हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ आँसूओं की भी एक फितरत होती है ☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “आँसूओं की भी एक फितरत होती है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ आँसूओं की भी एक फितरत होती है ☆☆

 

कुदरत हैरान थी. इतना पानी बरसाया, बांध भरा भी, मगर लबालब नहीं हो पाया. हार मानने को ही थी कुदरत कि कचरू पिता मांगीलाल निवासी ग्राम चिखल्दा की आँख से एक आँसू छलका, सरोवर में गिरा और झलक गया बांध. विकास के लिये तैयार – चारों और पानी ही पानी. बैकवाटर है श्रीमान. एक चुल्लू पीकर तो देखिये. मीठा  लग रहा है ना ! आँसूओं की एक फितरत होती है, जब इंसान अपने स्वयं के पीता है तो वे खारे लगते हैं, जब दूसरों के पीता है तो फीके लगते हैं, जब दूसरों के एंजॉय करता है तो मीठे लगते हैं. विकास जिनके घरों का बंधुआ है – मीठे आंसुओं की उनकी प्यास बुझती नहीं.

तो आईये श्रीमान, दिलकश नज़ारा है. जहाँ गाँव थे वहाँ पानी ही पानी है. वाटर स्पोर्ट्स के लिये फेसिनेटिंग डेस्टिनेशन. एक्वाजॉगिंग, वाटर एरोबिक्स, स्कीईंग, कयाकिंग, केनोइंग या फिर रिवर राफ्टिंग हो जाये. क्या कहा आपने – राफ्टिंग कैसे करते हैं ? कमाल करते हैं आप. कभी बाढ़ में डोंगियों पर जिंदगी बचाने का संघर्ष करते मज़लूम नहीं देखे आपने ? कुछ ऐसी ही डोंगियों पर खाये-पिये अघाये लोग रोमांच के लिये जब बहते हैं तो वे बहते नहीं हैं, राफ्टिंग करते हैं. उनके पीछे–पीछे चलती है लाइफ सेविंग बोट. आईये, उन खूबसूरत तितलियों को उड़ते हुये एंजॉय कीजिये जो थैले में से मुक्त कर दी गईं हैं. ये सवाल बेमानी है वे किसने कैद की थीं और क्यों? आईये, जंगल सफारी एंजॉय कीजिये. अब ये आदिवासी मुक्त क्षेत्र है. झोपड़े थे उनके, मिट्टी के चूल्हे, हंडा, थाली, कड़छी, चटाई, मुर्गा, बकरी, छोटी सी ही सही पूरी एक दुनिया, जो अब डूब गई है. बस एक जिंदगी बची थी जिसे लेकर वे मजदूरी करने शहरों की ओर निकल गये हैं. मिलेंगे आपको, शहर के लेबर चौक पर.

यहाँ से देखिये, एक सौ चालीस मीटर ऊपर से, जहां तक नज़र जायेगी, पानी ही पानी दिखेगा आपको. डूबने को तो गाँव के गाँव डूब गये हैं मगर चुल्लू भर पानी में कोई नहीं डूबा. डूबेगा भी नहीं. जो दूसरों को डुबोने के प्लान्स पर काम करते हैं वे चुल्लू भर पानी के पास भी नहीं फटकते हैं. बोतल में कैद करके साथ लिए चलते हैं, लीटर भर. वाटर ऑफ कार्पोरेट, वाटर फॉर कार्पोरेट. पूरी नदी उनकी कैद में. विकास की अट्टालिकाओं के निर्माण में पानी आँख का लगता है श्रीमान और जिनकी ये अट्टालिकायेँ हैं उनकी आँखों में बचा नहीं, सो कचरू, दत्तू, मोहन, बेनीबाई, कमलाबाई या मानक काका की आँखों से छलकवा लेते हैं. कुदरत नदी में पानी लाती है, वे मज़लूमों की आँख में लाते हैं. मीठे आँसू पीने का चस्का जो है उनको. बहरहाल, तब भी बद्दुआएँ देना कचरुओं की तासीर में नहीं है, एक आँसू ढलका कर जी हल्का कर लेते हैं, फिर निकल जाते है खंडवा, इंदौर, भोपाल की ओर. मीठे आंसुओं के चस्केबाज जीने नहीं देते, जिजीविषा मरने नहीं देती. जिजीविषा कुदरत को परास्त नहीं कर पाती मगर वो उसे हैरान तो कर ही देती है. कुदरत हैरान थी. कुदरत हैरान है.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 17 ☆ लो फिर लग गई आचार संहिता ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “लो फिर लग गई आचार संहिता”.  काश अचार संहिता हमेशा ही लागू रहती तो कितना अच्छा होता. लोगों का काम तो वैसे ही हो जाता है. लोकतंत्र में  सरकारी तंत्र और सरकारी तंत्र में लोकतंत्र का क्या महत्व होगा यह विचारणीय है. श्री विवेक रंजन जी ने  व्यंग्य  विधा में इस विषय पर  गंभीरतापूर्वक शोध किया है. इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 17 ☆ 

 

☆ लो फिर लग गई आचार संहिता ☆

 

लो फिर लग गई आचार संहिता। अब महीने दो महीने सारे सरकारी काम काज  नियम कायदे से  होंगें। पूरी छान बीन के बाद। नेताओ की सिफारिश नही चलेगी। वही होगा जो कानून बोलता है, जो होना चाहिये । अब प्रशासन की तूती बोलेगी।  जब तक आचार संहिता लगी रहेगी  सरकारी तंत्र, लोकतंत्र पर भारी पड़ेगा। बाबू साहबों  के पास लोगो के जरूरी  काम काज टालने के लिये आचार संहिता लगे होने का  आदर्श बहाना होगा । सरकार की उपलब्धियो के गुणगान करते विज्ञापन और विज्ञप्तियां समाचारों में नही दिखेंगी। अखबारो से सरकारी निविदाओ  के विज्ञापन गायब हो जायेंगे। सरकारी कार्यालय सामान्य कामकाज छोड़कर चुनाव की व्यवस्था में लग जायेंगे।

मंत्री जी का निरंकुश मंत्रित्व और राजनीतिज्ञो के छर्रो का बेलगाम प्रभुत्व आचार संहिता के नियमो उपनियमो और उपनियमो की कंडिकाओ की भाषा  में उलझा रहेगा। प्रशासन के प्रोटोकाल अधिकारी और पोलिस की सायरन बजाती मंत्री जी की एस्कार्टिंग करती और फालोअप में लगी गाड़ियो को थोड़ा आराम मिलेगा।  मन मसोसते रह जायेंगे लोकशाही के मसीहे, लाल बत्तियो की गाड़ियां खड़ी रह जायेंगी।  शिलान्यास और उद्घाटनों पर विराम लग जायेगा। सरकारी डाक बंगले में रुकने, खाना खाने पर मंत्री जी तक बिल भरेंगे। मंत्री जी अपने भाषणो में विपक्ष को कितना भी कोस लें पर लोक लुभावन घोषणायें नही कर सकेंगे।

