाड़ी के गुज़रने से

पूरे एक घंटे पहले से

खड़ी है

जस की तस,ठस की ठस

निकम्मी मनहूस

हाँ,

बीच-बीच में गैस छोड़ कर

अपने ज़िंदा रहने का सबूत

ज़रूर दे देती है

कुर्सियों पर लदी

चौराहों पर अलाव तापती

मुर्दहिया पुलिस की तरह

तन-मन से जर्जर

बूढ़ों की तरह

ठंडी आह भी भर लेती है

यदा-कदा

ऐसे में,

ठहरी हुई ज़िंदगी से भी

सर्द लगती है

अपनी यह सवारी गाड़ी

सड़ही सुपरफास्ट?

या तो माल बहुत मँहगा हो गया है

या फिर,

इंसान इतना सस्ता

कि

चाहे जहाँ मर खप जाए

कोई नहीं लेता खबर

उसके सड़ने से पहले

ज़िंदा हो तब भी

जब चाहो,जहाँ चाहो

उसे रोक लो,उतार दो, धकिया दो,

मौका लगे थपड़िया दो

कभी-कभी बिना बेल्ट,

बिल्ले और डंडे के भी

बंदूक तो बहुत बड़ी चीज़ होती है

आम आदमी तो सींक से

और,

कभी-कभी तो छींक से भी

काँप उठता है

शायद सब व्यवस्थापक

यह भाँप गये हैं कि-

इनमें से कोई उठापटक करेगा भी तो

अपनी ही बर्थ या सीट

या ठसाठस भरे जनरल कोच की

गैलरी से लेकर-

शौचालय तक,

अपना ही साथ छोड़ रही

दाईं या बाईं टाँग पर

काँख-कूँख के खड़ा रहेगा

या लद्द से बैठ जाएगा

या फिर,

अपनी ही टाँगों की

अदला-बदली कर लेगा

या यह भी हो सकता है कि

गंदे रूमाल से नाक साँद

साँस लेने के बहाने

उतर कर बैठ जाए

बगल वाली पटरी पर,

मूँगफली के साथ समय को फोड़े

बीड़ी सुलगाए, पुड़िया फ़ाड़

मसाला फ़ाँके, तंबाकू पीटे,

सिग्नल झाँके

(नज़र की कमजोरी के कारण)

तड़ाक से उठे

फिर सट्ट से बैठ जाए

यों ही हज़ारों हज़ार कान

तरसतें रहें हार्न को

पर,

गुरुत्त्वाकर्षण से चिपकी रहे पहिया

पटरी से

गर्द-गुबार भरे

दो-चार कानों पर

नही रेंगे जूँ तो नही ही रेंगे

पहले भी

इसी तरह चलती रही है

हमारी व्यवस्था की रेलगाड़ी

अपने चमचमाते पहियों की

कर्णकटु खिर्र-खिर्र के साथ.

लेकिन,

फिर भी नहीं पालते झंझट

लोग,

नहीं उलझते अपने शुकून से

यहाँ तक कि

व्यवस्था भी नहीं चाहती छेड़ना

किसी के शुकून को।

 

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 38 ☆ व्यंग्य – थोड़े में थोड़ी सी बात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका हास्य का पुट लिए  एक व्यंग्य   थोड़े में थोड़ी सी बात। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 38

☆ व्यंग्य – थोड़े में थोड़ी सी बात ☆ 

गंगू बचपन से ही थोड़ा संकोची रहा है। संकोची होने से थोड़े-बहुत के चक्कर में फंस गया, हर बात में थोड़ा – थोड़ी जैसे शब्द उसकी जीभ में सवार रहते , इसीलिए शादी के समय भी लड़की वाले थोड़ा रुक जाओ थोड़ा और पता कर लें का चक्कर चला के शादी में देर करते रहे, हालांकि हर जगह बात बात में थोड़ा – थोड़ा, थोड़ी – थोड़ी की आदत वाले खूब मिल जाते हैं पर गंगू का थोड़ी सी बात को अलग अंदाज में कहने का स्टाइल थोड़ा अलग तरह का रहता है।

