English Literature – Memoirs ☆ दस्तावेज़ # 17 – Time’s Gentle Brew: Coffee and the Heart’s Musings ☆ Mrs. Saswati Sengupta ☆ 

Mrs. Saswati Sengupta

 

e-abhivyakti.com welcomes Mrs. Saswati Sengupta. She lives in Kolkata and pens beautiful memoirs and travelogues. She is an avid traveller and an outstanding photographer.

Her brief intro is as under:

– Having spent my formative years in Poona (Pune) and Jabalpur before relocating to Kolkata, I, Saswati Sengupta, am an avid reader and equally passionate about music, sports, photography, painting, watching movies and travelling.

The various permutation and combination of words with their everlasting effect have always fascinated me, leading to the inevitable penning of my thoughts and memoirs of bygone days as well as whatever catches my fancy!

(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s “दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”

In the next part of this series, we present Mrs. Saswati Sengupta‘s musings on international coffee day Time’s Gentle Brew: Coffee and the Heart’s Musings.“)

☆ दस्तावेज़ # 17 – Time’s Gentle Brew: Coffee and the Heart’s Musings ☆ Mrs. Saswati Sengupta ☆ 

International Coffee Day !

Espresso,

Latte, 

Mocha, 

Cappuchino, 

Iced,

or

‘Kattang-kaapi’?

That means black coffee..the real strong one!

Coffee is almost synonymous with South India.

 

How do you identify an ethnic South Indian household?

Elementary my dear whatever…!!

Its the fragrance of hot, steaming idlis,

sizzling dosas on a hot griddle,

that teasingly tangy sambar or rasam boiling in the pot,

and,

of course…

the heavenly aroma of freshly filtered coffee!

My love affair with coffee……or rather, its fragrance, began in Kirkee, Pune where my father was posted.

Tultul (a rare name for a Tamilian) and I were of the same age, a royal three plus some years old, and our barrack style quarters shared the same open verandah in front.

Most of our waking hours were spent either with me following Tultul at her house…or at my place, Tultul in tow.

We were yet to begin school and life then was all fun for us.

We ran about in the garden, dug the flower beds for earthworms, smelt the roses and mogras, chased squirrels, shared stories we heard, drew pictures and coloured them in our drawing copies, practised the alphabets and did everything three-year-old pre-schoolers usually do.

I enjoyed being at Tultul’s house.

The spicy fragrances wafting from the kitchen tingled my senses!

As my mother was kept busy with my new-born younger sis., Tultul’s mother took me under her wings, and her two elder sisters became my guardians too.

They dressed Tutul and me in matching ‘pawadas’ (a long ankle length skirt paired with a short blouse), plaited our hair or whatever strands we had, and also tied them with the same coloured ribbons.

I relished the lunch menu of sambar or rasam rice, curd rice, lemon rice et al but what I enjoyed most was the crunchy, paper thin ‘poppadams’.

This early initiation into a South Indian household influenced and affected me in many ways.

I learnt to speak in Tamil (sadly out of touch now) and started appreciating their culinary and cultural background too.

 

Till date I am enamoured by their classical dances, Carnatic music, kanjeevarams, kollams and of course….’ kattang-kapi ‘!!

‘ Kapi ‘, or coffee, is not meant to be sipped from any ordinary cup or mug.

For any self- respecting South Indian, that would be scandalous!!

It has to be served in a small conical tumbler with a flat edge, and the tumbler has to be placed in a cylindrical bowl with a flattened edge too.

You raise your hand holding the tumbler..and pour the ‘ kapi’ from a height into the bowl..and again from the bowl into the tumbler..so on and so forth quite a few times, to cool the steaming hot beverage.

This process is called ‘stretching the coffee!’

It is an acquired art.

Experts are known to raise their coffee tumblers to a height of 3-4 feet and serve it foaming!

(Tried it once with disastrous results.

 Never tried again.

 Sheer wastage of good coffee!)

 Entertaining guests with a mug of hot steaming coffee and ‘ murukkus ‘ (chakli) is soul satisfying, in my opinion!

Still remember my dear friend Suguna, calling out…’Kaapi kurchitta poitarey! ‘

(Meaning… ‘Please have some coffee before leaving!‘) to some visitors, who had come to meet her at the hostel, and were short on time.

Nothing heightens my senses than a freshly brewed mug…. sorry, tumbler of coffee!

On, the 5th of October 2024, the International Coffee Day, the gift pack of this tumbler set along with my favourite brew is a treasured gift from my loving beta, Udayan, and bahu, Srijita!

Like to share a tumbler of hot ‘ kapi ‘ folks?

♥♥♥♥

© Mrs. Saswati Sengupta

Kolkata

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 14 – हरिशंकर परसाई से पहली मुलाकात: अंग्रेज़ी में उनके दुर्लभ दस्तख़त – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ हरिशंकर परसाई से पहली मुलाकात: अंग्रेज़ी में उनके दुर्लभ दस्तख़त।) 

☆  दस्तावेज़ # 14 – हरिशंकर परसाई से पहली मुलाकात: अंग्रेज़ी में उनके दुर्लभ दस्तख़त ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

जब मैं श्रद्धेय हरिशंकर परसाई से पहली बार मिला तब मैं अबोध था। मुझे नहीं मालूम था कि मैं जिससे मिल रहा हूं वो वास्तव में कौन है?

यूं तो परसाई ने 1947 से ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था लेकिन लगातार स्वतंत्र लेखन 1960 से किया। उन्होंने स्तंभ लेखन की शुरुआत जबलपुर से प्रकाशित ‘प्रहरी’ में की। इसमें वे अघोर भैरव के नाम से ‘नर्मदा के तट से’ स्तंभ लिखते थे।

‘वसुधा’ के संपादक के रूप में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी अपने मित्र मुक्तिबोध से ‘एक साहित्यिक की डायरी’ लिखवाना। ‘सारिका’ के ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में’ स्तंभ के अंतर्गत, उनकी कलम से देश-विदेश की जानी-मानी हस्तियों के साथ कबीर का काल्पनिक साक्षात्कार पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘सुनो भई साधो’ और ‘ये माजरा क्या है’ स्तंभ ‘नवीन दुनिया’ और ‘जनयुग’ में लंबे समय तक प्रकाशित होते रहे।

ये बात 1972 की है। मेरा कॉलेज में पहला साल पूरा हो रहा था। मुझे पता चला कि मॉस्को में पैट्रिस लुमुंबा पीपल्स यूनिवर्सिटी है। इसमें अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप के छात्र पढ़ने आते हैं। प्रतिभाशाली छात्रों को वजीफा भी दिया जाता है। मैंने सोचा कि क्यों न आवेदन भेजकर देखा जाए। किसी ने कहा कि भारत-सोवियत सांस्कृतिक संघ के सदस्य बन जाओ तो एडमिशन में प्राथमिकता मिलेगी। मैंने सदस्यता ली और सर्टिफिकेट पर दस्तख़त करवाने के लिए परसाई जी के नेपियर टाउन, जबलपुर स्थित आवास पर गया। वे भारत-सोवियत सांस्कृतिक संघ की मध्यप्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे।

उन्होंने जिस सर्टिफिकेट पर दस्तख़त किए, उसकी फोटो इस संस्मरण के साथ प्रस्तुत है। इसमें उन्होंने अंग्रेजी में दस्तख़त किए हैं जो पचास साल बाद दुर्लभ लगते हैं। दस्तख़त के नीचे, उन्होंने अपनी हस्तलिपि में अंग्रेज़ी में लिखा है – वाइस प्रेसिडेंट एम पी आई एस सी यू एस एंड मेंबर नेशनल काउंसिल

संयोग देखिए, लगभग इन्हीं दिनों एक ज्योतिषाचार्य ने मेरी जन्मकुंडली देखकर, मेरे पिताजी को बताया – बालक का विदेश जाने का योग है। वहां जाकर विदेशी कन्या से विवाह का भी योग है। ये वहीं का होकर रह जाएगा और अपनों को भुला देगा।

बस, फिर क्या था। दिल के अरमां, आंसुओं में बह गए। एक आज्ञाकारी पुत्र और कर भी क्या सकता था।

अपने अंतिम समय में पिताजी उत्तराखंड में स्थित पैतृक गांव चले गए थे। माताजी ने हमें बताया कि अंत तक पिताजी को एक ही अफसोस रहा – मैंने जगत को पढ़ाई के लिए मॉस्को नहीं जाने दिया!

कुछ वर्षों बाद, मैंने परसाई को पढ़ना शुरू किया तो जाना कि वो कौन हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनसे अनेक बार मिलने का मौका मिला, मैंने उनको करीब से देखा-समझा, और मुझे उनका आशीर्वाद मिला।

‘हँसते हैं, रोते हैं’ की भूमिका में हरिशंकर परसाई ने लिखा –

एक दिन, एक आदमी आकर वहां खड़ा हो गया और बोला, “ भैया, दुनिया में दो ही तरह के आदमी होते हैं – हँसने वाले और रोने वाले!”

