हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #87 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #87 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 3 ☆ 

भोपाल :- वर्तमान मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में गांधीजी अपने तीन दिवसीय प्रवास पर  सितंबर 1929 में रियासत के नवाब हमीदुल्ला खान के आमंत्रण पर पधारे। भोपाल में एक आमसभा बेनज़ीर मैदान में आयोजित की गई और यहां  गांधीजी का सावर्जनिक अभिनंदन किया गया। गांधीजी नवाब की सादगी भारी जीवन शैली से प्रभावित हुए और इसकी प्रसंशा उन्होंने आम सभा में भी की।  गांधीजी ने अपने भाषण में कहा कि “ देशी लोग भी यदि पूरी तरह प्रयत्नशील हों तो देश में रामराज्य की स्थापना की जा सकती है।  रामराज्य का अर्थ हिन्दू राज्य नहीं वरन यह ईश्वर का राज्य है। मेरे लिए राम और रहीम में कोई अंतर नहीं है। मैं सत्य और अहिंसा से परे किसी ईश्वर को नहीं जानता। मेरे आदर्श राम की हस्ती इतिहास में हो या न हो, मुझे इसकी परवाह नहीं। मेरे लिए यही काफी है कि हमारे  रामराज्य का प्राचीन आदर्श शुद्धतम  प्रजातन्त्र का आदर्श है। उस प्रजातन्त्र में गरीब से गरीब रैयत को भी शीघ्र और बिना किसी व्यय के न्याय मिल सकता था। “

गांधीजी ने यहां  भी अस्पृश्यता निवारण की अपील की और हिन्दू मुस्लिम एकता पर जोर दिया और अजमल जामिया कोष  के लिए लोगों से चन्दा देने की अपील की। गांधीजी को भोपाल की जनता ने खादी के कार्य के लिए रुपये 1035/- की थैली भेंट की। उन्होंने मारवाड़ी रोड स्थित खादी भंडार का अवलोकन किया।

उसी दिन 11 सितंबर 1929  की शाम को राहत मंजिल प्रांगण में सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन हुआ और इसमें भोपाल के नवाब अपने अधिकारियों के साथ न केवल सम्मिलित हुए वरन फर्श पर  घुटने टेक कर प्रार्थना सुनते रहे। गांधीजी ने लौटते समय सांची के बौद्ध स्तूप देखने गए और वहां से आगरा चले गए.

जबलपुर :- महाकौशल के सबसे बड़े नगर, मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर, देश के उन  चंद शहरों में शामिल है, जिसे गांधीजी का स्वागत करने का अवसर चार बार मिला। गांधीजी पहली बार जबलपुर 21 मार्च 1921 को पधारे। जबलपुर से उन्हे कलकत्ता जाना था और उस दिन सोमवार था , गांधीजी का पवित्र दिन यानि  मौन व्रत, इसीलिए कोई आमसभा तो नहीं हुई पर उन्होंने सी एफ एंड्रयूज़ को जो पत्र लिखा उसमें मद्यपान और सादगी से रहने की उनकी सलाह पर लोगों के द्वारा अमल किए जाने की बात कही। गांधीजी का प्रभाव था कि  लोग मद्य व अफीम के व्यापार को समाप्त कर देना चाहते थे पर सरकार उनके इन प्रयासों को विफल करने में लगी थी ऐसा उल्लेख इस पत्र में उन्होंने किया। इस दौरान गांधीजी के साथ उनकी नई शिष्या मीरा बहन भी आई थी और वे खजांची चौक स्थित श्याम सुंदर दास भार्गव की कोठी में ठहरे थे.

दूसरी बार गांधीजी देश व्यापी हरिजन दौरे के समय,  सागर से रेल मार्ग से कटनी और फिर सड़क मार्ग से स्लीमनाबाद, सिहोरा, गोसलपुर, पनागर होते हुए, जहां आम जनता ने जगह जगह उनका भव्य स्वागत किया, जबलपुर दिनांक 03 दिसंबर 1933 को पधारे और साठियां कुआं स्थित व्योहार राजेन्द्र सिंह के घर ठहरे। जब गांधीजी का मोटर काफिला जबलपुर पहुंचा तो रास्ते में भारी भीड़ उनके दर्शन के लिए जमा थी और इस कारण गांधीजी को निवास स्थल तक पहुंचने  के लिए मोटरकार से उतरकर कुछ दूर पैदल चलना पड़ा था। यहां उनके अनेक कार्यक्रम हुए। शाम को  गोलबाज़ार के मैदान में आयोजित एक आमसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘यदि ऊंच नीच के  भेद को समूल नष्ट कर देने का यह प्रयत्न सफल हो जाता है तो जीवन के सभी क्षेत्रों में इसकी स्वस्थ प्रतिक्रिया होगी और पूंजी व श्रम के बीच की लड़ाई खत्म हो जाएगी और इसके स्थान पर दोनों में सहयोग और एकता स्थापित हो जाएगी। उन्होंने कहा कि यदि हम  हिन्दू धर्म से अस्पृश्यता समाप्त करने में सफल हो जाते हैं तो आज भारत में हम जो वर्गों और संप्रदायों के बीच लड़ाई देख रहे हैं वह खत्म हो जाएगी। हिन्दू और मुसलमान के बीच तथा पूंजी और श्रम के बीच का मतभेद समाप्त हो जाएगा।‘ धार्मिक आंदोलनों की विवेचना करते हुए गांधीजी ने कहा कि ‘धार्मिक आंदोलनों की विशेषता यही है कि आने वाली सारी बाधाएं  ईश्वर की कृपा  से दूर हो जाती हैं।‘  गांधीजी को नगर की अनेक सार्वजनिक संस्थाओं और नेशनल ब्वायज स्काउट ने अभिनंदन पत्र भेंट किया और गांधीजी ने सभी सच्चे स्काऊटों को आशीर्वाद दिया। 4 दिसंबर को गांधीजी का पवित्र दिन मौन दिवस था इस दिन उन्होंने अपने अनेक साथियों को पत्र लिखे। लगातार दौरे के कारण गांधीजी को कमजोरी महसूस हो रही थी अत:  उनके चिकित्सक डाक्टर अंसारी द्वारा विश्राम की सलाह दी गई और हरिजन दौरे के आयोजकों को परामर्श दिया गया कि आगे के दौरों में एक दिन में अधिकतम चार घंटे का ही कार्यक्रम रखा जाए, बाकी समय आराम के लिए छोड़ दिया जाए। जबलपुर के गुजराती समाज ने गांधीजी के हरिजन कोष  हेतु रुपये छह हजार का दान दिया।

06 दिसंबर 1933 को गांधीजी ने मंडला में एक सभा को संबोधित  करते हुए कहा कि मैं चाहता हूं कि आप अपने  विश्वास पर तो सच्चे रहें और यदि इस मामले में (अस्पृश्यता के लिए) आप मुझसे सहमत नहीं हैं तो मुझे ठुकरा दें। ‘ लौटते समय वे नारायांगंज में रुके भाषण दिया, एक हरिजन के निवास पर भी गए। (ऐसा उल्लेख मेरे मित्र जय प्रकाश पांडे ने अपनी एक कहानी में किया है।)

07 दिसंबर 1933 को अपने जबलपुर प्रवास के अंतिम दिन गांधीजी ने हितकारिणी हाई स्कूल में आयोजित महिलाओं की सभा को संबोधित किया। इसके बाद गांधीजी खादी भंडार, और वहां से जवाहरगंज और गोरखपुर गए, गलगला में हरिजनों की सभा को संबोधित किया  और सदर बाजार स्थित दो मंदिरों के द्वार  हरिजन प्रवेश हेतु खुलवाए।  गांधीजी ने लिओनार्ड थिओलाजिकल कालेज में एक सभा को संबोधित किया और कहा कि ‘मैं संसार के महान धर्मों की समानता में विश्वास करता हूं और मैंने शुरू से ही दूसरे धर्मों को अपना धर्म समझना सीखा है, इसीलिए इस आंदोलन में (अस्पृश्यता के लिए)  शामिल होने के लिए दूसरे धर्मों के अनुयाईओं को आमंत्रित करने और उनका सहयोग लेने में कोई कठिनाई नहीं है। ‘ गांधीजी ने उपस्थित लोगों से अपील की कि वे हरिजन सेवक संघ के माध्यम से हरिजनों की सेवा करें और यदि वे उनका धर्म परिवर्तन कर उन्हे ईसाई बनाएंगे तो अस्पृश्यता निवारण के लक्ष्य में हम लोग  असफल हो जाएंगे।  उन्होंने ईसाइयों से कहा कि यदि आपके मन में यह विश्वास है कि हिन्दू धर्म ईश्वर की देन  न होकर शैतान की देन  है तो आप हमारी मदद नहीं कर सकते  और मैं ईमानदारी से आपकी मदद की आकांक्षा भी नहीं कर सकता।‘        

इस दौरे के बाद आठ वर्षों तक उनका जबलपुर प्रवास नहीं हुआ और 27 फरवरी 1941 को इलाहाबाद में कमला नेहरू स्मृति चिकित्सालय का उद्घाटन करने जाते समय वे अल्प काल के लिए जबलपुर में रुके और भेड़ाघाट के भ्रमण पर गए।

अगले वर्ष 1942 पुन: उनका जबलपुर में अल्प प्रवास हुआ और मदनमहल स्थित द्वारका प्रसाद मिश्रा के घर पर रुककर उन्होंने स्थानीय काँग्रेसियों से व्यापक विचार विमर्श किया। उनके आगमन की तिथि पर कुछ मतभेद हैं। कुछ स्थानों पर इस तिथि को 27 अप्रैल 1942 बताया गया है। इस दौरान अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में हुई थी पर गांधीजी उस बैठक में स्वयं शामिल नहीं हुए थे।  उन्होंने इस बैठक में अपने विचार एक पत्र के माध्यम से मीरा बहन के माध्यम से भिजवाए थे। बाद में वे 9 अगस्त 1942 से 06 मई 1944 तक आगा खान पैलेस में नजरबंद रहे। गांधीजी 20 जनवरी 1942 को वर्धा से बनारस गए थे संभवतया इसी दौरान वे जबलपुर अल्प समय के लिए रुके होंगे.

