हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 112 ☆ पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो)

☆ संस्मरण # 112 – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गुलाबवती बैगा एक ऐसी लड़की की कहानी है जो बिना खिले ही मुरझा जाती अगर दो प्रेरक व्यक्तित्व उचित समय पर हस्तक्षेप न करते। यह दो व्यक्तित्व हैं उसकी अनपढ़ नानी, हर्राटोला निवासिनी भुलरिया बाई बैगा और दूसरे व्यक्ति हैं कलकत्ता से घूमते फिरते अमरकंटक पहुंचे डाक्टर प्रवीर सरकार जो पेशे से होम्योपैथिक चिकित्सक हैं, स्वभाव से साधू हैं और मन विवेकानन्द के भक्त। डाक्टर सरकार जब  1995में अमरकंटक आए और यहां के बैगा आदिवासियों की व्यथा, विपन्नता देखी तो फिर यहीं बस गए। पहले लालपुर और फिर पोडकी में उन्होंने एक कच्चे मिट्टी और घांस-फूस के मकान में चिकित्सालय और बैगा बच्चियों के लिए 1996में स्कूल खोला और उसमें भर्ती होने को, अपनी नानी के साथ सबसे पहले आई गुलाबवती बैगा, जिसकी मां का बचपन तो बगल के गांव हर्राटोला में बीता पर ब्याह हुआ सलवाझोरी में जो आजकल छत्तीसगढ में है। यह बच्ची जब 2001में पांचवीं कक्षा पास करने के बाद जब अपने पितृगृह गई तो पिता ने फरमान जारी किया कि बहुत पढ़ लिया चलो सरपंच के पास तुम्हें कोई नौकरी दिलवाएंगे और तुम्हारा ब्याह करेंगे। बैगा आदिवासियों की बिरादरी में सरपंच या मुखिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और अपने टोले या मोहल्ले के निवासियों के जीवन-यापन संबंधित फैसले वहीं करता है। अबोध बालिका मन ही मन घुटती, पिता से विरोध में कुछ कह न पाती और मां से अपना दुःख व्यक्त करती पर पिता कहां सुनता वह तो अपने समाज की मर्यादाओं से बंधा था। ईश्वर ने शायद बालिका की आर्त पुकार सुन ली और उसकी नानी अचानक ही वहां पहुंच गई। मां बेटी ने मिलकर नानी को सब हाल सुनाया और नानी भी अड़ गई कि गुलाब आगे पढेगी। पिता के तमाम तर्क की ज्यादा पढ़ लिख जाएगी तो कुलक्षणी हो जाएगी, घर के काम-काज कब सीखेगी, इससे बियाह कौन करेगा, नानी को झुका न सके। नानी भी जिद्द कर बैठी की गुलाब को वह पढ़ाएगी। पिता कहते पढ़ाने लिखाने रुपैया कहां से आएगा, नानी और नातिन कहते बाबूजी यानि डाक्टर सरकार देंगे। लेकिन पुरुष शक्ति के आगे कभी नारी का अड़ना सफल हुआ है? शायद नहीं। पर इस बार हो गया, पिता नहाने गए और बैगाओं को नहाने के लिए तीन चार किलोमीटर दूर किसी जंगली झरने पर ही पानी नसीब होता है तो नानी ने मौका देखा, नातिन से कहा चल गुलाब मेरे साथ तुझे मैं आगे पढ़ाऊंगी। पितृगृह से आई बालिका उसके बाद डाक्टर सरकार के संरक्षण में रही। उन्होंने भी गुलाब के पिता और गांव के सरपंच को समझाया थोड़ी दम भी दी कि बाल विवाह यानी पुलिस कोर्ट कचहरी आदि की झंझट। खैर सब गुस्से में पांव पटकते चले गए और गुलाब भर्ती हो गई पोडकी स्थित शासकीय माध्यमिक विद्यालय में।  जहां से वह 2004में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण हुई। फिर नौवीं और दसवीं की पढ़ाई उसने समीपस्थ ग्राम भेजरी से उत्तीर्ण की और हायर सेकंडरी स्कूल अमरकंटक से बारहवीं 2008में उत्तीर्ण हो गई। डाक्टर सरकार उसके अभिभावक बने रहे। कपड़े भोजन और पुस्तकों की व्यवस्था डाक्टर सरकार द्वारा संचालित श्रीरामकृष्ण विवेकानन्द सेवाश्रम पोडकी करता, गुलाब का काम सिर्फ पढ़ना था। बारहवीं होते होते अबोध बालिका से किशोरी बन चुकी गुलाब के सपने तो ऊंची उड़ान भरने लगे। वह  इस क्षेत्र में स्थापित हो रहे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों को देखती और वहां पढ़ाते प्राध्यापकों को कभी अमरकंटक में तो सेवाश्रम में डाक्टर सरकार से चर्चा करते देखती। इच्छा हुई मैं भी ग्रेजुएट बनूंगी। और हिम्मतवाले कभी हारते नहीं है। डाक्टर सरकार कन्याहट के आगे फिर नतमस्तक हुए और उसे विश्वविद्यालय ले गए बीए में दाखिला कराने। इस विश्वविद्यालय से गुलाबवती बैगा, नानी के गांव वालों की गुलबिया जब 2011में स्नातक की उपाधि धारण कर बाहर निकली तो वह अमरकंटक क्षेत्र की पहली बैगा महिला बनी बीए पास । सरकार ने उसके प्रयासों का सम्मान किया और प्राथमिक शाला धमगढ में उसे शिक्षिका बना दिया। और अभी 20जनवरी 2021को मुख्यमंत्री ने भी सम्मानित किया।गुलाबवती बैगा के पुरुषार्थ की कहानी और उसके भविष्य निर्माण में नानी के योगदान की बात जब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के कुलपति डाक्टर श्री प्रकाश मणि त्रिपाठी ने सुनी तो उन्होंने सपत्नीक गुलाबवती बैगा व उसकी नानी वे मां के साथ फोटो खिंचवाई और मदनलाल शारदा फैमिली फाउंडेशन पुणे ने भी उसे पुरस्कृत करते हुए सम्मानित किया।

नौकरी पश्चात 2012में गुलाबवती का जब विवाह हुआ तो उसे मनचाहा वर मिला जो उसी के समान स्नातक है। अब दो बच्चों की मां, 2013में राजवीर व 2017में अर्नव बैगा की जननी, जब स्कूटी पर सवार होकर, करीने से तैयार होकर  साफ सुथरे कपड़े पहनकर स्कूल पढ़ाने जाती है तो बहुत सी आदिवासी बालिकाएं उसे घेर लेती हैं और उसकी राम कहानी उत्साह से सुनती हैं। उसकी कहानी उन बच्चियों को प्रेरणा देती है क्योंकि गुलाबवती न तो राजकुमारी है और न तो कोई परी  वह तो उनके समुदाय से बाहर निकली एक बहादुर स्वयंसिद्धा है।