मैंने कहा, “और जो न हँसते हैं, न रोते हैं?”

वह बोला, “वे आदमी थोड़े ही हैं।”

मैं बोला, “उन्हें लोग देवता कहते हैं।”

वह बोला, “देवता होते होंगे तो हों, मगर आदमी नहीं होते।”

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

राजेंद्र तिवारी “ऋषि”

☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ ☆

☆ “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

विषम परिस्थितियों के बीच भी परिहास करने वाले, जिनके मुख मंडल पर शांति और मुस्कान का स्थाई वास था, गौर वर्ण, ऊंचे कद, सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी कविवर प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” अच्छे कवि और लोकप्रिय शिक्षक थे। लोग उनकी हाजिर जवाबी के कायल रहते थे। किसी भी विषय / प्रसंग पर तुरंत कविता का सृजन कर लेना उनके लिए सहज कार्य था। उन्होंने प्रारंभिक सृजन काल में देशभक्ति, सामाजिक विसंगतियों, राजनीति, भ्रष्टाचार, धर्म – आध्यात्म आदि विविध विषयों पर तुकांत – अतुकान्त कविताओं का सृजन किया जिसे उनके विशिष्ट प्रस्तुतिकरण के कारण श्रोता – दर्शकों द्वारा बहुत पसंद किया गया। उन्होंने कवि गोष्ठियों/ सम्मेलनों में हमेशा मंच लूटा। उनकी कविताएं – “रुपयों का झाड़”, आंसुओं को बो रहा हूं”, ओ आने वाले तूफानों” और “पंडित, झूठी है चौपाई” आदि अत्यधिक पसंद की गईं। बाद में उन्होंने धर्म – आध्यात्म पर प्रवाहपूर्ण सहज सृजन किया जिसे बहुत पसंद किया गया।

प्रो. राजेन्द्र तिवारी जी का जन्म 9 सितंबर 1944 को हुआ था। इनके पिता देवी प्रसाद जी जबलपुर की पाटन तहसील के ग्राम जुग तरैया के मालगुजार थे। कुशाग्र बुद्धि राजेंद्र जी ने प्रारंभिक अध्ययन गांव में ही किया किंतु उनकी ज्ञान पिपासा उन्हें जबलपुर ले आई। यहां इन्होंने हिंदी और इतिहास में एम. ए. तथा एम.एड. किया। जबलपुर में ही रह कर अपने ज्ञान को लोगों में वितरित करने की बलवती भावना के कारण इन्होंने हितकारिणी महाविद्यालय में अध्यापन प्रारंभ कर दिया। आप बीएड कालेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। किशोर अवस्था से ही ऋषि जी कविता लिखने लगे थे। अनुभव से काव्य लेखन परिपक्व होता चला गया और आप चहुं ओर एक अच्छे कवि के रूप में पहचाने गए। “इक्कीसवीं सदी की ओर चलें”, “आपा”, “क्या कर लेगा कोरोना” और “श्रीकृष्ण काव्य” उनकी चर्चित कृतियां हैं।

“कृष्ण काव्य” की रचना में उन्होंने अलग अलग छंदों का प्रयोग किया है। अलंकारों का सौंदर्य तो देखते ही बनता है –

नज़रों पै चढ़ी ज्यों नटखट की,

खटकी – खटकी फिरतीं ललिता

कछु जादूगरी श्यामल लट की,

लटकी – लटकी फिरतीं ललिता

भई कुंजन में झूमा झटकी,

झटकी – झटकी फिरतीं ललिता

सर पै रखके दधि की मटकी,

मटकी – मटकी फिरतीं ललिता

और गोपियां निश्छल भाव से कान्हा से कहती हैं –

हम सांची कहैं अपनी हूँ लला,

हम आधे – अधूरे तुम्हारे बिना

मनमंदिर मूर्ति विहीन रहे,

रहे कोरे – कंगूरे तुम्हारे बिना

गोपियां कृष्ण को सिर्फ कान्हा के रूप में ही स्वीकार करते हुए कहती हैं –

तुम ईश रहौ, जगदीश रहौ,

हमें कुंज बिहारी सौं ताल्लुक है

हमको मतलब मुरलीधर सौं,

हमको गिरधारी सौं ताल्लुक है

शिक्षाविद्, साहित्यकार डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी लिखते है कि “प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” उस साहित्य – सर्जक पीढ़ी के कवि हैं जिसने बीसवीं एवं इक्कीसवीं दोनों शताब्दियों की संधिबेला की साहित्यिक प्रवृत्तियों को पनपते, पुष्पित और फलित होते हुए देखा है।

महाकवि आचार्य भगवत दुबे के अनुसार ऋषि जी अपनी छांदस प्रतिभा की अनूठी एवं मौलिक छवि छटाओं से श्रोताओं को सर्वदा मंत्र मुग्ध करते रहे। दर्शनशास्त्री एवं साहित्यकार डॉ.कौशल दुबे के अनुसार “द्वापरयुगीन कृष्ण और उनसे जुड़े पात्रों को वर्तमान परिवेश के अनुरूप आज की प्रवृत्तियों और भाषा के अनुरूप ढालकर प्रो. ऋषि ने हिंदी साहित्य को एक महनीय और उच्चकोटी के साहित्य की सौगात दी है। बुंदेली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के सुप्रसिद्ध विद्वान स्मृति शेष डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के  अनुसार कवि राजेंद्र सर्वत्र ही नैतिकता को अपना टिकौना बना कर चले हैं। मानव प्रज्ञा ने सौंदर्य बोधक स्तरों को संतुलित रखने का कार्य किया है। यह संतुलन वाह्यारोपित न होकर आत्म नियंत्रित है। अंतर्मन की संवेदनशीलता कवि के रक्त गुण के रूप में प्रकट होकर अभिव्यक्ति को ग्राह्य बनती है।

प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” ने “मध्यप्रदेश आंचलिक साहित्यकार परिषद” का गठन कर ग्रामीण अंचल के साहित्यकारों को जोड़ने और  उनकी प्रतिभा को लोगों के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में यह संस्था सक्रिय है। इसके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों के अनेक साहित्यकारों को हिंदी साहित्य जगत में उचित स्थान और सम्मान प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ साहित्य सृजन के साथ – साथ ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली साहित्य साधकों को प्रकाश में लाने के लिए प्रो.राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” सदा याद किए जाएंगे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 16 – – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 3 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

सौ. उज्ज्वला केलकर

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय । यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।) 

डॉ. हंसा दीप

☆  दस्तावेज़ # 16 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 3 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

पर्व तीन

यहां से उसके जीवन का तीसरा पर्व आरंभ हुआ। यह पर्व आधुनिक तांत्रिक सुविधा-युक्त था। वह कहती है, ‘भीड़ में अपनी पहचान कायम करना यानी पुन: पहले चरण से आरंभ करना था। पुत्रियां आगे बढ़ रही थीं पर मेरी स्थिति विचित्र हो गयी थी। धार की यादें न्यूयार्क समान महानगर पर हावी हो रही थीं। हालांकि फोनपर कहा जाता, ‘यहां सब कुशल-मंगल है।’ जवाब मिलता, ‘यहां भी सब ठीक है।’ उसे लगता दूरस्थ रिश्तों की दूरी बढ़ती जा रही है। पुत्रियां बड़ी हो रही थीं। विदेश में उनके ब्याह के बारे में सोचने मात्र से डरलगता था। हंसा कहती है, ‘उन दिनों जो कहानियां उभरती थीं उन्हें कागज पर उकेर कर संजोकर रख देती थी। उन दिनों अनेक नौकरियों के प्रस्ताव आए। पर निश्चय कर रखा था कि जो भी कार्य करूंगी, हिंदी से संबंधित ही करूंगी। उस कारण राहें सीमित हो गयीं पर बंद न हुईं । उसके बाद न्यूयार्क के फ्लशिंग विभाग  में हिंदी पढ़ाना आरंभ हुआ । तब अनेक लोग उसे जानने लगे। यह पढ़ाना स्वयंसेवी अर्थात मानद, निशुल्क था। उसके बाद लोग उसे ‘हिंदी वाली दीदी’ कहने लगे। ‘भारत से दूर रहकर भी हिंदी पढ़ाकर मैं मातृभूमि से जुड़ी हुई हूं यह सोचकर मैं गर्व महसूस करती थी।‘ वो कहती है।

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

उसे न्यूयार्क व न्यूजर्सी की काव्य-गोष्ठियों में श्री रामेश्वर अशांत, श्री राम चौधरी समान अनेक हिंदी प्रेमियों को निकट से जानने का अवसर मिला तथा वे उसके काम से परिचित हुए।

