(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अविस्मरणीय संस्मरण “परसाई के रुप राम ”।)
☆ संस्मरण # 130 ☆ परसाई के रुप राम ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
जबलपुर के बस स्टैंड के बाहर पवार होटल के बाजू में बड़ी पुरानी पान की दुकान है।
रैकवार समाज के प्रदेश अध्यक्ष “रूप राम” मुस्कुराहट के साथ पान लगाकर परसाई जी को पान खिलाते थे। परसाई जी का लकड़ी की बैंच में वहां दरबार लगता था। इस अड्डे में बड़े बड़े साहित्यकार पत्रकार इकठ्ठे होते थे साथ में पाटन वाले चिरुव महराज भी बैठते। वही चिरुव महराज जो जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। बाजू में उनकी चाय की दुकान थी। मस्त मौला थे।
आज उस पान की दुकान में पान खाते हुए परसाई याद आये, रुप राम याद आये और चिरुव महराज याद आये। पान दुकान में रुप राम की तस्वीर लगी थी, परसाई जी रुप राम रैकवार को बहुत चाहते थे। उनकी कई रचनाओं में पान की दुकान, रुप राम और चिरुव महराज का जिक्र आया है।
अब सब बदल गया है। बस स्टैंड उठकर दूर दीनदयाल चौक के पास चला गया। परसाई नहीं रहे और नहीं रहे रुप राम और चिरुव महराज…। पान की दुकान चल रही है रुप राम का नाती बैठता है। बाजू में पुलिस चौकी चल रही है। पवार होटल भी चल रही है। चिरुव महराज की चाय की होटल बहुत पहले बंद हो गई थी एवं वो पुराने जमाने का बंद किवाड़ और सांकल भी वहीं है और रुप राम तस्वीर से पान खाने वालों को देखते रहते हैं।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबत”.)
☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
अभी मैने जैसे ही लिखा, कि मोबाइल के भीतर से एक आवाज़ आई “जिस थाली में खाते हो उसी में छेद करते हो”, नाशुक्रे, गद्दार, एहसानफरामोश, नमकहराम।
हमने उसे कहा ज़रा रुको अभी आगे तो देखो! तुम तो हमारे जैसे बुजुर्गों के समान अधीर हो रहे हो। पूरी बात सुनते नहीं और अपना रोना रोने लग जाते हो। हम तो सठिया गए है, तुम तो अभी अभी पैदा ही हुए हो।
मोबाइल भी आज सुनने के मूड में था, पुरानी कोई कसक रही होगी!
दिवाली पर मैं भी छः वर्ष का हो जाऊंगा, बैटरी जवाब दे रही है। दिन भर बिजली का करंट लगता रहता है। इतने सारे ग्रुप बना लिए हो, मेमोरी भी हमेशा लबालब रहती है, जैसे कि भादों में उफनाती नदियां हो जाती है। मेरे स्क्रीन पर इतने स्क्रेचेस है, जितने आपके चेहरे पर झुरियां नही हैं। हर एक सेकंड में कोई नया SMS आ जाता है, और तो और, आप भी हर SMSपर प्रतिक्रिया करने में All India Ranker के टॉप दस में रहते हो। दिन भर आंखे गड़ाए इंतजार करते रहते हो। कोई नया MSG आए तो बिना पढ़े ही दूसरे ग्रुप में सांझा कर Most active मेंबर की ट्रॉफी पर हक़ बना रहे।
अब तो सुबह उठने के लिए मुझे ही मुर्गा बना रखा है, प्रातः और सांय भ्रमण में भी मुझसे अपने कदम गिनवा लेते हो।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – रमेश बतरा : होलिया में भर आती हैं आंखें ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(15 मार्च – प्रिय रमेश बतरा की पुण्यतिथि । बहुत याद आते हो मेशी। तुम्हारी माँ कहती थीं कि यह मेशी और केशी की जोड़ी है । बिछुड़ गये ….लघुकथा में योगदान और संगठन की शक्ति तुम्हारे नाम । चंडीगढ़ की कितनी शामें तुम्हारे नाम…. – कमलेश भारतीय )
होली फिर आ रही है और धुन सुनाई दे रही है -होलिया में उड़े रे गुलाल,,,,पर दिल कहता है होलिया में भर आती हैं आंखें हर बार, हर बरस। रमेश बतरा को याद करके। मेरी रमेश बतरा से दोस्ती तब हुई जब वह करनाल में नौकरी कर रहा था और ‘बढ़ते कदम’ के लिए रचना भेजने के लिए खत आया था। अखबार के साइज की उस पत्रिका के प्रवेशांक में मेरी रचना को स्थान मिला था और हमारी खतो खतावत चल निकली थी।
फिर रमेश बतरा का तबादला चंडीगढ़ हो गया। इतना पता है कि सेक्टर आठ में उसका ऑफिस था और मैं बस अड्डे से सीधा या उसके पास या फिर बस अड्डे के सामने सुरेंद्र मनन और नरेंद्र बाजवा के पास पहुंचता। शाम को हम लोग इकट्ठे होते अरोमा होटल के पास बरामदे में खड़ी रेहड़ी के पास। वहीं होती कथा गोष्ठी और विचार चर्चा। इतनी खुल कर कि यहां तक भी कह दिया जाता कि इस रचना को फाड़कर फेंक दो या इतनी प्रशंसा कि इसे मेरी झोली में डाल दे, साहित्य निर्झर में ले रहा हूं। शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड ने रमेश बतरा को साहित्य निर्झर की कमान सौंप दी थी। हर वीकेंड पर मेरा चंडीगढ़ आना और रमेश के सेक्टर बाइस सी के 2872 नम्बर घर में रहना तय था और साहित्य निर्झर की लगातार बेहतरी की चर्चायें भी। यहीं अतुलवीर अरोड़ा, राकेश वत्स और जगमोहन चोपड़ा से भी नजदीकियां हुईं। तीनों के स्कूटरों पर हम लोग पिंजौर गार्डन भी मस्ती करने जाते।