मैंने उससे पूछा तुम तो पढ़ गई पर बाकी लोगों को क्या सिखाती हो तो वह थोड़ा झिझकते हुए बोलती हैकि दादा मैं तो बाबूजी की सीख सबको देती हूं कि पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो। वह कहती है कि बैगा आदिवासियों में खान पान को लेकर कई बुराइयां हैं वे चूहा तक मारकर खा जाते हैं, मद्यपान बहुत करते हैं और पौष्टिक आहार नहीं लेते, शौच वगैरह भी नहीं करते, नहाना धोना तो बहुत कम करते हैं, महिलाओं का पहनावा भी पुरातनपंथी है। यह सब बदलना चाहिए और वह अपने लोगों इन परिवर्तनों को स्वीकार करने को कहती है । मैंने कहा फिर तो उनका बैगापन ही खत्म हो जाएगा तो उसका जवाब है कि बैगापन तो हमारे भोलेपन में है वह तो गोदने की तरह हमारे तन-मन में व्याप्त है। बैगानी संस्कृति को हमें बचाना है पर उन भावनाओं और परम्पराओं को तो त्यागना ही होगा जो हमें डरपोक बनाती है। वह कहती हैं आज भी बैगा मोटरसाइकिल पर अंजान व्यक्ति को देखकर जंगल भाग जाते हैं। बीमार पड़ते हैं तो दवाई नहीं करवाते वरन टोना टोटका करते फिरते हैं। बैगा लड़के लड़कियां पढ़ेंगे लिखेंगे तो डर खत्म होगा और वे अपनी बात खुलकर कह पाएंगे, स्वच्छता से रहना सीखेंगे तो बीमार नहीं पड़ेंगे। डाक्टर सरकार के लिए उसके मन में अगाध श्रद्धा है, वह कहती है कि बाबूजी ने उसे बस जन्म भर नहीं दिया बाकी उसके मां-बाप तो वहीं हैं। वह बताती है कि हमारे पिता की जो आमदनी थी उससे तो बस गुजर बसर लायक व्यवस्था बनती थी, नानी भी मेहनत मजदूरी कर बस अपना पेट भरने लायक कमाती थी। ऐसी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में मेरा पढ़ पाना तो नामुमकिन ही था। लेकिन बाबूजी ने बहुत सहारा दिया। उन्होंने मुझे इसी सेवाश्रम के छात्रावास में रखा  और भोजन, कपड़ों और किताबों की व्यवस्था की। जब कभी गाँव के लोग ताने देते मेरे पढने स्कूल जाने का मजाक उड़ाते तो बाबूजी उन्हें डांटते और मुझे समझाते मेरा मनोबल बढाते।आज अगर मैं सुखी जीवन बिता रही हूँ तो यह सब कुछ बाबूजी के कारण ही संभव हो सका। अगर वे इस क्षेत्र में न आते तो मेरे जैसी अनेक बैगा लडकियाँ परिपाटी और परम्पराओं की बलि चढ़ गई होती।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ हर आदमी में होते हैं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण ☆ हर आदमी में होते हैं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

निदा फाजली का बहुत मशहूर शेर है :

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिसको भी देखना बड़े गौर से देखना…

आज मैंने सोचा कि किसी और को क्यों देखूं ? अपने ही गिरेबान में झांक कर देखूं कि मेरे अंदर कितने आदमी हैं ? कैसे एक कमलेश भारतीय इतने चेहरे लगा लेता है ?

मित्रो ! मेरे जन्म के बाद पालन पोषण नवांशहर के शारदा मुहल्ले में हुआ यानी ब्राह्मणों के बीच एक सरीन (खत्री ) परिवार का बेटा पला बढ़ा । पूरे सैंतीस साल उस मोहल्ले में रहा और ऐसे माहौल में जहां रसोई में नंगे पैर ही जा सकते थे और अंडे मीट मांस की चर्चा तक गुनाह थी । शुद्धता , पांडित्य और पोथी पत्री बांचने , भविष्य बताने वाले, ग्रहदोष टालने वाले भी थे । इसी के चलते हमें भी कुछ दोस्त पंडित जी पुकार लेते थे । कभी बुरा नहीं लगा ।

इसके बावजूद हमारा गांव था तीन चार किलोमीटर दूर सोना नाम से । वहां हमारी खेती थी , हवेली थी और रोज़ शाम वहीं गुजरती । पहले पिता जी के साथ । वे गांव के नम्बरदार भी थे । लगान वसूल करने जाते तब भी साथ रहता और कोर्ट कचहरी में गवाही देने जाते तब भी साथ देता । यानी गांव के लोगों से सीधे सीधे वास्ता रहता । वे अपने ढंग से बातचीत करते । अनाज मंडी और गन्ने की पर्ची लेकर गन्ना मिल भी जाते । इस तरह मेरी एक साथ अनेक अलग अलग दुनिया थीं । अलग अलग व्यवहार । अलग अलग चेहरे । पिता जी के अपने जीवन से जल्द विदा हो जाने पर पढ़ाई के साथ साथ न केवल खेती बल्कि मेरे नाम नम्बरदारी भी आई और आज तक मेरे नाम चल रही है । बेशक यह काम मैंने कभी नहीं किया । पहले अपने ही परिवार के एक सज्जन को दिये रखा और फिर उनके बाद अपनी खेती संभालने वाले दुम्मण को सौंप रखा है । सरकारी कागजों में नम्बरदार बनने का सुख है तो मेरा एक चेहरा यह भी है । कभी कभार दूसरों के कागज तस्दीक भी कर देता हूं जब कभी अपने शहर जाना होता है । हां , छोटी उम्र में ही नवांशहर से राजनीति करने वाले दिलबाग सिंह के करीब आया और पूरा साथ दिया हर चुनाव में । आखिरी समय जब वे पंजाब के कृषि मंत्री बने तो मुझे अपना ओएसडी बनाने के लिए बुलाया तब मना कर दिया क्योंकि राजनीति कभी मेरी मंजिल नहीं रही । ट्रिब्यून में ही इक्कीस साल बिता दिये । फिर एक और नेता मिले भूपेंद्र सिंह हुड्डा जो ले गये हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना कर । यह भी एक चेहरा हो सकता है मेरा जबकि मैं वही कलम का सिपाही बन कर खुश हूं ।

पढ़ाई लिखाई कर शहीद भगत सिंह के गांव में आदर्श स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक बना और बाद में प्रिसिपल बना । इस तरह एक चेहरा मेरा शिक्षक और नसीहतें देने वाला भी हो सकता है । फिर चंडीगढ़ आया दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बन कर । सात साल रहा और एक महानगर जैसे शहर का बाशिंदा बना लेकिन वह गांव का आदमी ही रहा । शेखर जोशी की कहानी दाज्यू का नन्हा सा हीरो जो हर कदम पर छला जाता है । वह गांव वाला भोलापन नहीं गया । और न जाये, यही दुआ है मेरी रब्ब से। मेरे अंदर बच्चा जिंदा रहे ।

सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी

सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी

गीत अक्सर गुनगुनाता हूं । लोग इस बात का फायदा उठा कर जब चलते बनते हैं तब सोचता हूं कि अगली बार सावधान रहूंगा पर सावधान कभी न हुआ और जिसका जोर चला वह छल कर चलता बना । यह चेहरा भी है मेरा ।