अगला पड़ाव था, टोरंटो। धर्म जी ने नौकरी त्याग कर टोरंटो में रहने का निर्णय लिया। पांच साल बाद भारत लौट पाएंगे और फिर धार महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक की नौकरी कर पाएंगे, उसकी इस आशा पर पानी फिर गया। 

फिर एक बार नया शहर, नया देश, नए लोग। कटे हुए वृक्ष के तने को नयी जमीन की तलाश आरंभ हो गयी। भाषा जीवित रखने के उद्देश्य से प्रेरित होकर दीपट्रांसइंक . की अध्यक्ष बनी और अनुवाद कार्य आरंभ किया। अनेक प्रसिद्ध हॉलीवूड फिल्म्स का हिंदी में अनुवाद किया। अनेक अंगरेजी फिल्मों के लिए हिंदी में सब टाइटल्स का भी अनुवाद किया।

इससे भाषा तो समृद्ध हो ही गयी, अनुवाद की चुनौतियां और उसका महत्व भी समझ में आ गया।

यार्क यूनिवर्सिटी में हिंदी कोर्स- डायरेक्टर बनकर हिंदी के क्लासेस आरंभ करना उसके लिए मील का पत्थर साबित हुआ । यार्क यूनिवर्सिटी में, टोरंटो के क्लास में खड़े रहकर पढ़ाते समय भारत के महाविद्यालय में पढ़ाने का स्मरण होना स्वाभाविक था। पर यहां के छात्रों के चेहरे देखकर लगता कि उन्हें कुछ आता नहीं है। ये भारत के बी ए , एम ए की क्लासेस नहीं हैं। यहां पदवी और पदव्युत्तर स्तर की हिंदी को बीगिनर्स के स्तर पर लाना था। समय की मांग के अनुसार अपने हिंदी-तर छात्रों के हितार्थ हिंदी को अंगरेजी माध्यम से समझाने लायक कोर्स-पैक का निर्माण उसे आवश्यक लगने लगा। बिगिनर्स और इंटरमीजिएट कोर्स के लिए दो साल के परिश्रम से उसने पुस्तकें और ऑडियो सीडी बनायीं।कैनेडियन विश्वविद्यालय में हिंदी के छात्रों के लिए अंगरेजी-हिंदी में पाठ्यपुस्तकें तैयार कीं।

इन अथक प्रयासों से उसका हिंदी-प्रशिक्षण का आत्मविश्वास अपने चरम पर पहुंच गया। समय को मानों पंख लग चुके थे। इसी बीच उसका ‘चशमें अपने-अपने’ कहानी-संग्रह प्रकाशित हो गया। इस कारण हर बार पेड़ के तने कट जाने के दुख के बीच ही उन्हें नयी उर्वरा भूमि प्राप्त होती गयी, उनपर फूल-पत्तियों की बहार आ गई,  वे फलों से लद गए।

वह कहती है, ‘चशमें अपने-अपने’ के प्रकाशित होने के बाद मेरे डैनों में कुछ और पर उग आए। उड़ान में गति आ गयी । उसके पश्चात ‘बंद मुट्ठी’ उपन्यास आ गया। बाद में ‘कुबेर’, ‘केसरिया बालम’ और ‘कांच घर’ ये उपन्यास प्रकाशित हुए। ‘बंद मुट्ठी’ का अनुवाद गुजराती में हो गया। घर गृहस्थी के साथ-साथ उसका रचना- संसार भी विस्तार पाता गया। बीच-बीच में ‘प्रवास में आसपास’, ‘शत प्रतिशत’, ‘उम्र के शिखर पर खड़े लोग’, छोड़ आए वो गलिया’, ‘चेहरों पर टंगीं तख्तियां’, ‘मेरी पसंदीदा कहानियां’, ‘टूटी पेंसिल’ आदि कहानी-संग्रह भी प्रकाशित होते रहे। इनमें की कहानियां प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं। उनमें से कुछेक के मराठी, पंजाबी, बांग्ला, अंगरेजी, तमिल, और उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए। ‘पूरन विराम तों पहिला’ यह कहानी-संग्रह पंजाबी में अनूदित हुआ। अमरजीत कौंके ने किया। चुनी हुई कहानियों के दो संग्रह मराठी में प्रकाशित हुए। ‘आणिशेवटी तात्पर्य’ तथा ‘ मन गाभार्यातीलशिल्पे।’ उज्ज्वला केळकर ने अनुवाद किया। इसके अलावा उसने लेख, नाटक, एकांकिका, रेडियो नाटक भी लिखे। अनेक पुस्तकों की भूमिकाएं लिखीं। सम्पादन किया। पर उसकी  सबसे प्रिय साहित्य-विधा है, कहानी। विश्वगाथा मासिक-पत्रिका के संपादक पंकज त्रिपाठी से साक्षात्कार में उसने कहा था, एक कथा-सूत्र के इर्दगिर्द बहुत कुछ बुना जा सकता है। आज के गतिमान युग में दो-सौ पृष्ठ का उपन्यास पढ़ने के लिए लगनेवाला समय और धैर्य पाठकों के पास नहीं होता। इस कारण बहुत-से उत्कृष्ट उपन्यास भी पढे नहीं जा सकते। हंसा के उपन्यास, कहानियां, साहित्यिक दृष्टिकोण आदि के संबंध में डॉ दीपक पाण्डेय एवं नूतन पाण्डेय, विजय तिवारी आदि ने भी लिखा है।

पिछले चार-छह सालों में हंसा के लेखन को सम्मानित, पुरस्कृत किया जाता रहा है। राष्ट्रीय निर्मल वर्मा पुरस्कार, पुरवाई कथा सम्मान, सर्वश्रेष्ठ कहानी- कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार, आदि सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनकी सूची लंबी है।

एक ओर लेखन का आलेख चढ़ता जा रहा था। वहीं दूसरी ओर अध्यापन भी जोर-शोर से शुरू था। विश्वविद्यालय की प्रचार-पुस्तिकाओं में हंसा की हिंदी कक्षाओं के फोटो छपे थे। सेंट जॉर्ज कैम्पस, स्कारबोरो कैंपस समान अनेक स्थानों पर हिंदी की कक्षाएं आरंभ हुईं और उसका काम चौपट हो गया। हर सत्र में उसने हिंदी के चार-चार कोर्स पढ़ाए।

इसी बीच हंसा को नातन हुई। कृति की कन्या, वान्या। और उसकी खुशी सातवें  आसमान पर पहुंच गयी। उसके बाद नवासा याविन, नातन- रिया। पुत्रियां शैली, कृति। दामाद सचिन और नवनीत, नाती, नातन -ऐसा उसका समृद्ध संसार है। जीवन साथी धर्मपाल तो सदा उसके साथ है हीं। इतना सब कुछ बढ़िया है। उसकी जीवन-कहानी सफल है, ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं । तथापि एक अफसोस है जो उसे सालता रहता है… ।

जीवन-यात्रा में उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। अफसोस नहीं है । अफसोस है तो खुद अपने बारे में ही। उसे लगता है, वह कहीं भी अपनी पहचान नहीं बना पायी। कोई भी देश उसे ‘अपना’ नहीं कहता। दुनिया की दृष्टि में वह विदेशी है, कैनडा के लोगों के लिए वह ‘भारतीय’ है। पर अपने देशवासियों के लिए भी वह विदेशी ही है, क्योंकि वह कैनडा में रहती है। हालांकि किसी के विदेशी कहने से कोई फर्क नहीं पड़ा है। न स्वाद बदला न स्वभाव। देश बदले। सरकारें बदलीं। नियम-कानून बदले। सरहदें बदल गयीं । नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास जो आज भी वक्त-बेवक्त यादों के झोंकों से उसे हवा देकर आग में तब्दील कर देता है । वह तपिश कागज पर शब्दों के संजाल उकेरती  है।’ वह आगे कहती है, ‘इस लंबे जीवन के बदलते रास्तों पर पड़ाव तो कई थे लेकिन मुझे मसीहा मिलते रहे और कारवां चलता रहा ।’

♥♥♥♥

डॉ हंसा दीप

संपर्क –  22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817  ईमेल  – [email protected]

मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो.  836 925 2454, email-id – [email protected] 

भावानुवाद  – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘

संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607

मो. 9422856767, 8971063051

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 15 – – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 2 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

सौ. उज्ज्वला केलकर

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय । यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।) 

डॉ. हंसा दीप

☆  दस्तावेज़ # 15 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 2 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