रेल, बस की भीड़ में कोई थोड़ी सी जगह बैठने को मांगता तो गंगू उसको थोड़ी सी जगह जरुर देता, भले सामने वाला थोड़ी सी जगह पाकर पसरता जाता और गंगू संकोच में कुकरता जाता। जब चुनाव होते तो नेता जी थोड़ा सा हाथ जोड़कर गंगू से कहते – इस बार थोड़ी सी वोट देकर हमारे हाथ थोड़ा मजबूत करिये तो गंगू खुश होकर दिल खोलकर पूरी वोट दे देता। घरवाली को इस थोड़े – थोड़े में थोड़ी बात रास नहीं आती थी जब गंगू दाल में थोड़ा नमक डालने को कहता तो घरवाली थोड़ा थोड़ा करके खूब सारा नमक डाल देती इसलिए गंगू थोड़ा सहनशील भी हो गया था।

इन दिनों कोरोना के डर से गंगू थोड़ा परेशान है उसने घरवाली को भी कोरोना से थोड़ा डरा दिया है इसीलिए आजकल घरवाली गंगू को सलाह देने लगी है कि

“थोड़ी थोड़ी पिया करो….”

थोड़ी थोड़ी पीने के चक्कर में गंगू आजकल भरपेट पीकर कोरोना को भुलाना चाहता है। खूब डटकर पीकर जब घरवाली को तंग करने लगता है तो घरवाली कहती है….

….. “थोड़ा.. सा… ठहरो

करतीं हूं तुमसे वादा

पूरा होगा तुम्हारा इरादा

मैं सारी की सारी तुम्हारी

थोड़ा सा रहम करो……

ऐन टाइम में ये थोड़ा – थोड़ी का चक्कर गंगू का सिर दर्द भी बन जाता है। वो थोड़ा देर ठहरने को कहती है और थोड़ा सा बहाना बनाकर बाथरूम में घुस जाती है, लौटकर आती है तो मोबाइल की घंटी बजने लगती है फिर थोड़ा थोड़ा कहते लम्बी बातचीत में लग जाती है।

अभी उस दिन घर में सत्यनारायण की कथा हो रही थी तो घरवाली थोड़े में कथा सुनने के मूड में थी सजी-संवरी तो ऐसी थी कि कोई भी पिघल जाय। जब कथा पूरी हुई तो शिष्टाचारवश गंगू ने पंडित जी से पूछा कि चाय तो लेंगे न ? तो फट से पंडित जी ने कहा – थोड़ी सी चल जाएगी……

गंगू ये थोड़े के चक्कर में परेशान है थोड़े में यदि विनम्रता है तो उधर से संशय और अंहकार भी झांकता है। “थोड़ी सी चल जाएगी” इसमें भी एक अजीब तरह की अदा का बोध होता है….. खैर, पंडित जी को लोटा भर चाय दी गई और प्लेट में डाल डालकर वो पूरी गटक गए….. तब लगा कि थोड़े में बड़ा कमाल है। पंडित जी से भोजन के लिए जब भी कहो तो डायबिटीज का बहाना मारने लगेंगे, पेट फूलने का बहाना बनाएंगे, जब थोड़ा सा खा लेने का निवेदन करो तो गरमागरम 20-25 पूड़ी और बटका भर खीर ठूंस ठूंस कर भर लेंगे। तब लगता है कि थोड़े शब्द में बड़ा जादू है।

कोरोना की बात चली तो कहने लगे थोड़ा अपना हाथ दिखाइये, गंगू ने तुरंत बोतल की अल्कोहल से हाथ धोया और बोतल में थोड़ा मुंह लगाया फिर पंडित जी के सामने थोड़ा सा हाथ रख दिया। पंडित जी ने हाथ देखकर कहा – “क्या आप व्यंग्य लिखते हैं ?”