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ याद गली से…. आकाशवाणी जम्मू की क्षेत्रीय समाचार इकाई के 50 साल ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है  आकाशवाणी जम्मू की क्षेत्रीय समाचार इकाई के 50 वर्ष पूर्ण होने पर आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण  ‘याद गली से…. आकाशवाणी जम्मू की क्षेत्रीय समाचार इकाई के 50 साल । हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ संस्मरण  ☆ याद गली से…. आकाशवाणी जम्मू की क्षेत्रीय समाचार इकाई के 50 साल ☆  

1970 का दशक वह समय था जब रेडियो समाचारों का सबसे विश्वसनीय लोकप्रिय माध्यम था।

1971 में पाकिस्तान के साथ 3 दिसंबर को युद्ध शुरू हो गया था और उसी समय फैसला लिया गया कि तुरंत जम्मू स्टेशन से स्थानीय समाचारों का बुलेटिन शुरू किया जाए जो पाकिस्तान के दुष्प्रचार का जवाब देते हुए सही सच्ची खबरें जनता तक उन्ही की अपनी डोगरी भाषा में पहुंचाए। जाने माने डोगरी लेखक व पत्रकार ठाकुर पूंछी दिल्ली से आए और 6 दिसंबर को पहला बुलेटिन प्रसारित कर दिया। इस बुलेटिन के संपादक, संवाददाता व समाचार वाचक सब कुछ ठाकुर पूंछी ही थे।

दिन बीते तो सुविधाएं और साधन भी बढ़े।

हर्ष का विषय है कि आकाशवाणी जम्मू की क्षेत्रीय समाचार इकाई ने अपने अस्तित्व के 50 गौरवशाली वर्ष पूरे कर लिए हैं और मैं लगभग 20 वर्षों तक इसका हिस्सा रहा हूं।

ठाकुर पूंछी के बाद एक और साहित्यकार डी.आर. किरण कश्मीरी आए। फिर  ए एन कोकारिया और अशोक हांडू ने आने वाले वर्षों में समाचार इकाई की कमान संभाली।

पूर्व आर्मी कैप्टन पी जे एस त्रेहन पहले संवाददाता बने और उनके बाद जून 1979 में मैंने संवाददाता का कार्यभार संभाला। अलबेल सिंह ग्रेवाल उस समय स्टेशन डायरेक्टर थे।

लज्जा मन्हास, नरेंद्र भसीन व जोगिंदर पल सराफ उर्फ छतरपाल तीन नियमित न्यूजरीडर थे। आकस्मिक समाचार वाचकों का एक पैनल भी था। कुछ समय बाद दिल्ली से पहले सुदर्शन पराशर व फिर चंचल भसीन भी न्यूज रीडर के तौर पर आए।

हमने सप्ताह में दो बार क्षेत्रीय समाचार समीक्षा भी शुरू की जिसका आलेख स्थानीय पत्रकार लिखते थे।

पीएल गुप्ता, रतन अत्री और राजेश टिकू हमारे बेहद कुशल स्टेनोग्राफर थे ।

हमने साप्ताहिक न्यूज़रील कार्यक्रम भी शुरू किया ।  इसके लिए सीएल शर्मा, रचना विनोद, सुभाष शर्मा और राजेंद्र गुप्ता मेरे साथी थे ।

मुझे सभी मतगणना केंद्रों से टेलीफोन हॉटलाइन के साथ चुनाव परिणामों की लाइव कवरेज भी याद है ।  उस समय फैयाज शहरयार स्टेशन डायरेक्टर थे ।  वे बाद में ऑल इंडिया रेडियो के महानिदेशक बने और हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं ।

ये सभी लोग अत्यधिक प्रतिभाशाली थे और उन्होंने रेडियो कार्यक्रमों व समाचारों का उच्च स्तर बनाने में उल्लेखनीय योगदान किया।

शेख अब्दुल्ला की वापसी

(मुख्यमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ। बीच में यशगंदोत्रा, तत्कालीन उप निदेशक सूचना विभाग)

जम्मू कश्मीर में आकाशवाणी के संवाददाता के रूप में काम करने के बीस वर्ष मेरे लिए इतिहास की गवाही का समय रहे।

शेख मोहम्मद अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे और हमें विधान सभा में कुछ बड़ी दिलचस्प बहस सुनने को मिलती थी।

1975 में शेख अब्दुल्ला को सत्ता में लाने वाली कांग्रेस पार्टी ने बाद में  साथ छोड़ दिया और शेख अब्दुल्ला ने 1977 में अपने दम पर चुनाव जीता था। नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस की प्रतिद्वंद्विता तेजी से बढ़ रही थी ।

1982 में शेख का निधन हो गया और उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पूर्ण समर्थन के साथ मुख्यमंत्री बने ।

(राष्ट्रपति वेंकटरमन का साक्षात्कार, साथ में डॉ फारूक अब्दुल्ला)

कश्मीर बनाम जम्मू प्रतिद्वंदिता राज्य में  बड़े लंबे समय से चलती आ रही है।  क्षेत्रीय भेदभाव जम्मू के लोगों की स्थायी शिकायत रही है ।  कश्मीरी नेतृत्व दरबार बदल की प्रथा को खत्म करना चाहता था, लेकिन जम्मू बार एसोसिएशन ने 1980 के दशक में एक लंबे आंदोलन के माध्यम से ऐसा नहीं होने दिया ।

लगभग हर बार जब दरबार जम्मू में शिफ्ट होता था, तो पहले दिन बंद का आह्वान होता था ।

राजनीति और उग्रवाद

(चुनाव-1996 के परिणाम की लाइव रेडियो कवरेज जम्मू से। बाएं से, चुनीलाल शर्मा, फय्याज शहरयार स्टेशन डायरेक्टर, सुभाष शर्मा, अजीत सिंह वरिष्ठ संवाददाता, के सी मन्हास और पी एल राज़दान.)

नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने संयुक्त रूप से 1987 का विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की ।   चूंकि कोई विश्वसनीय भारत समर्थक विपक्षी दल कश्मीर घाटी में मैदान में नहीं बचा था और राजनीतिक शून्य  मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के उदय और 1989-90 में उग्रवाद के विस्फोट के रूप में उभरा।  जम्मू क्षेत्र में भी आने वाले वर्षों में उग्रवाद का बुरा असर पड़ा।  मैंने डोडा जिले के ग्राम चपनारी में एक भीषण नरसंहार की खबर भी कवर की थी  जिसमें दो बारातों के 25 सदस्यों को आतंकवादियों ने बेरहमी से कत्ल कर दिया था। मारे गए लोगों में दोनों दूल्हे भी शामिल थे। ।  उनकी दुल्हनें अपने ससुराल के घरों तक पहुंचने से पहले ही विधवा हो गई थीं ।  समाचार पत्रों में अपने पतियों के शवों पर दुल्हनों के रोने की तस्वीरें दिल को दहलाने वाली थी।

मौलाना आजाद स्टेडियम में जब गवर्नर,  जनरल केवी कृष्णराव 26 जनवरी 1995 को जब अपना रिपब्लिक डे संबोधन दे रहे थे, तब वहां बम विस्फोट का समाचार भी मैंने दिया।  मेरे एक मित्र अबरोल सहित 8 लोग वहां शहीद हुए।

दूरदर्शन केंद्र श्रीनगर के स्टेशन डायरेक्टर लसा कौल ने रेडियो कॉलोनी जम्मू में मेरे घर पर नाश्ता किया और एक दिन बाद 13 फरवरी 1990 को जब वह वापस श्रीनगर गए तो आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी ।

मलिका पुखराज

जम्मू का सांस्कृतिक दृश्य भी बड़ा जीवंत था। अभिनव थियेटर और डोगरी संस्था गतिविधियों के केंद्र थे ।

प्रसिद्ध गायिका मलिका पुखराज 1988 में पाकिस्तान से अपने पैतृक शहर के जम्मू  लौटीं तो कई कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। मैंने उनके साथ रेडियो के लिए आधे घंटे का साक्षात्कार रिकॉर्ड किया ।