पर्व दो 

हंसा के जीवन का दूसरा पर्व आरंभ होता है, उसके विवाह से । उसके शब्दों में, ‘वहां शुरू में चिंता का सागर था।’ लकड़ियों के चूल्हे पर धुएं की जलन से आंखें मलते हुए भोजन पकाना। वह कहती है, ‘पहले दिन मैंने खाना पकाया, वह भोजन यानी फ्लॉप-फिल्म थी।’ उसे खाना पकाने की बिल्कुल आदत न थी। पढ़ाई, स्पर्धा, अन्य कार्यक्रम, दुकान का हिसाब-किताब। इनसे निबटते उसके पास खाना पकाने के लिए समय कहां था? पर ससुराल में आने के उपरांत उसके छोटे देवर, चंचल ने उसे घर के कामों में खूब सहायता की । साथ ही विवाह में  ‘जीवन में सदा साथ निभाने की कसम’ खानेवाले और उसका पालन करने वाले धर्मपाल जी उसे किसी मसीहा तरह लगे। सभी ने उसे प्यार किया। उस कारण नयी चीजें सीखना आसान हो गया और वह कठिन समय बहुत आसानी से कट गया, ऐसा उसे लगता है।

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

धर्मपाल जी भी मेघनगर के ही। बचपन से लेकर कॉलेज की शिक्षा तक वे हंसा को देख रहे थे। पहचानते थे। वह उन्हें प्रिय लगती थी। वे भी उसे प्रिय थे। पर प्रत्यक्ष कहने की हिम्मत उन दिनों और उस पिछड़े देहात में कहां से होती? उसने अपनी निगाहों से ही अपनी पसंद को वाणी दी। धर्म जी ने उसके घर आकर अपनी बात रखी। उन दिनों उन्होंने अनेक विरह गीत लिखे और हसा को समर्पित किए ।

विवाह पूर्व दोनों परिवार परस्पर परिचित थे। उस कारण 1977 में उनका विवाह सहजता से सम्पन्न हो गया। उसके उपरांत हंसा छह माह संयुक्त परिवार में रही और एक दिन … धर्मपाल जी का तबादला उज्जैन हो गया।

उज्जैनी समान महानगर में अपनी नयी-नवेली गृहस्थी बसाने पर उसे लगा जैसे स्वर्गीय सुख प्राप्त हो गया। वह कहती है, ‘आगे चलकर इस धरती से इतना आत्मीय संबंध स्थापित हो गया कि आज भी मुंह से ‘मेरी उज्जैनी’ ही निकलता है। उसके बाद बैंक ऑफ इंडिया ने धर्म जी के साथ मध्यप्रदेश के अनेक शहरों की और गांवों की उससे  पहचान करा दी।

ऑफिस जाते समय धर्म जी उसे अपना आधा-अधूरा लेखन व्यवस्थित करके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं को प्रेषित करने को कह जाते। उसीसे उसे अपने लेखन की प्रेरणा मिली। एक बार उसने एक कहानी लिखी और आकाशवाणी इंदौर को भेज दी। ‘पहले स्वीकृति-पत्र, फिर रेकॉर्डिंग की तारीख, उसके बाद मानदेय … बड़ा रोमांचक अनुभव था’ -वह कहती है।उसके बाद आकाशवाणी से बार-बार बुलावा आने लगा। उसने आकाशवाणी इंदौर और भोपाल के लिए नाटक भी लिखे। उसके लगभग 30 नाटक आकाशवाणी से प्रसारित हुए।इसी दौरान नई दुनिया, दैनिक भास्कर, स्वदेश, नवभारत , हिन्दी हेराल्ड, सारिका, मनोरमा, योजना, शाश्वतधर्म, अमिता समान अनेक सुप्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियां प्रकाशित होने लगीं ।

हंसा कहती है, ‘समय के साथ तालमेल बिठाते हुए जीवन में आया हर बदलाव नया कुछ सीखने के लिए ही होता है ऐसा मैं महसूस करती हूं। धर्मा जी की नियुक्ति जीरापुर, खुजनेर, राजगढ़, ब्यावरा समान देहातों में हुई तब उससे लाभ ही हुआ। वह समूचा प्रदेश ‘सौंधवाड’ नाम से जाना जाता है। उसके पीएच-डी के गाइड डॉ बसंतीलाल बम ने उसे सौंधवाडी लोकसाहित्य पर काम करने के लिए कहा। एक मालवी भाषा-भाषी का सौंधवाडी बोलीपर काम करना उसे बड़ा रोमांचक लगा। इसी दौरान उसे कन्यारत्न की प्राप्ति हुई। शैला। एक ओर पुत्री की देखभाल और दूसरी ओर सौंधवाड़ी लोकगीत और लोककथा-संग्रह। दोनों काम साथ-साथ होने लगे। लोकगीत और लोककथा जुटाने वह पास-पड़ोस के गांवों में जाया करती। सात साल के अथक प्रयासों  के बाद उसे ‘सौंधवाड़ की लोकधरोहर’ इस विषय पर पीएच-डी मिल गयी। लोकगीत और लोककथा प्राप्त करते, उनकी खातिर गांवों में भ्रमण करते उसे अनेक कथानक मिले। मन की माटी में, वे तिजोरी में संग्रहीत खजाने की भांति रखे रहे। उसके बाद समय-समय पर वे अंकुरित हुए। डॉ बम उसके काम से बहुत प्रसन्न हुए।

पीएच-डी प्राप्त होने के पहले ही महाविद्यालय में हिंदी के सहायक प्राध्यापक के रूप में उसकी नियुक्ति हो गयी। उस समय उसे दो छोटी कन्याएं थीं। उन्हें तैयार करके स्कूल पहुंचाने के बाद वह कॉलेज जाती।  अपने मारवाड़ी परिवार में नौकरी करने वाली वह पहली ही बहू! सिरपर आंचल लेकर वह कॉलेज जाती। उस कारण ससुरालवालों को शिकायत का कभी मौका नहीं मिला। उसके लिए परम्पराएं अपनी जगह और काम अपनी जगह था। पहले-पहल कुछ छात्र ‘बहन जी’ कहकर उसे चिड़ाते। आगे चलकर सभी को उसकी आदत हो गयी।

आगे चलकर विदिशा, राजगढ (ब्यावरा) और धार महाविद्यालयों में अध्यापन का अनुभव प्राप्त हुआ। इस दौरान अनेक ख्यातनाम कवि, कहानीकार,विद्वानों के साथ काम करने का अवसर मिला। चर्चाएं होती रहीं । ‘उस कारण अनुभव- सम्पन्न होती रही’, ऐसा उनका कहना है।

अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों को दक्षतापूर्वक निभाते, अध्यापन का आनंद लेते, सहयोगियों से वैचारिक आदान-प्रदान करते हंसा का जीवन आनंद में व्यतीत हो रहा था कि धर्मा जी का तबादला न्यूयार्क हो गया। सब कुछ सुचारु के चलते वह सब छोड़कर, विदेश में सिरे से जीवन आरंभ करना था । फिर नयी बिसात बिछानी थी …।

क्रमशः… 

डॉ हंसा दीप

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दूरभाष – 001 + 647 213 1817  ईमेल  – [email protected]

मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो.  836 925 2454, email-id – [email protected] 

भावानुवाद  – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘

संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607

मो. 9422856767, 8971063051

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 14 – – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 1 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

सौ. उज्ज्वला केलकर

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय । यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।) 

डॉ. हंसा दीप

☆  दस्तावेज़ # 14 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 1 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

पर्व एक 

हंसा मेरी सहेली । बिल्कुल खास । सगी । अब बोलते-बोलते वह सहेली से ‘दीदी’  और ‘दीदी’ से ‘दी’ पर कब पहुंच गयी,पता ही नहीं चला। हां, हम इतनी आत्मीय जरूर हैं पर  अबतक एक-दूसरे से  मिली कभी नहीं। मिलें भी कैसे ? वह है, दूरस्थ कैनडा के टोरंटो में और मैं हूं भारत, महाराष्ट्र के छोटे से सांगली शहर में। हम फोटो से एक दूसरे को पहचानती हैं और मोबाइल के वाट्स-अप पर इत्मीनान से गप्पेभी लड़ाती हैं।