बरबस गंगू के मुख से निकल गया – हां, थोड़ा बहुत लिख लेता हूं। पंडित जी ने थोड़ा हाथ दबाया बोले – “थोड़ा नहीं बहुत लिखते हो।” इस थोड़े में विनम्रता कम अहंकार ज्यादा टपक गया। पंडित जी को थोड़ा बुरा भी लग गया तो बात को थोड़ा उलटकर बोले – “अभी भी आपके हाथ में थोड़ी थोड़ी प्यार की रेखाएं फैली दिख रहीं हैं, लगता है कि – थोड़ा सा प्यार हुआ था थोड़ा सा बाकी……”

सुनकर घरवाली की भृगुटी थोड़ी तन गई, तुरंत अपना हाथ तान के पंडित जी के सामने धर दिया। पंडित जी ने प्रेम से हाथ पकड़ कर कहा –

“बड़ी वफा से निभाई तुमने,

इनकी थोड़ी सी बेवफाई…”

गंगू ने अपना हाथ खींच लिया उसे

‘थोड़ा है थोड़े की जरूरत है’…. वाली याचना के साथ ‘बड़ी वफा से निभाई तुमने हमारी थोड़ी सी बेवफाई’ सरीखी कातरता दिखी तो घरवाली ने पंडित जी से शिकायत कर दी कि – कोरोना से बचाव के लिए इनको थोड़ी सी पीने की सलाह दी तो ये शराबी का किरदार भी निभाने लगे। झट से पंडित जी ने घरवाली की हथेली दबाकर जीवन रेखा का जायजा लिया। कोरोना का डर बताकर ढाढस दिया कि आपकी जीवन रेखा काफी मजबूत है पर हसबैंड की जीवन रेखा थोड़ा कमजोर और लिजलिजी है, सुनकर घरवाली को काफी सुकून मिला। थोड़ी देर में पंडित जी को हाथ देखने में मज़ा आने लगा बोले – कुछ चीजें इशारों पर बताऊंगा तो थोड़ा ज़्यादा समझना। गंगू के काटो तो खून नहीं बोला – पंडित जी थोड़ा थोड़ा तो हमको भी समझ में आ रहा है। उसी समय टीवी चैनल में टाफी चाकलेट बनाने वाली कंपनी का विज्ञापन आने लगा.. “थोड़ा मीठा हो जाए”……

घरवाली को याद आया फ्रिज में मीठा रखा है तुरंत गंगू को आदेश दिया – “सुनो जी, थोड़ा पंडित जी के लिए मीठा लेकर आइये।”  न चाहते हुए भी गंगू ने फ्रिज खोला और गंजी भर रसगुल्ला पंडित जी के सामने रख दिया। घरवाली ने देखा तो डांट पिला दी बोली – “तुम्हें थोड़ी शरम नहीं आती क्या? पूरा का पूरा गंज धर दिया सामने….. तुम्हारे मां बाप ने ऐटीकेट मैनर नहीं सिखाये कि मेहमान को मीठा कैसे दिया जाता है, पंडित जी थोड़ा थोड़ा पसंद करते हैं।”

गंगू थोड़ा सहम गया, पंडित जी से थोड़ा चिढ़ होने लगी….. मन ही मन में सोचने लगा कि अब बुढ़ापे में क्या किया जा सकता है, बचपन में पढाई में थोड़ा और ध्यान दे देते तो थोड़ी अच्छी घरवाली मिलती। ये तो थोड़ी सी बात में लघुता में प्रभुता तलाश लेती है भला हो कोरोना का अच्छे समय आया है।

गंगू का मन भले थोड़ा सा खराब हो गया था पर पंडित जी थोड़े-थोड़े देर में गपागप रसगुल्ले गटक रहे थे और घरवाली थोड़ा और भविष्य जानने के चक्कर में दूसरा हाथ धोकर खड़ी थी और गंगू से कह रही थी कि थोड़ी देर में अपनी बात खत्म करके फिर खाना परसेगी, पर गंगू जानता है कि थोड़े शब्दों में अपनी बात खतम करने का भरोसा दिलाने वाले अक्सर माइक छोड़ना भूल जाते हैं…….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 41 ☆ व्यंग्य – श्रोता-सुरक्षा के नियम  ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘श्रोता-सुरक्षा के नियम ’ एक बेहतरीन व्यंग्य है।  डॉ परिहार जी ने एक ज्वलंत विषय चुना है। इतनी व्यस्त जिंदगी में कई बार आश्चर्य होता है कि टी वी जैसा साधन होते हुए भी  इतने  श्रोतागण कैसे फुर्सत पा लेते हैं और आयोजक ऐसी कौन सी जादू की छड़ी घुमा लेते हैं  उन्हें जुटाने के लिए ?  फिर श्रोता कैसे यह सब पचा लेते हैं? यदि सही वक्ता चाहिए तो श्रोतागण के लिए श्रोता संघ  का सुझाव सार्थक है, बाकी श्रोता की मर्जी ! ऐसे तथ्य डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि से बचना सम्भव ही नहीं है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 41 ☆

