हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ अंतरराष्ट्रीय_महिला_दिवस_पर_न_रोना… _करो_ना..।  ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(आज प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  की  एक बेहतरीन समसामयिक मौलिक व्यंग्य रचना _अंतरराष्ट्रीय_महिला_दिवस_पर_न_रोना… _करो_ना..।  शायद आपको मिल जाये  इस प्रश्न का उत्तर कि – कैसे करें बेअसर ,अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से लेकर होली तक चीन का असर ? )  

☆ व्यंग्य –  “_अंतरराष्ट्रीय_महिला_दिवस_पर_न_रोना… _करो_ना..।”  ☆ 

इतना कोरोना का रोना ले के बैठे हो यार…। जान जाने से डरते हो… सच में!! तो फिर केवल कोरोना से ही क्यों डरते हो भाई…।

महिलाओं से बलात्कार करने से पहले भी डरो…। नहीं डरोगे, पता है। तुम्हारी आत्मा तुम्हें कचोटती नहीं…।

महिलाओं की इज्ज़त का रोना हम ताउम्र गाते रहेंगे लेकिन करेंगे नहीं।

ट्रेफिक के नियम तोड़ने से भी डरो ना…। नहीं डरेंगे…। इसमें डरने वाली क्या बात है, श्शैःः।

हजारों की तादाद में लोग जान गंवा देते हैं इस चक्कर में…। और लाखों के घर उजड़ जाते हैं।

तो….। वायरस थोड़े है, हावी हुआ और हम जान गंवा बैठेंगे।

हेलमेट नहीं लगाना तो नहीं लगाना। जान जाए तो जाए।

अभी तो बस, कोरोना से डरना जरूरी है। सेनेटाइजर और मास्क के लिए मारामारी है।

बस इस बीमारी से मौत नहीं होनी चाहिए। बाकी किसी से भी हो, चलेगा। वो हमारी गलती से होगी इसलिए दुख भी कम होगा। लेकिन चीन की गलती से होगी तो न चल पाएगा।

हम चीन का विरोध करते हैं तो उसकी दी हुई बीमारी का भी विरोध करना जरूरी है।

आखिर विरोधी, विरोध करने के लिए ही होते हैं। सही, गलत कहां जान पाते।

फिर भी रंग पिचकारी हम चीन की ही खरीदेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं…।

 

©समीक्षा तैलंग, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 40 ☆ व्यंग्य – एक अति-शिष्ट आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘एक अति-शिष्ट आदमी’ एक बेहतरीन व्यंग्य है। कोई कितना भी शिष्ट या अति शिष्ट  व्यक्ति हो  उसमें कोई न कोई अशिष्टता या  लोभ-मोह तो अवश्य होगा ही जो डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि से बचना सम्भव ही नहीं है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 40 ☆

☆ व्यंग्य – एक अति-शिष्ट आदमी ☆

 लक्ष्मी बाबू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे लक्ष्मी-पुत्र हैं। पैसा हो तो आदमी के पास बहुत सी नेमतें अपने आप खिंची चली आती हैं। पैसा है तो आप बहुत आराम से राजनीतिज्ञ या समाजसेवक बन सकते हैं। धन है तो आप बहुत बड़े विद्वान बन सकते हैं।

लक्ष्मी के लाड़ले होने के कारण लक्ष्मी बाबू स्वभाविक रूप से नगर के गणमान्य नागरिक हैं। नगर का कोई कार्यक्रम उनकी उपस्थिति के बिना सफल या सार्थक नहीं होता। इसीलिए लक्ष्मी बाबू के पास ढेरों आमंत्रण-पत्र पहुँचते रहते हैं और वे अधिकांश लोगों को उपकृत करते रहते हैं।

चन्दा बटोरने वाले अक्सर लक्ष्मी बाबू के दरवाज़े पर दस्तक देते रहते हैं और उनके घर से बहुत कम चन्दा-बटोरकर निराश लौटते हैं। थोड़ा बहुत प्रसाद सबको मिल जाता है। चन्दा लक्ष्मी बाबू के यश और उनकी लोकप्रियता को बढ़ाता है। हर धनी की भूख धन के अलावा प्रतिष्ठा और लोकप्रियता की होती है। थोड़े धन के निवेश से प्रतिष्ठा का अर्जन हो जाता है।

लक्ष्मी बाबू के साथ खास बात यह है कि वे अत्यधिक शिष्ट आदमी हैं। यह गुण लक्ष्मी बाबू को प्रतिष्ठित बनाता है, लेकिन यह लोगों की परेशानी का कारण भी बन जाता है।

लक्ष्मी बाबू किसी भी आयोजन में पहुँचकर चुपचाप सबसे पीछे वाली कुर्सी पर बैठ जाते हैं। कुछ देर बाद जब आयोजकों की नज़र उन पर पड़ती है तो वे उन्हें मंच पर ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू पीछे ही बैठे रहने की ज़िद करते हैं, लेकिन दो आदमी उन्हें ज़बरदस्ती पकड़कर मंच तक ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू दोनों आदमियों के बीच लटके, दोनों तरफ बैठे लोगों की तरफ हाथ जोड़ते हुए मंच तक पहुँचाये जाते हैं और लोग उनके नाटक को देखते रहते हैं।