हंसा का और मेरा आपस में परिचय संयोग से ही हुआ। हिंदी त्रैमासिक ‘कथाबिंब’  के माध्यम से। हुआ यूं कि ‘कथाबिंब’ को मैंने अपनी ‘हासिना’शीर्षक  कहानी का अनुवाद भेजा था। यह पत्रिका कहानी -प्रधान है। मेरी कहानी उसमें प्रकाशित हो गयी। वे कहानी के लिए मानदेय नहीं देते। वे ऐसा करते हैं कि कथाबिंबके साल में चार अंक निकलते हैं। वे उनमें प्रकाशित समस्त कहानियों की सूची नए साल के जनवरी अंक में प्रकाशित करते हैं और पाठकों से ही उनका मूल्यांकन करने को कहते हैं। पाठकों द्वारा दिए गए अंकों को जोड़कर उसके औसत के आधार पर पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। क्रमानुसार प्रथम चार को और चार प्रोत्साहन पर। मुझे उस समय प्रोत्साहन पुरस्कार मिला था। उसके बाद एक दिन मुझे संपादक का पत्र मिला। -आपके पुरस्कार की राशि आपको भेज दी  जाएगी। तथापि एक अनुरोध है। आप एक साल के लिए कथाबिंबके सदस्य बनिए । आपकी सम्मति मिलने पर वार्षिक-शुल्क काटकर शेष राशि आपको चेक द्वारा भेज दी  जाएगी। मेरी कहानी जिसमें प्रकाशित हुई थी वह अंक मुझे स्तरीय लगा था। इस कारण मैंने अपनी सम्मति दे दी। उस माह से मुझे कथाबिंबके अंक आने लगे। (साल समाप्त होने के बावजूद भी उनका आना जारी है।) उन अंकों से मुझे अनुवाद के लिए उत्कृष्ट कहानियां प्राप्त हुईं ।

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

मैंने कथाबिंबकी सदस्यता ले ली। उसके बाद प्रथम अंक में ही प्रकाशित एक कहानी ने मेरा ध्यान आकर्षित कर लिया। कहानी का नाम ‘रुतबा।’ रुतबा यानी रुबाब। लेखिका थी, हंसा दीप। यह कहानी है ईशा, मनू अर्थात मनन और मनूका पड़ोसी मित्र जैनू, इन की । ईशा छह साल की। मनू उसका छोटा भाई और जैनू उससे साल भर छोटा । कहानी इन बच्चों के भावविश्व से संबंधित है। उनकी आपस की छीन-झपट, आशा -आकांक्षा, एक -दूसरे को मात देने की नैसर्गिक प्रवृत्ति, बड़ों की बातचीत, व्यवहार का उनके द्वारा किया जा रहा निरीक्षण और उसे अपने ढंग से अपनाने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति,किसी चीज की चाहत होनेपर उसके लिए की जानेवाली बारगेनिंग। ये सारी बातें कहानी में इस प्रकार चित्रित की गयी हैं कि लगता है हम कुछ पढ़ नहीं रहे अपितु सबकुछ साक्षात देख रहे हैं। कहानी का अंत होता है, कहानी का चरमोत्कर्ष । वह बहुत आकर्षक है। ईशा मनू पर रुबाब गालिब करती है। मनू, जैनूपर। जैनू सबमें छोटा । वह किस पर रुबाब गालिब करें ? और अनायास उसका ध्यान झूले में सो रही अपनी दो माह की बहन की ओर जाता है।

इस कहानी का मराठी में अनुवाद करने का मन हुआ। तब मैंने लेखिका से अर्थात हंसा दीप से औपचारिक अनुमति मांगी। इंटरनेट की सुविधा और मूल लेखिका की तत्परता एवं विनयशीलता के कारण वह मुझे तत्काल प्राप्त हो गयी। मैंने कहानी का रुबाब शीर्षक से अनुवाद किया। वह ‘पर्ण’ 2019 के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हो गयी।

उसके बाद हंसा की और दो-तीन कहानियां पढ़ने को मिलीं। अनुमति लेकर उनका भी मैंने अनुवाद किया। अनुमति के लिए बात करते समय फोनपर अन्य लेखकों का पसंद आया साहित्य, लेखन संबंधी मेरी अपनी धारणाएं, साहित्येतर विषय-इन पर चर्चा होती रही। शनै-शनै औपचारिकता मित्रता में बदलती गयी। वह अधिक स्नेहसिक्त, मजबूत होने लगी। औपचारिक ‘आप’ से तुम और ‘तुम’ से तू पर कब आ गए, पता ही  नहीं चला। यह मित्रता अंतरंग सहेली के रूप में और अधिक प्रगाढ़ होती गयी।

और एक दिन उसने मुझे अपना ‘प्रवास में आसपास’ कहानी-संग्रह भेजा। वह अभी पढ़कर पूरा किया ही था कि ‘शत-प्रतिशत’ यह दूसरा कहानी-संग्रह मिला। साथमें अनुमति-पत्र-

माननीय उज्ज्वला केलकर जी,

सादर अभिवादन।

विषय: मेरी कहानियों के मराठी भाषा में अनुवाद की अनुमति।

मैं सहर्ष अनुमति देती हूं कि आप मेरी किसी भी कहानी का अनुवाद कर सकती हैं। साथ ही, अनुवाद की गई कहानी को प्रकाशित करने के लिए आप किसी भी पत्रिका में भेज सकती हैं।

आपका सहयोग एवं स्नेह बना रहे।

असीम शुभकामनाएं ।

हंसा दीप,

टोरंटो, कैनेडा

इससे लाभ यह हुआ कि मुझे पसंद आई कहानियों का अनुवाद करने तथा उन्हें प्रकाशित करवाने के लिए मुझे समय खर्च नहीं करना पड़ा, ना ही हर बार कहानी के अनुवाद की अनुमति के लिए प्रतीक्षारत रहना पड़ा। मुझे दोनों संग्रहों की कहानियां पसंद आयीं। उनकी कथन शैली भा गयी। अपने अनुभूत प्रसंग, घटनाएं, उनसे संबंधित व्यक्ति, वे इतनी सहजता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं कि लगता है, हम खुद भी वे प्रसंग, वे घटनाएं अनुभव कर रहे हो। उन व्यक्तियों से प्रत्यक्ष मिल रहे हो। उनकी बातचीत प्रत्यक्ष सुन रहे हो। हंसा की पसंद आयी कहानियों का अनुवाद करते -करते इतनी संख्या हुई  कि दो संग्रह हो जाते। ‘आणिशेवटी तात्पर्य’ तथा ‘मन गाभार्यातील शिल्पे’ शीर्षक से वे प्रकाशित भी हो गये।

हंसा का जन्म मध्य प्रदेश में, झाबुआ जिले के मेघनगर का। यह क्षेत्र आदिवासी  बहुल था। एक ओर शोषण, भूख और गरीबी से त्रस्त भील थे तो दूसरी ओर परंपराओं से जूझते, विवशताओं से लड़ते हुए जीने वाले मध्यवर्गीय परिवार थे। हंसा कहती है, ‘मेरे निवास-स्थान बदलते रहे। एक शहर से दूसरे शहर में, एक देश से दूसरे देश में, मैं अपने घर बसाती रही। बदलते हुए देश का बदलता परिवेश कहानियों में विविधता लाता रहा और रचनाओं को आकार देता रहा। पर मालवा की माटी और जन्मस्थली मेघनगर का पानी संवेदनशील कलम को सींचता रहा।

‘कथाबिंब’ में एक कॉलम होता है, ‘आमने-सामने।’ यह है, लेखक और पाठक के बीच का संवाद। अपने सामने श्रोता उपस्थित हैं, यह मानकर संवाद सम्पन्न करना। वे कौनसे प्रश्न पूछेंगें, क्या जानना चाहेंगे-यह सोचकर अपनी जानकारी, रचना-प्रक्रिया, अपनी साहित्यिक उपलब्धियां बयान करना। हंसा की ‘रुतबा’ प्रकाशित हुई उसी अंक में ‘आमने- सामने’ कॉलम के माध्यम से उसने पाठकों के साथ संवाद स्थापित किया था। आमने -सामने में प्रस्तुत हंसा के विचार, एक व्यक्ति के रूप में उसे जानने में बड़े सहायक सिद्ध हुए।

हंसा कहती है, ‘इस एक ही जन्म में मैंने तीन युग अनुभव किए।’ अर्थात समय और परिस्थिति के कारण । उसका जन्म, बालपन, शिक्षा हुई मेघनगर जैसे पिछड़े कसबे में । गांव में बिजली नहीं थी। ढिबरी और कंदील की रोशनी में पढ़ाई हुई। पिता की किराणा दुकान थी। पिताजी के निधन के बाद भाई ने दुकान संभाली । दुकान में आनेवाले भीलों को अनाज तौलकर देते और वहां अनाज खाने के लिए प्रस्तुत बकरियों से अनाज की रखवाली करते-करते उसकी पढ़ाई होती। पर उससे पढ़ाई में बाधा पहुंचती है, ऐसा उसे कभी नहीं लगा।

स्कूल में वह हमेशा ही अव्वल दर्जे में पास होती। उसके अलावा विविध अंतर-शालेय, तहसील, जिला स्तरीय व्यक्तृत्व, निबंध, नाट्य आदि स्पर्धाओं में वह स्कूल का प्रतिनिधित्व किया करती। गांव में पुस्तकालय नहीं था पर शिक्षक उसे अपने पास की पुस्तकें पढ़ने के लिए दिया करते । शहर में कोई कार्यक्रम हो तो वे उसे साथ लेकर जाते। उसकी बुद्धिमत्ता,प्रतिभा,कौशल को अनुभव का साथ मिलता रहा। गांव तो एकदम देहात था। उस कारण लड़कियों पर अनेक बंधन लादे जाते। इसके बावजूद हंसा कहती है, ‘मुझपर मेरे भाई ने तथा मां ने कोई बंधन नहीं लादे। मैं कहीं भी जाने के लिए, कुछ भी करने के लिए बिल्कुल आजाद थी। भाई ने तो अपनी पुत्री की तरह प्यार किया मुझे। मेरी हर उपलब्धि  पर वह प्रसन्न होता। वह समय कष्टप्रद जरूर था पर बड़ा मधुर था।  मौज मस्ती का समय था वह । न कोई शिकायत न किसी प्रकार की चिंता।

क्रमशः… 

डॉ हंसा दीप

संपर्क –  22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817  ईमेल  – [email protected]

मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो.  836 925 2454, email-id – [email protected] 

भावानुवाद  – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘

संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607

मो. 9422856767, 8971063051

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा ?