वैष्णो देवी और कप्लाश यात्रा

मैंने जम्मू क्षेत्र के लगभग सभी क्षेत्रों का दौरा कर वहां के जीवन के समाचार रेडियो पर प्रसारित किए। भदरवाह के रास्ते  कप्लाश झील के लिए लम्बी दुर्गम यात्रा एक अद्भुत अनुभव था ।  प्रीतम कटोच मेरे साथी थे और हमने भदरवाह से सियोज धार, वहां से  कप्लाश झील और आगे बनी व बसोहली तक लगभग 110 किलोमीटर तक पर्वतीय क्षेत्र में ट्रेकिंग की थी ।

माता वैष्णोदेवी की यात्रा तो अक्सर करते थे लेकिन मुझे याद है जब राज्यपाल जगमोहन ने पुरानी व्यवस्था बदल कर माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड की स्थापना की थी ।  1979 तक, लगभग तीन लाख तीर्थयात्री सालाना वैष्णोदेवी यात्रा पर आते थे । अगले बीस साल में यह संख्या 50 लाख पार कर चुकी थी। सुविधाओं में व्यापक सुधार हुआ।

सलाल बिजलीघर व  ऊधमपुर रेल।

मैं साल 1980 में सलाल बांध जल विद्युत परियोजना स्थल पर था जब इसकी धारा को मोड़ने के लिए बनाई गई  सुरंग चालू की गई थी । कई वर्ष बाद जब जलाशय में पानी भरा गया और बिजली उत्पादन शुरू हुआ तो तीन दिन तक मैं वही रह कर समाचार देता रहा।

मैं ऊधमपुर में था जब इंदिरा गांधी ने बरसात के दिन 1983 में जम्मू-ऊधमपुर रेलवे लाइन की नींव रखी थी । दिल्ली से ऑल इंडिया रेडियो के संवाददाता  एसएम कुमार के साथ मैंने  जम्मू से ऊधमपुर तक रेल लाइन के प्रस्तावित ट्रैक के साथ  यात्रा की और  लोगों की आकांक्षाओं को रिकॉर्ड किया ।  जब मैंने एक छात्र से पूछा कि क्या उसने ट्रेन देखी है, तो उसका सीधा सादा सा  जवाब  था कि उसने अपनी किताब में एक ट्रेन देखी है ।  मैं कुछ पुराने लोगों से मिला, जिन्होंने अपने जीवन में ट्रेन में कभी यात्रा नहीं की थी ।

एक बार कुछ मजदूर बाहु किले के नीचे निर्माणाधीन रेल सुरंग के अंदर फंस गए थे ।  डिप्टी चीफ इंजीनियर सुरिंदर कौल की अगुवाई में इंजीनियरों की यह बड़ी कामयाबी थी कि तीन दिन बाद सभी को सुरक्षित निकाल लिया गया । मजदूरों ने वे तीन दिन ऑक्सीजन की कमी के साथ घुप अंधेरे में बिताए थे।

रेलवे लाइन तैयार होने में काफी समय लगा, लेकिन 1998 में दिल्ली ट्रांसफर के समय मैंने पहले स्टेशन बजालटा तक तवी नदी के पार पहाड़ पर चलती ट्रेन को देखा था।

श्रीनगर, दिल्ली और कारगिल तक

1990 में लसा कौल की हत्या के बाद बंद हुई क्षेत्रीय समाचार इकाई को फिर चालू करने के लिए  मुझे वरिष्ठ संवाददाता के पद पर तरक्की देकर 1992 में श्रीनगर भेजा गया था पर जम्मू से संबंध बना रहा क्योंकि सर्दियों के छह महीनों के लिए  दरबार के साथ जम्मू आना होता था।

1998 में जब मेरा तबादला दिल्ली हुआ तो अंजलि शर्मा ने जम्मू और कश्मीर के मेरे अनुभव पर इंटरव्यू रिकॉर्ड किया।

मैं जून 1999 में कारगिल युद्ध को कवर करने के लिए 26 दिनों के टूर पर दिल्ली से गया था। जिस दिन टाइगर हिल पर कब्जा हुआ उस दिन मैं द्रास से होकर कारगिल पहुंचा था। वापसी में दोस्तों से मिलने के लिए जम्मू में रुका था ।  अंजलि ने फिर से मेरा साक्षात्कार लिया कि मैंने कारगिल में क्या देखा ।

मित्र और मेंटर

एक संवाददाता को विविध समाचार स्रोतों के साथ निकट तालमेल से कार्य करना होता है ।  इनमें राजनीतिक नेता, ट्रेड यूनियन लीडर, सांस्कृतिक कार्यकर्ता, साथी पत्रकार और राज्य सरकार के अधिकारी शामिल थे ।  मैं विशेष रूप से कहना चाहता हूं कि मुझे सूचना विभाग के उच्च अधिकारियों

के बी जंडियाल,  महेंद्र शर्मा, यश गंदोत्रा,  ज्योतिषवर पथिक और ओ. पी. शर्मा का भरपूर सहयोग मिला।

मैंने अपने जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा जम्मू में बिताया ।  जब मैं 33 साल का था तब मैं वहां गया था और 53 साल की उम्र में वहां से आया।  यह मेरा जम्मू का  अनुभव ही था कि मुझे 1990 में वर्ष के सर्वश्रेष्ठ संवाददाता “कॉरेस्पोंडेंट ऑफ द ईयर” का आकाशवाणी पुरस्कार मिला ।

(1997 में ऑल इंडिया रेडियो जम्मू के स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान मुख्यमंत्री डॉ.फारूक अब्दुल्ला के साथ )

मुझे याद है कि 1997 में मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने रेडियो कश्मीर जम्मू के स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान मुझे ट्रॉफी से सम्मानित किया था ।

किस्सा गोजरी बुलेटिन का।

जम्मू कश्मीर के घुमंतु गुज्जर समुदाय की गोजरी भाषा में बुलेटिन की शुरुआत एक दिलचस्प घटना के साथ हुई।

ऑल इंडिया रेडियो के केंद्रीय अधिकारी इसे शुरू नहीं करना चाहते थे पर एक समय चौधरी गुलजार अहमद के नेतृत्व में आए  गुज्जर प्रतिनिधिमंडल ने घोषणा कर दी कि यदि गोजरी बुलेटिन शुरू नहीं किया गया तो से अपनी भैंसों के झुंड से रेडियो परिसर को भर देंगे। इसकी नोबत नहीं आई।  गोजरी बुलेटिन जल्द ही शुरू हो गया।।  मुंशी खान, अनवर हुसैन और हसन परवाज़  न्यूजरूम में  हमारे साथी थे जो गोजरी बुलेटिन संभालते थे।

एक रिपोर्टर के रूप में, मैं उन महत्वपूर्ण दो दशकों के दौरान जम्मू के इतिहास का गवाह था जब यह क्षेत्र पंजाब और कश्मीर के उग्रवाद के बीच था ।

खंड मिट्ठे लोक डोगरे

मैंने करीब दो दशक पहले जम्मू छोड़ दिया था, लेकिन जम्मू ने मुझे एक दिन भी नहीं छोड़ा है ।  जम्मू की यादें हमेशा मेरे साथ रहेंगी। मैं अपने कई ‘खंड मिट्ठे लोक डोगरे’ दोस्तों की कंपनी को कभी नहीं भूल सकता ।

वेद भसीन, बलराज पुरी, गोपाल सच्चर, बीपी शर्मा, डीसी प्रशांत, मास्टर रोशन लाल और रामनाथ शास्त्री मेरे गुरु जैसे थे ।  उनमें से ज्यादातर अब नहीं हैं ।  मैं केबी जंडियाल, गोपाल सच्चर, विजय वर्मा, प्रीतम कटोच, अनवर हुसैन, अनिल आनंद, नसीब सिंह मन्हास, संत कुमार शर्मा, अंजलि शर्मा और कुछ अन्य जैसे दोस्तों से कभी-कभी बात करता हूं ।

मैं अक्सर यू-ट्यूब पर डोगरी गाने सुनता हूं ।  ‘फौजी परदेसी नौकरा, दिल लगदा नी मेरा हो..’ डोगरी गायिका सरस भारती इन दिनों मेरी फेवरेट हैं।

मैं उन सभी को बधाई देता हूं जो वर्तमान में आरएनयू जम्मू को उसके स्वर्ण जयंती वर्ष में संभाले हुए हैं । आप दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करें, ऐसी मेरी कामना है और आप सभी के लिए आशीर्वाद है।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ तुलाराम चौक ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर रहे हैं। ‘असहमत’ से सहमत होने या न होने के लिए आपको प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ ‘असहमत’ पढ़ना पड़ेगा।)

☆ संस्मरण ☆ तुलाराम चौक ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(भारतीय स्टेट बैंक, तुलाराम चौक, जबलपुर – यादों के झरोखे से, श्री अरुण श्रीवास्तव जी  की कलम से।)

सदाबहार शब्द की परिभाषा शायद यहीं पर चरितार्थ होती हैं. समय के साथ दुकानदारों की पीढ़ियां हेंडिंग ओवर और टेकिंग ओवर की बैंकिंग शब्दावली को साकार करती रहती हैं. ऐसा कहा जाता है कि “वक्त से ही कल और आज होता है याने वक्त की हर शै गुलाम और वक्त का हर शै पे राज़ भी होता है’.