यदि कोई आयोजन दरियों पर होता है तो लक्ष्मी बाबू वहाँ बैठ जाते हैं जहाँ लोगों के जूते उतरे होते हैं। फिर आयोजक उनकी शिष्टता से पीड़ित, उन्हें उठा ले जाते हैं और वे उसी तरह टंगे, दोनों हाथ जोड़कर नाक पर लगाये, मंच तक चले जाते हैं। लेकिन यह ज़रूर होता है कि वे हर आयोजन में इसी तरह मंच पर पहुँच जाते हैं।

लक्ष्मी बाबू की इन आदतों के कारण आयोजकों को सतर्क रहना पड़ता है। पता नहीं लक्ष्मी बाबू कब धीरे से आकर पीछे बैठ जाएं। उनके लिए हमेशा चौकस रहना पड़ता है।

जैसा कि मैंने कहा,लक्ष्मी बाबू की शिष्टता चिपचिपाती रहती है। नमस्कार करते हैं तो कमर समकोण तक झुक जाती है। बुज़ुर्गों से मिलते हैं तो सीधे उनके चरण पकड़ लेते हैं। अपरिचितों से मिलते हैं तो उन्हें छाती से चिपका लेते हैं। महिलाओं से बात करते हैं तो हाथ जोड़कर उनके चरणों को निहारते रहते हैं। नज़र ऊपर ही नहीं उठती।

लक्ष्मी बाबू जब भाषण देते हैं तो विनम्रता  उनके शब्दों से चू-चू पड़ती है। वाणी से शहद टपकती है।  ‘मैं आपका सेवक’, ‘आपका चरण सेवक’, ‘मैं अज्ञानी’, ‘मैं मन्दबुद्धि’, ‘मैं महामूढ़’ जैसे शब्दों से उनका भाषण पटा रहता है। अति विनम्रता के नशे में उनका सिर दाहिने बायें झूमता रहता है।

लेकिन एक आयोजन में गड़बड़ हो गया। आयोजन के मुख्य अतिथि एक मंत्री जी थे। लक्ष्मी बाबू पहुँचे और आदत के मुताबिक पीछे वाली लाइन में बैठ गये। आयोजक मंत्री जी की अगवानी में व्यस्त थे, इसलिए उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। पूर्व के आयोजनों में आसपास के लोग आयोजकों को उनके आने की खबर दे देते थे, लेकिन इस बार पूरा फोकस मंत्री जी पर था।

लक्ष्मी बाबू बैठे बैठे कसमसाते रहे। उन्होंने कई बार अपनी गर्दन लम्बी करके इधर उधर झाँका कि किसी का ध्यान उनकी तरफ खिंचे, लेकिन सब बेकार।

लक्ष्मी बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर घोर उदासी छा गयी। वे मुँह लटकाये, मरे कदमों से चलकर अपनी कार तक पहुँचे। तभी मंत्री जी से फुरसत पाये आयोजक ने उन्हें देखा। प्रफुल्लित भाव से बोला, ‘अरे लक्ष्मी बाबू, आप कहाँ बैठे थे?आप दिखे ही नहीं।’

लक्ष्मी बाबू का मुँह गुस्से से विकृत हो गया। फुफकार कर बोले, ‘आपके आँखें हों तो दिखें। कम दिखता हो तो चश्मा लगवा लो भइया। आपको तो मंत्री जी दिखते हैं, हम कहाँ दिखेंगे?’

वे फटाक से कार का दरवाज़ा बन्द करके बैठ गये। फिर खिड़की से सिर निकालकर बोले, ‘अब आगे के कामों में मंत्री जी से ही चन्दा लेना।’

कार सर्र से चली गयी और आयोजक शिष्ट-शिरोमणि लक्ष्मी बाबू का यह रूप देखकर भौंचक्का रह गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 36 ☆ व्यंग्य – गांधी जी आज भी बोलते हैं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “गांधी जी आज भी बोलते हैं ”।  अपनी बेहतरीन  व्यंग्य  शैली के माध्यम से श्री विवेक रंजन जी सांकेतिक रूप से वह सब कह देते हैं जिसे पाठक समझ जाते हैं और सदैव सकारात्मक रूप से लेते हैं ।  श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 36 ☆ 

☆ व्यंग्य – गांधी जी आज भी बोलते हैं  ☆

साहब की कुर्सी के पीछे गांधीजी दुशाला ओढ़े लगे हुए हैं। साहब कुछ वैचारिक किस्म के आदमी हैं। वे अकेले में गांधी जी से मन ही मन  बिन बोले बातें करते हैं। गांधीजी उनसे बोलते हैं कि  सारी योजनाएं तभी कारगर  होंगी जब उनके केंद्र में  कतार की पंक्ति में खड़ा अंतिम आदमी ही पहला व्यक्ति होगा। इसलिए साहब अक्सर लाभ पहुंचाते समय कतार के पहले व्यक्ति की उपेक्षा कर अंतिम व्यक्ति को भी,  जो गांधी जी के साथ आता है सबसे पहले खड़ा कर लेते हैं।

साहब की आल्मारियो से फाइलें तभी बाहर आती हैं जब अकेले में वे उनके विषय  में  गांधी जी से पूरी बातें कर लेते हैं। उनके पास गांधीजी गड्डी में आते हैं। गांधी जी साहब की लाठी हैं। गांधीजी के बिना साहब फाइल को  लाठी से हकाल देते हैं। वे गांधीजी के इतने भक्त हैं कि गांधीजी की संख्या साहब के कलम की दिशा पलट देती है। वे गांधी जी के सो जाने के बाद ही साहब क्वचित नशा करते हैं। वे गांधीजी  के नोट पर छपे हर चित्र की सुरक्षा बहुत जतन से करते हैं। साहब ने एक बकरी भी गांधीजी की ही तरह पाली हुई है। यदि उन्हें किसी की कोई सलाह पसंद नहींं आती तो वे बकरी  को घास खिलाने चले जाते हैं और इस तरह विवाद होने से बच जाता  है। स्वयम ही अगली बार समझदार व्यक्ति बकरी के लिए पर्याप्त घास लेकर साहब के पास पहुंचता है। साहब उसके साथ गड्डी में आये हुए गांधी जी से एकांत में चर्चा करतेे हैं। और गांधीजी का संकेत मिलते ही  व्यक्ति का काम सुगमता से कर देते हैं। बकरी निमियाने लगती है।