राम राय के मारे जाते ही विजयनगर की सेना तितर-बितर हो गई। मुस्लिम सेना ने विजयनगर पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वैभव, कला तथा विद्वता की इस ऐतिहासिक नगरी में विध्वंश का जो तांडव शुरू हुआ, उसकी नादिर शाह की दिल्ली लूट और कत्लेआम से ही तुलना की जा सकती है। हत्या, लूट, बलात्कार तथा ध्वंस का ऐसा नग्न नृत्य किया गया कि जिसके निशान आज भी हम्पी में देखे जा सकते हैं।

बीजापुर, बीदर, गोलकोंडा तथा अहमदनगर की सेना करीब 5 महीने हम्पी में रही। इस अवधि में उसने इस वैभवशाली नगर की ईंट से ईंट बजा दी। ग्रंथागारों व शिक्षा केंद्रों को आग की भेंट चढ़ा दिया गया। मंदिरों और मूर्तियों पर लगातार हथौड़े बरसते रहे। हमलावरों का एकमात्र लक्ष्य था विजयनगर का ध्वंस और उसकी लूट। साम्राज्य हथियाना उनका प्रथम लक्ष्य नहीं था। क्योंकि बेरहम विध्वंस के बाद वे जनता को बदहाल करके यहाँ से चलते बने।

सल्तनत की संयुक्त सेना ने हम्पी को खूब लूटा और इसे खंडहर में बदल दिया। अपनी पुस्तक ‘द फॉरगॉटेन एम्पायरट‘ में रॉबर्ट सेवेल ने लिखा है, “आग और तलवार के साथ वे विनाश को अंजाम दे रहे थे। शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहर कभी नहीं ढाया गया। इस तरह एक समृद्ध शहर लूटने के बाद नष्ट कर दिया गया और वहाँ के लोगों का बर्बर तरीके से नरसंहार कर दिया गया।”

सामान्यतः विजयी सेना विजित राज्य के ख़ज़ाने को लूटती है। मुस्लिम सेना ने हम्पी पहुँच खजाने को नहीं पाया तो उन्होंने आम कत्लेआम का फरमान जारी कर जिहाद का “सिर कलम या इस्लाम” आदेश दिया। दक्कन की सल्तनतों की संयुक्त सेना ने विजयनगर की राजधानी हम्पी में प्रवेश करके जनता  को बुरी तरह से लूटा और सब कुछ नष्ट कर दिया।

मुस्लिम आक्रांताओं ने पूरी राजधानी का एक भी नागरिक ज़िंदा नहीं छोड़ा और एक भी घर या दुकान नष्ट करने से नहीं छोड़ी। पंक्तिबद्ध खड़े पत्थर के खंभे बिना छत की क़तारबद्ध दुकानों के अवशेष मुस्लिम अत्याचार की कहानी कहते हैं। महल, रनिवास, स्नानागार, बैठक, चौगान, गलियारे सभी नेस्तनाबूद कर दिये। बारूद से मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने और भ्रष्ट करने के कार्य चार महीनों तक अनवरत जारी रहे। हम्पी में गिद्दों और जगली कुत्तों के सिवाय कुछ भी शेष नहीं छोड़ा।

हम्पी को खंडहर में तब्दील करने के बाद बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर, और मराठों के प्रतिनिधि घोरपड़े ने संपूर्ण विजयनगर साम्राज्य के इलाक़ों को आपस में बाँट लिया। एकमात्र हिंदू विजयनगर साम्राज्य मिट्टी में मिला दिया गया। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् विजयनगर राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया। मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में केलादी के नायकों ने विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। दक्कन की इन सल्तनतों ने विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक्रमण के शिकार हुए। बाद में शिवाजी के अभ्युदय से इनका बहुत बड़ा इलाक़ा मराठा साम्राज्य में विलीन हो गया।

विजयनगर की हार के कई कारण थे। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में घुड़सवार सेना की कम संख्या थी। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में जो भी हथियार इस्तेमाल किये जा रहे थे वे आधुनिक व परिष्कृत नहीं थे। दक्कन की सल्तनतों के तोपखाने बेहतर थे। उनकी व्यूह रचना कारगर सिद्ध हुई। विजयनगर की हार का सबसे बड़ा कारण उनकी सेना के गिलानी भाइयों का विश्वासघात था।

गौरवशाली विजयनगर साम्राज्य की हार के बाद, सल्तनत की सेना ने हम्पी के खूबसूरत शहर को लूट खंडहर में बदल दिया। यह एक उजड़ा हुआ बंजर इलाका है, जहां खंडहर बिखरे हुए हैं, जो एक हिंसक अतीत की कहानी बयान करते हैं। हम्पी धूल धूसरित होकर ज़मीन के भीतर खो गया था। जिसके ऊपर पेड़ झाड़ी ऊग आए और यह पहाड़ियों में तब्दील हो गया था।

ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़ौजी अधिकारी से पुरातत्ववेत्ता बने कॉलिन मैकेंज़ी ने 1800-1810 में हम्पी के खंडहरों की खोज की थी। 1799 में, मैकेंज़ी सेरिंगपट्टम की लड़ाई में ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे, जिसमें मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की हार हुई थी। टीपू की हार के बाद, उन्होंने 1799 और 1810 के बीच मैसूर सर्वेक्षण का नेतृत्व किया और इसका एक उद्देश्य राज्य की सीमाओं के साथ-साथ निज़ाम के क्षेत्रों को निर्धारित करना था। सर्वेक्षण में दुभाषियों, ड्राफ्ट्समैन और चित्रकारों की एक टीम शामिल थी जिन्होंने क्षेत्र के प्राकृतिक इतिहास, भूगोल, वास्तुकला, इतिहास, रीति-रिवाजों और लोक कथाओं पर सामग्री एकत्र की।

सदाशिव राय का शाही परिवार तब तक पेनुकोंडा (वर्तमान अनंतपुर जिले में स्थित) पहुंच गया था। पेनुकोंडा को उसने अपनी नई राजधानी बनाया, लेकिन वहां भी नवाबों ने उसे चैन से नहीं रहने दिया। बाद में वहां से हटकर चंद्रगिरि (जो चित्तूर जिले में है) को राजधानी बनाया। वहां शायद किसी ने उनका पीछा नहीं किया। विजयनगर साम्राज्य करीब 80 वर्ष और चला। गद्दारों के कारण विजयनगर साम्राज्य 1646 में पूरी तरह इतिहास के कालचक्र में दफन हो गया। इस वंश के अंतिम राजा रंगराय (तृतीय) थे, जिनका शासन 1642-1650 था। यह चर्चा करते-करते हम सभी तीन बजे तक हम्पी पहुँच गए। बीच में एक दक्षिण भारतीय होटल में रुककर शुद्ध दक्षिण भारतीय भोजन किया। सूर्य पूरी तन्मयता से तपा रहा था। हमारे साथी लोग सिकंजी, नारियल पानी, आइसक्रीम इत्यादि पर टूट पड़े। निस्तार इत्यादि से फुरसत होने के पश्चात सबको इकट्ठा कर विरूपाक्ष मंदिर चल दिए।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 13 – मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि।) 

☆  दस्तावेज़ # 13 – मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

महान रचनाकार केवल उत्कृष्ट साहित्य ही नहीं रचते बल्कि नव-अंकुरित रचनाकारों को भी प्रोत्साहित करते हैं।

लगभग नब्बे के दशक की बात है। तब मैं जबलपुर में कार्यरत था। बैंक का काम हो जाने के बाद, मैं, प्रति मंगलवार, शाम को श्रद्धेय हरिशंकर परसाई के नेपियर टाऊन स्थित आवास में नियमपूर्वक जाया करता था। वे एक तख़त पर, पीछे पीठ टिकाए, अधलेटे, कुछ पढ़ते हुए मिलते। अत्यंत सौम्य, शांत और गंभीर।