सरकारी कर्मचारी लोकशाही के पंचवर्षीय चुनावी त्यौहार की तैयारियो में व्यस्त हो जायेंगे। कर्मचारियो की छुट्टियां रद्द हो जायेंगी। वोट कैंपेन चलाये जायेंगे।  चुनाव प्रशिक्षण की क्लासेज लगेंगी। चुनावी कार्यो से बचने के लिये प्रभावशाली कर्मचारी जुगाड़ लगाते नजर आयेंगे। देश के अंतिम नागरिक को भी मतदान करने की सुविधा जुटाने की पूरी व्यवस्था प्रशासन करेगा।  रामभरोसे जो इस देश का अंतिम नागरिक है, उसके वोट को कोई अनैतिक तरीको से प्रभावित न कर सके, इसके पूरे इंतजाम किये जायेंगे। इसके लिये तकनीक का भी भरपूर उपयोग किया जायेगा, वीडियो कैमरे लिये निरीक्षण दल चुनावी रैलियो की रिकार्डिग करते नजर आयेंगे। अखबारो से चुनावी विज्ञापनो और खबरो की कतरनें काट कर  पेड न्यूज के एंगिल से उनकी समीक्षा की जायेगी राजनैतिक पार्टियो और चुनावी उम्मीदवारो के खर्च का हिसाब किताब रखा जायेगा। पोलिस दल शहर में आती जाती गाड़ियो की चैकिंग करेगा कि कहीं हथियार, शराब, काला धन तो चुनावो को प्रभावित करने के लिये नही लाया ले जाया रहा है। मतलब सब कुछ चुस्त दुरुस्त नजर आयेगा। ढ़ील बरतने वाले कर्मचारी पर प्रशासन की गाज गिरेगी। उच्चाधिकारी पर्यवेक्षक बन कर दौरे करेंगे। सर्वेक्षण  रिपोर्ट देंगे। चुनाव आयोग तटस्थ चुनाव संपन्न करवा सकने के हर संभव यत्न में निरत रहेगा। आचार संहिता के प्रभावो की यह छोटी सी झलक है।

नेता जी को उनके लक्ष्य के लिये हम आदर्श आचार संहिता का नुस्खा बताना चाहते हैं। व्यर्थ में सबको कोसने की अपेक्षा उन्हें यह मांग करनी चाहिये कि देश में सदा आचार संहिता ही लगी रहे, अपने आप सब कुछ वैसा ही चलेगा जैसा वे चाहते हैं। प्रशासन मुस्तैद रहेगा और मंत्री महत्वहीन रहेंगें तो भ्रष्टाचार नही होगा।  बेवजह के निर्माण कार्य नही होंगे तो अधिकारी कर्मचारियो को  रिश्वत का प्रश्न ही नही रहेगा। आम लोगो का क्या है उनके काम तो किसी तरह चलते  ही रहते हैं धीरे धीरे, नेताजी  मुख्यमंत्री थे तब भी और जब नही हैं तब भी, लोग जी ही रहे हैं। मुफ्त पानी मिले ना मिले, बिजली का पूरा बिल देना पड़े या आधा, आम आदमी किसी तरह एडजस्ट करके जी ही लेता है, यही उसकी विशेषता है।

कोई आम आदमी को विकास के सपने दिखाता है, कोई यह बताता है कि पिछले दस सालो में कितने एयरपोर्ट बनाये गये और कितने एटीएम लगाये गये हैं। कोई यह गिनाता है कि उन्ही दस सालो में कितने बड़े बड़े भ्रष्टाचार हुये, या मंहगाई कितनी बढ़ी है। पर आम आदमी जानता है कि यह सब कुछ, उससे उसका वोट पाने के लिये अलापा जा रहा राग है।  आम आदमी  ही लगान देता रहा है, राजाओ के समय से। अब वही आम व्यक्ति ही तरह तरह के टैक्स  दे रहा है, इनकम टैक्स, सर्विस टैक्स, प्रोफेशनल टैक्स,और जाने क्या क्या, प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर। जो ये टैक्स चुराने का दुस्साहस कर पा रहा है वही बड़ा बिजनेसमैन बन पा रहा है।

जो आम आदमी को सपने दिखा पाने में सफल होता है वही शासक बन पाता है। परिवर्तन का सपना, विकास का सपना, घर का सपना, नौकरी का सपना, भांति भांति के सपनो के पैकेज राजनैतिक दलो के घोषणा पत्रो में आदर्श आचार संहिता के बावजूद भी  चिकने कागज पर रंगीन अक्षरो में सचित्र छप ही रहे हैं और बंट भी रहे हैं। हर कोई खुद को आम आदमी के ज्यादा से ज्यादा पास दिखाने के प्रयत्न में है। कोई खुद को चाय वाला बता रहा है तो कोई किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर रात बिता रहा है, कोई स्वयं को पार्टी के रूप में ही आम आदमी  रजिस्टर्ड करवा रहा है। पिछले चुनावो के रिकार्डो आधार पर कहा जा सकता है कि आदर्श आचार संहिता का परिपालन होते हुये, भारी मात्रा में पोलिस बल व अर्ध सैनिक बलो की तैनाती के साथ  इन समवेत प्रयासो से दो तीन चरणो में चुनाव तथाकथित रूप से शांति पूर्ण ढ़ंग से सुसंम्पन्न हो ही जायेंगे। विश्व में भारतीय लोकतंत्र एक बार फिर से सबसे बड़ी डेमोक्रेसी के रूप में स्थापित हो  जायेगा। कोई भी सरकार बने अपनी तो बस एक ही मांग है कि शासन प्रशासन की चुस्ती केवल आदर्श आचार संहिता के समय भर न हो बल्कि हमेशा ही आदर्श स्थापित किये जावे, मंत्री जी केवल आदर्श आचार संहिता के समय डाक बंगले के बिल न देवें हमेशा ही देते रहें। राजनैतिक प्रश्रय से ३ के १३ बनाने की प्रवृत्ति  पर विराम लगे,वोट के लिये धर्म और जाति के कंधे न लिये जावें, और आम जनता और  लोकतंत्र इतना सशक्त हो की इसकी रक्षा के लिये पोलिस बल की और आचार संहिता की आवश्यकता ही न हो।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 16 – जुग जुग जियो ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  व्यंग्य विधा में एक प्रयोग  “माइक्रो व्यंग्य  – जुग जुग जियो” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 16☆

 

☆ माइक्रो व्यंग्य –  जुग जुग जियो   

 

ये बात तो बिलकुल सही है कि लोगों ने मरने का सलीका बदल दिया है।

रात में सोये और बिना बताए चल दिए, कहीं टूर में गए और वहीं दांत निपोर के टें हो गए, न गंगा जल पीने का आनन्द उठाया न गीता का श्लोक सुना ,…..अरे ऐसा भी क्या मरना?