☆ व्यंग्य – श्रोता-सुरक्षा के नियम  ☆

यह श्रोताओं के महत्व का युग है। आज श्रोताओं की बड़ी माँग है। कारण यह है कि इस देश में गाल बजाने का रोग भयंकर है।  हर मौके पर भाषण होता है।  जो वक्ता एक जगह परिवार नियोजन पर भाषण देता है, वही दूसरी जगह आठवीं सन्तान के जन्म पर बधाई दे आता है।  भाषण देने के लिए सिर्फ यह ज़रूरी है कि दिमाग़ को ढीला और मुँह को खुला छोड़ दो।  जो मर्ज़ी आये बोलो।  श्रोता कुछ तो वक्ता महोदय के लिहाज में और कुछ आयोजक के लिहाज में उबासियाँ लेते बैठे रहेंगे।

अब लोग भाषण सुनने से कतराने लगे हैं क्योंकि अपने दिमाग़ को कचरादान बनाना कोई नहीं चाहता।  इसीलिए भाषणों के आयोजक दौड़ दौड़ कर श्रोता जुटाते फिरते हैं।  श्रोता न जुटें तो नेताजी को अपनी लोकप्रियता का मुग़ालता कैसे हो?

एक अधिकारी का प्रसंग मुझे याद आता है।  वे अक्सर समारोहों में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किये जाते थे।  वे अपने साथ बहुत से दोहे और शेर लिखकर ले जाते और उन्हें पढ़-पढ़ कर घंटों भाषण देते रहते थे। एक बार वे एक संगीत समारोह में मुख्य अतिथि थे।  उनके भाषण के बीच में बिजली गुल हो गयी। हमने राहत की सांस ली कि अब वे बैठ जाएंगे। लेकिन दो तीन मिनट बाद जब बिजली आयी तब हमने देखा वे भाषण हाथ में लिये खड़े थे। उन्हें शायद डर था कि बैठने से उनका भाषण समाप्त मान लिया जाएगा।

संयोग से बिजली दुबारा चली गयी। इस बार हमने पक्की तौर पर मान लिया कि वे बैठ जाएंगे, लेकिन जब फिर बिजली आयी तब वे पूर्ववत खड़े थे। उन्होंने भाषण पूरा करके ही दम लिया। बेचारे श्रोता इसलिए बंधे थे क्योंकि भाषण के बाद संगीत होना था। मुख्य अतिथि महोदय ने इस स्थिति का पूरा फायदा उठाया।

अब वक्त आ गया है कि श्रोता जागें और अपने को पेशेवर भाषणकर्ताओं के शोषण से बचाएं। श्रोता को ध्यान रखना चाहिए कि कोई उसे बेवकूफ बनाकर भाषण न पिला दे। इस देश में ऐसे वक्ता पड़े हैं जो विषय का एक प्रतिशत ज्ञान न होने पर भी उस पर दो तीन घंटे बोल सकते हैं। अनेक ऐसे हैं जो खुद प्रमाणित भ्रष्ट होकर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ दो घंटे बोल सकते हैं। इसीलिए इनसे बचना ज़रूरी है।

मेरा सुझाव है कि हर नगर में श्रोता संघ का गठन होना चाहिए जिसके नियम निम्नलिखित हों——