मैंने तब व्यंग्य लिखना शुरू ही किया था। वो मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनते और मार्गदर्शन करते। उन्होंने मुझसे कहा कि अच्छा गद्य लिखना है तो रवींद्रनाथ त्यागी को पढ़ो। जब मैंने उनसे अपने पहले व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के फ्लैप के लिए कुछ लिखने को कहा, तो उन्होंने बहुत सहजता से कहा, “लिखकर रखूंगा। अगली बार जब आओ तो ले लेना।”

श्रद्धेय शंकर पुणतांबेकर को मैं अपनी रचनाएं डाक से भेजता था। वो, उन्हें पढ़ने के बाद, अपना मार्गदर्शन देते थे। उन्होंने भी कृपापूर्वक मेरी पहली पुस्तक के लिए फ्लैप पर उदारतापूर्वक लिखा।

परसाई जी और पुणतांबेकर जी ने जो कुछ लिखा, उनकी हस्तलिपि में मेरे पास आज भी सुरक्षित है। ये मेरे लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं।  इन्हें मैं, इस संस्मरण के साथ, आपसे साझा कर रहा हूं।

परसाई जी ने लिखा:

जगत सिंह बिष्ट विनोद और व्यंग्य लिखते हैं। वे पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य और विनोद के लेख काफी वर्षों से लिख रहे हैं। उनमें विनोद क्षमता है। वे जीवन की विसंगति विडंबना की पकड़ भी रखते हैं। वे “विट” में क्षमतावान हैं। उनके लेख वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं। वे सामान्यतः दिखावटीपन और झूठी आधुनिकता को व्यंग्य का विषय बनाते हैं। उनका यह पहिला संग्रह प्रकाशित हो रहा है। मुझे आशा है यह पाठकों को संतुष्ट करेगा। वे आगे और अनुभव तथा मनन करके बेहतर रचना करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।

-हरिशंकर परसाई

4-1-1992

पुणतांबेकर जी ने लिखा:

व्यंग्यकारों की नई पीढ़ी में जगत सिंह बिष्ट का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह इस में कि विसंगतियों को पकड़ने का उनका अपना अंदाज़ है और वे सहज ढंग से तीखी बात कह देते हैं। बिष्ट के पास तीखी दृष्टि ही नहीं, प्रसंगानुरूप तीखी भाषा भी है जो किसी भी व्यंग्य को सही व्यंग्य बनाती है। व्यंग्य का प्रमुख बिंदु प्रायः राजनीति और राजनेता होता है, किन्तु बिष्ट के व्यंग्य का विषय बहुआयामी है। वे जीवन के सभी क्षेत्रों की विसंगतियों को उतनी ही प्रखरता से प्रस्तुत करते हैं। लेखक व्यर्थ के विस्तार में नहीं जाता, अतः व्यंग्य में जिस चुस्ती और प्रभावात्मकता की आवश्यकता होती है वह उसकी रचनाओं में पूरी संजीदगी के साथ विद्यमान है। आज जब व्यंग्य कॉलमी लेखन के कारण बुरी तरह ढलान पर है, उस दशा में बिष्ट की ये रचनाएं हमें इस बात से आश्वस्त करती हैं कि सही व्यंग्य लेखन की दृष्टि नयी पीढ़ी के व्यंग्यकारों में भी विद्यमान है, पूरी प्रखरता के साथ विद्यमान है।

-शंकर पुणतांबेकर

2.1.92

♥♥♥♥

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 12 – कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल”।) 

☆  दस्तावेज़ # 12 – कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

श्रीलाल शुक्ल का नाम हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी के साथ बहुत सम्मानपूर्वक लिया जाता है। एक सरकारी अफसर जो फाइलों के ढेर में उलझा रहता हो, इतना बारीक व्यंग्य लिख देता है कि पढ़ते-पढ़ते आप सोचने लगते हैं कि ये तो हमारे ही आसपास का हाल है।

वे आईएएस अफसर थे और इस सरकारी नौकरी में उन्होंने भारतीय समाज और प्रशासन की हर बारीकी को इतने करीब से देखा कि उसे कागज़ पर उतार दिया। लेकिन उन्होंने केवल देखा ही नहीं, महसूस भी किया। शायद यही वजह थी कि उनका व्यंग्य महज़ हंसी-मज़ाक नहीं था, बल्कि समाज की गहरी सच्चाइयों को दिखाने वाला एक आईना था।

उनका व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’  एक कालजयी कृति है। 1968 में जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तो जैसे साहित्य जगत में खलबली मच गई। यह उपन्यास भारत के ग्रामीण जीवन, राजनीति और शिक्षा प्रणाली का ऐसा सजीव चित्रण करता है कि जो भी इसे पढ़ता है, वह खुद को शिवपालगंज के किसी गली-कूचे में घूमता हुआ महसूस करता है।

‘शिवपालगंज’ गाँव हर जगह है। आपका अपना गाँव, कस्बा, मोहल्ला। और इसमें जो पात्र हैं – वैद्य जी, रंगनाथ, छोटे पहलवान – ये सब ऐसे लगते हैं जैसे हमारे ही आसपास के लोग हों। वैद्यजी ऐसे किरदार हैं जिनका नाम लेते ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। उनकी चतुराई, उनकी राजनीति और उनके तंज इतने अनोखे हैं कि वे हिंदी साहित्य का हिस्सा बन गए हैं।

‘राग दरबारी’ में शिक्षा प्रणाली पर लाजवाब कटाक्ष है। शुक्ल ने लिखा कि हमारे स्कूल सिर्फ़ परीक्षा पास करने की मशीनें हैं। ज्ञान से कोई मतलब नहीं है।

जब इस उपन्यास को टीवी पर दिखाया गया, तो लोग देखकर ऐसे खुश होते थे मानो उनके ही गाँव की कहानी हो। 1986 में दूरदर्शन पर ‘राग दरबारी’ को धारावाहिक के रूप में दिखाया गया था। अगर आपने देखा हो, तो आपको याद होगा कि हर किरदार जैसे किताब के पन्नों से निकलकर आपके सामने आ गया हो।

मुझे लगता है कि ‘राग दरबारी’ की खासियत यही है कि यह महज़ एक उपन्यास नहीं, बल्कि एक समय, एक समाज का दस्तावेज़ है। और यह दस्तावेज़ तब भी प्रासंगिक था, आज भी है, और शायद आगे भी रहेगा।

शुक्ल का कहना था कि शिवपालगंज जैसा गाँव हर जगह है। मैं जब-जब ‘राग दरबारी’ पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि वह गाँव कहीं और नहीं बल्कि मेरे ही भीतर है।

उनका व्यक्तित्व बहुत सहज था। लगता ही नहीं था कि वे इतने बड़े सरकारी अधिकारी और व्यंग्यकार हैं। उनके द्वारा लिखा गया एक पत्र आज भी मेरे पास अमूल्य निधि की तरह सुरक्षित है। उस पोस्टकार्ड को मैं ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं। उन्होंने लिखा:

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बी 2251 इंदिरा नगर लखनऊ 226016

                                      17.1.’99

प्रिय बिष्ट जी,

‘कुछ लेते क्यों नहीं’ की प्रति मिली। कृतज्ञ हूं। एक बार देख गया हूं। काफी दिलचस्प है और अमौलिक विषयों पर मौलिक दृष्टि से संपन्न है। इत्मीनान से बाद में पढूंगा।

समस्त शुभकामनाओं के साथ,

                                  आपका

                               श्रीलाल शुक्ल

=======

उन्हें शत् शत् नमन!💐

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन।) 

☆  दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

काफी उथल-पुथल का समय था। एक संत, आचार्य विनोबा भावे, जबलपुर को संस्कारधानी घोषित करके जा चुके थे और दूसरे संत, आचार्य रजनीश, जिनका मिजाज़ कुछ अलग था, संभोग से समाधि की ओर जाने का मार्ग बता रहे थे। महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का भी प्रवर्तन हो रहा था। यह नगरी अभी इतनी प्रगतिशील नहीं हुई थी कि टॉर्च बेचने वाले जादूगरों के अलावा अन्य बुद्धिजीवियों को स्वीकार कर सके। व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को ‘वैष्णव की फिसलन’ लिखने के परिणामस्वरूप अपने हाथ-पांव तुड़वाने पड़े थे।

रॉबर्टसन कॉलेज तब तक गवर्नमेंट साइंस कॉलेज कहलाने लगा था। बगल में, महाकौशल आर्ट कॉलेज था। सिविल लाइंस के पचपेड़ी में इनके विशालकाय परिसर थे। निकट ही, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहकार और ‘कृष्णायन’ ग्रन्थ के रचयिता, पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र का निवास था। थोड़ा आगे चलकर, जबलपुर यूनिवर्सिटी थी, जिसका नामकरण अब रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय हो गया है।