…..पहले मरने का नाटक कर लो थोड़ी रिहर्सल हो जाय, नात – रिस्तेदार सब जुड़ जाएँ। पहले से रोना धोना सुन लिया जाय। कुछ अतिंम इच्छा पूरी हो जाए।

भई मरना तो सभी को है तो तरीके से मरो न यार,  घर वालों को मोहल्ले पड़ोस से पर्याप्त सहानुभूति बगैरह मिल जाए। अब तुम तो जाय ही रहे हो कुछ पडो़स वालों को भी डराय दो कि लफड़ा किया तो भूत बनके निपटा दूंगा।

यदि दिल के कोई कोने में कोई बचपन की पुरानी प्रेमिका छुपी रह गई हो तो उसको भी कोई बहाने से बुला लिया जाए।

बुलंद इमारत के खण्डहर में भी ताकत होती है, जश्न मनाके मरने का तरीका होना चाहिए।  मरने के पहले अड़ जाओ कि आज ही 500 लोगों को जलेबी पोहा मेरे सामने खिलाओ। अड़ जाओ कि जिस पुलिस वाले ने डण्डे से घुटना तोड़ा था उसको  सामने गुड्डी तनवायी जाए। ऐसी अनेक तरह के अविस्मरणीय मजेदार किस्सों के साथ मरोगे तो मरने का अलग मजा आएगा ………! आदि इत्यादि।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 19 – व्यंग्य – व्यवस्था का सवाल ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने   विवाह के अवसर पर बारातियों के एक विशिष्ट चरित्र के आधार पर न सिर्फ विवाह अपितु साड़ी व्यवस्था के सवाल पर एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य की रचना की है.  ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “व्यवस्था का सवाल  ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 19 ☆

 

☆ व्यंग्य  – व्यवस्था का सवाल  ☆

 

रज्जू पहलवान के सुपुत्र की बरात दो सौ किलोमीटर दूर एक कस्बे में गयी।लड़की के बाप ने अच्छा इन्तज़ाम किया, वैसे भी सभी लड़कियों के बाप उनकी शादी के वक्त अपनी जान हाज़िर कर देते हैं। उसके बाद भी सारे वक्त उनकी जान हलक़ में अटकी रहती है।

रास्ते में दो जगह लड़की के चाचा-मामा ने बरात के स्वागत का इन्तज़ाम किया। नाश्ता-पानी पेश किया, काजू-किशमिश के पैकेट भेंट किये,पान-मसाला के पाउच हाज़िर किये। समझदार लोगों ने काजू-किशमिश के पैकेट जेब में खोंस लिये कि बरात से लौटकर बाल-बच्चों को देंगे। बरात संतुष्ट होकर आगे बढ़ गयी।

बरात लड़की वाले के घर पहुँची तो वहाँ भी भरपूर स्वागत हुआ। रुकने-टिकने की व्यवस्था माकूल थी, सेवा के लिए सेवक और घर के लोग मुस्तैद थे। धोबी, नाई, पालिश वाला अपनी अपनी जगह डटे थे। मुँह से निकलते ही हुकुम की तामीली होती थी। सब जगह इन्तज़ाम चौकस था। कहीं भी ख़ामी निकालना मुश्किल था।

रात को वरमाला के बाद सब भोजन में लग गये। तभी वधूपक्ष को सूचना मिली कि वरपक्ष के कुछ लोग भोजन के लिए नहीं पधार रहे हैं। शायद नाराज़ हैं।

लड़की के चाचा चिन्तित बरात के डेरे पर पहुँचे तो पाया कि वर के चाचा सिर के नीचे कुहनी धरे लम्बे लेटे हैं और उनके आसपास पाँच छः सज्जन अति-गंभीर मुद्रा धारण किये बैठे हैं।

लड़की के चाचा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भोजन के लिए पधारें। ‘

उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। लड़के के चाचा छत में आँखें गड़ाये रहे और उनकी मंडली मुँह पर दही जमाये बैठी रही।

लड़की के चाचा ने दुहराया, ‘चला जाए। ‘

अब लड़के के चाचा ने कृपा करके अपनी आँखें छत पर से उतारकर उन पर टिकायीं, फिर उन्हें सिकोड़कर बोले, ‘आप मज़ाक करते हैं क्या?’

लड़की के चाचा घबराकर बोले, ‘क्या बात है? क्या हुआ?’

वर के चाचा आँखें तरेरकर बोले, ‘होना क्या है? आपकी कोई व्यवस्था ही नहीं है। ‘

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘कौन सी व्यवस्था? कौन सी व्यवस्था रह गयी?’

लड़के के चाचा की नज़र वापस छत पर चढ़ गयी। वहीं टिकाये हुए बोले, ‘कोई व्यवस्था नहीं है। कोई एक कमी हो तो बतायें।’

उनकी मंडली भी भिनभिनाकर बोली, ‘सब गड़बड़ है। ‘

वधू के चाचा और परेशान होकर बोले, ‘कुछ बतायें तो।’

वर के चाचा फिर उनकी तरफ दृष्टिपात करके बोले, ‘आप तो ऐसे भोले बनते हैं जैसे कुछ समझते ही नहीं। हम घंटे भर से यहाँ लेटे हैं, लेकिन कोई पूछने आया कि हम क्यों लेटे हैं?’

लड़की के चाचा झूठी हँसी हँसकर बोले, ‘हम तो आ गये।’

वर के चाचा हाथ नचाकर बोले, ‘आप के आने से क्या फायदा? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो क्या मतलब?’

लड़की के चाचा ने विनम्रता से कहा, ‘हमने तो व्यवस्था पूरी की है।’

वर के चाचा व्यंग्य के स्वर में बोले, ‘दरअसल आप खयालों की दुनिया में रहते हैं। आप सोचते हैं कि आपने जो कर दिया उससे बराती खुश हो गये। असलियत यह है कि बरातियों में दस तरह के लोग हैं। किसको क्या चाहिए यह आपको क्या मालूम। जिसे दूध पीना है उसे पानी पिलाएंगे तो कैसे चलेगा?’

मंडली ने सहमति में सिर हिलाया।

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘किसे दूध पीना है? अभी भिजवाता हूँ।’

वर के चाचा खिसियानी हँसी हँसकर बोले, ‘हद हो गयी। हम कोई दूध-पीते बच्चे हैं?आप की समझ में कुछ नहीं आता।’

लड़की के चाचा ने दुखी होकर कहा, ‘हमने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है कि बरात को शिकायत का मौका न मिले।’

वर के चाचा विद्रूप से बोले, ‘हमीं बेवकूफ हैं जो शिकायत कर रहे हैं। हमने सैकड़ों बरातें की हैं। कोई पहली बरात थोड़इ है।’

लड़की के चाचा हाथ जोड़कर बोले, ‘तो हुकुम करें। क्या व्यवस्था करूँ?’

वर के चाचा वापस छत पर चढ़ गये, लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘क्या हुकुम करें? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो हुकुम करके क्या करें?’

मंडली ने ग़मगीन मुद्रा में सिर लटका लिया।

लड़की के चाचा के साथ उनके जीजाजी भी थे। वे समझदार, तपे हुए आदमी थे। अपने साले का हाथ पकड़कर बोले, ‘आप समझ नहीं रहे हैं। इधर आइए।’ फिर लड़के वालों से बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं। व्यवस्था में कुछ खामी रह गयी। हम अभी दुरुस्त कर देते हैं।’

सुनते ही लड़के वाले सीधे बैठ गये, जैसे मुर्दा शरीर में जान आ गयी हो। लड़के के चाचा का तना चेहरा ढीला हो गया।

जीजाजी अपने साले को खींचकर बरामदे में ले गये। वहाँ उन्होंने कुछ फुसफुसाया। साले साहब प्रतिवाद के स्वर में बोले,  ‘लेकिन हम तो दस साल पहले गुरूजी के सामने छोड़ चुके हैं। हमारे तो पूरे परिवार में कोई हाथ नहीं लगा सकता।’

जीजाजी बोले, ‘तुम्हें हाथ लगाने को कौन कहता है? तुम ठहरो, हम इन्तजाम कर देते हैं।’

फिर वे बरातियों के सामने आकर बोले, ‘आप निश्चिंत रहें। अभी व्यवस्था हो जाती है। सब ठीक हो जाएगा।’

उनकी बात सुनते ही उखड़े हुए बराती एकदम सभ्य और विनम्र हो गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘कोई बात नहीं। आप व्यवस्था कर लीजिए। कोई जल्दी नहीं है।’