आर्य समाज से मेरे नाना जुड़े थे और मेरी दादी मंदिर लेकर जाती हर सुबह शाम । इस तरह दो अलग अलग चेहरे ये भी रहे । ननिहाल जाऊं तो हवन में बैठूं और नवांशहर रहूं तो दादी के साथ मंदिर जाकर आरती करूं ।

अब सोचता हूं कि मेरा कौन सा चेहरा असली है ? शारदा मुहल्ले वाला लड़का या गांव वाला या फिर बहुत नर्म , दयालु या एक ओशो की किताबें पढ़ने वाला थोड़ा सा संन्यासी जैसा ? थोड़ा सा ब्राह्मणों जैसा और थोड़ा सा गांव के अनाड़ी जैसा ? कैसा हूं मैं ? कितने चेहरे हैं मेरे ? प्यार करूं तो पूरा करूं और जब गुस्से हो जाऊं तो गांव वाले की तरह पूरा गुस्सा करूं । बिखर बिफर जाऊं गुस्से में । कोई छिपाव नहीं भावों का । कितने वर्ष वामपंथी विचारधारा से जुड़ा रहा और कहानियों में अपनी बात रखी । कौन हूं मैं ? कामरेड , ओशो के विचार या स्वामी दयानंद की सीख लेने वाला ? कौन हूं और क्या हो सकता था ? क्या हो गया ? प्रिंसिपल था , पत्रकार कैसे बनता चला गया ? क्या कर पाया ? क्या कुछ और बनना अभी बाकी है ? सोचता रहता हूं और अपने ही अनेक चेहरे देखता रहता हूं और निदा का शेर याद कर मुस्कुरा देता हूं ,,

जिसको भी देखना बड़े गौर से देखना…

लेकिन मैं तो अपने-आपको ही गौर से देख रहा हूँ और एक और शेर के साथ बात खत्म कर रहा हूं :

धूल चेहरे पर जमी थी

और मैं आइना साफ करता रहा …

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 110 ☆ चार अनाथ बालिकाओं की कहानी – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “चार अनाथ बालिकाओं की कहानी”)

☆ संस्मरण # 110 – चार अनाथ बालिकाओं की कहानी – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

माँ  सारदा कन्या विद्यापीठ के छात्रावास में एक अनाथ कन्या शिवानी रहती है ।  यह मुझे तब ज्ञात हुआ शिवानी ने 12 मार्च 2021 को शिवमंदिर के सामने डाक्टर सरकार की चिता को मुखाग्नि दी थी और उनका अंतिम संस्कार विधि विधान से किया । लेकिन जब पिछली बार पोड़की गया तो पता चला कि शिवानी सहित चार अनाथ बालिकाएं यहाँ छात्रावास में रहकर शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।

शिवानी जब तीन वर्ष की थी, तब वह अपने माता पिता से कटनी रेलवे स्टेशन में बिछड़ गई । रेलवे पुलिस ने उसे वहाँ एक अनाथालय में दाखिल करा दिया । कुछ दिन वह अनाथालय में रही और फिर मौका देखकर वहाँ से निकल भागी, शायद उसे वहाँ के वातावरण में प्रेम और करुणा का एहसास नहीं हुआ होगा । अनुपपुर स्टेशन रेलवे  पुलिस के द्वारा उसका  पुन: उद्धार किया गया और फिर जिला प्रशासन के उप जिला दंडाधिकारी ने डाक्टर सरकार से चर्चा कर शिवानी को उन्हें सौंप दिया। तब से शिवानी आश्रम में रह रही है और उसने आठवीं की परीक्षा विगत वर्ष उत्तीर्ण कर ली है । बिना माँ की बेटी के लिए यह उम्र अनेक परेशानियाँ लेकर आती है और यही कुछ अब शिवानी के साथ हो रहा है । आश्रम की अन्य बालिकाओं व कर्मचारियों के सद्व्यवहार के बावजूद शिवानी अक्सर स्वेच्छाचारी हो जाती है । ऐसे में उसे नियंत्रित करना बड़ी बहनजी के लिए भी मुश्किल हो जाता है । शिवानी के स्वभाव में हो रहे परिवर्तन, एवं अध्ययन के प्रति उसकी अरुचि  को देखते हुए उसका दाखिला निकटवर्ती उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में नहीं कराया गया । वह निजी छात्रा के रूप में आगे की पढ़ाई जारी रखेगी । शासन द्वारा जातिगत आधार पर जो सुविधाएं दी जाती है शिवानी उससे वंचित है क्योंकि उसके पास तहसीलदार द्वारा जारी जाति प्रमाणपत्र नहीं है । भविष्य में उसके विवाह की भी समस्या आएगी । शासन के अधिकारियों के पास इन समस्याओं का समाधान, किसी परिवार द्वारा उसे  गोद लिया जाना है। पहले बाबूजी और अब  बड़ी बहनजी शिवानी को किसी को  गोद दिए जाने के पक्ष में नहीं रहे हैं । शिवानी भी गोद लिए जाने के प्रस्ताव से असहमत है, वह स्वयं को बाबूजी की पुत्री मानती है ।  इन सभी सामाजिक और शासकीय परेशानियों  के बावजूद शिवानी का भविष्य अंधकारमय नहीं है। बड़ी बहनजी कहती हैं कि वह सेवाश्रम की बेटी है और जब उसकी पढ़ाई पूरी हो जाएगी तब उसे यहीं योग्यता के अनुरूप काम दिया जाएगा ताकि वह अपनी आजीविका कमाती रहे, सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सके।  

अंकिता अभी चौथी कक्षा में पढ़ रही है और उसकी बड़ी बहन हिरोंदिया सातवीं कक्षा की छात्रा है । खाँटी गाँव की रहने वाली इन दोनों बैगा कन्यायों के पिता प्रेम बैगा की मृत्यु हो गई । दादी ने बच्चियों की माँ, गुलवतिया  को इतना प्रताड़ित किया कि उसने आत्महत्या कर ली ।  गुलवतिया की छोटी  बहन गुलाबवती बैगा विद्यापीठ की पुरानी छात्रा थी । उसने जब बाबूजी को यह दुखद गाथा सुनाई तो करुणा की मूर्ति डाक्टर सरकार हिरोंदिया को सेवाश्रम ले आए और उसका प्रवेश पहली कक्षा में करवाया। बाद में जब अबोध अंकिता बड़ी हुई तो उसकी दादी स्वप्रेरणा से उसे भी सेवाश्रम में छोड़ गई । दोनों बहनें यहाँ छात्रावास में रहकर पढ़ रही हैं और अक्सर अपनी दादी से भी मिलने जाती रहती हैं । बड़ी बहनजी कहती हैं कि हिरोंदिया का अगर मन पढ़ने में लगा रहा तो यह लड़की भी अपनी मौसी गुलाबवती  की भांति स्नातक हो सकती है । उसमें क्षमता है पर उम्र का असर अनाथ बच्चियों को ज्यादा प्रभावित करता है। उम्र बढ़ने के साथ  मन भटकता रहता है, और ऐसे में माँ की भूमिका अहम हो जाती है । बालिकाओं को इस उम्र में माँ की सहानभूति और प्रेम से भरी फटकार दोनों की जरूरत होती है ।  मैंने कहा ‘आप ही इनकी माँ हैं ।‘ बड़ी बहनजी ने सकारात्मक प्रत्युत्तर दिया और बोली माँ की डांट फटकार का बच्चों को बुरा नहीं लगता पर मेरी इच्छा उन्हें दंडित करने की कभी नहीं होती, मैंने इन बच्चियों को उनकी अबोध अवस्था से पाल-पोष कर बड़ा किया है ।