इसलिए मेरा मानना है कि गांधी जी आज भी बराबर बोलते हैं, उन्हें गुनने, सुनने औऱ समझने वाले की ही आवश्यकता है। जन्म के 150 वे वर्ष में हम सब को गांधी जी को पुनः पढ़ना समझना आचरण में उतारने की जरूरत है बस।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 8 ☆ अघोषित युद्ध ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “अघोषित युद्ध।  इस समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।  इस सन्दर्भ में मैं अपनी दो पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा-

अब ना किताबघर रहे ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 8 ☆

☆ अघोषित युद्ध

कहते हैं जहाँ एक ओर बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा होता है तो वहीं दूसरी ओर चिड़चिड़ापन  चटनी के समान तीखा व चटपटा होता है, जो क्रोध को और लाग लपेट के साथ प्रस्तुत करता है । चिड़चिड़ा व्यक्ति क्या बोलता है ये समझ ही नहीं  पाता, उसके दिमाग में बस बदला लेने की प्रवत्ति ही छायी रहती है । वो मारपीट, समान तोड़ना, पुरानी बातों को याद करना, अपना माथा पीटना ऐसी हरकतों पर उतारू हो जाता है । ऐसी दशा में चेहरे का हुलिया बिगड़ जाता है  क्योंकि जब भी किसी को गुस्सा आता है तो चेहरा व आँखे लाल हो जाती है।  मन ही मन बैर पाल लेने की परंपरा बहुत पुरानी है । महाभारत युद्ध भी इसी का परिणाम था। खैर अब तो इलेक्ट्रॉनिक युग है सो बात-बात पर ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप इन पर कोई भी पोस्ट आयी नहीं कि दो खेमे तैयार एक पक्ष में माहौल बनाता है तो दूसरा विपक्ष में । बस इसी के साथ अनर्गल बात चीत का दौर शुरू हो जाता है । अब गुस्से में व्यक्ति अधिक से अधिक क्या कर सकता है बस अनफॉलो, अनफ्रेंड, रिमूव इनके अतिरिक्त और कोई इजाजत यहाँ नहीं होती ।

यकीन मानिए कि  ये सब करते हुए बहुत सुकून मिलता है दूसरे शब्दों में कहूँ तो राजा जैसी फीलिंग आती है । जिस तरह पुराने समय में बदला लेने के लिए युद्ध होते थे वैसे ही यहाँ पर भी अघोषित युद्ध आये दिन चलते रहते हैं जिसमें पिसता बेचारा असहाय वर्ग ही है क्योंकि वो इन पोस्ट्स को पढ़ता है और इसी आधार पर आपस में ज्ञान बाँटने लगता है ।

वीडियो, भड़काऊ पोस्ट, ज्ञान दर्शन की बातें ये सब खजाना खुला पड़ा है  सोशल मीडिया पर ;  बस यहाँ से वहाँ फॉरवर्ड करिए और दूसरों की नजरों में भले ही आप बैकवर्ड हो पर स्वयं की नजर में तो फॉरवर्ड घोषित हो ही जाते हैं । मजे की बात इन बातों का  प्रभाव भी दूरगामी होता है ; मन ही मन खिचड़ी पकने लगती और हमारे क्रियाकलाप उसी तरह हो जाते हैं जो सामने वाला चाहता है । भटकाव के इस दौर में जो लोग साहित्य को दर्पण मान  पुस्तक में डूब जाते हैं उनकी जीवन नैया तो संगम के पार उतर जाती है बाकी के लोगों को राम ही राखे ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 28 ☆ व्यंग्य संग्रह – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री अजीत श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री श्रवण कुमार उर्मलिया के  व्यंग्य  संग्रह  “निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 28☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे

पुस्तक –  (व्यंग्य  संग्रह )निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे

लेखक – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया

प्रकाशक –भारतीश्री प्रकाशन , दिल्ली ३२

मूल्य – २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड

 ☆ व्यंग्य संग्रह   – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया–  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

इस सप्ताह मुझे इंजीनियर श्रवण कुमार उर्मलिया जी की बढ़िया व्यंग्य कृति ‘निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पढ़ने का सुअवसर सुलभ हुआ.

बहुत परिपक्व, अनुभव पूर्ण रचनायें इस संग्रह का हिस्सा हैं. व्यंग्य के कटाक्षो से लबरेज कथानको का सहज प्रवाहमान व्यंग्य शैली में वर्णन करना लेखक की विशेषता है.पाठक इन लेखो को पढ़ते हुये  घटना क्रम का साक्षी बनता चलता  है. अपनी रचना प्रक्रिया की विशद व्याख्या स्वयं व्यंग्यकार ने प्रारंभिक पृष्ठो में की है. वे अपने लेखन को आत्मा की व्यापकता का विस्तार बतलाते हैं. वे व्यंग्य के कटाक्ष से विसंगतियो को बदलना चाहते हैं और इसके लिये संभावित खतरे उठाने को तत्पर हैं.