आधे घंटे में व्यवस्था हो गयी और बराती सब शिकायतें भूल कर व्यवस्था का सुख लेने में मशगूल हो गये।

कुछ देर बाद फिर लड़की के चाचा बरातियों के हालचाल लेने उधर आये तो लड़के के चाचा ने कुर्सी से उठकर उन्हें गले से लगा लिया। उन्हें खड़े होने और बोलने में दिक्कत हो रही थी, फिर भी भरे गले से बोले, ‘ईमान से कहता हूँ, भाई साहब, कि इतनी बढ़िया व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी। बेवकूफी में आपकी शान के खिलाफ कुछ बोल गया होऊँ तो माफ कर दीजिएगा। अब तो हमारी आपसे जिन्दगी भर की रिश्तेदारी है।’

उनके आसपास गिलासों में डूबी मंडली में से आवाज़ आयी, ‘बिलकुल ठीक कहते हैं।  ऐसी ए-वन व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 17 ☆ व्यंग्य – मोहनी मन्त्र ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  समाज के एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तित्व का चरित्र चित्रण करता बेबाक व्यंग्य   “मोहिनी मंत्र ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 17  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ व्यंग्य – मोहिनी मंत्र

 

जब भगवान् विष्णु ने मोहनी रूप धारण किया तो असुर और देव सब उसे पाने के लिए   दौड़ पड़े यहाँ तक की विरागी नारद का भी मन डोल गया।

मै अभी कथा के किसी भाग तक पहुंची ही थी कि मेरा ध्यान आधुनिक काल के असुरों  देवों और नारदों की और चला गया।  .

कहते है जो मन में हो उसे कह डालना चाहिए और खास तौर पर स्त्रियों के लिए कहा जाता है की ज्यादा समय तक अपने पेट में रखती है तो गड़बड़ झाला हो जाता है यानि पेचिश की सम्भावना बढ़ जाती है।  मै नही चाहती की मै किसी गड़बड़ झाले में फसूं इसलिए उन सुंदर चरित्रों का वर्णन करने विवश हो रही हूँ जो मोहनी मन्त्र के मारे है।

अब इनमे कुछ तो ऐसे मिलेंगे जो ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को चरितार्थ करते है। तो अब मै आपके कथा रस को भंग नहीं करूंगी सुनिए ….एक दिन सुबह-सुबह मुआ मोबाईल बज उठा। जैसे ही फोन उठाया एक मरदाना स्वर उभरा नमस्कार मैडम नमस्कार तो इतने लच्छेदार था भाई जलेबी इमरती क्या होगी मानो सारा मेवा मलाई मिश्रित सुनकर मै चौंक गई नमस्ते कहकर सोच में पड़ गई इतने मधुर कंठ से कोई कुंवारा ही बोल रहा है जिसे चाशनी को जरुरत है। उन्होंने बड़े ही अदब से कहा आप डॉ. साहिबा ही बोल रही है।  मैंने कहा जी कहिये क्या इलाज करवाना है वहां से स्वर फूटा अजी आप करेंगी तो हम जरुर करवा लेंगे। आपकी बात करने की अदा लाजबाव है जी।  हमसे रहा नही गया हमने कहा ‘न जान न पहचान मै तेरा मेहमान’। अरे मैम बात हो गई समझो जान पहचान हो गई मै मिलकर पहचान बनाने में विश्वास नही रखता।  आपका मधुर स्वाभाव है मिर्ची जैसा तीखापन आपको शोभा नही देता। आपके लेख की तारीफ करने के लिए फोन किया है मै भी एक लेखक हूँ। ओह्ह्ह मुझे लगा आप किसी कॉलेज के छात्र है। उनका कहना था अरे डियर आप अपना शिष्य बना लीजिये गुरु दक्षिणा मिलती रहेगी इतना सुनते ही हमने छपाक से फोन रख दिया।

अगले दिन सुबह फोन का स्वर कर्कश-सा जान पड रहा था नम्बर  बदला हुआ था। फोन उठाते ही वही स्वर राधे–राधे उभरा हमने भी राधे-राधे कहा और चुप हो गए फोन रखने लगे तो आवाज़ आई प्लीज मैडम कल की गुस्ताखी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, आपके शहर में आया हूँ, आपके दर्शन का अभिलाषी हूँ। हमारा दिमाग गरम हो रहा, पारा आसमान छू रहा है सुनिए दर्शन करना हो तो मंदिर जाइये।  भगवान के दर्शन करेंगे तो कुछ लाभ मिलेगा बुद्धि में सुधार होगा। अरे मैडम आपके दर्शन करके हम धन्य हो जायेंगे ज्ञान बुद्धि सबका विकास हो जायेगा। आप जनाब हद पार कर रहे है और अब आपसे यही कहना है कृपा करके रोज-रोज घंटी न घनघनाये जब मुझे आवश्यकता होगी तब आपको कॉल कर लेंगे राधे-राधे ……..

इन ज्ञानी ध्यानी लेखक के विषय में सारी पोल परत—दर-परत खुलती चली गई। वह चरित्र हीन नहीं है पर महिलाओं से फोन पर बाते करने का आशिक है उनका नम्बर  पत्र  पत्रिकाओं से पढ़कर उनकी रचनाओं की तारीफ करते है भले ही रचना पढ़ी न हो पर तारीफ इतनी की जैसे घोल कर पी लिया हो और बातों के मोहजाल में इस कदर फांस लेते है लगता है मोहनी मन्त्र जैसे यंत्र की कला में पारखी है।  जो इन जैसे लोगो को समझ नही पाती वे अपनी तारीफ सुनकर लट्टू हो जाती है और इन जैसे लोग अपना समय पास करने के लिए घंटों फोन पर बाते करते है और वह डियर, डार्लिंग, मोहना, मेरी राधा आदि शब्दों की वरमाला पहनाकर फोन से ही आश्वस्त हो जाते है।

इसी तरह एक और महाशय है जो तलाकशुदा शुदा है लेकिन अब दुबारा शादी नही कर रहे बस यहाँ वहां राधा को तलाश करते है वह भी नामी है पर फिर भी परवाह नही नाम की, एक दिन उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी गलती से ‘सांप के बिल में हाथ डाल’ दिया कहने लगे डियर तुम बहुत खूबसूरत हो, मिलती नहीं तो क्या कम से कम फोन पर ही जाम पिला दो। इतना कहना ही क्या था इन्हें बातों की इतनी पन्हैया लगाई की सारी आशिकी हवा हो गई।  अब लगता है कभी वो सामना करने की भी जुर्रत नही करेंगे लेकिन ऐसे लोगो को कोई फर्क नही पड़ता है।

एक और महाशय फेस बुक पर आये और चैट करने लगे वे कहते है आपकी फोटो इतनी सुंदर है तो आप कितनी सुंदर होगी। पता चला ये महाशय कवि है और कविता के माध्यम से इतनी तारीफ की वो तो फूली नही समाई और बोल पड़ी आपसे मिलने का मन है पहले तो ये महाशय खुश हुए फिर बोले नही मै किसी से मिलता नही यदि मै मिल लिया तो मेरा धर्म कर्म नष्ट हो जायेगा मै भ्रष्ट की श्रेणी में आ जाऊंगा।  तो सखी बोल पड़ी अच्छा बाते करने से धर्म कर्म नष्ट नही होता मोहनी मन्त्र के अदृश्य जाल में फांसते हो सबको जैसे कृष्ण भगवान ने तो अपने मोह पाश में सबको मोह कर वे भगवान् कहलाये आप अपने को कृष्ण न समझो युग बदल गया है।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ भीड़ के चेहरे ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “भीड़ के चेहरे ”.  लोकतंत्र में कुछ शब्द सदैव सामयिक होते हैं जैसे भीड़तंत्र और भीड़तंत्र का कोई चेहरा नहीं होता है. श्री विवेक रंजन जी ने ऐसे ही  एक शब्द ‘भीड़तंत्र’ को सफलतापूर्वक एक सकारात्मक दिशा दी है और इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ 

 

 ☆ भीड़ के चेहरे ☆

 

मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़तंत्र की रपट थी (कोई इस घटना को भीड़तंत्र का शिकार कहता है, तो कोई इसे मॉबलिंचिंग का), शक में घटित घटना बड़े बोल्ड लैटर में छपी थी,  मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है.

चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी मेरे कहे पर, कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.

मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करते पोलिस इंस्पेक्टर को ही मार डाला. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है,  एक वो परसाई  के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो बैठे. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?

तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा!  पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है . इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला एंड आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है, तितर बितर हो जाती है,  फिर इस भीड़ को वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के.

तब इस भीड़ को भीड़तंत्र कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने इंसानियत और इंस्पेक्टर बेबस हो जाते है.

भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है.  जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये.  गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति  बनी रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली  जुबान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो ताकि  कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में  न बदल सके.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 – गांव नहीं जाना बापू …….☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  “व्यंग्य  –गांव नहीं जाना बापू…..” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 ☆

 

व्यंग्य – गांव नहीं जाना बापू ….. 

 

जैसई गंगू खुले में शौच कर लोटे का पानी खाली कर रहा था कि उधर से आते एक परिक्रमावासी बाबा दिख गये, गंगू ने जल्दी जल्दी पजामे का नाड़ा बांधा और हर हर नरमदे कह के बाबा को सलाम ठोंक दिया। परिक्रमावासी हाथ में टेकने की लाठी लिए थे, सफेद गंदी सी चादर ओढ़े और गोल-गोल चश्मा लगाए गंगू से गांव का नाम पूछने लगे। गंगू के बार बार बाबा – बाबा कहने पर वे चिढ़ गए बोले – मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. इन दिनों दोनों राजनीतिक पार्टी के नेता खूब मंदिरों के दर्शन कर रहे हैं और नर्मदा की परिक्रमा करके राजनीति कर रहे हैं इसलिए मैं भी नर्मदा परिक्रमा के बहाने गांवों के हालात देखने निकला हूँ….. चलो तुम्हारे गांव में कुछ चाय-पानी की हो जाए।

गंगू बापू को लेकर गांव की तरफ चल पड़ा…प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच बैगा बाहुल्य गांव टेकरी में बसा है, पड़ोस में कल – कल बहती पुण्य पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी – भरी पहाड़ियों से घिरा गांव पर्यटन स्थल की तरह लग रहा था। रास्ते में गंगू ने बताया – बहुत गरीबी, लाचारी बेरोजगारी और बिना पढ़े लिखे लोगों के इस गांव को सांसद जी ने गोद लिया है गोद लिये तीन साल से हो गए…..?   बापू ने पूछा – सांसद जी कभी तुम्हारे गांव आते हैं?

गंगू ने बताया – दरअसल मंत्री बन जाने से वे बेचारे ज्यादा व्यस्त हो गए तो तीन चार साल से नहीं आ पाए हैं पर जब चुनाव होता है तो थोड़ी देर के लिए हाथ जोड़ने ज़रूर आते हैं।

गंगू को चुहलबाजी में थोड़ा मजा आता है पूछने लगा – बाबा जी, सांसद जी ने अचानक ये गांव क्यों गोद ले लिया जबकि वे तो 30-40 साल से इस एरिया के सांसद हैं ?     बापू फिर नाराज हो गए बोले – तुम से कहा न…. कि बाबा नाम से हमें चिढ़ हो गई है फिर भी तुम बार – बार बाबा – – बाबा कह के चिढ़ाते हो….. हमारा नाम  “बापू” है…

तो सुनो अब तुम्हें विस्तार से बताता हूँ. एक मोहनदास करमचंद गांधी थे उन्होंने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी उस गांधी ने चाहा था कि गांव गणतंत्र के लघु रूप हैं इसलिए गांव के गणतंत्र पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी की जाए, अब जे ईवेंट छाप प्रधानमंत्री ने कुछ नया करने के चक्कर में सभी सांसदों को एक – एक गांव विकास के लिए पकड़ा दिया। गांव गोद लो और आदर्श ग्राम बनाओ नही तो बिस्तर लेकर घर जाओ….. अंतरआत्मा से कोई सांसद इस लफड़े में पड़ना नहीं चाहता था तो बिना मन के सांसदों ने गांव गोद ले लिया कई ने तो ऐसा गांव गोद लिया जहां कोई पहुंच न पाए, हालांकि सब जानते हैं कि दिल्ली से गरीबों के उद्धार के लिए चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के सरपंच के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं……… ।

बापू की सब बातें गंगू के सर के ऊपर से निकल रही थीं। गंगू बोल पड़ा – बापू ये आदर्श ग्राम क्या होता है ?

तब बापू ने बताया कि आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत ग्राम के वैयक्तिक, मानवीय, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलती है। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना – धोना और दांत साफ करने की आदतों की सीख दी जानी चाहिए, गांव में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, स्मार्ट स्कूल में पढ़ाई – लिखाई, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हास्टल और खेती – बाड़ी का विकास होना चाहिए….. और बताऊँ कि बस…… ।

गंगू को लगा ये बापू बड़ी ऊंची ऊंची बातें कर रहा है … परिक्रमावासी बाबा जैसा तो लग नहीं रहा है ? फिर….. अरे अभी दो साल पहले गांव में एक परिक्रमावासी बाबा आये थे तो गाँव भर के लड़कों को गांजा – भांग, दारू सिखा गये थे और गांव की अधिकांश नयी उमर की लड़कियों को निकास के भाग गए थे। पर ये बाबा अपने को बापू – बापू कहके बड़ी बड़ी बातें कर रहा है कहीं कोई खोट तो नहीं है ये परिक्रमावासी में…………

गंगू अंदर से थोड़ा डर सा गया पर बापू के कहने पर गांव में बापू के रुकने की जगह तलाशने लगा, पता चला कि पंचायत भवन में सरपंचन बाई की गैया बियानी है तो रुकने के लिए पंचायत भवन में जगह नहीं मिलेगी, हार कर गंगू ने तय किया कि अपने घर की परछी में बापू को सोने की जगह दे दी जाएगी…… घरवाली को पहले से ही हिदायत दे देंगे कि वो बाबा – आबा के चक्कर में पैर – वैर पड़ने बाहर न आये क्योंकि आजकल अधिकांश बाबा लोगों का कोई ठिकाना नहीं है।

जगह तलाशते – तलाशते हारकर गंगू ने बापू से कहा कि गांव में रुकने के लिए कहीं जगह तो है नहीं….. तो एक दिन की बात है बापू हमारे टूटे घर की परछी में रह लेना, पर बापू सच्ची सच्ची बताएं कि आपकी ये ऊंची ऊंची बेसुरी बातें हमारे समझ के बाहर हैं… काहे से कि हमारे गांव में न तो आज तक बिजली लगी, न सड़क बनीं, एक ठो धूल – धूसरित मदरसा जरूर है जिसमें नाक बहाते बिना चड्डी पहने बच्चे पढ़ने को कभी-कभी जाते हैं मास्टर कभी-कभी आता है छड़ी लेकर…. ।