  1. कोई सदस्य संघ की अनुमति के बिना कोई भाषण सुनने नहीं जाएगा।
  2. श्रोता का पारिश्रमिक कम से कम पचास रुपये प्रति घंटा होगा।
  3. भाषण का स्थान आधा किलोमीटर से अधिक दूर होने पर आयोजक को श्रोता के लिए वाहन का प्रबंध करना होगा।
  4. जो वक्ता प्रमाणित बोर हैं उनका भाषण सुनने की दर दुगुनी होगी।  (उनकी लिस्ट हमारे पास देखें)
  5. भाषण दो घंटे से अधिक का होने पर संपूर्ण भाषण पर दुगुनी दर हो जाएगी।
  6. पारिश्रमिक श्रोता के भाषण-स्थल पर पहुँचते ही लागू हो जाएगा, भाषण चाहे कितनी देर में शुरू क्यों न हो।
  7. यदि किसी वक्ता के भाषण से किसी सदस्य को मानसिक आघात लगता है तो उसके इलाज की ज़िम्मेदारी आयोजक की होगी।  यदि ऐसी स्थिति में सदस्य की मृत्यु हो जाती है तो आयोजक एक लाख रुपये का देनदार होगा।
  8. संघ का सदस्यों को निर्देश है कि वे भाषण को बिलकुल गंभीरता से न लें। ऐसा न होने पर उनके लिए दिन में एक से अधिक भाषण पचा पाना मुश्किल होगा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 37 ☆ व्यंग्य – हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा ”।  वैसे इस व्यंग्य के रंग को चोखा बनाने के लिए उन्होंने हर्र भी लगाया है और फिटकरी भी । यदि विश्वास न  हो तो पढ़ कर देख लीजिये। अपनी बेहतरीन  व्यंग्य  शैली के माध्यम से श्री विवेक रंजन जी सांकेतिक रूप से वह सब कह देते हैं जिसे पाठक समझ जाते हैं और सदैव सकारात्मक रूप से लेते हैं ।  श्री विवेक रंजन जी  को इस बेहतरीन व्यंग्य के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 37 ☆ 

☆ व्यंग्य – हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा ☆

हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा आये. इस कहावत का अर्थ है कि बिना मेहनत व लागत के ही  किसी काम में उसका बेहतर परिणाम मिल जाना. संसाधनो की कमी के वर्तमान समय में यह मैनेजमेंट फंडा है कि हर्र और फिटकरी की बचत के साथ चोखे रंग के लिये हर संभव प्रयास हों.

दलाली के धंधे को इसी मुहावरे से समझाया जाता है. जिसमें स्वयं की पूंजी के बिना भी  लाभार्जन किया जा सकता है.   इन दिनो  नेता, मीडियाकर्मी, डाक्टर सभी इसी मुहावरे से प्रेरित लगते हैं. लोगों की ख्वाहिशें है कि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही हैं. एक मांग पूरी नही हो पाती दूसरी पर दावा किया जाने लगता है.  इसलिये नेताओ को हर्र लगे न फिटकरी वाले मुहावरे पर अमल कर लोगो को प्रसन्न करने के नुस्खे अपनाना शुरू किया है.

इस दिशा में ही बसे बसाये शहर का नाम बदलकर लोगो की ईगो  सेटिस्फाई करने के प्रयास हो रहे हैं. नया शहर बसाना तो पुराने लोगों का पुराना फार्मूला था. अब सब कुछ वर्चुएल पसंद किया जाता है. इसलिये कही शहरो के नाम बदलकर लोगो को खुश करने के प्रयास हो रहे हैं, तो कही गुमनाम निर्जन  द्वीप को ही ऐतिहासिक अस्मिता से जोड़कर उसका नामकरण करके  वाहवाही लूटने के सद्प्रयास हो रहे हैं.

केवल ७ वचन देकर दूल्हा भरी महफिल से दहेज सहित दुल्हन ले आता है, हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा आये इस मुहावरे का यह सटीक उदाहरण है, शायद इससे ही प्रेरित होकर घोषणा पत्र को वचन पत्र में बदल दिया गया. परिणाम में जनता ने सरकार ही बदल दी . लोकतंत्र भी इंटरेस्टिंग है, केवल एक सीट कम या ज्यादा हो जाये तो, ढ़ेरो योजनायें शुरू या बंद हो सकती हैं.

अनेको योजनाओ का नाम बदल सकता है, आनंद परमानंद में बदल जाता है. जो कल तक दूसरो की जांच कर रहे थे वे ही जांच के घेरे में आ जाते हैं.

वैसे हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा वाले मुहावरे का एक और सशक्त तरीका है, आरोप लगाना. एक बारगी तो लकड़ी की हांडी चढ़ ही जाती है.  सही मौके पर झूठा सच्चा आरोप पूरी ताकत से गंगाजल हाथ में लेकर लगा दीजीये, और अपना मतलब सिद्ध कीजीये.  बाद में सच झूठ का फैसला जब होगा तब होगा, वैसे भी अदालतो में तो इन दिनो इस बात पर सुनवाई होती है कि सुनवाई कब की जाये.