पुस्तक में ५२ व्यंग्य और २ व्यंग्य नाटक हैं. ५२ के ५२ व्यंग्य, ताश के पत्ते हैं, कभी ट्रेल में, तो कभी कलर में, लेखों में कभी पपलू की मार है, तो कभी जोकर की. अनुभव की पंजीरी से लेकर निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पीटने के लिये ईमानदारी की बेईमानी, भ्रष्टाचार का शिष्टाचार व्यंग्यकार के शोध प्रबंध में सब जायज है. हर व्यंग्य पर अलग समीक्षात्मक आलेख लिखा जा सकता है, अतः बेहतर है कि पुस्तक चर्चा में मैं आपकी उत्सुकता जगा कर छोड़ दूं कि पुस्तक पठनीय, बारम्बार पठनीय है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव,

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 39☆ व्यंग्य – बड़ी लकीर : छोटी लकीर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘बड़ी लकीर : छोटी लकीर’ एक बेहतरीन व्यंग्य है। हमारे जीवन में इन लकीरों का बड़ा महत्व है। हाथ की लकीरों से माथे की लकीरों तक। डॉ परिहार जी ने इन्हीं लकीरों में से छोटी बड़ी लकीरें लेकर मानवीय सोच का रेखाचित्र बना दिया है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 39 ☆

☆ व्यंग्य – बड़ी लकीर : छोटी लकीर ☆

एक नीति-कथा पढ़ी थी। यदि किसी लकीर को छोटा करना हो तो उसे मिटाने की ज़रूरत नहीं। उसकी बगल में एक बड़ी लकीर खींच दो। पहली लकीर अपने आप छोटी हो जाएगी। यह बात आज की ज़िन्दगी में खूब लागू हो रही है। बहुत सी बड़ी लकीरें खिंच रही हैं और उनकी तुलना में बहुत सी लकीरें छोटी पड़ती जा रही हैं। इन छोटी लकीरों की हालत खस्ता हो रही है।

मेरे एक मित्र ने बड़ी हसरत से एक पॉश कॉलोनी में मकान बनवाया। उस वक्त उस कॉलोनी में बहुत कम मकान बने थे इसलिए बहुत खुला खुला था। उन्होंने बड़े प्यार से मकान का नाम ‘हवा महल’ रखा।

धीरे धीरे कॉलोनी भरने लगी। नये मकान बने और एक दिन उनकी बगल में एक रिटायर्ड ओवरसियर साहब ने भव्य दुमंज़िला भवन  तान दिया। ओवरसियर साहब के पुत्र विदेशों में धन बटोर रहे हैं। अब ओवरसियर साहब इस बाजू वाले मकान पर हिकारत की नज़र डालते, अपनी दूसरी मंज़िल की छत पर घूमते हैं। मेरे मित्र मन मसोस कर कहते हैं, ‘हमारा मकान तो अब सरवेंट्स क्वार्टर हो गया। ‘ मकान तो वही है लेकिन बड़ी लकीर ने छोटी लकीर की धजा बिगाड़ दी।

परसाई जी की एक कथा याद आती है। एक साहब के ट्रांसफर पर हुई विदाई-पार्टी में उनका एक सहयोगी फूट-फूट कर रो रहा था। जब उस दुखिया से उसके भारी दुख का कारण पूछा गया तो उसका जवाब था, ‘साला प्रमोशन पर जा रहा है।’

दरअसल अब सुख-दुख निरपेक्ष नहीं रहे,वे सापेक्षिक हो गये हैं। हमें मिले यह तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन असली सुख तभी मिलेगा जब पड़ोसी को हमसे कम मिले। ‘प्रभु! आपने हमको हज़ार दिये इसके लिए हम आपके अनुगृहीत हैं, लेकिन पड़ोसी को सवा हज़ार देकर सब गड़बड़ कर दिया। उसे पौन हज़ार पर ही लटका देते तो हम आपके पक्के भक्त हो जाते।’

हम घर में स्कूटर लाकर खुश हो रहे होते हैं कि हमारा पुत्र खबर देता है, ‘पापाजी, सक्सेना साहब के घर में नयी कार आ गयी है।’ तुरन्त हमें अपना नया-नवेला स्कूटर कबाड़ सा अनाकर्षक लगने लगता है।

हम दार्शनिक की मुद्रा अख्तियार करते हैं और खाँस-खूँस कर कहते हैं, ‘देखो बेटे, इन चीज़ों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। आवश्यकताओं का कोई अन्त नहीं है। कार हो या स्कूटर, कोई फर्क नहीं पड़ता।’

पुत्र ठेठ व्यवहारिक टोन में कहता है, ‘फर्क तो पड़ता है, पापा। कार और स्कूटर का क्या मुकाबला।’

पापा के पास सिवा चुप्पी साध लेने के और कुछ नहीं रह जाता और वह हज़ार साधों से खरीदा हुआ स्कूटर कोने में तिरस्कृत खड़ा रहता है।