किन्तु, ये चौराहा तो किसी ज़माने के नुक्कड़ सीरियल की याद दिलाता हैं जहां संबंधों की गर्मजोशी वक्त को थाम कर कहती है कि ज्यादा से ज्यादा क्या करोगे वक्त जी, बालों का रंग ले लोगे, चेहरे के नूर को झुर्रियों से एक्सचेंज कर लोगे. तो कर लो कौन तुम्हें पकड़ पाया है. पर तुम्हारी पहुंच और ताकत शरीर की सिर्फ ऊपरी तह तक ही है. झुर्रियों के मालिक के ख्वाबों तक, खयालों तक और सबसे बड़ी बात कि दिलों तक तुम्हारी पहुंच नहीं है.

आज भी जब तुलाराम चौक से गुज़रते हैं वो लोग जिन्होनें स्टेट बैंक में अपनी सुबहों को रातों में बदला था और बदले में पाया था , वेतन, ओवरटाईम, बोनस, इंक्रीमेंट, एरियर्स और प्रमोशन तो उनकी नज़रें उस भवन पर थम जाती हैं जहां से कभी हंसने की आवाजें,और हमेशा ही बैंकिंग हॉल की चहल पहल, कभी सामने बाहर निकल कर नारेबाजी की बहुत सारी यादें उन्हें रामभरोसे होटल की चाशनी से तर खोबे की जलेबी जैसा ही तर कर देती है. गुजरे हुये वक्त को फिर जीने की चाहत, कदमों को होटल की तरफ खींच लेती है और वो ये भूल जाते है कि वो डायबिटीज़ से ग्रस्त हैं. उस वक्त वो बीते समय के नौजवान हीरो बनकर खोबे की जलेबियों से मिले आनंद में डूब जाते है. फिर किशोर कुमार का गाना बाहर नहीं दिलों के अंदर बज़ता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”. जलेबी और मेचिंग गर्म और ताज़े नमकीन के स्वाद के बाद अगला पड़ाव स्वादिष्ट कड़क मीठी अदरकी चाय का होता है जो बाकायदा स्वाद ले लेकर पी जाती है पर फिर भी फीकी लगती है क्योंकि इस चाय को कड़कदार और मज़ेदार बनाने वाली मोतियों याने मित्रों की माला बिखर चुकी है. दिल में एक टीस सी उठती है इन पंक्तियों के साथ “मैं अकेला तो न था, थे मेरे साथ कई, वो भी क्या दिन थे मेरे ,मेरी दुनियां थी नई “ की धुन या गीत गुनगुनाते हुये.

पर अलसेट पाये वक्त के होंठों पर कुटिल मुस्कान आ जाती है जो शायद यादों के तिलस्म में खोये शख्स को वक्त की अहमियत बतलाते हुये कहती है कि –

“सब कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं है, कुछ ऐसा भी है जो हमारे हाथ में है जनाब”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ 

छिंदवाड़ा :- गांधीजी यहां  अली भाइयों (मौलाना मुहम्मद अली एवं मौलाना शौकत अली) के आमंत्रण पर आए और 06 जनवरी 1921 को  एक आमसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने एक तरफ खिलाफत के अपमान का परिमार्जन करने हेतु कांग्रेस के आंदोलन का समर्थन किया तो दूसरी तरफ पंजाब में घटित जलियाँवाला बाग के अन्याय का विरोध भी किया। गांधीजी ने सैनिकों से कहा कि जनरल डायर जैसे  अत्याचारी का बेहूदा हुकूम मानने की अपेक्षा बहादुरी से  उसकी गोली खाकर मरना स्वीकार करें और इस प्रकार  सैनिकों से राजभक्ति की अपेक्षा देशभक्ति को मनुष्य का धर्म मानते हुए उसका अनुपालन करने को कहा। उन्होंने सैनिकों से निर्भय होकर कांग्रेस की सभाओं में शामिल होने का आग्रह किया. उन्होंने उपाधिधारियों से उपाधि त्यागने, वकीलों से वकालत छोड़ देने, पंद्रह वर्ष से अधिक आयु के बालकों से स्कूल छोड़ देने का आह्वान किया। इसके अलावा उन्होंने स्वदेशी के महत्व को रेखांकित करते हुए चरखा चलाने, हिन्दू मुस्लिम एकता को मजबूत करने और अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने का भी अनुरोध किया। जहां एक ओर गांधीजी ने वकीलों और विद्यार्थियों से बहिष्कार की अपील की तो दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टि से कमजोर वकीलों को कांग्रेस की ओर से मदद व विद्यार्थियों से पढ़ाई छोड़ने के बाद देशहित  के अन्य कार्यों से संलग्न होने की सलाह दी। इस प्रकार गांधीजी की  सभा से लोगों का उत्साह बढ़ा और अंग्रेजी शासन व उपाधिधारियों से उनका भय खत्म हुआ।

सिवनी व जबलपुर के अल्प प्रवास पर गांधीजी 20 व 21 मार्च 1921 को पधारे। सिवनी में  सभा को संबोधित करते हुए, कांग्रेस के नेता भगवान दीन यहां गिरफ्तार कर लिए गए थे, इसीलिए जनता का मनोबल बढ़ाने गांधीजी यहां विशेष रूप से आए और भाषण भी दिया। उन्होंने मद्यपान न करने की सलाह दी और कहा कि इससे बेहतर तो गंदे नाले का पानी पीना है।  गंदे नाले का पानी पीने से तो बीमारी होती है पर शराब पीने से आत्मा मलिन हो जाती है।

खंडवा :- इस नगर को महात्मा गांधी का स्वागत करने का अवसर दो बार मिला।  पहली बार बापू मई 1921 में जब वे अंबाला से भुसावल जाते हुए खंडवा में रुके थे। यद्दपि  यहां  उस दिन उन्होनें किसी सभा को संबोधित तो नहीं किया लेकिन रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे स्टेशनों पर उपस्थित जनसमूह को उन्होंने अवश्य संबोधित किया। ऐसे ही एक भाषण में उल्लेख है कि स्टेशन पर आए जनसमूह से उन्होंने तिलक स्मृति कोष के लिए दान देने की अपील की, स्वराज का अर्थ केवल टोपी तक सीमित न रखते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और खादी अपनाने का आग्रह किया और उन्हें  फूल भेंट करने की जगह स्वराज के लिए धन देने को कहा। गांधीजी ने अस्पृश्यता निवारण हेतु भी लोगों से कहा कि भंगी-चमार को अस्पृश्य न माने और उनकी और ब्राह्मण की समान सेवा करें। दूसरी बार गांधीजी 1933 में खंडवा आए और तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष रायचंद नागड़ा के आवास पर रुके। रेलवे स्टेशन पर गांधीजी का स्वागत माखनलाल चतुर्वेदी की बहन कस्तूरी बाई ने सूत की माला पहना कर किया और स्थानीय घंटाघर चौक  में विशाल आमसभा को संबोधित किया और अस्पृश्यता को दूर करने हेतु लोगों से इस पुनीत कार्य में जुट जाने की अपील की। खंडवा में जिस स्थान पर गांधीजी की सभा हुई थी, वहां स्मारक का निर्माण किया गया और उस जगह को गांधी चौक नाम दिया गया। यहां  एक लगे स्मृति पटल  के अनुसार गांधीजी ने 01अप्रैल 1930 को खंडवा में आम सभा को संबोधित किया था, लेकिन यह तिथि सही है पर वर्ष गलत है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 112 ☆ बचपन के दिन…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपके बचपन के संस्करण  ‘बचपन के दिन….’ )  

☆ संस्मरण # 112 ☆ बचपन के दिन….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

बचपन के दिनों को जिंदगी के सबसे सुनहरे दिनों में गिना जाता है। ये वो सबसे खास पल होते हैं, जब न ही किसी चीज की चिंता होती है और न ही किसी चीज की परवाह। हर किसी के बचपन का सफर यादगार और हसीन होता है, इसलिए अक्सर लोगों से मुंह से यह कहते जरूर सुना होगा कि ‘वो दिन भी क्या दिन थे’

बचपन पचपन के बाद थोड़ा ज्यादा याद आता है,

कंचे खेलते वे दिन,

पतंग लूटने की जद्दोजहद,

गिल्ली डंडा की उड़ती हुई गिल्ली,

तितली पकड़ने की भाग-दौड़,

कागज के हवाई जहाज का क्लास रूम में उड़ाना,

समय बिताने के लिए करना है कुछ काम,

हरी थी, मन भरी थी,

लाख मोती जड़ी थी,

राजा जी के बाग में 

दुशाला ओढ़े खड़ी थी, 

अखण्ड अंताक्षरी के मजे।

मोर-पंख किताबों में छुपाना,

स्कूल की छुट्टी होने पर

दौड़ते- भागते

एक दूसरे को टंगड़ी मारना,

वो सच, वो झूठ, वो खेल, वो नाटक, वो किस्से, वो कहानी

परियों वाली……

जबलपुर के नरसिंह बिल्डिंग परिसर में हमारा बीता बचपन,

नरसिंह बिल्डिंग में भले 60-70 परिवार रहते थे पर नरसिंह बिल्डिंग परिसर भरा पूरा एक परिवार लगता था । सभी हम उम्र के दोस्तों के असली नाम के अलावा घरेलू चलतू निक नेम थे, जो बोलने बुलाने में सहज सरल भी होते थे, जो उन 60-70परिवार के लोग बड़ी आत्मीयता से बोलते थे, निक नेम से ही सब एक दूसरे को जानते थे, जैसे फुल्लू, गुल्लू, किस्सू, गुड्डू, मुन्ना, मुन्नी, सूपी, राजू, राजा, नीतू, संजू, बबल, लल्ला, बाला, जग्गू आदि … आदि, सभी सुसंस्कारवान और सबका लिहाज और सम्मान करने वाले…….