एक  बार जिले से एक बाई बड़ी सी कार में आयी रही तो कह गई थी कि गांव का सिर्फ़ विकास ही विकास होना है इसलिए  तहसील जाकर सब लोग विकास से परिचय कर लेवें। जनधन योजना में खाते खुलवा लें। मजाक सी कर रही थी वो। बैंक यहां से 30-40 किमी दूर हैं कछु कयोस-अयोस का नाम ले रही थी तो वो भी 15-20  किमी दूर सड़क के किनारे खुलो है। गाँव भर में साल भर बीमारी पसरी रहती है, डॉक्टर तो कभी आओ नहीं इस तरफ। जिले वाली बाई जरूर कह गई थी कि गांव में हर हफ्ते डाक्टर आके जांच-पड़ताल करेगा और दवाईयां देगा, पर सालो जे गांव ऐसी जगह बसो है कि कोई आन नहीं चाहत। एक हैंडपंप खुदो तो वा में पानी नहीं निकलो। जिले वाली बाई कह रही थी कि घर -घर में नल लगा देहें…. पर बापू वो दिना के बाद वो बाई का भी कोई अता-पता नहीं मिलो……

बापू सुनके सुन्न पड़ गये, काटो तो खून नहीं।

बापू बोले – गंगू…. तुम गांधी जी को जानते हो क्या ? अरे वोई गांधी जिसकी फोटो नोट में छपी रहती है और नोट के पीछे से चश्मे में एक आंख से स्वच्छ देखता है और दूसरी आंख से भारत देख देख के मजाक करता है,   अरे वोई गांधी जिसका नाम ले-लेकर सब नेता लोग अपने अपने बंगले और बड़ी मोटर का जुगाड़ करते हैं और गांव के विकास का पैसा, गरीब के उद्धार का पैसा हजम करके बड़े बड़े पेट बढ़ा लेते हैं……। रोजई – रोज तो गांधी को गोली मारी जाती जाती है।

बापू गांव की उबड़ – खाबड़ गली से गुजरते हुए गंगू के पेट में हवा भरते चल रहे थे, गली में किसी बच्चे के पढ़ने और होमवर्क रटने की आवाज आ रही है.. “मां खादी की चादर ले दे…….. मैं गांधी बन जाऊँ”…… ।

गंगू का घर आ गया था, बापू अंगना में बैठ गए थे,

सरपंच पति वहां से निकले तो गंगू दौड़ के सरपंच पति के कान में खुसरफुसर करते हुए कहने लगा कि खेत में फारिग होने गए थे तो जे परिक्रमावासी टकरा गया, ऊंची ऊंची बात करता है… कहता है मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. नोट में जो एक डोकरा छपा दिखता है कुछ कुछ उसी के जैसे दिखता है……. और पूंछ रहा था कि गांव में कोई गांधी जी को जानता है कि नहीं……..

सरपंच पति हर हर नरमदे कहते हुए अंगना में बैठ गए। गंगू ने बापू को बताया – जे गांव के सरपंच पति हैं और इनका नाम भी  बापू बैगा है। एक बापू दूसरे बापू को देखकर ऐसे मुस्कराये जैसे पुरानी पहचान हो फिर  बापू बोले – यार सरपंच पति, तुम्हारे गांव में मोबाइल का सिग्नल नहीं मिल रहा है तुम्हारा गांव तो डिजीटल इंडिया को ठेंगा दिखा रहा है।  सरपंच पति ने कहा – बाबा जी, बात जे है कि इस गांव से 20-25 किमी के घेरे में सिग्नल नहीं है गांव के पास एक ऊंची पहाड़ी के ऊपर एक पेड़ में चढ़ने पर मोबाइल के लहराते संकेत कभी कभी मिलते हैं जैई कारण से यहां कयोस-अयोस बैंक नहीं खुल पाई। जनधन खाता के दस बीस खाता खुले थे बैंक वाले पैसा ले गए रसीद भी नहीं दई पासबुक तो दईच नहीं। फसल बीमा के नाम का भी पैसा खा गए।  8-9 लोगन को मुद्रा योजना में एक – एक बकरा लोन में पकड़ा दिया, बकरी की मांग करी तो बोले अभी बकरा से काम चला लो, गांव में एक भी बकरी नहीं है बिना बकरी के सब बकरा मर गए और अब सबको नोटिस भेजन लगे…… ।

बापू सुनके सुन्न पड़ गये काटो तो खून नहीं……. ।

बापू कहन लगे कि सांसद से बताया नहीं कि ऐसे में गांव आदर्श गांव कैसे बन पाएगा। बापू सांसद जी को बताया था वो बोले जो है सब ठीक-ठाक है। पर भाई ऐसे में ये गांधी के सपनों का गांव नहीं बन पाएगा, सांसद से संवाद नहीं है विकास के नाम पर ठेंगा दिख रहा है, आवास योजना में घर नहीं बने, कोई घरवाली को गैस नहीं मिली, मास्टर पढाने आता नहीं, बेरोजगार युवक गांजा दारू में मस्त हैं, शौचालय बने नही और तुम सरपंच पति हो आदर्श ग्राम बनाने का पैसा कहां गया?

सरपंच पति तैश में आ गया बोला – बापू हमको चोर समझते हो? तुमको क्या मतलब हमारे गांव में विकास हो चाहे न हो…… परिक्रमावासी बनके राजनीति करन आये हो…….

गंगू घबरा गया….. हाथ से पानी का गिलास छिटक के दूर गिरा और बापू अचानक बैठे बैठे गायब हो गए……. ।

सरपंच पति और गंगू तब से आज तक यही सोच रहे हैं कि कहीं नोट में छपा डुकरा भूत बनके तो नहीं आया था। उस दिन के बाद से पूरे इलाके में हवा फैल गई कि गांधी जी भूत बनके सांसद का आदर्श ग्राम देखने आए थे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 18 – व्यंग्य – बड़ेपन का संत्रास ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने बड़ेपन के सुख को ढांकने के पीछे की पीड़ा झेलने की व्यथा की अतिसुन्दर विवेचना की है. उस पीड़ा को झेलने के बाद जो अकेलेपन में हीनभावना से ग्रस्त होते हैं , उनकी अलग ही  व्यथा है.  ऐसे अछूते विषय पर एक सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “बड़ेपन का संत्रास”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 18 ☆

 

☆ व्यंग्य  – बड़ेपन का संत्रास ☆

 

बंधुवर, निवेदन है कि जैसे ‘छोटे’ होने के अपने संत्रास होते हैं वैसे ही ‘बड़़े’ होने के भी कुछ संत्रास होते हैं। बड़ा होते ही आदमी के ऊपर कुछ अलिखित कायदे-कानून आयद हो जाते हैं। मसलन,बड़े आदमी को मामूली आदमी की तरह गाली-गुफ्ता का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए,या सड़क के किनारे ठेलों पर खड़े होकर चाट -पकौड़ी नहीं खाना चाहिए (कार के भीतर खायी जा सकती है), या घर में बीवी से झगड़ा करते वक्त खिड़कियां बन्द कर देना चाहिए और टीवी की आवाज़ तेज़ कर देना चाहिए। यह भी कि मेहनत के काम खुद न करके छोटे लोगों से कराना चाहिए। हमारे समाज में संपन्नता की पहचान यही है कि हाथ-पाँव कम से कम हिलाये जायें। देखकर लगता है ऊपर वाले ने व्यर्थ ही इन्हें हाथ-पाँव दे दिये।