सेक्टर इक्कीस में प्रिटिंग प्रेस थी और मुझे अच्छी तरह याद है कि जब लघुकथा विशेषांक निकल रहा था तब उसी प्रेस में बैठे मैंने उस टीन की प्लेट पर कागज़ रख लिखी थी -कायर। जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा था और बोला था कि जहां जहां संपादन करूंगा यह लघुकथा जरूर आयेगी। यह थी उसकी अच्छी रचना के प्रति एक संपादक की पैनी नजर। बहुत से नये कथाकार बनाये इस दौरान। चित्रकारों व फोटोग्राफर्स को भी जोड़ा। कितने सुंदर कवर चुनता था। पानी की टोंटी पर चोंच मारती चिड़िया का चित्र आज तक याद है। नये से नये कथाकार जोड़ता चला गया। एक काफिला बना दिया -महावीर प्रसाद जैन, अशोक जैन, नरेंद्र निर्मोही, मुकेश सेठी, सुरेंद्र मनन, नरेंद्र बाजवा, गीता डोगरा, प्रचंड, तरसेम गुजराल और संग्राम सिंह आदि। चंडीगढ़ की साहित्यिक गोष्ठियों में भी साहित्य निर्झर में प्रकाशित रचनाकारों को चर्चा मिलती रही। धीरे धीरे सभी लोग हिंदी साहित्य में छा गये।
रमेश फिल्म देखते समय विज्ञापनों को बहुत ध्यान से देखता और कहता कि कम शब्दों में अपनी बात कहनी सीखनी है तो विज्ञापनों से सीखो। लघुकथा में इसीलिए वह सबसे छोटी लघुकथा दे पाया -रात की पाली खत्म कर जब एक मजदूर घर आया तब उसकी बेटी ने कहा कि एक राजा है जो बहुत गरीब है। बताइए यह प्रयोग किसके बस का था ? चंडीगढ़ में संगठन खड़ा करने, एक नये आंदोलन जैसा माहौल बनाने के साथ साथ लघुकथा को नयी दिशा देने का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। साहित्य निर्झर व शुभतारिका के लघुकथा विशेषांक इसके योगदान के अनुपम उदाहरण हैं। खुद लिखना और सबको लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहने की कला रमेश बतरा में ही थी। चंडीगढ़ रहते रमेश बतरा एक अगुआ की भूमिका में था और उसकी पारखी नज़र को देखते कमलेश्वर ने भी सारिका में उपसंपादक चुन लिया। मुम्बई जाकर भी रमेश पंजाब, चंडीगढ़ व हरियाणा के रचनाकारों को नहीं भूला। वह वैसे ही यारों का यार बना रहा और सारिका में सबको यथायोग्य स्थान मिलता रहा। मुझसे कुछ विशेषांक के लिए कहानियां लिखवाई जिनमें एक है -एक सूरजमुखी की अधूरी परिक्रमा। पंजाबी से श्रेष्ठ रचनाओं के अनुवाद कर प्रकशित किये। वह हिंदी पंजाबी कथाकारों के बीच पुल बना। कितनी यादें हैं और जब मुझे दैनिक ट्रिब्यून में कथा कहानी पन्ना संपादित करने को मिला तो नये रचनाकारों को खोज कर प्रकाशित करने और आर्ट्स काॅलेज से नये आर्टिस्ट के रेखांकन लेकर छापने शुरू किये जो रमेश से ही सीखा जो बहुत काम आया।
अब रमेश नहीं है और उसकी चेतावनी भी नहीं कि अगर नयी कहानी लिखकर नहीं लाये तो मुंह मत दिखाना। इसी चेतावनी ने न जाने कितनी कहानियां लिखवाईं।
फिर तीन वर्ष मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में रहा तब रमेश और वे अरोमा के पीछे के बरामदे देखने जरूर जाता था पर रमेश कहीं नहीं मिला। बस। सूनापन और सन्नाटा ही मिला। काश, होलिया में गुलाल उड़ा पाता पर रमेश को याद कर भर भर आती हैं आज भी आंखें। कहां चले गये यार रमेश ?
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर संस्मरण “यादों में रानीताल”।)
☆ संस्मरण # 126 ☆ “यादों में रानीताल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
कल जबलपुर के रानीताल की बात निकल आयी भत्तू की पान की दुकान पर ,,
ठंडी सुबह में दूर दूर तक फैला कोहरा… रानीताल के सौंदर्य को और निखार देता था । चारों तरफ पानी और बाजू से नेशनल हाईवे से कोहरे की धुन्ध में गुजरता हुआ कोई ट्रक ………
पर अब रानीताल में उग आए हैं सीमेंट के पहाड़नुमा भवन ……….।
परदेश में बैठे लोगों की यादों में अभी भी उमड़ जाता है रानीताल का सौंदर्य ……
पर इधर रानीताल चौक में आजकल लाल और हरे सिग्नल मचा रहे हैं धमाचौकड़ी ………।
यादों में अभी भी समायी है वो रानीताल चौक की सिंधी की चाय की दुकान जहाँ सुबह सुबह 15 पैसे में गरम गरम चाय मिलती थी ।
रात को आठ बजे सुनसान हो जाता था रानीताल चौक ……… रिक्शा के लिए घन्टे भर इन्तजार करना पड़ता था,अब ओला तुरन्त दौड़ लगाकर आ जाती है ।
संस्कारधानी ताल – तलैया की नगरी……
किस्सू कहता “ताल है अधारताल, बाकी हैं तलैयां ” फिर सवाल उठता है इतना बड़ा रानीताल ?