तो एक दिन अचानक जयपुर से फुल्लू भाई (अनूप वर्मा) का फोन आया कि नरसिंह बिल्डिंग के फ्लैट नंबर 22  में 46 साल पहले रहने वाले मिस्टर कुमार नासिक से जबलपुर पहुँचे हैं और 46 साल पुरानी यादों को ताजा करने वे नरसिंह बिल्डिंग पहुचे हैं,अनूप ने नंद कुमार का फोन नंबर भी भेजा, हमने कुमार से बात की, पता चला कि वे मानस भवन के पास की पारस होटल में रूके हैं, 46  साल बाद पहली बार किसी को देखना और मिलकर पहली बार बात करना कितना रोमांचक होता है,जब हम और कुमार ने नरसिंह बिल्डिंग के उन पुराने दिनों के एक एक पन्ने को याद करना चालू किया,कुछ हंसी के पल,कुछ पुराने अच्छे लोगों के बिछड़ जाने की पीड़ा आदि के साथ कुमार ने सब परिवारों को दिल से याद किया, लाल ज्योति की याद आई, जग्गू और किस्सू को याद किया,मुरारी से मुलाकात का जिक्र आया,तो छत में रहने वाली नर्स बाई के जग्गू की बात हुई,रवि कल्याण,मीरा,चींना याद आए,ऊधर बिशू राजा ललिता से लेकर साधना, सूपी, शोभा, चिनी, मुन्नी, विनीता, संजू, भल्ला आदि सब कहाँ और कैसे की कुशलक्षेम बतायी गई, सात समंदर पार बैठी जया,नीलम, बड़े फुल्लू,अरविन्द,और सरोज दीदी को भी याद किया, 46 सालों का लेखा जोखा की बात करते हुए कुमार ने हंसी की फुलझड़ियां छोड़ते हुए बताया कि हमारे घर के नीचे फ्लैट नंबर 7और फ्लैट नंबर ८ में ‘ई एस आई’ का अस्पताल था जिसमें नीले रंग का छोटा सा बोर्ड  लगा था जिसमें लिखा था “छोटा परिवार सुखी परिवार ” पर डिस्पेंसरी के ऊपर नौ बच्चे का परिवार, डिस्पेंसरी के बाजू में नौ बच्चों का परिवार फिर बोर्ड में लिखी इबारत का नरसिंह बिल्डिंग में कितने घरों में पालन की समीक्षा में लगा कि नरसिंह बिल्डिंग में नौ बच्चे के परिवार खूब थे,पर गजब ये था कि सभी परिवारों में, अदभुत तालमेल और अपनत्व भाव था, पूरा भारत देश उस नरसिंह बिल्डिंग परिसर में बसा था, सभी त्यौहार सभी मिलजुल कर मनाते, एक नरसिंह बिल्डिंग परिसर ऐसी फलने वाली जगह थी जहाँ हर तरफ से सबके पास विकास के दरवाजे खुले मिले हर किसी ने हर फील्ड में उन्नति पाई ।

कुछ दिन बाद जयपुर से खबर आई कि मित्र छोटा फुल्लू (अनूप वर्मा) नहीं रहा, उसके साथ बिताए बचपन के दिन याद आये तो इतना सारा लिख दिया।

बचपन की सारी यादें साथ हैं,

 वे सारे लम्हें मेरे लिए खास हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – वह निर्णय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ में आज एक संस्मरण

? संजय दृष्टि – संस्मरण – वह निर्णय  ??

स्मृतियों की स्क्रीन पर अबाध धाराप्रवाह चलते रहनेवाला धारावाहिक होता है बचपन। आँखों की हार्ड डिस्क में स्टोर होता है अतीत और विशेषता यह कि डिस्क हमारी कमांड की गुलाम नहीं होती। आज कौनसा महा एपिसोड चलेगा, इसका निर्णय आँख का मीत मन करता है।

एकसाथ कुछ एपिसोड सामने आ रहे हैं। दो तो ट्रेलर हैं, एक मुख्य एपिसोड है। पुणे में चौथी कक्षा में पढ़ने का चित्र घूम रहा है। कमांड हॉस्पिटल के रेजिमेंटल स्कूल की पिद्दी-सी कैंटीन में मिलनेवाली टॉफी की गंध आज भी नथुनों में बसी है। बहुत हद तक पारले की आज की ‘किस्मी’ टॉफी जैसी। सप्ताह भर के लड़ाई-झगड़े निपटाने के लिए शनिवार का दिन मुकर्रर था। शनिवार को स्कूल जल्दी छूटता। हम सब उस दिन हंटर (उन दिनों हम छात्रों में बेल्ट के लिए यही शब्द प्रचलित था) लगाकर जाते। स्कूल से कुछ दूर पर पेड़ों की छांव में वह जगह भी तय थी जहाँ हीरो और विलेन में भिड़ंत होनी होती। कभी-कभी टीम बनाकर भी भव्य (!) युद्ध होता। विजेता टीम या नायक की वीरता की चर्चा दबी ज़ुबान में सप्ताह भर कक्षा के लड़कों में होती। हाँ, आपसी समझदारी ऐसी कि सारी मार-कूट शनिवार तक ही सीमित रहती और सोमवार से शुक्रवार फिर भाईचारा!

दूसरा ट्रेलर लखनऊ का है। पिता जी का पोस्टिंग आर्मी मेडिकल कोर्प्स के सेंटर, लखनऊ आ गया था। हम तो वहाँ पहुँच गए पर घर का लगेज संभवत: चार महीने बाद पहुँचा। मालगाड़ी कहाँ पड़ी रही, राम जाने! माँ के इष्ट हनुमान जी हैं (हनुमान जी को पुरुषों तक सीमित रखनेवाले ध्यान दें)। हमें भी उन्होंने हनुमान चालीसा और संकटमोचन रटा दिये थे। मैं और बड़े भाई मंगलवार और शनिवार को पाठ करते। उसी दौरान माँ ने बड़े भाई को ‘हरहुँ नाथ मम संकट भारी’ की जगह ‘करहुँ नाथ मम संकट भारी’ की प्रार्थना करते सुना। माँ को दृढ़ विश्वास हो गया कि लगेज नहीं आने और तत्सम्बंधी अन्य कठिनाइयों का मूल इस निष्पाप और सच्चे मन से कहे गये ‘ करहुँ नाथ..’ में ही छिपा है!

अब एपिसोड की बात! सैनिकों के बच्चों की समस्या कहिये या अवसर कि हर तीन साल बाद नई जगह, नया विद्यालय, नये मित्र। किसी के अच्छा स्कूल बताने पर ए.एम.सी. सेंटर से लगभग दो किलोमीटर दूर तेलीबाग में स्थित रामभरोसे हाईस्कूल में पिता जी ने प्रवेश दिलाया। लगभग साढ़े ग्यारह बजे प्रवेश हुआ। स्कूल शायद डेढ़ बजे छूटता था। पिता जी डेढ़ बजे लेने आने की कहकर चले गए। कपड़े के थैले में कॉपी और पेन लिए मैं अपनी कक्षा में दाखिल हुआ। कॉपी के पहले पृष्ठ पर मैंने परम्परा के अनुसार श्री गणेशाय नमः लिखा था। विशेष याद ये कि बचपन में भी मैंने पेंसिल से कभी नहीं लिखा। जाने क्या था कि लिखकर मिटाना कभी रास नहीं आया। संभवतः शिक्षित पिता और दीक्षित माँ का पाठ और किसी जन्म का संस्कार था कि ‘अक्षर, अक्षय है, अक्षर का क्षरण नहीं होता’ को मैंने लिखे को नहीं मिटाने के भाव में ग्रहण कर लिया था।