मेरी तुरन्त की पीड़ा यह है कि घर की पानी की मोटर खराब हो गयी है और मुझे कुछ दूर नल से पानी लाना पड़ता है। पानी लाने में खास कायाकष्ट नहीं है लेकिन मुश्किल यह है कि नल से घर तक पानी लाने में तीन-चार घरों के सामने से गुज़रना पड़ता है। भारी बाल्टियां लाने में पायजामा पानी में लिथड़ जाता है। दो-तीन चक्कर लगाने में अपनी इज़्ज़त अपनी ही नज़र में काफी सिकुड़ जाती है। जिस दिन पानी भरता हूँ उस दिन शाम तक हीनता-भाव से ग्रस्त रहता हूँ।

यही संकट गेहूं पिसाने में होता है। पहले जब साइकिल के पीछे कनस्तर रखकर ले जाता था तब एक बार में काफी इज़्ज़त खर्च हो जाती थी। जब से स्कूटर ले लिया तब से पेट्रोल तो ज़रूर खर्च होता है, लेकिन इज़्ज़त कम खर्च होती है।

कुछ दिन पहले तक सामने वाले घर के अहाते में कई टपरे बने थे। छोटे-मोटे कामों के लिए सामने से किसी को बुला लेते थे, इज़्ज़त बची रहती थी। जब से टपरे टूट गये तब से हम सभी नंगे हो गये। लगता है ये छोटे आदमी ही हमारी इज़्ज़त को ढंके हैं। जिस दिन इनका सहारा नहीं मिलेगा उस दिन बड़े लोग कौड़ी के चार हो जाएंगे।
कभी मेरे नीचे वाले मकान में एक सरकारी अधिकारी रहते थे। एक दिन मैंने उनके घर में एक करिश्मा देखा। शाम को पति और पत्नी आराम से लॉन में टहल रहे थे। पास ही स्कूटर खड़ा था। मैंने देखा कि एकाएक बिजली की तेज़ी से पति महोदय ने स्कूटर का हैंडिल पकड़ा और पत्नी ने पीछे से धक्का दिया। पलक झपकते स्कूटर बरामदे में चढ़ गया। इसके बाद पति-पत्नी फिर उसी तरह लॉन में टहलने लगे। सब काम किसी सिनेमा के दृश्य जैसा हो गया और मैं भौंचक्का देखता रह गया। मैंने सोचा, हाय रे, बड़ापन लोगों को कैसे मारता है। स्कूटर रखना है लेकिन सबके सामने रखने से अफसरी में बट्टा लगता है, इसलिए तरह तरह के कौतुक करने पड़ते हैं।

बहुत से लोग अपने बाप- दादा का बड़ापन कायम रखने में अपनी ज़िंदगी होम कर देते हैं। बाप-दादा का कमाया कुछ बचा नहीं, लेकिन उनकी शान-शौकत बनाये रखने के लिए बची-खुची ज़मीन-ज़ायदाद बेचते रहते हैं और नयी पीढ़ी का भविष्य बरबाद करते रहते हैं।

एक घर में जाता हूँ तो देखता हूँ साहब, मेम साहब और बच्चे तो सजे-धजे हैं लेकिन नौकर का हाफपैंट ऊपर से नीचे तक फटा है। मन होता है साहब से कहूँ कि हुज़ूर, मेरे और अपने जैसे भद्रलोक की खातिर नहीं तो कम से कम मेम साहब की शर्म की खातिर ही इसके शरीर को ढंकने का इंतज़ाम कर दीजिए। इसलिए मेरा अपने वर्ग के सब लोगों से निवेदन है कि यह जो ‘छोटा आदमी’ नाम की चीज़ है उसी पर हमारी इज़्ज़त की यह खुशनुमा इमारत खड़ी है। इसलिए इस चीज़ को ज़रा लाड़-प्यार से रखो ताकि यह चीज़ रहे और इसकी बदौलत हमारी खुशनुमा इमारत बुलन्द बनी रहे।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में ☆ श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने अपना अमूल्य समय देकर इस विशेषांक के लिए यह व्यंग्य प्रेषित किया.  आप एक अभियंता के साथ ही  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपकी कई पुस्तकें और संकलन प्रकाशित हुए हैं और कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं. )

 

व्यंग्य – बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में

 

शहर के मुख्य चौराहे पर बापू का बुत है, उसके ठीक सामने, मूगंफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर, लोहे की सलाखों में बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीशीयां सजी हैं. लाइट का डेकोरम है,अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर लगे है, दुकान के ऊपर आधा लाल आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है- “विदेशी शराब की सरकारी दुकान” इस बोर्ड को आजादी के बाद से हर बरस, नया ठेका मिलते ही, नया ठेकेदार नये रंग-पेंट में लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है . आम नागरिकों को विदेशी शराब की सरकारी दूकान से निखालिस मेड इन इंडिया, देसी माल  भारी टैक्स वगैरह के साथ सरे आम देर रात तक पूरी तरह नगद लेनदेन से बेचा जाता है.  यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष गांधी जी के नाम की जन कल्याण योजनाओं  के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, उसका बड़ा भाग शहर-शहर  फैली ऐसी ही दुकानों से एकत्रित होता है। सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन विदेशी शराब की देसी दुकानों के लिये चलाया जा रहा लोकप्रिय विभाग है.  विभाग के मंत्री जी हैं, जिला अधिकारी हैं, सचिव है और इंस्पेक्टर वगैरह भी है। शराब के ठेकेदार है। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय गांधी जी की फोटू वाले नोटो से ही नगद होता है. शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सब्सडी देकर चलाने पड़ते है। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते है।

“मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला” हरिवंशराय बच्चन जी की मधुशाला के प्याले का मधुरस यही  है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनैतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है। गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी,  जैसे विचार करते रहे। आज उनके अनुयायी कितनी विद्वता से हर गांव, हर चौराहे पर, विदेशी शराब का देसी धंधा कर रहे हैं. गांधी जी का बुत अनजान राहगीर को पता बताने के काम भी आता है, गुगल मैप और हर हाथ में एंड्राइड  फोन आ जाने से यह प्रवृत्ति कुछ कम हुई है, पर अब गांधी जी गूगल का डूडल बन रहे हैं.

राष्ट्रपिता को कोई कभी भी न भूले इसलिये हर लेन देन की हरी नीली, गुलाबी मुद्रा पर उनके चित्र छपवा दिये गये  हैं. ये और बात है कि प्रायः ये हरी नीली गुलाबी मुद्रा बड़े लोगो के पास पहुंचते पहुंचते जाने कैसे बिना रंग बदले काली हो जाती है.

हर भला बुरा काम रुपयो के बगैर संभव नही, तो रुपयो में प्रिंटेड बापू देश के विकास में इस जेब से उस जेब का निरंतर अनथक सफर कर रहे हैं.

भला हो मोदी का जिसने बापू की इस भागम भाग को किंचित विश्राम दिया, रातो रात बापू के करोड़ो को बंडलो को बंडल बंद कर दिया. फिर डिजिटल ट्रांस्फर की ऐसी जुगत निकाली कि अब कौन बनेगा करोड़पति में हर रात अमिताभ बच्चन पल भर में करोड़ो डिजिटली ट्रांस्फर करते दिखते हैं, बिना गांधी जी को दौड़ाये गांधी जी इस खाते से उस खाते में दौड़ रहे हैं.