रानीताल चौक, रानीताल श्मशान, रानीताल बस्ती, रानीताल मस्जिद और रानीताल के चारों ओर के चौराहे……. पर अब सब चौराहे बहुत व्यस्त हो गए हैं चौराहे के पीपल के नीचे की चौपड़ की गोटी फेंकने वाले अब नहीं रहे पीपल के आसपास गोटी फिट करने वाले दिख जाते हैं……… कभी कभी।
☆ लेखांक# 11 – मी प्रभा… आध्यात्माची वाट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆
या अकरा भागात मी तुम्हाला माझी जीवनकथा थोडक्यात सांगितली, म्हणजे ढोबळमानाने माझं जगणं….हे असंच आहे.सगळेच बारकावे, खाचाखोचा शब्दांकित करणं केवळ अशक्य!
पण खोटं, गुडी गुडी असं काहीच लिहिलं नाही, मी आहे ही अशी आहे, साधी- सरळ, आळशी,वेंधळी,काहीशी चवळटबा ही,मी स्वतःला नियतीची लाडकी लेक समजते,खूप कठीण प्रसंगात नियतीने माझी पाठराखण केली आहे. ….मी नियती शरण आहे! गदिमा म्हणतात तसं,”पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा” याचा प्रत्यय मी घेतला आहे!
अनेकदा मला माझं आयुष्य गुढ,अद्भुतरम्य ही वाटलेलं आहे….अनेकदा असं वाटतं, इथे प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्धच घडणार आहे का ?……पण पदरात पडलेलं प्रतिभेचं इवलंसं दान ही आयुष्यभराची संजीवनी ठरली आहे.अनेकदा माणसं उगाचच दुखावतात,अर्थात वाईट तर वाटतंच, पण कुणीतरी म्हटलंय ना, जब कोई दिलको दुखाता है तो गज़ल होती है……
कविता, लेखन आयुष्याचा अविभाज्य घटक!
सुमारे वीस वर्षापूर्वी माझ्याकडे अनेक वर्षे काम करणा-या कामवाल्या मावशींबरोबर हरिमंदिरात जाऊ लागले, नंतर बेळगावला जाऊन कलावती आईंचा अनुग्रह घेतला, सरळ साधा भक्तिमार्ग, नामस्मरण, भजन, पूजन!शिवभक्ती, कृष्ण भक्ती! संसारात राहून पूर्ण आध्यात्मिक मार्ग स्वीकारता येत नाही. मनाला काही बांध घालून घेतलेले…..आयुष्य पुढे पुढे चाललंय, जे घडून गेलं ते अटळ होतं, त्याबद्दल कुणालाच दोष नाही देत, मी कोण? पूर्वजन्म काय असेल? भृगुसंहितेत स्वतःला शोधावसं अनेकदा वाटलं,पण नाही शोधलं, आई म्हणतात, भविष्य विचारू नका कुणाला, सत्कर्म करत रहा, कलावतीआईंचा भक्तिमार्ग सरळ सोपा….त्या मार्गावर जाण्याचा प्रयत्न, दोन वर्षांपूर्वी मणक्याचं ऑपरेशन झालं, हाॅस्पिटलमधून कोरोनाची लागण झाली..सगळं कुटुंब बाधित झालं, हे सगळं आपल्यामुळे झालं असं वाटून प्रचंड मानसिक त्रास झाला, यातून नामस्मरण आणि ईश्वर भक्तीनेच तारून नेलं!
“मी नास्तिक आहे” म्हणणारी माणसं मला प्रचंड अहंकारी वाटतात.कदाचित कुठल्याही संकटाला सामोरं जायची ताकद त्यांच्यात असावी.
पण ज्या ईश्वराने आपल्याला जन्माला घातलं आहे त्याला निश्चितच आपली काळजी आहे असा माझा ठाम विश्वास आहे.कोरोनाबाधित असताना मनःशांतीसाठी ऑनलाईन अनेक मेडिटेशन कोर्सेस केले, ऑनलाईन रेकी शिकायचा प्रयत्न केला.पण ते काहीच फारसं यशस्वी झालं नाही.
आपल्या आतच सद् सद्विवेक बुद्धी वास करत असते ती सतत जागृत ठेवून दिवसभरात एकदा केलेलं ईश्वराचं चिंतन, दुस-या कुणा व्यक्तीबद्दल द्वेष, मत्सर, ईर्षा न बाळगणे हेच सुलभ सोपं आध्यात्म आहे असं मला वाटतं!