सेठ गोविंददास लंबे समय तक जबलपुर के सांसद रहे। उन्होंने हिंदी की सेवा की और ‘केरल के सुदामा’ तथा अन्य रचनाओं का अपनी कलम से सृजन किया। मुझे तो उस वक्त शहर के सबसे बड़े विद्वान दर्शनाचार्य गुलाबचंद्र जैन प्रतीत होते थे क्योंकि पाठ्यक्रम में उन्हीं की लिखी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं! सेठ गोविंददास के बाद, विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष, शरद यादव, अगले सासंद चुने गए।

जब हमने कॉलेज में दाखिला लिया (1971), तो उसके तुरंत बाद पाकिस्तान से दूसरा युद्ध हुआ और बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ। जनरल नियाज़ी और उसके साथ आत्म-समर्पण करने वाले पाक सैनिकों को कॉलेज के पास ही आर्मी एरिया में कैद रखा गया था। हम रांझी से साइकिल में, गन कैरेज फैक्ट्री होते हुए, सेंट्रल स्कूल के परिसर के अंदर से शॉर्टकट लेकर, कॉलेज की पिछली ओर साइकिल स्टैंड में पहुंचते थे। कुछ समय तक वेस्टलैंड खमरिया से, प्रदीप मित्रा का साथ मिला। लंबे रास्ते में हम कार्ल मार्क्स के साम्यवाद और अमेरिका में पूंजीवाद की चर्चा करते थे। मुझे तो इन विषयों की कोई खास समझ नहीं थी लेकिन प्रदीप, फर्ग्यूसन कॉलेज पूना और आई आई टी कानपुर होते हुए, अमेरिका पहुंचकर वहां प्रोफेसर बन गया।

कॉलेज में पढ़ाई का अनुकूल वातावरण था और प्रोफ़ेसर बहुत योग्य थे। प्रोफेसर हांडा हमें गणित पढ़ाते थे। वह बहुत लंबे थे। गर्दन टेढ़ी कर कार चलाते थे। क्लास के अंत में पूछते, “एनी क्वेशचन?” जब हम ‘न’ में सिर हिलाते, तो वो बोलते, “नो क्वेशचन, वैरी इंटेलीजेंट!” छोटे कद के, अत्यंत प्रखर, डॉ प्रेमचंद्र, गणित के हमारे दूसरे प्रोफेसर थे। उनकी मूछें बहुत आकर्षक थीं। वे ‘इक्वेशन’ और ‘इक्वल टू’ का बहुत अजीबोगरीब और नाटकीय उच्चारण करते थे। ऐसा करने में, उनकी मूछें, तराजू के दो पलड़ों की तरह ऊपर-नीचे झुक जाती थीं – एक नीचे की तरफ और दूसरी ऊपर की ओर!

केमिस्ट्री के प्रोफेसर डॉ महाला और मिश्रा सर सादगी की प्रतिमूर्ति लेकिन गहन विद्वान थे। महाला सर तो ब्लैकबोर्ड के सामने बीचोंबीच खड़े होकर, दोनों तरफ दाएं और बाएं हाथ से एक जैसा लिखते थे। सहस्त्रबुद्धे सर पुलिस अधिकारी की तरह कड़क थे, हम उनसे डरते थे। फिजिक्स डिपार्टमेंट के प्रोफेसर एस के मिश्रा और निलोसे सर बहुत सौम्य थे। उन्हें विषय का गहरा ज्ञान था। पालीवाल सर अप्लाइड मैथेमेटिक्स के अंतर्गत स्टेटिस्टिक्स पढ़ाते थे। उनका पढ़ाने का ढंग मज़ेदार था। वो पढ़ाते वक्त, कलाई को स्पिन गेंदबाज की तरह घुमाते थे, आँखें भी गोलगोल नचाते थे और उनकी जीभ भी घिर्रघिर्र करती थी। वे जब कक्षा को ‘कोरिलेशन’ का गणितीय पाठ पढ़ा रहे होते तो छात्र उस युग की तारिकाओं, शर्मीला टैगोर, वहीदा रहमान, तनूजा और डिंपल कपाड़िया के सौंदर्य का आपस में कोरिलेशन ढूंढ रहे होते।

जबलपुर उन दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन की महत्वपूर्ण टेरिटरी हुआ करती थी। राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप हुई तो उन्होंने, नुकसान की भरपाई के लिए, एक बोल्ड फिल्म ‘बॉबी’ बना डाली जिसने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इस शहर में, ‘दो रास्ते’ और ‘जय संतोषी मां’ जैसी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। पुराने समय में तो श्याम टॉकीज, श्रीकृष्णा, सुभाष, प्लाजा, विनीत और लक्ष्मी टॉकीज जैसे ही पुराने सिनेमा हॉल थे। फिर, कुछ अच्छे बने जैसे ज्योति टॉकीज, आनंद और शीला टॉकीज। प्रेमनाथ की एम्पायर टॉकीज और डिलाइट टॉकीज का अपना ऑडियंस था। वहां हमने ‘द गंस ऑफ नेवरोन’, ‘एंटर द ड्रैगन’ और चार्ली चैपलिन की फिल्में देखीं। डिलाइट में एक बार हंगेरियन फिल्म फेस्टिवल भी आयोजित हुआ था।

हमारे सहपाठी थे – विजय कुमार चौरे, इंद्र कुमार दत्ता, जी पी दुबे, पी पी दुबे, अरविंद हर्षे, विजय कुमार बजाज, प्रवीण मालपानी (सेठ गोविंददास के नाती), रविशंकर रायचौधुरी, प्रदीप मित्रा, आशीष बैनर्जी… और मैं, जगत सिंह बिष्ट। एक नाम मैं भूल रहा हूं। उनकी उम्र हमसे कुछ अधिक थी और वो शायद सिहोरा के आसपास से आते थे। उनका स्वभाव अत्यंत मृदु था। दो छात्र यमन से पढ़ने आए थे – अब्दुल रहमान सलेम देबान और उमर बशर। हमारी कक्षा में दो ही छात्राएं थीं – मंजीत कौर और  उमा देवी। हम सब शुद्ध, सात्विक और दूध के धुले थे। न जाने किस मनचले ने कन्याओं की बेंच की ओर, चुपके से प्रेमपत्र खिसका दिया। तत्पश्चात वह प्रतिदिन उत्तर की प्रतीक्षा करता। कुछ दिन खामोशी रही। आखिर उस तरफ से, उस लड़के को एक पर्ची पहुंची, जिसमें लिखा था – “ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे!”

कॉलेज परिसर में एक छोटी सी कैंटीन थी जिसमें चाय और समोसे मिलते थे। कभी कभी हम कुछ दोस्त इंडियन कॉफी हाउस (सदर या सिटी) जाकर डोसा और कॉफी का लुत्फ़ उठाते थे। शायद इसी के लिए, हमें हर महीने स्कॉलरशिप मिलती थी। प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर ही बाबू लोग बैठते थे। हमें तो कोई परेशानी नहीं होती थी लेकिन अरविंद को अपने पिताजी को लेकर आना पड़ता था क्योंकि वो इतना मासूम लगता था कि बाबू उसके हाथ में पैसे देने से हिचकिचाते थे। तत्कालीन प्रिंसिपल, कालिका सिंह राठौर बहुत सख़्त थे। अनुशासन का पालन न करने वाले को ऐसी डांट लगाते थे कि वो तौबा करने लगता था।

इस बार मैं न्यूज़ीलैंड गया तो बेटे ने अपने दोस्त रौनक से मिलवाया। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके पापा भी जबलपुर के हैं और साइंस कॉलेज से पढ़े हैं। निकुंज श्रीवास्तव नाम है उनका। मॉडल स्कूल और साइंस कॉलेज में पढ़े हैं। हम दोनों ने स्कूल 1971 में पास किया और दोनों ही 1974 में ग्रेजुएट हुए। कॉलेज में सेक्शन जरूर अलग अलग थे। मिलते ही, पहली बात उन्होंने पूछी, “तुमने कॉलेज में घोड़े की आवाज़ सुनी थी?” मैंने कहा, “हां, कई बार।” बोले, “वो मैं ही था!” मैंने पूछा, “आपको एक बार सस्पेंड भी कर दिया था न?” बोले, “हां, एक बार नहीं, सात बार सस्पेंड हुआ हूं!” ज़बरदस्त शख्सियत है उनकी! लगता है, मेले में बिछुड़ गए थे हम। अब मिले हैं। उनसे मिलकर बहुत आनंद आता है। लगता है, अभी भी वही कॉलेज के दिन चल रहे हैं। वही उमंग, वही मस्ती। ढेर सारे किस्से हैं उन दिनों के जाे एक के बाद एक याद आते हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता।

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© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

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The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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