बापू की रंगीन फोटू हर  मंत्री और बड़े अधिकारी की कुर्सी के पीछे   दीवार पर लटकी हुई है, जाने क्यो मुझे यह बेबस फोटो ऐसी लगती है जैसे सलीब पर लटके ईसा मसीह हों, और वे कह रहे हो, हे राम ! इन्हें माफ करना ये नही जानते कि ये क्या कर रहे हैं.

बापू की समाधि केवल एक है. वह भी दिल्ली में यमुना तीर. यह राजनेताओ के अनशन करने, शपथ लेने,रूठने मनाने,  विदेशी मेहमानो को घुमाने और जलती अखण्ड ज्योति  के दरशनो के काम आती है. लाल किले की प्राचीर से भाषण देने जाने से पहले हर महान नेता अपनी आत्मा की रिचार्जिंग के लिये पूरे काफिले के साथ यहां आता है.अंजुरी भर गुलाब के फूलो की पंखुड़ियां चढ़ाता है और बदले में बापू उसे बड़ी घोषणा करने की ताकत दे देते हैं.

बापू से जुड़े सारे स्थल नये भारत के नये पर्यटन स्थल बना दिये गये हैं. सेवाग्राम, वर्धा,वगैरह स्थलो पर देसी विदेशी मेहमानो की सरकारी असरकारी मेहमान नवाजी होती है. इस पर्यटन का प्रभाव यह होता है कि कभी कोई बुलेट ट्रेन दे जाता है, तो कभी परमाणु ईधन की कोई डील हो पाये ऐसा माहौल बन जाता है.

इन दिनो बापू  को हाईजैक करने के जोरदार अभियान हो रहे हैं. ट्रम्प ने बापू से फादर आफ नेशन की जिम्मेदारी छीन मोदी को पकड़ाने की कोशिश कर दिखाई है।

कांग्रेस बेबस रह गई और मोदी जी ने गांधी जी से उनकी सफाई की जिम्मेदारी ही छीन ली. वह भी उनके जन्म दिन पर, उन्होने सारे देशवासियो पर यह जिम्मेदारी ट्रांस्फर कर दी है. अब देश में मार्डन साफ सफाई दिखने लगी है. हरे नीले पीले कचरे के डिब्बे जगह जगह रखे दिखते हैं. वैक्यूम क्लीनर से हवाई अड्डो और रेल्वे स्टेशनो पर वर्दी पहने कर्मचारी साफ सफाई करते दिखते हैं. थियेटर,  माल वगैरह में पेशाब घर में तीखी बद्बू की जगह ओडोनिल की खुश्बू आती है. कचरा खरीदा जा रहा है और उससे महंगी बिजली बनाई जा रही है.  ये और बात है कि गांधी जी के बुत पर जमी धूल नियमित रूप से हटाने और उन पर बैठे कबूतरो को उड़ाने के टेंडर अब तक किसी नगर पालिका ने नही किये हैं.

बापू का एक और शाश्वत उपयोग है, जिस पर केवल बुद्धिजीवीयो का एकाधिकार है. गांधी भाषण माला, पुरस्कार व सम्मान,  गांधी जयंती, पुण्यतिथी या अन्य देश प्रेम के मौको पर गांधी पर, उनके सिद्धांतो पर किताब छापी जा सकती है, जो बिके न बिके पढ़ी जाये या नही पर उसे सरकारी खरीद कर पुस्तकालयो में भेजा जाना सुनिश्चित होता है. गांधी जी, बच्चो के निबंध लिखने के काम भी आते हैं और जो बच्चा उनके सत्य के प्रयोगो व अहिंसा के सिद्धांतो के साथ ही तीन बंदरो की कहानी सही सही समझ समझा लेता है उसे भरपूर नम्बर देने में मास्साब को कोई कठिनाई नही होती. फिल्म जगत भी जब तब गांधी जी को बाक्स आफिस पर इनकैश कर लेता है, कभी “मुन्ना भाई ” बनाकर तो कभी “गांधी” बनाकर. जब जब देश के विकास के शिलान्यास, उद्घाटन होते हैं लाउडस्पीकर चिल्लाता  है ” साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना भाल. ”

सच है ! गांधी से पहले, गांधी के बाद, पर हमेशा गांधी के साथ देश प्रगति पथ पर अग्रसर है. गुजरे हुये बापू भी देश के विकास में पूरे सवा लाख के हैं !

150 वे जन्मदिन पर हमारा यही कहना है हैप्पी बर्थडे बापू।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ हे राम ! ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध. 

 

व्यंग्य कविता – हे राम! ☆

 

हे राम!

तुम

कितने काम के थे

यह राम जानें

किसी के लिए

किसी काम के थे भी या नहीं

यह भी राम जानें

पर

तुम्हारे आशीष से

बदले हुए देश में

हम जो देखते हैं वह ये है

कि तुम्हारी एक सौ पचासवीं जयंती पर

बड़ी रौनक है/धूम है

मेले लगे हैं जगह-जगह

प्रदर्शनी में

खूब बिक रहे हैं

फैशन में भी हैं

तुम्हारी लाठी और चश्मे

जहाँ देखो

तुम्हारे बंदरों की ही नहीं

हर आंख पर तुम्हारा ही चश्मा है

हर हाथ में तुम्हारी ही लाठी

लेकिन खरीदने वालों को

इनके इस्तेमाल का पता नहीं

आयोजकों का भी नहीं है कोई स्पष्ट निर्देश

कि कब और कैसे करें इस्तेमाल

इसीलिये ‘ सूत न कपास’ फिर भी लट्ठम लट्ठा है

बाकी तो सब ठीक-ठाक है

तुम्हारे इस देश में

बस खादी के कुर्ते और टोपियाँ

‘खादी भण्डार’ के बाहर धरने पर हैं

और रेशमी धागों वाली कीमती मालाएँ

सजी हैं भीतर

तुम्हारे नाम की एक माला

हमारे गले में भी

उतनी ही शोभती है जितनी

कि तुम्हारे नाम के पेटेंट धारकों के

(तथाकथित सुधारकों के)

इसी माला को पहनकर

हम बड़े मज़े से

मुर्गा उदरस्थ कर अहिंसा पर बोलते हैं

और इस तरह आपके हृदय परिवर्तन पर

‘सत्य और अहिंसा के साथ प्रयोग’करते हैं

सुना है

पहनकर तुम्हारा गोल-गोल चश्मा और

हाथ में लाठी लेकर

कोई

माँगने वाला है

शन्ति का नोबेल पुरस्कार

तुम्हारे लिए

इसी 2अक्तूबर को

यकीन मानिये बापू!

तुम्हारी अहिंसा में बहुत दम है

तुमने बस एक बार किया था माफ़

अपने हत्यारे को

पर लाल-लाल कलंगी वाला मुर्गा

हमें रोज़ माफ़ करने हमारे घर आता है

खुद ही

‘हे राम’ कहकर अपनी खाल उतरवाता है

और हांडी में पक जाता है

अहिंसा का ऐसा उदात्त उदाहरण

क्या किसी और देश में मिल पाता है

आके देखना कभी राजघाट

अपनी नंगी आंखों से

कि जिसने किया था तुम्हारे लहू से तिलक

वही बिना नागा

हर 30 जनवरी को

तुम्हारी समाधि पर फूल चढ़ाता है।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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