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ डायरी-संस्मरण – उसका बचपन, मेरा बचपना ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
युग तो नहीं गुजरे मेरा अपना बचपन बीते, पर फिर भी न जाने क्यों ऐसा लगता है कि जैसे वह कोई और जमाना था जब मैं और मेरे हमउम्र पैदा होकर बस ऐसे ही बड़े हो गए थे। हालांकि अभी भी बचपन की यादें ताजा हैं। सारी यादें पलट-पलट कर आती हैं और उस मासूम-से समय के टुकड़े के साथ जुगाली करते हुए सामने खड़ी हो जाती हैं। अब, जब नानी बनकर आज के बचपन को ये आँखें लगातार देख रही हैं तो अपने बचपन का बेचारापन बरबस ही सामने आकर बतियाने लगा है। इन दिनों रोज ही कुछ ऐसा आभास होने लगा है जैसे अपना वह बचपन और आज का बचपन, युगों के अंतराल वाली कहानी-सा बन गया है।
आज के बच्चों का जो बचपन है उसे देखकर मेरी तरह कितने ही दादा-दादी-नाना-नानी कई बार सोच ही लेते हैं कि “काश हम भी अभी बच्चे होते।” इन बच्चों के पैरों के साइज़ की क्रिब इनके बढ़ते-बढ़ते तब तक बड़ी होती है, जब तक ये खुद चार साल की उम्र को पार नहीं कर लेते। उसके बाद तो एक पूरा का पूरा कमरा इनका होता है, जो खिलौनों से, टैडी बेयर से, कपड़ों से भरा रहता है। बसंत, गर्मी, पतझड़ और सर्दी हर मौसम के अलग-अलग जूते और अलग-अलग कपड़े। हमारे जमाने में अपनी दुकान के पास वाले पेड़ से, चादर या साड़ी बांधकर पालना बना दिया जाता था और हम ठंडी हवा के झोंकों में मस्त नींद ले लेते थे। कमरे और कपड़ों की कहानी तो अपनी जुबानी याद है। एक कमरे में पाँच से कम का तो हिसाब होता ही नहीं था। लाइन से जमीन पर सोए रहते थे। एक-दूसरे की चादर खींचते हुए, लातें खाते हुए भी नींद पूरी कर लेते थे। तीन-चार साल के बच्चों तक के लिये नये कपड़े आते ही नहीं थे। एक पेटी भरी रहती थी ऐसी झालर वाली टोपियों से, स्वेटरों से, झबले, फ्राक और बुश्शर्ट-नेकर से। आने वाले हर नये बच्चे के लिये इन कपड़ों की जरूरत होती थी। एक कपड़ा खरीदो, पाँच बच्चों को बड़ा कर लो। अनकहा, अनसमझा, रिसायकल वाला सिस्टम था, कपड़ा धोते ही नया हो जाता था।
जब इन बच्चों के लिये स्मूदी, फलों का शैक बनता है तो मुझे याद आता है तब बेर के अलावा कोई ऐसा फल नहीं था जो हमारे लिये घर में नियमित आता था। बैर बेचने वाली आती थी तो सीधे टोकरी से उठा कर खा लेते थे। फल को धोकर खाने वाली बात के लिये कभी डाँट खायी हो, याद नहीं। सब कुछ ऐसा बिंदास था कि किसी तरह की रोका-टोकी के लिये बिल्कुल जगह नहीं थी।
आज की मम्मी अपने बच्चों के लिये जब प्रोटीन और कैलोरी गिनती हैं तो मैं सोचती हूँ कि मेरी जीजी (माँ) को कहाँ पता था इन सबके बारे में! वे तो ऊपर वाली मंजिल के किचन से नीचे अनाज की दुकान तक के कामों लगी रहती थीं। कुछ इस तरह कि ऊपर-नीचे के चक्करों में बच्चों के आगे-पीछे चक्कर लगा ही नहीं पातीं। तब हम भाई-बहन अपनी अनाज की दुकान के मूँगफली के ढेर पर बगैर रुके, बगैर हाथ धोए, पेट भर कर मूँगफली छीलते-खाते। कड़वा दाना आते ही मुँह बनाकर अच्छे दाने की खोज में लग जाते। होले- हरे चने के छोड़, जिन्हें पहले तो बैठकर सेंकना और फिर घंटे भर तक खाते रहना। हाथ-मुँह-होंठ हर जगह कालिमा न छा जाए तो क्या होले खाए। ताजी कटी हुई ककड़ियाँ व काचरे शायद हमारे आयरन का सप्लाय था। ये सब खाकर पेट यूँ ही भर जाता था। थोड़ा खाना खाया, न खाया और किचन समेट लिया जाता था। शायद इसीलिये मोटापन दूर ही रहा। बगैर किसी ताम-झाम के भरपूर प्रोटीन और नपी-तुली कैलोरी।
जब बच्चे कार में बैठ कर स्कूल के लिये रवाना होते हैं तो मेरी अपनी स्कूल बरबस नजरों के सामने आ जाती है जहाँ आधे किलोमीटर पैदल चल कर हम पहुँचते थे। रिसेस में खाना खाने फिर से घर आते थे। कभी कोई लंच बॉक्स या फिर पानी ले जाना भी याद नहीं। स्कूल के नल से पानी पी लेते थे। कभी यह ताकीद नहीं मिलती कि “हाथ धो कर खाना, नल का पानी मत पीना।” आज इन बच्चों के लिये हैंड सैनेटाइजर का पूरा पैकेट आता है। इनके बस्ते से, लंच बॉक्स से टँगे रहते हैं। गाड़ी में भी यहाँ-वहाँ हर सीट के पास रखे होते हैं। जितनी सावधानी रखी जा रही है उतने बैक्टेरिया भी मारक होते जा रहे हैं। एक से एक बड़ी बीमारियाँ मुँह फाड़े खड़ी हैं। तब भी होंगी। उस समय कई बच्चों के विकल्प थे। मैं नहीं तो मेरा भाई या फिर मेरी बहन, एक नंबर की, दो नंबर की। अब “हम दो हमारे दो” के बाद, “हम दो हमारा एक” ने परिभाषाएँ पूरी तरह बदल दी हैं।
अब बच्चों की प्ले डेट होती है। फोन से समय तय कर लिया जाता है। छ: साल के नाती, शहंशाहेआलम मनु के द्वारा नानी को चेतावनी दी जाती है– “नानी मेरे दोस्तों के सामने हिन्दी मत बोलना, प्लीज़।” गोया नानी एक अजूबा है, जो उसके उन छोटे-छोटे मित्रों को हिन्दी बोल कर डरा दे। बड़ी शान है, बड़ा एटीट्यूड है व गजब का आत्मविश्वास है। मैं तो आज साठ-इकसठ की उम्र में भी अपने बड़े भाई से आँखें मिलाकर बात नहीं कर पाती। इन्हें देखो नाना-नानी भी इनके लिये एक खिलौना है। ऐसा खिलौना जिसे जब चाहे इस्तेमाल कर ही लेते हैं। हमारा समय तो बस ऐसा समय था कि चुपके से आया और निकल गया। कब आया, कब गया और कब बचपन में ही बड़े-से घर की जिम्मेदारी ओढ़कर खुद भी बड़े हो गए, पता ही न चला। गली-गली दौड़ते-दौड़ते छुपाछुपी खेलना, पकड़ में आ जाना व फिर ढूँढना। न तो ऐसे आईपैड थे हमारे हाथों में, न ही वीडियो गैम्स थे। हाथों में टूटे कवेलू का टुकड़ा लेकर, जिसे पव्वा कहते थे, घर के बाहर की पथरीली जमीन पर लकीरें खींच देते थे। उसी पर कूदते-फांदते, लंगड़ी खेलते बड़े होते रहते थे। बगैर किसी योजना के ही हर घंटे प्ले डेट हो जाती थी। कभी गिर जाते, खून बह रहा होता तो जीजी हल्दी का डिब्बा लाकर उस घाव में मुट्ठी भर हल्दी भर देतीं। पुराने पायजामे का कपड़ा फाड़कर पट्टी बांध देतीं। हम रो-धोकर आँसू पोंछते फिर से अपने घाव को देखते हुए निकल पड़ते थे।
इन बच्चों के लिये सुबह का खास नाश्ता बनता है। हम तो रात के बचे पराठे अचार के साथ खा लेते थे। पोषक आहार के तहत बच्चों की शक्कर पर इनके ममा-पापा नजर लगा कर रहते हैं। हम तो शक्कर वाली मीठी गोलियाँ ऐसे कचड़-कचड़ चबाते रहते थे जैसे उस आवाज से हमारा गहरा रिश्ता हो। बाजार के मीठे रंग वाले, लाल-पीले-हरे बर्फ के लड्डू चूस-चूस कर खाते रहते थे। कभी कोई “मत खाओ” वाली ना-नुकुर नहीं होती। हमारा यह स्वाद सबसे सस्ता होता था फिर भला कोई कुछ क्यों कहता!