पार्वती बैगा समीपस्थ ग्राम उमरगोहन के लंका टोला की निवासिनी है । गाँव का यह मोहल्ला बैगा बहुल है और रामायनकालीन रावण से इसका दूर दूर तक संबंध नहीं है । लंका टोला नामकरण का किस्सा आप विस्तार से उमरगोहान की कहानी में पढ़ सकते हैं । जब पार्वती विद्यापीठ की पाँचवी  कक्षा में पढ़ रही थी तब उसके पिता राय सिंह बैगा ने अपनी पत्नी की निर्दयतापूर्वक  हत्या कर दी । पार्वती की माँ घर में भोजन पका रही थी कि अचानक शराब के नशे में धुत्त रायसिंह बैगा ने कुल्हाड़ी के एक ही वार से अपनी पत्नी का सिर धड़ से अलग कर दिया । वह दिन भर एक हाथ में कुल्हाड़ी और दूसरे हाथ में मृत पत्नी का मुंड लिए गाँव में घूमता रहा। भयग्रस्त ग्रामीणों ने पुलिस को खबर दी। जब तक पुलिस मौका-ए-वारदात पर पँहुचती, हत्यारे का नशा उतर  चुका था और वह लंका टोला से लगे हुए मैकल पर्वत शृंखला के जंगल में मृत पत्नी की लाश ठिकाने लगाने के जुगाड़ में था कि पुलिस वहाँ पहुंची उसने अधजली लाश को अपने कब्जे में लिया, पंचनामा बना लाश को शव विच्छेदन के लिए भेज दिया, हत्यारा गिरफ्तार किया गया और अब जेल में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा है । अबोध बालिका से शुरू में बाबूजी ने माँ की हत्या राज छिपाए रखा । पार्वती के दो भाई,  पढ़ाई लिखाई से वंचित, अपने चाचा के साथ रहते हैं । पार्वती पोड़की स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में नौवीं कक्षा में पढ़ रही है । उसे शासकीय उत्कर्ष  उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा में भी सफलता मिल गई थी । पर जाति प्रमाण पत्र के अभाव में वह वहाँ निशुल्क शिक्षा की पात्रता से वंचित हो रही थी इसीलिए उसे स्थानीय स्कूल में प्रवेश दिलवाया गया और सेवाश्रम के छात्रावास में रहने और भोजन की व्यवस्था की गई। यद्दपि बाद में बहुत ना नुकूर के बाद पार्वती के चाचा ने सहयोग दिया और दस्तावेज उपलब्ध कराए। हालांकि पार्वती के पास अब उसका जाति प्रमाणपत्र तो है पर इस विलंब ने उसे  उत्कर्ष विद्यालय की गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा से वंचित कर दिया । अनाथ बालिकाओं का यही प्रारब्ध होता है, परिजन उनका उपयोग मेहनत मजदूरी में चाहते हैं ताकि आमदनी का साधन बना रहे । ऐसी पृच्छा अक्सर पार्वती के पितृ कुल द्वारा की जाती है । वे उसे वापस गाँव ले जाना चाहते हैं और उसके विवाह पर जोर देते हैं । लेकिन बड़ी बहनजी चाहती हैं कि पार्वती आगे पढे और अपने पैरों पर खड़ी हो ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 137 ☆ ओशो से एक मुलाकात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण  “ओशो से एक मुलाकात”।)  

☆ संस्मरण # 137 ☆ ओशो से एक मुलाकात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

इन दिनों झूठ, डर और अविश्वास ने हम सब की जिंदगी में ऐसा कब्जा जमा लिया है कि कुछ भी सच नहीं लगता, किसी पर भी विश्वास नहीं होता। कोई अपने पुराने यादों के पन्ने खोल कर किसी को बताना चाहता है तो सुनने वाला डर और अविश्वास की चपेट में लगता है। 

जिस दोस्त को हम ये कहानी बता रहे हैं,वह इस कहानी के सच के लिए तस्वीर चाह रहा है, सेल्फी देखना चाह रहा है, विडियो की बात कर रहा है। उस जमाने में ये सब कहां थे। फिर कहां से लाएं जिससे उसे लगे कि- जो वह सुन रहा है सच सुन रहा है।  लड़कपन की कहानी है जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे, गांव से पढ़ने शहर आये थे। गरीबी के साथ जबलपुर के गोलबाजार के एक खपरैल वाले कमरे में रहते थे। बड़े भाई उन दिनों डॉ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में इण्डियन प्राइम मिनिस्तेर्स संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे पिता स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आंखें गवां चुके थे, मां पिता जी गांव में रहते थे। गोलबाजार में ही घर के पास महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहूजी के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र  जी दो कमरे के मकान में किराए से रहते थे। मकान में कहीं कहीं सीमेंट उखड़ा दिखता। डॉ महेश दत्त मिश्र अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते, एक दिन घर पहुंचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे। हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी। वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए। 

मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. । कौन रजनीश, कहां के रजनीश इन सब बातों से दूर……

कुछ दिन बाद शहीद स्मारक के सामने हम लोग खेल रहे थे, खेलते खेलते शहीद स्मारक भवन के हाल में हम लोग घुस कर बैठ गए तो सामने मंच में बैठे वही दाढ़ी वाले रजनीश कुछ कुछ बोल रहे थे। थोड़े बहुत जो लोग सुन रहे थे, वे भी धीरे-धीरे खिसक रहे थे पर वे लगातार बोले ही जा रहे थे। इस तरह से लड़कपन में आचार्य रजनीश से बिना परिचय के मिलना हुआ। 

बड़े भैया के साथ परसाई जी के यहां जाते तब भी वहां ये बैठे दिखे थे पर उस समय हम न परसाई जी को जानते थे और न ये दाढ़ी वाले आचार्य रजनीश को। गोलबाजार में नरसिंह बिल्डिंग में हम किराये के कमरे में रहते थे, कमरे के पीछे आचार्य रजनीश के भाई अरविंद जैन रहते थे जो डीएनजैन स्कूल में पढ़ाते थे। 