आज दो नंबर की कमाई का ज़माना है। दो नंबर की कमाई में बड़ी बरकत होती है। दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती है। इसलिए इस तरह की कमाई वाली लकीरें बड़ी तेज़ी से बढ़ रही हैं। जो लकीरें अपने संस्कारों के कारण या मौका न मिलने के कारण दो नंबर की कमाई नहीं कर सकतीं वे इन बढ़ती लकीरों को देखकर छटपटा रही हैं। आज ईमानदार अफसर ईमानदार तो रहता है, लेकिन बेईमानों को फलते-फूलते देखकर हाय-हाय करता रहता है। अन्त में वह ईमानदारी के दो चार तमगे लटकाये, बुढ़ापे की चिन्ता से ग्रस्त, रिटायर हो जाता है। और जो जीवन भर समर्पित भाव से बेईमानी करते हैं, वे जेब में इस्तीफा डाले घूमते हैं। वे कल की जगह आज ही रिटायर होने को तैयार बैठे रहते हैं। ज़्यादा दिन नौकरी करने में फँसने का खतरा भी रहता है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ फोकट की कमाई ☆ – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(आज प्रस्तुत है डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी द्वारा रचित एक विचारणीय, सार्थक एवं सटीक व्यंग्य  “फोकट की कमाई”। डॉ विजय तिवारी जी ने फ़ोकट की कमाई से सम्बंधित  सामाजिक बुराई के पीछे निहित मनोवृत्ति तथा मजबूरी पर विस्तृत चर्चा की है। हम भविष्य में आपसे ऐसी ही उत्कृष्ट  रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )

☆ फोकट की कमाई ☆

कोरी बातों से पेट नहीं भरता। पेट की आग बुझाने के लिए हाथ पैर भी चलाने पड़ते हैं। हमें  इसका भी भान होना चाहिए कि पैर पेट की ओर, पेट के लिए ही मुड़ते हैं। पर, दीनू को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मंदिर के बाहर बैठे बैठे ही जब भक्तजन भरपूर भोजन, फल-फूल, कपड़े और पैसे दे जाते हैं, तो हाथ पैर क्यों चलाए जाएँ। बड़ी अजीब बात है ग्रेजुएट दीनू की, जो पढ़-लिखकर भी भिखारी बना बैठा है। किसी ने बताया कि वह दूर दराज गाँव का रहने वाला है। प्रतिदिन घर से वह अच्छे कपड़े पहनकर निकलता है। मंदिर से दो-तीन सौ मीटर पहले अपने परिचित के घर बाईक रखकर भिखारी वाली ड्रेस पहनता है और पैदल चलकर मंदिर-पथ पर बने अपने ठीहे पर आसन जमा लेता है। महीने भर की कमाई से उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण आसानी से हो जाता है। साथ ही वह कुछ पैसे भी बचा लेता है।

गाँव के मित्रों से दीनू अक्सर कहा करता है कि मैंने बेकार ही 10-15 वर्ष पढ़ाई में बर्बाद कर दिए। जब बिना पढ़े-लिखे ही, बिना किसी लागत या आवेदन के बैठे-बैठे रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाता है, तब मेहनत और माथापच्ची क्यों की जाए?

आजकल कुछ रईस और दयालु किस्म के लोगों की भी बाढ़ सी आ गई है। वे अपनी अतिरिक्त कमाई के कुछ हिस्से को हम जैसे लोगों में बाँट कर अपनी वाहवाही लूटते रहते हैं। अखबारों में उनके साथ-साथ हम लोगों की भी फोटो छप जाती है। अखबार उनके नाम और उनके द्वारा की गई सेवाओं का उल्लेख तो करते हैं, लेकिन क्या मजाल कि कोई अखबार वाला या विज्ञप्तिवीर कभी हम लोगों की पीड़ा, विचार अथवा हमारे नामों का उल्लेख करे। कुछ लोग आयकर में बचत के लिए तरह-तरह के दान, गरीबों की सहायता, एन.जी.ओ. आदि का भी सहारा लेते हैं। अनेक बड़े लोग संस्थाएँ, संस्थान अथवा ऐसे ही कामों से अपना काला धन सफेद करते रहते हैं और इन सब के पैसों से ऐश करना हमारे नसीब में लिखा है। हम लोग साल में दो-चार ऐसे कार्यक्रम करने वालों की पूरी जानकारी रखते हैं। हमारी मासूमियत, हमारे परिवेश एवं हमारे छद्म मेकअप से भले व कृपालु लोगों के ठगे जाने का क्रम बदस्तूर चला आ रहा है। सरकारी उपक्रम एवं  सामाजिक संस्थाएँ भी गरीब किस्म के लोगों, भिखारियों अथवा जरूरतमंदों को सहायता पहुँचाने में पीछे नहीं हटतीं।

राष्ट्रीय स्तर पर हमारे उन्नयन हेतु काफी समय से प्रयास होते आ रहे हैं फिर भी हमारे समाज में कमी की बजाय इजाफा ही हो रहा है। यह सरकार एवं विद्वानों के लिए शोध का विषय हो सकता है, मगर मेरे अनुसार सीधी सी बात यही है कि बिना लागत, बिना मेहनत और बिना हाथ-पैर चलाए ऐसा धंधा या व्यवसाय कोई दूसरा नहीं है। मुझ जैसी सोच वाले इंसानों के लिए इससे अच्छा रोजगार और कुछ हो ही नहीं सकता। \