मुझे अपना बरसों का अनुभव और ज्ञान अपने नाती मनु को देने की बहुत इच्छा होती है। सुना तो यही है कि सारा ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो जाता है। यहाँ भी मैं मन मसोस कर रह जाती हूँ। उसे कुछ पूछना होता है तो ‘सिरी’ और ‘एलेक्सा’ उसके बगल में खड़ी होती हैं। नानी से कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मेरा ज्ञान भी उसके किसी काम का नहीं रहा।
एक बात बहुत अच्छी है, नया सीखने की मेरी ललक अभी भी है। हालांकि वही अच्छी बात उल्टे प्रहार करती है जब हाथों में रिमोट लेकर निनटेंडो गैम खेलना शुरू करती हूँ। कुछ ही पलों में मनु मेरे हाथ से रिमोट खींचकर मेरे मरते हुए कैरेक्टर को बचाता है।
“नानी आपको तो बिल्कुल भी खेलना नहीं आता। आप तो अपने प्लेयर को मारने पर तुली हुई हैं।” ऐसी हिंसक मैं कभी सपने में भी नहीं होती, लेकिन खेलते हुए कैसे हो जाती हूँ यह आज तक समझ ही नहीं पायी!
“ये निगोड़े गैम में क्यों मरना-मारना लेकर आते हैं!” कहते हुए मैं अपना सिर ठोक लेती हूँ। मनु को कोई जवाब न देकर बुरी तरह हार जाती हूँ। अपने से पचपन साल छोटे बच्चे से हारकर मैं बहुत बेवकूफ महसूस करती हूँ। ऐसा नहीं कि यह हारने का अफसोस हो, सिर्फ हारती तो कोई बात नहीं थी, मगर उसके मन में जो अपनी मूर्खता वाली भावना अनजाने ही छोड़ देती हूँ, उसकी कसक बनी रहती है। मैं बड़ी हूँ, मुझे सब कुछ आना चाहिए। अपने समय में कभी नानी के लिये ऐसा कुछ सोचने की, कुछ कहने की जुर्रत नहीं की। ऐसा कोई मौका मिला भी नहीं। तब तो आदेश होते थे व हम पालन करते थे। बच्चे भी तो एक, दो नहीं थे, पूरे के पूरे दस, या तो इससे एक-दो कम, या एक-दो ज्यादा।
रोज-रोज के इन नये खेलों को सीखना मेरे बस की बात नहीं रही इसलिये मैंने भी तय कर लिया कि उसके बचपन और मेरे बचपने को मिलाकर एक नया रास्ता बना लेती हूँ। धीरे-धीरे दोनों का तालमेल अच्छा होने लग गया है। ऐसा करके जीना मुझे भाने लगा है। फिर भी एक टीस तो है, मैं बदलाव को स्वीकार तो कर रही हूँ, पर मैंने दुनिया में आने की इतनी जल्दी क्यों दिखाई, कुछ साल और रुक जाती।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “संदूक – प्रथम भाग”.)