कोरोना काल के दो तीन साल पहले जब पूना के आश्रम घूमने गए तो वहां हमारे यही दोस्त मिल गए, उनसे जब लड़कपन के दिनों की चर्चा करते हुए ओशो से भेंट की कहानी सुनाई तो पहले वे ध्यान से सुनते रहे फिर फोटो की मांग करने लगे… अब बताओ कि 49 साल पहले की फोटो दोस्त को लाकर कहां से दिखाते? जब हमें ये भी नहीं मालूम था कि फोटो – ओटो भी होती थी। हमने कहा पूना आये थे तो सोचा ओशो आश्रम भी घूम आयें और आप मिल गए तो यादों के पन्ने भी खुल गए तो सोचा इन यादों को आपसे शेयर कर लिया जाए, फोटो तो नहीं हैं पर मन मस्तिष्क में अचानक उभर आयीं ये बात जरूर है। 

सारी बातें सुनकर दोस्त ने एक अच्छी सलाह दी कि अब बता दिया तो बता दिया, अब किसी के सामने मत बताना, नहीं तो लोग सोचेंगे कि दिमाग कुछ घूम गया है……. कहां ओशो और कहां तुम!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 135 ☆ अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी”।)  

☆ संस्मरण # 135 ☆ “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उन दिनों पहल पत्रिका के संपादक एवं कहानी जगत के जबरदस्त हस्ताक्षर ज्ञान रंजन जी हमारे पड़ोसी थे। कलाई में आज तक घड़ी न पहनने वाले ज्ञान जी समय के बड़े पाबंद, घड़ी भले फेल हो जाए पर वे समय को पकड़ कर चलते हैं।अतिथि सत्कार और अपनेपन का भाव तो कोई उनसे सीखे। बीच बीच में टाइपराइटर में खटर पटर करते फिर लुंगी लपेटकर छत में कूद फांद करने लगते।

एक दिन रात्रि को लगभग दस बजे कुम्हार मोहल्ले की तरफ से बीस बाईस बरस की दो लड़कियां भागती हुईं  सीढ़ी में आ छुपीं, सीढ़ी से लगा हुआ ज्ञान जी के घर का दरवाजा खुलता था, ज्ञान जी हड़बड़ी में बाहर आए, दोनों लड़कियां हाथ जोड़कर रोती हुई बोलीं – साहब हमें बचा लो, कुम्हार मोहल्ले के कुछ लड़के अपहरण कर हमारी इज्जत लूटना चाह रहे हैं। लड़कियों ने बताया कि- वे रिश्तेदारी में हुई गमी में आयीं थी और कुम्हार मोहल्ले होते हुए अपने घरों को लौट रही थीं कि रात्रि का फायदा उठा कर वे हमें पकड़ना चाहते थे इसीलिए यहां घुस आयीं। पुलिस का तो कोई भरोसा था नहीं, वो भी रात के वक्त दो जवान लड़कियों को पुलिस वालों के जिम्मे करना… सो ज्ञान जी ने तुरंत सीढ़ी के ऊपर कमरे नुमा जगह में उन लड़कियों को जाने कहा… ठंड का मौसम था अपने घर से कंबल चादर लाकर उनका ओढ़ने बिछाने का इंतजाम किया और भाभी जी से गरमागरम खाना बनवा कर उन्हें दिया।  रात भर एक पिता की भांति दौड़ दौड़कर गैलरी से सीढ़ी तक नजर गड़ाए जागते रहे।  फिर सुबह चाय पिलाकर उन्हें सुरक्षित घर की तरफ रवाना किया और फिर तैयार होकर कालेज चले गए। वे बड़े साहित्यकार हैं पर मानवता की सेवा उन्होंने रात भर फेंस के इधर और उधर नजरें गड़ाए दो लड़कियों की इज्जत की रक्षा में जी जान लगा दी फिर समय पर कालेज पहुंच गए। रात भर जागे फिर कालेज से लौटकर टाइपराइटर में खटर पटर करते “पहल” के काम में लग गए, कलाई में घड़ी भले नहीं थी पर समय को पकड़ कर लुंगी बांध वे छत पर फिर से कूदा फांदी में लग गए… हम अँखियों के झरोखों से देखते रह गए…

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ दीवार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “दीवार” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ दीवार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दीवार शब्द सुन कर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की पुरानी फिल्म में उनके द्वारा किया गया उत्कृष्ट अभिनय की स्मृति मानस पटल पर आ जाती है।

हमारे जैसे यात्राओं के शौकीनों को चीन स्थित विश्व की सबसे बड़ी दीवार देखने की इच्छा प्रबल हो जाती हैं। देश भक्ति का सम्मान करते हुए, मन में विचार आया कि हमारे देश की  सबसे बड़ी दीवार खोजी जाए। भला हो गूगल महराज का उन्होंने ज्ञान दिया की विश्व की दूसरी बड़ी दीवार हमारे राजस्थान में कुंभलगढ़ किले की है। बचपन के मित्र का साथ था तो चल पड़े किले की दीवार फांदने। वैसे दीवार फांदना आईपीसी धारा में गैर कानूनी भी होता हैं।

उदयपुर से करीब नब्बे किलोमीटर दूरी है। ये ही वो पवित्र स्थल है, जहां देश के अभिमान महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। किले का नाम उनके वंश के कुंभल महराज के नाम से है। जिन्होंने बत्तीस किलों का निर्माण किया था। जिस प्रकार बत्तीस दांत जीभ की रक्षा करते है, उन्होंने ऐसा अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए किया था। किले की चढ़ाई सीधी है, और दूरी भी नौ सौ मीटर से अधिक है। रास्ते में सात गेट है, जहां बेंच पर विश्राम कर सकते हैं।

गाइड की व्यवस्था भी है। सात सौ रुपये  शुल्क है। एक परिचित ने कहा था, वहां एक बारह वर्ष की बच्ची पूरी कहानी सुना कर आपके मोबाईल में रिकॉर्ड भी कर देती है। उसको भी प्रेरित कर गाइड के स्थान पर उसकी सेवाएं उपयोग में ली। लड़की ने हम सबको थोड़ी दूर ले जाकर पूरी कहानी सुनाई। जब हमने उससे पूछा की इतना डर क्यों रही हो, तो वो बोली साहब “दीवारों के भी कान होते हैं,” आपने सुना होगा। चूंकि उसके पास गाइड का लाइसेंस नहीं है, इसलिए वो सब के सामने ऐसे कार्य नही कर सकती। दुनियादारी छोड़ मन की दीवारों (मतभेद) को तोड़ कर सुकून से जीवन व्यतीत करें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पनवाड़ी अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ पनवाड़ी (अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

समय के बदलाव के साथ ही साथ पनवाड़ियो ने भी अपने रंग ढंग बदल लिए। पहले इस व्यापार में “चौरसिया” लोग ही कार्यरत थे। पान के शौकीन अधिकतर पूर्वी राज्यों तक ही सीमित थे। धीरे धीरे उत्तर और पश्चिम दिशा में भी इसके सेवन करने वालों की संख्या में वृद्धि होती गई।

हमारा परिवार उत्तर भारत के  होने के कारण पान का सेवन नहीं करता था। सत्तर के दशक में शादी विवाह के समय जरूर इसका एक काउंटर लगता था। कॉलेज समय तक इसका स्वाद हमने नही चखा था। पान खाने वाले को “बिगड़ैल” की श्रेणी में गिना जाता था।                               