वर्चुएल प्यार की तलाश में प्रेमी बिना वीसा पासपोर्ट देश विदेश भाग जाते हैं, मतलब ये कि वर्चुएलिटी में भी दम तो होता है.  इसीलिये कहीं व्हाटसअप पर लिखी कविता पर  वर्चुएल पुरस्कार बांटे जा रहे हैं, तो कहीं सोशल मीडीया पर पोस्ट डालकर देश प्रेम जताया जा रहा है.  ये सब बिना हर्र और फिटकरी के व्यय के चोखे रंग लाने की तरकीबें ही हैं. वादे पूरे करने के दावे पूरे जोर शोर से कीजीये, आसमान में सूराख करने वाली शायरी पढ़िये और महफिल लूट लीजिये. इसके विपरीत जो बेचारा अपनी उपलब्धियों के बल पर महफिल लूटने के मंसूबे पालेगा, अव्वल तो उसे उपलब्धियां अर्जित करनी पड़ेंगी, फिर जो काम करेगा उससे गलतियां भी होंगी, लोग काम में मीन मेख निकालेंगे  वह सफाई देता रह जायेगा इसलिये केवल वचन देकर या आरोप लगाकर या शहरो का योजनाओ का नाम बदलकर, माफी देकर, बिना हर्र या फिटकरी के ही चोखा रंग लाना ही बेहतर है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 9 ☆ ऑन लाइन सम्बंधो का दौर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “ऑन लाइन सम्बंधो का दौर।  इस समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 9 ☆

☆ ऑन लाइन सम्बंधो का दौर

मनुष्य सामाजिक प्राणी है सो जैसे ही मौका मिला कालोनियों का निर्माण शुरू कर देता है । मजे की बात हर व्यक्ति ऐसी जगह बसाहट चाहता है जहाँ शांति हो । इसी शांति की खोज में न जाने कितने जंगल तबाह हो गये । जंगलों को उजाड़ कर अपना आशियाना बनाना प्राचीन काल से चला आ रहा है । पांडवों ने भी खांडव वन उजाड़ कर इंद्रप्रस्थ बनाया था । जिसका दर्द भगवान श्रीकृष्ण को आखिरी समय तक रहा ।

एकांत वास व सबसे दूर रहने की एक वज़ह और भी है । सबसे मिलने जुलने में स्वागत सत्कार करना पड़ता है । आज की तकनीकी ग्रस्त पीढ़ी के पास इतना समय कहाँ कि वो सम्बंधो को ढोते फिरे । आने- जाने में चाय – नाश्ता करवाओ ,फिर इधर – उधर की बातें सो फ़ायदा कम कायदा ही ज्यादा नजर आता है ।  अब तो यही बेहतर है कि ऑन लाइन सम्बंधो को निभाया जाये , बधाई संदेशों से लेकर सारे पकवान व उपहार सब के सिंबल मौजूद हैं बस इधर से उधर करते रहिए और त्योहारों की गहमा- गहमी से बचे रहिये ।

संस्कार और संस्कृति को बचाने की ऑन लाइन मुहिम तो जोर- शोर से चल रही है बस उसके मुखिया बनने की देर है । जिसके पास समय हो वो इस पद पर आसीन हो सकता है । मुखिया की बात से तुलसी दास जी द्वारा रचित ये दोहा याद आता है –

मुखिया मुह सो चाहिए …..खान – पान सो एक ।

पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक ।।

अब सच्ची बात तो ये है कि ये पद उसी को मिल सकता है जिसका मुह  सबको एक समान जानकारी प्रदान करे ; बिना भेदभाव के । हाँ एक बात और है कि मुह देखी तो बिल्कुल न करे ; सामने कुछ और पीठ पीछे कुछ और । वो मन से ईमानदार हो , बुद्धिमान हो तभी तो सारे समाज को एक सूत्र में पिरोकर रख सकेगा ।