☆ संस्मरण ☆ संदूक – प्रथम भाग☆ श्री राकेश कुमार ☆
(यादों के झरोखे से)
एक सैनिक की पहचान बंदूक और संदूक हुआ करती थी। समय के फेर में संदूक अब सूटकेस कहलाने लगा हैं।
एक जमाने में रईसी का पैमाना भी संदूक हुआ करते थे। फलां के घर में तो इतने सारे संदूक हैं, आदि। मध्य श्रेणी के घरों में बड़े करीने से संदूक सज़ा कर नाप के अनुसार कपड़े से ढककर बड़े आदर से रखे जाते थे। कुछ क्षेत्रों में इसको ट्रंक, बक्सा के नाम से जाना जाता हैं।
समय की करवट में एरिस्ट्रोक्रेट, वीआईपी, इत्यादि वज़न में हल्के अटैची या सूटकेसों ने ले ली। इनके प्रचलन में गिरावट आ जाने से रफूगर प्रजाति भी अंतिम सांसे गिन रही हैं। इन बक्सों के कारण कपड़ों में एल आकार का चीरा लग जाता था, जिसको रफुगर बड़ी बारीकी से दुरुस्त कर दिया करते थे।
बैंक में भी रौकड़ को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के लिए लोहे के बक्से का उपयोग भी अब समाप्ति की कगार पर हैं। सुविधाजनक चार पहिया वाले सूटकेस जो उपलब्ध हो जातें हैं। रेलवे स्टेशन/बस अड्डे इत्यादि में कुली के कार्य करने वाले भी इनका प्रचलन बंद हो जाने के कारण, दूसरे रोजगार के साधनों में अपनी जीवनचर्या व्यतीत कर रहे हैं।
बचपन के ग्रीष्म अवकाश में जब ननिहाल से घर वापसी के समय, ढेर सारी वस्तुएं भेंट में मिलने के बाद ट्रंक बंद नहीं होता था तो उस के ढक्कन को बंद करके उस पर बैठ कर ही उसे बंद किया जाता था। हालांकि हमारी उम्र के लोग आज भी वीआईपी सूटकेस को भी ऊपर से बैठकर बंद करने की वकालत करते हैं। साधन और समय बदल रहा हैं, लेकिन हम नहीं बदलेंगे।
माझा जन्म पुणे जिल्ह्य़ातील एका छोट्याशा गावातल्या बागायतदार कुटुंबातला, भरपूर शेतीवाडी,घरात सुबत्ता होती, माझी आयुष्यातील पहिली मैत्रीण त्या गावातील कमल बडदे! ती माझ्यापेक्षा एक वर्षाने मोठी होती. आम्ही गावातल्या इतर मुलींबरोबर खेळायचो नाही.दोघीच काहीतरी खेळत असायचो. मी माॅन्टेसरीत असतानाच पुण्यात रहायला गेले पण सुट्टीत गावाकडे गेल्यावर मी आणि कमल भेटत असू.
पुण्यात भांडारकर रोडवर रहात असताना मालती पांडे ही मैत्रीण मिळाली तीही माझ्यापेक्षा एक वर्षाने मोठी होती, आम्ही एकमेकींच्या घरी येत जात असू. आम्ही पुणं सोडून गावाकडे आलो, पुण्यातील जागा रिकामी करण्यासाठी आईवडील गेले तेव्हा मालू भेटायला आली होती,आणि मी भेटले नाही आणि पुण्यात परत येणार नाही,म्हणून ती खूप रडली होती असं आईनी सांगितलं होतं.
आम्ही गावाकडे गेल्यावर, कमल भेटली,तिचे वडील मिलिट्रीत होते,ते माझ्या वडिलांचे चांगले मित्र होते ! तिची आई मुलांच्या शिक्षणासाठी घोडनदी-शिरूरला रहात होती.कमल नी आम्हाला शिरूरला चलण्याविषयी सुचविले होते हे मला आजही आठवतंय. शिरूर आमच्या गावापासून जवळ असल्यामुळे सोयीचं म्हणून वडिलांनी शिरूर मध्येच बि-हाड केलं!
पण शिरूरमधे गेल्यावर कमलची आणि माझी मैत्री टिकली नाही. तिथे मला राणी गायकवाड, सरस बोरा,उज्वल धारिवाल, निर्मल गुंदेचा, संजीवनी कळसकर या मैत्रीणी मिळाल्या! राणी गायकवाड शी माझे पूर्वजन्मीचे काहीतरी ऋणानुबंध असावेत असं मला नेहेमीच वाटतं.तिची मैत्री म्हणजे एक सुंदर कविताच होती….त्या मैत्रीची फार मोठी किंमत मला मोजावी लागली आहे. दहावी नंतर अकरावीला मी हिंगण्याच्या (कर्वेनगर ) महिलाश्रम हायस्कूल मधे हॉस्टेल वर राहू लागले तिथे जयश्री जमनारेची ओळख झाली . त्या हॉस्टेलवर मी महिनाभरही राहिले नाही, तिथे अजिबातच करमेना मग शिरूरचं मोडलेलं बि-हाड परत उभारलं ,राणी गायकवाड आणि जयश्री लोहकपूरे या खूप जिवलग मैत्रीणी पण त्या तरुण वयातच या जगातून निघून गेल्या!पण माझ्या आयुष्यात त्या दोघींना अनन्यसाधारण महत्त्व आहे.
या शाळेतील मैत्रीणी, काॅलेज मधे गेल्यावर नवीन मैत्रीण मिळाली सिंधू शेटे! तिची मैत्री अनेक वर्षे टिकली,पण दोन वर्षांपूर्वी तीही आजारपणाने गेली.
लग्न होऊन पुण्यात आले तेव्हा पहिली मैत्री यशवंत दत्त ची बायको वैजयंती महाडिकशी झाली. त्यानंतर काही वर्षांनी शिरूर च्या शाळेतली हुशार मुलगी माधुरी तिळवणकर ही भेटली, तिच्याशी मैत्री झाली ती तिच्या मिस्टरांमुळे, ते पूर्वी सोमवार पेठेत रहात होते, माधुरीचे पति अशोक कामत हे ह्यांचे मित्र बनले.माझ्या मुलाची आणि तिच्या मुलाचीही मैत्री झाली,एकमेकींच्या घरी जाणं हिंडणं फिरणं हे माधुरी बरोबर खूप झालं, फिरकी दिवाळी अंकाच्या संपादिका शोभा ठाकूर यांची ओळख माधुरीच्या मिस्टरांनी करून दिली, मी फिरकीची सहसंपादक झाले, असा साहित्य क्षेत्रात माझा शिरकाव झाला आणि शोभा ठाकूर ही मुंबई ची मैत्रीण मिळाली.त्याचकाळात लेखिका नंदा सुर्वे यांच्याशी खूप घनिष्ठ मैत्री झाली,नंदाताईंचं घर हे मला खूप शाश्वत, हक्काचं ठिकाण वाटतं!
पुढे “काव्यशिल्प” या कवींच्या संस्थेत मीरा शिंदेंशी पहिल्यांदा मैत्री झाली.मीराताई मैत्रीण वाटण्यापेक्षा मोठी बहिण जास्त वाटतात, त्यांच्यामैत्रीत एकप्रकारचं वेगळेपण आहे.