आज पनवाड़ी माहौल के अनुसार “बीटल” लिखने लग गए हैं। पान की कीमत भी दस रुपे से हज़ार तक में होती हैं। चांदी के वर्क में लिपटा हुआ “बीड़ा” कहीं कहीं सोने के वर्क में भी उपलब्ध करवाया जाता हैं। “पैसा फैंको और तमाशा देखो” बर्फ, आग के शोलों वाला पान और ना जाने कितने नए तरीकों से पान आपकी जिव्हा के स्वाद के लिए परोसा जाता हैं।               

कुछ पान वाले इसलिए भी मशहूर हो जाते हैं कि उनकी दुकान पर पान खाए हुए बड़े मंत्री पद पर आसीन हो गए हैं। उनकी पान खाते हुए की फोटो लगा कर व्यवसाय वृद्धि करते हैं, और पुरानी उधारी का जिक्र भी कर देते हैं। सही भी है, क्या बिना उधारी चुकाए ही बड़ा आदमी बना जा सकता हैं? 👄

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 133 ☆ अच्छा ही हुआ…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरण “अच्छा ही हुआ…! ”।)  

☆ संस्मरण  # 133 ☆ अच्छा ही हुआ…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मेरे व्यंग्य के पहले गुरु आदरणीय हरिशंकर परसाई रहे हैं, बात उन दिनों की है जब आदरणीय श्री प्रताप सोमवंशी (संप्रति -संपादक, हिन्दुस्तान, दिल्ली) के निर्देश पर मैंने स्व हरिशंकर परसाई जी से लम्बा इंटरव्यू लिया था जो इलाहाबाद की पत्रिका ‘कथ्य रूप’ में सोमवंशी जी के संपादन में छपा था। इलाहाबाद की उस पत्रिका में छपने के कुछ साल बाद परसाई जी का निधन हो गया था। इस प्रकार ये इंटरव्यू परसाई के जीवन का अंतिम इंटरव्यू रहा। बाद में परसाई जी के चले जाने के बाद इस इंटरव्यू को साभार हंस पत्रिका ने छापा था। हालांकि, कुछ मित्रों ने मुझ पर व्यंग्य भी किया था, कि आप अभी उनका इंटरव्यू न लेते तो शायद परसाई जी कुछ साल और जी लेते।

कुछ साल बाद भारतीय स्टेट बैंक, राजभाषा विभाग, मुंबई के महाप्रबंधक एवं “प्रयास” पत्रिका के संपादक डॉ सुरेश कांत के निर्देश पर मैंने ख्यातिप्राप्त व्यंग्यकार हरि जोशी जी का भोपाल में इंटरव्यू लिया, जिसको प्रयास पत्रिका में छपने हेतु भेजा। किन्तु, श्री सुरेश कांत जी के मन में उहापोह की हालत बनी रही और उन्होंने इस इंटरव्यू को पेंडिग में डाल दिया जो ‘प्रयास’ पत्रिका में छपने के लिए आज तक पेंडिग में पड़ा है। न तो स्टेट बैंक की प्रयास पत्रिका ने वापस किया और न ही ये छप पाया ।

मैं भी खुश हूँ कि अच्छा हुआ नहीं छपा… नहीं तो खामोंखा मित्र लोग मेरे ऊपर फिर से व्यंग्य करने लगते …..!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ राजी सेठ : बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ है बाकी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण ☆ राजी सेठ : बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ है बाकी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

राजी सेठ जिनसे बहुत कुछ सीखा और जाना व समझा। सन् 1975 फरवरी माह की बात है। मेरा चयन केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंदी भाषी लेखकों के लिए लगाये जाने वाले लेखन शिविर में हुआ था और यह शिविर अहमदाबाद में गुजरात विश्विद्यालय में होने जा रहा था। मैं उस समय मात्र तेईस वर्ष का था और छोटे से कस्बे नवांशहर का निवासी। इससे पहले कभी इतनी दूरी की रेल यात्रा नहीं की थी। हां, डाॅ नरेंद्र कोहली से परिचय था और वे दिल्ली रहते थे। बस। उन्हीं के पास पहुंचा और उन्होंने पूछा कि क्या अपनी सीट आरक्षित करवाई है? मैं कहां जानता था इस बारे में? बहुत डांटा मुझे और रेल पर बिठाने छोटे से बेटे को गोदी उठाये खुद गये मेरे साथ। भारतीय रेल का वही दृश्य जो सबने कभी न कभी देखा होगा सामने था। गाड़ी खोजने, प्लेटफॉर्म पर पहुंच कर सीट पाने की मारामारी तक डाॅ नरेंद्र कोहली मेरे साथ भागते दौड़ते रहे और आखिर गाड़ी में बिठा कर जब विदा होने लगे तब तक मुझे एक टीन के कनस्तर पर बैठने की जगह मिल पाई थी और इसी पर पूरे चौबीस घंटे बैठ कर अहमदाबाद पहुंचा था दूसरे दिन सबेरे।

लेखन शिविर के पहले दिन पहले सत्र में हमारी प्रिय विधा के अनुसार तीन विधाओं पर छोटे छोटे समूह बनाये गये -कथा, कविता और नाटक। मैंने कथा समूह चुना। फिर छोटा सा मध्यांतर जलपान का आया। चाय और कुछ खाने के लिए प्लेट में लेकर मैं अलग से खड़ा था कि दो महिलाएं मेरी ओर बढ़ती हुई आईं और सामने खड़ी हो गयीं। ऐनक के पीछे से झांकती आंखों में जिज्ञासा में पूछा -कहां से आए हो?

-पंजाब।

-पंजाबी बोलनी आती है?

-क्यों नहीं? पंजाबी पुत्तर हूं तो आती ही है।

-फेर पंजाबी च बोल भरा।

इस तरह हमारा परिचय जिन महिलाओं से हुआ वे राजी सेठ और उनकी छोटी बहन कमलेश सिंह थीं। वे उन दिनों अहमदाबाद में ही रहती थीं। मैंने पूछा -पंजाबी में ही बात क्यों?

-भरावा इत्थे पंजाबी च गल्ल करन लई तरस जाइदा। ऐसलई। यह कहते कहते अपनी प्लेट में से आलू की एक टिक्की मेरी प्लेट में सरका दी थी। मैंने भी बताया कि अच्छा किया क्योंकि कल रात से यहां का खाना नहीं खा रहा क्योंकि यह बिल्कुल उलट स्वाद वाला है। मीठे की जगह नमक और नमक की जगह मीठा डाल रहे हैं।

-अच्छा एह गल्ल ऐ?

-जी।

-फिर ठीक ऐ। दोपहर दी ब्रेक च खाना साडे घरे?

-रोज?

-की गल्ल? मंजूर नहीं?

-होर की चाहिदा?

इस तरह दोपहर का खाना राजी सेठ के घर हुआ मेरा पूरे सातों दिन। पर उन दिनों ही उनकी पहली कहानी ‘क्योंकर’ कहानी में प्रकाशित हुई थी और लेखिका का नाम था-राजेन् सेठ। यह उनका असली नाम था लेकिन उन्हें पुरूष समझ कर जब खत आने लगे तब उन्होंने नाम बनाया राजी सेठ। फिर इसी नाम से अब तक लिखा और हिंदी साहित्य में उन्हें जाना जा रहा है। वे सात दिन और हमारी कथा विधा की कक्षाएं कभी न भूलने वाले दिन रहे। विष्णु प्रभाकर जी हमारे शिक्षक या कहिए मार्गदर्शक थे। राजी सेठ, कमलेश सिंह और मैं तीनों इसी कक्षा में बैठते। मैंने अपनी एक अप्रकाशित कहानी पढ़ी थी-एक ही हमाम में। जो विष्णु प्रभाकर जी को पसंद आई थी। वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान में कहानियों का चयन करते थे। शाम को जब उनके साथ विश्विद्यालय में घूम रहा था तब विष्णु जी ने कहा कि यदि इसमें थोड़ा बदलाव कर लो तो मैं इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में ले लूं। दूसरे दिन दोपहर को राजी सेठ को मैंने यह बात बताई तो उन्होंने सुझाव दिया कि इस लोभ में अपनी कहानी न बदल लेना कि एक बड़े साप्ताहिक में आ जायेगी। यदि बदलाव मन से आए तो करना नहीं तो न करना। मैंने रात भर विचार किया और अपनी कहानी को बार बार पढ़ा तब राजी सेठ का सुझाव अच्छा लगा और मैंने विष्णु जी को कहानी में बदलाव करने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। बाद में वह कहानी रमेश बतरा के संपादन में साहित्य निर्झर के कहानी विशेषांक में आई।

जिस दिन चलने का समय आया उस दिन उनकी सीख थी -कमलेश, बहुत सी बातें हमारी होती रहीं लेकिन आज एक सुझाव दे रही हूं, जिन लोगों के साथ बैठकर मन को खुशी और सुकून न मिले, वे कितने भी बड़े हों, उनके बीच मत बैठना। यह सीख, सुझाव मेरे अब तक बहुत काम आ रहा है। चलते चलते एक प्यारी सी डायरी,पैन और एक नयी नकोर शर्ट भी दी। मैं जल्द ही किनारा कर लेता हूं ऐसे लोगों से जिनके बीच बैठकर सुकून न मिल रहा हो। बहुत बड़ी सीख मिली। वे तब चालीस वर्ष की थीं और मेरा व उनका अंतर सत्रह वर्ष का। वे आज 87 की हो गयी हैं और मैं 70 में आ गया लेकिन वह लम्बा संबंध 47 वर्ष से चलता आ रहा है। विभाजन के बाद कुछ समय राजी सेठ के परिवार ने पंजाब के नकोदर में बिताया था। यह भी उन्होंने मुझे बताया था।

फिर राजी सेठ के पति सेठ साहब का तबादला दिल्ली हो गया और वे मालवीय नगर में आकर किराये के बंगले में रहने लगे। सेठ साहब आयकर विभाग में उच्चाधिकारी रहे हैं। मैं रमेश बतरा के दिल्ली आ जाने के बाद से काफी चक्कर दिल्ली के लगाने लगा। मेरे दो ही ठिकाने होते -टाइम्स ऑफ इंडिया में सारिका का ऑफिस और शाम को मालवीय नगर राजी सेठ के घर। वे अपने घर काम करने वाले पहाड़ी युवक दान सिंह को अपने बेटे की तरह ही मान कर रखे हुई थीं और मुझे पहले दिन ही कह दिया था कि कमलेश, दान सिंह को भूल कर भी हमारे घर का छोटा सा काम करने वाला न कहकर पुकारना। उस दान सिंह को राजी सेठ ने न केवल पढ़ाया लिखाया बल्कि वर्धा के महात्मा गांधी विश्विद्यालय में नौकरी भी लगवा दी। हालांकि दान सिंह की पत्नी और दोनों बेटियां आज भी राजी सेठ के साकेत स्थित बनाये बंगले में उनके साथ रहती हैं और दान सिंह भी वर्धा से आता जाता रहता है। दोनों बेटियां राजी सेठ को दादी ही कहती हैं और दान सिंह की पत्नी मुझे भैया पुकारती है। जब ये बच्चियां छोटी थीं तब राजी सेठ शाम के समय इन्हें घुमा लाने को कहतीं और वे भी शाम को घूम कर खुश हो जातीं। मुझे ऐसा लगता है कि ‘धर्मयुग’ में प्रकशित कहानी ‘गलत होता पंचतंत्र’ का नायक दान सिंह ही है। पर कभी कहा नहीं। मन ही मन समझ गया।

फिर राजी सेठ ने उपन्यास ‘तत्सम’ लिखना शुरू किया। उन दिनों जब भी घर गया तब टाइप पन्ने मुझे देकर कहतीं कि इन्हें पढ़ कर बताओ कि कैसे चल रहा है? इस तरह मैंने वह चर्चित उपन्यास टाइप होते ही पढ़ने की खुशी पाई। वे एक एक पंक्ति और एक एक शब्द पर कितना ध्यान देती थीं, यह जाना। जब तक किसी शब्द से संतुष्ट न हो जातीं तब तक काम अटका रहता। यह उपन्यास भी उन्होंने अपनी एक निकट संबंधी के जीवन से बीज रूप में लिया था जिसके पति की असमय मृत्यु हो गयी थी और राजी सेठ ने संदेश दिया है कि यदि हमारे घर की दहलीज किसी आग में जल कर खराब हो जाये तो बदल लेनी चाहिए। ऐसे ही यह जीवन यदि किसी एक घटना से दूभर बन रहा हो तो बदल लेना चाहिए यानी दूसरी शादी, नयी जिंदगी शुरू कर लेने का संदेश दिया है इस उपन्यास में। यानी तत्सम क्यों? वैसे का वैसा जीवन क्यों जीते चले जाओ? इसे बदलो। वे यह भी मानती हैं कि हर स्त्री का आर्थिक आधार होना चाहिए यानी नौकरी लेकिन सोच इससे भी ऊपर होनी चाहिए।