अब आप कहेंगे कि एक पढ़े लिखे इंसान की सोच ऐसी कैसे हो सकती है? तब मैं आपको समझाना चाहता हूँ कि आज के जमाने में पैसे कमाने के कोई निश्चित मानदंड तो हैं नहीं, बस आपको पैसे कमाने के तरीके आने चाहिए। आज जो चाय चौराहे पर पाँच रुपये में मिलती है, चाय स्क्वेयर में  पच्चीस से पचास रुपये और फाइव स्टार होटल में दो सौ की मिलती है, बस आपको चाय बेचने का तरीका आना चाहिए। कहते हैं न कि बेचने की कला हो तो गंजे को भी कंघी बेची जा सकती है। इस तरह कमाई करने वाले कई तरीके और रास्ते लोग निकाल ही लेते हैं। फोकट की कमाई वाले धंधों में  इजाफे के भी यही कारण हैं। बदलते समय में कभी चरित्र का, कभी शक्ति का, कभी शिक्षा का, कभी पैसे का मूल्य श्रेष्ठ रहा है, परन्तु अब इनमें से कुछ भी बड़ा नहीं रह गया। आजकल लच्छेदार बातें, बाह्याडंबर या विश्वास दिलाने का षड्यंत्र ही सबसे कारगर है। झूठ को सच, पीतल को सोना एवं घटिया को उत्कृष्ट बताने की कला आपको धनवान से और धनवान बना देती है। विश्वासघात, नकली का असली और झूठ की पराकाष्ठा ने ही हमारी सामाजिक मान्यताओं को आज गड्डमगड्ड कर के रख दिया है।

बुद्धिजीवी अपना सर पटकता है और चालाक बाजी मार ले जाता है। चोर, बदमाश, आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों से आम आदमी आतंकित रहता है। इनके समूह निरंकुश हो सारे अनैतिक कार्य करते हैं। चोरी, डकैती, लूटपाट, हत्याएँ, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति इनकी अकूत आय के स्रोत हैं।

यहाँ यह बात प्रमुखता से कही जा सकती है कि भिक्षावृत्ति हेतु बच्चे-बच्चियों सहित हर उम्र के व्यक्तियों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाता है। इन पर और इनकी आय पर निगरानी रखी जाती है। एकल एवं गिरोह के रूप में कार्य करने वाले ये लोग आधुनिक तकनीकि से परिपूर्ण होते हैं और इनके मुखिया दबंग तथा पहुँच वाले डॉनों से कम नहीं होते।

बात फिर वहीं अटक जाती है कि  सहयोग एवं चौतरफा मदद के बावजूद भिक्षावृत्ति जैसी प्रवृत्तियाँ घटने के बजाय बढ़ क्यों रही हैं, तो यह कहना ही उचित होगा कि कपड़े, कंबल, पैसे और भोजन इसका समाधान नहीं है। समाधान तो तब होगा जब इनकी सोच बदलेगी। ये यथोचित रोजगार से जुड़ेंगे और पूरा समाज इन्हें अपनाएगा।

बावजूद इन सबके कभी-कभी लगता है कि फोकट की कमाई वाले धंधों में लगे लोग ही अधिक चतुर हैं और यही कारण है कि आज भी इन चतुर कोटि के अनुगामी हमारे इर्द-गिर्द बहुतायत में देखे जा सकते हैं। मुझे भी अब भिखारी वाले धंधे की ओर लोगों का रुझान बढ़ता प्रतीत होने लगा है। वैसे कोई खास बुराई न होने के कारण इसे आजमाया जा सकता है।

© विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “कुतर्क के तुर्क”।  इस बेहतरीन  समसामयिक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ 

☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆

नेता जी अपने युवा पोते को सिखा रहे थे कि वर्तमान में वही बड़ा नेता है जो अपने तर्क या कुतर्क के जरिये खुद को जनता के सामने सही साबित कर अपने पीछे भीड़ खड़ी कर सके। विदेश से एम बी ए युवा नेता ने जो हाल ही विदेश से वापस लौटकर पिताजी की कास्टीट्युएंसी में कुछ कर के फटाफट अपना वर्चस्व बना लेना चाहता है, अमेरिका और गल्फ के चंद उदाहरण देते हुये कहा, आप सही कह रहे हैं दादा जी यह समय दुनियां भर में कुतर्को को स्थापित करने का समय  है।

मूलभूत नैसर्गिक न्याय को भुलाकर, संविधान की मूल भावना को किनारे रखकर अपने कुतर्क के पक्ष में ढ़ूंढ़ निकाली गई किसी पंक्ति या शब्दावली  की गलत सही व्याख्या कर देश में बेवजह बड़े बड़े आंदोलन खड़े किये जा रहे हैं। अल्लारख्खा और रामभरोसे दोनो ही तर्क कुतर्क के झूले में झूलने पर विवश हैं।

बिना संदर्भ समझे युवा तुर्क वाहवाही लूटने के लिये नासमझो के बीच गजल पढ़ रहे हैं। कापी कैट का जमाना है, चूंकि किसी आंदोलन में फलां शायर की फलां गजल पढ़ी जाती थी तो ये जनाब कैसे पीछे रह जाते, गूगल भाई का माइक दबा कर जितना याद हो वे लफ्ज ही तो बोलने हैं, लीजीये पूरी गजल हाजिर है, बिना जाने बूझे, पढ़ डालिये और तालियां बजवाईये, टी वी पर सुर्खियां बटोरिये। सुनने वाले भी कहां किसी से कम हैं, उन्हें  भी कुछ खास लफ्ज ही सुनाई पड़े और पूर्वागृह से लबरेज जहर उगलने में उन्होंने देर न की।  बेचारी गजल और कब्र में बंद शायर सोशल मीडिया पर ट्रेड करने लगा।