त्या नंतर मीनल बाठे, स्वाती सामक, स्नेहसुधा कुलकर्णी,ज्योत्स्ना चांदगुडे यांच्याशी खूप जवळची मैत्री झाली. आम्ही पाचजणींनी “मैत्रपंचमी” हे आत्मकथनपर पुस्तकही प्रकाशित केलं…..आयुष्याच्या जडणघडणीत आम्हा पाचजणींना एकमेकींची साथ खूप मोलाची ठरली आहे.
आयुष्यात खूप मैत्रीणी येऊन गेल्या ज्यांच्यामुळे आयुष्य सुखकर झालं अभिनेत्री ज्योती चांदेकर ही सुद्धा खूप जवळची मैत्रीण, तिच्यामुळे ओळख झालेली मीना जावडेकरही खूप प्रेमळ आणि काळजीवाहू मैत्रीण,आम्ही तिघी एकमेकींना खूप छान ऐकून घेतो आणि ऐकवतोही.या पाच सहा वर्षांत खूप जवळीक निर्माण झालेलं हे मैत्र !
खरंतर एक एक मैत्रीण ही एक एक कादंबरीच होईल! वर्षा कुलकर्णी ही सुद्धा खूप जवळची वृत्तबद्ध कवितेचा अभ्यास असलेली,माझ्यावर उदंड प्रेम करणारी मैत्रीण!
प्रसिद्ध कवयित्री आसावरी काकडे,अंजली कुलकर्णी, आश्लेषा महाजन, मृणालिनी कानिटकर या मैत्रीणी असल्याचा सार्थ अभिमान!
सामाजिक कार्यकर्ती सरोज फडके, स्नेहलता धूत ही स्वाध्याय महाविद्यालयात एम.ए. करताना मिळालेली हुशार मैत्रीण ! शीला शेळके,भक्ती पंडित, मेघना कुलकर्णी,लाजवंती साळुंकेआणि कवयित्री वैशाली मोहिते ही नावं घेतल्याशिवाय ही “सहेलियोंकी बाडी” पूर्ण होऊच शकत नाही. “सहेलियोंकी बाडी” राजस्थानातलं राजकन्येला तिच्या मैत्रीणींबरोबर खेळण्यासाठी राजानी बनवलेलं एक उद्यान आहे. माझ्यासाठी माझी प्रत्येक मैत्रीण राजकुमारी आणि तिची मैत्री हे एक सुंदर उद्यानच आहे !
अजून बरीच नावं नाही लिहिली गेली, विस्मरणात गेली, ज्ञात अज्ञात सर्व मैत्रीणींना हा लेख समर्पित!
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “सावधान, सचेत और सतर्क”.)
☆ संस्मरण ☆ सावधान, सचेत और सतर्क☆ श्री राकेश कुमार ☆
(यादों के झरोखे से)
ट्रिन ट्रिन ……. मेरा हेलमेट कहां है ? Mrs बोली सुबह सुबह क्या हो गया है, हेलमेट तो पुराने स्कूटर के साथ free में ही 14 वर्ष पूर्व ही दे दिया था।
क्या सपना देख रहे थे , हां मैं अपने स्कूटर से हॉर्न बजा रहा था ट्रिन ट्रिन,तो Mrs बोली अरे वो दूधवाले का भोपू है उठो और उसके पैसे भी दे देना आज 4 तारीख़ हो गई है।
मुझे रात की बात याद आई अपने शर्मा का फोन था कह रहा था लफड़ा हो गया है। उसने 1995 में कोई abc स्कूटर बुक किया था 500 देकर। तीन माह बाद उसने डीलर से वो राशि नगद में वापिस ले ली थी। 2010 में उसे कोर्ट से सम्मन आया की आपकी स्कूटर से x की मृत्यु हो गई है। कई वर्षो से सिविल मुकदमा चलता रहा और अब सेशन कोर्ट ने victim को एक बड़ी राशि देने का निर्णय दिया है। RTO से कोई भी जानकारी शर्मा नहीं प्राप्त कर सका, हालांकि कोर्ट को आरंभ में शर्मा की पूरी जानकारी दी होगी। अब शर्मा उच्च न्यायालय में अपील कर रहा है।
रात को यही सब बाते हुई थी, इसलिए वैसे ही सपने आए! हमारे बुजुर्ग सही कहते थे संध्या काल में अच्छी और धार्मिक बातें ही करनी चाहिए।
मेरे कुछ मित्र अभी तक 25/30 वर्ष पुराने स्कूटर रखे हुए है। उनकी समस्या ये है कि कबाड़ी को बेचे तो वो इसका गलत उपयोग (बम…) के लिए भी कर सकता है।
आजकल तो इन स्कूटर को समान ढोने वाले रिक्शा के रूप में उपयोग कर रहे है। कोई कहता है इसको कटवा कर बेचना चाइए।
एक मित्र ने कहा हम तो इसको नही बेचेंगे इसके कई फायदे है आस पास के काम निपटा सकते है और जब तक पोर्च में खड़ा रहता है तो इस पर बैठ कर lock down में समय कट जाता है।लेकिन एक बात और भी बताई कि बच्चों की शादी करने के लिए Bio data में अपने status में ये भी लिख देते है कि “maintaining two wheeler and four wheeler (उनके पास कार भी तो है)।
अब बात स्कूटर की है, तो आप बीती भी बता देता हूं ! 80 के आरंभिक दशक में हमने भी तीन स्कूटर बेचे थे जिनका स्थानांतरण 2 वर्ष बाद ही हो सकता था उनके चालान आते रहे और हम राशि भरते रहे थे। क्रेता ने भी अपने नाम स्थानांतरण नहीं करवाया था।जिस बिचोलिए के माध्यम से बेचे थे वो भी इस मामले में अनिभिज्ञ था।
मी अशा काळात आणि समाजात जन्माला आले जिथे बायकांना मित्र नसतात पण लहानपणापासून मला खूप चांगले मित्र मिळाले आहेत, मी पाचवीत असताना, दिलीप मैंदर्गी आणि राजेंद्र किल्लेदार या मित्रांबरोबर शाळेत जात असे.