राजी सेठ ने दर्शन शास्त्र में एम ए की है और वे सचमुच दार्शनिक ही हैं। देखने, समझने और व्यवहार में। शांत सा चेहरा और दूसरे का सम्मान करना कोई इनसे सीखे। नंगे पांव खड़े रहकर मेहमान को खाना खिलाना और साहित्य की बातें करते रहना। फोन पर भी लम्बी बातें। दिल्ली आकर उन्हें प्रसिद्ध लेखक अज्ञेय जी का सहयोग व मार्गदर्शन मिला जिससे वे हिदी साहित्य में अपने परिश्रम व लेखन से स्थान बनाने में सफल रहीं। मेरी दो कहानियां भी इनके सहयोग से अज्ञेय जी द्वारा संपादित पत्रिका -‘नया प्रतीक’ पत्रिका में आईं और चर्चित रहीं। मेरे प्रथम कथा संग्रह ‘महक से ऊपर’ के प्रकाशन का सारा श्रेय उनको ही जाता है। मैं तो डाॅ महीप सिंह से संग्रह को प्रकाशन से पहले कभी मिला भी न था लेकिन सब किया राजी सेठ ने। इस तरह मेरे प्रथम कथा संग्रह की प्रेरक भी राजी सेठ ही रहीं। वे अपनी हर पुस्तक प्रकाशक से मुझे भिजवाती रहीं। मैं भी उनको अपनी हर पुस्तक भेजता हूं। उनका बेटा राहुल तब सिर्फ दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था, फिर वह अमेरिका गया। अब दिल्ली में ही मां पापा के साथ आ गया है और बन गया है लेखक राहुल सेठ। राहुल ने अपनी मां राजी सेठ की कहानी ‘तुम भी’ का नाट्य रूपांतर भी किया है और अपनी पुस्तक मां की तरह ही भेजी। सेठ साहब कहा करते हैं कि मैंने ज्यादा से ज्यादा समय राजी को लिखने के लिए दिया, खाना पकाने में समय लगाने से भरसक बचाये रखा क्योंकि वे खाना बनाने से बहुत बड़ा काम कर रही हैं लेखन का। हर स्त्री लेखन नहीं कर सकती और हर लेखिका को सेठ साहब नहीं मिलते। परिवार ने पूरा साथ दिया। छोटी बहन कमलेश सिंह का कहानी संग्रह भी राजी सेठ ने ही प्रकाशित करवाया। मेरी डाॅ इंद्रनाथ मदान वाली इंटरव्यू भी एक पत्रिका शायद ‘साक्षी’ में प्रकाशित की, जिसका वे अपने गुरु डाॅ देवराज के साथ सहसंपादन करती थीं। अपने समय का कैसे सदुपयोग करना है, शब्दों का कैसे चयन करना है, कृति को कैसे धैर्य के साथ संपन्न करना है और जब तक संतुष्टि न हो तब तक उस पर काम करते जाना है यह बिल्कुल करीब से जाना समझा है मैंने। राजी सेठ और उनका परिवार मुझे लघुकथा लेखन के चलते ‘लघुकुमार’ ही पुकारता है। इतनी चिट्ठियां लिख लिख कर मुझे समझाती रहती थीं जिंदगी और साहित्य के बारे में कि काश वे चिट्ठियां संजो कर रखी होतीं तो आज एक पुस्तक आ जाती। कभी कभार पुराने खतों में कोई खत मिल जाता है। बेटी रश्मि के विवाह पर शगुन का लिफाफा मिला तो उनके प्यार से आंखें भर आईं। नये लेखकों को पढ़ना और अपनी ओर से कुछ सलाह देना यह निरंतर जारी रहा। रमेश बतरा के संपादन में साहित्य निर्झर के लिए कहानी मंगवाई थी।

अभी दो साल पहले सपरिवार दिल्ली साकेत स्थित घर गया था तब वे अस्वस्थ जरूर थीं लेकिन वही गर्मजोशी, वही प्यार और वही आशीष। बहू बेटे, सेठ साहब सबको खाने की मेज पर बुलाया और कहा कि देखो, मेरा भरा केशी मिलने आया है। और बड़े लाड चाव से कहा कि मेरा केशी इतना बड़ा लेखक बन गया है। बहू उज्ज्वला से पहली बार ही मुलाकात हुई। चलते चलते एक लालटेन दी जो बिजली से रोशन कर सकती थी लेकिन सोचता हूं कि राजी सेठ सदैव मुझे जीवन, व्यवहार और साहित्य की रोशनी देती आ रही हैं। जब पंजाब सरकार की शिरोमणि साहित्यकार का पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो फोन लगाया और बोलीं कि बस। इसमें क्या, मैं तो लेखिका हूं और रहूंगी। ज्यादा सुनाई भी नहीं देता आजकल। या तो राहुल या फिर दान सिंह की पत्नी ही बताती हैं कि कमलेश भैया हैं फोन पर। तब वे उन्हें कुछ जवाब बताती हैं और इस तरह बातचीत चलती है हमारी। एक बार वे मुझे मन्नू भंडारी से मिलाने भी ले गयी थीं और दैनिक ट्रिब्यून के लिए उनका इंटरव्यू भी करवाया था। इसी तरह चंडीगढ़ आई थीं योजना रावत के कथा संग्रह के विमोचन पर तब गया था पंजाब विश्वविद्यालय में मिलने तब भी अपना इंटरव्यू न करवा कर निर्मला जैन का इंटरव्यू करवाया। अपने प्रचार से सदैव दूर रहीं। दूसरों के बारे में ज्यादा सजग और प्रेमभरी, प्रेममयी रहीं। अब क्या क्या याद करूं और क्या क्या भूलूं? बस। दीर्घायु हों और आशीष बना रहे। स्नेह बना रहे।

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 132 ☆ चिंता और चिंतन… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरण “चिंता और चिंतन… ”।)  

☆ संस्मरण  # 132 ☆ चिंता और चिंतन… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

गांव का खपरैल स्कूल है, सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं। फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं, फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं।

मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डालके छींक मारते हैं फिर फटे झोले से सलेट निकाल लेते हैं। बड़े पंडित जी जैसई पंहुचे सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं। हम सब ये सब कुछ दूर से खड़े खड़े देख रहे हैं। पिता जी हाथ पकड़ के बड़े पंडित जी के सामने ले जाते हैं। पहली कक्षा में नाम लिखाने पिताजी हमें लाए हैं। अम्मा ने आते समय कहा उमर पांच साल बताना, सो हमने कह दिया  पाँच साल… 

बड़े पंडित जी कड़क स्वाभाव के हैं, पिता जी उनको दुर्गा पंडित जी कहते हैं। दुर्गा पंडित जी ने बोला पाँच साल में तो नाम नहीं लिखेंगे। फिर उन्होंने सिर के उपर से हाथ डालकर उल्टा कान पकड़ने को कहा। कान पकड़ में नहीं आया, तो कहने लगे हमारा उसूल है कि हम सात साल में ही नाम लिखते हैं, सो दो साल बढ़ा के नाम लिख दिया गया। पहले दिन स्कूल देर से पहुँचेतो घुटने टिका दिया गया, सलेट नहीं लाए तो गुड्डी तनवा दी , गुड्डी तने देर हुई तो नाक टपकी। मास्टर जी ने खैनी निकाल कर चैतन्य चूर्ण दबाई फिर छड़ी की और हमारी ओर देखा।

बस यहीं से जीवन अच्छे रास्ते पर चल पड़ा। अपने आप चली आयी नियमितता,अनुशासन की लहर, पढ़ने का जुनून, कुछ बन जाने की ललक। पहले दिन गांधी को पढ़ा, कई दिन बाद परसाई जी का “टार्च बेचने वाला” पढ़ा, फिर पढ़ते रहे और पढ़ते ही गए … 

आज अखबार में पढ़ते हैं, मास्टर जी ने बच्चे का कान पकड़ लिया तो हंगामा हो गया… स्कूल का बालक मेडम को लेकर भाग गया… स्कूल के दो बच्चों के बीच झगड़े में छुरा चला … स्कूल के मास्टर ने ट्यूसन के दौरान बेटी की इज्जत लूटी … और न जाने क्या … क्या … !

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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