समाज का और देश का जो नुकसान कुछ कीमती संपत्ति जलाने से हुआ उससे कही बहुत अधिक नुकसान पीढ़ियों में स्थापित लोगों के बीच बने परस्पर सामंजस्य में खटास पैदा कर, निरर्थक ध्रुवीकरण से हो रहा है। आज की  ग्लोबल होती, इंटर डिपेंडेंट दुनियां में क्या यह संभव है कि अपने अपने घरों, जातियों के संकुचित दायरों में रहकर देश, समाज चल सके ? इस संकुचन का अंत कहां है ? क्या डबल बेड पर भी अपने अपने कंबलो में सिमटन ही नेतागिरी का अंतिम लक्ष्य है ?  नही, पर यह सही तर्क उस कुतर्क के सामने बहुत छोटा है, जिसमें एक वर्ग विशेष का छद्म घमण्ड छिपा है कि उनके बाबा के बाबा के बाबा तो यहां के बादशाह थे भले ही आज वे तांगे चला रहे हों, या फिर दूसरे वर्ग की वह पीड़ा जिसके चलते संग्रहालय में रखी ५०० साल पुरानी मूर्ति को तोड़ने के जुर्म की सजा यदि तब नही दी जा सकी तो आज तो वह दी ही जानी चाहिये भले ही अपराधियो के वंशजो को दी जाये।

दर्शनशास्त्र में तर्क‍ या आर्ग्यूमेंट्स  कथनों की ऐसी श्रंखला होती है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी तथ्य के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं।  गणित, विज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक तकनीकी भाषा में भी लिखे जा सकते हैं। कम्प्यूटर की तो सारी गणना पद्धति ही तर्क अर्थात लाजिक पर ही आधारित है। एक बंद घड़ी भी कुतर्क की भाषा में पांच मिनट तेज चलने वाली घड़ी से बेहतर कही जा सकती है, क्योकि बंद घड़ी २४ घंटो में कम से कम दो बार तो बिल्कुल सही समय बताती है। अरस्तु वे पहले दार्शनिक थे जिन्होने कुतर्को को भी सूचीबद्ध किया था।तो एक गजलगो के नाते अपना तो यही तर्क है कि शब्दो के नही भावनाओ के सही निहितार्थ समझने की जरूरत है, सबको बड़े दिल से बड़े काम करने के लिये एक जुट होना चाहिये, नेतागिरी चमकाने के चक्कर में जनता को बरगलाने के कुतर्क आज नही तो कल पकड़े ही जायेंगे।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆ पुनरागमन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “पुनरागमन।  यह सत्य ही है कि पुराना इतिहास  एक कालखंड के पश्चात दोहराया जाता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆

☆ पुनरागमन

आगमन, पुनरागमन की प्रक्रिया कोई नयी नहीं है।  जीवन की हर गतिविधियाँ 20 साल बाद दोहरायी जाती हैं। जैसे फैशन को ही लें आजकल जो कपड़ों का चलन बढ़ रहा है वो सब पुराने इतिहास को ही दुहरा रहा है बस हमारा देखने का नज़रिया बदल गया है और उस पहनावे को आधुनिक मान लेते हैं। यही चीज खान पान के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है। पुराने समय में भी इनोवेशन होते थे जिसके फलस्वरूप नयी – नयी वैरायटी स्वाद की श्रंखलाओं से निरंतर जुड़ती जा रही है।  आजकल हर वस्तुएँ ऑन लाइन  बुलायी जा रहीं हैं। ये भी कोई अजूबा नहीं है। लाइन में तो हम सब बरसों से लग रहे हैं। कभी राशन के लिए तो कभी यात्रा के टिकट हेतु, कभी चुनावी टिकट हेतु, बिजली के बिल जमा हेतु, बैंक में खाता ऑपरेट करने हेतु । ऐसे ही न जाने कितने कार्य हैं जहाँ लम्बी लाइन लगती है। सो बदलते परिवेश में आधुनिकीकरण हो गया और ऑन लाइन की परंपरा आ बैठी।  मन पसन्द भोजन,  कपड़े, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, रोजमर्रा की सभी वस्तुएँ मिलने लग गयी हैं।

अरे भई चाँद और मंगल पर भी तो बसेरा करना है कहाँ तक लाइनों में समय व्यर्थ करें अब तो हवा में उड़ने का समय आ गया है। वैसे भी मन की उड़ान सदियों से सबसे तेज रही है। बस कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और चल पड़िये जहाँ जी चाहे। वैज्ञानिकों ने भी सतत परिवर्तन को स्वीकार किया है। साथ ही ये भी माना है कि गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाते हैं सो फैशन भी आता – जाता रहता नये- नये संशोधनों के साथ। संशोधन की बात पर तो संविधान संशोधन की बात याद आ गयी जिसका समय – समय पर मूल्यांकन होता रहता है  जो होना भी चाहिए क्योंकि लोग बदल रहे हैं कब तक पुराना चलेगा। नयी विचारधारा का स्वागत करना चाहिए।   तभी तो आगमन- पुनरागमन का सिद्धान्त सत्य सिद्ध होगा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 38☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘दो कवियों की कथा ’ हास्य का पुट लिए हुए एक बेहतरीन व्यंग्य है । इस व्यंग्य में  तो मानिये किसी अतृप्त कवि की आत्मा ही समा गई हो। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 38 ☆

☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा  ☆

कवि महोदय किसी काम से सात दिन से दूसरे शहर के होटल में ठहरे हुए थे। सात दिन से इस निष्ठुर शहर में कोई ऐसा नहीं मिला था जिसे वे अपनी कविताएँ सुना सकें। उनके पेट में कविताएं पेचिश जैसी मरोड़ पैदा कर रही थीं। सब कामों से अरुचि हो रही थी। दो चार दिन और ऐसे ही चला तो उन्हें बीमार पड़ने का खतरा नज़र आ रहा था।

कविता की प्रसूति-पीड़ा से श्लथ कवि जी एक श्रोता की तलाश में हातिमताई की तरह शहर का कोना कोना छान रहे थे। आखिरकार उन्हें वह एक पार्क के कोने में बेंच पर बैठा हुआ मिल गया और उनकी तलाश पूरी हुई। वह दार्शनिक की तरह सब चीज़ों से निर्विकार बैठा सिगरेट फूँक रहा था जैसे कि उसके पास वक्त ही वक्त है।

धड़कते दिल से कवि महोदय उसकी बगल में बैठ गये। धीरे धीरे उसका नाम पूछा। फिर पूछा, ‘कविता वविता पढ़ते हो?’