पुण्यात पाचवी सहावीत शिकत असताना हे दोनमित्र !….नंतर सातवीत असताना शिरूरला गेले, शाळा मुलामुलींची असली तरी मुलंमुली बोलत नसत! त्या शाळेत असताना अनेक मैत्रीणी मिळाल्या, राणी गायकवाड, सरस बोरा, उज्वल धारिवाल, निर्मल गुंदेचा, संजीवनी कळसकर इत्यादी !
नववीत असताना मी आणि राणी गायकवाड एकाच बाकावर बसत असू आणि शाळेत ही बरोबरच येत जात असू,
नववीत असताना आमच्या आयुष्यात अशी घटना घडली की,आयुष्यभर त्या घटनेचे पडसाद येत राहिले, एका काॅलेज मधल्या मुलाने आमच्या दोघींच्या नावे एक पत्र लिहिले होते, मी तुमच्याशी मैत्री करायचे ठरविले आहे….वगैरे !
माझ्या मैत्रीणीला तो मुलगा आवडला होता, म्हणजे प्रेमप्रकरण नाही पण ते एकमेकांकडे पहात असत,हसत असत, मी एकदा तिच्या घरी गेले असताना तिने तिच्या खिडकीतून रस्त्याच्या पलिकडे उभा असलेला तो मुलगा दाखवला आणि म्हणाली, तो रोज संध्याकाळी इथे उभा असतो,मी या कशातच नव्हते, त्या काळात आमच्या भावांना कोणी सांगितलं की एखादा मुलगा आमच्या मागे आहे की त्या मुलाची चांगलीच पिटाई होत असे.तशी त्या मुलाचीही झाली,त्या मुलाचे नाव वसंत पाचरणे !
काॅलेजमधे गेल्यावर खूपच विचित्र योगायोगाने मी वसंत पाचरणेशी बोलायला लागले.त्याने मला “कुसुमानील” हे कुसुमावती देशपांडे आणि कवी अनिल यांच्या पत्रांचा संग्रह असलेलं पुस्तक वाचायला दिलं,त्यानंतर मी अनिल, बी,बोरकर, पद्मा गोळे,भा.रा.तांबे यांचे कविता संग्रह वाचले, वसंत पाचरणेची मैत्री माझ्या आयुष्यातला टर्निंगपाॅईंट ठरली आहे.
संशयास्पद ठरली तरी ती निखळ, स्वच्छ मैत्री होती, वयाची पासाष्टी ओलांडल्यानंतर स्वतःकडे तटस्थपणे पहाताना हेच जाणवतं काॅलेज मधल्या त्या मैत्री मुळेच पुढील आयुष्यात माझ्या जाणिवा प्रगल्भ झाल्या !
प्रतिकुल परिस्थितीतून बाहेर पडून काव्यक्षेत्रात पाय ठेवता आला,काव्यक्षेत्रात अनेक चांगले मित्रमैत्रीणी मिळाल्या, सगळ्यांचीच नावं घेणं शक्य नाही नाहीतर हा लेख म्हणजे केवळ नामावलीच होईल!
या लेखात मी फक्त मित्र हाच विषय घेतला आहे,वर उल्लेख केलेल्या मैत्रीणी ज्या काळात होत्या तेव्हा कुणीही मित्र नव्हता!
काव्यक्षेत्रातला विशेष उल्लेखनीय मित्र म्हणजे अॅडव्होकेट प्रमोद आडकर रंगत संगत प्रतिष्ठानचे अध्यक्ष, रंगत संगत या संस्थेशी १९९३ पासून निगडित आहे.या संस्थेत सूत्रसंचालनाच्या अनेक संधी मिळाल्या,साहित्य, नाट्य,कला क्षेत्रातील अनेक मातब्बर लोकांना भेटता आलं! अनेक कविसंमेलनाच्या आयोजनात सहभागी होता आलं!
रंगत संगत ची कार्याध्यक्ष म्हणून काम पाहिले,एकूण ही कारकीर्द समाधान कारक!
या सात आठ वर्षांत व्हाॅटस् अॅप ग्रुप मुळे शाळेत असताना वर्गातील न बोलणारी मुलं आता चांगले मित्र झाले आहेत, पन्नालाल कोठारी,दीपक भटेवरा,सुभाष जैन, दिलीप बोरा, धरमचंद फुलफगर, राजू वाघ डाॅ ढवळे इत्यादी अनेक चांगले मित्र व्हाॅटस अॅप मुळे मिळालेले !
आणखीन एका मित्राचा उल्लेख मला करायचा आहे, मी त्यांना भाईसाब म्हणते आणि आमची अजूनही प्रत्यक्ष भेट झालेली नाही,पण खूप चांगली दखल घेऊन मला सतत लिहितं ठेवणारे ईअभिव्यक्ती चे संपादक श्री.हेमंत बावनकर हे सुद्धा एक चांगले मित्र आहेत.
माझ्या आयुष्यात मैत्रीणींचं स्थानही खूप महत्वाचं आहे. ही “सहेलियोंकी बाडी” ही खूप संपन्न आहे पण मैत्रबनात मला मुख्यत्वेकरून मित्रांचाच उल्लेख करायचा होता कारण स्त्रीपुरूष मैत्री कडे अजूनही दुषित नजरेने पाहिले जाते !
स्री च्या आयुष्यात बाप, भाऊ,नवरा, प्रियकर या नात्यांइतकंच मित्र हे नातं महत्त्वाचं आहे……या निखालस नात्याचे नितांत सुंदर अनुभव मी घेतले आहेत.