कुछ समय बाद शिक्षक आए। सुलेख लिखने के लिए कहकर चले गए। साथ के छात्र होल्डर से लिख रहे थे। मैंने जीवन में पहली बार होल्डर देखा था। शायद अक्षर सुंदर करने के लिए उसका चलन था। मैंने पेन से सुलेखन किया। लगभग एक बजे शिक्षक महोदय लौटे। हाथ में एक गोल रूलर या एक-डेढ़ फीट की बेंत भी कह सकते हैं, लिए कुर्सी पर विराजे। छात्र जाते, अपनी कॉपी दिखाते। अक्षर सुंदर नहीं होने पर हाथ पर बेंत पड़ता और ‘सी-सी’ करते लौटते। मेरा नम्बर आया। कॉपी देखकर बोले,‘ जे रामभरोसे स्कूल है। इहाँ पेन नाहीं होल्डर चलता है। पेन से काहे लिखे? हाथ आगे लाओ।’ मैंने स्पष्ट किया कि डेढ़ घंटे पहले ही दाखिला हुआ है, जानकारी नहीं थी। अब पता चल गया है तो एकाध दिन में होल्डर ले आऊँगा।…‘बचवा बहाना नहीं चलता। एक दिन पहिले एडमिसन हुआ हो या एक घंटे पहिले, बेंत तो खाना पड़ेगा।’ मैंने बेंत खाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उन्होंने मारने की कोशिश की तो मैंने हाथ के साथ पैर भी पीछे खींच लिए। कपड़े का बैग उठाया और सीधे कक्षा से बाहर!..‘कहाँ जा रहे हो?’ पर मैं अनसुनी कर निकल चुका था। जिन्होंने एडमिशन दिया था, संभवतः हेडमास्टर थे, बाहर अहाते में खड़े थे। अहाते में छोटा-सा गोल तालाब-बना हुआ था, जिसमें कमल के गुलाबी रंग के फूल लगे थे। प्रवेश लेते समय जो परिसर रम्य लगा था, अब स्वाभिमान पर लगी चोट के कारण नेत्रों में चुभ रहा था। हेडमास्टर अपने में ही मग्न थे, कुछ बोले नहीं। शिक्षक महोदय ने भी अब तक कक्षा से बाहर आने की जहमत नहीं उठाई थी। हो सकता है कि वे निकले भी हों पर हेडमास्टर कुछ पूछते या शिक्षक महोदय कार्यवाही करते, लम्बे डग भरते हुए मैं स्कूल की परिधि से बाहर हो चुका था।

एक और संकट मुँह बाए खड़ा था। स्कूल से घर का रास्ता पता नहीं था। पिता जी के साथ दोपहिया पर आते समय थोड़ा अंदाज़ा भर आया था। मैंने उसी अंदाज़े के अनुसार कदम बढ़ा दिये। अनजान शहर, अनजान रास्ता पर अनुचित को स्वीकार नहीं करने की आनंदानुभूति भी रही होगी। अपरिचित डगर पर लगभग एक किलोमीटर चलने पर ए.एम.सी. सेंटर की कम्पाउंड वॉल दिखने लगी। जान में जान आई। चलते-चलते सेंटर के फाटक पर पहुँचा। अंदर प्रवेश किया। शायद डेढ़ बजने वाले थे। पिता जी आते दिखे। मुझे घर के पास आ पहुँचा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। पूछने पर मैंने निर्णायक स्वर में कहा,‘ मैंने ये स्कूल छोड़ दिया।’

बाद में घर पर सारा वाकया बताया। आखिर डी.एन.ए तो पिता जी का ही था। सुनते ही बोले, ‘सही किया बेटा। इस स्कूल में जाना ही नहीं है।’ बाद में सदर बाज़ार स्थित सुभाष मेमोरियल स्कूल में पाँचवी पढ़ी। छठी-सातवीं मिशन स्कूल में।

आज सोचता हूँ कि वह स्कूल संभवतः अच्छा ही रहा होगा। शिक्षक महोदय कुछ गर्म-मिज़ाज होंगे। हो सकता है कि बाल मनोविज्ञान के बजाय वे अनुशासन के नाम पर बेंत में यकीन रखते हों। जो भी हो, पिता जी के पोस्टिंग के साथ स्कूल बदलने की परंपरा में किसी ’फर्स्ट डे-फर्स्ट शो’ की तरह पहले ही दिन डेढ़ घंटे में ही स्कूल बदलने का यह निर्णय अब भी सदा याद आता है।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – दीपावली तब, दीपावली अब ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संस्मरण – दीपावली तब, दीपावली अब ??

दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?

प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।

इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रांगोली रंग बिखेर रही है।

रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।

सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी। हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।

कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।

दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।

पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।

अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।

पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 8:50 बजे, 21.6.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 109 ☆ बहुरूपिए से मुलाकात ….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अत्यंत रोचक संस्मरण  ‘बहुरूपिए से मुलाकात ….’  साथ ही आप  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की  उसी बहुरुपिए से मुलाकात के अविस्मरणीय वे क्षण इस लिंक पर क्लिक कर  >> बहुरुपिए से मुलाकात   

☆ संस्मरण # 109 ☆ बहुरूपिए से मुलाकात ….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

विगत दिवस गांव जाना हुआ। आदिवासी इलाके में है हमारा पिछड़ा गांव। बाहर बैठे थे कि अचानक पुलिस वर्दी में आये एक व्यक्ति ने विसिल बजाकर डण्डा पटक दिया । हम डर से गए, पुलिस वाले ने छड़ी हमारे ऊपर घुमाई और जोर से विसिल बजा दी….. 

….. साब दस रुपए निकालो! सबको अंदर कर दूंगा, मंहगाई का जमाना है, बच्चादानी बंद कर दूंगा। सच्ची पुलिस और झूठी पुलिस से मतलब नहीं,हम बहुरूपिया पुलिस के बड़े अधिकारी हैं, 52 इंच का सीना लेकर घूमते हैं, चोरों से बोलते नहीं, शरीफों को छोड़ते नहीं। थाने चलोगे कि राजीनामा करोगे…. राजीनामा भी हो जाएगा, अभी अपनी सरकार है, और हमारी सरकार की खासियत है कि अपनी सरकार में खूब बहुरुपिए भरे पड़े हैं, मुखिया सबसे बड़ा बहुरूपिया माना जाता है। साब झूठ बोलते नहीं सच को समझते नहीं, राजीनामा हो जाएगा। आश्चर्य हुआ इतने मंहगाई के जमाने में पुलिस वर्दी सिर्फ दस रुपए की डिमांड कर रही है।

हमने भी चुपचाप जेब से दस रुपए निकाल कर बढ़ा दिए। 

अचानक उसकी विनम्रता पानी की तरह बह गई। हंसते हुए उसने बताया – साब बहुरुपिया प्रकाश नाथ हूं…. दमोह जिले का रहने वाला हूँ। मूलत: हम लोग नागनाथ जाति के हैं सपेरे कहलाते हैं सांप पकड़ कर उसकी पूजा करते और करवाते हैं पर सरकार ऐसा नहीं करने देती अब। हम लोग गरीबी रेखा के नीचे वाले जरूर हैं पर उसूलों वाले हैं। जीविका निर्वाह के लिए तरह-तरह के भेष धारण करना हमारा धर्म है। कभी नकली पुलिस वाला, कभी बंजारन, कभी रीछ, कभी भालू और न जाने कितने प्रकार के भेष बदलकर समाज के भेद जानने के लिए प्रयासरत रहते हैं और समाज में फैले अंधविश्वास, विसंगतियों को पकड़ कर उन्हें दूर कराने का प्रयास करते हैं। हम लोग पुलिस मित्र बनकर छुपे राज जानकर पुलिस के मार्फत समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं।बहुरुपिया समाज का अधिकृत पंजीकृत संगठन है जिसका हेड आफिस भोपाल में है वहां से हमें परिचय पत्र भी मिलता है। संघ की पत्रिका भी निकलती है। सियासत करने वाले बहुरुपिए नेता लोग बदमाश होते हैं पर हम लोग ईमानदार लोग हैं ,निस्वार्थ भाव से त्याग करते हुए बहुरुपिया बनकर लोगों को हंसाते और मनोरंजन करते हैं साथ ही समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को जागरूक बनाते हैं। 

उसने बताया कि बड़े शहरों में यही काम बड़े व्यंग्यकार करते हैं जो समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करने के लिए लेख लिखकर छपवाते हैं और पढ़वाते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ ‘यादों की धरोहर’ में स्व. हरिशंकर परसाईं ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ ‘यादों की धरोहर’  में  स्व. हरिशंकर परसाईं ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

[1] साहित्यिक हास्य : परसाई का स्नेह चार्ज

हरिशंकर परसाई ने अपनी पहली पुस्तक – हंसते हैं,  रोते हैंं,  न केवल स्वयं प्रकाशित की बल्कि बेची भी । उनका समर्पण भी उतना ही दिलचस्प था – ऐसे आदमी को जिसे किताब खरीदने की आदत हो और जिसकी जेब में डेढ़ रुपया हो ।

एक मित्र ने कहा – यह क्या सूखी किताब दे रहे हो ? अरे,  कुछ सस्नेह,  सप्रेम लिखकर तो दो ।

परसाईं ने किताब ली और लिखा – भाई मायाराम सुरजन को सस्नेह दो रुपये में ।

मित्र ने कहा – किताब तो डेढ़ रुपये की है । दो रुपये क्यों ?