वह बोला, ‘जी हाँ, बहुत शौक से पढ़ता हूँ। ‘

कवि महोदय की जान में जान आयी। उनकी तलाश अंततः खत्म हुई थी।

वे बोले, ‘कौन कौन से कवि पढ़े हैं?’

उसने उत्तर दिया, ‘सभी पढ़े हैं—-निराला, पंत,दिनकर, महादेवी। ‘

कवि महोदय मुँह बनाकर बोले, ‘ये कहाँ के पुराने नाम लेकर बैठ गये। ये सब आउटडेटेड हो गये। कुछ नया पढ़ा है?’

‘जी हाँ, नया भी पढ़ता रहा हूँ। ‘

कवि महोदय कुछ अप्रतिभ हुए, फिर बोले, ‘नूतन कुमार चिलमन की कविताएँ पढ़ी हैं?’

वह सिर खुजाकर बोला, ‘जी,याद नहीं, वैसे नाम सुना सा लगता है। ‘

कवि महोदय पुनः. अप्रतिभ हुए, लेकिन यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं था। उन्होंने कहा, ‘उच्चकोटि की कविता सुनना चाहोगे?’

वह उसी तरह निर्विकार भाव से बोला, ‘क्यों नहीं?’

कवि महोदय ने पूछा, ‘कितनी देर तक लगातार सुन सकते हो?’

वह बोला, ‘बारह घंटे तक तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ‘

कवि महोदय को लगा कि झुककर उसके चरण छू लें। उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा, बोले, ‘आओ, मेरे होटल चलते हैं। ‘

वह बड़े आज्ञाकारी भाव से उनके साथ गया। होटल पहुँचकर कवि जी बोले, ‘तुम्हें हर घंटे पर चाय और बिस्किट मिलेंगे। सिगरेट जितनी चाहो, पी सकते हो। ठीक है?’

‘ठीक है। ‘

कवि जी ने परम संतोष के साथ सूटकेस से अपना पोथा निकाला और शुरू हो गये। वह भक्तिभाव से सुनता रहा। बीच बीच में ‘वाह’ और ‘ख़ूब’ भी बोलता रहा। जैसे जैसे कविता बाहर होती गयी, कवि महोदय हल्के होते गये। अन्त में उनका शरीर रुई जैसा हल्का हो गया। सात दिन का सारा बोझ शरीर से उतर गया।

चार घंटे के बाद कवि जी ने पोथा बन्द किया। वह उसी तरह निर्विकार भाव से चाय सुड़क रहा था। कवि जी विह्वल होकर बोले, ‘वैसे तो मैंने श्रेष्ठ कविता सुनाकर तुम्हें उपकृत किया है, फिर भी मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ कि तुमने बहुत रुचि से मुझे सुना। ‘

वह बोला, ‘अहसान की कोई बात नहीं है, लेकिन यदि आप सचमुच अहसानमंद हैं तो कुछ उपकार मेरा भी कर दीजिए। ‘

कवि जी उत्साह से बोले, ‘हाँ हाँ,कहो। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। ‘

जवाब में उसने अपने झोले में हाथ डालकर एक मोटी नोटबुक निकाली। कवि जी की आँखें भय से फैल गयीं, काँपती आवाज़ में बोले, ‘यह क्या है?’

वह बोला, ‘ये मेरी कविताएं हैं। मैं भी स्थानीय स्तर का महत्वपूर्ण कवि हूँ। ‘

कवि महोदय हाथ हिलाकर बोले, ‘नहीं नहीं, मैं तुम्हारी कविताएं नहीं सुनूँगा। ‘

वह कठोर स्वर में बोला, ‘मैंने चार घंटे तक आपकी कविताएं बर्दाश्त की हैं और उसके बाद भी सीधा बैठा हूँ। अब मेरी बारी है। शर्तें वही रहेंगी, हर घंटे पर चाय-बिस्किट और मनचाही सिगरेट। ‘

कवि जी उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘मैं जा रहा हूँ। ‘

वह शान्त भाव से बोला, ‘देखिए मैं लोकल आदमी हूँ और कवि बनने से पहले मुहल्ले का दादा हुआ करता था। मैं नहीं चाहता कि हमारे शहर में आये हुए कवि का असम्मान हो। आप शान्त होकर मेरी कविताओं का रस लें। ‘

कवि महोदय हार कर पलंग पर लम्बे हो गये, बोले, ‘लो मैं मरा पड़ा हूँ। सुना लो अपनी कविताएं। ‘

वह बोला, ‘यह नहीं चलेगा। जैसे मैंने सीधे बैठकर आपकी कविताएं सुनी हैं उसी तरह आप सुनिए और बीच बीच में दाद दीजिए। ‘

कवि महोदय प्राणहीन से बैठ गये। मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक है। शुरू करो। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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