ऑन लाइन सम्बंधो की सबसे बड़ी खूबी  है कि –  ये पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर सकते हैं । सबको एक साथ जानकारी फॉरवर्ड कर जागरूक बनाना इसका मुख्य लक्ष्य है । एक तरफ जहाँ लोग ये कह रहे हैं कि अब रिश्तों में वो गर्माहट नहीं बची जो पहले थी तो दूसरी ओर ऑन लाइन सम्बंध सभी रिश्तों को बखूबी निभा रहे हैं । इतनी आत्मीयता व उचित संबोधनों से बातचीत होती है कि इस मिठास के आगे तो शहद भी फीका पड़ जाता है ।  और सबसे बढ़िया बात कि इन मुलाकातों में कोई संक्रमण का डर भी नहीं होता । समय- समय पर जो बीमारियाँ हमको डराती रहतीं हैं वो भी इससे खुद डरकर भाग जाती हैं ; न दवा – दारू की झंझट, न कोई साइड इफ़ेक्ट  । सो अब तो हर त्योहार ऑन लाइन ही मनाइये आखिर परम्पराओं को हम लोग ही तो  बचायेंगे । एक दूसरे को शुभकामनाएँ, बधाई व शुभाशीष देते रहें लेते रहें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – होली पर व्यंग्य ☆ इंकलाबी होली ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया।

कृतियां/रचनाएं – चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान – कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।)

 ☆ होली पर व्यंग्य ☆ इंकलाबी होली ☆

मेरी कॉलोनी की महिलाओं ने पिछले माह एक अनूठे क्लब का गठन किया था और उसका नाम धरा ‘रीति तोड़क क्लब’। श्रीमती रीति वर्मा उस क्लब की संचालिका हुईं। क्लब की पहली बैठक में एक प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ कि नारियों को भी साप्ताहिक अवकाश मिलना चाहिए। रीति वर्मा ने ही उस रीति को तोड़ने के लिए वह प्रस्ताव रखा था। उस प्रस्ताव को अभूतपूर्व समर्थन मिला। अभूतपूर्व इसलिए कि उससे पूर्व कोई प्रस्ताव ही पेश नहीं हुआ था। खैर, वह प्रस्ताव उसी भांति आसानी से पारित हो गया जिस तरह सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्तों के विधेयक आनन फानन पास हो जाते हैं। सदस्याओं के पतियों को उस प्रस्ताव की प्रति देकर आगाह कर दिया गया कि वे आने वाले रविवार को घर संभालने के लिए, कमर कस कर तत्पर हो जाएं। बेचारे हुए भी। अपन भी उन बेचारों में से एक थे। चालू माह में चार रविवार पड़े और अगले माह पांच पड़ेंगे, कलैंडर को पलट पति नामक जीव कंपायमान हो गया।

एक कलैंडर रीति वर्मा ने भी पलटा लेकिन उनका मकसद कुछ और था। वे क्लब की अगली बैठक की तिथि तय करने के साथ ही कोई नया रीति तोड़क प्रस्ताव भी लाना चाहती थी। अगले माह होली है। श्रीमती वर्मा की आंखें चमक उठीं। वे बुदबुदायीं, ‘‘अरे वाह! कुल छः छुट्टियां हो जाएगीं। पांच तो संडे ही होंगे और एक दिन होली का। होली के दिन पति संभालेंगे घर और हमारा क्लब खेलेगा होली…हुर्रे…।’’

संचालिका महोदय ने दूसरी दोपहर को ही क्लब की दूसरी बैठक बुला ली और वह प्रस्ताव रख दिया। उसे सुनते ही मीटिंग हॉल में भूचाल आ गया। वह, ठहाकों का भूकंप था। घर ही हिल उठा था। कुछ सदस्याएं तो उठ कर नाचने लगीं। एक ने रीति वर्मा को बांहों में भर लिया, ‘‘कसम से क्या मार्वलस ऑयडिया लायी है, डीयर!’’

वह प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ और उसका नोटिफिकेशन भी तत्काल तैयार किया गया क्योंकि होली अगले हफ्ते ही थी। शाम को घर में प्रवेश करते ही मैडम ने वह टाइपशुदा नोटिस मेरे हाथ में थमा दिया। उसे पढकर मैं हैरत से बोला, ‘‘अन प्रेक्टिकेबल प्रपोजल है, यह। इस शहर को जानती हो, यहां स्त्रियां नार्मल डेज में ही सेफ नहीं होतीं, वे होली के हुडदंगी माहौल में कैसे सुरक्षित रह सकेंगी?’’

‘‘अरे, मैं कोई अकेली ही थोड़े खेलूंगी, हमारा पूरा ग्रुप होगा।’’ पत्नी वीरोचित भाव से बोली।

‘‘देखो, हमारे घर से आज तक कोई घर से बाहर गया नहीं। मैं खुद नहीं निकलता।’’ मैंने समझाने का एक प्रयास और किया।

‘‘आप तो रहने ही दो। गुलाल का एक टीका लगाने से ही लाल-पीले हो जाते हो। कलर न खुद लगवाते और न हमें लगवाने देते। सच, मेरा तो बहुत मन करता है, किसी पर जी भर कर रंग डालने का। पीहर में खूब खेलती थी। शादी के बाद अब, अवसर आया है तो यह चौहान क्यों चूके।’’ अपनी ओर संकेत करते हुए, श्रीमतीजी खिलखिला गयीं और हमारा मन होलिका सा दहक गया।

होली दहन के दूसरे दिन ‘रीति तोड़क क्लब’ की सदस्याएं भोर होते ही क्लब के प्रांगण में पहुंच गयीं। अजब सा उछाह था, सबके मन में। रात को ही सारी तैयारी हो चुकी थी। महिलाएं किसी भी हाल में पुरूषों से पीछे नहीं रहना चाहती थीं। ठंडाई घुट रही थी। टबों में लाल-नीले-हरे रंग भरे हुए थे। उनके पास एक मेज पर लंबी लंबी पिचकारियां रखी थीं। उनके पास ही गुलाल भरी थालियां रखी थीं। सबने छक कर ठंडाई पी। रंगों से एक दूसरे को सरोबार किया। जी भर कर गुलाल मली। उल्लास के वातावरण में संयोजिका ने उद्घोष किया, ‘‘अब हम नगर फेरी को चलेंगे।’’ प्रौढ महिलाएं आगे आयीं। युवतियों को पीछे रखा। कॉलोनी की सड़कों पर होली के भजन गाता हुआ वह दल आगे बढा। उन स्वरों को सुनकर अनेक घरों के खिड़की दरवाजे खुल गए थे। जिस घर के सम्मुख कोई स्त्री दिख जाती तो उन्हें गुलाल का टीका अवश्य लगाया जाता।

कॉलोनी का अंत आ गया था। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वहीं से वापस होना था किन्तु न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह हुजूम आगे बढता ही गया। सुरों का सरगम बेढब हो गया। सुरीले स्वर फटने लगे। कदम लहराने लगे। वस्त्र, अस्त-व्यस्त हो गए। किसी को सड़क के किनारे एक टूटा हुआ कनस्तर दिख गया। एक युवती ने उसे उठा लिया और उसे एक टहनी से पीटती हुई, भौंडे ढंग से कोई रसिया गाने लगी। कॉलोनी के पास ही कच्ची बस्ती थी। उस जुलूस का रूख उस ओर ही था। वहां एक झोंपड़ी के आगे कुछ युवक मद्यपान में लीन थे। अधनंगे बच्चे एक दूसरे पर धूल उड़ाते खेल रहे थे।

अपनी ओर नाचती गाती स्त्रियों को आता देख हिचकी लेता एक लड़का बोला, ‘‘..हे…हे…अरे देख…कितने सारे हिंजड़े।’’ टोली के पास आते ही एक युवक उठ खड़ा हुआ, ‘‘अरे…बुआ! आज किसे कत्ल कर डालने का इरादा है?’’

इससे पहले कि तथाकथित बुआ कोई जवाब दे एक मनचले ने एक युवती से ठिठोली कर दी। प्रत्युत्तर में उसने तमाचा रसीद कर दिया। ‘‘इनकी यह औकात जो हम पर हाथ उठाएं। अभी चखाते हैं, इन्हें मजा।’’, वहां घिर आए कई मर्द चीखे।

इससे पहले कि कोई गजब हो। होली पर पुलिस का गश्ती दल वहां आ गया और उन महिलाओं को सुरक्षा मुहैय्या करा दी। बाद में भेद खुला कि ठंडाई पीसने वालों ने अपनी आदत के मुताबिक उसमें भांग मिला दी थी।

 

© प्रभाशंकर उपाध्याय

193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

सम्पर्क-9414045857

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