परसाई का जवाब – आधा रुपया स्नेह चार्ज ।

 

[2] हरिशंकर परसाई कहिन

मेरी कभी कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही । जब पूरी तरह लेखन करने लगा तब भी कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही । मेहनत से लिखता था । बस , यही चाहता था कि लेखन सार्थक हो । पाठक कहें कि सही है ।

मुझे मान सम्मान बहुत मिले । साहित्य अकादमी,  शिखर , मानद डाक्टरेट , प्रशस्ति पत्र  ,,,, ये सब कुछ अलमारी में बंद । कमरे में सिर्फ गजानंद माधव  मुक्तिबोध का एक चित्र । बस । सम्मान का कोई प्रदर्शन नहीं ।

 

[3] बुरा ही बुरा क्यों दिखता है 

एक आरोप मुझ पर लगाया जाता है कि मुझे बुरा ही बुरा क्यों दिखता है ? मेरी दृष्टि नकारात्मक है ।

यह कहना उसी तरह हुआ जिस डाँक्टर के बारे में कहा जाए कि उसे आदमी में रोग ही रोग दिखता है ।

हरिशंकर परसाईं का कहना था कि मैं उन लेखकों में से नहीं जो कला के नाम पर बीमार समाज पर रंग पोतकर उसे खूबसूरत बना कर पेश कर दें । वे लेखक गैर जिम्मेदार हैं । जिम्मेदार लेखक  बुराई बताएगा ही । क्योंकि वह उसे दूर करके बेहतर जीवन चाहता है । वे मुक्तिबोध की पंक्तियां गुनगुनाने लगे

जैसा जीवन है उससे बेहतर जीवन चाहिए

सारा कचरा साफ करने को मेहतर चाहिए

 ‘यादों की धरोहर’ पुस्तक में से  स्व हरिशंकर परसाई जी के साक्षात्कार के अंश

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ डाॅ इंद्रनाथ मदान – पान, मदान और गोदान ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ डाॅ इंद्रनाथ मदान – पान, मदान और गोदान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

पंजाब विश्विद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डाॅ इंद्रनाथ मदान को इसी टैग लाइन के साथ याद किया जाता है -पान , मदान और गोदान । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डाॅ इंद्रनाथ मदान ने पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को जो ऊंचाई दी उसके बल पर देश भर में विभाग का डंका बजता आ रहा है । डाॅ मदान के साथ बहुत सारी मुलाकातें और यादें हैं । व्यंग्य का लहजा आम बातचीत में भी रहता था जैसा उनके व्यंग्य लेखों में । मैं बहुत छोटे से शहर नवांशहर से चंडीगढ़ आता था । पहले पहल फूलचंद मानव के पास , फिर रमेश बतरा और बाद में डाॅ वीरेंद्र मेंहंदीरत्ता के पास । वैसे उन दिनों डाॅ इंदु बाली, राकेश वत्स से भी चंडीगढ़ में ही मुलाकातें होती रहीं । अनेक समारोहों में मिलते रहे । रमेश बतरा तो शामलाल मेंहदीरत्ता प्रचंड की पत्रिका साहित्य निर्झर के संपादन के लिए चर्चित हो रहा था जिसका लघुकथा विशेषांक खूब रहा । डाॅ अतुलवीर अरोड़ा डाॅ मदान के प्रतिभाशाली शिष्यों में से एक थे । 

संभवतः पान, मदान और गोदान की यह टैग लाइन फूलचंद मानव के मुंह से ही शुरू में सुनी । वे ही पहली बार मुझे डाॅ मदान से मिलाने ले गये थे । डाॅ इंद्रनाथ मदान ने मुंशी प्रेमचंद और गोदान पर लिखा । एक मुलाकात में पूछा था मैंने कि क्या आप मुंशी प्रेमचंद से कभी मिले थे ? तब उन्होंने बताया था कि मिला था लेकिन यह ऐसा चित्र है कि उनके जूतों के तस्मे तक ढंग से बंधे नहीं थे । इतने लापरवाह किस्म के आदमी थे लेकिन लेखन में पूरे चाक चौबंद । यह गोदान पढ़ने के बाद समझ लोगे । उनकी कोठी बस स्टैंड के निकट सेक्टर अठारह में थी और हमारे क्षेत्र के विधायक दिलबाग सिंह भी वहीं निकट ही रहते थे । इसलिए जब कभी किसी काम से चंडीगढ़ अपने विधायक के यहां जाना हुआ तो डाॅ मदान की कोठी में भी झांक आता था । 

बहुत प्यारी सी याद आ रही हैं । दिल्ली से डाॅ नरेंद्र कोहली सपरिवार चंडीगढ़ आए तब मुझे भी सूचित किया । मैं चंडीगढ़ खासतौर पर गया । डाॅ कोहली के साथ मैं और रमेश बतरा पिंजौर भी गये । बाद में डाॅ मदान की कोठी पहुंचे । उनके लाॅन में  गोष्ठी चल रही थी । अचानक मुझे उल्टियां लग गयीं माइग्रेन की वजह से । मैं दो तीन बार लाॅन से उठ कर बाथरूम में गया । डाॅ मदान को पता    चला तो रमेश से बोले -क्या यार । कमलेश को फ्रिज में से शराब निकाल कर दो पैग पिला दो । ठीक हो जायेगा । सब तरफ ठहाके और मेरा माइग्रेन काफूर । ऐसे थे डाॅ मदान । हर नया रचनाकार चाहता था कि डाॅ मदान उसके बारे में , लेखन पर दो पंक्तिया लिख दें । डाॅ नामवर सिंह की तरह डाॅ मदान का सिक्का चलता था । रवींद्र कालिया हों या निर्मल वर्मा या फिर राजी सेठ । सबको उन्होंने रेखांकित किया , उल्लेखित किया और चर्चित किया । जब वे जीवन की सांध्य बेला में थे तब मेरा प्रथम कथा संग्रह महक से ऊपर आया था । मैंने उन्हें भेंट किया और कुछ दिन बाद जब दैनिक ट्रिब्यून के लिए उनका इंटरव्यू करने गया तब उन्होंने कहा कि तुमने अपना कथा संग्रह तब दिया जब मैं कुछ भी लिख नहीं पा रहा । पर मैंने सारा पढ़ लिया है और निशान भी लगाये हैं । बहुत संभावनाएं हैं तुम्हारे कथाकार में । ये वे दिन थे जब उन्हें पीजीआई से कैंसर के कारण अंतिम दिन भी बता दिए गये थे और वे मेरे जैसे नये कथाकार को पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे । मैंने कहा कि आप न भी लिख पाएं पर आपका आशीष मुझे मिल गया । मेरे लिए यही बड़ी बात है । 

अब उनके अंतिम इंटरव्यूज के बारे में बताता हूं । यह सन् 1984 के दिनों की बात है जब खटकड़ कलां में मेरे छोटे भाई तरसेम की प्रिंसिपल से ऐसी कहा सुनी हुई कि उसकी नौकरी खतरे में पड़ गयी । मैं उसकी नौकरी बचाने भागा डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के घर आकर रुका । रात खाना खाने लगे तो उन्होंने मुझे उदास देख सारा माजरा पूछा और कौन बाॅस है के बारे में जानकारी ली । जब मैंने अपने वाइस चेयरमैन प्रो प्रेम सागर शास्त्री का नाम लिया तो मेंहदीरत्ता जी बोले कि चुपचाप खाना खा लो । तुम्हारा काम हो गया समझो । असल में प्रेम सागर जी उनके सहयोगी रह चुके थे और परम मित्र थे । वह काम हो भी गया । फिर मैं अपने विधायक के पास दूसरे दिन जाने लगा तब डाॅ मेंहदीरत्ता ने कहा कि हो सके तो डाॅ मदान की खबर सार लेने जाना । वे पीजीआई से घर आ चुके हैं और अकेला महसूस करते हैं । तुम जाओगे तो खुश हो जायेंगे । मैंने वादा किया कि जरूर जाऊंगा क्योंकि आपको याद दिला दूं कि हमारे विधायक की कोठी बिल्कुल पास थी । डाॅ मेंहदीरत्ता ने बताया कि बेशक डाॅ मदान हमारे चेयरमैन थे लेकिन कभी किसी को अपने ऑफिस में नहीं बुलाते थे । जब कोई बात करनी होती तो हमारे ही पास कमरे में आ जाते । कभी अध्यक्ष होने का रौब गालिब नहीं किया ।

 वही किया मैंने जो कहा था डाॅ मेंहदीरत्ता को । विधायक से थोड़ी सी मुलाकात कर मैं डाॅ मदान की कोठी की ओर चल दिया । वे छड़ी पकड़े बाहर ही दिल बहलाने के लिए चक्कर काट रहे थे । मुझे देखकर अंदर चल दिए । हम आमने सामने बैठ गये । मुझे यह आइडिया तक नहीं था कि आज मैं डाॅ मदान की इंटरव्यू करने वाला हूं । वे बहुत खूबसूरत सी यादों में बह गये और बहते चले गये । सचमुच डाॅ मेंहदीरत्ता  ठीक कह रहे थे कि उदास रहते हैं । कुछ बात हो जाए और ज्यादा देर बैठ  सको तो अच्छा रहेगा । वही हुआ । वे यादों में बहते गये और मैं डायरी निकाल नोट्स लेता गया । कुछ कुछ पूछ भी लिये सवाल । काफी देर तक चला यह सिलसिला । ऐसे लगा मानो वे लेखकों पर छड़ी बरसा रहे थे । आखिर मैंने विदा ली । तब तक मैं अपने छोटे से कस्बे नवांशहर से दैनिक ट्रिब्यून का पार्ट टाइम रिपोर्टर भी बन चुका था सन् 1978 दिसम्बर से । इसलिए चंडीगढ़ जाने पर मेरा आकर्षण दैनिक ट्रिब्यून  का कार्यालय भी बन चुका था । वहां से निकल कर मैंने सीधी सेक्टर 29 की लोकल बस पकड़ी और दैनिक ट्रिब्यून में पहुंच गया । विजय सहगल  सहायक संपादक थे और राधेश्याम शर्मा संपादक । विजय सहगल से मैं काफी घुला मिला था सो पहले उनके पास पहुंचा । उन्होंने पूछा कि कहां से आ रही है मेरी सरकार ? जब मैंने बताया कि डाॅ मदान से मिल कर तब अगली बात पूछी कि कोई बात हुई उनसे ? मैंने बताया कि कोई क्यों ? बहुत सारी बातें । तो चलो पहले पंडित जी के पास । पंडित जी यानी संपादक राधेश्याम शर्मा जी । वे जोश में मुझे धकेलते हुए उनके कमरे में दाखिल हुए । बताया कि पंडित जी कमलेश डाॅ मदान से मिलकर आ रहा है । बस । वे तो मानो इसी इंतजार में थे कि कोई आए और डाॅ मदान का इंटरव्यू लिख कर दे दे । सो एकदम आदेश हुआ कि अभी मेरे ऑफिस में सामने मेज़ पर बैठो । पैड उठाओ और इंटरव्यू लिखकर दो । 

मैं हैरान । क्या इस तरह भी लिखना पड़ेगा ? किसी समाचारपत्र के कार्यालय में संपादक के सामने बैठ कर इंटरव्यू लिखना परीक्षा देने जैसा लगा । जैसे तपते बुखार में मैंने परीक्षा की तरह लिखा । राधेश्याम जी को सौपा तो उन्होंने कहा कि इसे मूल्यांकन के लिए विजय सहगल को न देकर रमेश नैयर से करवाते हैं क्योंकि विजय तो आपके दोस्त हैं । उन्होंने रमेश नैयर को वे पन्ने भेज दिए । कुछ समय बाद रमेश नैयर मेरा लिखा इंटरव्यू लेकर आए और बोले कि यह इंटरव्यू मेरे आजतक पढ़े श्रेष्ठ इंटरव्यूज में से एक है । बस । उसी रविवार इसे प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया । एक सवाल था कि सरकारी अकादमियां क्या कर पाती हैं ? डाॅ मदान का जवाब था कि भाषा को संवारने और साहित्य को बढ़ाने का काम सरकारी तौर पर नहीं हो सकता । जब पंजाब का भाषा विभाग बना था तो शुरू में कुछ गंभीरता से काम हुआ था लेकिन बाद में रूटीन बन गया और खाना पीना होने लगा । इतने स्पष्ट जवाब डाॅ मदान ही दे सकते थे । रवींद्र कालिया पर भी टिप्पणी थी कि पहले बहुत बढ़िया लिखा लेकिन अब घास काट रहा है । यानी किसी का लिहाज नहीं । निर्मल  वर्मा का उपन्यास पाठ्यक्रम में न लगवा पाने का भी उन्हें दुख साल रहा था । यह बहुत बड़ी बात भी कही कि यदि गद्य लेखन में यानी कहानी उपन्यास में पंजाब के लेखकों के योगदान की बात करनी है तो इन्हें यदि निकाल दिया जाए तो आधा लेखन रह जाए । इतना योगदान है । 

मैंने कहा कि आप इन दिनों कुछ लिख रहे हैं तो उनका कहना था कि लिखना चाहता हूं लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा । मैंनै सुझाव दिया कि किसी को डिक्टेशन दे दीजिए । आप कहो तो मैं आ जाया करूंगा नवांशहर से । कहने लगे कि जब तक अपने हाथ के अंगूठे के नीचे कलम न दबा लूं तब तक लिखने का मज़ा कहां ? फिर व्यंग्य के मूड में आए कि बताओ आजकल लोग हालचाल पूछने तो आते नहीं । मेरे बाद बड़े बड़े आंसू बहायेंगे और अखबार में शोक संदेश देंगे जैसे मेरे बिना मरे जा रहे हों । प्रकाशकों के बारे में पूछे जाने पर कहा कि जब हिंदी विभाग का अध्यक्ष था तब पीछे पीछे चक्कर काटते थे कि आपकी नयी किताब हम छापेंगे और अब कोई किताब कहूंगा छापने को तो कहेंगे कि हमारे पास आलोचनात्मक पुस्तक के लिए बजट नहीं । सीधी बात यह कि उसी बेरी को पत्थर मारते हैं जिस पर बार लगे हों । अब मैं किसी पद पर नहीं यानी मेरे कोई बेर नहीं लगा तो क्यों आएंगे ?

इस पहली इंटरव्यू का इतना चर्चा हुआ कि राधेश्याम जी ने मुझे नवांशहर से बुलाया और दूसरा इंटरव्यू करने के लिए कुछ प्रश्न दिए और मेरे साथ फोटोग्राफर योग जाॅय को लेकर चले । वहां मुलाकात की । डाॅ मदान कम कहां थे – बोले कि कमलेश को नवांशहर से बुलाकर कुछ दोगे भी या रूखा सूखा इंटरव्यू करवाओगे ? इस हंसी मज़ाक के बीच फिर सवाल जवाब हुए और योग जाॅय का फोटो सैशन भी । सबसे मुश्किल सवाल मुझे दिया था कि पूछ लूं कि अंतिम समय क्या चाहते हैं ? 

इसका जवाब था कि अंतिम समय में मेरी अस्थियों को गंगा में विसर्जित न किया जाए बल्कि सतलुज में विसर्जित की जाएं क्योंकि मैंने इसी का पानी पिया है और अन्न खाया है । यही नहीं चूंकि वे आजीवन अविवाहित रहे थे और अंतिम समय में एक लड़की को गोद ले लिया था तो कोठी और पुस्तकों के भंडार का क्या किया जाए ?

डाॅ मदान की इच्छा थी कि इसे शोधछात्रों को अर्पित किया जाए और यह एक केंद्र बने लेकिन ऐसा नहीं हुआ । गोद ली हुई बेटी ने यह इच्छा पूरी नहीं की । वे विदेश चली गयीं । गोद ली हुई बेटी का नाम सरिता है जिसने हिंदी विभाग से एम ए की । बाद में डाॅ मदान ने उस मुंहफोली बेटी सलिता की विनोद से शादी कर दी और वह फ्रांस चली गयी । आजकल डाॅ मदान की कोठी सरिता ने अपनी बहन को दे रखी है । इस तरह डाॅ मदान की इच्छा अधूरी ही रही । डाॅ मदान और पंजाब विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग जैसे एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे । व्य॔ग्य में एक बड़ा नाम । उन्होंने मुझे अपना व्यंग्य संग्रह भेंट किया जो एक मधुर याद की तरह मेरे पास सुरक्षित है ।  व्यंग्य को लेकर वे कहते थे कि दूसरों पर व्यंग्य करने की बजाय अपने पर करो । यह शेर भी सुनाया करते थे :

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है साकी 

मज़ा तो तब है जो गिरतों को थाम ले साकी

डाॅ मदान ही नहीं , रमेश  बतरा की याद और वो लाॅन पर गोष्ठी और यह कहना कि कमलेश को दो पैग लगवा दे । आज तक हंसी ला देता है मेरे होंठों पर । रमेश बतरा से अनजाने ही दो बातें सीखीं । पहला संपादन । दूसरा संगठन चलाने के लिए गुण । संपादन तो वह दिल्ली की लोकल बस में सफर करते भी करता जाता था । नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करना भी उसी से सीखा । चंडीगढ़ में हर वीकएंड रमेश के साथ बिताता रहा । और उसका आदेश कि एक माह में एक कहानी नहीं लिखी तो मुंह मत दिखाना -बड़ा काम आया । मैं निरंतर कहानी , सारिका , धर्मयुग और नया प्रतीक में प्रकाशित हुआ । 

संभवतः डाॅ इंद्रनाथ मदान के तीन तीन इंटरव्यूज ही मेरे दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बनने का मार्ग प्रशस्त कर गये और उनका यह कहना कि राधेश्याम, कमलेश को कुछ दोगे भी ? यह उपसंपादक बनना शायद उनकी ही दिखाई हुई राह थी । फिर तो इंटरव्यू दर इंटरव्यू  किए और बनी यादों की धरोहर जिसमें संभवतः सबसे लम्बा इंटरव्यू डाॅ मदान का ही है । उनका इंटरव्यू न केवल दैनिक ट्रिब्यून बल्कि राजी सेठ के संपादन में युगसाक्षी पत्रिका में भी आया और पंजाब की पत्रिका जागृति में भी । आह । इतना सच और खरा खरा बोलने वाला आलोचक नहीं मिला फिर और उनका यह मंत्र कि कृति की राह से गुजर कर । यानी जो कृति में है उसी की चर्चा करो । जो नहीं है उसको खोजना या चर्चा करना बंद करो । यह मंत्र बहुत कम आलोचकों ने स्वीकार किया पर यह लक्ष्मण रेखा जरूरी है । डाॅ मेंहदीरत्ता लगातार मांग करते रहे कि मदान विशेषांक निकाला जाए पर वह भी नहीं हो पाया किसी से । सबसे मीठा उलाहना डाॅ अतुलवीर अरोड़ा से बरसों बाद सुनने को मिला कि वे डाॅ मदान के प्रिय और प्रतिभाशाली छात्र जरूर रहे । शोध भी उनके निर्देशन में किया पर उनके भाग्य में डाॅ मदान का साथ और सहयोग कम रहा कि उन्होंने नियुक्ति में तटस्थता अपनाए रखी । खैर,अफसोस । 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares